desiaks
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चक्रवाल ने किन्नरी की ओर संकेत कर कहा। 'क्यों नहीं...? अवश्य अवलोकन करूंगा। कलामयी सुन्दरी! तुम अपना अपूर्व नर्तन आरंभ करो।'
कटिप्रदेश पर किंचित बल देकर सुंदरी निहारिका उठ खड़ी हुई। उसके नूपुर बज उठे-छम छम!
चक्रवाल ने अपनी वीणा हाथ में ली। उसकी अभ्यस्त अंगुलियां अविराम गति से वीणा के तारों पर नृत्य करने लगी।।
मुग्धकारी स्वर वीणा के तारों से प्रवाहित होकर नपुर ध्वनि का आलिंगन करने लगा। दोनों स्वरों के सम्मिश्रण से प्रकृति निस्तब्ध, निश्चल हो उठी।
वे दोनों श्रेष्ठतम कलाकार अपनी-अपनी कला में पूर्णतया तन्मय हो गए। चक्रवाल अपनी वीणा पर एक गीत बजाने लगा। किन्नरी के नपुर उस गीत का अनुसरण कर अबाध, किन्तु मंथर गति से गुंजरित होने लगे।
किन्नरी का बल खाता हुआ ललितांग शरीर युवराज के सन्निकट कभी इतस्तत: नर्तन करता रहा।
युवराज मंत्र-मुग्ध दृष्टि से उस अपूर्व नृत्य का अवलोकन करते रहे। उस युवती किन्नरी की प्रतिभा अपर्व थी, अनुपमेय थी। सुंदरी निहारिका का वह कलापूर्ण नर्तन मानो राजोद्यान की विलासमयी भूमि पर नहीं, वरन युवराज के हृदय प्रदेश पर हो रहा हो।
तन्मयता से नृत्य अवलोकन कर रहे थे वे। वीणा की मधुर झंकार के साथ चक्रवाल की स्वर लहरी अलाप उठी
जो केलि कुंज में तुमको कंकड़ी उन्होंने मारी। क्या कसक रही वह अब भी तेरे उर में सुकुमारी।। निहारिका कांप उठी—युवराज विचलित हो उठे।
चक्रवाल का वह गायन सुनकर किन्नरी को लगा, जैसे वह उस गायन का भाव अपने नृत्य द्वारा व्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ है।
युवराज चिल्ला उठे—'चक्रवाल !' परन्तु चक्रवाल तन्मय था। उसकी स्वर-रागिनी में तनिक भी शिथिलता न आई। वह गाता ही रहा। निहारिका ने एक क्षण में ही अपनी भंगिमा ठीक कर ली। उसके अंग-प्रत्यंग पूर्ववत गायन का भाव व्यक्त करने लगे।
उसने पहले उद्यान के सघन निकुंज की ओर अपनी तर्जनी द्वारा संकेत किया, फिर कलापूर्ण गति से झुककर भूम पर से एक कंकड़ी उठा ली और उसे सामने की ओर फेंका-पश्चात तीव्र गति से सिसकारी भरती हुई वह भूमि पर बैठ गई, मानो वह कंकड़ी उसी को आकर लगी हो। इस प्रकार उसने जो केलिकुंज में तुमको, कंकड़ी उन्होंने मारी—का भाव प्रदर्शित किया। गायन एवं नर्तन रुक गया—तीव्र गति से जाम्बुक को दौड़ा आते हुए देखकर।
उसे घबराई हुई भंगिमा से आता हुआ देखकर युवराज को कुछ शंका हुई। उन्होंने पूछा- क्या है चम्बुक?'
जाम्बुक ने उंगली से एक ओर संकेत किया। उसी समय सब चौंक पड़े यह देखकर कि राजोद्यान के मुख्य द्वार से महापुजारी की उन मूर्ति इधर ही अग्रसर होती आ रही है।
महापुजारी आकर उन लोगों के समक्ष खड़े हो गये। युवराज ने उनके चरण स्पर्श किये। महापुजारी ने तीक्ष्ण दृष्टि से युवराज के नेत्रों में देखा और गांभीर स्वर में शुभाशीर्वाद दिया। एक क्षण सन्नाटा रहा।
'तुम लोग जाओ...।' महापुजारी ने किन्नरी, चक्रवाल तथा जाम्बुक को आज्ञा दी तीनों आशंकित हृदय से चले गये।
'बैठिये श्रीयुवराज।' महापुजारी उस स्फटिक-शिला पर बैठत हुए बोले।
युवराज का हृदय धड़क उठा।
'श्रीयुवराज...।' महापुजारी की वाणी में तीव्रता थी।
'आज्ञा देव...।'
'क्या हो रहा था यहां...?'
