bahan ki chudai बहन की इच्छा - SexBaba
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bahan ki chudai बहन की इच्छा

hotaks444

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Nov 15, 2016
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बहन की इच्छा


"कैसा लगा, दीदी?"

"बिल'कुल अच्च्छा!! "

"ऐसा सुख पहेले कभी मिला था तुम्हें?"

"कभी भी नही!.. कुच्छ अलग ही भावनाएँ थी.. पह'ली बार मेने ऐसा अनुभाव किया है."

"जीजू ने तुम्हें कभी ऐसा आनंद नही दिया? मेने किया वैसे उन्होने कभी नही किया, दीदी??"

"नही रे, सागर!. उन्होने कभी ऐसे नही किया. उन्हे तो शायद ये बात मालूम भी नही होंगी."

"और तुम्हें, दीदी? तुम्हें मालूम था ये तरीका?"

"मालूम यानी. मेने सुना था के ऐसे भी मूँ'ह से चूस'कर कामसुख लिया जाता है इस दूनीया में."

"फिर तुम्हें कभी लगा नही के जीजू को बता के उनसे ऐसे करवाए?"

"कभी कभी 'इच्छा' होती थी. लेकिन उन'को ये पसंद नही आएगा ये मालूम था इस'लिए उन्हे नही कहा."

"तो फिर अब तुम्हारी 'इच्छा' पूरी हो गई ना, दीदी?"

"हां ! हां !. पूरी हो गई. और मैं तृप्त भी हो गई. कहाँ सीखा तुम'ने ये सब? बहुत ही 'छुपे रुस्तमा' निकले तुम!"
 
 
चेतावनी ........... ये कहानी समाज के नियमो के खिलाफ है क्योंकि हमारा समाज मा बेटे और भाई बहन और बाप बेटी के रिश्ते को सबसे पवित्र रिश्ता मानता है अतः जिन भाइयो को इन रिश्तो की कहानियाँ पढ़ने से अरुचि होती हो वह ये कहानी ना पढ़े क्योंकि ये कहानी एक पारवारिक सेक्स की कहानी है 



दोस्तो ये एक पुरानी कहानी है इसे मैने हिन्दी फ़ॉन्ट मे कॅन्वेर्ट किया है उम्मीद करता हूँ ये कहानी आपको पसंद आएगी
कहानी किसने लिखी है ये तो मैं नही जानता पर इस कहानी का क्रेडिट इस कहानी के रायटर को जाता है



