hotaks444
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संगसार
आसिया जब अलमस्त सी मुलायम बिस्तर पर करवट बदल, कुहनी के बल उठी तो उसे महसूस हुआ जैसे सारी दुनिया ही बदल गयी हो और उसके अंदर एक नई औरत ने जन्म लिया हो, जो हर तरह से भरी पूरी मुतमैन है. उसने दूसरी तरफ़ से झुककर अपने लंबे बालों को उसके औंधे पड़े सीने के नीचे से धीरे से खींचा और बिस्तर से उतरी.
आहिस्ता - आहिस्ता क़दम उठाती हुई आगे बढ़ी, लगा जैसे बदन के सारे जोड़ ज़ंजीरें तोड़, ठुमक रहे हों और रोएँ-रोएँ से उमंगों का सोता फूट रहा हो. बदन इतना हलका जैसे धुनी हुई रुई का गोला. सामने आईने में नज़र आते अपने सरापे पर उसने नज़र डाली. एक निख़ार, एक सम्मोहन, एक हुस्न, एक लावण्य उसके पूरे वजूद को दमका रहा था. कोई जलन, कोई ज़ख़्म, कोई दाग़, किसी तरह का कोई स्याह निशान कहीं मौजूद नहीं था बल्कि बदन पर फ़िसलते हाथों ने अहसास दिलाया जैसे वह फूल की तरह मुलायम और ख़ुशबूदार है.
अपने दोनों हाथ उठाकर उसने भरपूर अँगड़ाई भरी, बदन में छाई गहरी मस्ती फूलों से भरी डाल जैसे झरी. उँगलियों को बालों के बीच फँसाकर उसने दोनों हाथों से माथे पर झुक आये बालों को पीछे की तरफ समेटा और पलकें झपकाईं. लंबे बालों के गुच्छे उसके नंगे नितंब पर लहराए. उसके होठों पर मुस्कान फैल गई. सारा बदन अनजानी गुदगुदाहट से भर गया.
वह इन बालों से कैसा खेल रहा था. कभी बालों की लंबी भारी लट इस तरह छितराता कि महीन जाल उसके सीने पर बिखर जाता. वह उनके चुंबन लेता. बालों को समेटकर आधे चेहरे और सीने को ढकते हुए उसे अपलक निहारता. फिर उन्हें बिस्तर पर दूसरी तरफ फैला, उसकी कमर में हाथ डाल, उसके होठों को इस तरह अपने होठों के आग़ोश में भींच लेता कि वह बेसुध हो जाती और....' आसिया की भारी पलकों में सपनीला समा तैर गया.
कुछ घण्टे पहले झिझकती आसिया दो दिल बनी चिलमन के बाहर खड़ी थी. एकाएक जाने किस जज़्बे से प्रभावित होकर उसने चिलमन हटाई और कमरे में तैर गई. उसके जिस्म पर उगी नागफनी की बेल अपनी चुभन भूल गई. पीछे से पुकारती आवाज़ थककर ख़ामोश हो गई और उसका काँपता वज़ूद एकाएक थम गया. यह थमना मौत नहीं थी बल्कि उस भय से मुक्ति थी कि अंदर घुसते ही तेज़ भूकंप आ जाएगा जो उसके साथ इस आसमान और ज़मीन को भी हिलाकर तबाह और बरबाद कर देगा.
'चिलमन एक ख़ौफ, एक दीवार, एक कैद थी. उसके इस पार एक आज़ादी, एक ज़िंदगी, एक अधिकार है.' सोचकर आसिया हँस पड़ी और गुनगुनाती - सी गुसलख़ाने से कमरे में दाख़िल हुई. खुली खिड़की से हवा का ताज़ा झोंका आया.