'कुछ भी तो नहीं महापुजारी जी।' युवराज ने संयत वाणी में उत्तर दिया।
'कुछ नहीं...? आप कहते हैं कि कुछ नहीं हो रहा था?' महापुजारी का स्वर उत्तरोत्तर तीन होता जा रहा था—'चन्द्रछटा परिपूरित रात्रि में कुमुदिनी का प्रस्फुटित श्वेतांग देखकर, प्रकृति देवी का यह अद्भुत सृजन अवलोकन कर, मन स्वभवत: चलायमान हो जाता है....मैं पूछता हूं आपसे श्रीयुवराज कि यहां किस प्रलय की सृष्टि की जा रही थी...?'
'महापुजारी जी !'
'मैं स्पष्ट उत्तर चाहता हूं...नहीं तो मुझे श्रीसम्राट के समक्ष यह बात प्रकट करनी पड़ेगी।'
'पिताजी के समक्ष...! क्यों...? क्या आप यह समझते हैं कि महापुजारी जी कि आप मेरे कोई नहीं हैं? क्या आप मेरे पिता तुल्य नहीं? क्या आपको मुझे दंड देने का अधिकार नहीं? क्या आपकी आज्ञा की अवहेलना करने की शक्ति मुझमें है...? महापुजारी जी! आपका प्रोज्जवल हृदय आज ऐसे मलीन विचारों को कैसे स्थान दे रहा है...? स्पष्ट कहिये, यदि मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो मुझे दंडाज्ञा दीजिये, मैं दंडाज्ञा स्वीकार करने को प्रस्तुत हूं।'
'वत्स...!' एकाएक महापुजारी जी का स्वर शांत हो गया—'तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना परमावश्यक है, तुम जम्बूद्वीप के भावी सम्राट होगे-तुम्हें अपने किसी कार्य से, अपने त हो रहा था ?' प्रस्फुटित श्वेतांग है. मैं किसी आचरण से प्रजा को उंगली उठाने का अवसर नहीं देना चाहिए। देख रहे हो, स्वच्छाकाश पर विचरण करते हुए उस चन्द्र को..? इतना धवल होते हुए भी क्या कलंक से बच सका है वह? मनुष्य का हृदय दुर्बल होता है, तनिक-सा फिसल पड़ने पर जन्मपर्यन्त के लिए कलंक लग जाता है। आज से तुम सावधान रहना...आओ मेरे साथ...।'
महापुजारी घूम पड़े। युवराज ने उनका अनुसरण किया।
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कटिप्रदेश पर किंचित बल देकर सुंदरी निहारिका उठ खड़ी हुई। उसके नूपुर बज उठे-छम छम!
चक्रवाल ने अपनी वीणा हाथ में ली। उसकी अभ्यस्त अंगुलियां अविराम गति से वीणा के तारों पर नृत्य करने लगी।।
मुग्धकारी स्वर वीणा के तारों से प्रवाहित होकर नपुर ध्वनि का आलिंगन करने लगा। दोनों स्वरों के सम्मिश्रण से प्रकृति निस्तब्ध, निश्चल हो उठी।
वे दोनों श्रेष्ठतम कलाकार अपनी-अपनी कला में पूर्णतया तन्मय हो गए। चक्रवाल अपनी वीणा पर एक गीत बजाने लगा। किन्नरी के नपुर उस गीत का अनुसरण कर अबाध, किन्तु मंथर गति से गुंजरित होने लगे।
किन्नरी का बल खाता हुआ ललितांग शरीर युवराज के सन्निकट कभी इतस्तत: नर्तन करता रहा।
युवराज मंत्र-मुग्ध दृष्टि से उस अपूर्व नृत्य का अवलोकन करते रहे। उस युवती किन्नरी की प्रतिभा अपर्व थी, अनुपमेय थी। सुंदरी निहारिका का वह कलापूर्ण नर्तन मानो राजोद्यान की विलासमयी भूमि पर नहीं, वरन युवराज के हृदय प्रदेश पर हो रहा हो।
तन्मयता से नृत्य अवलोकन कर रहे थे वे। वीणा की मधुर झंकार के साथ चक्रवाल की स्वर लहरी अलाप उठी
जो केलि कुंज में तुमको कंकड़ी उन्होंने मारी। क्या कसक रही वह अब भी तेरे उर में सुकुमारी।। निहारिका कांप उठी—युवराज विचलित हो उठे।
चक्रवाल का वह गायन सुनकर किन्नरी को लगा, जैसे वह उस गायन का भाव अपने नृत्य द्वारा व्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ है।
युवराज चिल्ला उठे—'चक्रवाल !' परन्तु चक्रवाल तन्मय था। उसकी स्वर-रागिनी में तनिक भी शिथिलता न आई। वह गाता ही रहा। निहारिका ने एक क्षण में ही अपनी भंगिमा ठीक कर ली। उसके अंग-प्रत्यंग पूर्ववत गायन का भाव व्यक्त करने लगे।
उसने पहले उद्यान के सघन निकुंज की ओर अपनी तर्जनी द्वारा संकेत किया, फिर कलापूर्ण गति से झुककर भूम पर से एक कंकड़ी उठा ली और उसे सामने की ओर फेंका-पश्चात तीव्र गति से सिसकारी भरती हुई वह भूमि पर बैठ गई, मानो वह कंकड़ी उसी को आकर लगी हो। इस प्रकार उसने जो केलिकुंज में तुमको, कंकड़ी उन्होंने मारी—का भाव प्रदर्शित किया। गायन एवं नर्तन रुक गया—तीव्र गति से जाम्बुक को दौड़ा आते हुए देखकर।
उसे घबराई हुई भंगिमा से आता हुआ देखकर युवराज को कुछ शंका हुई। उन्होंने पूछा- क्या है चम्बुक?'
