desiaks
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इतिहास का वह स्वर्णिम युग था,जबकि मनुष्यों में इतनी शक्ति, इतनी श्रद्धा एवं इतना विश्वास था कि वे मंत्रों के प्रभाव से अप्राप्य वस्तुओं को भी प्राप्त कर लेते थे।
क्रीड़ा करते-करते वह रत्नहार बानर के हाथों से छूटकर भूमि पर आ रहा। उसी समय उसकी दृष्टि उद्यान में लगे हुए नाना प्रकार के पौधों पर पड़ी, जिन पर गंधयुक्त पुष्प प्रस्फुटित होकर अपनी मधुर गंधराशि पवन को प्रदान कर रहे थे।
दूसरी ओर अगणित फलों के वृक्ष, फलों के भार से भूमि का चुम्बन कर रहे थे। वानर भूल गया उस पवित्र रत्नहार को। उसका मन उन सुंदर पुष्पों एवं सुस्वादु फलों के लिए मचल उठा।
वह वृक्ष से नीचे उतर आया और उद्यान के पुष्पों एवं फलों को तोड़ने लगा। कुछ उदरस्थ करता हुआ नष्ट करता।
जिस समय राजमहिषी त्रिधारा ने विधिवत् स्नान करके अपने शयन-कक्ष में प्रवेश किया, उस समय यह देखकर कि वह परम पवित्र रत्नाहार शैया पर नहीं है, उनका हृदय प्रबल वेग से कम्पायमान हो उठा।
न जाने किस भावी आशंका से उनकी दाहिनी बांह फड़क उठी। उनके नेत्रों के समक्ष घोर अंधकार आच्छादित हो उठा।
बहुत खोज करने पर भी जब वह रत्नहार न मिला तो राजमहिषी की चिंता बढ़ चली।
उन्होंने प्रासाद के प्रत्येक भाग को राई-रत्ती ढूंढा,पर वह कहीं न मिला। नियति का क्रूर एवं भयानक चक्र पुष्पपुर के राजप्रकोष्ठ पर आकर स्थिर हो गया था, तभी तो इतनी अघटित घटनायें हो रही थीं। नियति अपने विकराल करों द्वारा द्रविड़राज के लिए एक वीरान संसार का सृजन कर चुकी थी
—तो यह रत्नहार मिलता ही क्योंकर !
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रात्रि में जिस समय द्रविड़राज युगपाणि शयन-कक्ष में आये तो उन्हें यह देखकर महान दुख एवं आश्चर्य हुआ कि राजमहिषी त्रिधारा का हृदय अत्यधिक व्यग्न एवं चंचल है।
'राजमहिषी...। प्रिये...।' द्रविड़राज ने राजमहिषी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया—'मैं अवलोकन कर रहा हूं कि तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री इस समय प्रभाहीन हो रही है...ऐसा क्यों...?'
द्रविड़राज ने राजमहिषी के नेत्रों की ओर अनिमेष दृष्टि से देखते हुए कहा—'और...यह क्या?'
अकस्मात् द्रविड़राज की दृष्टि महिषी के कंठ-प्रदेश पर जा पड़ी। वह पवित्र रत्नहार न देखकर उनके आश्चर्य का पारावार न रहा।
'रत्नहार क्या हुआ...? क्या कहीं निकालकर रख दिया है तुमने?'
साम्राज्ञी का सारा शरीर भय एवं आवेग से कम्पित हो उठा—'हां प्राण! आज हृदय कुछ अधिक व्यग्र था। अत: मैंने रत्नहार उतारकर यत्नपूर्वक मणि मंजूषा में रख दिया है...।'
आज तक साम्राज्ञी ने कभी असत्य नहीं कहा था, परन्तु नियति के कुचक्र ने उन्हें ऐसा कहने को बाध्य कर दिया।
उन्हें अभी आशा थी कि कदाचित् वह रत्नहार कहीं मिल जायेगा। 'देखना प्रिये! वह मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित परम प्रभावशाली मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित रत्नहार है। उसका तनिक भी अपमान अनादर न हो। उसे महान प्रयत्नपूर्वक रखना, नहीं तो अनिष्टकारी घटनायें घटित होते देर न लगेगी।'
सम्राट कुछ क्षण तक रुके। पुन: बोले-पूर्व पुरुषों के कथनानुसार वे क्रूर ग्रह मेरे भाग्याकाश पर उभर आये हैं...जिनके कुप्रभाव से मेरा संसार विनष्ट होने वाला है—ऐसा राज्य के प्रधान ज्योतिषाचार्य का कथन है। इसीलिए मैं तुम्हें सावधान रहने का आदेश दे रहा हूं।'
बेचारे द्रविड़राज को क्या मालूम था कि उन क्रूर ग्रहों ने अपना प्रलयंकारी कार्य प्रारंभ कर दिया है।
