RajSharma Sex Stories कुमकुम - Page 6 - SexBaba
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RajSharma Sex Stories कुमकुम

'जी हां। सत्य है अनुमान आपका–कहा है उन्होंने कि आर्य सम्राट ने हम पर अन्यायपूर्ण आक्रमण करके अपने को हमारी दृष्टि में हेय एवं घृणित प्रमाणित किया है।'

'यह कहा उन्होंने।' दांत पीसने लगे आर्य सम्राट।

'जिस समय मैं वहां से लौटने लगा, उस समय तक द्रविड़सेना युद्ध के लिए तनिक भी प्रस्तुत न थी। परन्तु आश्चर्य के साथ मैं देख रहा हूं कि मेरे यहां आने के बहुत पहले उनकी सेना आ पहुंची है...।' बोला राजदूत।

'क्या तुम्हारे वहां से चल देने के पश्चात् सेना ने प्रस्थान किया था ?'

'जी हां श्रीमान्...। पर्याप्त समय पश्चात्...।'

'तो इतना शीघ्र उनके यहां आ पहुंचने का कारण...।' आर्य सम्राट आश्चर्यचकित थे।

'हो सकता है कि कोई गुप्त मार्ग हो, जिससे वे लोग यहां पहले आ पहुंचे हो...।' पर्णिक ने कहा।

'ठीक कहते हो संचालक तुम, यही कारण हो सकता है?'आर्य सम्राट ने कहा—'जहां तक मेरा अनुमान है, परसों प्रात:काल तक उनकी सेना युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो जायेगी। इसलिए कल प्रात:काल तक तुम भी अपनी सेना का विधिवत् निरीक्षण कर लो, जिससे ठीक समय पर हम आक्रमण-प्रत्याक्रमण करने में समर्थ हो सकें।'

'जो आज्ञा श्रीमान्।' पर्णिक ने कहा।

आर्यशिविर से एक योजन दक्षिण की ओर द्रविड़सेना का शिविर था। द्रविडसेना यद्यपि आर्य सेना की संख्या से आधी थी, तथापि उसमें अतीव उत्साह था। कई वर्षों से विश्राम का उपभोग करते योद्धागण, इस युद्ध में भाग लेने के लिए अत्यंत लालायित एवं व्यग्न थे। समस्त द्रविड़सेना अपने धर्म एवं स्वदेश के रक्षार्थ अपना जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत थी।

आज मध्याह्न में युवराज भी गुप्त मार्ग द्वारा शिविर में आ पहुंचे थे—परन्तु उनका पदार्पण अत्यंत गुप्त रखा गया था।

यहां तक कि कुछ उच्च पदाधिकारी, कुछ गुप्तचरों तथा कुछ सैनिकों को छोड़कर, अन्य किसी भी द्रविड़ सैनिक को उनका आना ज्ञात न था।

चारों ओर यह बात प्रसारित कर दी गई थी कि किसी कारणवश युवराज युद्धक्षेत्र में नहीं आयगे, उनका स्थान कोई अन्य ग्रहण करेगा।

इस बात को गुप्त रखने करा तात्पर्य क्या था? यह राजनीति के ज्ञाता ही बता सकते हैं। इस समय दो प्रहर रात्रि बीत चुकी थी। भयानक वनस्थली, द्रविड़सेना के शिविर के चतुर्दिक भांय-भांय कर रही है। वन्य-पशुओं के भीषण गर्जन ने वातावरण को और भी भीषण बना दिया।

युवराज के शिविर में इस समय सेना के प्रमुख अधिकारियों के मध्य मंत्रणा हो रही है, मगर यह मंत्रणा भी युवराज के पदार्पण की ही तरह गुप्त है। इस मंत्रणा में केवल वही लोग सम्मिलित हैं,
जो युवराज के आगमन के विषय में जानते हैं।

"वीरो...!' उच्चासन पर आसीन युवराज नारिकेल का स्वर उन वीरों में शक्ति का संचार करने वाला था—'यह तुमको ज्ञात है कि आज तक द्रविड़ों के सम्मान पर, द्रविड़ों की वीरता पर, तनिक भी कलंक नहीं लगने पाया है और न तो लगने की तब तक आशा है, जब तक द्रविड़ साम्राज्य का एक भी योद्धा शेष है।'
युवराज रुके।
एक क्षण के लिए उनके नेत्र अपनी सेना के प्रमुख, वीरों के मुख पर जा पड़े, जो उनके सन्निकट की आसीन थे।
तत्पश्चात वे बोले-'आज आर्य-सम्राट ने हम पर अनाचारपूर्ण आक्रमण किया है तो हमारा यह परम कर्तव्य है कि अपनी सम्पूर्ण शक्ति का उपयोग कर एक अन्यायी को उसके अन्याय का समुचित दंड दें। आप विश्वास रखिये...यदि सब न्याय मार्ग पर हैं तो हमारी विजय महामाया की कृपा से निश्चित है। आर्य-सम्राट की सेना हमारी सेना से दुगुनी है, उसके पास अस्त्र-अस्त्र का भी बाहुल्य है। ऐसी दशा में हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिये, यही मंत्रणा करने हम यहां एकत्र हुए

'श्रीयुवराज...।' धेनुक उठकर खड़ा हुआ। युवराज को अभिवादन करने के पश्चात् वह बोला —'आपका कथन असत्य नहीं है। आज हमारी कठिन परीक्षा का समय उपस्थित है। आज हम कायर बन गये तो हमारी स्वतंत्रता, एक विदेशी शासक के शासन में छिन्न-भिन्न हो जायेगी, परन्तु श्रीयुवराज विश्वास रखें। द्रविड़ों ने अब तक सम्मान का जीवन व्यतीत किया है तो अब अपमान का जीवन नहीं व्यतीत कर सकते...हम मर मिटेंगे अपने स्वदेशाभिमान पर अपनी स्वतंत्रता पर। श्रीयुवराज आज्ञा दें, हम सब आपके श्रीचरणों पर बलिदान होने को प्रस्तुत हैं।'
 