बहन की इच्छा--1


जब में**** साल का था तब से मेरे मन में लड़कियो के बारे में लैंगिक आकर्षण चालू हुआ था. में हमेशा लड़'की और सेक्स के बारे में सोचने लगा. 18/19 साल के लडके के अंदर सेक्स के बारे में जो जिग्यासा होती है और उसे जान'ने के लिए वो जो भी करता है वह सब में कर'ने लगा. मिसाल के तौर पर, लड़कियों और औरतों को चुपके से निहारना, उनके गदराए अंगो को देख'ने के लिए छटपटाना. उनके पह'ने हुए कपडो के अंदर के अंतर्वस्त्रों के रंग और पैटर्न जान'ने की कोशिस कर'ना. चुपके से वयस्कों की फिल्में देख'ना, ब्लू-फिल्म देख'ना. अश्लील कहानियाँ पढ़ना वग़ैरा वग़ैरा. धीरे धीरे मेरे संपर्क में रह'नेवाली और मेरे नज़र में आनेवाली सभी लड़कियों और औरतों के बारे में मेरे मन में काम लालसा जाग'ने लगी. में स्कूल की मेरे से बड़ी लड़कियों, चिक'नी और सुंदर मेंडम, रास्ते पे जा रही लड़कियों और औरतें, हमारे अडोस पडोस में रहेनेवाली लड़कियों और औरतें इन सब की तरफ काम वासना से देख'ने लगा. यहाँ तक कि मेरे रिश्तेदारी की कुच्छ लड़कियों और औरतों को भी में काम वासना से देख'ने लगा था. एक बार मेने अप'नी सग़ी बड़ी बहन को कपड़े बदलते सम'य ब्रेसीयर और पैंटी में देखा. जो मेने देखा उस'ने मेरे दिल में घर कर लिया और में काफ़ी उत्तेजित भी हुआ. पह'ले तो मुझे शरम आई के अप'नी सग़ी बहन को भी में वासना भरी निगाहा से देखता हूँ. लेकिन उसे वैसे अधनन्गी अवस्था में देख'कर मेरे बदन में जो काम लहरे उठी थी और में जितना उत्तेजीत हुआ था वैसा मुझे पह'ले कभी महसूस नही हुआ था. बाद में में अप'नी बाहें को अलग ही निगाह से देख'ने लगा. मुझे एक बार चुदाई की कहानियो की एक हिन्दी की किताब मिली . उस किताब में कुच्छ कहा'नियाँ ऐसी थी जिनमें नज़दीकी रिश्तेदारो के लैंगिक संबंधो के बारे में लिखा था. जिनमें भाई-बहेन के चुदाइ की कह'नी भी थी जिसे पढ़ते सम'य बार बार मेरे दिल में मेरी बहेन, ऊर्मि दीदी का ख़याल आ रहा था और में बहुत ही उत्तेजीत हुआ था. वो कहा'नियाँ पढके मुझे थोड़ी तसल्ली हुई कि इस तरह के नाजायज़ संबंध इस दुनीया में है और में ही अकेला ऐसा नही हूँ जिसके मन में अप'नी बहन के बारे में कामवसना है. मेरी बहेन, ऊर्मि दीदी, मेरे से 8 साल बड़ी थी. में जब 16 साल का था तब वो 24 साल की थी. उस'का एकलौता भाई होने की वजह से वह मुझे बहुत प्यार करती थी. काफ़ी बार वो मुझे प्यार से अप'नी बाँहों में भरती थी, मेरे गाल की पप्पी लेती थी. में तो उस की आँख का तारा था. हम एक साथ खेल'ते थे, हंस'ते थे, मज़ा कर'ते थे. हम एक दूसरे के काफ़ी करीब थे. हम दोनो भाई-बहेन थे लेकिन ज़्यादातर हम दोस्तों जैसे रहते थे. हमारे बीच भाई-बहेन के नाते से ज़्यादा दोस्ती का नाता था और हम एक दूसरे को वैसे बोलते भी थे. ऊर्मि दीदी साधारण मिडल-क्लास लड़कियो जैसी लेकिन आकर्षक चेहरेवाली थी. उस'की फिगर 'सेक्ष्बम्ब' वग़ैरा नही थी लेकिन सही थी. उस'के बदन पर सही जगह 'उठान' और 'गहराइया' थी. उस'का बदन ऐसा था जो मुझे बेहद पागल करता था और हर रोज मुझे मूठ मार'ने के लिए मजबूर करता था. घर में रहते सम'य उसे पता चले बिना उसे वासना भरी निगाहा से निहार'ने का मौका मुझे हमेशा मिलता था. उस'के साथ जो मेरे दोस्ताना ताल्लूकात थे जिस'की वजह से जब वो मुझे बाँहों में भरती थी तब उस'की गदराई छाती का स्पर्श मुझे हमेशा होता था. हम कही खड़े होते थे तो वो मुझ से सट के खडी रहती थी, जिस'से उस'के भरे हुए चुत्तऱ और बाकी नज़ूक अंगो का स्पर्श मुझे होता था और उस'से में उत्तेजीत होता था. इस तरह से ऊर्मि दीदी के बारे में मेरा लैंगिक आकर्षण बढत ही जा रहा था. ऊर्मि दीदी के लिए में उस'का नट'खट छोट भाई था. वो मुझे हमेशा छोट बच्चा ही समझती थी और पहलेसे मेरे साम'ने ही कपड़े वग़ैरा बदलती थी. पह'ले मुझे उस बारे में कभी कुच्छ लगता नही था और में कभी उस'की तरफ ध्यान भी नही देता था. लेकिन जब से मेरे मन में उस'के प्रति काम वासना जाग उठी तब से वो मेरी बड़ी बहेन ना रहके मेरी 'काम'देवी' बन गयी थी. अब जब वो मेरे साम'ने कपड़े बदलती थी तब में उसे चुपके से कामूक निगाह से देखता था और उस'के अधनन्गे बदन को देख'ने के लिए छटपटाता था. जब वो मेरे साम'ने कपड़े बदलती थी तब में उस'के साथ कुच्छ ना कुच्छ बोलता रहता था जिस'की वजह से बोलते सम'य में उस'की तरफ देख सकता था और उस'की ब्रा में कसी गदराई छाती को देखता था. कभी कभी वो मुझे उस'की पीठ'पर अप'ने ड्रेस की झीप लगाने के लिए कहती थी तो कभी अप'ने ब्लाउस के बटन लगाने के लिए बोलती थी. उस'की जिप या बटन लगाते सम'य उस'की खुली पीठ'पर मुझे उस'की ब्रा की पत्तियां दिखती थी. कभी सलवार या पेटीकोट पहनते सम'य मुझे ऊर्मि दीदी की पैंटी दिखती थी तो कभी कभी पैंटी में भरे हुए उस'के चुत्तऱ दिखाई देते थे. उस'के ध्यान में ये कभी नही आया के उस'का छोट भाई उस'की तरफ गंदी निगाह से देख रहा है.
 
