hotaks444
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मगर सलामू ने भी शायद सब सुन लिया था। उसने बड़े धीरे से चारों तरफ देखते हुये मुझे कहा-“छोटे साईन आप इनकी बातों पर ध्यान ना दें। ऐसे बकवास करना उनकी आदत है। लेकिन यह जमील शाह है बहुत ही जालिम आदमी। सारे हरी इससे घबराते हैं। इसलिए इसको कोई इनकार नहीं करता…”
मैंने खामोशी से सलामू की बात सुनी और किसी रद्दे अमल की इजहार नहीं किया। हम गाँव की गलियों में से गुजरते हुए एक शानदार किलानुमा इमारत के सामने जा पहुँचे। उसकी दीवारों को देखने के लिए भी गर्दन को ऊँचा करना पड़ता था। यह थी पीरों की हवेली। जिस जगह ताजेयात के लिए लोगों के बैठने का इंतज़ाम था, वो जगह भी किसी से कम नहीं थी। मगर इतनी बड़ी हवेली, जिसकी दीवारें लगभग 20 फीट ऊूँची थी, और एक बड़ा सा लकड़ी का गेट चौबारे वाले बुर्जो के साथ बीच में नसाब था। बिल्कुल इसी तरह जैसे पुराने जमाने के किलों (फ़ोर्ट) में होता था। यह हवेली भी एक छोटा किला ही लग रही थी। मैं जैसे ही वहाँ पहुँचा तो गेट पर खड़े गार्ड ने जल्दी से मेरे लिए बड़ा दरवाजा खोल दिया।
मुझे समझ नहीं आई की उस बड़े दरवाजे में छोटा दरवाजा भी था, जिससे हम बड़े आसानी से गुजर सकते थे तो, बड़ा दरवाजा क्यों खोला गया है?
सलामू ने शायद मेरे चेहरे पर इस हैरत को पढ़ लिया, कहा-“आप वारिस है इस गढ़ी के, और गढ़ी के वारिसों के लिए छोटा दरवाजा नहीं खुलता…”
सलामू की बात सुनकर मेरे चेहरे पर एक जहरीली मुश्कुराहट दौड़ गई। लेकिन मैंने सलामू को कहा कुछ नहीं। दिल में सोचा कि जो करते हैं करने दो। मैंने कौन सा हमेशा यहाँ रहना है? मैंने कदम आगे बढ़ा दिए। लेकिन मेरे दिमाग़ में तूफान मौजूद था। आज मैं उस हवेली में कदम रखने जा रहा था, जहाँ मेरी माँ को कभी दाखिल नहीं होने दिया गया। वो अपने आपको इस हवेली की बहू तसलीम करवाने का ख्वाब दिल में लेकेर हमेशा के लिए दुनियाँ छोड़ गई।
बाबा जो चाहते थे कि मेरी माँ यहाँ आये और इसी हवेली में राज करे। वो भी अब इस दुनियाँ में ना रहे। और आज मैं इस हवेली में क्यों दाखिल हो रहा हूँ? यह सब सोचकर मेरे कदम एक बार फ़िर रुक गये।
मुझे रुकता देखकर सलामू चौंक गया मेरे चेहरे के भाव पढ़कर सलामू ने जल्दी से मेरी पीठ पर हाथ रखा, और एक लंबी साँस लेकर बोला-“छोटे साईन, इस हवेली ने आपकी माँ को वाकई कुछ ना दिया हो, मगर इस हवेली में आना और अपनी गढ़ी संभालना आपके बाबा का बहुत बड़ा ख्वाब था। आज आप इस हवेली में दाखिल हो गये हो। गढ़ी भी दूर नहीं…”
मैंने लरजती नजरों से सलामू की तरफ देखा और उसके गले लग गया। मुझे किसी अपने की कमी महसूस हो रही थी। एक सलामू ही था जिसने मुझे गोद में खिलाया था, घुमाया था। वही था जो बाबा के साथ हमारे पास शहर आता था। बाबा अक्सर कहते था कि कभी कोई बुरा वक्त आए तो हम लोग सलामू पर आँखें बंद करके भरोसा कर सकते हैं।