"तुम धन्यवाद के पात्र हो वीरो। द्रविड़ साम्राज्य को आज तुम पर भी भरोसा है—तुम्हीं उसके आधार-स्तम्भ हो...यह तो लगभग तुम सभी लोगों को ज्ञात होगा कि पिताजी की आज्ञानुसार मेरा रणभूमि में आना प्रच्छन्न रखा गया है। यहां आते समय मुझे यह भी आदेश दिया है कि में केवल शिविर में बैठकर युद्ध का संचालन करूं। रणक्षेत्र में तब तक न जाऊं, जब तक कि कोई आवश्यक कार्य न आ पड़े। ऐसी आज्ञा उन्होंने क्यों दी है, यह तो वहीं जानें, परन्तु उनकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है।'

'रणक्षेत्र में आपके जीने की कोई आवश्यकता नहीं है, श्रीयुवराज। आप शिविर में बैठे-बैठे ही युद्ध का संचालन करें। युद्ध के समाचार हम प्रत्येक क्षण विश्वस्त सैनिकों द्वारा आपके पास भेजते रहेंगे, आप अपनी आज्ञा भी उन्हीं के द्वारा हमारे पास भेज दिया कीजियेगा। यदि कोई आवश्यक आज्ञा हमारे पास भेजनी हो तो उसके लिए जाम्बुक है ही...।' धेनुक ने कहा।

"ऐसी दशा में रणक्षेत्र के लिए एक दुसरे संचालक की आवश्यकता—आपमें से कौन-सा वीर अपने जीवन को उत्सर्ग करने हेतु प्रस्तुत है? कहकर युवराज ने चारों ओर दृष्टि निक्षेप की
उपस्थित वीरों ने धेनुक की और देखा। धेनुक का प्रशस्त वक्षस्थल गर्व से फूल उठा। वह उठ खड़ा हुआ

और बोला—'यह मेरे लिए परम सौभाग्य का विषय होगा, यदि श्रीयुवराज युद्ध-भूमि में सैन्य संचालन का भार मुझे प्रदान करें मैं प्राणपण से युवराज की प्रेषित आज्ञाओं का पालन करूंगा।' 'तुम उपयुक्त प्रत्याशी हो। मैं तुम्हें ही रणक्षेत्र का संचालक नियुक्त करता हूं।' युवराज ने कहा। हर्षातिरेक से धेनुक चिल्ला उठा—'श्रीयुवराज की जय...।'

'कल प्रात:काल अपनी सेना आक्रमण के लिए प्रस्तुत रखो...।' युवराज ने आज्ञा दी।

यह आज्ञा दी है....श्रीयुवराज ने यह आज्ञा दी है...धेनुक को महान आश्चर्य हुआ। उस समय आर्य एवं द्रविड़ सेनायें मदोन्मत्त मेघ की तरह गर्जना करती हुई प्रबल वेग से एक दूसरे पर आक्रमण कर रही थीं।
दोनों ओर के वीर एक-दूसरे पर विजय पाने की अभिलाषा से अपनी समस्त शक्ति को एकत्र कर युद्ध करने में तल्लीन थे।

उस समय रणक्षेत्र में जैसे रक्त की सरिता प्रवाहित हो रही थी। युद्ध भयानक बिन्दु पर पहुंच गया था।

युवराज की आज्ञानुसार धेनुक द्रविड़ सेना का संचालन कर रहा था।

वह महान वीर कृपाण भांजता हुआ जिधर भी निकल जाता उधर ही दस-बीस मस्तक धराशायी होते हुए दृष्टिगोचर होते।

द्रविड़ सेना सम्पूर्ण शक्ति से वीरता के साथ आर्य सेना का सामना कर रही थी। युवराज के शिवर से आज्ञा पत्र लेकर एक सैनिक धेनुक के पास आया। उस आज्ञा-पत्र में युवराज ने आदेश दिया था कि वह तुरंत ही अपने सेना के साथ दक्षिण पश्चिम के मोर्चे पर चला जाए।

अपने उस स्थान पर जहां इस समय वह युद्ध कर रहा है, थोड़ी-सी सेना छोड़ दे। यही था युवराज का आदेश और उसी ने धेनुक को आश्चर्यचकित कर दिया था। वह समझ नहीं सका था कि युवराज के इस आदेश का तात्पर्य क्या है? परन्तु युवराज के आदेशानुसार उसे कार्य करना ही था। उसने तुरंत ही अपनी सेना एकत्र की और केवल थोडे-से सैनिकों को उस स्थान पर छोड़ शेष को लेकर दक्षिण-पश्चिम के मोर्चे पर चला आया।

वहां पहुंचते ही वह आश्चर्यचकित रह गया, यह देखकर कि उस मोर्चे पर गुप्त रीति से आक्रमण करने के लिए आर्यों की एक बड़ी सेना चली आ रही है।

वह सोचने लगा— श्रीयुवराज की सैन्य संचालन की बुद्धि अद्भुत है। अवश्य ही उन्हें गुप्तचरों द्वारा इस आक्रमण का समाचार मिल गया होगा, तभी तो उन्होंने यह आदेश दिया।

दक्षिण-पश्चिम के मोर्च पर घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में आर्य सेना का संचालन स्वयं पर्णिक ने किया था।

परन्तु द्रविड़ सेना पूर्ण रूप से प्रस्तुत थी। प्राणों की आहुति देकर युद्ध करने वाले द्रविड़ वीरों एवं वीरवर धेनुक के प्रबल आक्रमण के समक्ष आर्य-सेना के पैर उखड़ गए।

रात्रि के आगमन के साथ ही युद्ध बंद हो गया। आज की विजय का श्रेय द्रविड़ सेना को मिला।
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'आश्चर्य है श्रीमान् ! महान आश्चर्य है।' पर्णिक ने कहा—'द्रविड़राज की इस छोटी-सी सेना ने आज आर्य-सेना को पराजित किया...यह कहानी-सी प्रतीत होती है, परंतु है वास्तव में सत्य।'