दीदी की ब्रेसीयर और पैंटी मुझे घर में कही नज़र आई तो उन्हे देख'कर में काफ़ी उत्तेजीत हो जाता था. ये वही कपड़े है जिस में मेरी बहन की गदराई छाती और प्यारी चूत छुपी होती है इस ख़याल से में दीवाना हो जाता था. कभी कभी मुझे लगता था के में ब्रेसीयर या पैंटी होता तो चौबीस घंटे मेरी बहेन की छाती या चूत से चिपक के रह सकता था. जब जब मुझे मौका मिलता था तब तब में ऊर्मि दीदी की ब्रेसीयर और पैंटी चुपके से लेकर उस'के साथ मूठ मारता था. में उस'की पैंटी मेरे लंड'पर घिसता था और उस'की ब्रेसीयर को अप'ने मुँह'पर रख'कर उस'के कप चुसता था. जब में उस'की पह'नी हुई पैंटी को मूँ'ह में भर'कर चुसता था तब में काम वासना से पागल हो जाता था. उस पैंटी पर जहाँ उस'की चूत लगती थी वहाँ पर उस'की चूत का रस लगा रहता था और उस'का स्वाद कुच्छ अलग ही था. मेरे कड़े लंड'पर उस'की पैंटी घिसते घिसते में कल्पना करता था के में अप'नी बहन को चोद रहा हूँ और फिर उस'की पैंटी'पर में अप'ने वीर्य का पा'नी छोड'कर उसे गीला करता था. ऊर्मि दीदी के नाज़ुक अंगो को छू लेने से में वासना से पागल हो जाता था और उसे छूने का कोई भी मौका में छोडता नही था. हमारा घर छोटा था इस'लिए हम सब एक साथ हाल में सोते थे और में ऊर्मि दीदी के बाजू में सोता था. आधी रात के बाद जब सब लोग गहरी नींद में होते थे तब में ऊर्मि दीदी के नज़दीक सरकता था और हर तरह की होशीयारी बरतते में उस'से धीरे से लिपट जाता था और उस'के बदन की गरमी को महसूस करता था. उस'के बड़े बड़े छाती के उभारो को हलके से छू लेता था. उस'के चुत्तऱ को जी भर के हाथ लगाता था और उनके भारीपन का अंदाज़ा लेता था. उस'की जाँघो को में छूता था तो कभी कभी उस'की चूत को कपड़े के उपर से छूता था. मेरे मन में मेरी बहेन के बारे में जो काम लालसा थी उस बारे में मेरे माता, पिता को कभी कुच्छ मालूम नही हुआ. उन्हे क्या? खुद ऊर्मि दीदी को भी मेरे असली ख़यालात का कभी पता ना चला के में उस'के बारे में क्या सोचता हूँ. मेरे असली ख़यालात के बारे में किसी को पता ना चले इस'की में हमेशा खबरदारी लेता था. मेरे मन में ऊर्मि दीदी के बारे में काम वासना थी और में हमेशा उसको चोद'ने के सप'ने देखता था लेकिन मुझे मालूम था के हक़ीकत में ये नासमभव है. मेरी बहन को चोदना या उस'के साथ कोई नाजायज़ काम संबंध बनाना ये महज एक सपना ही है और वो हक़ीकत में कभी पूरा हो नही सकता ये मुझे अच्छी तरह से मालूम था. इस'लिए उसे पता चले बिना जितना हो सके उतना में उस'के नज़ूक अंगो को छूकर या चुपके से देख'कर आनंद लेता था और उसे चोद'ने के सिर्फ़ सप'ने देखता था. जब ऊर्मि दीदी 26 साल की हो गयी तब उस'की शादी के लिए लडके देख'ना मेरे माता, पिता ने चालू किया. हमारे रिश्तेदारो में से एक 34 साल के लडके का रिश्ता उस'के लिए आया. लड़का पूना में रहता था. उस'के माता, पिता नही थे. उस'की एक बड़ी बहेन थी जिस'की शादी हुई थी और उस'का ससुराल पूना में ही था. अलग प्लोत पर लडके का खुद का मकान था. उस'का खुद का राशन का दुकान था जिसे वो मेहनत कर के चला रहा था. ऊर्मि दीदी ने बीना किसी ऐतराज से यह रिश्ता मंजूर कर लिया. लेकिन मुझे इस लडके का रिश्ता पसंद नही था. ऊर्मि दीदी के लिए ये लडका ठीक नही है ऐसा मुझे लगता था और उस'की दो वजह थी. एक वजह ये थी के लडक 34 साल का था यानी ऊर्मि दीदी से काफ़ी बड़ा था. शादी नही हुई इस'लिए उसे लड़का कहना चाहिए नही तो वो अच्छा ख़ासा अधेड उम्र जैसा आदमी था. इस'लिए वो मेरी जवान बहेन को कितना सुखी रख सकता है इस बारे में मुझे आशंका थी. और उनकी उम्र के ज़्यादा फरक की वजह से उनके ख़यालात मिलेंगे के नही इस बारे में भी मुझे आशंका थी. सिर्फ़ उस'का खुद का मकान और दुकान है इस'लिए शायद ऊर्मि दीदी ने उस'के लिए हां कर दी थी. दूसरी वजह ये थी के उस'के साथ शादी हो गयी तो मेरी बहेन मुझसे दूर जाने वाली थी. उस'ने अगर मुंबई का लडक पसंद किया होता तो शादी के बाद वो मुंबई में ही रहती और मुझे उस'से हमेशा मिलना आसान होता. लेकिन मेरी बहेन की शादी के बारे में में कुच्छ कर नही सकता था, ना तो मेरे हाथ में कुच्छ भी था. देखते ही देखते उस'की शादी उस लडके से हो गयी और वो अप'ने ससुराल, पूना में चली गयी. उस'की शादी से में खुश नही था लेकिन मुझे मालूम था के एक ना एक दिन ये होने ही वाला था. उस'की शादी होकर वो अप'ने ससुराल जा'ने ही वाली थी, चाहे उस'का ससुराल पूना में हो या मुंबई में. यानी मेरी बहेन मुझसे बिछड'ने वाली तो थी ही और मुझे उस'के बिना जीना तो था ही.
 
[size=large]ऊर्मि दीदी के जा'ने के बाद में उस'के जवान बदन को याद कर के और उस'की कुच्छ पुरानी ब्रेसीयर और पैंटी हमारे अलमारी में पडी थी, उस'का इस्तेमाल कर के में मूठ मारता था और मेरी काम वासना शांत करता था. दीदी हमेशा त्योहार के लिए या किसी ख़ास दिन की वजह से मायके यानी हमारे घर आती थी और चार आठ दिन रहती थी. जब वो आती थी तब में ज़्यादा तर उस'के आजू बाजू में रहता था. में उस'के साथ रहता था, उस'के साथ बातें करता रहता था. गये दिनो में क्या क्या, कैसे कैसे हुआ ये में उसे बताता रहता और उस'के साथ हँसी मज़ाक करता था. इस तरह से में उस'के साथ रहके उसको काम वासना से निहाराता रहता था और उस'के गदराए बदन का स्पर्श सुख लेता रह'ता था.
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शादी के बाद ऊर्मि दीदी कुच्छ ज़्यादा ही सुंदर, सुडौल और मादक दिख'ने लगी थी. उस'की ब्रेसीयर, पैंटी चुपके से लेकर में अब भी मूठ मारता था. उस'की ब्रेसीयर और पैंटी चेक कर'ने के बाद मुझे पता चला के उनका नंबर बदल गया था. इसका मतलब ये था के शादी के बाद वो बदन से और भी भर गयी थी. अगर बहुत दिनो से ऊर्मि दीदी मायके नही आती तो में उस'से मिल'ने पूना जाता था. में अगर उस'के घर जाता तो दो चार दिन या तो एक हफ़्ता वहाँ रहता था. उस'के पती दिनभर दुकान'पर रहते थे. खाना खाने के लिए वो दोपहर को एक घंटे के लिए घर आते थे और फिर बाद में सीधा रात को दस बजे घर आते थे. दिनभर ऊर्मि दीदी घर में अकेले ही रहती थी.