दिन बीतते गये...द्रविड़राज ने जब-जब राजमहिषी से उस पवित्र रत्नहार की बात पूछी, तब तब राजमहिषी ने कहा कि वह मणि मंजूषा में सुरक्षित है।
क्रीड़ा करते-करते वह रत्नहार बानर के हाथों से छूटकर भूमि पर आ रहा। उसी समय उसकी दृष्टि उद्यान में लगे हुए नाना प्रकार के पौधों पर पड़ी, जिन पर गंधयुक्त पुष्प प्रस्फुटित होकर अपनी मधुर गंधराशि पवन को प्रदान कर रहे थे।
दूसरी ओर अगणित फलों के वृक्ष, फलों के भार से भूमि का चुम्बन कर रहे थे। वानर भूल गया उस पवित्र रत्नहार को। उसका मन उन सुंदर पुष्पों एवं सुस्वादु फलों के लिए मचल उठा।
वह वृक्ष से नीचे उतर आया और उद्यान के पुष्पों एवं फलों को तोड़ने लगा। कुछ उदरस्थ करता हुआ नष्ट करता।
जिस समय राजमहिषी त्रिधारा ने विधिवत् स्नान करके अपने शयन-कक्ष में प्रवेश किया, उस समय यह देखकर कि वह परम पवित्र रत्नाहार शैया पर नहीं है, उनका हृदय प्रबल वेग से कम्पायमान हो उठा।
न जाने किस भावी आशंका से उनकी दाहिनी बांह फड़क उठी। उनके नेत्रों के समक्ष घोर अंधकार आच्छादित हो उठा।
बहुत खोज करने पर भी जब वह रत्नहार न मिला तो राजमहिषी की चिंता बढ़ चली।
उन्होंने प्रासाद के प्रत्येक भाग को राई-रत्ती ढूंढा,पर वह कहीं न मिला। नियति का क्रूर एवं भयानक चक्र पुष्पपुर के राजप्रकोष्ठ पर आकर स्थिर हो गया था, तभी तो इतनी अघटित घटनायें हो रही थीं। नियति अपने विकराल करों द्वारा द्रविड़राज के लिए एक वीरान संसार का सृजन कर चुकी थी
—तो यह रत्नहार मिलता ही क्योंकर !
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रात्रि में जिस समय द्रविड़राज युगपाणि शयन-कक्ष में आये तो उन्हें यह देखकर महान दुख एवं आश्चर्य हुआ कि राजमहिषी त्रिधारा का हृदय अत्यधिक व्यग्न एवं चंचल है।
'राजमहिषी...। प्रिये...।' द्रविड़राज ने राजमहिषी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया—'मैं अवलोकन कर रहा हूं कि तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री इस समय प्रभाहीन हो रही है...ऐसा क्यों...?'
द्रविड़राज ने राजमहिषी के नेत्रों की ओर अनिमेष दृष्टि से देखते हुए कहा—'और...यह क्या?'
अकस्मात् द्रविड़राज की दृष्टि महिषी के कंठ-प्रदेश पर जा पड़ी। वह पवित्र रत्नहार न देखकर उनके आश्चर्य का पारावार न रहा।
'रत्नहार क्या हुआ...? क्या कहीं निकालकर रख दिया है तुमने?'
साम्राज्ञी का सारा शरीर भय एवं आवेग से कम्पित हो उठा—'हां प्राण! आज हृदय कुछ अधिक व्यग्र था। अत: मैंने रत्नहार उतारकर यत्नपूर्वक मणि मंजूषा में रख दिया है...।'
आज तक साम्राज्ञी ने कभी असत्य नहीं कहा था, परन्तु नियति के कुचक्र ने उन्हें ऐसा कहने को बाध्य कर दिया।
उन्हें अभी आशा थी कि कदाचित् वह रत्नहार कहीं मिल जायेगा। 'देखना प्रिये! वह मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित परम प्रभावशाली मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित रत्नहार है। उसका तनिक भी अपमान अनादर न हो। उसे महान प्रयत्नपूर्वक रखना, नहीं तो अनिष्टकारी घटनायें घटित होते देर न लगेगी।'
सम्राट कुछ क्षण तक रुके। पुन: बोले-पूर्व पुरुषों के कथनानुसार वे क्रूर ग्रह मेरे भाग्याकाश पर उभर आये हैं...जिनके कुप्रभाव से मेरा संसार विनष्ट होने वाला है—ऐसा राज्य के प्रधान ज्योतिषाचार्य का कथन है। इसीलिए मैं तुम्हें सावधान रहने का आदेश दे रहा हूं।'
बेचारे द्रविड़राज को क्या मालूम था कि उन क्रूर ग्रहों ने अपना प्रलयंकारी कार्य प्रारंभ कर दिया है।
दिन बीतते गये...द्रविड़राज ने जब-जब राजमहिषी से उस पवित्र रत्नहार की बात पूछी, तब तब राजमहिषी ने कहा कि वह मणि मंजूषा में सुरक्षित है।