Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर) - Page 2 - SexBaba
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Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)

“बुड्ढे तुम्हारी खास पसन्द जान पड़ते हैं ।” - मुकेश ने उसके कान के पास मुंह ले जाकर कहा ।

“क्या !” - रिंकी सकपकाई सी बोली ।

“मैं सिन्धी भाई की बात कर रहा था ।”

“अरे, वो सिर्फ चालीस साल का है ।”

“मुझे तो पचास से कम नहीं जान पड़ता ।”

“होगा । मेरे को कौन सा उससे शादी बनाना है ।”

“खीर खाने न देनी होतो चम्मच भी नहीं देना चाहिए ।”

“क्या ?”

“कुछ नहीं । बाई दि वे तुम कितनी उम्र की हो ?”

“लड़कियों से उनकी उम्र नहीं पूछते, बुद्धू ।”

“ठीक है, नहीं पूछता । चलो, यही बताओ कि असल में तुम कहां की रहने वाली हो ? क्योंकि इधर की तो तुम नहीं जान पड़ती हो; न नाम से, न सूरत से ।”

मैं पंजाब से हूं । अमृतसर की । और मालूम ?”

“क्या ?”

“मैं वहां की बड़ी हस्ती हूं ।”

“अच्छा !”

“हां । मेरे जन्म दिन पर पंजाब सरकार छुट्टी करती है । भले ही मालूम कर लेना कि तेरह अप्रैल को सारे पंजाब में छुट्टी होती है या नहीं ।”

“तेरह अप्रैल को पंजाब में तुम्हारे जन्म दिन की वजह से छुट्टी होती है ?”

“हां ।”

“बैसाखी की वजह से नहीं ?”

“नहीं ।”

“अभी तक कितनी बैसाखियां देख चुकी हो ?”

“तेईस ।”

“फिर तो तुम्हारी उम्र सवा तेईस साल हुई ।”

“अरे ! मेरा इतना पोशीदा राज खुल गया !”

मुकेश हंसा ।

“तुम वकील हो या जासूस ?”

“वसूस ।”

“वसूस ! वो क्या होता है ?”

“आधा वकील आधा जासूस ।”

तभी बैंड बजाना बन्द हो गया ।

तत्काल नृत्य बन्द हुआ, नर्तक जोड़ों ने तालियां बजाई और अपनी अपनी टेबलों की ओर लौट चले ।

वादे के मुताबिक मुकेश ने रिंकी को वापिस करनानी की टेबल पर जमा कराया । वो अपने केबिन में लौटा तो उसने पाया कि वहां केवल मीनू सावन्त मौजूद थी ।

“मिस्टर देवसरे कैसीनो में हैं ।” - उसके पूछे बिना ही उसने बताया ।

“ओह !”

उसके सामने एक अनछुआ ड्रिंक पड़ा था जो उसने मुकेश की तरफ सरका दिया ।

“आन दि हाऊस ।” - वो बोली - “कर्टसी अनन्त महाडिक ।”

“थैंक्यू ।” - मुकेश बोला - “आई नीडिड इट ।”

दो मिनट में उसने अपना गिलास खाली कर दिया और सोफे पर पसर गया ।

“मैं और मंगाती हूं ।” - मीनू बोली ।

“अभी नहीं ।”

“काफी थके हुए जान पड़ते हो ?”

“हां ।”

“खूबसूरत, नौजवान लड़की के साथ डांस करके कोई थका हो, ऐसा कभी सुना तो नहीं मैंने ।”

जवाब में मुकेश केवल मुस्कराया, उसने एक जमहाई ली और बोला - “सॉरी ।”

“नैवर माइन्ड ।”

मुकेश खामोश हो गया, उसने एक और जमहाई ली और फिर सॉरी बोला ।

मीनू अपलक उसके हर हाव भाव का मुआयना कर रही थी ।

तभी महाडिक वहां पहुंचा ।

“इट्स टाइम फार युअर नम्बर, हनी ।” - वो मीनू से बोला ।

मीनू सहमति में सिर हिलाती उठ खड़ी हुई ।

“स्टेज पर जा रही हूं ।” - वो बोली - “सुनना मेरा गाना ।”

मुकेश ने सहमति में सिर हिलाया ।

मीनू स्टेज पर पहुंची ।

बैंड बजने लगा ।

मीनू कोई विलायती गीत गाने लगी ।

मुकेश और ऊंघने लगा, सोफे पर और परसने लगा । गीत संगीत की आवाज उसके कानों में यूं पड़ने लगी जैसे फासले से आ रहा हो और जैसे वो फासला बढता चला जा रहा हो ।

आखिरकार फासला इतना बढ गया कि उसे गीत संगीत सुनायी देना बन्द हो गया ।
 
मुकेश ने आंख खोली तो उसे क्लब के माहौल में सब कुछ बदला लगा ।

क्यों ? - तत्काल उसके जेहन में घंटी बजी - क्यों था ऐसा ?

उसने सबसे पहले सामने अपनी टेबल पर निगाह डाली तो टेबल को खाली पाया । वहां एक ऐश ट्रे के अलावा कुछ भी मौजूद नहीं था ।

उसकी निगाह हॉल की तरफ उठी तो उसने मेहर करनानी और रिंकी शर्मा की टेबल को खाली पाया ।

बैंड उस घड़ी खामोश था, डांस फ्लोर खाली था और मीनू सावन्त भी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी ।

तभी उसकी निगाह उस वेटर पर पड़ी जो कि उन्हें सर्व करता रहा था । उसने हाथ के इशारे से उसे करीब बुलाया ।

“मिस्टर देवसरे कहां गये ?” - उसने पूछा ।

“वो तो चले गये ।” - वेटर बोला ।

“चले गये ! कब चले गये ?”

“बहुत टेम हो गया, साहब ।”

“कमाल है ! मेरे बिना चले गये ।”

“आप सोये पड़े थे, साहब ।”

“सोया पड़ा था ?”

“हां ।”

“यहां सोया पड़ा था ?”

“हां ।”

“जगाया क्यों नहीं मुझे ?”

“साहब ने मना किया था ।”

“साहब ने मना किया था !” - मुकेश ने यूं दोहराया जैसे अपने कानों पर यकीन न कर पा रहा हो ।

“हां । उन्होंने कैसीनो से यहां आकर आपको सोया पड़ा देखा तो बिल भरा और मेरे को खास करके बोला कि आपको जगाने का नहीं था ।”

“ओह !”

“मैं आपके लिये कुछ लाये, साहब ?”

“क्या ? नहीं । नहीं । कुछ नहीं मांगता । थैंक्यू ।”

वेटर वहां से चला गया ।

पीछे मुकेश महसूस कर रहा था कि उससे भारी कोताही हुई थी । उसके बॉस को पता चलता कि उसने अपने क्लायन्ट की निगाहबीनी में ऐसी लापरवाही और अलगर्जी दिखाई थी तो उसकी खैर नहीं थी । मन ही मन ये दुआयें करते कि नकुल बिहारी आनन्द को उस बात की खबर न लगे, वो अपने स्थान से उठा और हॉल पार करके उस गलियारे में पहुंचा जिसके सिरे पर मिनी कैसीनो था ।

कैसीनो में जुए के रसिया काफी लोग मौजूद थे लेकिन देवसरे उनमें नहीं था ।

फिर उसे आरलोटो दिखाई दिया ।

आरलोटो महाडिक का खास आदमी था और कैसीनो का मैनेजर था ।

वो उसके करीब पहुंचा ।

“मैं मिस्टर देवसरे को ढूंढता था ।” - वो बोला ।

“इधर आया था ।” - आरलोटो बोला - “चला गया ।”

“कब गये ?”

“कैसे बोलेंगा ! इधर इतना बिजी । टेम को वाच करके नहीं रखा ।”

वो वापिस घूमा और पूर्ववत् लम्बे डग भरता इमारत से बाहर निकला ।

पार्किंग में देवसरे की सफेद मारुति एस्टीम मौजूद नहीं थी ।

देवसरे की कार को वो खुद चला कर वहां लाया था और उसने उसे प्रवेश द्वार के करीब महाडिक की जेन की बगल में खड़ा किया था ।
अब कार वहां नहीं थी ।

महाडिक की जेन भी वहां नहीं थी ।

उन दोनों की जगह वहां कोई और ही दो गाड़ियां खड़ी थीं ।

उसने पार्किंग में तैनात वाचमैन को करीब बुलाया ।

“मिस्टर देवसरे को जानता है ?” - उसने पूछा ।

“हां, साहब । पण वो तो चले गये ।”
“कब गये ?”
“बहुत टेम हो गया, साहब ।” - वेटर वाला हा जवाब चौकीदार ने भी दिया - “एक घंटे से भी ऊपर हो गया ।”
“हूं ।”
तत्काल मुकेश ने कोकोनट ग्रोव के रास्ते पर कदम बढाया ।
वहां किसी वाहन का इन्तजाम करने में जो वक्त जाया होता उतने से कम में तो वो रिजॉर्ट और क्लब के बीच का आधा मील का फासला पैदल चल कर तय कर लेता ।
 
