desiaks
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सुश्रुता कुछ कहती नहीं। सिर्फ़ अपनी किताब की ओर देखती रहती है। मुझे मेरा जवाब मिल गया है।
“यू आर टेरिबली यंग। ये बात माँ-बाप ने सिखाई तो होगी कि ज़िंदगी में की जानेवाली ग़लतियों के लिए ज़िम्मेदार हम ही होते हैं, भुगतना भी हमें ही पड़ता है। तुम समझ रही हो न मैं क्या कह रही हूँ?”
“यस टीचर।” सुश्रुता का ध्यान अब कहीं और है। तेरह साल की है ये। सात साल में सिया भी इतनी ही बड़ी होगी। बार-बार मैं इस लड़की में अपनी बेटी को क्यों देखती हूँ? उस दिन मैं सुश्रुता को जल्दी घर भेज देती हूँ।
मुझे सुश्रुता में न अपनी बेटी ढूँढ़नी चाहिए न उसकी माँ बनने की कोशिश करनी चाहिए।
धीरज आ गए हैं और मैंने सुश्रुता को कुछ दिनों का ब्रेक दे दिया है। अब हम क्लास में ही मिलते हैं। भीड़ में, बाक़ी सब लड़कियों के साथ। धीरज मुझे स्कूल छोड़ दिया करते हैं, इसलिए सुश्रुता के साथ जाने का ये बहाना भी नहीं रहा। लेकिन ये भी सच है कि मैं उसकी कमी महसूस करती हूँ।
एक दिन स्कूल की छुट्टी के बाद सुश्रुता मुझे स्टॉफ़ रूम में मिलती है।
“आपको कुछ बताना था टीचर।”
“हाँ सुश्रुता?”
“मेरा ब्रेक-अप हो गया दुष्यंत के साथ। मैंने व्हॉट्सएप्प पर बता दिया था उसे।” इतनी कम उम्र में ये रिश्ते खेल लगते हैं इन्हें। जाने अपने मन और शरीर को कितना चोट पहुँचाते होंगे ये बच्चे ऐसी नादानियाँ करके। मैं फिर परेशान हो गई हूँ।
“बट वी आर फ़्रेंड्स स्टिल। जस्ट दैट, हम किसी रिलेशनशिप में नहीं हैं।”
मेरा मन करता है, उसे झकझोर कर पूछूँ, तेरह साल की उम्र में किस रिलेशनशिप में थी सुश्रुता?
मुझे फिर सिया के लिए चिंता होने लगी है। ऐसी क्यों है सुश्रुता? मैं ऐसा क्या करूँ कि सिया सुश्रुता न बन जाए? सुश्रुता की बेपरवाही और अनुशासनहीनता हर बार मुझे एक टीचर के तौर पर नहीं, एक माँ के तौर पर चुनौती देती दिखाई देती है। सिया के जिस पालन-पोषण और अनुशासित होने पर मुझे नाज़ है, उस अहसास को सुश्रुता रह-रहकर चिढ़ा जाती है।
धीरज के रहते-रहते सुश्रुता न के बराबर ही आती है। लेकिन क्लास में उसकी होमवर्क कॉपी मुझे क़रीब-क़रीब हर रोज़ मिलने लगी है। कई बार स्टाफ़रूम में वो मुझसे या ताहिरा से मिलने आती है, डाउट्स क्लियर करने के लिए। हमारे बीच अब कोई निजी बातचीत नहीं होती। वो सिया के बारे में भी नहीं पूछती, न ये पूछती है कि ट्यूशन के लिए कब से वापस आ सकती है।
फ़ाइनल इम्तिहान में सुश्रुता ने अच्छा किया है। जैसी उससे उम्मीद थी, उससे कहीं अच्छा। लेकिन उसका रिपोर्ट कार्ड लेने कोई नहीं आया, ख़ुद सुश्रुता भी नहीं। मैं ये सोचकर रिपोर्ट कार्ड रख लेती हूँ कि उसके घर ले जाकर दे दूँगी। लेकिन शाम को हम जमशेदपुर के लिए निकल जाते हैं, सिया के दादा-दादी के पास। मैं स्कूल खुलने के एक दिन पहले राँची लौटी हूँ।