और आज मुझे अहसास हो गया था कि सलामू गाँव का उजड्ड और अनपढ़ बंदा होने के साथ-साथ बहुत तजुर्बेकार आदमी था, जो मेरे चेहरे के भाव में से अंदाज़ा लगा गया कि मैं क्या सोच रहा हूँ? बाबा ने उसे अपने साथ रखकर यह फैसला भी सही किया था। सलामू मेरी पीठ को थपक रहा था। मुझे ऐसा लगा की शायद बाबा मेरी साथ ही हैं और मेरा होसला बढ़ा रहे हैं। मैंने नजरें भर का सलामू को देखा, तो उसके चेहरे पर एक मुहब्बत भरी मुश्कुराहट थी।
मैंने एक बार फ़िर कदम आगे बढ़ा दिया। मेनगेट के बाद बहुत दूर तक सीधा रास्ता जाता था जिसको दो हिस्सों में बाँटा गया जहाँ बीच में एक ग्रीन बेल्ट था और रोड के दोनों तरफ खूबसूरत लान। सामने दो मंज़िला हवेली अपनी और अपने रहने वालों की कदामत का मंज़र पेश कर रही थी। सूरज ढलने ही वाला था, रोशनी हल्की होने लगी थी इसी दौरान किसी ने हवेली की तमाम लाइटें जला दी थी। लेकिन इतनी बड़ी हवेली होने के बावजूद ऐसा लगता था कि पूरी हवेली खाली है। कहीं कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।
हवेली के मेनगेट के सामने एक बहुत बड़ा कार पोर्च बना हुआ था। हम लोग मेनगेट से जैसे ही अंदर दाखिल हुए तो सामने एक बहुत बड़ा हाल था, जिसकी छत दूसरी मंज़िल की छत तक चली गई थी और उसके ऊपर एक गुंबदनुमा छत बनी हुई थी, जिसमें एक बहुत कीमती फ़ानूस लटक रहा था। हाल को बहुत ही कीमती चीजों से सजाया गया था। मेनगेट के बिल्कुल सामने एक और बड़ा गेट था जो बंद था।
मुझे उस गेट को दिखाते हुए सलामू ने कहा-“यह जनानखाने का गेट है और इस तरफ किसी गैर मेहराम को जाने की इजाजत नहीं…”
मैंने एक गहरी नजर से इस दरवाजे की तरफ देखा, और फ़िर दायें और बायें तरफ बनी हाल के साईड से राहदारियों की तरफ देखा जिसमें हल्की सी रोशनी फैली हुई थी। मैं आगे बढ़कर हाल के बीचोबीच आया और उन राहदारियों की तरफ देखा तो उनमें तरतीब के साथ दोनों तरफ दरवाजे और खिड़कियाँ नजर आईं।
सलामू ने फ़िर कहा-“यह मेहमान खाने हैं…” फ़िर सलामू मुझे लेकर एक तरफ बनी हुई सीढ़ियों से ऊपर की मंज़िल की तरफ बढ़ गया।
मैं जैसे ही ऊपर पहुँचा तो सामने बने हुए एक कमरे का अचानक से दरवाजा खुला और एक बहुत ही खूबसूरत लड़की, मामूली से कपड़ों में सिर पर दुपट्टा ओढ़े बाहर निकली। उसने अपने हाथ में एक ट्रे उठाई हुई थी। वो मामूली कपड़े भी उसकी खूबसूरती में कोई कमी नहीं ला पा रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें साँवला बदन, और सीने के उभार उसकी भरपूर जवानी का पता दे रहे थे। वो दरवाजे से निकलते ही मुझे और सलामू को देखकर चौंक गई। उसने जल्दी से एक हाथ से अपने दुपट्टे को चेहरे पर कर लिया, जैसे मुझसे परदा करना चाह रही हो।
मैंने उसे ऐसा करते देखकर उसपर से नजरें हटा ली।
सलामू उसे परदा करते देखकर जल्दी से बोला-“अरे छोरी चेहरा क्यों छुपा रही हो? यह कोई गैर नहीं हैं। इस हवेली के मालिक और वारिस छोटे साईन हैं…”