जैसा देवसरे का उन दिनों का मूड था उसके मद्देनजर मुकेश कभी नहीं मान सकता था कि वो फिर आत्महत्या की कोशिश कर सकता था लेकिन अब उसे ये चिन्ता सता रही थी कि उसका वो मूड भी तो कहीं कोई धोखा या फरेब नहीं था ! कहीं वो उसे यूं उसकी ड्यूटी से, जिम्मेदारी से गाफिल तो नहीं करना चाहता था ! वहां मुकेश ने हर मुमकिन इन्तजाम किया हुआ था कि आत्महत्या का कोई जरिया उसे हासिल न हो पाये । वो कहीं से कूद नहीं सकता था, तैरना जानते होने की वजह से डूब नहीं सकता था । उसकी नींद की दवा के कैप्सूल मुकेश अपने कब्जे में रखता था और बवक्तेजरूरत उसे एक ही सौंपता था । यहां तक कि वो ये भी सुनिश्चित करके रखता था कि वो शेव इलैक्ट्रिक शेविंग मशीन से करे और ब्लेड या उस जैसा कोई तीखा औजार उसके हाथ में न पड़ने पाये । इस लिहाज से देवसरे की वो हरकत एक मसखरी, एक प्रैक्टीकल जोक, ही हो सकती थी लेकिन फिर भी उसका चित्त चलायमान था और कलेजा किसी अज्ञात आशंका से लरजता था ।
आखिरकार वो रिजॉर्ट के परिसर में दाखिल हुआ ।
तभी रेस्टोरेंट की तरफ से एक कार की हैडलाइट्स ऑन हुईं और तीखी रोशनी से उसकी आंखें चौंधिया गयीं । कार आगे बढी, उसके करीब से गुजरने तक उसने काफी रफ्तार पकड़ ली थी, फिर भी उसने नोट किया कि वो सलेटी रंग की फोर्ड आइकान थी । फिर कार परिसर से बाहर निकल गयी और मेन रोड पर दौड़ती उसकी निगाहों से ओझल हो गयी ।
क्षण भर को ठिठका वो आगे बढा ।
उस घड़ी तकरीबन कॉटेज अन्धेरे में डूबे हुए थे, केवल माधव घिमिरे के कॉटेज में रोशनी थी या फिर खुद उसके डबल कॉटेज के देवसरे की ओर वाले हिस्से की एक खिड़की रोशन थी ।
वो डबल कॉटेज पर पहुंचा ।
उसकी पार्किंग में देवसरे की सफेद एस्टीम मौजूद नहीं थी ।
तो फिर खिड़की क्यों रोशन थी ? भीतर कौन था ?
वो दायें प्रवेशद्वार पर पहुंचा ।
रोशन खिड़की उसके पहलू में थी । एकाएक उस पर यूं एक काली परछाई पड़ी जैसे भीतर खिड़की के सामने से कोई गुजरा हो ।
फिर उसे अहसास हुआ कि भीतर से टी.वी. चलने की आवाज भी आ रही थी ।
लेकिन वो तो म्यूजिक की आवाज थी !
देवसरे को तो म्यूजिक सुनने का कोई शौक नहीं था ! खबरें सुनने की मंशा के बिना तो वो कभी टी.वी. ऑन करता ही नहीं था !
जरूर भीतर देवसरे के अलावा कोई था ।
उसने दरवाजे का हैंडल ट्राई किया तो उसे मजबूती से बन्द पाया । तत्काल वो वहां से हटा, तीन सीढियां उतरा और बगल की तीन सीढियां चढ कर अपने वाले हिस्से के प्रवेशद्वार पर पहुंचा । उसने वो द्वार खोला, भीतर दाखिल हुआ और फिर दोनों कॉटेजों के बीच का दरवाजा पार करके देवसरे वाले हिस्से में पहुंचा जहां कि रोशनी थी ।
देवसरे टी.वी. के करीब एक कुर्सी पर मौजूद था । उसका सिर कुर्सी की पीठ से टिका हुआ था, आंखें बन्द थीं और दोनों बांहे यूं कुर्सी के हत्थों से नीचे लटक रहीं थीं जैसे निढाल होकर कुर्सी पर ही पड़ा पड़ा सो गया हो ।
उसने आगे कदम बढाया ।
एकाएक वो ठिठका ।
बैडरूम के खुले दरवाजे में से उसे वो पैनल दिखाई दी जिसके पीछे कि वाल सेफ थी । ये देख कर वो हकबकाया कि पैनल अपने स्थान से हटी हुई थी और सेफ खुली हुई थी ।
क्या माजरा था ?
“मिस्टर देवसरे !” - सशंक भाव से उसने आवाज लगायी - “सर !”
कोई जवाब न मिला ।
उसने करीब पहुंच कर हौले से उसका कन्धा झिंझोड़ा तो भी उसके जिस्म में कोई हरकत न हुई लेकिन उसने महसूस किया कि जिस्म गर्म था ।
नींद के कैप्सूल ।
कहीं वो उसने चुरा के खा तो नहीं लिये थे ?
तसदीक के लिये कि नींद की दवा के कैप्सूलों की शीशी वहीं थी जहां उसने रखी थी, वो अपने कॉटेज की ओर लपका जहां कि तब भी अन्धेरा था ।
तभी अप्रत्याशित घटना घटित हुई ।
अन्धेरे में किसी ने उसके पीछे से उसके सिर पर वार किया जिसकी वजह से उसका सन्तुलन बिगड़ गया, उसके घुटने मुड़ने लगे और फिर वो फर्श पर लुढक गया ।
तब उसे अपनी नादानी पर अफसोस होने लगा । उसे बराबर अन्देशा था कि भीतर कोई था फिर भी उसने गफलत से काम लिया था ।
लेकिन ऐसा इसलिये हुआ था क्योंकि उसके जेहन पर अपने क्लायन्ट का वैलफेयर हावी था ।
कांखता कराहता और ये सोचता कि कौन उस पर आक्रमण करके वहां से भागा था, वो उठकर खड़ा हुआ और लड़खड़ाता सा बाहर को लपका । अपने दरवाजे से उसने बाहर कम्पाउन्ड में दायें बायें निगाह दौड़ाई तो उसे कहीं दिखाई न दिया लेकिन कॉटेजों की कतार के एक पहलू से बीच की ओर भागते कदमों की आवाज आ रही थी ।
तत्काल वो भी उधर दौड़ चला ।
अब वो आक्रमण की मार से उबर चुका था और पूरी तरह से चौकस था ।
बीच की रेत पर उसके पांव पड़े ।
सामने सन्नाटा था ।
कहां गया दौड़ते कदमों का मालिक ?
कहीं छुप गया था या ये उसका वहम था कि वो बीच की तरफ भागा था ?
एकाएक अपने दायें बाजू उसे तनिक हलचल का आभास हुआ । अन्धेरे में आंखें फाड़ कर उसने उधर देखा तो दो सायों को अपनी तरफ बढते पाया ।
वो अपलक उधर देखता प्रतीक्षा करने लगा ।
वो करीब पहुंचे तो उसने सूरतें पहचानीं ।
वो रिंकी शर्मा और मेहर करनानी थे । दोनों स्विम सूट पहने थे और उनके नम जिस्म उनके समुद्र स्नान करके आये होने की चुगली कर रहे थे ।
“माथुर !” - करनानी के मुंह से निकला ।
“आप लोगों ने किसी को देखा ?” - मुकेश ने व्यग्र भाव से पूछा ।
“किसको ।”
“किसी को भी ।”
“तुम्हें ही देखा, भई ।”
“मेरे अलावा किसी को ? जिसके कि मैं पीछे था । जो कि भाग कर इधर ही आया था ।”
 
“कौन ?”
“जो कॉटेज में था ।”
“पुटड़े, क्या पहेलियां बुझा रहा है । ठीक से बोल, क्या माजरा है ?”
मुकेश ने बोला ।
करनानी भौचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
रिंकी भी ।
तभी कहीं एक कार स्टार्ट हुई और फिर उसके गियर पकड़ने की आवाज हुई ।
“चलो ।” - करनानी सस्पेंसभरे स्वर में बोला ।
तीनों वापिस डबल कॉटेज पर पहुंचे ।
इस बार मुकेश बत्तियां जलाता भीतर दाखिल हुआ ।
तीनों उस कुर्सी के करीब पहुंचे जिस पर देवसरे पूर्ववत पसरा पड़ा था ।
करनानी ने आगे बढ कर उसकी एक कलाई थामी और नब्ज टटोली ।
तभी टी.वी. पर म्यूजिक बन्द हुआ और न्यूज की सिग्नेचर ट्यून बजने लगी ।
फिर न्यूज रीडर स्क्रीन पर प्रकट हुई और बोली - “नमस्कार । मैं हूं कुसुम भटनागर । अब आज के मुख्य समाचार सुनिये...”
“बन्द कर, यार ।” - करनानी झुंझलाया सा बोला ।
मुकेश ने टी.वी. आफ कर दिया ।
करनानी ने कलाई छोड़ी, झुक कर उसके दिल के साथ अपना कान सटाया, शाहरग टटोली और फिर सीधा हुआ ।
“खत्म !” - वो बोला ।
“क्या !” - मुकेश हौलनाक लहजे से बोला ।
“मर गया ।”
“लेकिन क - कैसे ? कैसे ?”
“जरा सहारा दो । दूसरी ओर से बांह थामो ।”
दोनों तरफ से बांहें थामकर उन्होंने उसे कुर्सी से उठाया तो कैसे का जवाब सामने आया ।
कन्धों के बीच उसकी पीठ खून से लथपथ थी ।
“गोली !” - करनानी बोला - “गोली लगी है ।”
“कोई” - मुकेश के मुंह से निकला - “खुद अपनी पीठ में गोली मार के आत्महत्या नहीं कर सकता है ।”
“दुरुस्त । इसे वैसे ही वापिस पड़ा रहने दो । ये कत्ल का मामला है । पुलिस को खबर करना होगा ।”
“ओह !”
“तुम फोन करो, हम कपड़े पहन कर आते हैं ।”
मुकेश का सिर स्वयंमेव सहमति में हिला ।
***
नजदीकी पुलिस स्टेशन से जो इन्स्पेक्टर वहां पहुंचा उसका नाम सदा अठवले था । उसके साथ सोनकर नाम का एक सब-इन्स्पेक्टर था और आदिनाथ और रामखुश नाम के दो हवलदार थे ।
बाद में पुलिस का एक डॉक्टर, कैमरामैन और फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट भी वहां पहुंचे ।
कोई पौना घन्टा पुलिस वालों ने मौकायवारदात और लाश के मुआयने में गुजारा । उस दौरान मुकेश माथुर, मेहर करनानी और रिंकी शर्मा कॉटेज के मुकेश वाले हिस्से में बन्द रहे । पौने घन्टे बाद एक हवलदार वहां पहुंचा और उन्हें दूसरी तरफ लिवा ले गया जहां से कि लाश हटाई जा चुकी थी और डॉक्टर, फिंगरप्रिंट और कैमरामैन रुखसत हो चुके थे ।
वहां पुलिस वालों के साथ माधव घिमिरे मौजूद था जो कि उन्हें रिजॉर्ट में ठहरे मेहमानों के रजिस्ट्रेशन कार्ड चैक करवा रहा था ।
“दो रजिस्ट्रेशंस में” - अठवले बोला - “कार का नम्बर नहीं है ।”
“क्योंकि वो दो साहबान कार पर नहीं आये थे ।” - घिमिरे ने संजीदगी से जवाब दिया - “एक - विनोद पाटिल - बस पर यहां पहुंचा था और दूसरे साहबान - मेहता फैमिली - टैक्सी पर आये थे ।”
“हूं ।” - इन्स्पेक्टर ने कार्ड सब-इन्स्पेक्टर को थमा दिये - “सब को चैक करो । शायद किसी ने कुछ देखा हो या कुछ सुना हो । कोई ऐसा कुछ बोले तो उसे मेरे पास लेकर आना, मैं खुद उससे सवाल करूंगा । और इस जगह के दायें बायें जो दो कॉटेज हैं, उनमें ठहरे साहबान से भी मैं खुद पूछताछ करूंगा ।”
सहमति में सिर हिलाता सब-इन्स्पेक्टर एक हवलदार - रामखुश - के साथ वहां से रुखसत हो गया ।
“तो आप” - इन्स्पेक्टर पीछे मुकेश से सम्बोधित हुआ - “वकील हैं और यहां मकतूल के कांसटेंट कम्पेनियन थे ?”
“जी हां ।” - मुकेश बोला ।
“वजह ?”
मुकेश ने बयान की ।
“काफी अनोखी वजह है ।” - इन्स्पेक्टर बोला ।
मुकेश खामोश रहा ।
“तभी पहले आपने समझा था कि मकतूल खुदकुशी के अपने मिशन में कामयाब हो गया था ?”
“हां ।”
“लेकिन असल में ऐसा नहीं हुआ । कोई खुद को पीठ में गोली मार कर खुदकुशी नहीं करता । किसी ने कत्ल किया ?”
“जाहिर है ।”
“किसने ?”
“मालूम कीजिये । इसीलिये तो आप यहां हैं ।”
“वो तो मैं करूंगा ही लेकिन सोचा शायद किसी को पहले मालूम हो ।”
“खामखाह !”
“मकतूल की इस आत्मघाती प्रवृत्ति की किस किस को खबर थी ?”
“मेरे खयाल से तो सबको खबर थी ।” - मुकेश एक क्षण हिचका और फिर बोला - “सिवाय विनोद पाटिल के ।”
“उसे क्यों नहीं ?”
“क्योंकि वो आज शाम को ही यहां पहुंचा था ।”
“आपकी बातों से लगता है कि ये शख्स कोई तफरीहन यहां पहुंचा शख्स नहीं था, इसका कोई और भी किरदार है ।”
“है ।”
“क्या ?”
“वो मकतूल की जन्नतनशीन बेटी की जिन्दगी में उसका पति था ।”
“यानी कि मकतूल का दामाद था ?”
“हां ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि मकतूल का दामाद होते हुए भी उसे नहीं मालूम था कि बेटी की मौत के बाद बाप के दिल पर क्या गुजरी थी !”
“वो शादी मकतूल की रजामन्दगी से नहीं हुई थी । मिस्टर देवसरे ने विनोद पाटिल को कभी अपना दामाद तसलीम नहीं किया था । वो पाटिल को अपने करीब भी फटकने देने को तैयार नहीं थे । फिर उनकी बेटी की मौत हो गयी थी तो वो सिलसिला कतई खत्म हो गया था ।”
 
