[size=small][size=large][size=small][size=large][size=small][size=large][size=small][size=large]धीरे-धीरे मैं उन मीठी-मीठी सभी यादों को भूलता गया और अपनी पढ़ाई में मशगूल हो गया| कई साल बीत गए और अब मैं नौंवी कक्षा में आ चूका था| मेरे स्कूल के दोस्तों से मुझे सेक्स का ज्ञान प्राप्त हुआ| मेरी कक्षा में मेरे दोस्त इतने हरामी थे की कक्षा में शिक्षिका के होते हुए भी अपना लंड पेंट से निकाल के एक दूसरे को दिखाया करते थे| परन्तु मुझे ये सब बड़ा ही अभद्र व्यवहार लगता था इसलिए मैंने इस अश्लील काम को कभी भी कक्षा में नहीं किया और यही कारन था की मैं कक्षा का सबसे भोला- भाला विद्यार्थी था| इस साल गर्मियों की छुटियों में पिताजी ने गावों जाने का प्रोग्राम बनाया था, पिताजी की बात सुनके मेरे मन में वही भूली बिसरी यादें वापस आ गईं और में सोचने लगा की क्या भाभी को वो सब याद होगा? मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था, इतना सालों बाद वो हसीन पल आने वाला था| गावों जाने की बात से तो मैं फूला नहीं समां रहा था| अभी तक मैं अपनी इन भावनाओं को समझ नहीं सका था और न ही भाभी और मेरे इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाया था| मेरे लिए तो जैसे एक सुन्हेरा सपना था, जो मेरे अनुसार कभी खत्म नहीं होना चाहिए|
खेर पिताजी ने गावों जाने की टिकट निकलवाई| मैं सारी रात नहीं सो पाया, दिमाग में बस भाभी का ख़याल ही आ रहा था| उनकी वो कातिलाना मुस्कान जिसके लिए मैं कुछ भी कर सकता था| इस बार मैंने मन बना लिया था की इस बार मैं कोई मूर्खता नहीं दिखाऊंगा, उनसे नाराज हो के इस स्वर्णिम मौके को बेकार नहीं करूँगा| सारी रात दिमाग में रणनीतियां बनाता रहा और 4 बजे करीब मेरी आँख लगी|
गावों जाने में केवल एक दिन रह गया था और अब बारी थी पैकिंग करने की| मैंने ख़ुशी-ख़ुशी सारा सामान पैक किया और मेरा इतना उत्साह देख कर तो पिताजी भी चकित थे| उन्होंने माँ से मेरी तारीफ करते हुए कहा भी,
"क्या बात है लाड़ साहब, आज तो पैकिंग करने में बहुत उत्सुकता दिखा रहे हो? आज से पहले तो कभी इतनी उत्सुकता नहीं दिखाई, हमेशा माँ कहते-कहते थक जाती थी की अपने कपडे निकाल दे मैं पैक कर दूँ पर आपके कान पे जूं तक नहीं रेंगती थी|"
मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस हल्का सा मुस्कुरा दिया, अब उन्हें की पता की मेरे मन में क्या चल रहा है| माँ ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा :
"अरे अब बड़ा हो गया है, जिम्मेदार हो गया है| अब से हमेशा ही ये हम सबका समान पैक करेगा| क्यों करेगा ना?"
अब मैं क्या कहता, बस इतना ही बोला :
"जी"!!!