जब में उस'के घर जाता था तो सदा उस'के आसपास रहता था. भले ही में उस'के साथ बातें करता रहता था या उस'के किसी काम में मदद करता रहता था लेकिन असल में मैं उस'के गदराए अंगो के उठान और गहराइयों का, उस'की साड़ी और ब्लाउस के उपर से जायज़ा लेता था. और इधर से उधर आते जाते उस'के बदन का अनजाने में हो रहे स्पर्श का मज़ा लेता था. उस'के कभी ध्यान में ही नही आई मेरी काम वासना भरी नज़र या वासना भरे स्पर्श! उस'ने सप'ने में भी कभी कल्पना की नही होगी के उस'के सगे छोट भाई के मन में उस'के लिए काम लालसा है.



शादी के बाद एक साल में ऊर्मि दीदी गर्भवती हो गयी. सात'वे महीने में डिलीवरी के लिए वो हमारे घर आई और नववे महीने में उसे लड़का हुआ. बाद में दो महीने के बाद वो बच्चे के साथ ससुराल चली गयी. बाद में तीन चार साल ऐसे ही गुजर गये और उस दौरान वो वापस गर्भवती नही रही. वो और उस'का पती शायद अप'ने एक ही लडके से खुश थे इस'लिए उन्होने दूसरे बच्चे के बारे में सोचा नही.



इस दौरान मेने मेरी स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई ख़तम की और में एक प्राइवेट कम्प'नी में नौकरी कर'ने लगा. कॉलेज के दिनो में कई लड़कियो से मेरी दोस्ती थी और दो तीन लड़कियो के साथ अलग अलग समय पर मेरे प्रेम सम्बन्ध भी थे. एक दो लड़कियो को तो मेने चोदा भी था और उनके साथ सेक्स का मज़ा भी लूट लिया था. लेकिन फिर भी में अप'नी बहन की याद में काम व्याकूल होता था और मूठ मारता था. ऊर्मि दीदी के बारे में काम भावना और काम लालसा मेरे मन में हमेशा से थी. मेरे मन के एक कोने के अंदर एक आशा हमेशा से रहती थी के एक दिन कुच्छ चमत्कार होगा और मुझे मेरी बहेन को चोद'ने को मिलेगा.



में जैसे जैसे बड़ा और समझदार होते जा रहा था वैसे वैसे ऊर्मि दीदी मेरे से और भी दिल खोल के बातें कर'ने लगी थी और मुझसे उस'का व्यवहार और भी ज़्यादा दोस्ताना सा हो गया था. हम दोस्तो की तरह किसी भी विषय'पर कुच्छ भी बातें कर'ते थे या गपशप लगते थे. आम तौर पे भाई-बहेन लैंगिक भावना या काम'जीवन जैसे विषय'पर बातें नही कर'ते है लेकिन हम दोनो धीरे धीरे उस विषय'पर भी बातें कर'ने लगे. हालाँ'की मेने ऊर्मि दीदी को कभी नही बताया के मेरे मन में उस'के लिए काम वासना है. यह तक के मेरे कॉलेज लाइफ के प्रेमसंबंध या सेक्स लाइफ के बारे में भी मेने उसे कुच्छ नही बताया. उस'की यही कल्पना थी के सेक्स के बारे में मुझे सिर्फ़ कही सुनी बातें और किताबी बातें मालूम है.


[size=large]सम'य गुजर रहा था और में 22 साल का हो गया था. ऊर्मि दीदी भी 30 साल की हो गयी थी. ऊर्मि दीदी की उम्र बढ़ रही थी लेकिन उस'के गदराए बदन में कुच्छ बदलाव नही आया था. मुझे तो सम'य के साथ वो ज़्यादा ही हसीन और जवान होती नज़र आ रही थी. कभी कभी मुझे उस'के पती से ईर्षा होती थी के वो कितना नसीब वाला है जो उसे ऊर्मि दीदी जैसी हसीन और जवान बीवी मिली है. लेकिन असलीयत तो कुच्छ और ही थी.[/size]
 
मुझे ऊर्मि दीदी के कह'ने से मालूम पड़ा के वो अप'नी शादीशुदा जिंदगी से खुस नही है. उस'के वयस्क पती के साथ उस'का काम'जीवन भी आनंददायक नही है. शादी के बाद शुरू शुरू में उस'के पती ने उसे बहुत प्यार दिया. उसी दौरान वो गर्भवती रही और उन्हे लड़का हुआ. लेकिन बाद में वो अप'ने बच्चे में व्यस्त होती गयी और उस'के पती अप'ने धांडे में उलझते गये. इस वजह से उनके काम'जीवन में एक दरार सी पड गयी थी जिसे मिटाने की कोशीष उस'के पती नही कर रहे थे. एक दूसरे से समझौता, यही उनका जीवन बन रहा था और धीरे धीरे ऊर्मि दीदी को ऐसे जीवन की आदत होती जा रही थी. दिख'ने में तो उनका वैवाहिक जीवन आदर्श लग रहा था लेकिन अंदर की बात ये थी के ऊर्मि दीदी उस'से खूस नही थी.

