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"प्रोग्राम तो पक्का ही है न डॉली, तुम्हारे डैडी मना तो नहीं करेंगे?'माला ने डॉली का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।
"मना क्यों करने लगे? केवल उनके कानों से बात निकलनी है और तुमने राज का यह नया प्राग्राम बना दिया?'
'इसमें बुराई क्या है? आदमी तो दिलचस्प जान पड़ता है।'
'तुम नहीं समझतीं। कभी-कभी आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी अच्छी नहीं होती। चलो, अब तो जो हो गया।'
'अच्छा तो मैं चलती हूं। बहुत देर हो गई।'
'कुछ देर और ठहरो। खाना खाकर ही चली जाना।'
'नहीं, बहुत देर हो जाएगी।
"दिलचस्प आदमी को भेज दंगी। रास्ता अच्छा कट जाएगा।'
'चल, शैतान कहीं की।' माला ने नीचे उतरते हुए कहा। दोनों हंसने लगीं।
डॉली फाटक तक उसे छोड़ने गई। वापस आने पर वह गुनगुनाती हुई ड्राइंगरूम में आ गई।
'क्यों डॉली, यदि तुम नहीं चाहती तो मैं पूना नहीं जाता। मैं तो वैसे ही हां कर बैठा।' राज ने कहा। वह सामने सोफे पर लेटा हुआ था।
'वैसे ही क्या?तुम्हारे जाने से तो मेरा मन लगा रहेगा।' डॉली ने एक फीकी हंसी होंठों पर लाते हुए कहा।
'सच डॉली! तब तो मैं अवश्य जाऊंगा।' राज ने प्रसन्नता से कहा। रात को जब डैडी वापस आए तो खाने के बाद डॉली ने बात छेड़ दी। दोनों के जाने में तो उन्हें कोई आपत्ति न थी, परंतु राज का सोमवार को वापस आना उन्हें स्वीकार न था। अंत में निर्णय यह हुआ कि राज इतवार को ही रात की गाड़ी से वापस आ जाए। राज इसी में प्रसन्न था। इतवार भी आया। दोनों ने आवश्यक सामान साथ लिया और स्टेशन पर पहुंच गए। माला पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने एक कम्पार्टमेंट बुक करवा लिया था। राज को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जय भी उनके साथ जा रहा है। जय के साथ एक और लड़का अनिल भी था जो हाथ मिलाते ही बोला, 'तो यह है मिस्टर राज, जिनके बारे में माला कह रही थी। आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई,
परंतु मैंने कभी आपको कॉलेज....।'
'कॉलेज में नहीं, यह तो डॉली के पिताजी के मैनेजर हैं।' जय ने राज को अपने पास ही बैठने का स्थान देते हुए कहा।
'माला और डॉली कहां गई?'राज ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।
'घबराइए नहीं, वे सामने प्लेटफार्म पर मैगजीन ले रही हैं।' गाड़ी चलने को थी। डॉली और माला शीघ्रता से कम्पार्टमेंट में आ गई। इंजन ने सीटी दी और गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। दोनों राज और जय के सामने वाली सीटों पर बैठ गई।
'आओ मैं तुम्हारी सबसे जान-पहचान करा दूं...।' डॉली ने राज से कहा और बारी-बारी से सबका परिचय देने लगी।
'जय और माला को तो तुम जानते ही हो और यह महाशय हैं मिस्टर अनिल। हैं कुछ हंसमुख। हंसी करने में तो कभी....।'
'अपना लिहाज भी न करू।' अनिल ने डॉली की बात काटते हुए कहा। इस पर सब हंसने लगे।
'और यह हैं मेरी सहेलियां, रानी और मधु।'
'आप सब लोगों से मिलकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। आशा है हम सब लोगों के मिल जाने से हमारी यह यात्रा बहुत मनोरंजक रहेगी।'
'आपकी वाणी सत्य हो। अनिल बोला, माला सच ही कह रही थी कि आदमी बहुत ही दिलचस्प है।'
'जी, परंतु लड़कियों की नजर में।' राज ने लापरवाही से उत्तर दिया और सब हंसने लगे।
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गाड़ी के डिब्बे में एक अच्छी-खासी मजलिस लगी हुई थी। बातों-बातों और गप्पों में समय इस प्रकार बीत गया कि पूना पहुंचने पर भी किसी को विश्वास न हुआ कि गाड़ी पूना पहुंच गई। जब माला ने दरवाजा खोलते हुए कुली-कुली की आवाज लगाई तो सबको होश आया।। गाड़ी से उतर कर सब माला के मकान पर पहुंचे। मकान क्या था एक बहुत बड़ी कोठी थी। माला के चाचा लखमीचंद पूना के धनवानों में से थे और माला उसके भाई की एकमात्र पुत्री थी।
सब अतिथियों से मिलकर लखमीचंद बहुत प्रसन्न हुए। जलपान करके सब तैयार होकर घुड़दौड़ के मैदान में पहुंचे।
राज को उसमें कोई विशेष दिलचस्पी न थी परंतु सहयात्रियों के कारण उसे भी इसमें भाग लेना पड़ा। लाखों मनुष्य एकत्रित थे। कोलाहल हो रहा था। 'नीलम जीतेगी' नहीं 'झांसी की रानी"विन लगाओ' नहीं 'प्लेस' यही आवाज चारों ओर गूंज रही थी। रेस समाप्त होते ही सब कोठी लौट गए। चाय पहले से ही तैयार थी और भूख भी सबको लगी थी, आते ही सब चाय पीने बैठ गए।
'एक बात कहूं, आज्ञा है?'राज ने माला को संबोधित करके कहा।
'अवश्य...' डॉली ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
'याद है आपने एक दिन वायदा किया था?'