“फिर भी आज वो यहां आया !”
“वजह मैंने बताई थी ।”
“उस बाबत मैं अभी आप से फिर बात करूंगा, पहले कुछ और बताइये ।”
“पूछिये ।”
“अब मकतूल का वारिस कौन है ?”
“वारिस ?”
“मेरा सवाल मकतूल की वसीयत की बाबत था । आपको उसकी खबर होगी । आखिर वो आपका क्लायन्ट था ।”
“मकतूल मेरा नहीं, आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स नाम की मुम्बई की वकीलों की उस फर्म का क्लायन्ट था जिसमें मैं बहुत जूनियर पार्टनर हूं । मुझे बजातेखुद मकतूल की किसी वसीयत की कोई खबर नहीं । ऐसी कोई वसीयत होगी तो उसकी खबर फर्म के सीनियरमोस्ट पार्टनर मिस्टर नकुल बिहरी आनन्द को होगी जिनका मकतूल क्लायन्ट ही नहीं, दोस्त भी था । आप बड़े आनन्द साहब को मुम्बई कॉल लगा सकते हैं ।”
“लगायेंगे । कॉल से काम न बना तो उन्हें यहां तलब करेंगे ।”
“आप इन्स्पेक्टर हैं - गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज है - कमिश्नर भी होते तो ऐसा न कर पाते ।”
“अच्छा !”
“जी हां ।”
“इतने हाई फाई वकील हैं ये बड़े आनन्द साहब ?”
“जी हां ।”
इन्स्पेक्टर कुछ क्षण कसमसाया और फिर बोला - “आनन्द नम्बर दो कैसे हैं ? नम्बर तीन कैसे हैं ।”
“मैं समझ रहा हूं कि आप क्यों ये सवाल पूछ रहे हैं ।”
“अच्छा !”
“हां । देखिये, वसीयत कोई बहुत स्पैशलाइज्ड या पेचीदा न हो तो हमारी फर्म में वसीयत ड्राफ्ट का काम एडवोकेट सुबीर पसारी करते हैं जो मेरे से सीनियर हैं लेकिन तीनों आनन्द साहबान से जूनियर हैं । मिस्टर पसारी ने बहुत आला दिमाग और उससे भी ज्यादा आला याददाश्त पायी है । मिस्टर देवसरे की वसीयत अगर एडवोकेट पसारी ने ड्राफ्ट की होगी तो उसके मोटे मोटे प्रावधान यकीनन उन्हें जुबानी याद होंगे । आप मुम्बई में सुबह दस बजे हमारा ऑफिस खुलने तक का इन्तजार नहीं कर सकते तो मैं आपको मिस्टर पसारी के घर का नम्बर बताता हूं, आप अभी ट्रंककॉल पर उनसे बात कर सकते हैं ।”
“नम्बर न बताओ, अर्जेंन्ट ट्रंककॉल बुक कराओ ।”
सहमति में सिर हिलाता मुकेश फोन की ओर बढा ।
उसके टेलीफोन से फारिग होने तक पीछे खामोशी छाई रही ।
“ये वाल सेफ” - फिर इन्स्पेक्टर बोला - “काफी चतुराई से इस लकड़ी की पैनल के पीछे छुपाई गयी थी फिर भी जाहिर है कि छुपी नहीं रही थी । कौन वाकिफ था इससे ?”
“हम सब ।” - मुकेश न सब की तरफ से जवाब दिया ।
“आप साहबान के अलावा ?”
“विनोद पाटिल । क्योंकि मिस्टर देवसरे ने उसके सामने वाल सेफ खोलने की नादानी.. खोली थी ।”
“काफी कलरफुल किरदार जान पड़ता है इस विनोद पाटिल का । वो अभी भी रिजॉर्ट में ही है ।”
“हां ।” - घिमिरे बोला - “सात नम्बर केबिन में ।”
“बुला के लाओ ।” - इन्स्पेक्टर हवलदार आदिनाथ से बोला ।
हवलदार आदिनाथ वहां से रुखसत हो गया ।
“वाल सेफ का बाहरी पल्ला खुला है ।” - पीछे इन्स्पेक्टर बोला - “लेकिन भीतर एक पल्ला और भी है जो बन्द है । बाहरी पल्ला तो उस पर लगे पुश बटन डायल से कन्ट्रोल होता जान पड़ता है, भीतर वाला कैसे खुलता है ?”
“जाहिर है कि चाबी लगा कर ।” - मुकेश बोला - “की होल साफ तो दिखाई दे रहा है ।”
“हां । मुझे भी दिखाई दे रहा है । ये सामान” - उसने साइड टेबल की तरफ इशारा किया - “जो मकतूल की जेबों में से निकला है, इसमें एक चाबियों का गुच्छा भी है । क्या इसकी कोई चाबी सेफ में लगती होगी ?”
“लगा के देखिये ।”
इन्स्पेक्टर ने उस काम को अंजाम दिया । एक चाबी से भीतरी पल्ला खुल गया । वो सेफ के भीतर झांकने लगा ।
“मुझे एक बात याद आयी है ।” - एकाएक मुकेश बोला ।
इन्स्पेक्टर ने घूम कर उसकी तरफ देखा ।
“आपने पूछा था कि इस सेफ से कौन कौन वाकिफ था । मेरे खयाल से सेफ से अनन्त महाडिक भी वाकिफ था ।”
“आपके खयाल से ? आप यकीनी तौर पर ये नहीं कह सकते कि अनन्त महाडिक को इस सेफ के वजूद का इल्म था ।”
“यकीनी तौर से तो नहीं कह सकता लेकिन हालात का इशारा ये ही कहता है कि महाडिक को सेफ की खबर होनी चाहिये ।”
“क्या हैं हालात ? और क्या है उनका इशारा ? बयान कीजिये ।”
“कल महाडिक एक और शख्स को साथ लेकर मिस्टर देवसरे से मिलने यहां आया था । उनमें कोई कारोबारी बात होनी थी इसलिये मैं यहां से उठ कर कॉटेज की अपने वाली साइड में चला गया था लेकिन वो लोग कभी कभार ऊंची आवाज में बोलने लगते थे तो कुछ औना पौना मुझे भी सुनायी दे जाता था । यूं जो कुछ मैं सुन पाया था उससे ये पता चलता था कि उनमें होती बातचीत का मुद्दा ब्लैक पर्ल क्लब था और ये मालूम हुआ था कि महाडिक क्लब का सोल प्रोप्राइटर नहीं था, उसमें मिस्टर देवसरे का भी हिस्सा था । बाद में मिस्टर देवसर ने मुझे बुला कर एक सेलडीड तैयार करने के लिये कहा था तो बात बिल्कुल ही कनफर्म हो गयी थी ।”
“कैसा सेलडीड ?”
“अस्सी लाख रुपये में ब्लैक पर्ल क्लब की सेल का डीड ।”
“खरीदार कौन था ?”
“सेलडीड में खरीदार का जिक्र नहीं था । मिस्टर देवसरे ने खरीदार का नाम दर्ज करने के लिये और सेल की तारीख के लिये जगह खाली छुड़वा दी थी । उनका कहना था कि जब उस सेलडीड को एक्जीक्यूट करने का, काम में लाने का, वक्त आयेगा तो खाली छोड़ी गयी उन दो जगहों को वो खुद भर लेंगे ।”
“हूं, फिर ।”
“फिर उन्होंने सेलडीड तो पढकर चौकस किया था और उसे सेफ में रख दिया था ।”
“तब उनके मेहमान कहां थे ?”
“वो तो पहले ही चले गये थे । उनके चले जाने के बाद ही मिस्टर देवसरे ने मुझे तलब किया था ।”
“अगर ऐसा था तो फिर महाडिक को सीफ की खबर क्योंकर हुई होगी ?”
“मेरा अन्दाजा है कि उनके रुख्सत होने से पहले यहां कोई मानीटरी ट्रांजेक्शन हुई थी ।”
“मकतूल और महाडिक के बीच ?”
“मकतूल और महाडिक के साथ आये शख्स के बीच ।”
“जो कि क्लब का खरीदार था ?”
“हो सकता था ।”
“था कौन वो ?”
“मुझे नहीं मालूम । मैंने उस शख्स को पहले कभी नहीं देखा था ।”
“कोई बात नहीं । महाडिक से पूछेंगे । अब आप इस बात पर जरा और रोशनी डालिये कि क्यों आपको लगा था कि यहां कोई रुपये पैसे का लेन देन हुआ था ?”
“सेलडीड का ड्राफ्ट सेफ में रखते वक्त मिस्टर देवसरे ने एकाएक मेरे से सवाल किया कि क्या मैंने कभी हजार के नोटों की गड्डी हाथ में थाम कर देखी थी । मैंने इनकार किया था तो उन्होंने सेफ में से ऐसी एक गड्डी निकाली थी और मेरी हथेली पर रख दी थी । तब मैंने देखा था कि वो इस्तेमालशुदा नोटों की गड्डी थी जिसे कि फिर से स्टिच किया गया था और स्टिचिंग के ऊपर चढे रैपर पर किसी के नाम के प्राथमाक्षर अंकित थे ।”
“क्या थे प्रथमाक्षर ?”
“आर डी एन ।”
“जरूर किसी बैंक के किसी कैशियर के इनीशियल होंगे ।”
“बैंक में रीस्टिच की गयी गड्डी पर बैंक के नाम पते का छपा हुआ रैपर चढा होता है, उस गड्डी पर वैसा रैपर नहीं था । वो कोरे कागज से बना रैपर था ।”
“हूं । फिर क्या हुआ था ?”
“फिर क्या होना था ? वो मजाक की बात थी जो मजाक में खत्म हो गयी थी । मिस्टर देवसरे ने मेरे से गड्डी वापिस ली थी और उसे सेफ में रख दिया था ।”
“सेफ में तो ऐसी कोई गड्डी नहीं है ।”
“जी !”
“सेलडीड भी नहीं है ।”
“कमाल है ! कहां गयीं दोनों चीजें ? क्या कातिल ले गया ?”
“सेफ में सौ सौ के नोटों की चार गड्डियां और पड़ी हैं । कुछ पांच पांच सौ के लूज नोट भी पड़े हैं, उन्हें क्यों न ले गया ?”
मुकेश को जवाब न सूझा ।
 