छोटे साईन का सुनकर उस लड़की को जैसे झटका सा लगा, और दुपट्टा उसके हाथ से गिर सा गया और वो फौरन आगे बढ़ी और मेरे कदमों में बैठकर मेरे पैर चूमने लगी।
मैंने खामोशी से सलामू की बात सुनी और किसी रद्दे अमल की इजहार नहीं किया। हम गाँव की गलियों में से गुजरते हुए एक शानदार किलानुमा इमारत के सामने जा पहुँचे। उसकी दीवारों को देखने के लिए भी गर्दन को ऊँचा करना पड़ता था। यह थी पीरों की हवेली। जिस जगह ताजेयात के लिए लोगों के बैठने का इंतज़ाम था, वो जगह भी किसी से कम नहीं थी। मगर इतनी बड़ी हवेली, जिसकी दीवारें लगभग 20 फीट ऊूँची थी, और एक बड़ा सा लकड़ी का गेट चौबारे वाले बुर्जो के साथ बीच में नसाब था। बिल्कुल इसी तरह जैसे पुराने जमाने के किलों (फ़ोर्ट) में होता था। यह हवेली भी एक छोटा किला ही लग रही थी। मैं जैसे ही वहाँ पहुँचा तो गेट पर खड़े गार्ड ने जल्दी से मेरे लिए बड़ा दरवाजा खोल दिया।
मुझे समझ नहीं आई की उस बड़े दरवाजे में छोटा दरवाजा भी था, जिससे हम बड़े आसानी से गुजर सकते थे तो, बड़ा दरवाजा क्यों खोला गया है?
सलामू ने शायद मेरे चेहरे पर इस हैरत को पढ़ लिया, कहा-“आप वारिस है इस गढ़ी के, और गढ़ी के वारिसों के लिए छोटा दरवाजा नहीं खुलता…”
सलामू की बात सुनकर मेरे चेहरे पर एक जहरीली मुश्कुराहट दौड़ गई। लेकिन मैंने सलामू को कहा कुछ नहीं। दिल में सोचा कि जो करते हैं करने दो। मैंने कौन सा हमेशा यहाँ रहना है? मैंने कदम आगे बढ़ा दिए। लेकिन मेरे दिमाग़ में तूफान मौजूद था। आज मैं उस हवेली में कदम रखने जा रहा था, जहाँ मेरी माँ को कभी दाखिल नहीं होने दिया गया। वो अपने आपको इस हवेली की बहू तसलीम करवाने का ख्वाब दिल में लेकेर हमेशा के लिए दुनियाँ छोड़ गई।
बाबा जो चाहते थे कि मेरी माँ यहाँ आये और इसी हवेली में राज करे। वो भी अब इस दुनियाँ में ना रहे। और आज मैं इस हवेली में क्यों दाखिल हो रहा हूँ? यह सब सोचकर मेरे कदम एक बार फ़िर रुक गये।
मुझे रुकता देखकर सलामू चौंक गया मेरे चेहरे के भाव पढ़कर सलामू ने जल्दी से मेरी पीठ पर हाथ रखा, और एक लंबी साँस लेकर बोला-“छोटे साईन, इस हवेली ने आपकी माँ को वाकई कुछ ना दिया हो, मगर इस हवेली में आना और अपनी गढ़ी संभालना आपके बाबा का बहुत बड़ा ख्वाब था। आज आप इस हवेली में दाखिल हो गये हो। गढ़ी भी दूर नहीं…”
मैंने लरजती नजरों से सलामू की तरफ देखा और उसके गले लग गया। मुझे किसी अपने की कमी महसूस हो रही थी। एक सलामू ही था जिसने मुझे गोद में खिलाया था, घुमाया था। वही था जो बाबा के साथ हमारे पास शहर आता था। बाबा अक्सर कहते था कि कभी कोई बुरा वक्त आए तो हम लोग सलामू पर आँखें बंद करके भरोसा कर सकते हैं।
