RajSharma Sex Stories कुमकुम - Page 4 - SexBaba
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RajSharma Sex Stories कुमकुम

चक्रवाल ने किन्नरी की ओर संकेत कर कहा। 'क्यों नहीं...? अवश्य अवलोकन करूंगा। कलामयी सुन्दरी! तुम अपना अपूर्व नर्तन आरंभ करो।'

कटिप्रदेश पर किंचित बल देकर सुंदरी निहारिका उठ खड़ी हुई। उसके नूपुर बज उठे-छम छम!

चक्रवाल ने अपनी वीणा हाथ में ली। उसकी अभ्यस्त अंगुलियां अविराम गति से वीणा के तारों पर नृत्य करने लगी।।

मुग्धकारी स्वर वीणा के तारों से प्रवाहित होकर नपुर ध्वनि का आलिंगन करने लगा। दोनों स्वरों के सम्मिश्रण से प्रकृति निस्तब्ध, निश्चल हो उठी।

वे दोनों श्रेष्ठतम कलाकार अपनी-अपनी कला में पूर्णतया तन्मय हो गए। चक्रवाल अपनी वीणा पर एक गीत बजाने लगा। किन्नरी के नपुर उस गीत का अनुसरण कर अबाध, किन्तु मंथर गति से गुंजरित होने लगे।

किन्नरी का बल खाता हुआ ललितांग शरीर युवराज के सन्निकट कभी इतस्तत: नर्तन करता रहा।

युवराज मंत्र-मुग्ध दृष्टि से उस अपूर्व नृत्य का अवलोकन करते रहे। उस युवती किन्नरी की प्रतिभा अपर्व थी, अनुपमेय थी। सुंदरी निहारिका का वह कलापूर्ण नर्तन मानो राजोद्यान की विलासमयी भूमि पर नहीं, वरन युवराज के हृदय प्रदेश पर हो रहा हो।

तन्मयता से नृत्य अवलोकन कर रहे थे वे। वीणा की मधुर झंकार के साथ चक्रवाल की स्वर लहरी अलाप उठी
जो केलि कुंज में तुमको कंकड़ी उन्होंने मारी। क्या कसक रही वह अब भी तेरे उर में सुकुमारी।। निहारिका कांप उठी—युवराज विचलित हो उठे।

चक्रवाल का वह गायन सुनकर किन्नरी को लगा, जैसे वह उस गायन का भाव अपने नृत्य द्वारा व्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ है।

युवराज चिल्ला उठे—'चक्रवाल !' परन्तु चक्रवाल तन्मय था। उसकी स्वर-रागिनी में तनिक भी शिथिलता न आई। वह गाता ही रहा। निहारिका ने एक क्षण में ही अपनी भंगिमा ठीक कर ली। उसके अंग-प्रत्यंग पूर्ववत गायन का भाव व्यक्त करने लगे।

उसने पहले उद्यान के सघन निकुंज की ओर अपनी तर्जनी द्वारा संकेत किया, फिर कलापूर्ण गति से झुककर भूम पर से एक कंकड़ी उठा ली और उसे सामने की ओर फेंका-पश्चात तीव्र गति से सिसकारी भरती हुई वह भूमि पर बैठ गई, मानो वह कंकड़ी उसी को आकर लगी हो। इस प्रकार उसने जो केलिकुंज में तुमको, कंकड़ी उन्होंने मारी—का भाव प्रदर्शित किया। गायन एवं नर्तन रुक गया—तीव्र गति से जाम्बुक को दौड़ा आते हुए देखकर।

उसे घबराई हुई भंगिमा से आता हुआ देखकर युवराज को कुछ शंका हुई। उन्होंने पूछा- क्या है चम्बुक?'

जाम्बुक ने उंगली से एक ओर संकेत किया। उसी समय सब चौंक पड़े यह देखकर कि राजोद्यान के मुख्य द्वार से महापुजारी की उन मूर्ति इधर ही अग्रसर होती आ रही है।

महापुजारी आकर उन लोगों के समक्ष खड़े हो गये। युवराज ने उनके चरण स्पर्श किये। महापुजारी ने तीक्ष्ण दृष्टि से युवराज के नेत्रों में देखा और गांभीर स्वर में शुभाशीर्वाद दिया। एक क्षण सन्नाटा रहा।

'तुम लोग जाओ...।' महापुजारी ने किन्नरी, चक्रवाल तथा जाम्बुक को आज्ञा दी तीनों आशंकित हृदय से चले गये।

'बैठिये श्रीयुवराज।' महापुजारी उस स्फटिक-शिला पर बैठत हुए बोले।

युवराज का हृदय धड़क उठा।

'श्रीयुवराज...।' महापुजारी की वाणी में तीव्रता थी।

'आज्ञा देव...।'

'क्या हो रहा था यहां...?'

'कुछ भी तो नहीं महापुजारी जी।' युवराज ने संयत वाणी में उत्तर दिया।

'कुछ नहीं...? आप कहते हैं कि कुछ नहीं हो रहा था?' महापुजारी का स्वर उत्तरोत्तर तीन होता जा रहा था—'चन्द्रछटा परिपूरित रात्रि में कुमुदिनी का प्रस्फुटित श्वेतांग देखकर, प्रकृति देवी का यह अद्भुत सृजन अवलोकन कर, मन स्वभवत: चलायमान हो जाता है....मैं पूछता हूं आपसे श्रीयुवराज कि यहां किस प्रलय की सृष्टि की जा रही थी...?'

'महापुजारी जी !'

'मैं स्पष्ट उत्तर चाहता हूं...नहीं तो मुझे श्रीसम्राट के समक्ष यह बात प्रकट करनी पड़ेगी।'

'पिताजी के समक्ष...! क्यों...? क्या आप यह समझते हैं कि महापुजारी जी कि आप मेरे कोई नहीं हैं? क्या आप मेरे पिता तुल्य नहीं? क्या आपको मुझे दंड देने का अधिकार नहीं? क्या आपकी आज्ञा की अवहेलना करने की शक्ति मुझमें है...? महापुजारी जी! आपका प्रोज्जवल हृदय आज ऐसे मलीन विचारों को कैसे स्थान दे रहा है...? स्पष्ट कहिये, यदि मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो मुझे दंडाज्ञा दीजिये, मैं दंडाज्ञा स्वीकार करने को प्रस्तुत हूं।'

'वत्स...!' एकाएक महापुजारी जी का स्वर शांत हो गया—'तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना परमावश्यक है, तुम जम्बूद्वीप के भावी सम्राट होगे-तुम्हें अपने किसी कार्य से, अपने त हो रहा था ?' प्रस्फुटित श्वेतांग है. मैं किसी आचरण से प्रजा को उंगली उठाने का अवसर नहीं देना चाहिए। देख रहे हो, स्वच्छाकाश पर विचरण करते हुए उस चन्द्र को..? इतना धवल होते हुए भी क्या कलंक से बच सका है वह? मनुष्य का हृदय दुर्बल होता है, तनिक-सा फिसल पड़ने पर जन्मपर्यन्त के लिए कलंक लग जाता है। आज से तुम सावधान रहना...आओ मेरे साथ...।'

महापुजारी घूम पड़े। युवराज ने उनका अनुसरण किया।
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चारू-चन्द्रिका भी बादलों की ओट में छिप गई। कुमुदिनी ने अपने नेत्र बंद कर लिए। पल्लव विकलता से हिल पड़े।

बाह प्रकम्पित हो तीव्र गति से प्रवाहित हो उठी, डाल पर बैठी हुई कोयल करुण-स्वर में कूक उठी।

सात मनोहर बनस्थली के कोड़ में रहने वाले किरात एक सघन पर्कटी वृक्ष के नीचे वार्तालाप करने में तल्लीन थे।

भगवान अंशुमालि की अंतिम किरण-राशि अब भी इतस्तत: गगनचुम्बी वृक्षों की चोटियों पर नृत्य कर रही थीं। साध्य-समीर मृदुल गति से हिलोरें ले रहा था।

