XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 3 - SexBaba
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XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

खेल समाप्त होते ही दोनों बस स्टैंड की ओर बढ़े। आकाश पर काले बादल छाए हुए थे और हल्की-हल्की बूंदें भी पड़ रही थी। वर्षा के कारण अधिक भीड़ न थी। दादर की बस आई। राज ने सोचा कि वर्षा में भीगने से तो अच्छा है कि दादर पहुंच जाए और वहां से थोड़ा पैदल चल लेना। संभवतः सीधी जाने वाली बस में स्थान ही न मिले। दोनों शीघ्रता से बस की ऊपर वाली मंजिल में अगली सीटों पर जा बैठे। सड़क पर लगी हुई बिजली का प्रकाश बस के शीशों में से आकर डॉली के मुख पर अपनी छाया डालता। भीगी हुई पक्की सड़क शीशे की भांति चमक रही थी और वर्षा का जल थोड़ा-थोड़ा बस की खिड़की से टपक रहा था। 'देखो, कहीं तुम्हारे कपड़े न भीग जाएं।' राज ने डॉली को अपने समीप खींचते हुए कहा।

डॉली उसके समीप हो आई और बोली, 'क्यों? तुम्हें पिक्चर पसंद आई?'

'बहुत! क्या नॉवेल तुमने पढ़ा हुआ है?'

'नहीं तो। किसका लिखा हुआ है?'

'सामरसेट मॉम। खूब लिखता है और नाम भी क्या उचित रखा है।'
'सच पूछो तो मेरी समझ में इस नाम का अर्थ ही नहीं आया।'

'अच्छा तुम ही बताओ कि प्रेम और घृणा में कितना अंतर है?'

राज ने डॉली के बालों को उसके माथे से हटाते हुए पूछा। 'बहुत। ये दोनों तो एकदम विपरीत चीजें हैं।'

'परंतु ये दोनों एक-दूसरे के उतने ही विपरीत हैं जितने कि हम और तुम। यदि दोनों को एक-दूसरे से अलग किया जाए तो भिन्नता की लकीर उतनी ही होगी जितनी उस्तरे की धार।'

'मैं तो यह नहीं मानती। मान लो कि तुम मुझे या तुम्हें मैं तन-मन से प्यार करते हूं, आदर करती हूं क्या अकस्मात् तुम्हें मुझसे इतनी घृणा हो सकती है कि तुम अपने प्यार की हत्या कर दो?'

'मुझे इस प्रकार की बातों का कोई विशेष अनुभव नहीं परंतु मनुष्य का मन बदलते क्या देर लगती है?' बातों ही बातों में बस दादर पहुंच गई। एक बार फिर जोर से बादलों की गड़गड़ाहट का शब्द सुनाई पड़ा और साथ ही डॉली राज के एकदम समीप हो गई। राज ने उसे अपने बाहुपाश में समेट लिया और होंठ उसके जलते हुए होंठों पर रख दिए। दर कहीं बिजली पड़ी। हवा के तेज झोंके मस्ती से पानी बिखेर रहे थे। वर्षा कुछ थमी, अब हल्की-हल्की बौछार पड़ रही थी। दोनों धीरे-धीरे चुपचाप सड़क पर आ गए। दोनों के कपड़ों से अब भी पानी वह रहा था।

"मैंने तो शामू को कार लेकर भेजा था कि बारिश में भीग न जाओ परंतु तुम उसे मिल न सके।' दोनों को देखकर सेठ साहब बोले।

'वर्षा तेज थी। हम शीघ्रता से भागे कि बस पकड़ लें। यदि हम यह जानते कि शामू को वहां पहुंचना है तो हमारी ऐसी दशा क्यों होती?' राज ने सिर के बालों को निचोड़ते हुए उत्तर दिया।

डॉली बिल्कुल चुप खड़ी थी।

'जाओ, जल्दी से कपड़े बदल डालो, सर्दी हो रही है।' सेठजी ने कहा और दोनों अपने-अपने कमरे की ओर चल दिए। खाना खाकर राज बिस्तर पर जा लेटा। सवेरा होते ही राज जल्दी से तैयार होकर चाय की मेज पर जा पहुंचा। नित्य की भांति आज भी डैडी अखबार लिए उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। 'क्यों डैडी, अभी तक डॉली नहीं आई?' उसने आते ही पूछा।

'उसे बुखार आ रहा है। शायद यह सब रात पानी में भीगने के कारण ही हुआ।'

'तो मैं जरा उसे देख आऊं?'