“महाडिक की बाबत कोई और बात ?”
“और बात ये कि वो क्लब की सेल के हक में नहीं था ।”
“कैसे जाना ?”
“उन्हीं आधी पौनी बातों से जाना जो मैंने गाहेबगाहे कॉटेज की अपनी साइड में बैठे सुनी थीं ।
“हूं । महाडिक इस घड़ी कहां होगा ?”
मुकेश ने घड़ी पर निगाह डाली ।
“क्लब में तो शायद नहीं होगा ।” - वो बोला ।
“रहता कहां है ?”
“बैंगलो रोड पर रहता है लेकिन मुझे उसके बंगले का नम्बर नहीं मालूम ।”
नम्बर घिमिरे ने बताया ।
“इस पते पर फोन है ?” - इन्स्पेक्टर बोला ।
“है ।” - घिमिरे बोला ।
“लगाइये और उसे यहां आने को कहिये । आने में हीलहुज्जत करे तो मेरे से बात कराइये ।”
“ठीक है ।”
तभी हवलदार रामखुश दो व्यक्तियों के साथ वापिस लौटा जिनकी बाबत पता चला कि वो उस डबल कॉटेज के दायें बायें के कॉटेजों के आकूपेंट थे । उनमें से एक का नाम अभिलाष देसाई था जो कि जामनगर गुजरात से था और दूसरा शोलापुर से आया इब्राहीम शेख था ।
“आप साहबान को” - इन्स्पेक्टर बोला - “यहां हुए हौलनाक वाकये की खबर लगी ?”
दोनों के सिर सहमति में हिले ।
“मकतूल को शूट किया गया था । यहां गोली चलने की आवाज आजू-बाजू के कॉटेजों में पहुंच सकती है । आप में से किसी ने ऐसी कोई आवाज सुनी थी ?”
“मैंने सुनी थी ।” - अभिलाष देसाई बोला ।
“कब ? कब सुनी थी ?”
“ये कहना मुहाल है ।”
“क्यों मुहाल है ?”
“क्योंकि में घूंट लगा के सोने का आदी हूं । एक धांय की आवाज से मेरी नींद खुली थी लेकिन मैंने करवट बदली थी और फिर सो गया था । तब मुझे घड़ी देखना नहीं सूझा था इसलिये मुझे नहीं मालूम कि वो आवाज मैंने कब सुनी थी ?”
“आपको ये कैसे मालूम है कि जो आवाज आपने सुनी थी वो गोली चलने की थी ?”
“नहीं मालूम । मुझे वो गोली की आवाज जैसी लगी थी लेकिन वो किसी कार या ट्रक के बैकफायर करने की आवाज भी हो सकती थी ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
“आपका आदमी मुझे सोते से जगा कर लाया था, अब अगर इजाजत हो तो मैं....”
“हां, हां, । जाइये ।”
दूसरे शख्स, इब्राहीम शेख, के बयान से मालूम हुआ कि वो अपने बीवी बच्चों के साथ वहां ठरा हुआ था जिन्हें कि वो शाम को पिक्चर दिखाने लेकर गया था । ईवनिंग शो समाप्त हो जाने के बाद उन्होंने शहर में ही खाना खाया था और वो सवा ग्यारह बजे वापिस अपने कॉटेज लौटे थे और उसके या उसके परिवार के किसी सदस्य ने गोली की या गोली जैसी लगने वाली कोई आवाज नहीं सुनी थी ।
भुनभुनाते हुए इन्स्पेक्टर ने उसे भी रुखसत किया ।
फिर हवलदार आदिनाथ के साथ विनोद पाटिल वहां पहुंचा । बकौल उसके वो सोते से उठा कर लाया गया था और ऐसे व्यवहार की कोई वजह उसे नहीं बताई गयी थी, उसे नहीं मालुम था कि पुलिस वहां क्यों मौजूद थी जिसका मतलब था कि वहां वाकया हुए कत्ल की उस कोई खबर नहीं थी ।
वो खबर उसे इन्स्पेक्टर ने सुनायी ।
जवाब में पाटिल ने चौंकने का, भौचक्का होने का करिश्मासाज अभिनय करके दिखाया ।
तदोपरान्त शाम को उसकी वहां आमद के बाद मकतूल से हुई उसकी भीषण तकरार का मुद्दा उठा ।
“वो तकरार बेमानी थी” - पाटिल बोला - “और बुजुर्गवार की ढिठाई और मेरे से सख्त नापसन्दगी का नतीजा थी । अपनी दिवंगत बीवी का इकलौता वारिस होने की वजह से मैं यहां रिजॉर्ट में उसका एक चौथाई हिस्सा क्लेम करने आया था और ऐसा करने का मुझे पूरा-पूरा अख्तियार था । यहां आकर मुझे मकतूल की जुबानी ही खबर लगी थी कि उसकी जिन्दगी में मेरी बीवी का - और उसी की तरह मिस्टर घिमिरे का - हिस्सा रिजॉर्ट के बिजनेस से होने वाले मुनाफे में था । यानी कि मिस्टर देवसरे की जिन्दगी में रिजॉर्ट की मिल्कियत में किसी की कोई हिस्सेदारी मुमकिन नहीं थी । और मुनाफे की हिस्सेदारी से भी मुझे महरूम रखने की बुजुर्गवार ने ऐसी तरकीब की थी कि मैं पिटा सा मुंह ले के रह गया था ।”
“क्या किया था ?”
पाटिल ने एक निगाह मुकेश, करनानी और घिमिरे की सूरतों पर डाली और फिर बोला - “आपको मालूम ही होगा ।”
“मैं आपकी जुबानी सुनना चाहता हूं ।”
“मकतूल ने अपने बैंक के पास रिजॉर्ट को गिरवी रख के इतना बड़ा कर्जा उठाने का फैसला कर लिया था कि उसका ब्याज चुकता करने के बाद मुनाफे की रकम में से कुछ भी बाकी न बचता ।”
“यानी कि मिस्टर देवसरे नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से आप कैसा भी कोई अर्थलाभ प्राप्त कर पाते !”
“बिलकुल ।”
“वो सच में रिजॉर्ट गिरवी रखने का इरादा रखते थे या ऐसा उन्होंने महज आपको हड़काने के लिये कहा था ?”
“मुझे नहीं पता ।”
इन्स्पेक्टर ने उसे घूर कर देखा ।
“आनेस्ट, मुझे नहीं पता । मेरे पास ये जानने का कोई जरिया नहीं था कि असल में बुजुर्गवार के मन में क्या था !”
“आप बताइये ?” - इन्स्पेक्टर घिमिरे से बोला - “आखिर मुनाफे की दूसरी चौथाई के हकदार आप थे ।”
“मिस्टर देवसरे का रिजॉर्ट को बैंक के पास गिरवी रखने का इरादा बराबर था ।” - घिमेरे बोला ।
“कैसे मालूम ?”
“क्लब के लिये रवाना होने से पहले उन्होंने खुद मुझे ऐसा कहा था ।”
“वजह यही बताई थी कि वो चाहते थे कि इन साहब के हाथ कुछ न लगे ?”
“हां ।”
“लेकिन यूं तो आपके हाथ भी कुछ न लगता ! यूं पाटिल से तो वो अपनी दुश्मनी निकालते, आपसे क्या शिकायत थी ?”
“कोई शिकायत नहीं थी इसीलिये उन्होंने मुझे आश्वासन दिया था कि वो किसी और तसल्लीबख्श तरीके से यूं होने वाले मेरे नुकसान की भरपाई कर देंगे ।”
“वैरी नोबल आफ हिम ।”
“ही वाज ए नोबल पर्सन, मे हिज सोल रैस्ट इन पीस ।”
“यूं कोई रनिंग एस्टैब्लिशमेंट गिरवी रखी जाती है तो मैंने सुना है कि उसके हिसाब किताब का भी आडिट होता है ।”
“ठीक सुना है आपने । इसीलिये मैं शाम से ही सारे एकाउन्ट्स चौकस करने में लगा हुआ था ।”
“अब तो आपकी मेहनत बेकार गयी ।”
“जी !”
“प्रोप्राइटर की मौत की रू में अब तो एकाउन्ट्स का कोई रोल ही नहीं रह गया ।”
“वो कैसे ?”
“समझिये । एकाउन्ट्स से तो नफा नुकसान पता लगता और वो नफा नुकसान हिस्सेदारों में तकसीम होता । मिस्टर देवसरे की मौत की रू में अब तो आप वैसे ही इस प्रापर्टी के एक चौथाई हिस्से के मालिक बन गये हैं । अब आप स्वतन्त्र रूप से अपना हिस्सा बेच सकते हैं, गिरवी रख सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं ।”
“हे भगवान ! मुझे तो खयाल ही नहीं आया था ।”
“जनाब, इस बाबत मेरे पास अच्छी खबर है और बुरी खबर है ।”
“क्या ?”
“अच्छी खबर ये है कि जोर से हंसने को जी चाह रहा है और बुरी खबर ये है कि हंस नहीं सकता क्योंकि ये मकतूल की शान में गुस्ताखी होगी । इसलिये जब्त कर रहा हूं ।”
“अजीब आदमी हैं आप ?”
“अच्छी खबर बुरी खबर” - मुकेश बोला - “इनका तकिया कलाम जान पड़ता है ।”
“हूं ।” - इन्स्पेक्टर बोला - “मिस्टर पाटिल, ये खुश होने वाली बात नहीं है क्योंकि ऐन यही बात आपको मर्डर सस्पैक्ट बनाती है ।”
“अकेले मुझे ?” - पाटिल बोला ।
“मिस्टर घिमिरे को भी ।”
“मिस्टर घिमिरे ऐसा नहीं कर सकते ।” - रिंकी शर्मा आवेशपूर्ण स्वर में बोली ।
इन्स्पेक्टर उसकी तरफ घूमा ।
“कैसा नहीं कर सकते ?” - वो बोला ।
“अपने आर्थिक लाभ के लिये ये मिस्टर देवसरे जैसे मेहरबान शख्स का कत्ल नहीं कर सकते ।”
“मैने किसी पर इलजाम नहीं लगाया । अभी मैंने सिर्फ कत्ल का एक उद्देश्य स्थापित किया है । एक थ्योरी पेश की है जिसके तहत नौबत कत्ल तक पहुंची होना मुमकिन है ।”
“इस थ्योरी की लपेट में मिस्टर घिमिरे को लेना जुल्म है ।”
“मुझे भी ।” - पाटिल बोला ।
“आपको किस लिये ? आप तो आये ही मकतूल से नावां पीटने की मंशा से थे । आपकी मंशा पूरी हुई । आप जितने की उम्मीद से आये थे, अब उससे कई गुणा ज्यादा की गारन्टी के साथ वापिस लौटेंगे ।” - इन्स्पेक्टर एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “अगर लौटेंगे तो ।”
“क्यों नहीं लौटूंगा ? मैंने कत्ल नहीं किया । मैंने कोई गुनाह नहीं किया । इस रिजॉर्ट की एक चौथाई मिल्कियत पके फल की तरह अगर मेरी झोली में आकर टपकी तो क्या ये मेरा गुनाह है ? मिस्टर देवसरे एकाएक मर कर मेरे लिये सहूलियत कर गये तो क्ये ये मेरा गुनाह है...”
तभी फोन की घन्टी बजी ।
मुकेश ही फोन के करीब था इसलिये उसी ने रिसीवर उठाया ।उसने एक क्षण फोन सुना और फिर इन्स्पेक्टर से बोला - “ट्रंककॉल लग गयी है । मैं बात करूं या आप करेंगे ?”
“तुम्हारे वसीयत स्पैशलिस्ट एडवोकेट पसारी हैं लाइन पर ?”
“हां ।”
“मुझे दो रिसीवर ।”
दो मिनट खुसर पुसर के अन्दाज से इन्स्पेक्टर ने फोन पर बात की । आखिरकार ‘थैंक्यू’ बोल कर उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा । और बड़े विचित्र भाव से मुकेश की तरफ देखा ।
“क्या हुआ ?” - मुकेश बोला - “क्या पता चला ?”
“चला तो सही कुछ ।”
“क्या ?”
इन्स्पेक्टर के फिर बोल पाने से पहले अनन्त महाडिक ने वहां कदम रखा । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से आगन्तुक की तरफ देखा ।
“मैं अनन्त महाडिक ।” - वो बोला ।
“ओह !” - इन्स्पेक्टर बोला - “आइये । आइये, जनाब । इतनी रात गये यहां आने की जहमत उठाई उसके लिये शुक्रिया । वारदात की खबर लगी ?”
“हां । घिमिरे ने फोन पर बताया था कि मिस्टर देवसरे का कत्ल हो गया था । दौड़ा आया ।”
“शुक्रिया । आप ब्लैक पर्ल क्लब मालिक हैं ?”
“हां ।”
“हमें मालूम हुआ है कि असल में मालिक मिस्टर देवसरे थे ?”
 