क्लांत पक्षीगण अपने नीड़ों की ओर मधुर कलरव करते हुए तीव्र वेग से उड़े जा रहे थे। 'भाई! ऐसा नायक किरात-समुदाय के विगत इतिहास में सहस्रों वर्षों में नहीं हुआ.... एक किरात कह रहा था—'पणिक ने नायकत्व का कार्य जिस योग्यतापूर्ण विधि से संचालित किया है, वह सर्वथा स्तुत्य है—जितनी प्रशंसा उसकी की जाये थोड़ी है...।'

'इतनी छोटी अवस्था में इतनी योग्यता, मैं तो इसे देवी वरदान ही कहूंगा।' एक वृद्ध ने कहा।

"हमने इन दोनों माता-पुत्रों पर बहुत अन्याय किया था— मगर आज उनके लिए पश्चाताप हो रहा है, पणिक की योग्यता देखकर। नहीं मालूम था कि संसार से ठुकराई एक अभागिन का पुत्र आज इस प्रकार हमारा नायकत्व करेगा।'

'उसके नायक होते ही, देखो न कितना आश्चर्यचकित परिवर्तन हो गया है हममें और समस्त किरात समुदाय में। उसने मानो हमारे जर्जर एवं मृतप्राय शरीर में उष्ण रक्त संचारित कर दिया है

- नवस्फूर्ति भर दी है।'

'पहले हममें से कितने ऐसे थे जो शस्त्र-संचालन पूर्ण रूप से नहीं जानते थे...आज पर्णिक की कृपा से हम लोगों ने भली प्रकार अस्त्रविद्या सीख ली है। हम लोग भली-भाति शत्रु से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो गए हैं...पर्णिक की माता ने ही अपनी व्यवहार-कुशलता से हमें इतना साहसी बनाया है। अवश्य वह कोई स्वर्गीय देवी है।'

क्रमश: संध्या का आगमन होने लगा था। साथ ही उदय होते हुए भगवान मरीचिमाली की शुभ ज्योत्सना, वन प्रदेश पर बिखरने लगी। किरात-समुदाय के सभी व्यक्ति-आबाल-वृद्ध-उस स्थल पर जाने लगे। नित्य संध्या को सब लोग वहां एकत्र होते थे और विविध विषयों पर वार्तालाप करते थे।

नायक पर्णिक हो आते हुए दोकर सब लोग उठ खड़े हुए। पर्णिक एक प्रशस्त शिला खंड पर आकर बैठ गया।

बहुत समय तक वार्तालाप होता रहा।

अन्त में दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने के पश्चात् जब वह अपने झोंपड़े के द्वार पर पहुंचा तो देखा कि उसकी माता भूमि पर पड़ी खिसक रही है।

दीपक की ज्योति में उसकी माता के नेत्रों से अश्नु बिन्दुओं का निस्सरण स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा था।

साथ ही पर्णिक के उत्सुक नेत्रों ने देखा कि उसकी माता कोई हाथ में कोई प्रकाशमान वस्तु हैं। पर्णिक घबराया हुआ झोपड़े के भीतर आया—'माता! उसने पुकारा ।'

उसकी माता चौंक पड़ी, उसका स्वर सुनकर।
उन्होंने शीघ्रतापूर्वक अपने अंचल में उस वस्तु को छिपा लिया और नेत्रों से प्रवाहित अश्रुकणों को पोंछती हुई बोली-'आओ वत्स।'

'तुम रो क्यों रही हो माताजी?' पर्णिक उनके पास बैठ गया—'तुम्हें ऐसी कौन-सी व्यथा, ऐसी कौन-सी वेदना, ऐसा कौन-सा दुख है- जिससे तुम सदैव व्यथित रहा करती हो? वह कौन-सी अप्रकट पीड़ा है जिसे तुम अपने पुत्र से भी कहने से संकोच कर रही हो? बोलो, मैं तुम्हारे सुख के लिए सब कुछ कर सकता हूं, माताजी। यदि मेरे जीवनोत्सर्ग से तुम्हें शांति मिल सके तो मैं सहर्ष अपने जीवन को तुम्हारे चरण-कमलों पर उत्सर्ग कर दंगा। जिसने अपने रक्त मांस से मेरा पालन-पोषण किया, जिसने दुरूह यातनायें सहन कर मेरी रक्षा की, जिसने अनादर और अपमान झेला—केवल मेरे हेत, ऐसी जननी के लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं हो सकती। माताजी, परीक्षा का समय है-मातृ ऋण के उऋण होने का अवसर दो, आज्ञा दो माताजी!'

'मुझे कोई भी दुख, कोई भी व्यथा नहीं है, वत्स...।'

'माता! दुख है कि आज तक तुमने मुझे अपना पूर्व इतिहास नहीं बताया, इस समय अपने दुख का कारण भी नहीं बता रही हो, पुत्र पर यह अविश्वास क्यों?'

'अविश्वास!'

'अविश्वास ही तो है। तभी तो तुमने मुझे देखते ही जाने कौन-सी वस्तु आंचल में छिपा ली है।'

उसकी माता चौंक पड़ी।

'माताजी! जिस पावन आंचल में अब तक पर्णिक ने क्रीड़ा की है, उसका स्थान पाने वाली वस्तु अवश्य मुझसे भी प्रिय है...मुझे बताओ माताजी। वह कौन-सी वस्तु है। कोई बात मुझसे गोपनीय रखकर मुझे असीम वेदना से विदग्ध न करो।'

'वह कुछ नहीं है, पर्णिकं'

'कुछ क्यों नहीं है, माताजी। वह बहुत कुछ है, तभी पर्णिक से भी अधिक उसका आदर है उसका सम्मान है।' पर्णिक अपनी माता के सन्निकट आ रहा है—'मैं उस वस्तु को अवश्य देखंगा...।' और उसने हठपूर्वक माता के आंचल से वह वस्तु निकाल ली।

वह था रत्नहार, जिसकी देदीप्यमान प्रभाव उस छोटे से झोंपडे को आलोकित कर रही थी।

'रत्नहार...।' चौंक पड़ा पर्णिक—'माताजी! यह मूल्यवान रत्नहार तुमने कहां से पाया? इस जर्जर झोंपड़े से यह अगम वैभव कहां से टपक पड़ा...?'

पर्णिक की माता के नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो चले—'वत्स! इस पवित्र रत्नहार को प्रणाम करो।' उन्होंने कहा।

पर्णिक ने उसे मस्तक से लगाया। 'यह कहां से आया माताजी...?' उसने पूछा।

उसकी माता कुछ न बोली, केवल पर्णिक के हाथ से वह हार लेकर यत्नपूर्वक यथास्थान रख दिया।

तुम्हें कौन-सी वेदना कष्ट दे रही है माताजी ?'

'जाने दो वत्स! चलो भोजन कर लो।'

'कैसे भोजन कर लूं माताजी। तुम चिंता में विदग्ध होती रहो और मैं क्षुधा शांत करूं? पहले मैं तुम्हारी चिंता शांत करूंगा।'

'वह तो चिता पर ही शांत होगी, पर्णिक' 'नायक!' तभी झोंपड़ी के द्वार पर से किसी ने पुकारा। पर्णिक त्वरित वेग से बाहर आया। देखा, एक वृद्ध किरात खड़ा था।

'क्या है...? है क्या पितृव्य...?' उसने पूछा।

'पुत्र! सीमांत से दुर्मुख एक आवश्यक समाचार लेकर आया है। सब लोग एकत्र हैं, तुम भी चलो...।'

'आवश्यक कार्य है...?'

'हां, अत्यंत आवश्यक...।' वृद्ध किरात ने कहा।

'मैं चलता हूं।' पर्णिक बोला—'माताजी! कोई महत्त्वपूर्ण आवश्यक समाचार है। मुझे जाने की आज्ञा दो।'

"जाओ वत्स...।' माता ने कहा। पर्णिक ने झुककर उनके चरण छुए। पुन: उस वृद्ध किरात के साथ उस ओर चल पड़ा, जहां किरात समुदाय उत्सुक नेत्रों से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

सभी के नेत्रों पर आसन्न भय के लक्षण स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहे थे। पर्णिक के आते ही सब उठ खड़े हुए। पर्णिक ने निराक्षणात्मक दृष्टि से चारों ओर देखा-देखा उसने, सबके मुख पर आतंक व्याप्त है।

'कहां है दुर्मुख?' उसने एक प्रस्तर-शिला पर बैठते हुए पूछा।

एक किरात युवक ने आदरसहित आकर अभिवादन किया। 'तुम अभी सीमांत से आ रहे हो?