'हमें परम कौतहल है कि हमारी विशाल सेना के समक्ष द्रविड राज की छोटी-सी सेना किस प्रकार टिक सकी, वह भी बिना किसी योग्य संचालक के। आर्य सम्राट तिग्मांशु बोले-'उनका संचालक धेनुक है, परन्तु वह तो कोई बुद्धिमान संचालक ज्ञात नहीं होता...।'

'श्रीमान सत्य कह रहे हैं...यह धेनुक की बुद्धि का कार्य नहीं है कि वह आर्य सेना का सामना कर सके, इस कार्य को कोई बहुत योग्य व्यक्ति संचालित कर रहा है।'

'क्या तुम्हारा अनुमान है कि इस युद्ध में कोई अन्य व्यक्ति द्रविड़ सेना का संचालन कर रहा है जो कि रणभूमि में उपस्थित नहीं होता...?' आर्य सम्राट ने पूछा।

'श्रीमान का अनुमान सत्य है।' पर्णिक ने कहा।

'जी हाँ।' एक दूसरा सैनिक बोला—'यही बात सत्य प्रतीत होती है। आज हमने द्रविड़ सेना के शिविर से कई बार एक सैनिक को रणभूमि में धेनुक के पास आते-आते देखा था। इसके अतिरिक्त द्रविड़ शिविर से कई अन्य सैनिक भी धेनुक के पास आये और गये थे। अवश्य ही द्रविड़ सेना का वह योग्य संचालक किसी शिविर में बैठा युद्ध का संचालन कर रहा है।

'उनके दक्षिण पश्चिम भाग पर हमारा आक्रमण एकदम प्रछन्न रखा गया था. परन्तु न जाने कैसे उन्हें यह समाचार प्राप्त हो गया-अब हमें भी उनके शिविर के आस-पास अपने गुप्तचर नियुक्त कर देने चाहिए। सर्वप्रथम हमें द्रविड़ सेना के इस गुप्त संचालक का पता लगाना अत्यंत आवश्यक है, पश्चात् यह भी पता लगाना होगा कि वह गुप्त मार्ग कौन-सा है, जिससे द्रविड़ सेना यहां पहुंची है?'
पर्णिक ने कहा।

'आज हमारी जैसी पराजय हुई है, बैसी कहीं किसी भी देश में नहीं हुई थी।' आर्य सम्राट बोले।
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-- अपने शिविर में बैठे हुए युवराज अग्रिम कार्यक्रम पर विचार करने में निमग्न थे शिविर के द्वार पर युवराज के विश्वस्त सैनिक पहरा दे रहे थे। रणक्षेत्र में रणचंडी नृत्य कर रही थी। युद्ध भयानक गति पर था।

'क्या है...?' युवराज ने पूछा उस सैनिक से जिसने अभी-अभी ही युद्ध-क्षेत्र से आकर युवराज को अभिवादन किया था।

'युद्ध भयंकर रूप धारण करता जा रहा है...।' सैनिक ने नतमस्तक होकर कहा।

'हमारी सेना का क्या समाचार है?' प्राणपण से शत्रुओं का सामना कर रही है—धेनुक ने पूछा है कि सम्पूर्ण सेना उसी स्थान पर रहे या अन्य दिशा में भेज दी जाये?'

'किस भाग पर युद्ध हो रहा है...?'

'दक्षिण भाग पर।

'अभी उसी स्थान पर सेना रहने दो।' युवराज ने कहा।

सैनिक अभिवादन कर चला गया।

'क्या है?' एक दूसरे गुप्तचर को प्रवेश करते हुए देखकर युवराज ने पूछा।

'पता लगा है कि उत्तरी भाग पर शत्रु सेना बहुत शीघ्र आक्रमण करने वाली है।' गुप्तचर ने कहा।

'बहुत शीघ्र?'

'जी हां। वहां का प्रबंध करना अत्यंत आवश्यक है। यही भाग हमारे लिए सबसे बड़े महत्त्व का है, क्योंकि हमारे गुप्त मार्ग का द्वार यहीं पर है।'

"मैं शीघ्र ही प्रबंध करता हूं...।' युवराज ने कहा- 'बाहर से एक सैनिक बुलाओ।'

गुप्तचर बाहर जाकर एक सैनिक के साथ पुन: लौट आया, सैनिक ने युवराज को अभिवादन किया।
'देखा' युवराज ने कहा-'तुम अभी अश्वारूढ़ होकर धेनुक के पास जाओ और कहो कि आधी सेना दक्षिण भाग पर रख कर, शेष आधी ओर उत्तरी भाग पर भेज दे। बहुत ही गुप्तरीति से यह कार्य हो। सेना उत्तरी भाग की ओर अत्यंत शीघ्र एवं शांतिपूर्वक प्रस्थान करें और प्रछन्न रीति से जाकर गुप्त मार्ग पर छिपा रहे। कुछ लोग पहाड़ी गुफाओं एवं झाडियों का आश्रय लेकर उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करें ताकि आक्रमणकारियों को यह ज्ञात हो जाये कि वह स्थान निर्जन एवं जनशून्य है। जब शत्रु सेना घाटी में से आने लगे तो उन पर तीरों को अनवरत वर्षा कर उसे धाराशायी बना दें, परन्तु शब्द जरा भी न हो और न ही शत्रुगण यही जान सकें कि यह तीरों की वर्षा किधर से हो रही है—नहीं तो हमारा गुप्त मार्ग शत्रुओं पर प्रकट हो जायेगा।
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'पराजय...! पराजय...।' पर्णिक हाथ मल रहा था जोरों से एवं आर्य सम्राट आश्चर्यचकित होकर चिंतामान बैठे थे...सब ओर पराजय ही पराजय, आज उत्तरी भाग पर हमें जैसी लज्जाजनक पराजय उठानी पड़ी—वह वर्णनातीत है। हमारी सेना जिस समय वहां पहुंची उस समय उस मार्ग पर एकदम नीरवता छाई हुई थी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह स्थान जन-शून्य है, परंतु थोड़ा और आगे बढ़ते ही हमारी सेना पर तीरों की भयंकर वर्षा होने लगी। कुछ पता ही न लगता था कि आक्रमणकारी किस और हैं।