'सब कुछ बदल गया - अंदर और बाहर.' उसने झाँककर बाहर देखा. आँखों में दिखता नीला आसमान और पेड़ों के हरे पत्ते कभी इतने चमकदार और सूरज कभी इतना जानदार नज़र नहीं आया था. वह कपड़े उठाने झुकी तभी बालों से ढकी पीठ के नीचे उसको गरम उँगलियों ने छुआ. 'वह जाग गया शायद, ' शरमाई सी आसिया बिना मुड़े सीधी खड़ी हो गई. उँगलियाँ अब हथेली बनकर उसके पैरों को सहला रही थीं. सारी ज़िंदगी की थकान टूटी ज़ंजीर की तरह उसके पैरों से उतरने लगी. वह सब कुछ भूल गई. इतना याद रहा कि दो गरम बाँहें पहली जैसी गरमी और तशनगी के साथ उसकी कमर के गिर्द बँध गईं और वह किसी भँवर की तरह उस बदन से लिपट गई. माथे के क़रीब गरम साँसों की छुअन से आसिया ने चेहरा ऊपर उठाया, भारी पलकें खोलीं, आँखें मिलीं और अंदर की खौलती, उबलती खुशी बाँध तोड़ गई. ज़िंदगी से भरपूर दोनों की हँसी एक साथ एक स्वर में कमरे में गूँज उठी.
'सच है, इंसान को अपने सुख की तलाश ख़ुद पूरी करनी पड़ती है.' आसिया ने गरम होठों को उसके सीने पर रख दिया. शहद के मनों मटके एक साथ लुढ़के, एक - दूसरे के तन की गंध सूँघते, एक - दूसरे को पूरी तरह पाने की लालसा से बेचैन, दोनों खिलते कमलों के बीच मदहोश थे.
सूरज चढ़ा, ढला. और रात दबे - पैर खुली खिड़की से कमरे में दाख़िल हो गई. गली - कूचों में ज़िंदगी की चहल - पहल बदस्तूर क़ायम थी. तौबा की बारगाह खुली थी और गुनाहों के रास्तों पर पहरेदार खड़े थे, मगर इस कमरे में सीसों के सारस हर चीज़ से बेनयाज़ समर्पण के समंदर पर उड़ने के लिए पँख फैलाए कमरे की मदहोश फिज़ा में झूला झूल रहे थे. उन्हें न दुनिया का खौफ़ था, न ज़माने का डर. तलवार, गोली और फाँसी उनके लिए फूलों की सेज थी.
....
माँ की जहाँदीदा नज़रों से आसिया की घबराहट छिपी नहीं रह सकी. मायके में आकर आसिया ज़्यादा खिल उठी थी, मगर रोज़ - रोज़ बाहर निकलना और हर बार नया झूठ बोलना ज़रा मुश्किल काम था.
'दोज़ख की आग ख़रीद रही हो तुम?' माँ के तेवर बदल चुके थे. उन्हें देखकर उसका दिल दहल गया और वह जवाब देने की जगह माँ को फटी नज़रों से देखती रही. जैसे कह रही हो कि ज़िंदगी एक ही तरह के रास्ते पर चलने का नाम नहीं है, माँ!
कई दिन आसिया घर से बाहर नहीं निकली. कुम्हलाई, मुरझाई बिना नहाए - धोए पड़ी रही, मगर चौथे दिन वह उठकर तैयार हुई, जैसे माँ से कहना चाह रही हो कि दोज़ख़ की आग में जीते - जी झुलस चुकी हूँ, मुझसे मेरी जन्नत मत छीनो. सबकी निगाह में यह पाप ही सही, मगर कर लेने दो मुहे यह गुनाह.... यह मेरे अनुभव की उपलब्धि है, इस पर किसी का अधिकार नहीं.
आसिया चली गई. माँ उसके चेहरे के तेवर को देखकर चुप रही या फिर बेटी की पहली सरकशी को देखकर वह समझ नहीं पाई कि बाईस साल की अपने से ऊँचे क़द की इस ख़ूबसूरत बला को वह क्या सज़ा दे?