“मालिक तो वो थे लेकिन एक कान्ट्रैक्ट के तहत हमारे में जो पार्टनरशिप स्थापित थी उस की रू में मुझे भी मालिकाना अख्तियारात हासिल थे ।”
“अख्तियारात हासिल होना और सच में मालिक होना एक ही बात नहीं होती ।”
“एक तरह से नहीं होती तो एक तरह से होती भी है ।”
“ये गोलमोल जवाब है । बहरहाल क्या पार्टनरशिप थी ?”
“रीयल एस्टेट के यानी कि प्लाट और इमारत के मालिक मिस्टर देवसरे थे, फर्नीचर और बार और कैसीनो का साजोसामान मेरा था, मैनेजमेंट मेरा था और टोटल बिजनेस में हमारी फिफ्टी-फिफ्टी की पार्टनरशिप थी ।”
“ये कान्ट्रैक्ट कितने अरसे का था ?”
“तीन साल का ?”
“तीन साल कब मुकम्मल होंगे ।”
वो हिचकिचाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“जवाब दीजिये ।”
“दस जुलाई को ।”
“यानी कि सिर्फ एक हफ्ते बाद ?”
“हां ।”
“शायद इसीलिये मकतूल उस प्रापर्टी को बेचने की तैयारी कर रहा था जिससे कि आपको एतराज था । क्या आपके कान्ट्रैक्ट में रिन्यूअल के लिये कोई प्रोवीजन नहीं था ?”
“प्रोवीजन तो था” - महाडिक कठिन स्वर में बोला - “लेकिन वो एकतरफा था ।”
“क्या मतलब ?”
“मिस्टर देवसरे चाहते तो वो कान्ट्रैक्ट और तीन साल के लिये या उससे कम या ज्यादा वक्फे के लिये आगे बढा सकते थे, मैं ऐसा किये जाने की जिद नहीं कर सकता था ।”
“कान्ट्रैक्ट करते वक्त आपको इस शर्त पर एतराज नहीं हुआ था ?”
“तब नहीं हुआ था इसलिये नहीं हुआ था क्योंकि, एक तो मुझे क्लब को मोटे मुनाफे पर चला ले जाने की गारन्टी थी - और मोटे मुनाफे में बिना कुछ किये हासिल होने वाला फिफ्टी पर्सेन्ट का हिस्सा कौन छोड़ता है ! - दूसरे....”
वो फिर अटका ।
“ओह कम आन !”
“दूसरे मिस्टर देवसरे की मौत की सूरत में मुझे अख्तियार था कि या तो मैं पूर्वस्थापित शर्तों पर कान्ट्रैक्ट को जब तक चाहता चलाये रखता या फिर मार्कट वैल्यू पर प्रपर्टी को खुद खरीद लेता ।”
“बढिया । यानी कि जिस क्लब से आप अगले हफ्ते निश्चित रूप से बेदख्ल होने वाले थे अब आप, बाजरिया नये कान्ट्रैक्ट या खरीद, बदस्तूर उसके मालिक बने रह सकते हैं ।”
“है तो ऐसा ही लेकिन...”
“मिस्टर देवसरे क्लब की प्रापर्टी किसे बेचना चाहते थे ?”
“कौन कहता है कि वो प्रापर्टी बेचना चाहते थे ?”
“उनका वकील कहता है” - इन्स्पेक्टर ने मुकेश की तरफ इशारा किया - “उन्होंने मिस्टर माथुर से सेलडीड तैयार करवा लिया था, सिर्फ खरीदार का नाम भरने के लिये उसमें जगह खाली छोड़ दी थी । मेरा अन्दाजा है कि खरीदार वो शख्स था जो कल शाम आपके साथ यहां आया था । नाम बोलिये उस शख्स का ।”
वो हिचकिचाया ।
“मिस्टर महाडिक” - इन्स्पेक्टर सख्ती से बोला - “पुलिस के लिये पता लगा लेना कोई मुश्किल काम नहीं होगा कि कल शाम मकतूल से मिलने जब आप यहां आये थे तो कौन आपके साथ था ? जिस बात का खुल जाना महज वक्त की बात है उसे छुपाने की कोशिश करना बेकार है इसलिये नाम बोलिये ।”
“दिनेश पारेख ।”
“हर्णेई वाला ?”
“वही ।”
“मकतूल की क्लब की प्रापर्टी बेचने की कोशिश पर आप एतराज कर सकते थे लेकिन क्या आप ऐसा करने से उसे रोक भी सकते थे ?”
“कान्ट्रैक्ट खत्म होने तक रोक सकता था । उसके बाद कैसे रोका सकता था ?”
“यानी कि नहीं रोक सकते थे ?”
“नहीं रोक सकता था ।”
“इसीलिये वक्त रहते आपने अपना भविष्य संवार लिया ।”
“क्या मतलब ?”
“मिस्टर देवसरे का कत्ल कर दिया ।”
“चोर बहका रहे हो, इंस्पेक्टर साहब । अन्धेरे में तीर चला रहे हो ।”
“आपने कत्ल नहीं किया ?”
“नहीं किया ।”
“लेकिन इस बात से आप इन्कार नहीं कर सकते कि मिस्टर देवसरे के परलोक सिधार जाने से आपको बहुत फायदा बहुत फायदा पहुंचा है । अब आप अपना कान्ट्रैक्ट रीन्यू करा सकते हैं । अब आपको क्लब से कोई बेदख्ल नहीं कर सकता । ठीक ?”
महाडिक ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“अच्छा केस है । कत्ल के उद्दश्य कई दिखाई दे रहे हैं लेकिन कातिल दिखाई नहीं दे रहा ।”
कोई कुछ न बोला ।
“लेकिन दिखाई देगा कातिल, क्यों नहीं दिखाई देगा ? कितना भी शातिर मुजरिम क्यों न हो उसका पकड़ा जाना महज वक्त की बात होता है । कत्ल के विभिन्न उद्देश्य ही कातिल की तरफ उंगली उठायेंगे । और अब तो उद्देश्यों में एक और उद्देश्य का इजाफा हो गाय है ।”
“वो कैसे ?” - मुकेश बोला ।
“अच्छा हुआ कि ये सवाल आपने पूछा । जवाब मैं अभी देता हूं लेकिन पहले चन्द बातों को मुझे फिर से, दोहरा के, पूछने दीजिये । तो आप कहते हैं कि क्लब से जब आप यहां लौटे थे तो आपने मिस्टर देवसरे को टेलीविजन के सामने इस कुर्सी पर ढेर पड़े देखा था और आपकी ऐसा अहसास हुआ था जैसे यहां भीतर कोई था । फिर उसी किसी ने नीमअन्धेरे का फायदा उठा कर आप पर पीछे से हमला कर दिया था । ठीक ?”
“ठीक । और सबूत के तौर पर आप मेरे सिर पर उभर आये इस गूमड़ का मुआयना कर सकते हैं ।”
“बवक्तेजरूरत ऐसे गूमड़ बनाये भी जा सकते हैं । बहरहाल कोई आप पर हमला करके यहां करके यहां से भागा तो आप उसके पीछे भागे लेकिन न आप उसे पकड़ पाये और न उसकी सूरत देख पाये । ये दोनों भी” - उसने रिंकी और करनानी की तरफ इशारा किया - “न देख पाये जो कि पहले से बीच पर थे और उस शख्स से आगे थे ।”
“जाहिर है ।”
“आप कहते हैं जाहिर है, मुझे तो हैरानी है कि आप में और इनमें सैंडविच्ड वो शख्स न आपको दिखाई दिया न इन्हें दिखाई दिया ।”
“तो आपका मतलब ये है कि मैं अपने हमलावर की बाबत झूठ बोल रहा हूं ?”
“आप बताइये ।”
“क्या ?”
“यही कि आप झूठ बोल रहे हैं या नहीं ?”
“मैं न झूठ बोल रहां हूं न मेरे लिये झूठ बोलना जरूरी है । यहां मेरा काम मिस्टर देवसरे को प्रोटेक्ट करना था न कि...”
“सुइसाइड से प्रोटेक्ट करना था, खुदकुशी करने की कोशिश से रोकना था, मकतूल को कातिल से प्रोटेक्ट करना आपका काम नहीं था ।”
“अगर मुझे ऐसा कोई इमकान या अन्देशा होता तो मैं क्यों प्रोटेक्ट न करता मकतूल को कातिल से ?”
“कातिल से प्रोटेक्ट करते लेकिन खुद ही बचाने वाले और मारने वाले का डबल रोल अख्तियार कर लेते तो कहानी जुदा होती । शायद है ।”
“इन्स्पेक्टर साहब, आप घुमा फिरा के मुझे कातिल करार देने की कोशिश कर रहे हैं । अगर मैं कातिल हूं तो बताइये मेरे पास कत्ल का क्या उद्देश्य था ?”
“था तो सही उद्देश्य ।”
“क्या ?”
“आपको नहीं मालूम ?”
“सर, यू आर टाकिंग नानसेंस ।”
“पुलिस के डॉक्टर का अन्दाजा है कि कत्ल सवा दस और पौने बारह के बीच किसी वक्त हुआ था । उस दौरान आप कहां थे ?”
“क्लब में था ।”
“क्या कर रहे थे ?”
“एक बूथ में सोया पड़ा था ।”
“सोये पड़े थे या टुन्न हो के होश खो बैठे थे ?”
“मैं इतनी कभी नहीं पीता ।”
“तो सोये पड़े थे ?”
“हां । पता नहीं कैसे ऊंघ आ गयी थी और फिर आंख लग गयी थी ।”
“आपके सामने अपने क्लायन्ट को वाच करने का, उसकी निगाहबीनी करने का अहमतरीन और वाहिद काम था और आप सोये पड़े थे जिसके नतीजे के तौर पर मकतूल को अकेले यहां लौटना पड़ा ।”
“वो मेरी गलती थी, नालायकी थी लेकिन मिस्टर देवसरे ने भी मेरे साथ ज्यादती की थी जो कि मुझे सोया ही पड़ा रहने दिया था, जगाया नहीं था ।”
“हमारी पड़ताल कहती है कि मिस्टर देवसरे ग्यारह बजने से कोई पच्चीस मिनट पहले क्लब से रुख्सत हुए थे ।” - वो करनानी और रिंकी की तरफ घूमा - “आप में से किसी ने उन्हें वहां से जाता देखा था ?”
“हां ।” - करनानी बोला - “मिस्टर देवसरे खुद हमारी टेबल पर आये थे लेकिन तब टाइम क्या हुआ था, इसकी मुझे खबर नहीं । उन्होंने खुद हमें बताया था कि वो अपने एडवोकेट को एक प्रैक्टीकल जोक का निशाना बनाने जा रहे थे इसलिये जानबूझकर उसे बूथ में सोता छोड़ कर जा रहे थे । उन्होंने हमें खासतौर से कहा था कि हममें से कोई भी माथुर को जगाने की कोशिश न करो । हालांकि रिंकी की मर्जी उसे फौरन जगा कर खबरदार करने की थी ।”
“आप लोग कब तक क्लब में ठहरे थे ?”
“ग्यारह बजे तक ।”
“आधी रात को समुद्र स्नान आपको रेगुलर शगल है ?”
“जनाब, ये टूरिस्ट रिजॉर्ट है जहां लोगबाग तफरीहन आते हैं, एनजाय करने, रिलैक्स करने आते हैं । यहां रेगुलर कुछ नहीं होता । यहां जो मन आये वो होता है ।”
“जैसे आज आधी रात को समुद्र स्नान आया ?”
“कोई एतराज ?”
“आधी रात कहां हुई थी अभी तब ?” - रिंकी बोली ।
“क्लब से निकल कर आप सीधे ही तो बीच पर पहुंचे नहीं होंगे ?”
“नहीं ।” - करनानी बोला - “पहले हमने यहां आकर कपड़े बदले थे और फिर समुद्र का रुख किया था ।”
“कितने बजे थे तब ?”
“सवा ग्यारह ।”
“तब आपने यहां, मेरा मतलब है रिजॉर्ट के परिसर में, किसी को देखा था ?”
“पाटिल को देखा था । ये तब पैदल चलता आ रहा था ।”
“कहां से आ रहे थे, आप ?” - इंन्स्पेक्टर ने पाटिल से पूछा ।
“क्लब से ही ।” - पाटिल बोला - “मैं भी वहीं था ।”
“क्या कर रहे थे वहां ?”
“वही जो बाकी लोग कर रहे थे ।”
“क्या ?”
“तफरीह । बार पर बैठा ड्रिंक करता रहा था ।”
“हूं ।” - वो फिर करनानी और रिंकी की तरफ घूमा - “आप लोगों का समुद्र स्नान कितनी देर चला था ?”
“ज्यादा देर नहीं चला था ।” - करनानी बोला ।
“पानी हमारी उम्मीद से ज्यादा ठण्डा था ।” - रिंकी बोली - “इसलिये ।”
“फिर तो आप लोग लगभग उलटे पांव ही लौट आये होंगे ?”
“नहीं । थोड़ी देर बीच पर बैठे सुस्ताते रहे थे, बतियाते रहे थे ।”
“तब आपने कुछ देखा था ?”
“बीच पर नहीं देखा था लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
रिंकी हिचकिचाई ।
“क्या लेकिन ?” - इन्स्पेक्टर ने अपना प्रश्न दोहराया ।
रिंकी ने करनानी की तरफ देखा ।
करनानी ने अनभिज्ञतापूर्ण भाव से कन्धे उचका दिये ।
“अब कुछ कहिये भी ।” - इन्स्पेक्टर उतावले स्वर में बोला ।
“इधर यहां ड्राइव-वे के सिरे पर एक कार देखी थी” - रिंकी दबे स्वर में बोली - “जो इतनी धीमी रफ्तार से चलती वहां पहुंची थी कि बस सरकती जान पड़ती थी । सच पूछिये तो इसी से मेरी तवज्जो उसकी तरफ गयी थी ।”
 