'अद्भुत है द्रविड़ सेना का वह गुप्त संचालक...।' आर्य सम्राट विस्फारित नेत्रों से चिंतातुर स्वर में बोला।
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बारह

अपने शिविर में बैठे थे युवराज नारिकेल और उनके सामने नतमस्तक खड़ा था सेनानायक धेनुक ।

"मैं तुमसे बहत प्रसन्न ह, वीर धेनुक...।' युवराज बोले-'मेरी आज्ञानुसार युद्धभूमि में अत्युत्तम सैन्य-संचालन का परिचय दिया है तुमने। आर्य-सम्राट को आज मालूम हो गया होगा कि द्रविड़ों में रण-कौशल का अभाव नहीं है।'

'यह सब आपके योग्य-संचालन का परिणाम है श्रीयुवराज नहीं तो मुझमें इतनी योग्यता कहां।' धेनुक ने नम्रतापूर्वक युवराज नारिकेल के सामने सर झुकाया ओर तब अपनी खुली हुई हथेली युवराज के आगे बढ़ा दी।

चौंक पड़े युवराज। धेनुक की हथेली पर पड़े हुए मूल्यवान रत्नहार को देखकर।

'क्या है यह...?' पूछा युवराज ने।

'विद्रोही किरात नायक के गले का रत्नहार है यह—आज युद्ध करते समय उसके गले से यह रत्नहार टूटकर जमीन पर गिर पड़ा था—मैंने देखा तो उसे उठा लिया—आश्चर्यजनक है यह रत्नहार श्रीयुवराज। धेनुक ने कहा।

'किरात नायक का रत्नहार आश्चर्य...!' युवराज रत्नहार हाथ में लेकर ध्यानपूर्वक देखने लगे —'परन्तु इस पर यह देखो।'

'मैं सब देख चुका हूं युवराज।'

'देख चुके हो तुम...? तुमने देखा कि इस रत्नहार के प्रत्येक मणि पर का वह चिन्ह..द्रविड़ कुल का पवित्र चिन्ह है।'

सबने आश्चर्य-विस्फारित नेत्रों से देखा कि उस रत्नहार के प्रत्येक मणि पर द्रविड़ कुल की वंश परम्परा का चिन्ह अंकित है-वह चिन्ह जो प्रत्येक द्रविड़ के लिए पूजनीय है।

'यह शत्रु के हाथ कैसे आया...?' युवराज को महान् आश्चर्य हो रहा था—'यह द्रविड़राज के परम पवित्र पूजनीय रत्नहार है...देखो ! कितना मूल्यवान है यह ..चोर है वह किरातों का दुष्ट नायक उसने द्रविड़ कुल के पवित्र रत्नहार की चोरी की है...।'

'धेनुक...!'

'आज्ञा श्रीयुवराज।'

'देखते हो न। आज तुम द्रविड़कुल की लाज लौटा लाये—पिताजी इस रत्नहार को देखकर बहुत प्रसन्न होंगे...।'

'मेरा विचार है कि यह रत्नहार श्रीसम्राट के पास अभी भेज दिया जाये...।' धेनुक बोला —'शायद इसमें कोई गुप्त रहस्य हो।'
'ठीक कहते हो तुम। मैं अभी एक सैनिक को यह रत्नहार और पत्र देकर गुप्त सुरंग द्वारा पिताजी के पास भेज देता हूं। तुम एक विश्वस्त सैनिक को मेरे पास बुलाओ।' युवराज ने कहा।

और वे भोजपत्र पर द्रविड़राज को एक पत्र लिखने लगे। धेनुक बाहर जाकर एक सैनिक को बुला लाया। 'देखो...!' युवराज उस सैनिक को पत्र देकर बोले—'तुम गुप्त मार्ग द्वारा अत्यंत शीघ्र पिताजी के पास जाओ। उन्हें मेरा यह पत्र और पवित्र रत्नहार दे देना और यहां का सब समाचार विस्तारपूर्वक निवेदन कर देना...कोई आवश्यकीय समाचार हो तो शीघ्र मेरे पास लेकर आना...उनसे यह भी कह देना कि में चोर को समुचित दण्ड देने की व्यवस्था कर रहा हूं।'

सैनिक ने वह पत्र और रत्नहार यत्नपूर्वक ले लिया, पुन: युवराज को सम्मान प्रदर्शन करने के पश्चात् वह शिविर के बाहर निकल गया और पैदल ही उत्तर की ओर चल पड़ा।
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भयानक वन के मध्य से वह सैनिक चला जा रहा था। परन्तु उसे इस बात का तनिक भी पता नथा कि एक गुंजान झाड़ी से निकलकर कोई मनुष्य गुप्तरूप से उसका पीछा कर रहा है।

वह मनुष्य अतीव सावधानी से उस सैनिक का अनुसरण कर रहा था। सैनिक पूर्ववत असावधानी से चला जा रहा था।

उसे इस बात की तनिक भी आशंका न थी कि इस वन्य प्रदेश में कोई मनुष्य उसका पीछा कर सकता है।

एक स्थान पर, जहां हिमराज का शिखर कुछ ऊँचा था, जहां गुंजान झाड़ियों ने अपनी विकराल भयंकरता प्रसारित कर रखी थी, जहां जाते सहज भयानकता का भान हो जाता था—वह सैनिक आकर वहां रुका।

यही गुप्तमार्ग का प्रवेश द्वार था। सैनिक ने एक बार सावधानीपूर्वक अपने चारों ओर देखा परन्तु पीछा करने वाले मनुष्य को वह देख न सका। अब उसे विश्वास हो गया कि उसका यहां आना किसी ने नहीं देखा है, तो वह एक गुंजान झाड़ी में घुसकर विलुप्त हो गया।