'जी हां...।'

'क्या समाचार लाये हो?' दुर्मुख ने अधरोष्ठ पर जीभ फेरते हुए कहा—'खटबांग की घाटी (खैबर पास) के उस पार, एक सेना आ पहुंची है। सम्भव है कि शीघ्र ही वह हम पर आक्रमण कर दे।'
 
'किसकी सेना है वह?'

'सुना है कि मध्य अशांत महाद्वीप (एशिया) से आर्य सम्राट तिरमांशु अपनी सेना लेकर देश विजय करने निकले है। वही हो सकते हैं।

'इस प्रकार अनायास आक्रमण करने का तात्पर्य?'

'यह तो वही जानें, परन्तु गुप्त-रीति से पता लगाने पर ज्ञात हुआ है कि आर्य जाति के रहने के लिए मध्य अशांत महाद्वीप में स्थान की कमी है। अब वे देश-विदेश में अपना विस्तार चाहते हैं।

'वह किस प्रकार?'

'देश विजय करके वे उन देशों में अपनी जाति को बसायेंगे एवं अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार करेंगे, यही उनकी आकांक्षा है।'

"परन्तु यह तो न्यायसंगत आक्रमण नहीं है।'

'बिना बल प्रयोग के किसी नये धर्म एवं नई संस्कृति का का प्रसार नहीं होता, नायक महोदय !' दुर्मुख ने कहा—'यह समाचार इतना महत्त्वपूर्ण था कि इसे आपके पास अति शीघ्र पहचाना आवश्यक था। अब आप ही निर्णय करें कि इस विकट परिस्थिति में हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिये?'

'हमारा कर्तव्य...?' पर्णिक दुर्दमनीय विचारों में निमग्न हो गया। उपस्थित किरात-समुदाय में धीरे-धीरे कानाफूसी होने लगी।

'यह समाचार शीघ्र ही द्रविड़राज के पास पहुंचाया जाना चाहिए...।' एक ने नम्र निवेदन किया।

'राजनगर पुष्पपुर यहां से सोलह योजन दूर है—यदि तुरंत ही किसी को न भेजा गया तो अनर्थ की संभावना है।"

'जब तक पुष्पपुर समाचार भेजा जायेगा, तब तक तो उनकी सेना खटवांग की घाटी पार कर हमारे प्रांत में पहुंच जायेगी और हमारा निवास स्थान नष्ट-भ्रष्ट कर देगी।' एक दूसरे ने कहा।

'क्या खट्वांग जैसी दुरूह घाटी वे इतनी शीघ्रता से पार कर लेंगे...?' पहले ने पूछा।

"पुष्पपुर समाचार भेजने की कोई आवश्यकता नहीं...।

' तीसरे ने कहा-'द्रविड़राज को अपने गुप्तचरों द्वारा अब तक यह समाचार मिल गया होगा, अथवा शीघ्र ही मिल जायेगा। समाचार मिलते ही द्रविड़राज स्वदेश-रक्षा का कोई उपाय करेंगे तो, तब तक...।'

"तब तक...।' पर्णिक उच्च-स्वर में बोला—'हमें ही स्वदेश रक्षा का भार ग्रहण करना होगा। भाइयों ! इस विषय पर अच्छी तरह विचार करने के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं । कि ऐसी परिस्थिति में स्वदेश-रक्षा का पूर्ण दायित्व हम पर है। यदि हम अपने समुदाय की पूरी शक्ति का प्रयोग करे तो आर्य सम्राट की सेना को हम पर्याप्त समय तक रोक सकते हैं।'

'ठीक है...।' कई किरात एक साथ बोल उठे।

'तो प्रस्तुत हो जाओ अपना रक्तदान करने के लिए। आज समरांगनण रक्तपिपासु दृष्टि से हमारी ओर देख रहा है। बलि होना है तो स्वदेश पर बलि हो। मरना है तो अपनी आन पर मर मिटो. चलो। हमारे समुदाय में जितने नवयुवक हैं, सभी शस्त्र सज्जित हो जायें। कल प्रात:काल हम लोग प्रस्थान करेंगे...।

पर्णिक की बीरतापूर्ण ललकार ने किरात-युवकों में नव चेतना प्रवाहित कर दी।
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"ऐसा न कहो माताजी।' पर्णिक ने अपनी माता के चरण पकड़ लिये—'मेरे हृदय में स्वदेश रक्षा की भावना प्रबल हो उठी है। इतने दिनों तक मेरी नस-नस में वीरता का संचार कर, तुम अब चाहती हो कि मैं कायर बनकर देशद्रोहिता का कलंक अपने भाल पर लगा लूं। मेरे हृदय में उठी उमंग पर पानी के छींटे मारकर ठंडा न करो मा। एक वीरमाता के समान मुझे युद्ध क्षेत्र में जाने की अनुमति दो...दोन माताजी...।' __

'वत्स! कैसे आज्ञा दं तुम्हें? आज तक जिसे एक क्षण के लिए भी नेत्रों की ओट न किया, उसे कैसे समरभूमि में जाने को को सकती हूं। पर्णिक! मत जाओ। मत जाओ वत्स। युद्धभूमि की भीषणता सहन करना परिहास नहीं।'

'माताजी! आज जब परीक्षा का समय आया है तो दुरूह यातनाओं का स्मरण दिलाकर मुझे पथविमुख करना चाहती हो? जिसे आज तक तुमने वीरतापूर्ण गाथायें सुनाकर मरने-मारने का उपदेश दिया उसे आज तुम कायरता के साथ जीने का उपदेश दे रही हो, माताजी! आज क्या हो गया है तुम्हें...? मुझे जाने की आज्ञा दो, मैंने समस्त समुदाय को प्रात:काल प्रस्तुत रहने की आज्ञा दे दी है।'

'तो जाओ पार्णिक, मुझे अधिक दुख न दो।'

पर्णिक पर वज्र गिर पड़ा—'ओह! क्या उसकी बातें तथ्यहीन हैं? यदि नहीं तो माता दुखी क्यों हो गई?'

पर्णिक को महान ग्लानि हुई। वह चिंताग्रस्त हो झोंपड़ी के एक कोने में जाकर पड़ रहा।
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"ऐसी आज्ञा क्यों दे रहे हो नायक...?' उस वृद्ध किरात ने कहा-'आज देश पर विपत्ति के बादल गहरा रहे हैं, एक विदेशी हमें पददालित करना चाहता है, यह देखते हुए भी तुम मौन होकर बैठ जाना चाहते हो?'

'क्या करूं? माताजी की आज्ञा...।' पर्णिक का मस्तक लज्जा से झुक गया।

'कहां गया वह तुम्हारा सारा गर्व...?' भूतपूर्व नायक के पुत्र का तीव्र स्वर गर्जन कर उठा —'कहां गया वह तुम्हारा पराक्रम? कहां गई वह तुम्हारी अनोखी डींग? मेरी माताजी देवी हैं, पूजनीय है? अपनी माता को वीर प्रसविनी कहते थे...? उसी के गुणगान में अहर्निश तल्लीन रहते थे? धिक्कार है ऐसी कायर माता की संतान पर।'

'चुप रहो...! चुप रहो नहीं तो...।'

'हां-हां बंद कर दो मेरा मुख, काट दो मेरी जीभ। तुम्हारे पास शक्ति है। पराक्रम है न। निर्बलों पर ही अपनी शक्ति का प्रयोग करना तुम्हारी माता ने सिखाया है। क्या असहायों पर ही शस्त्र का बल प्रयोग करना तुमने वीरता समझ रखी है? धिक्कार है तुम्हारी माता के इस आचरण पर और तुम्हारे जैसे कायर एवं अंध मातृ-भक्त पर।'

"...........' पर्णिक ने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर लिए।