भले ही मेरे मन में ऊर्मि दीदी के बारे में काम भावना थी लेकिन आखीर में उस'का सगा भाई था इस'लिए मुझे उस'की हालत से दुख होता था और उस'की मानसिकता पर मुझे तरस आता था. इस'लिए में उसे हमेशा तसल्ली देता था और उस'की आशाएँ बढ़ाते रहता था. उसे अलग अलग जोक्स, चुटकुले और मजेदार बातें बताते रहता था. में हमेशा उसे हंसाने की कोशीष करता रहता था और उस'का मूड हमेशा आनंददायक और प्रसन्न रहे इस कोशीष में रहता था.

जब वो हमारे घर आती थी या फिर में उस'के घर जाता था, तब में उसे बाहर घुमाने ले जाया करता था. कभी शापींग के लिए तो कभी सिनेमा देखाने के लिए तो फिर कभी हम ऐसे ही घूम'ने जाया कर'ते थे. कई बार में उसे अच्छे रेस्टोरेंट में खाना खाने लेके जाया करता था. ऊर्मि दीदी के पसंदीदा और उसे खूस कर'ने वाली हर वो बात में करता था, जो असल में उस'के पती को कर'नी चाहिए थी.

एक दिन में ऑफीस से घर आया तो मा ने बताया के ऊर्मि दीदी का फ़ोन आया था और उसे दीवाली के लिए हमारे घर आना है. हमेशा की तरह उस'के पती को अप'नी दुकान से फुरसत नही थी उसे हमारे घर ला के छोड'ने की इस'लिए ऊर्मि दीदी पुछ रही थी कि मुझे सम'य है क्या, जा के उसे लाने के लिए. ऊर्मि दीदी को लाने के लिए उस'के घर जाने की कल्पना से में उत्तेजीत हुआ. चार महीने पहीले में उस'के घर गया था तब क्या क्या हुआ ये मुझे याद आया.

दिनभर ऊर्मि दीदी के पती अप'नी दुकान'पर रहते थे और दोपहर के सम'य उस'का लड़का नर्सरी स्कूल में जाया करता था. इस'लिए ज़्यादा तर सम'य दीदी और में घर में अकेले रहते थे और में उसे बिना जीझक निहाराते रहता था. काम कर'ते सम'य दीदी अप'नी साड़ी और छाती के पल्लू के बारे में थोड़ी बेफिकर रहती थी जिस'से मुझे उस'के छाती के उभारो की गहराईयो अच्छी तरह से देख'ने को मिलती थी. फर्श'पर पोछा मारते सम'य या तो कपड़े धोते सम'य वो अप'नी साड़ी उपर कर के बैठती थी तब मुझे उस'की सुडौल टाँगे और जाँघ देख'ने को मिलती थी.

क्रमशः……………………………
 
बहन की इच्छा—2

गतान्क से आगे…………………………………..

दोपहर के खाने के बाद उसके पती निकल जाते थे और में हॉल में बैठ'कर टीवी देखते रहता था. बाद में अपना काम ख़तम कर के ऊर्मि दीदी बाहर आती थी और मेरे बाजू में दीवान'पर बैठती थी. हम दोनो टीवी देखते देखते बातें कर'ते रहते थे. दोपहर को दीदी हमेशा सोती थी इस'लिए थोड़े समय बाद वो वही पे दीवान'पर सो जाती थी.

जब वो गहरी नींद में सो जाती थी तब में बीना जीझक उसे बड़े गौर से देखता और निहारता रहता था. अगर संभव होगा तो में उसके छाती के उप्पर का पल्लू सावधा'नी से थोड़ा सरकाता था और उसके उभारों की सांसो के ताल'पर हो रही हलचल को देखते रहता था. और उस'का सीधा, चिकना पेट, गोला, गहरी नाभी और लचकदार कमर को वासना भरी आँखों से देखते रहता था. कभी कभी तो में उसकी साड़ी उप्पर कर'ने की कोशीष करता था लेकिन उसके लिए मुझे काफ़ी सावधा'नी बरत'नी पड़ती थी और में सिर्फ़ घुट'ने तक उसकी साड़ी उप्पर कर सकता था.

उनके घर में बंद रूम जैसा बाथरूम नही था बल्की किचन के एक कोने में नहाने की जगह थी. दो बाजू में कोने की दीवार, साम'ने से वो जगह खुली थी और एक बाजू में चार फूट उँची एक छोटी दीवार थी. ऊर्मि दीदी सुबह जल्दी नहाती नही थी. सुबह के सभी काम निपट'ने के बाद और उसके पती दुकान में जा'ने के बाद वो आराम से आठ नौ के दरम्यान नहाने जाती थी. उस'का लड़का सोता रहता था और दस बजे से पह'ले उठता नही था. में भी सोने का नाटक करता रहता था. नहाने के लिए बैठ'ने से पह'ले ऊर्मि दीदी किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी. में जिस रूम में सोता था वो किचन को लगा के था. में ऊर्मि दीदी की हलचल का जायज़ा लेते रहता था और जैसे ही नहाने के लिए वो किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी वैसे ही में उठ'कर चुपके से बाहर आता था.