'पहले चाय तो पी लो, ठंडी हो रही है।'
 
'बहुत अच्छा।' राज ने कुर्सी पर बैठते हुए उत्तर दिया और जल्दी चाय का प्याला बनाकर पीना आरंभ किया।

'क्यों, आज बहुत जल्दी में हो क्या? अभी तो केवल आठ ही बजे हैं।' डैडी ने मुस्कराते हुए प्रश्न किया।

'नहीं तो। ओह, आपका प्याला बनाना तो भूल ही गया जल्दी में!'

'कोई बात नहीं।'

राज ने चाय बनाई और प्याला सेठ साहब के आगे रख दिया। सेठ साहब ने अखबार राज के हाथ में देते हुए कहा, 'सरक्युलर लिखता है कि 'इम्पोर्ट' पर फिर से पाबंदियां लगा दी जाएं, यह अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।'
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'क्यों डॉली क्या हुआ?'

'सब आप जैसे हितैषियों की कृपा है।'

'इसमें मेरा क्या दोष? वर्षा तो भगवान की इच्छा से हुई।'

'परंतु आग बरसाने वाले तो तुम थे।' और डॉली की आंखें फर्श पर जा टिकीं।

"डॉली, रात की बातों का कुछ बुरा तो नहीं माना तुमने?'

'जाओ हटो। दुःखी मत करो। तुम्हें बातें बनानी बहुत आ गई हैं।'

'मैं तो तैयार हूं, डैडी भी तो तैयार हैं। वैसे यदि तुम्हें मेरा ठहरना अच्छा नहीं लगता तो चला जाता हूं।' राज यह कहते हुए आवेश में कमरे से बाहर चला गया।

डॉली ने भावपूर्ण मुस्कराहट के साथ कहा 'पागल मनुष्य को क्रोध कितनी जल्दी आ जाता है।'
 
फैक्टरी बंद होते ही राज घर पहुंचा। सेठ साहब बरामदे में तैयार खडे थे। कदाचित कहीं बाहर जा रहे थे। राज को देखते ही बोले, 'अच्छा हुआ कि तुम समय पर पहुंच गए। मैं आवश्यक काम से बाहर जा रहा था, डॉली अकेली थी।'

'कैसी तबियत है अब उनको।'

'अब तो कुछ आराम है। दोपहर को कुछ बुखार तेज हो गया था और पेट में भी सख्त दर्द था। डॉक्टर को बुलाया था। दवाई दे गया है।'

'कब तक लौटेंगे आप?'

'प्रयत्न तो शीघ्र आने का करूंगा। दवाई रखी है, दो घंटे तक एक खुराक दे देना।'

'बहुत अच्छा ।' राज डॉली के कमरे में चला गया। डॉली की आंखें बंद थी। शायद सो रही थी। उसे जगाना उचित न समझा और वह दबे पांव लौट पड़ा।

"कौन है! राज तुम आ गए। डॉली ने उसे देखकर पुकारा।

'मैं समझा कि तुम सो रही हो।'

'वैसे ही आंखें बंद थीं, नींद कहां!'

'डैडी कह रहे थे कि दिन में कष्ट अधिक था। अब कैसी हो?'

'अब तो तनिक आराम है।'

'बीमारी भी सुंदरता की उपासक है, नहीं तो मैं तुमसे अधिक भीगा था।'

'तुम्हें तो बस हर समय हंसी ही सूझती है। देखो, सामने मेज पर थर्मामीटर होगा।'

राज ने मेज पर से थर्मामीटर उठाया और धोकर डॉली के मुंह में रख दिया। उसे अब भी सौ डिग्री बुखार था।

'देखो सामने से कुर्सी ले लो और मेरे पास बैठ जाओ।' डॉली ने थर्मामीटर राज के हाथ में पकड़ाते हुए कहा।

राज कुसी लाकर उसके समीप आ बैठा और उसके मख की ओर देखने लगा। कभी-कभी डॉली भी उसकी ओर देख लेती। किसी के पैरों की आहट हुई, राज ने मुड़कर देखा। वह जय था। आते ही बोला, 'हैलो राज' और फिर डॉली को संबोधित करके बोला, 'क्यों डॉली, तबियत तो ठीक है?'