'तुम्हारी माता ने तुम्हें योग्य बनाया, तुम्हारी माता ने तुम्हें शस्त्र संचालन सिखाया, तुम्हारी माता ने तुम्हें अतुलित शक्ति प्रदान की...परन्तु आज वहीं तुम्हारी माता देश पर विपत्ति के समय भीरुता का पथ ग्रहण कर रही हैं आज वहीं तुम्हें पथ विमुख कर रही हैं, ऐसे समय जबकि तुम समरांगण में अपनी बलि देकर सदैव के लिए अपवनी और अपनी माता की कीर्ति कौमुदी उज्जवल कर सकते हो...। तुम वीर हो, बलशाली हो, निर्बलों एवं असहायों पर अपने प्रज्ज्वलित नेत्रों से क्रोध की वर्षा कर सकते हो—अपनी माता की आज्ञा के विरुद्ध एक भी कार्य नहीं कर सकते हो तुममें इतनी बुद्धि, इतनी शक्ति नहीं कि देश की संकटापन्न स्थिति में तुम अपनी माता की अवहेलना कर सको...तुम नपुंसक हो, कायर हो, भीरू हो...।'

नायक-पुत्र की व्यंग्यपूर्ण बातों से घबराकर पर्णिक अपनी माता के पास भागा। 'मुझे आज्ञा दो माताजी!' पर्णिक के नेत्रों में अश्रुबिन्दु झलक आये थे। वह मातृ-भक्त वास्तव में बिना अपनी माता की आज्ञा पाय कुछ भी कर सकने में असमर्थ था—'देखो माताजी! तनिक दृष्टि उठाकर आज किरात समुदाय की ओर देखो। सभी तुम पर वाक् वाणों की वर्षा कर रहे हैं।'

'करने दो वत्स ! दुख में ही तो हमारा जीवन प्रस्फुटित हुआ है।'

'परन्तु तनिक अपने कर्तव्य पर ध्यान दो माताजी! वीर प्रसविनी होकर अपने पुत्र को भीरूता की गोद में समर्पित कर देना अन्याय होगा। तुम विचार भी नहीं कर सकीं कि इस समय मेरे हृदय में तुम्हारी भीरूता ने कितना दारुण शोर मचा रखा है। मैं जल रहा है कि मेरी माता का वीर हृदय नहीं, वरन् एक अनाथिनी का कायर हृदय बोल रहा है। मैंने ऐसा नहीं समझा था।'

'वत्स...!'

'मुझे आज्ञा दो माता जी।' पर्णिक ने माता के समक्ष घुटने टेक दिये।

विवश होकर माता ने प्रेमपूर्वक उसके मस्तक पर अपना हाथ रख दिया। तत्पश्चात् आंचल में से वही रत्नहार निकालकर उसके गले में डाल दिया—'जाओ वत्स...! यह अपनी अमूल्य निधि, यह पवित्र रत्नहार मैं तुम्हें प्रदान करती हूं। यह कल्याणकारी है। इसे बहुत ही यत्नपूर्वक रखना। एक क्षण के लिए भी इसे अपने से विलग न करना, नहीं तो अनिष्ट होगा।'

पर्णिक ने माता की चरण-धूलि मस्तक से लगाई।

पुन: गर्दन में पड़े हुए उस अमूल्य रत्नहार को मन-ही-मन प्रणाम किया और उत्साह से भरकर शीघ्रतापूर्वक उस ओर चल पड़ा, जिधर दस सहस शस्त्रधारी किरात-युवक खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

पर्णिक को देखकर सबने जयघोष किया। शीघ्र ही वह किरात सेना, तीव्रगति से खट्वांग घाटी की ओर अग्रसर हुई।

पर्णिक की माता झोंपड़े के द्वार पर उन वीरों का पद-संचालन तब तक देखती रही, जब तक कि सघन वनस्थली ने उन मदमस्त युवकों को अपने अंचल में छिपा नहीं लिया।
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आठ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
युवराज नारिकेल द्रविड़राज के प्रकोष्ठ के समक्ष आकर खड़े हो गये। द्वारपायक ने मस्तक झुकाकर युवराज को सम्मान प्रदर्शन किया।

'पिताजी क्या कह रहे हैं?' युवराज ने द्वारपायक से पूछा।

'प्रकोष्ठ में है। मध्याह्न से बाहर नहीं निकले हैं।' द्वारपायक ने कहा।

'तुम उन्हें सूचित करो कि मैं उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुआ हूं...।' युवराज ने कहा।

द्वारपायक सर झुकाकर प्रकोष्ठ के भीतर चला गया। कुछ ही क्षण बाद वह बाहर आकर बोला—'श्रीसम्राट आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' युवराज ने प्रकोष्ठ के भीतर प्रवेश किया। द्रविड़राज उस समय संतप्त भंगिमा लिये, अश्रु-प्लावित नेत्रों से द्वार देश की ओर देखते हुए बैठे थे स्वर्णासन पर।
उनके केश बिखरे हुए थे। कपोलों पर अश्रु-बिन्दु झलक रहे थे। शरीर शिथिल हो रहा था, मानो पर्याप्त समय से वे चिंतासागर में गोते लगाते रहे हों।

सम्राट की दयनीय दशा देखकर युवराज को असीम वेदना हुई। यद्यपि आज से पहले भी युवराज सम्राट को दुखी एवं म्लान देखा करते थे. परन्तु उनकी आज की हालत देखकर युवराज का कलेजा मुंह को आ गया। उनके नेत्र न जाने किस प्रेरणा से सिक्त हो उठे।

'पिताजी ... !' उन्होंने आर्द्र स्वर में पुकारा।

'आओ युवराज।' द्रविड़राज ने अपनी करुण भंगिमा ठीक करने का व्यर्थ प्रयत्न किया —'आओ बैठो।'

युवराज आकर शैया पर बैठ गये। कुछ क्षण तक मौन रहकर उन्होंने सम्राट को मूक वेदना को समझने की चेष्टा की।

'आजकल आप दुखित क्यों रहते हैं, पिताजी...?' युवराज ने प्रश्न किया। द्रविड़राज ने युवराज की ओर करुण नेत्रों से देखा। 'मैं आपसे यह पूछने की धृष्टता करता हूं कि अन्तत: इस दुख का कारण क्या है? नेत्रों में अश्रु-कण, मुख पर प्रखर वेदना के चिन्ह एवं अन्तस्थल में प्रज्जवलित ज्वाला—इन सबका कारण क्या है? आज तक मैं दुखित हृदय से आपकी सारी व्यथा देखता आ रहा था, आज पूछता हूं कि आपको कौन-सी मानसिक अशांति क्लेश दे रही है...? बोलिए पिताजी!'

पुत्र की सांत्वनामयी कोमल वाणी सुनकर द्रविड़राज का मर्मस्थल द्रवित हो गया-वे फूट-फूटकर रो पड़े, अपने फूटे भाग्य पर—'जाने दो वत्स! मुझे कोई कष्ट नहीं।'

'कोई कष्ट नहीं, कोई व्यथा नहीं, कोई वेदना नहीं...?' यवराज ने प्रश्नसूचक दृष्टि से द्रविड़राज का मुख देखा, जिस पर कष्ट का साकार रूप, व्यथा की साक्षात झलक एवं वेदना की प्रखर ज्वाला स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रही थी—'कैसे कहते हैं कि आपको कोई कष्ट नहीं है, पिताजी...| तनिक अपनी म्लान मुखाकृति पर दृष्टिपात कीजिये—प्रतीत होता है, जैसे जगत की समग्र वेदना का साम्राज्य छाया हो आपके नेत्रों में। मुझे बताइये पिताजी। अपने दुख का कारण बताइये मुझे। यदि अपने प्राण देकर भी आपको प्रसन्न देख सका तो अपने को भाग्यशाली समझूगा।"

'क्या करोगे सुनकर वत्स।' रहने दो। उस असीम वेदना का भार केवल मुझे ही वहन करने दो। जिस रहस्य को आज तक तुमसे प्रच्छन्न रखा है, उसे सुनकर व्यथित होने की चेष्टा न करो।

'मैं उस भेद को सुनंगा...अवश्य सुनंगा। यदि आप बताने की कृपा न करेंगे तो मैं समझंगा कि इस संसार में एक ऐसी भी वस्तु है, जिसे श्री सम्राट मुझसे भी अधिक चाहते हैं।'