आसिया जब अलमस्त सी मुलायम बिस्तर पर करवट बदल, कुहनी के बल उठी तो उसे महसूस हुआ जैसे सारी दुनिया ही बदल गयी हो और उसके अंदर एक नई औरत ने जन्म लिया हो, जो हर तरह से भरी पूरी मुतमैन है. उसने दूसरी तरफ़ से झुककर अपने लंबे बालों को उसके औंधे पड़े सीने के नीचे से धीरे से खींचा और बिस्तर से उतरी.
आहिस्ता - आहिस्ता क़दम उठाती हुई आगे बढ़ी, लगा जैसे बदन के सारे जोड़ ज़ंजीरें तोड़, ठुमक रहे हों और रोएँ-रोएँ से उमंगों का सोता फूट रहा हो. बदन इतना हलका जैसे धुनी हुई रुई का गोला. सामने आईने में नज़र आते अपने सरापे पर उसने नज़र डाली. एक निख़ार, एक सम्मोहन, एक हुस्न, एक लावण्य उसके पूरे वजूद को दमका रहा था. कोई जलन, कोई ज़ख़्म, कोई दाग़, किसी तरह का कोई स्याह निशान कहीं मौजूद नहीं था बल्कि बदन पर फ़िसलते हाथों ने अहसास दिलाया जैसे वह फूल की तरह मुलायम और ख़ुशबूदार है.
अपने दोनों हाथ उठाकर उसने भरपूर अँगड़ाई भरी, बदन में छाई गहरी मस्ती फूलों से भरी डाल जैसे झरी. उँगलियों को बालों के बीच फँसाकर उसने दोनों हाथों से माथे पर झुक आये बालों को पीछे की तरफ समेटा और पलकें झपकाईं. लंबे बालों के गुच्छे उसके नंगे नितंब पर लहराए. उसके होठों पर मुस्कान फैल गई. सारा बदन अनजानी गुदगुदाहट से भर गया.
वह इन बालों से कैसा खेल रहा था. कभी बालों की लंबी भारी लट इस तरह छितराता कि महीन जाल उसके सीने पर बिखर जाता. वह उनके चुंबन लेता. बालों को समेटकर आधे चेहरे और सीने को ढकते हुए उसे अपलक निहारता. फिर उन्हें बिस्तर पर दूसरी तरफ फैला, उसकी कमर में हाथ डाल, उसके होठों को इस तरह अपने होठों के आग़ोश में भींच लेता कि वह बेसुध हो जाती और....' आसिया की भारी पलकों में सपनीला समा तैर गया.
कुछ घण्टे पहले झिझकती आसिया दो दिल बनी चिलमन के बाहर खड़ी थी. एकाएक जाने किस जज़्बे से प्रभावित होकर उसने चिलमन हटाई और कमरे में तैर गई. उसके जिस्म पर उगी नागफनी की बेल अपनी चुभन भूल गई. पीछे से पुकारती आवाज़ थककर ख़ामोश हो गई और उसका काँपता वज़ूद एकाएक थम गया. यह थमना मौत नहीं थी बल्कि उस भय से मुक्ति थी कि अंदर घुसते ही तेज़ भूकंप आ जाएगा जो उसके साथ इस आसमान और ज़मीन को भी हिलाकर तबाह और बरबाद कर देगा.
'चिलमन एक ख़ौफ, एक दीवार, एक कैद थी. उसके इस पार एक आज़ादी, एक ज़िंदगी, एक अधिकार है.' सोचकर आसिया हँस पड़ी और गुनगुनाती - सी गुसलख़ाने से कमरे में दाख़िल हुई. खुली खिड़की से हवा का ताज़ा झोंका आया.