"वैसे ही जरा बुखार आ गया था।'

'मैंने सोचा कि न जाने आज कॉलेज क्यों नहीं आई। रात को तो तुम लोगों ने बहुत प्रतीक्षा कराई। कहां चले गए थे दोनों?'

'वास्तव में बात यह है कि हम लोग खेल समाप्त होने से पहले ही आ गए थे। मेरी तबियत कुछ खराब हो रही थी।'

'तो पूरी पिक्चर भी न देखी, खूब! मैं तो न जाने क्या सोचता रहा।'
 
'क्या सोचते रहे?' डॉली ने व्याकुलता से पूछा।

'जाने दो इन बातों को और सनाओ, मेरे योग्य कोई सेवा?'

'केवल इतना कि कुर्सी पर बैठ जाओ। खड़े-खड़े कहीं थक न जाओ।'

'यह काम कठिन है। मुझे क्लब जाना है। मैं तो केवल तुम्हें देखने के लिए चला आया था।'

राज दोनों को अकेला छोड़कर चला गया। डॉली तकिए का सहारा लेकर बैठ गई। उसने जय से पूछा, 'तो मेरे पास बैठने से तुम्हारा क्लब जाना अधिक आवश्यक है?'

'तुम कहो तो मैं सारी रात तुम्हारे ही पास बैठा रहू, परंतु मूर्ति बनकर बैठने से तो क्लब ही हो आना अधिक अच्छा है।'

'मूर्ति बनने के लिए किसने कहा है?'

'दिल बहलाने के लिए यहां राज जो है। हम नहीं बैठेंगे तो क्या ....।'

'किसी और ध्यान में न रहिए। बातें तो वह तुमसे भी अधिक दिलचस्प सुना सकता है।'

'तो मैं कब....।' इतने में राज कमरे में लौट आया। 'अच्छा डॉली, अब चलता हूं। टाटा!' और जय कमरे से बाहर चला गया।

जय के चले जाने पर राज फिर डॉली के समीप ही कुर्सी पर आ बैठा। डॉली ने करवट लेकर मुख उसकी ओर कर लिया और पूछा, 'कहां गए थे?'

‘यों ही बाहर तक। परंतु मुझे आज पता चला कि तुम झूठ भी कितनी योग्यता से बोलना जानती हो।'

"कैसा झूठ!' डॉली ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।

'यही कि हम आधी पिक्चर छोड़कर आ गए।' डॉली हंस पड़ी, 'तुम्हारा मतलब यह है कि सच बोल देती कि तुम्हें मेरा उसके साथ जाना पसंद नहीं।'

'नहीं तो, मैं स्वयं डर रहा था कि कोई इस प्रकार की बात न कह दो कि वह मुझ पर आए। यह तो अच्छा हुआ कि तुमने हवा का रुख बदल दिया।'

'क्यों! मानते हो गुरु? तुम तो कहा करते हो कि पुरुष अधिक होशियार होते हैं स्त्रियों से!'

'अच्छा भई, हम हारे तुम जीतीं। उठो दवाई पी लो।'

'यह एक और मुसीबत।'

'मुसीबत कैसी?'

'कड़वी इतनी है कि पीते ही नानी याद आ जाए। थोड़ी चीनी ला दो।'

'पगली कहीं की! कोई दवाई से साथ भी चीनी खाता है?'
 
डॉली ने अब आनाकानी नहीं की। दवा पी ली और खाली प्याला राज को पकड़ाते हुए बोली, 'तुम कितने अच्छे हो। इतना तो कोई सगा भी किसी से न करे जितना तुम मुझसे....।'

'तो क्या तुम मुझे पराया समझती हो?'