'ऐसा न कहो युवराज! तुम्हारे अतिरिक्त मेरा है ही कौन...? कौन है मेरे दुख का साथी...?' सम्राट ने कहा-'तुम सुनना ही चाहते हो वह गुप्त भेद...तो सुनो।'

हृदय पर पाषाण रखकर द्रविड़राज ने अपने दुख की गाथा, अपनी वेदना की करुण कहानी युवराज को आद्योपांत सुना दी।

अपनी अर्धागिनी, राजमहिषी त्रिधारा को उन्होंने जो कट राज्यदण्ड दिया था और राजमहिषी के बिछुड़ जाने से उनके हृदय पर जो बीत रही थी—सब कुछ सुना दिया।
 
वे बोले—'सब कुछ किया, अपने न्याय को अटल रखा, फिर भी मेरा न्याय अधरा रह गया। क्या यही न्याय है कि पत्नी असह्य वेदना का भार वहन करती निर्वासन का कष्ट झेले और पति राजभवन में षडरस का स्वाद लेता हुआ सुखपूर्वक अपने दिवस व्यतीत करे...? एक साधारण त्रुटि ने मुझे विदग्ध कर रखा है युवराज। में जल रहा हूं, भयानक मानसिक वेदना से। जिस समय वे गर्भवती थी...हाय ! आज वह न जाने कहां होंगी? बहुत खोज की परन्तु वे न मिली..न मिलीं वह पूजनीय देवी...।'

युवराज के नेत्र अश्रु-वर्षा कर रहे थे उस करुण कहानी को सुनकर। वे विचार कर रहे थे कि वास्तव में द्रविड़राज का हृदय कितना न्यायपूर्ण एवं निर्मल है।

जीवन में आज प्रथम बार उन्हें माता का अभाव प्रतीत हुआ। उनका हृदय अपनी माता की करुण-गाथा सुनकर हाहाकार कर उठा।

'मैंने कठोर न्याय का पालन किया था, परन्तु अपने कर्तव्य का पालन न कर सका था...वह पवित्र रत्नहार भी, जिसके लिए यह सब हुआ, न जाने कहा लुप्त हो गया। पता नहीं कि राजमहिषी ही उसे अपने साथ लेती गई या किसी ने पुन: चुरा लिया। अवश्य ही किसी ने चुरा लिया होगा। राजमहिषी उसे अपने साथ नहीं ले जा सकती—यह मेरा दृढ़ अनुमान है। मैंने चोर का पता लगाने के लिए कोटिशः प्रयत्न किया, परन्तु सब निष्फल हुआ...!'

'मैं उस चोर का पता लगाने के लिए अवश्य प्रयत्न करूंगा, यदि कभी वह चोर मेरे हाथ लग गया तो उसके प्राणों से मैं उस पवित्र रत्नाहार के अपमान का प्रतिशोध लूंगा।' कहकर युवराज ने दांत पीस लिये।

उन्हें वास्तव में उस चोर पर असीम क्रोध आ रहा था जिसने उनके कुल के उस पवित्र रत्नाहार का अपहरण किया था।

'उस समय तुम्हारी अवस्था केवल तीन वर्ष की थी, वत्स! आज तुम युवा हो, तब से अब तक इतने वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी मैं राजमहिषी को भूला नहीं हूं और प्रतिदिन उनकी पूजा किया करता हूं।'

'पूजा...!' युवराज को आश्चर्य हुआ।

'हा। वह देवी थी—रुष्ट होकर यहां से चली गई, संसार के न जाने किस छोर में विलीन हो गई। अब नित्यप्रति उनकी उपासना करके ही अपने सन्तप्त हृदय को शांति प्रदान करने की चेष्टा करता है। देखोगे युवराज...उनकी प्रतिमा देखोगे? अपनी स्नेहमयी जननी की लावण्ययुक्त देदीप्यमान सुप्रभा देखोगे?'

द्रविड़राज उठ खड़े हुए—'आओ! इधर आओ मेरे पास।'

युवराज उनके पास चले आये।

'आज प्रथम बार तुम भी अपनी माता की स्वर्ण-प्रतिमा का दर्शन कर लो—प्रणाम कर लो उस देवी के चरण कमलों में...।'

द्रविड़राज ने अंतप्रकोष्ठ का द्वार धीरे से खोला और युवराज को उसके भीतर झांकने के लिए कहा।

युवराज चकित हो गये—यह देखकर कि उस छोटी-सी कोठरी के भीतर पूजा की सामग्री, गंध, धूप आदि सुव्यवस्थित रूप से रखे हुए हैं।

देव-प्रतिमा के स्थान पर एक सौंदर्यमयी देवी की स्वर्ण प्रतिमा विराजमान है। युवराज ने घुटने टेककर नतमस्तक हो अपनी माता की उस स्वर्ण-प्रतिमा को प्रणाम किया।
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युवराज को ऐसा लगा, मानो उस प्रतिमा ने अपना हाथ उनके मस्तक पर रखकर शुभाशीर्वाद दिया हो।

युवराज के नेत्रों के अश्रु-बिन्दु टपककर उस स्वर्ण प्रतिमा के समक्ष चू पड़े।

'देखो वत्स...।' द्रविड़राज ने कहा—'यही है तुम्हारी माता।' '...........।

' युवराज ने रिक्त नेत्रों से अपने अभागे पिता की ओर देखा।

'इस प्रतिमा का रहस्य कोई नहीं जानता वत्स! कोई भी नहीं जानता कि मैं मानसिक वेदना से विदग्ध होकर किसी प्रतिमा की आराधना किया करता हूं। मैं लोगों अपनी निर्बलता प्रकट करना नहीं चाहता, वत्स...।'

'सम्राट का हृदय सबल होना चाहिए। दुख की घनघोर घटाएं एवं वेदना की प्रचंड अगिन जिसे व्यक्ति न कर सके, वहीं सम्राट है।' युवरजा नेकहा—'चलिए! संध्योपासना का समय सन्निकट आ गया...महापुजारी जी प्रतीक्षा करते होंगे।' द्रविड़राज एवं युवराज एक साथ ही प्रकोष्ठ से बाहर आये। द्वारपाल ने झुककर दोनों को सम्मान प्रदर्शन किया।

-- राजोद्यान में एक सघन वृक्ष की स्थूल शाखा में हिंडोला पड़ा था, जिस पर झूल रही थी किन्नरी निहारिका-अपनी अगम सौन्दर्य-राशि बिखेरती हुई।

सघन घन के आवरण ने सूर्य भगवान का समसत तेज अपने अचल में प्रच्छन्न कर रखा था। यावत् जगत पर एक अपूर्व उन्माद-सा छाया हुआ था, काले-काले बादलों की आकाश-मण्डल पर भाग दौड़ देखकर।

धीमी-धीमी वायु परिचालित होकर उस उन्माद में वृद्धि कर रही थी। निहारिका प्रकृति के उस अपूर्व दृश्य से प्रभावित होकर हिंडोला झल रही थी। झलते समय उसके कुन्तलपास वायु के प्रबल वेग से झूमते हुए, उसके आरक्त कपोलों का चुम्बन करने लगते
 
कभी-कभी उसके सुकोमल पैरों में पड़े हुए नूपुर, मधुर स्वर से झंकृत हो उठते। वह प्रसन्न विभोर होकर प्रकृति की नीरव अल्हड़ता का आनंद उपभोग कर रही थी।

परन्तु उसके आनंद में बाधा पहंची। युवराज नारिकेल न जाने कहाँ से घूमते हुए आ पहुंचे। किन्नरी ने हिंडोले पर से उतरकर सम्मान प्रदर्शन किया।

युवराज ने मधुर मुस्कान के साथ उसके अभिवादन का स्वागत किया और हिंडोले पर आ बैठे।

युवराज के बहुत आग्रह करने पर निहारिका भी उसी हिंडोले पर सिमटी सकुचाती-सी बैठ गई। 'आज बहुत दिनों पश्चात् मिलन हो रहा है।' युवराज ने कहा।

'श्रीयुवराज न जाने क्यों रुष्ट हो गये थे, तभी तो उपासना के अतिरिक्त और किसी समय दर्शन देने की कृपा नहीं करते...।' निहारिका ने अपनी मधुर वाणी द्वारा मधु-वर्षा करते हुए कहा।

युवराज किस मुख से बताते कि महापुजारी ने उन्हें उससे एकांत में मिलने का निषेध कर दिया

यह बात सुनकर कोमल कलिका के हृदय को कितनी ठेस एवं कितनी यंत्रणा पहुंचती...यह वर्णनातीत है।

'श्रीयुवराज क्या वास्तव में रुष्ट है...?' पूछा उसने वीणा विनिन्दित स्वर में।

'नहीं तो...।' युवराज ने कहा। हिंडोला धीरे-धीरे डोल रहा था और उसी के साथ-साथ झूल रहा था किन्नरी का कला-पूर्ण शरीर। उसके अवयव अज्ञात प्रेरणा से अचैतन्य होते जा रहे थे। युवराज अनिमेष नयनों से उस कलामयी सुन्दरी का मुखमण्डल देख रहे थे। 'किन्नरी!'