किचन का दरवाजा पुराने स्टाइल का था यानी उस में वर्टीकल गॅप थी. वैसे तो वो गॅप बंद थी लेकिन मेने गौर से चेक करके मालूम कर लिया था के एक दो जगह उस गॅप में दरार थी जिसमें से अंदर का कुच्छ भाग दिख सकता था. नहाने की जगह दरवाजे के बिलकूल साम'ने चार पाँच फूट पर थी. दबे पाँव से में किचन के दरवाजे में जाता था और उस दरार को आँख लगाता था. मुझे दिखाई देता था के अंदर ऊर्मि दीदी साड़ी निकाल रही थी. बाद में ब्लाउस और पेटीकोट निकाल'कर वो ब्रेसीयर और पैंटी पह'ने नहाने की जगह पर जाती थी. फिर गरम पानी में उसे चाहिए उतना ठंडा पा'नी मिलाके वो नहाने का पानी तैयार करती थी.

फिर ब्रेसीयर, पैंटी निकाल'कर वो नहाने बैठती थी. नहाने के बाद वो खडी रहती थी और टावेल ले के अपना गीला बदन पौन्छती थी. फिर दूसरी ब्रेसीयर, पैंटी पहन के वो बाहर आती थी. और फिर पेटीकोट, ब्लऊज पह'ने के वो साड़ी पहन लेती थी. पूरा समय में किचन के दरवाजे के दरार से ऊर्मि दीदी की हरकते चुपके से देखता रहता था. उस दरार से इतना सब कुच्छ साफ साफ दिखाई नही देता था लेकिन जो कुच्छ दिखता था वो मुझे उत्तेजीत कर'ने के लिए और मेरी काम वासना भडका'ने के लिए काफ़ी होता था.

वो सब बातें मुझे याद आई और ऊर्मि दीदी को लाने के लिए में एक पैर पर जा'ने के लिए तैयार हो गया. मुझे टाइम नही होता तो भी में टाइम निकालता था. दूसरे दिन ऑफीस जा के मेने इमर्जेंसी लीव डाल दी और तीसरे दिन सुबह में पूना जानेवाली बस में बैठ गया. दोपहर तक में ऊर्मि दीदी के घर पहुँच गया. मेने जान बुझ'कर ऊर्मि दीदी को खबर नही दी थी के में उसे लेने आ रहा हूँ क्योंकी मुझे उसे सरप्राइज कर'ना था. उस'ने दरवाजा खोला और मुझे देखते ही अश्चर्य से वो चींख पडी और खुशी के मारे उस'ने मुझे बाँहों में भर लिया. इसका पूरा फ़ायदा ले के मेने भी उसे ज़ोर से बाँहों में भर लिया जिस'से उसकी छाती के भरे हुए उभार मेरी छाती पर दब गये. बाद में उस'ने मुझे घर के अंदर लिया और दीवान'पर बिठा दिया.
 
मुझे बैठ'ने के लिए कह'कर ऊर्मि दीदी अंदर गई और मेरे लिए पानी लेकर आई. उतने ही समय में मेने उसे निहार लिया और मेरे ध्यान में आया के वो दोपहर की नींद ले रही थी इस'लिए उसकी साड़ी और पल्लू अस्तव्यस्त हो गया था. मुझे रिलक्स होने के लिए कह'कर वो अंदर गयी और मूँ'ह वग़ैरा धोके, फ्रेश होकर वो बाहर आई. हम'ने गपशप लगाना चालू किया और में उसे गये दिनो के हाल हवाल के बारे में बताने लगा. बातें कर'ते कर'ते मेरे साम'ने खडी रह'कर ऊर्मि दीदी ने अप'नी साड़ी निकाल दी और वो उसे फिर से अच्छी तरह पहन'ने लगी. में उसके साथ बातें कर रहा था लेकिन चुपके से में उसको निहार भी रहा था.

ऊर्मि दीदी के साड़ी निकाल'ने के बाद सबसे पह'ले मेरी नज़र अगर कहाँ गई तो वो उसके ब्लाउस में कस'कर भरे हुए छाती के उभार'पर. या तो उस'का ब्लाउस टाइट था या फिर उसके छाती के उभार बड़े हो गये थे क्योंकी ब्लाउस उसके उभारों पर इस कदर टाइट बैठा था के ब्लाउस के दो बटनो के बीच में गॅप पड गयी थी, जिसमें से उसकी काली ब्रेसीयर और गोरे गोरे रंग के उभारो की झल'कीया नज़र आ रही थी.

सरल चिक'ने पेट'पर उसकी गोल नाभी और भी गहरी मालूम पड रही थी. उस'ने पहना हुआ पेटीकोट उसके गुब्बारे जैसे चुतड'पर कसा के बैठा था.

मा कसम!. क्या सेक्सी हो गयी थी मेरी बाहें!! साड़ी का पल्लू अप'ने कन्धेपर लेकर ऊर्मि दीदी ने साड़ी पहन ली और फिर कंघी लेकर वो बाल सुधार'ने लगी. हमलोग अब भी बातें कर रहे थे और बीच बीच में वो मुझे कुच्छ पुछती थी और में उसको जवाब देता था. अलमारी के आईने में देख'कर वो कंघी कर रही थी जिस'से मुझे उसे सीधा से निहार'ने को मिल रहा था. जब जब वो हाथ उपर कर के बालो में कंघी घूमाती थी तब तब उसकी गदराई छाती उप्पर नीचे हिलती नज़र आ रही थी. मेरा लंड तो एकदम टाइट हो गया अप'नी बहेन की हलचल देख'कर.