'क्या?' माला ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।
'गाना सुनाने का!'
'ओह! मैंने सोचा न जाने कौन-सा वायदा।'
"बहुत अच्छे समय पर याद दिलाया।' अनिल बोला, 'हम तो सचमुच भूल ही गए थे कि माला गाना जानती है।' सबने उसकी हां में हां मिलाई और माला को भी कब इंकार था।
कुछ देर में ही वह पियानो के पास बैठी दिखाई दी और उसने गाना आरंभ कर दिया। गाना समाप्त हुआ। सबने तालियां बजाकर माला के गाने की प्रशंसा की। इसके बाद मधु ने एक छोटा-सा नाच दिखाया। संध्या गहरी हो चुकी थी और रात की गाड़ी से राज को वापस बंबई लौट जाना था। वह जाना तो न चाहता था पर विवश था। वैसे तो डॉली भी सवेरे की गाड़ी से पहुंच रही थी परंतु राज को ऐसा ही जान पड़ता था मानों वह उससे सदा के लिए बिछुड़ रहा हो।
'राज एक बात सुनो।' डॉली ने उसे कुछ दूर ले जाते हुए कहा।
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"मना क्यों करने लगे? केवल उनके कानों से बात निकलनी है और तुमने राज का यह नया प्राग्राम बना दिया?'
'इसमें बुराई क्या है? आदमी तो दिलचस्प जान पड़ता है।'
'तुम नहीं समझतीं। कभी-कभी आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी अच्छी नहीं होती। चलो, अब तो जो हो गया।'
'अच्छा तो मैं चलती हूं। बहुत देर हो गई।'
'कुछ देर और ठहरो। खाना खाकर ही चली जाना।'
'नहीं, बहुत देर हो जाएगी।
"दिलचस्प आदमी को भेज दंगी। रास्ता अच्छा कट जाएगा।'
'चल, शैतान कहीं की।' माला ने नीचे उतरते हुए कहा। दोनों हंसने लगीं।
डॉली फाटक तक उसे छोड़ने गई। वापस आने पर वह गुनगुनाती हुई ड्राइंगरूम में आ गई।
'क्यों डॉली, यदि तुम नहीं चाहती तो मैं पूना नहीं जाता। मैं तो वैसे ही हां कर बैठा।' राज ने कहा। वह सामने सोफे पर लेटा हुआ था।
'वैसे ही क्या?तुम्हारे जाने से तो मेरा मन लगा रहेगा।' डॉली ने एक फीकी हंसी होंठों पर लाते हुए कहा।
'सच डॉली! तब तो मैं अवश्य जाऊंगा।' राज ने प्रसन्नता से कहा। रात को जब डैडी वापस आए तो खाने के बाद डॉली ने बात छेड़ दी। दोनों के जाने में तो उन्हें कोई आपत्ति न थी, परंतु राज का सोमवार को वापस आना उन्हें स्वीकार न था। अंत में निर्णय यह हुआ कि राज इतवार को ही रात की गाड़ी से वापस आ जाए। राज इसी में प्रसन्न था। इतवार भी आया। दोनों ने आवश्यक सामान साथ लिया और स्टेशन पर पहुंच गए। माला पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने एक कम्पार्टमेंट बुक करवा लिया था। राज को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जय भी उनके साथ जा रहा है। जय के साथ एक और लड़का अनिल भी था जो हाथ मिलाते ही बोला, 'तो यह है मिस्टर राज, जिनके बारे में माला कह रही थी। आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई,
परंतु मैंने कभी आपको कॉलेज....।'
'कॉलेज में नहीं, यह तो डॉली के पिताजी के मैनेजर हैं।' जय ने राज को अपने पास ही बैठने का स्थान देते हुए कहा।
'माला और डॉली कहां गई?'राज ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।