खेर वो दिन आ गए जब हम गावों पहुंचे, हमारी बड़ी आओ-भगत हुई| गावों में जिन-जिन को पता चला की शहर से सुरेश और उनका परिवार आया है, वे सब हमसे मिलने आये सब लोग हमें घेर के बैठे थे जैसे कोई फ़िल्मी हस्ती आई हो| सभी का ध्यान पिता जी की बातों पर था और मैं तो बस भाभी की एक झलक देखने को तड़प रहा था| मेरी बड़की अम्मा (बड़ी चाची) गुड और पानी लाईं, पर मेरी नजर तो भाभी को ढूंढ रही थी| मैंने गुड उठाया और मुंह में डाला, और जैसे ही पानी का गिलास उठा के पानी का पहला घूट पिया मुझे भाभी की साडी दिखाई दी| मेरे दिल में जैसे गिटार बजने लगा, जैसे-जैसे वो नजदीक आने लॉगिन मेरे चेहरे पर मुस्कान बढ़ने लगी| उन्होंने सबसे पहले मेरी तररफ देखा और एक प्यार भरी मुस्कराहट दी| हाय!!!.. इसी मुस्कराहट के लिए तो मैं कितने दिनों से तड़प रहा था| उनके हाथ में एक बड़ी सी परत थी और उसमें पानी था, मैं सवालों भरी नज़रों से उन्हें देख रहा था क्योंकि मैं नहीं जानता था की इसका क्या करना है?
भाभी मई पास आई और नीचे झुक कर उन्होंने वो बर्तन ज़मीन पर रखा और और मेरे जुटे उतरने लगीं| मैंने उनसे खुद ही सवाल पूछा:
"भाभी इस बर्तन में पानी है, क्या मुझे नहलाने का इरादा है" ये कहते हुए मैंने हलकी से मुस्कान दी!
पिताजी ठीक मेरे पीछे ही बैठे थे, उन्होंने मेरी बात सुन ली और पीछे घूम के देखा और बोले :
"अरे नहलाने नहीं इसमें तेरे पैर धोएंगे, जिससे तेरी सारी थकान उतर जाएगी|"
मैं बड़ी हैरत वाली नज़रों से भाभी की और देखने लगा और अपने पैर भाभी के हाथ से ऐसे छुड़ाय जैसे वो मेरे पैर काटने वालीं हों| भाभी हैरान मेरी और देख रही थी, इससे पहले की वो कुछ कहती मैं स्वयं बोल पड़ा :
"नहीं भाभी मैं आपसे पैर नहीं धुल्वायंगे| आप मुझसे बड़े हो मैं आपको अपने पैर हाथ नहीं लगाने दूंगा|"
मेरी बात सुन भाभी और सब के सब सुन रह गए| दरअसल हमारे गावों में औरत को बहुत निचला दर्जा दिया जाता है, सामान्य भाषा में कहूँ तो उसे पैर की जूती समझा जाता है| परन्तु मेरा व्यवहार ऐसा नहीं है, शायद मेरे पिताजी के शिष्टाचार ने मेरी सोच इस प्रकार बदल दी| हालाँकि मेरे पिताजी की सोच मेरे विचारों के एक दम विपरीत है, उन्होंने मेरी माँ को शुरू से ही दबा के रखा है| मेरी इस सोच का श्रेय में अपनी माँ को देना चाहूंगा, जिन्होंने मुझे सब के प्रति आदर भाव की शिक्षा दी|
खेर वहां सभी मर्द मेरे पिताजी की तारीफ करने लगे की उन्होंने क्या शिक्षा दी है| उनके शब्द और चहरे के भाव एक साथ मेल नहीं खा रहे थे और ये पिताजी भी समझ चुके थे| वहां जितनी औरतें थीं वे सब मेरी माँ के पास बैठीं थी और मेरी तारीफ कर रहीं थी| ये बात मुझे माँ ने रात्रि भोज के समय बताईं| भाभी मेरे इस बर्ताव से बहुत प्रभावित लग रहीं थी और उन्हें मुझ पे गर्व होने लगा था|
दोपहर को सब खाना खाने बैठे, आज मैं पहली बार भाभी के हाथ का खाना खाने जा रहा था| जब सब खाना खा चुके थे तब घर की औरतों के खाना खाने की बारी थी| भाभी ने सबसे पहले मेरी बड़की अम्मा और सबसे आखिर में अपने लिए खाना परोस कर बैठ गईं| मैं वहीँ पड़ी चारपाई पर चुप-चाप बैठा था और उन्हें प्यार भरी नज़रों से देखते हुए उनके ख्यालों में गुम था| भाभी ने आँख बचा के मुझे अपनी और तकते हुए पकड़ लिया था और एक हलकी सी मुस्कान उनके चेहरे पर छलक आई थी| जब उनका खाना खत्म हुआ तब वो बर्तन उठा कर बहार गईं, और हाथ मुंह धो कर मेरे पास चारपाई पर बैठ गईं| उन्होंने बड़े प्यार से मेरे गाल पर हाथ फेरा और आगे बड़के मेरे गाल को चूमा| फिर मेरी आँखों में देखते हुए पूछा:
"खाना कैसा बना था?"