और आज मुझे अहसास हो गया था कि सलामू गाँव का उजड्ड और अनपढ़ बंदा होने के साथ-साथ बहुत तजुर्बेकार आदमी था, जो मेरे चेहरे के भाव में से अंदाज़ा लगा गया कि मैं क्या सोच रहा हूँ? बाबा ने उसे अपने साथ रखकर यह फैसला भी सही किया था। सलामू मेरी पीठ को थपक रहा था। मुझे ऐसा लगा की शायद बाबा मेरी साथ ही हैं और मेरा होसला बढ़ा रहे हैं। मैंने नजरें भर का सलामू को देखा, तो उसके चेहरे पर एक मुहब्बत भरी मुश्कुराहट थी।
मैंने एक बार फ़िर कदम आगे बढ़ा दिया। मेनगेट के बाद बहुत दूर तक सीधा रास्ता जाता था जिसको दो हिस्सों में बाँटा गया जहाँ बीच में एक ग्रीन बेल्ट था और रोड के दोनों तरफ खूबसूरत लान। सामने दो मंज़िला हवेली अपनी और अपने रहने वालों की कदामत का मंज़र पेश कर रही थी। सूरज ढलने ही वाला था, रोशनी हल्की होने लगी थी इसी दौरान किसी ने हवेली की तमाम लाइटें जला दी थी। लेकिन इतनी बड़ी हवेली होने के बावजूद ऐसा लगता था कि पूरी हवेली खाली है। कहीं कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।
हवेली के मेनगेट के सामने एक बहुत बड़ा कार पोर्च बना हुआ था। हम लोग मेनगेट से जैसे ही अंदर दाखिल हुए तो सामने एक बहुत बड़ा हाल था, जिसकी छत दूसरी मंज़िल की छत तक चली गई थी और उसके ऊपर एक गुंबदनुमा छत बनी हुई थी, जिसमें एक बहुत कीमती फ़ानूस लटक रहा था। हाल को बहुत ही कीमती चीजों से सजाया गया था। मेनगेट के बिल्कुल सामने एक और बड़ा गेट था जो बंद था।
मुझे उस गेट को दिखाते हुए सलामू ने कहा-“यह जनानखाने का गेट है और इस तरफ किसी गैर मेहराम को जाने की इजाजत नहीं…”
मैंने एक गहरी नजर से इस दरवाजे की तरफ देखा, और फ़िर दायें और बायें तरफ बनी हाल के साईड से राहदारियों की तरफ देखा जिसमें हल्की सी रोशनी फैली हुई थी। मैं आगे बढ़कर हाल के बीचोबीच आया और उन राहदारियों की तरफ देखा तो उनमें तरतीब के साथ दोनों तरफ दरवाजे और खिड़कियाँ नजर आईं।
सलामू ने फ़िर कहा-“यह मेहमान खाने हैं…” फ़िर सलामू मुझे लेकर एक तरफ बनी हुई सीढ़ियों से ऊपर की मंज़िल की तरफ बढ़ गया।
मैं जैसे ही ऊपर पहुँचा तो सामने बने हुए एक कमरे का अचानक से दरवाजा खुला और एक बहुत ही खूबसूरत लड़की, मामूली से कपड़ों में सिर पर दुपट्टा ओढ़े बाहर निकली। उसने अपने हाथ में एक ट्रे उठाई हुई थी। वो मामूली कपड़े भी उसकी खूबसूरती में कोई कमी नहीं ला पा रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें साँवला बदन, और सीने के उभार उसकी भरपूर जवानी का पता दे रहे थे। वो दरवाजे से निकलते ही मुझे और सलामू को देखकर चौंक गई। उसने जल्दी से एक हाथ से अपने दुपट्टे को चेहरे पर कर लिया, जैसे मुझसे परदा करना चाह रही हो।
मैंने उसे ऐसा करते देखकर उसपर से नजरें हटा ली।
सलामू उसे परदा करते देखकर जल्दी से बोला-“अरे छोरी चेहरा क्यों छुपा रही हो? यह कोई गैर नहीं हैं। इस हवेली के मालिक और वारिस छोटे साईन हैं…”
छोटे साईन का सुनकर उस लड़की को जैसे झटका सा लगा, और दुपट्टा उसके हाथ से गिर सा गया और वो फौरन आगे बढ़ी और मेरे कदमों में बैठकर मेरे पैर चूमने लगी।