उसका पीछा करने वाला मनुष्य बहुत देर तक निस्तब्ध खड़ा उसकी प्रतीक्षा करता रहा, कदाचित् उसे आशा थी कि वह सैनिक शीघ्र ही लौट आयेगा। परन्तु जब पर्याप्त समय व्यतीत हो गया और वह सैनिक नहीं लौटा तो वह धीरे-धीरे उस गुंजान झाड़ी की ओर बढ़ने लगा, जिसमें वह सैनिक लुप्त हुआ था।

झाड़ी के पास पहुंचकर उसने आहट ली, परन्तु सब ओर सन्नाटा पाकर उसका साहस बढ़ा। वह भी उस गुंजान झाड़ी में प्रवेश कर गया, परन्तु दूसरे ही क्षण वह चौक पड़ा, उस गुंजान झाड़ी की क्रोड़ में अवस्थित एक कंदरा का प्रवेश द्वार देखकर।
'तो यही है वह गुप्तमार्ग जिससे द्रविड़राज की सेना आई थी...।' वह स्वत: ही बड़बड़ा उठा और पुन: झाड़ी के बाहर आकर तीव्र वेग से उस ओर चल पड़ा जिधर आर्य सम्राट की अपार सेना का विशाल शिविर था।
वह था आर्य सम्राट का गुप्तचर।

अर्द्धरात्रि की बेलों यह भयानक वन्य-प्रदेश पशुओं के निनाद से परिपूरित था, परन्तु आर्य सेना शिविरों में पड़ी थी अति शांति के साथ। समग्र आर्य शिविर में सन्नाटा छाया हुआ था। आर्य सम्राट के शिविर के द्वार देश पर कई सैनिक पहरा दे रहे थे। आर्य सम्राट ने पर्णिक के चेहरे पर आश्चर्यपूर्ण दृष्टि डाली। बोलो—'तो तुम्हारा वह रत्नहार क्या हुआ?'

'पता नहीं श्रीमान! क्या हुआ वह।' पर्णिक बोला—'शायद युद्ध करते समय कहीं गिर गया

'तुम्हें उसके खो जाने का पता कब लगा?'

'अभी श्रीमान...अभी।'

'परन्तु इस अंधकार पूर्ण रात्रि में उसकी खोज भी तो नहीं की जा सकती...।' आर्य सम्राट चिंतायुक्त स्वर में बोले।

'मैं खोज कर चुका हूं श्रीमान्। कहीं पता न लगा—अपने सैनिकों से पूछ चुका हूं...सम्भवत: वह रत्नहार शत्रुओं के हाथ पड़ गया है...।' पर्णिक ने कहा।

'सेनाध्यक्ष पर्णिक! तुम इस समय जाकर विश्राम करो। प्रात:काल इस पर विचार किया जायेगा।'

और पर्णिक म्लान मुखाकृति लिए शिविर के बाहर चला गया। आर्य सम्राट भी विश्नाम की तैयारी करने लगे कि तभी एक सैनिक आ पहुंचा। 'क्या है...?' पूछा आर्य सम्राट ने।

सैनिक बोला—'गुप्तचर द्वार पर उपस्थित है। कहता है कार्य अत्यंत आवश्यक है, वह इसी समय श्रीमान् का दर्शनाभिलाषी है।'
 
आर्य सम्राट आश्चर्य से उठ बैठे—'उपस्थित करो उसे।' उन्होंने आज्ञा दी। सैनिक चला गया। दूसरे ही क्षण गुप्तचर ने उस शिविर में प्रवेश कर आर्य सम्राट को अभिवादन किया—'कार्य अत्यंत आवश्यक है, श्रीमान्।'

'क्या है...है क्या गुप्तचर?'

'मैंने गुप्त मार्ग का पता लगा लिया है, श्रीमान्....। गुप्तचर ने बहुत धीरे से कहा।

'कौन-सा गुप्त मार्ग?'

'द्रविड़ सेना के आने का गुप्त मार्ग। बहुत प्रच्छन्न है वह, परन्तु मैंने खोज ही निकाला। श्रीमान को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि वह गुप्तमार्गी गुंजान झाड़ियों से आच्छादित एक कंदरा के रूप में है, जहाँ मानवी नेत्र कदाचित् ही पहुंच सकें...।'

'कन्दरा के रूप में।'

'जी हां श्रीमान्।'

'तब वह गुप्तमार्ग नहीं है। गुप्त मार्ग पर उनके सैनिकों का पहरा होना चाहिए। आर्य सम्राट ने कहा।

'नहीं श्रीमान्! वहां पहरे का चिन्ह तक नहीं हैं वहां पहरेदार इसलिए नहीं रखे गये हैं कि पहरा रहने का सहज ही लोगों को अनुमान हो जायेगा कि वहां पर कोई गुप्तमार्ग है...मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ श्रीमान्। कि वही गुप्तमार्ग है। अभी-अभी मैं देखकर आ रहा हूं कि द्रविड़ शिविर का एक सैनिक संदेश लेकर उसी मार्ग द्वारा राजनगर पुष्पपुर की ओर गया है...।'

'तुम्हारा क्या विचार है?'

'मेरा विचार है श्रीमान् कि आप इसी समय चलकर उस कंदरा के द्वार का कुछ दूर तक निरीक्षण करें। तब यदि आप आवश्यक समझें तो अपनी कुछ सेना इसी गुप्तमार्ग द्वारा राजनगर पुष्पपुर की और भेद दें। ऐसा करने से हमारी विजय निश्चित है।'

'तुम्हारा कथन उचित है, चलो, मैं अभी चलता हूं...।'

आर्य सम्राट शिविर से बाहर निकले और बिना किसी से कुछ कहे, गुप्तचर के साथ पैदल ही चल पड़े।

जंगली मार्ग से होते हुए दोनों पहुंच गये उस स्थान पर।

आश्चर्यचकित हो उठे आर्य सम्राट उस गुप्त कंदरा को देखकर।

बोले—'यह कन्दरा अवश्य है, गुप्तचर। मगर मानवी हाथों द्वारा इसका निर्माण बहुत विकट कार्य है।

'जी हाँ श्रीमान्।' गुप्तचर आगे-आगे चल रहा था। उसके हाथों में एक छोटा-सा प्रकाश-पुंज था।

एक स्थान पर आते ही दोनों ठमककर खड़े हो गये, क्योंकि उनके कानों में अभी-अभी ही किसी का कठोर गर्जन सुनाई पड़ा था।

'ठहरो!'