'नहीं तो, यह बात नहीं। वैसे ही कभी-कभी सोचती हूं कि तुम मेरा इतना ख्याल क्यों रखते हो, मैंने तो कभी तुम्हारा कोई काम नहीं किया।'

'मैं तुम्हारा ध्यान क्यों रखता हूं?' राज मुस्कराने लगा, 'इसलिए कि तुम मुझे अच्छी लगती हो और जो वस्तु किसी को अच्छी लगे उसके लिए मनुष्य क्या-क्या नहीं करता है, यह तो तुम भली प्रकार समझ सकती हो।' ।

'तुम्हारी यह कविता तो मेरी समझ के बाहर है। जरा सामने की खिड़की बंद कर दो, हवा आ रही है।' राज ने उठकर खिड़की बंद कर दी।

'एक काम कहूं, करोगे?'डॉली राज की ओर देखते हुए बोली।

'क्यों नहीं!' उसने समीप आते हुए कहा।

जरा मेरी पीठ सहला दो। न जाने क्यों बहुत देर से जलन हो रही है। डॉली ने पेट के बल लेटते हुए कहा।

राज चपचाप उसके बिस्तर पर बैठ गया और धीरे-धीरे उसकी पीठ सहलाने लगा।

डॉली बोली, 'तुम भी कहोगे कि हुक्म चलाए जा रही हूं। करू भी क्या? और घर में है ही कौन। देखो न अब लड़कियों के काम भी तुमसे ले रही हूं।'

राज चुपचाप सुनता रहा।

'जरा और जोर से। तुम तो ऐसे नरम-नरम हाथ लगा रहे हो जैसे शरीर में जान ही न हो।'

राज और जोर से सहलाने लगा। उसका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। उसके हाथ तेजी से रेशमी वस्त्रों पर चल रहे थे। हाथ और शरीर की रगड़ से एक आग-सी उत्पन्न हो रही थी जिससे उसका हाथ जलने-सा लगा, परंतु इस जलन में भी उसे एक आनंद का अनुभव हो रहा था।

'यदि तुम लड़की होते तो अंदर हाथ डालकर सहलाने को कहती।'

'कुछ समय के लिए मुझे लड़की समझ लो।'

'ऊं ऊं. यह कैसे हो सकता है?'

'क्यों नहीं हो सकता?' राज ने यह कहते ही डॉली का शरीर अपने हाथों पर उलट लिया और उसकी मस्त आंखों में अपनी आंखें डबो दी।

डॉली घबराकर बोली, 'मेरी ओर घूर-घूरकर क्या देख रहे हो? मुझे इस प्रकार अपनी बांहों में क्यों उठा रखा है? तुम्हें ध्यान नहीं कि मैं बीमार हूं?'

राज उसके हृदय की तेज धड़कन स्वयं अनुभव कर रहा था। 'ओह! मैं तो भूल ही गया कि तुम बीमार हो।' उसने डॉली का शरीर ढीला छोड़ते हुए कहा और कुर्सी पर जा बैठा।

डॉली क्रोधित होकर बोली, 'यह कभी-कभी तुम्हें क्या हो जाता है? तुम पढ़े-लिखे मनुष्य हो, फिर न जाने जंगलीपन क्यों कर बैठते हो? कल रात भी....।' यह कहते-कहते वह रुक गई।

'डॉली, मैं एक मनुष्य हूं, देवता नहीं।'

'परंतु यहां तुम्हें देवता बनकर रहना होगा।'

'यह किस प्रकार संभव है कि कोई आग में जल रहा हो और उसके कपड़े न जले।'

'साफ-साफ कहो, तुम कहना क्या चाहते हो?'

राज ने डॉली की ओर देखा। कितनी सुंदर लग रही थी! वह आज अवश्य अपने हृदय के उद्गार उसके सामने उड़ेल देता और वह बोल ही तो पड़ा, 'डॉली, मैं तुमसे प्रेम करता हूं। तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाना चाहता हूं।'

'अब तुम्हें हुआ क्या है, होश में तो हो?'