दो दिनों में धीरज को जहाज़ पर जाना है, इसलिए सुश्रुता को फ़ोन करने का भी वक़्त नहीं मिलता। उसकी नई क्लास टीचर ताहिरा से मैं सुश्रुता के बारे में पूछती हूँ। सुश्रुता स्कूल खुलने के बाद नहीं लौटी है। धीरज के जाने के बाद आज सिया को लेकर मैं सुश्रुता के घर आई हूँ, पहली बार।
बहुत देर तक घंटी बजाने के बाद सुश्रुता की माँ हाँफते-खाँसते दरवाज़ा खोलती हैं। मुझे देखकर उनके निस्तेज और बीमार चेहरे पर परेशान-सी मुस्कान को देखकर मुझे जाने क्यों लगता है जैसे मैंने ठहरे हुए तालाब के ज़रा-से पानी में कंकड़ फेंकने की गुस्ताख़ी की है।
“सुश्रुता बाज़ार गई है, घर के सामान लाने।” ये कहकर वो किचन की ओर मुड़ने लगी हैं, हमारे लिए पानी लाने की ख़ातिर शायद। मैंने उनसे बैठ जाने का आग्रह करती हूँ और सुश्रुता का रिपोर्ट कार्ड उनकी ओर बढ़ा देती हूँ। बिना रिपोर्ट कार्ड देखे अपनी हाँफती-खाँसती आवाज़ में वे बातें करती रहती हैं, “सुश्रुता ने बताया था कि आपके पति आए हैं, इसलिए आप कुछ दिन ट्यूशन नहीं पढ़ा पाएँगी। हम रिज़ल्ट लेने नहीं आ पाए। सुश्रुता के पिता शांतनु का रिज़ल्ट लेने जाया करते थे हमेशा, लेकिन…।”
अबतक मुझे समझ में आ गया है कि इस घर में ग़ैर-मौज़ूद शांतनु यहाँ की दीवारों, शो-केस और बातचीत में हमेशा मौज़ूद रहता है। दीवारों पर उसकी कई तस्वीरें हैं। जो दो-एक तस्वीरें सुश्रुता की हैं भी वो सब शांतनु के साथ की हैं। शो-केस में सजे उसके बड़े-बड़े शील्ड कैसे सुश्रुता के वजूद को एकदम छोटा बना देते होंगे, ये अंदाज़ा लगाना बिल्कुल मुश्किल नहीं मेरे लिए। तेरह साल की सुश्रुता को क्यों दुष्यंत में, एक ‘बॉयफ़्रेंड’ में अपना साथी तलाशना पड़ा होगा, ये भी समझ आ गया है।
एक बीमार माँ, माज़ी में जीनेवाले, अपनी ही धुन में रहनेवाले पिता और एक मरे हुए भाई के हर वक़्त इस घर में होने के अहसास के साथ कैसे रहती होगी सुश्रुता? कैसा लगता होगा उसे जब वो रिपोर्ट कार्ड लाती होगी और उसके बदले बातचीत का हर छोर उसके भाई की ओर मुड़ जाया करता होगा? कैसे हर लम्हा उसे अपने छुटपन का अहसास होता होगा, तब भी जब वो बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ अपने माँ-बाप और उनके घर को संभाल रही है? गुज़रे लम्हों में रहनेवाले इस परिवार के बीच उसे अपना भविष्य कहाँ दिखता होगा?
सुश्रुता सब्ज़ी का झोला लिए अपनी ही चाभी से घर खोलकर अंदर ड्राईंग रूम में आ गई है और सिया को देखते ही उसका चेहरा खिल गया है। मैं उठकर उसके हाथ से झोला लेकर फ़र्श पर रख देती हूँ और उसके हाथ में रिपोर्ट कार्ड पकड़ा देती हूँ।
“ये प्रोग्रेस रिपोर्ट है सुश्रुता। तुम्हारे प्रोग्रेस की रिपोर्ट है ये।”
मैं और कुछ नहीं कह पाती, उसका हाथ पकड़ लेती हूँ और भरी आवाज़ में कहती हूँ, “कल शाम से ट्यूशन पढ़ने आओगी तो सिया को भी एक घंटे के लिए कुछ पढ़ा देना सुश्रुता। सिया श्रुति दीदी से पढ़ना चाहती है।”
“यू आर टेरिबली यंग। ये बात माँ-बाप ने सिखाई तो होगी कि ज़िंदगी में की जानेवाली ग़लतियों के लिए ज़िम्मेदार हम ही होते हैं, भुगतना भी हमें ही पड़ता है। तुम समझ रही हो न मैं क्या कह रही हूँ?”