“कार पहचानी थी आपने ?”
“पहचानी तो थी ।”
“वैरी गुट ।”
“मुझे वो” - रिंकी ने एक गुप्त निगाह महाडिक पर डाली - “मिस्टर महाडिक की जेन लगी थी ।”
“नहीं हो सकता ।” - महाडिक बोला ।
“मैंने रंग पहचाना था, मेक पहचाना था ।”
“गलत पहचाना था । मुगालता लगा था तुम्हें सफेद जेन एक आम कार है जो कि अकेले मेरे ही पास नहीं है ।”
“हो सकता है ।”
“तो” - इन्स्पेक्टर ने वार्तालाप का सूत्र फिर अपने काबू में किया - “मैडम के कहे के मुताबिक आप यहां नहीं थे ?”
“नहीं था ।”
“साबित कर सकते हैं ?”
“मुझे क्या जरूरत पड़ी है ?”
“क्या मतलब ?”
“ये आपका कारोबार है, आप साबित करके दिखाइये कि मैं यहां था ।”
“गवाही सबूत ही होता है । गवाह ऐसा कहता है ।”
“गलत कहता है । गलतफहमी के तहत कहता है । मैं यहां नहीं था ।”
“तो कहां थे ?”
“मौकायवारदात पर नहीं था तो इस बात की कोई अहमियत नहीं कि मैं कहां था ?”
“जुबानदराजी अच्छी कर लेते हैं ।”
महाडिक ने लापरवाही से कन्धे उचकाये ।
“आपने” - इन्स्पेक्टर ने रिंकी से पूछा - “कार अन्दाजन किस वक्त देखी थी ?”
“मेरे खयाल से” - रिंकी बोली - “साढे ग्यारह या पांच मिनट ऊपर का टाइम रहा होगा तब ।”
“आप यहां किस वक्त पहुंचे थे ?” - इन्स्पेक्टर ने मुकेश से पूछा ।
“साढे ग्यारह के बाद ही पहुंचा था ।” - मुकेश बोली - “पांचेक मिनट ऊपर होंगे ।”
“यानी कि ग्यारह पैंतीस पर ?”
“हां ।”
“आप ने ड्राइव-वे पर कोई सफेद जेन देखी थी ?”
“नहीं ।”
“देखी नहीं थी या तवज्जो नहीं दी थी ?”
“तवज्जो नहीं दी थी । लेकिन....”
“हां, हां । बोलिये ।”
“जब मैं क्लब से रवाना हुआ था तो मुझे वहां की पार्किंग में मिस्टर महाडिक की सफेद जेन नहीं दिखाई दी थी ।”
इन्स्पेक्टर ने इलजाम लगाती निगाहों से महाडिक की तरफ देखा ।
महाडिक परे देखने लगा ।
“इधर मेरी तरफ देखिये ।” - इन्स्पेक्टर तनिक कर्कश स्वर में बोला ।
महाडिक ने बड़े यत्न से इन्स्पेक्टर की तरफ निगाह उठाई ।
“साढे ग्यारह बजे आपकी जेन क्लब की पार्किंग में नहीं थीं लेकिन वो यहां देखी गयी थी । क्या आपने अपनी कार किसी को इस्तेमाल के लिये दी थी ?”
“नहीं ।”
“यूं देते हैं कभी कार किसी को ?”
“नहीं ।”
“यानी कि कार अगर यहां थी तो उसके ड्राइवर आप ही हो सकते थे ।”
“कार यहां नहीं थी ।”
“साढे ग्यारह बजे के आसपास आप यहां नहीं आये थे ?”
“नहीं ।”
“तो कहां गये थे ? जब कार क्लब की पार्किंग में नहीं थी तो कहीं तो गये थे ।”
“वो बात अहम नहीं । उसका मौजूदा वारदात से न कोई रिश्ता है न हो सकता है ।”
“मेरी सोच कहती है” - इन्स्पेक्टर बोला - “कि कातिल ने अपनी कारगुजारी ग्यारह और साढे ग्यारह के बीच किसी वक्त की थी....”
“इस सोच की वजह ?” - करनानी बोला ।
इन्स्पेक्टर ने वजह बयान करने की कोशिश न की । वो अपनी बात कहता रहा ।
“...एक शख्स - विनोद पाटिल - को छोड़ कर सबको मालूम था कि मकतूल खुदकुशी की दो कोशिशें कर चुका था और तीसरी कर सकता था । इस लिहाज से गोली यूं चली होनी चाहिये थी कि वो मकतूल का खुद का कारनामा लगता ताकि बाद में यही नतीजा निकाला जाता कि वो खुदकुशी की अपनी तीसरी कोशिश में कामयाब हो गया था ।”
“ऐसा हुआ होता तो वाल सेफ खुली न मिलती ।” - मुकेश बोला ।
“ऐसा तो हुआ ही नहीं है क्योंकि मकतूल को गोली पीठ पर लगी है । ऊपर से आपकी वाल सेफ खुली होने वाली बात भी दमदार है । लेकिन सवाल ये है कि वाल सेफ क्यों खुली है ? क्योंकर किसी को इसकी खुफिया पैनल के कन्ट्रोल की खबर लगी ? क्योंकर किसी को सेफ के बाहरी दरवाजे पर फिट पुश बटन डायल का कोड पता लगा ?”
“कातिल ने मकतूल को मजबूर किया होगा सेफ खोलने का तरीका बताने के लिये ? “
“पीठ से रिवॉल्वर सटा कर ?”
“हां ।”
“इस काम के पीछे मकसद जब सेफ खोलना था तो गोली क्यों चलाई ?”
“गोली इत्तफाकन चल गयी होगी ।”
“हो सकता है । लिहाजा गोली चल चुकने के बाद उसने वाल पैनल हटाई, पुश बटन डायल पर कोड पंच करके सेफ का बाहरी दरवाजा खोला और जब वो चाबी लगा कर भीतरी दरवाजा खोलने को आमादा था तो ऊपर से आप आ गये । नतीजतन वो आप पर हमला बोल कर भाग खड़ा हुआ ।”
“ऐसा था तो सेफ के भीतर से हजार के नोटों की गड्डी किसने निकाली ? सेल डीड की कापी किसने निकाली ?”
“उसी ने निकाली होंगी दोनों चीजें । वो चीजें निकाल कर वो सेफ के भीतरी दरवाजे को ताला लगा रहा होगा जबकि उसे आपके लौटने की आहट मिली होगी और उसने सेफ को बदस्तूर लाक्ड और कंसील्ड छोड़ने का काम अधूरा छोड़ दिया होगा ।”
“जब हजार के नोट निकाले थे तो बाकी सौ के नोट पीछे क्यों छोड़ दिये थे ?”
“हड़बड़ी में उनकी तरफ उसकी तवज्जो नहीं गयी होगी ?”
“अगर उस शख्स का मकसद चोरी था तो क्यों नहीं गयी होगी ?”
“आप भी तो ऊपर से पहुंच गये थे इसलिये उसने जो हाथ आया था, उसी से तसल्ली कर ली थी ।”
“क्योंकि मेरे पहुंच जाने की वजह से उसे वक्त का तोड़ा था, वो जल्दी न करता तो रंगे हाथों पकड़ा जाता ? “
“हां ।”
“ऐसे शख्स ने सेफ को बदस्तूर बन्द करने की कोशिश में वक्त क्यों जाया किया ?”
“ये भी ठीक है । फिर तो इसका एक ही मतलब हो सकता है ।”
“क्या ?”
“यही कि कातिल कोई और था और चोर कोई और था ।”
“मेरे पर हमला किसने किया होगा ? कातिल ने या चोर ने ?”
“इसका जवाब मै तब दूंगा जब मुझे यकीन आ जायेगा कि आप पर कोई हमला हुआ था ।”
“और ये मेरे सिर में निकला गूमड़...”
“आपने खुद बनाया हो सकता है । पहले भी बोला ।”
“बढिया । तो फिर मैं कातिल हूं या चोर ? या दोनों ?”
“आप बताइये । आप क्या हैं, ये बात आप से बेहतर कौन जानता हो सकता है ?”
“मेरे बताये का क्या फायदा ? मेरे बताये को तो आप किसी खातिर में नहीं लाना चाहते ।”
“अपना क्रेडिट बनाइये सच बोल कर । कत्ल किया होना कुबूल कीजिये, फिर मैं आपकी बाकी बातें भी कुबूल कर लूंगा ।”
“फिर बाकी क्या रह जायेगा ?”
इन्स्पेक्टर हंसा, फिर फौरन संजीदा हुआ ।
“अभी थोड़ी देर पहले इस बाबत एक मुद्दा और भी उठा था जिसे कि आपने बीच में ही छोड़ दिया था ।”
“कौन सा मुद्दा ?” - इन्स्पेक्टर बोला ।
“कत्ल के उद्देश्य का मुद्दा ।”
“अच्छा वो ।”
“जी हां, वो ।”
“जिसकी बाबत मैंने कहा था कि कत्ल के उद्देश्यों में एक और उद्देश्य का इजाफा हो गया था ।”
“कहा ही था, बताया कुछ नहीं था ।”
“अब बताता हूं । लेकिन अपनी वकील की हैसियत में पहले आप बताइये कि किसी दौलतमन्द शख्स का कत्ल हो जाये और पीछे उसकी वसीयत के तहत उसका जो इकलौता वारिस हो उस पर कातिल होने का शक किया जाना चाहिये या नहीं ?”
“किया जाना चाहिये क्या, हमेशा किया जाता है ।”
“दुरुस्त । अब बताइये विरसे की दौलत हथियाना कत्ल का मजबूत उद्देश्य होता है या नहीं ?”
“होता है ।”
“तो फिर आपके पास कत्ल का मजबूत उद्देश्य है । “
“जी !”
“और ये बात आपने खुद, अपनी जुबानी तसलीम की है ।”
“मैंने ! कब की ?”
“अभी की । जब आपने इस बात की तसदीक की कि विरसे की दौलत हथियाना वारिस के लिये कत्ल का पुख्ता उद्देश्य होता है ।”
“कैसी दौलत ? कौन वारिस ।”
“मकतूल की दौलत । आप वारिस ।”
“क्या ?”
“आपके वसीयत स्पैशलिस्ट पार्टनर एडवोकेट पसारी ने अभी फोन पर मुझे यही बताया था ।”
“क्या ? क्या बताया था ।”
“ये कि मकतूल ने दो हफ्ते पहले अपनी एक वसीयत तैयार करवाई थी जिसके तहत उसने अपनी आधी सम्पत्ति धर्मार्थ कार्यों में लगायी जाने का निर्देश दिया है और बाकी आधी का इकलौता वारिस आपको करार दिया है ।”
“मुझे ! खामखाह !”
“मकतूल का कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं, शायद इसलिये ।”
“लेकिन फिर भी...”
 