'होश में हूं। बहुत दिनों से प्रयत्न कर रहा था कि तुमसे यह सब कह दूं, परंतु तुम्हारा बचपन का-सा बर्ताव और वह आदर जो मेरे हृदय में तुम्हारे लिए है, मुझे इस अशिष्टता की आज्ञा नहीं देते थे और...।'

'राज मुझे तुमसे यह आशा न थी कि तुम मेरे इस स्वतंत्र बर्ताव को इतना गलत समझोगे। मैं तो तुम्हें एक चरित्रवान व्यक्ति समझती हूं।'

'किसी से प्रेम करना तो कोई पाप नहीं और न ही मैं तुम्हें बहकाने का प्रयत्न कर रहा हूं। वह तो सीधी-सी बात है कि मैं तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाना चाहता हूं।'
 
'इसके लिए तुम्हें मेरे डैडी के पास जाना चाहिए। मैं मानती हूं कि मैं एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हूं और सबसे भली प्रकार हंस-बोल देती हूं परंतु इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं अपनी मान-मर्यादा में न रहूं।'

'मैंने तुम्हारे हृदय को टटोलना आवश्यक समझा। यदि तुम ही तैयार नहीं हो तो मेरा तुम्हारे डैडी से पूछना व्यर्थ है।'

'परंतु मेरा अभी विवाह करने का कोई इरादा नहीं और न ही अभी चार-पांच वर्ष तक इस विषय में सोच सकती हूं।'

"तुम जब तक कहो, मैं प्रतीक्षा कर सकता हूं, परंतु एक बार हृदय को यह विश्वास तो होना चाहिए कि इसमें तुम्हारी स्वीकृति है!'

'यदि मैं विश्वास दिला दूं और डैडी न मानें तो?'

'हृदय पर पत्थर बांधकर बैठ जाऊंगा।'

'यह भी तो सम्भव है कि मुझे पाने के लिए तुम उचित-अनुचित का ध्यान खो बैठो?'

'इसकी नौबत नहीं आएगी। तुम भूल रही हो कि मुझे प्रेम के साथ-साथ तुम्हारी मान-मर्यादा का भी ध्यान है।'

'और यदि मैं कह दूं कि....'

'क्या कह दो?' राज ने आकुलता से पूछा।

'कि तुम मुझे पसंद नहीं।' |

राज के हृदय पर एक बिजली-सी गिर पड़ी। 'अभी तो तुम कह रही थीं कि मैं तुम्हें अच्छा लगता हूं।'

'परंतु किसी और नाते से।'

'तब तो कथा ही समाप्त हो गई। मुझे यदि मेरे ही मिथ्या विश्वास मार डालें और उसमें तुम्हारा क्या दोष?' राज यह कहकर उठा और बाहर जाने लगा।

डॉली ने आवाज दी, 'क्यों कहां चल दिए?'

राज ने कोई उत्तर नहीं दिया और अपने कमरे की ओर चल दिया। डॉली को क्या वह गलत समझा? उसे विश्वास भी न हो पाता। वह चंचल मुख, मधुर मुस्कान, मदभरे नयन... वह क्यों बेचैन हो उठता था उन्हें देखने को? यह प्रेम नहीं तो क्या भ्रम था... निरा छल? उसने द्वार बंद कर लिया और चुपचाप बिस्तर पर पड़ रहा।

बाहर मूसलाधार वर्षा शुरु हो गई थी। थोड़ी ही देर बाद सेठ साहब आए। खाने के लिए बुलावा भेजा तो उसने तबियत ठीक न होने का बहाना कर दिया।
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चार दिन बीत गए परंतु राज डॉली के कमरे में न गया। डॉली ने भी उसे नहीं बुलाया। राज इस विचार से कि डॉली अब उससे घृणा करने लगी है, उसके सामने आने का साहस न कर सका।

आज इतवार का दिन था। राज की छुट्टी थी। डॉली भी चारपाई छोड़ चुकी थी। सेठ साहब कुछ कागज बिखेरे बैठे थे। राज अपने कमरे में अकेला बैठा था। वह बाहर आने का साहस न कर सका। वह डर रहा था कि बाहर निकलते ही यदि डॉली का सामना हो गया तो वह क्या करेगा। उसके पैर सीढ़ियों तक पहुंचे ही थे कि उसे डॉली की आवाज ने वहीं ठहरा दिया। उसने धीरे-से मुड़कर देखा। डॉली अपने कमरे के दरवाजे में खड़ी मुस्करा रही थी।