'देव....!' किन्नरी ने इधर-उधर देखा, देखकर तुरंत ही दृष्टि नीची कर ली।

युवराज ने वृक्ष की टहनी की ओर संकेत किया, जिस पर बैठे हुए दो पक्षी परस्पर चोंच से चोंच मिलाकर अपना प्रेम प्रकट कर रहे थे।

और वह पतली-सी टहनी भी हिंडोले की भांति झूल रही थी, मंथर गति से। उन पक्षियों का वह कल्लोल मानो इन दोनों व्यक्तियों पर व्यंग्य वर्षा कर रहा था। कितने सुखी थे वे दोनों उन्मुक्त मूक पंछी, जिन्हें संसार की कोई वेदना, व्यथा नहीं पहुंचा सकती थी।

जिनका एक अलग ही अनोखा संसार था। किन्नरी दृष्टि नीचे किये बैठी थी

युवराज ने अपने कंठप्रदेश से बहमुल्य मणिमाला उतारकर किन्नरी के गले में डाल दी—'यह लो अपनी कला का पुरस्कार। किन्नरी ने लज्जित हो मस्तक झुका लिया।

मृदुल समीरण वेग से प्रवाहित हो उठा।

हिंडोला झटके के साथ झूल पड़ा।

'मेरे अहोभाग्य! जो देव ने मुझे पुरस्कृत किया...।' किन्नरी ने धीरे से कहा।

'देवता से पुरस्कार पाकर, कहीं देवता को भूल न जाना।' युवराज बोले।

'हमारे नींद भरे नेत्रों में देवता रोज स्वप्न बनकर आएं, यही मेरी आकांक्षा है...।' कहते-कहते निहारिका के कपोल आरक्त हो उठे।

और उसी समय दूर से आती हुई चक्रवाल की मधुर स्वरलहरी उद्यान में गुजरित हो उठी 'मेरे नींद भरे नयनों में वो सपना बनकर आएं। मैं उन्हें छिपा लूं आंखों में, वह मधुर हंसी बन मुस्करायें। मेरे मन मंदिर में वह आयें, निज चरण कमल धर के। मैं उन ही में लय हो जाऊं, कू कू उठू वीणा स्वर में।।' निहारिका हिंडोले पर से उतरकर खड़ी हो गई।

उसी समय सुरभित राजोद्यान में गाते हुए चक्रवाल ने प्रवेश किया। चक्रवाल अभिवादन कर युवराज के समक्ष आकर खड़ा हो गया। 'श्रीयुवराज...!' चक्रवाल ने कुछ कहना चाहा।

'हो...हो..., कहो...क्या कहना चाहते हो तुम?'

'महापुजारी जी को अभी-अभी यह मालूम हुआ कि आप किन्नरी के साथ राजोद्यान में है।। वे इधर ही आ रहे हैं। आप शीघ्र यहां से मेरे साथ चलें।' चक्रवाल उतावली के साथ बोला।

युवराज उठ खड़े हुए और शीघ्रतापूर्वक चक्रवाल के साथ राजोद्यान से बाहर की ओर चल पड़े।

किन्नरी ने जाते हुए युवराज को अभिवादन किया।
 
अब राजोद्यान में केवल किन्नरी रह गई। वह राजोद्यान में इतस्तत: घूमकर मनोरंजन करने लगी।

एकाएक किन्नरी के पैर में एक तीक्ष्ण कांटा चुभ गया। किन्नरी एक आह छोड़कर भूमि पर बैठ
उसी समय चरण-पादुका की ध्वनि सुनाई पड़ी और उद्दीप्त भंगिमां लिए महापुजारी ने वहां पदार्पण किया।

किन्नरी ने महापुजारी का चरण स्पर्श किया। महापुजारी की तीव्र दृष्टि किन्नरी के मुख पर पड़ी—'श्रीयुवराज यहां आये थे...?' उन्होंने तीव्र स्वर में पूछा।

किन्नरी का सारा शरीर भय से सिहर उठा, परन्तु उसने तुरंत ही अपना सर हिलाकर यह प्रकट किया कि युवराज यहां नहीं आये थे।

महापुजारी ने ऐसी भंगिमा प्रदर्शित की, जैसे उन्हें उसकी बात पर विश्वास न हुआ हो। 'बोलो निहारिका ! श्रीयुवराज यहाँ आये थे या नहीं?'

परन्तु निहारिका के कुछ कहने से पहले ही, महापुजारी की दृष्टि निहारिका के कंठ में पड़ी युवराज की दी हुई मणिमाला पर जा पड़ी।

उनके नेत्र प्रज्जवलित हो उठे—'हे ! उन्होंने विकट रूप से हुंकार-भरी तो श्रीयुवराज यहां अवश्य आये थे—तुम्हारे कंठ में पड़ी हुई मणिमाला इसकी साक्षी है।' किन्नरी को पैरों तले से पृथ्वी जैसे खिसकती-सी मालूम पड़ी।

अभी तक उसने उस मणिमाता पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया था और न तो उसे छिपाने का ही कोई प्रयत्न किया था।

तनिक-सी भूल ने अनर्थ कर डाला। बिना एक शब्द बोले महापुजारी घूम पड़े और क्रोधपूर्ण भंगिमा से राजोद्यान के बाहर हो गये। किन्नरी का हृदय धड़कने लगा। उसने कसकर वह मणिमाला अपने हृदय से दबा ली, जैसे कोई बलपूर्वक उसे छीनने की चेष्टा कर रहा हो।

-- महापुजारी को तीव्र वेग से आते हुए देखकर द्वारपाल पार्श्व में हटकर खड़ा हो गया और झुककर उसने महापुजारी की चरण धूल मस्तक से लगाई।

'श्रीसम्राट को सूचित करो कि महापुजारी जी इसी समय उनसे मिलने को उत्सुक हैं। कार्य अत्यंत आवश्यक है...।' महापुजारी जी ने उतावली के साथ कहा।

द्वारपाल भीतर चला गया, वह क्षण-भर पश्चात् लौटकर बोला—'पधारिए।' द्रविड़राज राज भी उन्हीं कष्टमयी विचारों में तल्लीन थे। उनके नेत्रों में दुखातिरेक से आज भी अश्रु-कण विद्यमान थे। परन्तु द्वारपाल ने सुनकर कि महापुजारी उनसे इसी समय मिलने को उत्सुक हैं, उन्होंने अपने नेत्र पोंछ लिए-भंगिमा ठीक कर ली।

महापुजारी आये। सम्राट ने उनकी चरण-धूलि मस्तक से लगाई।

महापुजारी गरज उठे—'श्री सम्राट ! देख रहा हूं कि जो कभी द्रविड़कुल के इतिहास में नहीं हुआ, वहीं अब होने जा रहा है। जिस बात की आशंका मेरे हृदय में बहुत पूर्व से ही विराजमान थीं, वह विश्वास में परिणत हो गई है।'

.................।' द्रविड़राज निस्तब्ध रहे।

'श्रीयुवराज के कार्यों की और मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ श्रीसम्राट !' महापुजारी बोले- वे किन्नरी निहारिका के अत्यधिक सम्पर्क में आ गये हैं। एक दिन मैंने उनको सावधान कर दिया था, परन्तु...।'

'क्या नारिकेल के विषय में आपकी यह धारणा है, महापुजारी जी...?' सम्राट आश्चर्यचकित हो उठे।

'श्रीसम्राट का अनुमान सत्य है।'

'महामाया करें यह धारणा असत्य हो, महापुजारी जी...। नारिकेल सलिल जैसा निर्मल एवं चन्द्रिका जैसा धवल है...।'

'श्रीसम्राट...!' तीव्र स्वर में बरस पड़े महापुजारी—'यौवन का आवेग आधी के समान होता है। यह न भूल जाइये कि इस अवस्था में कोई भी प्रलयंकारी कार्य असम्भव नहीं।'

'क्षमा...। मुझे क्षमा करें, महापुजारी जी। मैं अभी नारिकेल को बुलाकर पूछता हूं।'

'उन्होंने अपनी मणिमाला प्रदान की है उसे।'

'मणिमाला...?' सम्राट का स्वर उत्तेजित हो उठा—'उसने मणिमाला प्रदान की है? वह अपनी वंश-मर्यादा विस्मृत कर बैठा है? अपने धवल वंश पर कलंक-कालिमा लगाना चाहता है बह...?'

