सिंध की सोहनी धरती के दूसरे बड़े शहर हैदराबाद के एक बहुत बड़े प्राइवेट हॉस्पीटल में मेरी पैदाइश हुई। मैं अपने मुँह में सोने का निवाला लेकर पैदा हुआ था। मेरे वालिद अपने इलाके के बहुत बड़े ज़मींदार थे। हजारों एकड़ जमीन के मालिक। हमारा ताल्लुक सिंध के एक नामी गिरामी खानदान से था, पीरों की गढ़ी थी। मेरे वालिद भी अपने वालिदान की एक ही औलाद थे, और मैं भी उनकी एक ही एकलौती औलाद था। लेकिन अपनी माँ से (बाकी दूसरी बीवी से दो बेटियाँ थी) गाँव में हमारी बहुत बड़ी हवेली थी, मगर मेरे वालिद ने अपनी मर्जी से शहर की लड़की से शादी की थी। जिसके कारण हम लोग शहर में ही रहते थे।
दादा की मौत एक एक्सीडेंट में जवानी में ही हो गई थी। जिसके बाद मेरी दादी ने तमाम इंतज़ाम अपने हाथ में संभाला और मेरे वालिद की परवरिश की। उन्होंने मेरे वालिद को आला तालीम दिलाई। मेरे अब्बू और अम्मी की दोस्ती यूनिवर्सिटी में हो गई थी, और दोनों ने तमाम जिंदगी एक दूसरे के साथ गुजारने का इरादा कर लिया था। मगर इन तमाम मामलात में सबसे बड़ी रुकावट मेरी दादी थी, जो अपने बेटे की शादी अपने ही खानदान में अपनी बहन की बेटी से करवाना चाहती थी। जो कि अब्बू से 5 साल उमर में भी बड़ी थी।
इन तमाम मामलात पर खानदान में बहुत से सवाल उठे क्योंकी मेरी अम्मी का ताल्लुक एक गरीब खानदान से था। लेकिन बाबा ने अपनी मुहब्बत की खातिर सबसे झगड़ा किया, और एक शर्त पर बाबा को इजाजत मिली कि अम्मी से शादी के बाद वो अपने खानदान में भी शादी करेंगे और अम्मी कभी इस हवेली में कदम भी नहीं रखेंगी। इस पर भी मेरी दादी पहले तो नहीं मान रही थी। मगर अब्बू ने जब जान देने की धमकी दी तो वो मान गई। लेकिन उन्होंने मेरी अम्मी को कभी भी कबूल नहीं किया, और नहीं उन्हें कभी भी अपनी हवेली में कदम रखने दिया।
मेरे दूसरी माँ से अब्बू को दो बेटियाँ हुईं। मगर कोई हवेली का वारिस ना हो सका, और दूसरी तरफ मेरे बाद अम्मी को दो बेटे और भी हुए, लेकिन वो छोटी उमर में ही चल बसे । मैं अपने अब्बू और अम्मी का लाड़ला था। हमारी जिंदगी बहुत सकून से गुजर रही थी। मैं शहर के बहुत बड़े स्कूल में तालीम हासिल कर रहा था। जब मैं मेट्रिक में था तो एक दैवी आफत हमारे घर पर टूट पड़ी। मेरे अब्बू और अम्मी को गाड़ी में जाते हुए कुछ अपराधियों ने गोलियाँ मारकर हलाक कर दिया। कोई कहता था कि दहशत गर्दि का वाकिया है, तो कोई कहता था कि खानदानी दुश्मनी है।
लेकिन मेरी तो हँसती खेलती दुनियाँ ही उजड़ गई। मेरा तो कोई भी नहीं था। ननिहाल की तरफ से एक मामू और एक खाला थी, जो अपने-अपने घरों में मसरूफ़ थे। मेरी दादी ने मेरी माँ को मरने के बाद भी माफ ना किया, और उनके जनाजे को मामू वगैरह के हवाले कर दिया और उनकी तदफीन हैदराबाद के ही कबिस्तान में हुई। मैं मामू के साथ पहली बार अपने खानदानी गाँव बाबा की तदफीन के वक्त पर गया। जहाँ मुझे बहुत से चेहरे नजर आए जिनकी आँखों में मेरे लिए नफरत और चन्द लोगों की आँखों में मेरे लिए मुहब्बत भी थी, जिनमें सलामू सर-ए-फेहररिस्त था।
सलामू बाबा का ख़ास आदमी था, और अक्सर बाबा के साथ शहर वाले घर पर भी आता था। वो मुसलसल मेरे साथ ही लगा रहा, और चुपके-चुपके मेरे तमाम खानदान के लोगों के बारे में मुझे बताता रहता। मामू तो उसी दिन वापिस चले गये, मगर मैं वहाँ अब्बू के सोयम पर रुक गया। मैंने वहाँ पर अपने अब्बू के कितने ही कजिन्स और अपने कजिन्स को देखा, जो मुझसे बात करने को भी तैयार नहीं थे। लेकिन हवेली का नौकर और गाँव के लोग मेरा बहुत खयाल रख रहे थे। ऐसा लगता था कि मैं उनके लिए सब कुछ हूँ।