मैंने सबसे पहले उनके हाथों को पकड़ा और उन्हें चूमते हुए कहा:
"भौजी आज खाने में मज़ा आ गया|"
वो शर्मा गईं और बोली :
"और सुनाओ, क्या हाल है मेरे सबसे छोटे देवर का? पढ़ाई कैसी चल रही है? मुझे भूल तो नहीं गए?"
उन इस अंतिम प्रश्न से मेरे कान लाल होगये और मैंने केवल उनके अंतिम प्रश्न का ही उत्तर दिया:
"भौजी आपको कैसे भूल सकता हूँ! आप तो मेरी सबसे प्यारी भौजी हो!"
ये सुन के वो थोड़ा मुस्कुरा दीं| इससे पहले की मैं और कुछ कहता उनकी बेटी अर्थात मेरी भतीजी नेहा दौड़ती हुई अंदर आई| वो अभी-अभी स्कूल से लौटी थी, अब काफी बड़ी हो चुकी थी| भाभी ने मेरा उससे एक बार और परिचय कराया:
"मुन्नी ये तुम्हारे दिल्ली वाले चाचा हैं, पाओं छुओ|"
नेहा के चेहरे पर किसी भोले बच्चे जैसी मुस्कराहट थी और जैसे ही वो मेरे पाओं छूने के लिए झुकी मैं उसे रोक लिया| (मुझे किसी भी व्यक्ति से अपने पाओं छुआने का कोई शोक नहीं है|) खेर अब वो आके भाभी की गोद में बैठ गई इसलिए मैं अब न तो कुछ कह सकता था और न ही कुछ कर सकता था| फिर भी मैंने एक आखरी बार कोशिश करने की सोची और अपना वाही पुराना डायलाग मारा:
"भौजी मुझे नींद आ रही है|"
पर हाय रे मेरी किस्मत भाभी ने मेरे उस संकेत को जैसे नज़र अंदाज़ करते हुए, चारपाई से उठीं और दूसरी चारपाई पर मेरे बिस्तर लगा दिया| मैं मन मसोस के दूसरी चारपाई आर लेट गया, तब भाभी ने नेहा से कहा की चल तुझे खाना खिला दूँ और उसके बाद स्कूल की पढ़ाई भी तो करनी है|मेरे मन में उथल-पुथल मचने लगी|भाभी मुझसे भूलने की बात कर रहीं थी पर लग रहा थी की जैसे वो मुझे भूल गईं हो! क्या उन्हें कुछ भी याद नहीं? अपनी इसी उधेड़ बन में मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला| जब आँख खुली तो शाम के करीब पांच बजे होंगे, पर मेरे मन में अभी भी उन सवालों का बवंडर उठा हुआ था| मैंने अपनी शंका दूर करने के लिए उनसे बात करना ठीक समझा और उन्हें इशारे से अपनी चारपाई पर बुलाया| उन्होंने हाथ के इशारे से कहा की अभी आती हूँ| तभी मैं उठ के अंदर गैलरी वाले कमरे में चला गया, दस मिनट बाद भाभी आईं और मेरे पास चारपाई पर बैठ गईं| मेरे अंदर इतना सहस नहीं हुआ की मैं उनसे ये पूछ सकूँ की उनके दोपहर वाले व्यवहार की वजह क्या थी? [/size][/size][/size][/size][/size][/size][/size][/size]