बाद में शाम तक में ऊर्मि दीदी से बातें कर'ते कर'ते उसके आजूबाजू में ही था और वो घरेलू कामो में व्यस्त यहाँ वहाँ घूम रही थी. मेने उसे अप'ने भानजे के बारे में पुछा के वो कब नर्सरी स्कूल से वापस आएगा तो उस'ने कहा के उस'का स्कूल तो दीवाली की छुट्टीयो के लिए बंद हो गया था और परसो ही उसकी ननद आई थी और उसे अप'ने घर रह'ने के लिए ले के गयी थी, एक दो हफ्ते के लिए. मेने उसे पुछा के एक दो हफ्ते उस'का बेटा कैसे उस'से दूर रहेगा तो वो बोली उसकी ननद के बच्चों के साथ वो अच्छी तराहा से घुलमील जाता है और कई बार उनके घर वो रहा है. उस दिन भी उस'ने ननद के साथ जा'ने की ज़िद कर ली इस'लिए वो उसे लेकर गयी.

और इसी वजह से ऊर्मि दीदी ने हमारी मा को फ़ोन कर के बताया के उसे दीवाली के लिए हमारे घर आना है क्योंकी दिनभर घर में अकेली बैठ'कर वो बोर हो जाती है. मेने उसे पुछा के वो मुंबई जा'ने के बाद उसके पती के खाने का क्या होगा तो वो बोली उस'का कोई टेंशन नही है और वो बाहर होटल में खा लेंगे. सच बात तो ये थी कि उसे मायके जा'ने के बारे में उसके पती ने ही सुझाव दिया था और वो झट से तैयार हो गयी थी. मेने उसे कहा के मुझे मेरे भानजे को मिलना है तो उस'ने कहा के कल हम उसकी ननद के घर जाएँगे उस'से मिल'ने के लिए.
 
रात को ऊर्मि दीदी के पती आए और मुझे देख'कर उन्हे भी आनंद हुआ. हम'ने यहाँ वहाँ की बातें की और उन्होने मेरे बारे में और मेरे माता, पिता के बारे में पुछा. उन्होने मुझे दो दिन रह'ने को कहा और फिर बाद में ऊर्मि दीदी को आठ दिन के लिए हमारे घर ले जा'ने के लिए कहा. मेने उन्हे ठीक है कहा.

दूसरे दिन दोपहर को ऊर्मि दीदी और में उसकी ननद के घर जा'ने के लिए तैयार हो रहे थे. ऊर्मि दीदी ने हमेशा की तरह बिना संकोच मेरे साम'ने कपड़े बदल लिए और मेने भी मेरी आदत की तरह उसके अध नंगे बदन का चुपके से दर्शन लिया. बहुत दिनो के बाद मेने मेरी बहेन को ब्रा में देखा. उफ़!! कित'नी बड़ी बड़ी लग रही थी उसकी चुचीया! देखते ही मेरा लंड उठ'ने लगा और मेरे मन में जंगली ख़याल आने लगे कि तरार से उसकी ब्रेसीयर फाड़ दूं और उसकी भरी हुई चुचीया कस के दबा दूं. लेकिन मेरी गान्ड में उतना दम नही था.

बाद में तैयार होकर हम बस से उसकी ननद के घर गये और मेरे भानजे यानी मेरी बहेन के लडके को हम वहाँ मिले. अप'ने मामा को देख'कर वो खूस हो गया. हम मामा-भानजे काफ़ी देर तक खेल'ते रहे. मेने जब उसे पुछा के अप'ने नाना, नानी को मिल'ने वो हमारे घर आएगा क्या तो उस'ने 'नही' कहा. उसके जवाब से हम सब हंस पड़े. दीदी ने उसे बताया के वो आठ दिन के लिए मुंबई जा रही है और उसे अप'नी आंटी के साथ ही रहना है तो वो हंस के तैयार हो गया. बाद में मैं और दीदी बस से उसके पती की दुकान'पर गये. एकाद घंटा हमलोग वहाँ पर रुके और फिर वापस घर आए. बस में चढते, उतरते और भीड़ में खड़े रहते मेने अप'नी बहेन के मांसल बदन का भरपूर स्पर्शसूख् लिया.

घर आने के बाद वापस ऊर्मि दीदी का कपड़े बदल'ने का प्रोग्राम हो गया और वफ़ादार दर्शक की तरह मेने वापस उसे कामूक नज़र से चुपके से निहार लिया. जब से में अप'नी बहेन के घर आया था तब से में कामूक नजरसे उस'का वस्त्रहरण करके उसे नंगा कर रहा था और उसे चोद'ने के सप'ने देख रहा था. मुझे मालूम था के ये संभव नही है लेकिन यही मेरा सपना था, मेरा टाइमपास था, मेरा मूठ मार'ने का साधन था.

दूसरे दिन दोपहर को में हॉल में बैठ'कर टीवी देख रहा था. ऊर्मि दीदी मेरे बाजू में बैठ'कर कुच्छ कपडो को सी रही थी. हमलोग टीवी देख रहे थे और बातें भी कर रहे थे. में रिमोट कंट्रोल से एक के बाद एक टीवी के चनेल बदल रहा था क्योंकी दोपहर के सम'य कोई भी प्रोग्राम मुझे इंटारेस्टेंग नही लगा रहा था. आखीर में एक मराठी चनेल'पर रुक गया जिस'पर आड़ चल रही थी. ऱिमोट बाजू में रख'कर मेने सोचा के आड़ ख़त्म होने के बाद जो भी प्रोग्राम उस चनेल'पर चल रहा होगा वो में देखूँगा. आड़ ख़त्म हो गयी और प्रोग्राम चालू हो गया.