'जरा मेरी बात सुन जाओ।' और वह कमरे में अंदर चली गई।

राज दबे पांव, उसके पीछे कमरे में आ गया। वह शीशे के सामने खड़ी बाल बना रही थी। राज कमरे में आते ही ठिठककर खड़ा हो गया। शीशे में उसे डॉली का चेहरा दिखाई दे रहा था। वह अभी मुस्करा रही थी।

'आपने मुझे बुलाया?' राज ने धीरे-से पूछा।

'जी। विचार तो कुछ ऐसा ही है।' अभी तक वह शीशे की ओर ही मुख करे खड़ी थी।

'कहिए, क्या आज्ञा है?'

'यह आप-आप क्या लगा रखी है, सीधा तुम कहो ना।' डॉली ने बालों में पिन लगाते हुए कहा।

'मेरा विचार....।'

'जी आपका विचार ठीक है।' डॉली ने बात काटकर कहा और कंघा ड्रेसिंग टेबल पर छोड़कर राज की ओर देखने लगी। फिर बोली, 'क्या मुझसे नाराज हो?'

'नहीं तो डॉली, ऐसी कोई बात नहीं।'

'फिर तुम चार दिन से मेरे इतने समीप रहते हुए भी मुझसे क्यों दूर रहे?'

'वास्तव में बात यह थी कि मेरी कुछ तबियत...।'

'तबियत खराब थी! कितने मीलों से आना था पूछने तुमको... बहाना भी ऐसा बनाया? अच्छा अब यह बताओ कि जा कहां रहे हो?'

'वैसे ही जरा बाहर, एक मित्र के घर।'

'देखो, मैं दादर एक सहेली की सगाई में जा रही हूं। यदि बुरा न मानो तो रास्ते में छोड़ते जाना। मैं जल्दी से कपड़े बदल लूं।'

राज कमरे से बाहर जाने लगा।

ठहरो, तुम कहां जा रहे हो? मैं स्वयं ही बाथरूम में जा रही हूं। यह कहकर डॉली ने अपने कपड़े उठा लिए और बाथरूम की ओर चल दी। राज पास ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। वह मन-ही-मन प्रसन्न था। उसका पुरुषत्व विजयी हुआ था। डॉली ने ही तो उसे पहली आवाज दी थी। इसी बीच डॉली कपड़े बदल कर वापस आ गई और शीशे के सामने खड़ी होकर बाल संवारने लगी।

'राज एक काम करो।'

'कहो डॉली।'

'तनिक समीप आ जाओ।'

राज उठा और डॉली के पीछे जा खड़ा हुआ। डॉली बोली, 'जरा पीछे से मेरी कमीज के बटन बंद कर दो।'

'मेरा विचार है कि तम भविष्य में इस प्रकार के कामों के लिए एक आया का प्रबंध कर लो....।' राज ने डॉली की कमीज के बटन बंद करते हुए कहा।

'मुझे ज्ञात न था कि छोटे-छोटे काम करने से तुम्हारे हाथ थक जाते हैं।'

'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं परंतु तुम्हारे और मेरे बीचआवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता अच्छी नहीं और फिर तुम भी तो यह पसंद नहीं करती कि मैं....।'

'यह ठीक है कि मैंने तुम्हें उस दिन किसी बात के लिए मना कर दिया और तुम भी भली प्रकार समझते हो कि वह तुम्हारी भूल थी।'

'मेरा तो विचार है कि मैंने तुम्हें मांगकर कोई भूल नहीं की। फिर भी यदि तुम समझती हो कि यह कहकर मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है तो मैं इसकी क्षमा चाहता हूं। इससे अधिक मैं और क्या कर सकता हूं?'