क्रोधित द्रविड़राज आगे बढ़कर द्वार के सन्निकट चले आये—'पायक...।' और विकट करतल ध्वनि की उन्होंने।

'आज्ञा श्रीसम्राट...'' द्वारपायक ने सम्राट को अभिवादन किया। 'युवराज को बुलाओ—अभी।'
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'जी हां! अभी-अभी महापुजारी सीधे श्रीसम्राट के पास गए हैं। मुझे ठीक से पता है...अब क्या होगा?' चक्रवाल ने शंकित स्वर में कहा।
 
युवराज के मस्तक पर चिंता की रेखायें खिंच आई। 'किन्नरी कहती थी कि महापुजारी जी ने आपकी प्रदान की हुई मणिमाला उसके कंठ-प्रदेश में देख ली है...।' चक्रवाल बोला।

'मणिमाला देख ली है...?' युवराज कांप उठे—'क्या कला की उपासना करना इतना बड़ा अपराध है ? सौन्दर्योपासना में सदैव वासना ही क्यों दिखाई देती है इस दुनिया को...?'

'इस जगत के अधम प्राणी यह सब नहीं समझ सकते श्रीयुवराज।

'अधम प्राणी...यह किसे कह रहे हो तुम, चक्रवाल...? पिताजी को या महापुजारी को...? सावधान ! फिर कभी ऐसा वाक्य मुख से न निकालना। पिता जी मेरे पूज्य हैं, महापुजारी गुरुदेव हैं भला वे कभी हमारे अहित की कामना कर सकते हैं?'

'श्रीयुवराज मुझे क्षमा प्रदान करें—वह देखिए, श्रीसम्राट का द्वारपायक इधर ही आ रहा है।' द्वारपायक ने आकर युवराज को अभिवादन किया और बोला-'श्रीसम्राट आपको इसी समय स्मरण कर रहे हैं। आप मेरे साथ ही चलने की कृपा करें।'

'चलो...! तुम घबराओ नहीं चक्रवाल। मैं पिताजी से सब स्पष्ट कह दूंगा।'

यवराज ने ज्योंही द्रविडराज के प्रकोष्ठ में प्रवेश किया, द्रविड़राज का सारा क्रोध विलीन हो गया, युवराज की सहज निष्कलंक मुखाकृति का अवलोकन कर। युवराज ने आगे बढ़कर महापुजारी एवं द्रविड़राज के चरण छुए।

'वत्स...! महापुजारीजी का कथन है कि तुम्हारे कार्यों से द्रविड़ कुल की उज्ज्वल मर्यादा विनष्ट होना चाहती है...।' द्रविड़राज ने स्थिर दृष्टि के युवराज के नेत्रों में देखते हुए कहा।

'यदि मेरा कोई आचरण महापुजारी को निकृष्ट प्रतीत हुआ हो तो मैं उनसे क्षमा मांगता हूं...युवराज ने संयत वाणी में कहा।

'आपकी मणिमाला कहां है, श्रीयुवराज...?' महापुजारी जी ने पछा।

द्रविड़राज कांप उठे—यह सोचकर कि यदि कहीं युवराज ने मणिमाला के विषय में असत्य सम्भाषण किया तो उन्हें युवराज को भी उसी प्रकार न्याय दण्ड देना पड़ेगा, जिस प्रकार उन्होंने राजमहिषी त्रिधारा को दिया था।

द्रविड़राज तीक्ष्ण दृष्टि से युवराज की ओर देखते रहे। उनका हृदय तीव्र वेग से स्पंदित होता रहा।

'मैंने उसे किन्नरी निहारिका को प्रदान कर दिया...।' युवराज की गंभीर वाणी गंज उठी, साथ ही द्रविड़राज प्रसन्नता से आल्हादित हो उठे युवराज की सत्यता पर।

'क्यों...? मणिमाल किन्नरी को प्रदान करने का कारण?' महापुजारी ने पूछा।

'उसकी सर्वतोमुखी कला का अवलोकन कर, किसी के भी हृदय में आकर्षण का उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है।

युवराज का स्पष्ट कथनसुनकर महापुजारी अवाक् और स्तब्ध रह गये। क्रोधपूर्ण मुखमुद्रा गंभीर हो गई।

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कई क्षण तक प्रकोष्ठ में नीरवता का साम्नाज्य छाया रहा।

'जाओ...। फिर कभी किन्नरी से मिलने का प्रयास न करना...।' द्रविड़राज ने कहा। महापुजारी एवं सम्राट के चरण छूकर युवराज अपने प्रकोष्ठ की ओर चले गए। तब युवराज ने फिर कभी किन्नरी से मिलने का प्रयास नहीं किया।

यद्यपि दारुण ज्वाला उनके हृदय में धधकती रहती थी, तथापि अपने गुरुजनों के अभीष्ट मार्ग पर चलना ही तो उनका परम कर्तव्य था।
 
युवराज का हृदय रह-रहकर किन्नरी से मिलने के लिए व्यग्र हो उठता था। अहर्निश किन्नरी का कलापूर्ण शरीर उनके नेत्रों के समक्ष नृत्य करता था। कभी-कभी सुषुप्तावसथा में वे चिल्ला उठते थे, 'किन्नरी ! कलामयी किन्नरी ! कहाँ हो तुम...?'

किन्नरी को कम दुख न था। वह तो अबला थी, युवराज के विछोह से वह अत्यंत व्यथित थी। केवल उपासना के समय राजमंदिर में दोनों का मिलन होता, परन्तु गुरुजी के भय से कोई भी एक-दूसरे से न बोलता।

जब किन्नरी अपने प्रकोष्ठ में अकेली बैठी रहती तो युवराज का स्मरण कर उसका कलेजा मुख को आ जाता। वह फूट-फूटकर रो उठती।

एक दिन, जबकि वह अपने प्रकोष्ठ में बैठकर अश्रुवर्षा कर रही थी, चक्रवाल उसके पास आ पहुंचा।

उसके नेत्रों में अनुकण देखकर चक्रवाल का दयार्द्र हृदय विचलित हो उठा। उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—'रोना बंद करो किन्नरी! फटे भाग्य पर अश्रपात करने की अपेक्षा, उस सर्वव्यापी अन्तर्यामी पर भरोसा करना अधिक उत्तम मार्ग है।'

'चक्रवाल!' किन्नरी सिसकती हुई बोली-'तुम्हारे युवराज मुझसे रुष्ट है क्या?'