“जनाबेहाजरीन” - एकाएक पाटिल बोला - “आई हैव ए गुड न्यूज एण्ड ए बैटर न्यूज । गुड न्यूज ये है कि मैं मिस्टर देवसरे की इकलौती बेटी का पति हूं और उनका दामाद हूं । और बैटर न्यूज ये है कि मैं और सिर्फ मैं उनका इकलौता नजदीकी रिश्तेदार हूं ।”
“मिस्टर देवसरे ने” - मुकेश बोला - “कभी तुम्हें अपना दामाद नहीं माना था ।”
“उनके मानने या न मानने से क्या होता है ! मेरा यही जवाब मकतूल को था और यही तुम्हें है । मैं मकतूल का दामाद हूं और मेरे होते कोई काला चोर उसकी दौलत का मालिक नहीं बन सकता ।”
“कैसे रोकोगे ?” - इन्स्पेक्टर बोला - “एक रजिस्टर्ड वसीयत की मौजूदगी के तहत कैसे रोकोगे ?”
“ये फरेब है, धोखा है, इन वकील लोगों की कोई चाल है । इन लोगों ने एक थके-हारे, डरे-दबे आदमी से पता नहीं क्या लिखवा लिया है वसीयत के नाम पर ? ऐसे कोई लुटाता है अपना माल ! जिस शख्स को आधी दौलत धर्म कार्यों के लिये देना सूझ सकता था उसे पूरी दौलत का यही इस्तेमाल नहीं सूझ सकता था ?”
“मैं तुम्हारे ही जवाब तुम्हें देता हूं ।” - मुकेश बोला - “मैं आधी दौलत अपने नाम कराने की जुगत कर सकता था तो पूरी की नहीं कर सकता था ?”
“कर सकते थे लेकिन नहीं की क्योंकि तुम चालाक हो, वकील हो, चालाक वकील हो । मकतूल का आधी दौलत तुम्हारे नाम लिखना ज्यादा विश्वसनीय लगता है इसलिये तुमने ये होशियारी दिखाई कि...”
“मिस्टर पाटिल, काइन्डली नोट माई रिप्लाई इन युअर ओन लिंगो ।”
“वाट्स दैट ?”
“आई हैव ए बैड न्यूज एण्ड ए वर्स न्यूज । बैड न्यूज ये है कि तुम पागल हो । और वर्स न्यूज ये है कि तुम्हारा दिमाग फुल खराब है ।”
“क.. क्या ?”
“अरे, जब मुझे वसीयत की ही खबर नहीं तो उसके प्रावधानों की खबर कहां से होती ?”
“सब खबर थी । खुद अपनी करतूत की किसी को कोई खबर न हो, ऐसा कहीं होता है !”
मुकेश ने असहाय भाव से इन्स्पेक्टर की तरफ देखा ।
“मैं तुम लोगों की करतूत का पर्दाफाश करके रहूंगा । मैं कोर्ट में जाऊंगा । उस वसीयत को चैलेंज करने के लिये मैं सबसे बड़ा वकील करुंगा ।”
“सबसे बड़ा वकील मेरा बॉस है ।”
“होगा । मैं नहीं मानता कि वकालत की दुनिया तुम्हारे बॉस से आगे खत्म है । और अब मैं ये भी समझ रहा हूं कि क्यों तुम छिपकली की तरह मकतूल से चिपके हुए थे । तुम्हारे इरादे शुरू से ही नापाक थे । हद हो गयी, भई ! गोद में बैठ कर गिरह काट ली । वारिस बन बैठे मकतूल के । यूं कोई बनाता है किसी गैर को अपना वारिस ? टिप के तौर पर कोई लाख दो लाख रुपये छोड़े होते तो कोई बात भी थी, आधा हिस्सा तुम्हारे नाम कर दिया । देख लेना जब केस कोर्ट में पहुंचेगा तो मैजिस्ट्रेट भी हंसेगा इस बात पर । देख लेना कि...”
“अरे, मेरे बाप” - मुकेश कलप कर बोला - “मैं मकतूल के विरसे का तलबगार नहीं । मकतूल ने अपनी वसीयत मेरी रजामन्दगी से या मेरी जानकारी में नहीं लिखी ।”
“लिखी ही नहीं । तुम लोगों ने खुद लिख ली और धोखे से उससे साइन करा लिये ।”
“आप बरायमेहबानी ये जुबानी तलवारबाजी बन्द करें ।” - इन्स्पेक्टर बोला - “वसीयत को लेकर जो सिर फुटौवल करनी हो वो वक्त आने पर बाखुशी कीजियेगा लेकिन अभी खामोश हो जाइये और मुझे अपनी तफ्तीश आगे बढाने दीजिये ।”
“धोखे और फरेब से लिखवाई गयी वसीयत भी आपकी तफ्तीश का हिस्सा होना चाहिये...”
“हवलदार आदिनाथ !”
“जी, साहब ।” - हवलदार मुस्तैदी से बोला ।
“ये आदमी फिर बोले तो अपना जूता उतार कर इसके मुंह में ठूंस देना ।”
“बरोबर, साहब ।” - उस हुक्म से खुश होता हवलदार बोला - “एक से चुप न हुआ तो दूसरा भी ।”
“शाबाश !”
तत्काल पाटिल ने यूं जबड़े भींचे जैसे संदूक का ढक्कन बन्द किया हो । वो हड़बड़ा कर हवलदार से दो कदम परे सरक गया ।
इन्स्पेक्टर कुछ क्षण उसे घूरता रहा और फिर करनानी की तरफ आकर्षित हुआ ।
“मैंने सबके बारे में सब कुछ दरयाफ्त किया ।” - वो बोला - “सिर्फ आपसे ऐसी पूछताछ न हो सकी । बरायमेहरबानी बताइये कि आप कहां से हैं और क्या करते हैं ?”
“मुम्बई से हूं ।” - उसने जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर इन्स्पेक्टर को सौंपा - “ये मेरा बिजनेस कार्ड है जिस पर मेरा नाम, पता, कारोबार सब दर्ज है ।”
इन्स्पेक्टर ने कार्ड पर निगाह डाली तो उसके नेत्र फैले ।
“प्राइवेट डिटेक्टिव !” - वो बोला - “प्राइवेट डिटेक्टिेव हैं आप ?”
“जी हां ।”
“तो आजकल आप यहां वैकेशन पर हैं ?”
“मेरे ऐसे नसीब कहां ! धन्धे से ही आया हूं, जनाब । आई एम आन ए जॉब हेयर ।”
“वाट जॉब ?”
“मुझे एक गुमशुदा वारिस की तलाश है । इस साल की शुरुआत से मैं इस एक ही केस पर लगा हुआ हूं । ये काम ऐसा है जिसमें फीस से कहीं ज्यादा मुझे बोनस मिल सकता है ।”
“बोनस !”
“या समझ लीजिये कि कामयाब हो के दिखाने का ईनाम । मैं गुमशुदा वारिस को तलाश कर पाया तो मुझे फीस के अलावा दस लाख रुपये और मिलेंगे । मैं मामूली प्रैक्टिस वाला पी.डी. हूं । ये रकम मेरे लिये बहुत बड़ी है जिसे हासिल करने की कोशिश में मैं छ: महीने से कुल जहान की खाक छानता फिरता आखिरकार यहां पहुंचा हूं ।”
“यहां उम्मीद है कामयाबी हासिल होने की ?”
“उम्मीद तो हर जगह है, बॉस । उम्मीद पर दुनिया कायम है ।”
“केस दिलचस्प जान पड़ता है तुम्हारा । कल थाने आना और तफसील से सब सुनाना ।”
“जरूर ।”
“दस बजे पहुंचना । मेहरबानी होगी ।”
“क्यों नहीं होगी ? मेरा तो नाम ही मेहर करनानी है ।”
“आप सब लोग भी पुलिस को उपलब्ध रहियेगा । कोई कहीं खिसक जाने की कोशिश न करे । ताकीद है ।”
सबने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर महफिल बार्खास्त हो गयी ।
 