उस प्रोग्राम में वो मुंबई के नज़दीकी हिल स्टेशन के बारे में इंफार्मेशन दे रहे थे. पह'ले उन्होने महाबालेश्वर के बारे में बताया. फिर वो खंडाला के बारे में बता'ने लगे. खंडाला के बारे में बताते सम'य वो खंडाला के हरेभरे पहाड़, पानी के झर'ने और प्रकृती से भरपूर अलग अलग लुभाव'नी जगह के बारे में वीडियो क्लिप्स दिखा रहे थे. स्कूल के बच्चो की ट्रिप, ऑफीस के ग्रूपस, प्रेमी युगल और नयी शादीशुदा जोड़ी ऐसे सभी लोग खंडाला जा के कैसे मज़ा कर'ते है यह वो डक्युमेन्टरी में दिखा रहे थे.
 
"कित'नी सुंदर जगह है ना खंडाला!"

ऊर्मि दीदी ने टीवी की तरफ देख'कर कहा.

"हाँ! बहुत ही सुंदर है! में गया हूँ वहाँ एक दो बार" मेने जवाब दिया.

"सच? किसके साथ, सागर ऊर्मि दीदी ने लाड से मुझे पुछा.

"एक बार मेरे कॉलेज के ग्रूप के साथ और दूसरी बार हमारी सोसयटी के लडको के साथ

"तुम्हे तो मालूम है, सागर." ऊर्मि दीदी ने दुखी स्वर में कहा,

"अप'नी पूना-मुंबई बस खंडाला से होकर ही जाती है और जब जब में बस से वहाँ से गुज़रती हूँ तब तब मेरे मन में 'इच्छा' पैदा होती है की कब में यह मनमोहक जगह देख पाउन्गि."

"क्या कह रही हो, दीदी?" मेने आश्चर्या से उसे पुछा,

"तुम'ने अभी तक खंडाला नही देखा है?"

"नही रे, सागर.. मेरा इतना नसीब कहाँ

"कमाल है, दीदी! तुम अभी तक वहाँ गयी नही हो? पूना से तो खंडाला बहुत ही नज़दीक है और जीजू तुझे एक बार भी वहाँ नही लेके गये? में नहीं मान'ता, दीदी

"तुम मानो या ना मानो! लेकिन में सच कह रही हूँ. तुम्हारे जीजू के पास टाइम भी है क्या मेरे लिए

ऊर्मि दीदी ने नाराज़गी से कहा.

"ओहा! कम ऑन, दीदी! तुम उन्हे पुछो तो सही. हो सकता है वो काम से फूरसत निकाल'कर तुझे ले जाए खंडाला

"मेने बहुत बार उन्हे पुछा है, सागर

ऊर्मि दीदी ने शिकायत भरे स्वर में कहा,

"लेकिन हर सम'य वो दुकान की वजह बताकर नही कहते है. तुम्हे बटाऊ, सागर? तुम्हारे जीजू ना. ऱोमान्टीक ही नही है. अब तुम्हे क्या बताऊ? शादी के बाद हम दोनो हनीमून के लिए भी कही नही गये थे. उन्हे रोमान्टीक जगह'पर जाना पसंद नही है. उनका कहना है के ऐसी जगह पर जाना याने सम'य और पैसा दोनो बरबाद कर'ना है

मुझे तो पह'ले से शक था के मेरे जीजू वयस्क थे इस'लिए उन्हे रोमांस में इंटरेस्ट नही होगा. और उनसे एकदम विपरीत, ऊर्मि दीदी बहुत रोमाटीक थी. ऊर्मि दीदी के कह'ने पर मुझे बहुत दुख हुआ और तरस खा कर मेने उस'से कहा,

"दीदी! अगर तुन्हे कोई ऐतराज ना हो तो में तुम्हे ले जा सकता हूँ खंडाला

"सच, सागर

ऊर्मि दीदी ने फुर्ती से कहा और अगले ही पल वो मायूस होकर बोली

"काश! तुम्हारे जीजू ने ऐसा कहा होता? क्योंकी ऐसी रोमाटीक जगह पर अप'ने जीवनसाथी के साथ जा'ने में ही मज़ा होता है. भाई और बहेन के साथ जा'ने में नही."

"कौन कहता है ऐसा??"

मेने उच्छल'कर कहा,
 
"सुनो, दीदी! जब तक हम एक दूसरे के साथ कम्फर्टेबल है और वैसी रोमाटीक जगह का आनंद ले रहे है तो हम भाई-बहेन है इससे क्या फ़रक पड़ता है? और वैसे भी हम दोनो में भाई-बहेन के नाते से ज़्यादा दोस्ती का नाता है. हम तो बिलकूल दोस्तो जैसे रहते है. है के नही, दीदी?"

"हां रे मेरे भाई. मेरे दोस्त!!"

ऊर्मि दीदी ने खूस होकर कहा

"लेकिन फिर भी मुझे ऐसा लगता है के मेरे पती के साथ ऐसी जगह जाना ही उचीत है."

"तो फिर मुझे नही लगता के तुम कभी खंडाला देख सकोगी, दीदी. क्योंकी जीजू को तो कभी फूरसत ही नही मिलेगी दुकान से

"हां, सागर! ये भी बात सही है तुम्हारी. ठीक है!.. सोचेंगे आगे कभी खंडाला जा'ने के बारे में

"आगे क्या, दीदी! हम अभी जा सकते है खंडाला

"अभी? क्या पागल की तरह बात कर रहे हो

ऊर्मि दीदी ने हैरानी से कहा.

"अभी यानी. परसो हम मुंबई जाते सम'य, दीदी!"

मेने हंस के जवाब दिया.

"मुंबई जाते सम'य

ऊर्मि दीदी सोच में पड गयी,

"ये कैसे संभव है, सागर?"

"क्यों नही, दीदी?"

क्रमशः……………………………
 
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