'सब कुछ बदल गया - अंदर और बाहर.' उसने झाँककर बाहर देखा. आँखों में दिखता नीला आसमान और पेड़ों के हरे पत्ते कभी इतने चमकदार और सूरज कभी इतना जानदार नज़र नहीं आया था. वह कपड़े उठाने झुकी तभी बालों से ढकी पीठ के नीचे उसको गरम उँगलियों ने छुआ. 'वह जाग गया शायद, ' शरमाई सी आसिया बिना मुड़े सीधी खड़ी हो गई. उँगलियाँ अब हथेली बनकर उसके पैरों को सहला रही थीं. सारी ज़िंदगी की थकान टूटी ज़ंजीर की तरह उसके पैरों से उतरने लगी. वह सब कुछ भूल गई. इतना याद रहा कि दो गरम बाँहें पहली जैसी गरमी और तशनगी के साथ उसकी कमर के गिर्द बँध गईं और वह किसी भँवर की तरह उस बदन से लिपट गई. माथे के क़रीब गरम साँसों की छुअन से आसिया ने चेहरा ऊपर उठाया, भारी पलकें खोलीं, आँखें मिलीं और अंदर की खौलती, उबलती खुशी बाँध तोड़ गई. ज़िंदगी से भरपूर दोनों की हँसी एक साथ एक स्वर में कमरे में गूँज उठी.
'सच है, इंसान को अपने सुख की तलाश ख़ुद पूरी करनी पड़ती है.' आसिया ने गरम होठों को उसके सीने पर रख दिया. शहद के मनों मटके एक साथ लुढ़के, एक - दूसरे के तन की गंध सूँघते, एक - दूसरे को पूरी तरह पाने की लालसा से बेचैन, दोनों खिलते कमलों के बीच मदहोश थे.
सूरज चढ़ा, ढला. और रात दबे - पैर खुली खिड़की से कमरे में दाख़िल हो गई. गली - कूचों में ज़िंदगी की चहल - पहल बदस्तूर क़ायम थी. तौबा की बारगाह खुली थी और गुनाहों के रास्तों पर पहरेदार खड़े थे, मगर इस कमरे में सीसों के सारस हर चीज़ से बेनयाज़ समर्पण के समंदर पर उड़ने के लिए पँख फैलाए कमरे की मदहोश फिज़ा में झूला झूल रहे थे. उन्हें न दुनिया का खौफ़ था, न ज़माने का डर. तलवार, गोली और फाँसी उनके लिए फूलों की सेज थी.
....
माँ की जहाँदीदा नज़रों से आसिया की घबराहट छिपी नहीं रह सकी. मायके में आकर आसिया ज़्यादा खिल उठी थी, मगर रोज़ - रोज़ बाहर निकलना और हर बार नया झूठ बोलना ज़रा मुश्किल काम था.
'दोज़ख की आग ख़रीद रही हो तुम?' माँ के तेवर बदल चुके थे. उन्हें देखकर उसका दिल दहल गया और वह जवाब देने की जगह माँ को फटी नज़रों से देखती रही. जैसे कह रही हो कि ज़िंदगी एक ही तरह के रास्ते पर चलने का नाम नहीं है, माँ!
कई दिन आसिया घर से बाहर नहीं निकली. कुम्हलाई, मुरझाई बिना नहाए - धोए पड़ी रही, मगर चौथे दिन वह उठकर तैयार हुई, जैसे माँ से कहना चाह रही हो कि दोज़ख़ की आग में जीते - जी झुलस चुकी हूँ, मुझसे मेरी जन्नत मत छीनो. सबकी निगाह में यह पाप ही सही, मगर कर लेने दो मुहे यह गुनाह.... यह मेरे अनुभव की उपलब्धि है, इस पर किसी का अधिकार नहीं.
आसिया चली गई. माँ उसके चेहरे के तेवर को देखकर चुप रही या फिर बेटी की पहली सरकशी को देखकर वह समझ नहीं पाई कि बाईस साल की अपने से ऊँचे क़द की इस ख़ूबसूरत बला को वह क्या सज़ा दे?