“यस टीचर।” सुश्रुता का ध्यान अब कहीं और है। तेरह साल की है ये। सात साल में सिया भी इतनी ही बड़ी होगी। बार-बार मैं इस लड़की में अपनी बेटी को क्यों देखती हूँ? उस दिन मैं सुश्रुता को जल्दी घर भेज देती हूँ।
मुझे सुश्रुता में न अपनी बेटी ढूँढ़नी चाहिए न उसकी माँ बनने की कोशिश करनी चाहिए।
धीरज आ गए हैं और मैंने सुश्रुता को कुछ दिनों का ब्रेक दे दिया है। अब हम क्लास में ही मिलते हैं। भीड़ में, बाक़ी सब लड़कियों के साथ। धीरज मुझे स्कूल छोड़ दिया करते हैं, इसलिए सुश्रुता के साथ जाने का ये बहाना भी नहीं रहा। लेकिन ये भी सच है कि मैं उसकी कमी महसूस करती हूँ।
एक दिन स्कूल की छुट्टी के बाद सुश्रुता मुझे स्टॉफ़ रूम में मिलती है।
“आपको कुछ बताना था टीचर।”
“हाँ सुश्रुता?”
“मेरा ब्रेक-अप हो गया दुष्यंत के साथ। मैंने व्हॉट्सएप्प पर बता दिया था उसे।” इतनी कम उम्र में ये रिश्ते खेल लगते हैं इन्हें। जाने अपने मन और शरीर को कितना चोट पहुँचाते होंगे ये बच्चे ऐसी नादानियाँ करके। मैं फिर परेशान हो गई हूँ।
“बट वी आर फ़्रेंड्स स्टिल। जस्ट दैट, हम किसी रिलेशनशिप में नहीं हैं।”
मेरा मन करता है, उसे झकझोर कर पूछूँ, तेरह साल की उम्र में किस रिलेशनशिप में थी सुश्रुता?
मुझे फिर सिया के लिए चिंता होने लगी है। ऐसी क्यों है सुश्रुता? मैं ऐसा क्या करूँ कि सिया सुश्रुता न बन जाए? सुश्रुता की बेपरवाही और अनुशासनहीनता हर बार मुझे एक टीचर के तौर पर नहीं, एक माँ के तौर पर चुनौती देती दिखाई देती है। सिया के जिस पालन-पोषण और अनुशासित होने पर मुझे नाज़ है, उस अहसास को सुश्रुता रह-रहकर चिढ़ा जाती है।
धीरज के रहते-रहते सुश्रुता न के बराबर ही आती है। लेकिन क्लास में उसकी होमवर्क कॉपी मुझे क़रीब-क़रीब हर रोज़ मिलने लगी है। कई बार स्टाफ़रूम में वो मुझसे या ताहिरा से मिलने आती है, डाउट्स क्लियर करने के लिए। हमारे बीच अब कोई निजी बातचीत नहीं होती। वो सिया के बारे में भी नहीं पूछती, न ये पूछती है कि ट्यूशन के लिए कब से वापस आ सकती है।
फ़ाइनल इम्तिहान में सुश्रुता ने अच्छा किया है। जैसी उससे उम्मीद थी, उससे कहीं अच्छा। लेकिन उसका रिपोर्ट कार्ड लेने कोई नहीं आया, ख़ुद सुश्रुता भी नहीं। मैं ये सोचकर रिपोर्ट कार्ड रख लेती हूँ कि उसके घर ले जाकर दे दूँगी। लेकिन शाम को हम जमशेदपुर के लिए निकल जाते हैं, सिया के दादा-दादी के पास। मैं स्कूल खुलने के एक दिन पहले राँची लौटी हूँ।
दो दिनों में धीरज को जहाज़ पर जाना है, इसलिए सुश्रुता को फ़ोन करने का भी वक़्त नहीं मिलता। उसकी नई क्लास टीचर ताहिरा से मैं सुश्रुता के बारे में पूछती हूँ। सुश्रुता स्कूल खुलने के बाद नहीं लौटी है। धीरज के जाने के बाद आज सिया को लेकर मैं सुश्रुता के घर आई हूँ, पहली बार।