'क्या बात है गुप्तचर...।' आर्य सम्राट ने शंकित स्वर में धीरे से पूछा। फिर ध्यानपूर्वक उन्होंने अपने चारों ओर देखा। कोई नहीं था वहां।

'शायद शत्रुओं को हमारी भनक लग गई है?' गुप्तचर ने कहा।

'कोई दिखाई तो नहीं पड़ा था।'

'श्रीमान् को विदित हो कि इन द्रविड़ों का कला-कौशल अपूर्व है...यह कन्दरा भी रहस्यमयी मालूम पड़ती है।'

बहुत देर तक दोनों चुपचाप खड़े रहे। जब कहीं किसी मनुष्य की आहट न मिली तो वे पुन: धीरे-धीरे आगे बढ़े।

'ठहरो।' गंभीरता लिये हुए तीव्र स्तर से पुन: सारी कन्दरा गूंज उठी।

आर्य सम्राट और गुप्तचर के शरीर सिर उठे। न जाने कहां से धड़-धड़ शब्द हुआ और सुरंग की दीवार की एक चट्टान भयंकर आवाज के साथ एक और को सरक गई।
और कंदरा में हल्का प्रकाश फैल गया।

वहां पर खड़े थे युवराज नारिकेल, धेनुक के साथ। आर्य सम्राट को बहुत कष्ट हुआ होगा, यहां पधारने में।' धेनुक व्यंग्यात्मक स्वर में बोला —'अपने गुप्तचर से आपके यहाँ पधारने का समाचार पाकर मैं श्रीमान् का स्वागत करने आया

'कौन हो तुम?' आर्य सम्राट नै उपेक्षापूर्ण स्वर में पूछा।

'क्षुद्र नायक खड़ा है आपके सामने।'

'नायक?

आर्य सम्राट ने ध्यानपूर्वक उस विचित्र नायक की और देखा, जिसके अद्भुत बुद्धि चातुर्य तथा राजनीतिक कुशलता ने स्वयं उनकी बुद्धि और राजनीति कुण्ठित कर दी थी।
 
नायक आपसे यह जानना चाहता है आर्य सम्राट ! कि आपने इस रहस्यमयी कन्दरा में आने का दुस्साहस क्यों किया...?' धेनुक ने युवराज की आज्ञा पाकर आर्य सम्राट से पूछा।

'दुष्कर ही के लिए तो दुस्साहस किया जाता है।'

'धन्यवाद।' युवराज बोले-'परन्तु आपका यह दुस्साहस सराहनीय नहीं।'

'तुम्हारा मतलब?' युवराज की ओर अभिमुख हो सम्राट ने पूछा।

आर्य सम्राट युवराज से सम्मानपूर्वक बातचीत नहीं कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने युवराज को सेनापति मात्र समझ रखा था, जम्बूद्वीप का युवराज नहीं।

'मेरा मतलब यह है श्रीमान् कि यदि आपको यह मालूम होता कि यह कंदरा बहत भयानक है, यदि आप यह जानते होते कि यहां की चप्पा-चप्पा भूमि रहस्यमयी कलाओं से युक्त है—तो कदाचित् आप यहां पधारने का कष्ट न करते...।'

'अभी तुम्हें आर्य सम्राट की निर्भयता का पता नहीं है, नायक'

'जान चुका हूं श्रीमान्। आर्य सम्राट का शौर्य दो युद्धों से प्रकाश में आ गया है।' युवराज का व्यंग्य सुनकर आर्य सम्राट हतप्रभ से हो गये।

'जब तक वर्तमान युद्ध का अंत नहीं हो जाता, तब तक श्रीमान् अपने को बंदी समझें...।' युवराज संयत वाणी में बोले।

'बंदी!' क्रोध से चिल्ला उठे आर्य सम्राट।

'हाँ।'

'मुझे बंदी बनाओगे? इतना साहस है तुममें। पहले तुमने मेरा अपमान किया, अब बंदी बनाना चाहते हो? एक क्षुद्र सेना नायक होकर एक सम्राट की अवज्ञा करना महान अपराध है।'

"जिसे आप केवल क्षुद्र सेनानायक समझ रहे हैं...।' धेनुक बोला—'वे हैं जम्बूद्वीप के भावी सम्राट स्वयं युवराज नारिकेल...?'

आर्य सम्राट मानो आकाश से गिरे, क्योंकि युवराज की वीरता की कहानी बे मध्य अशांत महाद्वीप में ही सुन चुके हैं।

युवराज ने बगल में हाथ बढ़ाया और न जाने क्या किया कि कंदरा के सामने वाली दीवार से एक बड़ी-सी चट्टान आकर बीच सुरंग में रुक गई। सुरंग का मार्ग बंद हो गया।

जब आर्य सम्राट चैतन्य हुए तो उन्होंने देखा कि युवराज और धेनुक जा चुके थे और वह द्वार भी लुप्त हो गया था, जहां वे दोनों खड़े थे।
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रात्रिपर्यन्त पर्णिक विचारों में तल्लीन रहा। प्रात:काल वह एक सघन वृक्ष के नीचे बैठकर प्रात:कालीन वायु का सेवन कर रहा था। तभी एक आर्य सैनिक ने आकर निवेदन किया—'सम्राट का कहीं पता नहीं। अर्धरात्रि से ही वे लुप्त हैं। प्रहरी कह रहे हैं कि उन्होंने अर्द्धरात्रि से ही वे लुप्त हैं प्रहरी कह रहे हैं कि उन्होंने लगभग अर्द्धरात्रि को एक गुप्तचर के साथ, पैदल ही दक्षिण की और उन्हें जाते हुए देखा था।'

पर्णिक पर जैसे वज्रपात हुआ, यह अघटित घटना सुनकर। कल उसका रत्नहार गया और आज सम्राट भी। 'तुमने आस-पास खोज की?' पूछा पर्णिक ने।

'जी हां, गुप्तचरों ने आसपास का सारा वन्य-प्रदेश छान डाला, परन्तु निराशा ही हाथ लगी।'

'अभी तक इस बात को कितने लोग जानते हैं ?'