जाम्बुक ने उंगली से एक ओर संकेत किया। उसी समय सब चौंक पड़े यह देखकर कि राजोद्यान के मुख्य द्वार से महापुजारी की उन मूर्ति इधर ही अग्रसर होती आ रही है।
महापुजारी आकर उन लोगों के समक्ष खड़े हो गये। युवराज ने उनके चरण स्पर्श किये। महापुजारी ने तीक्ष्ण दृष्टि से युवराज के नेत्रों में देखा और गांभीर स्वर में शुभाशीर्वाद दिया। एक क्षण सन्नाटा रहा।
'तुम लोग जाओ...।' महापुजारी ने किन्नरी, चक्रवाल तथा जाम्बुक को आज्ञा दी तीनों आशंकित हृदय से चले गये।
'बैठिये श्रीयुवराज।' महापुजारी उस स्फटिक-शिला पर बैठत हुए बोले।
युवराज का हृदय धड़क उठा।
'श्रीयुवराज...।' महापुजारी की वाणी में तीव्रता थी।
'आज्ञा देव...।'
'क्या हो रहा था यहां...?'
'कुछ भी तो नहीं महापुजारी जी।' युवराज ने संयत वाणी में उत्तर दिया।
'कुछ नहीं...? आप कहते हैं कि कुछ नहीं हो रहा था?' महापुजारी का स्वर उत्तरोत्तर तीन होता जा रहा था—'चन्द्रछटा परिपूरित रात्रि में कुमुदिनी का प्रस्फुटित श्वेतांग देखकर, प्रकृति देवी का यह अद्भुत सृजन अवलोकन कर, मन स्वभवत: चलायमान हो जाता है....मैं पूछता हूं आपसे श्रीयुवराज कि यहां किस प्रलय की सृष्टि की जा रही थी...?'
'महापुजारी जी !'
'मैं स्पष्ट उत्तर चाहता हूं...नहीं तो मुझे श्रीसम्राट के समक्ष यह बात प्रकट करनी पड़ेगी।'
'पिताजी के समक्ष...! क्यों...? क्या आप यह समझते हैं कि महापुजारी जी कि आप मेरे कोई नहीं हैं? क्या आप मेरे पिता तुल्य नहीं? क्या आपको मुझे दंड देने का अधिकार नहीं? क्या आपकी आज्ञा की अवहेलना करने की शक्ति मुझमें है...? महापुजारी जी! आपका प्रोज्जवल हृदय आज ऐसे मलीन विचारों को कैसे स्थान दे रहा है...? स्पष्ट कहिये, यदि मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो मुझे दंडाज्ञा दीजिये, मैं दंडाज्ञा स्वीकार करने को प्रस्तुत हूं।'
'वत्स...!' एकाएक महापुजारी जी का स्वर शांत हो गया—'तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना परमावश्यक है, तुम जम्बूद्वीप के भावी सम्राट होगे-तुम्हें अपने किसी कार्य से, अपने त हो रहा था ?' प्रस्फुटित श्वेतांग है. मैं किसी आचरण से प्रजा को उंगली उठाने का अवसर नहीं देना चाहिए। देख रहे हो, स्वच्छाकाश पर विचरण करते हुए उस चन्द्र को..? इतना धवल होते हुए भी क्या कलंक से बच सका है वह? मनुष्य का हृदय दुर्बल होता है, तनिक-सा फिसल पड़ने पर जन्मपर्यन्त के लिए कलंक लग जाता है। आज से तुम सावधान रहना...आओ मेरे साथ...।'
महापुजारी घूम पड़े। युवराज ने उनका अनुसरण किया।
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