'इसमें बुरा मानने की क्या बात है? यदि मेरे हृदय में कोई संदेह होता तो मैं तुम्हें किसी भी काम के लिए क्यों कहती? मेरी दृष्टि में तुम अब भी वैसे हो जैसे कुछ दिन पहले थे।'

"डॉली, क्या तुम ठीक कह रही हो? तुम्हारे हृदय में मेरे लिए उतना ही आदर और स्नेह है जितना पहले था?'

'मुझे झूठ बोलने की आदत नहीं। चलो जल्दी चलो। देर हो रही है।' यह कहकर डॉली दरवाजे की ओर बढ़ी। राज भी उसके पीछे हो लिया। थोड़ी देर बाद दोनों सड़क पर पहुंच एक ओर चल दिए। डॉली मौन थी। राज चाहता था कि वह कुछ बात और करे तो वह उसके सब संदेह दूर कर दे। वह नहीं चाहता था कि उसके कारण डॉली अथवा उसके डैडी को किसी प्रकार का क्लेश हो, परंतु डॉली मौन रही। उसने कोई बात नहीं की। राज ने डॉली को उसकी सहेली के घर पहुंचा दिया और सिनेमा चला गया। उसे ऐसा जान पडा मानो उसके हृदय पर से एक भारी बोझ उतर गया है।

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इसी प्रकार दिन बीतते गए। डॉली और राज फिर से आपस में घुल-मिल गए। डॉली पहले से भी अधिक उसका ध्यान रखने लगी। दोनों एक-दूसरे का दिल बहलाने का पूरा प्रयत्न करते। एक दिन सायंकाल के समय जब वे दोनों अकेले बगीचे की घास पर बैठे ताश खेल रहे थे, राज से रहा न गया और वह बोल पड़ा, 'डॉली एक बात पूछं?'

'अवश्य। एक नहीं, दो।'

'विश्वास दिलाओ कि तुम उसका उत्तर ठीक-ठीक दोगी।'

'अपनी ओर से तो पूरा प्रयत्न करूंगी।'

'डॉली याद है एक दिन मैंने तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाने के लिए कहा था और तुमने उत्तर में कहा कि तुम मुझे पसंद नहीं करती।'

"फिर क्या हुआ?' डॉली ने ताश का पत्ता फेंकते हुए कहा।

'यह इंकार किसी कारण से ही किया होगा। मैं केवल वह कारण जानना चाहता हूं।'

"कारण क्या होता है?'

'आखिर कुछ तो सोचा ही होगा तुमने।' ।

'मैंने इस बारे में कभी कुछ नहीं सोचा। फिर उत्तर क्या दूं?'

'यह कैसे हो सकता है। आखिर कोई कारण तो होगा ही। मेरी सूरत पसंद नहीं? काम पसंद नहीं? आखिर मुझे पता तो लगना चाहिए कि मुझमें क्या कमी है जो तुम....।'

'यह जानकर क्या होगा?'

'केवल हृदय को संतोष।'

'इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं और सच पूछो तो मैंने इंकार तो किया ही नहीं। इतना अवश्य है कि अभी मेरा इस विषय में कोई विचार नहीं।'

'इसका अर्थ तो यह हुआ कि अभी कुछ आशा शेष है, जिसके सहारे मैं जीवित रह सकता हूं।'

'संभव है। मैं किसी प्रकार का विश्वास नहीं दिला सकती, परंतु मैं नहीं तो कोई और सही, तुम्हारे लिए ही क्या विशेष अंतर पड़ जाएगा जो इतने चिंतित हो रहे हो।'
 
'डॉली, कितना अच्छा हो यदि भगवान दो पल के लिए तुम्हें मेरा हृदय दे दे। तब तुम समझ सको कि मैं इतना चिंतित क्यों

डॉली हंसने लगी। हंसी रोकते हुए बोली, 'बातें करने का ढंग तो बहुत सुंदर आता है।' और उठ खड़ी हुई।

'क्यों, बाजी तो समाप्त होने दो।' राज ने कहा।

'तुम पत्ते संभालो, मेरी एक सहेली मिलने आई है। मैं जाती

राज ने देखा, डॉली गेट की ओर चल दी। वहां उसकी एक सहेली आई खड़ी थी। राज ने पत्ते डिबिया में बंद किए और अंदर जाने लगा। डॉली और उसकी सहेली बरामदे में पहुंच चुकी थीं।