'घबराइए नहीं, वे सामने प्लेटफार्म पर मैगजीन ले रही हैं।' गाड़ी चलने को थी। डॉली और माला शीघ्रता से कम्पार्टमेंट में आ गई। इंजन ने सीटी दी और गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। दोनों राज और जय के सामने वाली सीटों पर बैठ गई।
'आओ मैं तुम्हारी सबसे जान-पहचान करा दूं...।' डॉली ने राज से कहा और बारी-बारी से सबका परिचय देने लगी।
'जय और माला को तो तुम जानते ही हो और यह महाशय हैं मिस्टर अनिल। हैं कुछ हंसमुख। हंसी करने में तो कभी....।'
'अपना लिहाज भी न करू।' अनिल ने डॉली की बात काटते हुए कहा। इस पर सब हंसने लगे।
'और यह हैं मेरी सहेलियां, रानी और मधु।'
'आप सब लोगों से मिलकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। आशा है हम सब लोगों के मिल जाने से हमारी यह यात्रा बहुत मनोरंजक रहेगी।'
'आपकी वाणी सत्य हो। अनिल बोला, माला सच ही कह रही थी कि आदमी बहुत ही दिलचस्प है।'
'जी, परंतु लड़कियों की नजर में।' राज ने लापरवाही से उत्तर दिया और सब हंसने लगे।
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गाड़ी के डिब्बे में एक अच्छी-खासी मजलिस लगी हुई थी। बातों-बातों और गप्पों में समय इस प्रकार बीत गया कि पूना पहुंचने पर भी किसी को विश्वास न हुआ कि गाड़ी पूना पहुंच गई। जब माला ने दरवाजा खोलते हुए कुली-कुली की आवाज लगाई तो सबको होश आया।। गाड़ी से उतर कर सब माला के मकान पर पहुंचे। मकान क्या था एक बहुत बड़ी कोठी थी। माला के चाचा लखमीचंद पूना के धनवानों में से थे और माला उसके भाई की एकमात्र पुत्री थी।
सब अतिथियों से मिलकर लखमीचंद बहुत प्रसन्न हुए। जलपान करके सब तैयार होकर घुड़दौड़ के मैदान में पहुंचे।
राज को उसमें कोई विशेष दिलचस्पी न थी परंतु सहयात्रियों के कारण उसे भी इसमें भाग लेना पड़ा। लाखों मनुष्य एकत्रित थे। कोलाहल हो रहा था। 'नीलम जीतेगी' नहीं 'झांसी की रानी"विन लगाओ' नहीं 'प्लेस' यही आवाज चारों ओर गूंज रही थी। रेस समाप्त होते ही सब कोठी लौट गए। चाय पहले से ही तैयार थी और भूख भी सबको लगी थी, आते ही सब चाय पीने बैठ गए।
'एक बात कहूं, आज्ञा है?'राज ने माला को संबोधित करके कहा।
'अवश्य...' डॉली ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
'याद है आपने एक दिन वायदा किया था?'
'क्या?' माला ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।
'गाना सुनाने का!'
'ओह! मैंने सोचा न जाने कौन-सा वायदा।'
"बहुत अच्छे समय पर याद दिलाया।' अनिल बोला, 'हम तो सचमुच भूल ही गए थे कि माला गाना जानती है।' सबने उसकी हां में हां मिलाई और माला को भी कब इंकार था।
कुछ देर में ही वह पियानो के पास बैठी दिखाई दी और उसने गाना आरंभ कर दिया। गाना समाप्त हुआ। सबने तालियां बजाकर माला के गाने की प्रशंसा की। इसके बाद मधु ने एक छोटा-सा नाच दिखाया। संध्या गहरी हो चुकी थी और रात की गाड़ी से राज को वापस बंबई लौट जाना था। वह जाना तो न चाहता था पर विवश था। वैसे तो डॉली भी सवेरे की गाड़ी से पहुंच रही थी परंतु राज को ऐसा ही जान पड़ता था मानों वह उससे सदा के लिए बिछुड़ रहा हो।
'राज एक बात सुनो।' डॉली ने उसे कुछ दूर ले जाते हुए कहा।
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