'केवल कुछ लोग...।' सैनिक ने उत्तर दिया।

'देखो यह बात फैलने न पाये, नहीं तो आर्य सेना शिथिल पड़ जायेगी। तुम युद्ध की तैयारी करो और दुर्मुख को शीघ्र ही मेरे पास भेज दो।' पर्णिक ने कहा।

सैनिक चला गया। पर्णिक व्यग्रतापूर्वक उसी सघन वृक्ष के नीचे टहलता रहा। दुर्मुख किरात-नायक पर्णिक का मित्र और उसका प्रमुख सहायक था। उसने पर्णिक की म्लान मुखाकृति को देखकर व्यग्रता से पूछा
'क्या है पर्णिक ? क्या बात है?'

'देखो।' पर्णिक ने कहा—'युद्ध का परिणाम भयंकर होता जा रहा है। माताजी से मैं स्वदेश रक्षा की प्रतिज्ञा करके आया हूं, परन्तु यहां आकर आर्य सम्राट का सहायक बन बैठा। कितनी बड़ी त्रुटि हई मुझसे। कल शत्रु सेना के हाथ मेरे गले का वह पवित्र रत्नहार पड़ गया, आज आर्य सम्राट तिग्मांशु न जाने कहां लुप्त हो गये। मुझे तो ऐसा लगता है कि शीघ्र ही कोई भयंकर घटना होने वाली है।

'आर्य सम्राट की सहायता तुम्हें नहीं करनी चाहिये थी नायक'

'कैसे न करता, दुर्मुख। अपने पास याचनार्थ आये हुए भिखारी का तिरस्कार कैसे करता। आर्य सम्राट ने मेरी माता पर आक्षेप किया था-भला कैसे सहन कर सकता था यह...। केवल माताजी के सम्मान की रक्षार्थ मैंने आर्य सम्राट को सहायता देना स्वीकार किया था।'

'तो अब मेरे लिये क्या आज्ञा है?'

'तुम अभी इसी समय माताजी के पास जाओ। केवल तीन-चार घड़ी का मार्ग है। उनसे मेरा प्रणाम कहकर यहां का समाचार निवेदन कर देना कि वह पवित्र रत्नहार शत्रु सेना के हाथ पड़ गया है। उनसे यह भी पूछ लेना कि अब मेरे लिए क्या आज्ञा है? यथाशक्ति, अतिशीघ्र आने का प्रयत्न करना। मेरे हृदय में जाने क्यों झंझावात-सा उठ खड़ा हुआ है।'

दुर्मुख शीघ्र ही अश्वारूढ़ होकर चल पड़ा। उस समय सूर्य की सुनहरी किरणें वृक्षों की चोटियों पर नृत्य करने लगी थीं।
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तेरह
इतस्ततः शरण खोजने लग
विद्युत-रेखा से आलोकित आलोक में मेघाच्छन्न नभ मण्डल ने अपना कृष्णकाय मुख देखा।
चमचम चमकती हुई मणिमाला जैसी तारकावली ने श्यामल मेघों के कोड़ में अपना प्रोज्वल मुख छिपा लिया।
प्रबल वेगवान समीरण, कर्कश ध्वनि करता हुआ उस समय पुष्पपुर नगरी पर हाहाकार करने लगा।
मानवी संसार इस प्रबल झंझावात से त्रस्त एवं व्यग्र होकर इतस्तत: शरण खोजने लगा। मेघावरण से छन-छनकर आती हुई मुक्ता सदृश जल-बिन्दुएं अबाध गति से भूमि का सिंचन करने लगीं।
वृक्ष अपनी शाखा-प्रशाखा समेत झूमने लगे। हिमराज के सर्वोच्च शिखर पर से आता हुआ प्रबलानिल, मानो मृत्यु का संदेश लेकर द्वार-द्वार घूमने लगा।

समग्र पुष्पपुर नगरी पर भयंकर वर्षा हो रही थी। घनघोर एवं पिशाचाकार मेघों के प्रलयंकारी गर्जन से राजप्रकोष्ठ की दीवारें प्रकम्पित हो रही थीं।

महामाया मंदिर के स्वर्ण-निर्मित घंटे वायु का प्रबल वेग पाकर भयंकर गति से हिल पड़ते थे और उनके द्वारा उत्पन्न टन्न-टन्न शब्द उस विकट रात्रि में सुदूर तक प्रसारित होकर एक भयंकर वातावरण की सृष्टि कर देते थे।

अर्धरात्रि की ऐसी भयानक स्थिति में जबकि पुष्पपुर राजप्रकोष्ठ के सभी लोग निद्राभिभूत थे एवं महामाया के सुविशाल मंदिर में सघन अंधकार आच्छादित था, चक्रवाल के प्रकोष्ठ की खिड़की खुली थी और उस पर बैठा हुआ महान कलाकार अपनी कला में तन्मय था।

उसके प्रकोष्ठ का द्वार खुला था, जिसमें वर्षा के जलकण भीतर प्रवेश कर भूमि पर बिछे कालीन को भिगो रहे थे, परन्तु उसे मानो किसी बात की चिंता ही न थी।

उसके नेत्रद्वय खिड़की के वहिप्रदेश के घनीभूत अंधकार में न जाने किसे ढूंढने का प्रयत्न कर रहे थे, परन्तु कभी-कभी विद्युत-प्रकाश में नन्हीं-नन्हीं जल-बिन्दुओं के गिरने से उत्पन्न बुलबुलों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता था।