'आओ राज।' डॉली ने आवाज दी। राज वहीं ठहर गया। डॉली और उसकी सहेली राज के पास आ गई।

‘यह हैं, हमारी फर्म के मैनेजर, मिस्टर राज और यह है मेरी सहेली माला।'

'नमस्ते।' राज ने धीरे से हाथ ऊपर उठाते हुए कहा। तीनों ड्राइंगरूम में पहुंच गए।

'माला, तुम जरा बैठो, मैं दो-चार मिनट में आती हूं।' यह कहकर डॉली अंदर चली गई।

'बैठ जाइए।' राज ने माला से कहा और माला सोफे पर बैठ गई। कुछ देर तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। इस प्रकार चुपचाप बैठने से तो काम नहीं चलेगा, कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। यह सोच राज बोला, 'मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा।'

'जी। मैं कुछ दिनों से अपने चाचा के घर पूना गई थी, नहीं तो मैं प्रायः डॉली के घर आती रहती हूं।'

'आप क्या डॉली के साथ पढ़ती हैं?'

'पढ़ती थी, परंतु अब पढ़ाई छोड़ चुकी हूं। एफ.ए. करने के बाद मैंने एक म्यूजिक कॉलेज में संगीत सीखना आरंभ कर दिया है। वास्तव में मुझे संगीत बहुत प्रिय है, इसी कारण पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सकी।'

'तब तो बहुत प्रसन्नता की बात है। फिर तो कभी....।'

'क्यों? प्रसन्नता की क्या बात है?' डॉली ने कमरे में आते ही पूछा।

'माला के संगीत के विषय में।'

'गाती भी बहुत अच्छा है और सितार तो इतना अच्छा बजाती है कि तुम सुनकर दंग रह जाओ।'

'तो आज एक गाना सुना दीजिए।' राज ने प्रार्थना भरे स्वर में कहा।

'आज नहीं फिर कभी। आज कुछ मूड नहीं है।'

'अच्छा कोई बात नहीं, परंतु भूलिएगा नहीं।'
 
'क्यों डॉली, तुम इतवार को चल रही हो या नहीं?' माला ने डॉली को संबोधित करके कहा।

'अभी डैडी से पूछा नहीं है।'

'तो डैडी ने क्या कहना है?'

'फिर भी पूछना तो अवश्य है।'

'क्यों कहां जाना है?' राज बीच में बोल उठा।

'इतवार को माला, मैं और कुछ अन्य सहेलियां पूना 'रेसिज' पर जा रही हैं। हम लोग सोमवार सवेरे लौटेंगे। रात को माला के चाचा के घर ठहरेंगे। समझो कि एक प्रकार का पिकनिक-सा रहेगा।'

'प्रोग्राम तो बहत अच्छा है।'राज ने कहा।

'तो आप भी चलिए न।' माला ने अनरोध किया।

'जाने में तो कोई आपत्ति नहीं, परंतु....।'

'किंतु परंतु क्या एक अच्छा मनोविनोद रहेगा।'

'आप सब लड़कियों में मेरा जाना कुछ अच्छा नहीं जान पड़ता।'

'आप इसकी चिंता न करें।'

'मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं, सब डॉली पर निर्भर है।'

'तुम अपनी इच्छा के स्वयं स्वामी हो, इससे मेरा क्या।' डॉली ने उत्तर दिया, जो अभी तक चुपचाप दोनों की बात सुन रही थी।

'मेरा मतलब यह है कि जब डैडी से अपने लिए पूछोगी, उसी समय मेरे लिए भी आज्ञा ले लेना।'

'परंतु तुम्हें पूछते क्या लाज आती है?'

"ऐसी बात नहीं। मैं तुम्हें कहीं साथ ले जा रहा होता तो आज्ञा
ले लेता।'

'अच्छा ले भी लेना डॉली, आप दोनों तो लंबी-चौड़ी बहस में पड़ गए।' माला ने डॉली के कहा। और दोनों उठकर बरामदे में चली गई। राज अंदर चला गया।
 
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