बहुत देर तक घंटी बजाने के बाद सुश्रुता की माँ हाँफते-खाँसते दरवाज़ा खोलती हैं। मुझे देखकर उनके निस्तेज और बीमार चेहरे पर परेशान-सी मुस्कान को देखकर मुझे जाने क्यों लगता है जैसे मैंने ठहरे हुए तालाब के ज़रा-से पानी में कंकड़ फेंकने की गुस्ताख़ी की है।
“सुश्रुता बाज़ार गई है, घर के सामान लाने।” ये कहकर वो किचन की ओर मुड़ने लगी हैं, हमारे लिए पानी लाने की ख़ातिर शायद। मैंने उनसे बैठ जाने का आग्रह करती हूँ और सुश्रुता का रिपोर्ट कार्ड उनकी ओर बढ़ा देती हूँ। बिना रिपोर्ट कार्ड देखे अपनी हाँफती-खाँसती आवाज़ में वे बातें करती रहती हैं, “सुश्रुता ने बताया था कि आपके पति आए हैं, इसलिए आप कुछ दिन ट्यूशन नहीं पढ़ा पाएँगी। हम रिज़ल्ट लेने नहीं आ पाए। सुश्रुता के पिता शांतनु का रिज़ल्ट लेने जाया करते थे हमेशा, लेकिन…।”
अबतक मुझे समझ में आ गया है कि इस घर में ग़ैर-मौज़ूद शांतनु यहाँ की दीवारों, शो-केस और बातचीत में हमेशा मौज़ूद रहता है। दीवारों पर उसकी कई तस्वीरें हैं। जो दो-एक तस्वीरें सुश्रुता की हैं भी वो सब शांतनु के साथ की हैं। शो-केस में सजे उसके बड़े-बड़े शील्ड कैसे सुश्रुता के वजूद को एकदम छोटा बना देते होंगे, ये अंदाज़ा लगाना बिल्कुल मुश्किल नहीं मेरे लिए। तेरह साल की सुश्रुता को क्यों दुष्यंत में, एक ‘बॉयफ़्रेंड’ में अपना साथी तलाशना पड़ा होगा, ये भी समझ आ गया है।
एक बीमार माँ, माज़ी में जीनेवाले, अपनी ही धुन में रहनेवाले पिता और एक मरे हुए भाई के हर वक़्त इस घर में होने के अहसास के साथ कैसे रहती होगी सुश्रुता? कैसा लगता होगा उसे जब वो रिपोर्ट कार्ड लाती होगी और उसके बदले बातचीत का हर छोर उसके भाई की ओर मुड़ जाया करता होगा? कैसे हर लम्हा उसे अपने छुटपन का अहसास होता होगा, तब भी जब वो बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ अपने माँ-बाप और उनके घर को संभाल रही है? गुज़रे लम्हों में रहनेवाले इस परिवार के बीच उसे अपना भविष्य कहाँ दिखता होगा?
सुश्रुता सब्ज़ी का झोला लिए अपनी ही चाभी से घर खोलकर अंदर ड्राईंग रूम में आ गई है और सिया को देखते ही उसका चेहरा खिल गया है। मैं उठकर उसके हाथ से झोला लेकर फ़र्श पर रख देती हूँ और उसके हाथ में रिपोर्ट कार्ड पकड़ा देती हूँ।
“ये प्रोग्रेस रिपोर्ट है सुश्रुता। तुम्हारे प्रोग्रेस की रिपोर्ट है ये।”
मैं और कुछ नहीं कह पाती, उसका हाथ पकड़ लेती हूँ और भरी आवाज़ में कहती हूँ, “कल शाम से ट्यूशन पढ़ने आओगी तो सिया को भी एक घंटे के लिए कुछ पढ़ा देना सुश्रुता। सिया श्रुति दीदी से पढ़ना चाहती है।”