मेरे वालिद ने मेरा नाम प्यार से बादशाह अली शाह रखा लेकिन सब लोग मुझे “साइन…” के नाम से पुकारते थे, क्योंकी यह नाम मेरे मरहूम दादा का था और उनका नाम कोई नहीं पुकारता था। मुझे देखकर वहाँ के लोग दबी-दबी फुसफुसाहटों में कुछ कह रहे थे जिनमें से कुछ बातें मेरे कानों तक भी पहुँची, और यही बात मेरे वालिद भी किया करते थे कि मेरी शकल-सूरत और कद-काठी बिल्कुल अपने दादा जैसा है।
16 साल की उमर में भी मेरी हाइट 6 फीट तक हो चुकी थी और बचपन से ही मुझे स्पोर्ट में कराटे और बाडी बिल्डिंग बहुत पसंद थी कराटे तो मैं अपनी 7 साल की उमर से कर रहा था और उसमें ब्लैकबेल्ट हासिल कर चुका था। मगर बाडी बिल्डिंग स्टार्ट किए हुए मुझे अभी एक साल ही हुआ था। मगर कुछ खाते पीते घराने से ताल्लुक होने और खानदानी विरासत में मिली हुई वजाहत की वजह से मैं एक मजबूत और चौड़े जिश्म का नौजवान था। घूंघराले बाल और सब्ज़ आँखों के साथ मेरी गोरी रंगत सबको मुझे बार-बार देखने पर मजबूर कर देती है। ऊँचे लंबे कद के कारण मैं सब में अलग ही नजर आता था। सारा दिन अब्बू की ताजियत के लिए आने वालों का ताँतां बँधा रहा।
शाम के वक्त कुछ भीड़ कम हुई तो सलामू मेरे पास आया-“छोटे साइन…”
मैं उस वक्त अब्बू और अम्मी की खयालात में गुम था। उनकी छोटी-छोटी बातें मुझे याद आ रही थीं। सलामू के इस तरह बुलाने से में चौंक गया और सलामू को अपने सामने देखकर पूछा-“क्या बात है सलामू?”
सलामू ने मुझे देखते हुए कहा-“साइन, आपको बड़ी साईएन ने हवेली बुलाया है…”
अब्बू की ताजियत के लिए आने वाले लोगों के लिए जो हिस्सा मुक़र्रर किया गया था वो हवेली से थोड़ा दूर हटकर एकांत में था। हवेली यहाँ से कुछ दूर थी। मैंने हैरत से सलामू की तरफ देखकर कहा-“किसने बुलाया है?”
तो सलामू ने मेरे करीब बैठते हुए आराम से कहा-“आपकी दादी हुजूर ने बुलाया है…”
मैं सलामू की बात सुनकर थोड़ा हैरान हुआ और एक दर्द भरी मुश्कुराहट से सलामू की तरफ देखते हुए कहा-“उनको मुझसे क्या काम है और क्यों बुलाया है मुझे?”
सलामू-वो आपसे मिलना चाहती हैं।
मैं-जब वो आज तक मुझसे नहीं मिली, तो अब क्यों मिलना चाहती हैं?
सलामू-छोटे साइन वो दादी हैं आपकी, और तुम उनके एकलौते बेटे की निशानी हो और इस तमाम जागीर का वारिस भी।
मेरे लबों पर एक जहरीली मुश्कुराहट आ गई-“बड़ी जल्दी अपने पोते का खयाल आ गया उनको? 16 साल मैंने आज तक अपने बाप के इलावा अपनी ददियाल के किसी रिश्तेदार को नहीं देखा और ना ही मुझे पता है कि उनमें कौन-कौन है? और यह जागीर?”
मैं एक बार फ़िर हँस पड़ा-“मेरी जागीर तो मेरे अब्बू और अम्मी थे, जो आज मेरे साथ नहीं हैं। मेरी जागीर तो लुट चुकी है। मैं किसी जागीर का वारिस नहीं। जाकर उनको कह दो कि मैं सिर्फ़ अपने बाप के सोयम तक यहाँ हूँ। उसके बाद यहाँ से चला जाउन्गा। उनका सिर्फ़ बेटा ही था। पोता कोई नहीं है…” यह सब कहते हुए मेरी आँखें लाल सुर्ख हो चुकी थीं, और आँसू से भर चुकी थीं, जिनको मैं बड़ी मुश्किल से रोके हुए था।
सलामू-पर छोटे साइन?
मैंने सलामू की बात फौरन काटते हुए कहा-“बस जाओ। मैं और कुछ नहीं सुनना चाहता…”