कैवल उसकी मधुर स्वर लहरी वर्षा के घोर रव में मिलकर विलीन हुई जा रही थी। 'घन उमड़-घुमड़कर बरस रहे, लोचन उन बिन तरस रहे।'
चक्रवाल जाने कब तक अपनी स्वर साधना में तल्लीन रहता, यदि उसे दीपशिक्षा के कम्पित आलोक में प्रकोष्ठ के द्वार पर किसी की छाया न दृष्टिगोर हुई होती।।

चलवाल का हृदय तीव्र वेग से सिर उठा—अनु-सिक्त किन्नरी निहारिका को द्वार पर खड़ी देखकर।

किन्नरी प्रकोष्ठ के भीतर चली आई। चक्रवाल ने देखा उसका सारा शरीर भीगा हुआ था और वस्त्रों से टप-टप जल चू रहा था। 'किन्नरी...!' कित स्वर में बोला चक्रवाल—'कहां से आ रही हो तुम...?'

'राजोद्यान से आ रही हूं....।' किन्नरी ने केवल इतना ही कहा।

चक्रवाल तड़प उड़ा—'हे महामाया...। तुम क्या करने गई थीं वहां? ऐसी विकट रात्रि में, ऐसी भयंकर वर्षा में, वायु की हाहाकारमय सनसनाहट में, तुम राजोद्यान में गई थी? क्यों...? किसलिए? बोलो।'

'वर्षा के दुस्सह वातावरण एवं तुम्हारे गायन से उत्पन्न असह्य वेदना से व्यथित होकर, मैंने सोचा चलकर राजोद्यान में ही हृदय की दारुण ज्वाला शांत करूं।'

'वहां कैसे शांत हो सकती थी तुम्हारी दारुण ज्वाला...? कौन बैठा था वहां, जो तुम्हारी कला की श्रेष्ठता में तन्मय हो तुम्हारा गुणगान करता और तुम भी उसके मधुर वार्तालाप से प्रभावित होकर अपने हृदय की सारी वेदना चारुचन्द्रिका के कल्लोल में विलीन कर देती...कौन था वहां, बोलो।'

'वहां उनकी मधुर स्मृति विराजमान है...।' किन्नरी ने करुण दृष्टि से देखा चक्रवाल की ओर - वहां के पल्लवों में, वहां के कण-कण में उनकी मधुर ध्वनि गुंजरित होती रहती है। जब मैं वहां जाती हूं, मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वृक्षों की शाखायें, सरोवर की कुमुदिनियां एवं भूमि के रजकण सब उन्हें के स्वर में मेरा आह्वान कर रहे हों, कलामयी। आओ न! चक्रवाल! जब-जब मैं वहां जाती हूं, उस स्थान का मंदिर वातावरण मुझे विकल, क्षुब्ध एवं द्रवित कर देता है।'

'श्रीयुवराज के लिए इतना व्यथित होना उचित नहीं, किन्नरी। अपनी अवस्था पर ध्यान दो। देखो जब से वे गये हैं, तुम्हारा शरीर सूखकर कांटा हो गया—तुम्हारे, नेत्र अहर्निश अश्रु वर्षा करते करते रक्तवर्ण हो उठे हैं—तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री से हाहाकारमयी करुणा का स्रोत प्रवाहित होता रहता है। अपने ही संयत करो, निहारिका।'

'व्यर्थ है चक्रवाल। हृदय की अगम सुख-शांति एवं नेत्रों का समस्त आलोक तो उनके साथ चला गया है।'

'तुम्हें हो क्या गया है किन्नरी...? क्या अब फिर लौटेंगे नहीं वे? तुम किन प्रलयंकर विचारों में विदग्ध हो रही हो निहारिका?'

'नहीं लौटेंगे, चक्रवाल। मेरा अंतस्थल कहता है कि अब वे नहीं लौटेंगे, मझसे छल करके कहीं दूर चल देंगे...मैं भयानक अनल में जली जा रही हूँ—यदि एक बार उनके दर्शन कर पाती?' निहारिका ने कहा।

चक्रवाल ने देखा, निहारिका के नेत्रों में उन्माद के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। 'तुम्हारी दशा शोचनीय है, तुम अपने प्रकोष्ठ में जाकर विश्राम करो।'

चक्रवाल ने किन्नरी का हाथ पकड़ लिया, परन्तु वह चौंक पड़ा—'यह क्या...? यह क्या अनर्थ कर रही हो, निहारिका तुम...तुम्हारा शरीर इतना तप्त है...और तुम यहां भीगी हुई खड़ी हो। जाओ किन्नरी तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है।'

'रहने दो। मुझ व्यथित को यहीं, अपने प्रकोष्ठ के द्वार पर ही खड़ी रहने दो...।' निहारिका बोली-'और तुम गाओ। कोई दु:खद गीत। गाकर यावत जगत को विह्वल कर दो, मेरे सन्तप्त हृदय को इतना सन्तप्त कर दो...कि में प्राणहीन हो जाऊं।'

चक्रवाल ने गंभीरता को समझा। समझकर उसने वीणा उठा ली। वीणा मधुर स्वर में गुंजरित हो उठी। उसका सिक्त स्वर धीमी गति से प्रवाहित हो उठा

व्यथित बाला के शुन्य द्वार, आती समझाने मृदु बयान, करती-बिखरा तन पर फुहार, सखि, वे दिन कितने सरस रहे, ये लोचन उन बिन तरस रहे।। उसी समय मृदु बयान का एक झोंका आया जो प्रकोष्ठ के द्वार पर खड़ी हुई निहारिका के उज्जवल तन पर फुहारों की वर्षा कर गया। मानो उसे संकेत कर रही हो—'सखि! वे दिन कितने सरस रहे...।'

एक तीव्र कम्पन स्वर के साथ चक्रवाल की वीणा रुक गई, परन्तु निहारिका के नेत्रों से बहते हुए जलकण न रुके...।
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