'मेरे युवराज! और तुम्हारे नहीं...? भला वे कभी रुष्ट हो सकते हैं तुमसे? जिस प्रतिमा की वे आराधना करते हैं, उससे भला वे रुष्ट होंगे...वे तुमसे भी अधिक सन्तप्त है. किन्नरी! सखकर आधे हो गये हैं वे।' चक्रवाल ने किन्नरी को सान्त्वना दी—'धैर्य रखो। हमारा जीवन, दुखों का सागर है। हमने यातना सहन करने के लिए ही इस आसार संसार में जन्म लिया है, इसमें दोष किसका? उन्हें भूल जाओ। वे युवराज हैं, जम्बूद्वीप के भावी अधीश्वर हैं, वे हमारे नहीं हो सकते किन्नरी।'

चक्रवाल ने दूसरी ओर मुख फेर लिया। कदाचित् उस अगम कलाकार के नेत्रों में भी अश्रु-कण उमड़ पड़े थे-अपनी कला-सहचरी की असीम वेदना देखकर।
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अर्द्धरात्रि की भयानक नीरवता समग्र संसार को आच्छादित किये थी।

आकाश मार्ग पर प्रदीप्त कुछ तारिकायें सुषुप् संसार की ओर अनिमेष दृष्टि से देख रही थी, वायु निश्चल थी एवं प्रकृति निस्तब्ध!

चक्रवाल के नेत्रों में अब तक निद्रा के कोई लक्षण नहीं थे। वह अपने प्रकोष्ठ में छोटी-सी खिड़की के पास बैठा हुआ, आलोकित तारिकाओं की ओर मुग्ध-दृष्टि से देख रहा था।

उसके करों में थी वीणा और वीणा के तारों पर थी उसकी सधी हुई अंगुलियां। निस्तब्धता प्रकम्पित करती हुई वीणा की ध्वनि क्षितिज की सीमा-रेखा दूने लगी।

साथ ही चक्रवाल के मुख से निकलती हुई रागिनी, मानो जड़ को चैतन्य एवं चैतन्य को जड़ बना रही थी।

वह अपनी रागिनी के तन्मय था। उसे क्या पता कि इस समय भी जबकि यावत् संसार सुखद निद्रा में निमग्न है दो प्राणी उसके गायन से अत्यंत व्यथित हो रहे हैं।

किन्नरी निहारिका अपने प्रकोष्ठ में बैठी हुई चक्रवाल के गायन की विकल रागिनी सुन रही थी। उसके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी।

समय संसार रजत प्रकाशधारा में लान करता हुआ उस अगम कलाकार की कला में तन्मय था।

चक्रवाल भी तन्मय था केवल उसकी विकल स्वर-रागिनी थिरक रही थी 'आशा में मधुर मिलन की ये अपनी आंखें डाले।'

"तुम कान्त' तड़पती रहती लेकर अंतर में छाले।।
जीवन की प्यारी घड़ियां, अब यों ही बीती जाती।
ऊषा की लाली में अब, संध्या की झलक दिखाती।।'
एकाएक चक्रवाल के बंद द्वारदेश पर बाहर से किसी ने थपकी दी। उसने अपनी वीणा रख दी और द्वार की अर्गली खोल दी।

'किन्नरी तुम...?' एकाएक चक्रवाल के मुख से आश्चर्यजनक स्वर में निकल पड़ा निस्तब्ध अर्द्धरात्रि में अपने द्वार पर वेदना-विक्षिप्त किन्नरी निहारिका को खड़ी देखकर।
 
किन्नरी, चक्रवाल को प्रकोष्ठ में चली आई और भीतर से पुन: कपाट बंद कर दिया। चक्रवाल ने देखा-उसकी मुखाकृति म्लान है, उसके नेत्रों में अश्रु-बिन्दु विद्यमान हैं । उसका समस्त सौंदर्य अस्त-व्यस्त हो रहा है।

'चक्रवाल...!' किन्नरी ने कांपते स्वर में पूछा।

'इस समय यहां आने का कारण?' चक्रवाल ने पूछा।
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'अर्द्धरात्रि के समय में भी तुम्हारी कला का स्रोत प्रवाहित है? कभी रुकेगा भी या नहीं? या मुझे रुलाने में ही तुम्हें आनंद प्राप्त होता है।' किन्नरी ने अवरुद्ध कण्ठ से अपने आने का कारण बता दिया।

'तुम्हें वेदना होती है, निहारिका?'

'बाहर दृष्टिपात करो। सम्पूर्ण संसार वेदनाच्छन्न है—पल्लव रुदन कर रहे हैं, चन्द्रिका ओस की वर्षा करती हुई अपनी व्यथा प्रकट कर रही है...तुम क्यों ऐसा गाते हो चक्रवाल...? किसी को व्यथित करने से, रुलाने से, तुम्हें मिलता क्या है?'

'समझती हो कि तुम रुदन करती हो तो मैं हंसता हूं? किन्नरी! वेदना का प्रखरतम प्रतिरूप मेरे हृदय में भी विद्यमान है। सब कुछ खोकर बैठा हूं—अब इन गीतों का ही तो सहारा है। तुम इन्हें भी मुझसे छीन लेना चाहती हो।' निहारिका को आश्चर्य हुआ। उसने चक्रवाल के मुख की ओर दृष्टिपात किया। वह चौंक पड़ी— चक्रवाल के नयन-कोटरों में वेदना के प्रतिरूप अश्श्रुबिन्दु देखकर। चक्रवाल बोला—'तुम्हें व्यथा पहुंचती है तो वचन देता हूं-अब नहीं गाऊंगा।'

'गाओ! अवश्य गाओ।' निहारिका ने कहा—'ऐसी विकल रागिनी की वर्षा करो कि जड़ चेतन, सभी हाहाकारमयी व्यथा से रुदन करने लगें...गाओ चक्रवाल।' विक्षिप्त की तरह वह बोली। एक क्षण में ही उसकाविचारबदल गाय, चक्रवाल की व्था अवलोकन कर।

चक्रवाल ने किन्नरी की विक्षिप्तावस्था देख, अपनी वीणा उठाई। वीणा की झंकार एवं चक्रवाल के स्वर का प्रकम्पन, एकाकार होकर गुंजारित हो उठा— 'रस बरसे, रस बरसे।' अपनी प्यास छिपायेमन में, क्यों तरसे, क्यों तरसे।' उसके गायन में पुन: बाधा पहुंची।

किसी ने पुन: उसके बंद द्वार पर थपकी दी थी। चक्रवाल चौंक पड़ा—किन्नरी कांप उठी। 'महापुजारी आये हैं—अवश्य उन्हें पता लग गया होगा कि तुम मेरे प्रकोष्ठ में हो...अब...!'

चक्रवाल ने मंद स्वर में कहा।
उसका हृदय धड़क रहा था—किन्नरी को अर्द्धरात्रि के समय उस प्रकोष्ठ में देखकर महापुजारी न जाने क्या समझेंगे।

द्वार पर पुन: थपकी पड़ी। किन्नरी व्यग्रतापूर्वक बोली- 'तुम बताओ चक्रवाल! मैं क्या करूं? कहां जाऊं? यदि महापुजारी मुझे यहाँ देख लेंगे तो पीसकर पी जायेंगे—तुम्हें भी बुरा-भला कहे बिना रहेंगे।'

'क्या करूं...?' चक्रवाल हाथ मल रहा था।

'एक भूल के करण युवराज से बिछड़ गई—आज दसरी भुल के कारण तुमसे भी बिछड़ जाना चाहती हूं, चक्रवाल। कोई मार्ग शीघ्र ढूंढ निकालो–मुझे महापुजारी की क्रूर दृष्टि से बचाओ, चक्रवाल।' किन्नरी अत्यधिक भयभीत हो उठी।

तीसरी बार द्वार पर कुछ देर तक थपकी पड़ी।

चक्रवाल बोला—'अब मुझे द्वार खोलना ही चाहिये, किन्नरी। तुम पलंग के बिछावन पर लेट जाओ। मैं तुम्हें इसी में लपेट दं। दूसरा कोई मार्ग नहीं...अब जो कुछ होगा देखा जायेगा...जल्दी करो।'

किन्नरी बिछावन पर लेट गई। चक्रवाल ने बिछावन के साथ उसे भी पलेटपकर पलंग के पायताने कर दिया और आगे बढ़कर धड़कते हुए हृदय से द्वार खोल दिया।

'मगर वह मानो आकाश से गिरा यह देखकर कि द्वारदेश पर महापुजारी की उग्र मूर्ति नहीं, वरन् युवराज की सौम्य एवं शांत प्रतिमा खड़ी है—कालिमाच्छन्न मुखमंडल लिए हुए।
 
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