Chapter 2

रात के सन्नाटे में मुकेश ने जब वापिस अपने कॉटेज से बाहर कदम रखा तब दो बजने को थे ।
उस वक्त बाहर मुकम्मल सन्नाटा था और ऑफिस वाले कॉटेज के सामने के एक कमरे के अलावा कहीं कोई रोशनी नहीं थी ।
उसने कॉटेज की पार्किंग की तरफ निगाह दौड़ाई तो उसने पाया कि देवसरे की एस्टीम तब भी वहां नहीं थी ।
पुलिस के चले जाने के बाद भी दो बातें उसे बुरी तरह से खदकती रही थीं ।
उसे नींद क्यों आयी ?
एस्टीम कहां गयी ?
उसे लग रहा था कि जब तक उसकी वो उलझन दूर न हो जाती, उसे नींद नहीं आने वाली थी ।
रात की उस घड़ी भी उसने ब्लैक पर्ल क्लब का एक फेरा लगाने का निश्चय किया ।
स्तब्ध वातावरण में पैदल चलता वो क्लब पहुंचा ।
जहां उसकी एक उलझन तो फौरन दूर हो गयी ।
क्लब के सामने की पार्किंग में देवसरे की कार मौजूद थी । वो प्रवेशद्वार से बाहर दूर कम्पाउन्ड के परले सिरे पर खड़ी थी ।
उसने वाचमैन को बुलाया ।
“ये कार कब से यहां है ?” - उसने पूछा ।
“बहुत टेम से है, साहब ।” - वाचमैन बोला ।
“अरे, ठीक से जवाब दे । तह यहां थी जब मैं यहां से गया था ?”
“हां ।”
“तो बोला क्यों नहीं था ?”
“आपने पूछा कब था ?”
“मैंने पूछा नहीं था देवसरे साहब के बारे में जिनकी कि ये कार है ?”
“देवसरे साहब के बारे में पूछा था न ! कार के बारे में किधर पूछा था ?”
“तूने ये तो बोला था कि नहीं बोला था कि देवसरे साहब चले गये थे ?”
“हां ।”
“कैसे चले गये थे ?”
“वैसे ही जैसे हमेशा जाते थे । कार पर सवार होकर ।”
“अपनी कार पर - इस कार पर - सवार होकर ?”
“हां ।”
“खुद चलाते हुए ?”
“नहीं । कार सावन्त मैडम चला रही थीं ।”
“तू ये कहना चाहती है कि मीनू सावन्त देवसरे साहब की कार की ड्राइव करती उन्हें यहां से ले कर गयी थी ?”
“हां । मैडम साहब को रिजॉर्ट में छोड़ने गयी थीं लेकिन जब लौटी थीं तो दरवाजे के पास की वो जगह खाली नहीं थी जहां से उन्होंने कार उठाई थी, वहां कोई और कार आ खड़ी हुई थी, इसलिये उन्हें कार को यहां - जहां कि ये इस घड़ी खड़ी है - छोड़ना पड़ा था ।”
“ओह ! यार, तुझे बताना चाहिये था मुझे कि कार यहीं थी ।”
“साहब, आपने मुझे मौका कब दिया ? आप तो यूं यहां से निकले थे जैसे पीछे बम फटने वाला था ।”
“अच्छा अच्छा ।”
वो इमारत में दाखिल हुआ ।
उस वक्त बैंड बन्द था, बार भी बन्द लेकिन हॉल में कई टेबलों पर लोग मौजूद थे और पहले से मंगाये ड्रिंक्स और खानपान का आनन्द ले रहे थे ।
एक टेबल पर मीनू सावन्त और अनन्त महाडिक भी यूं सिर से जोड़े बैठे बतिया रहे थे जैसे दीन दुनिया की खबर न हो ।
वो कोने के उस बूथ पर पहुंचा जहां उसने अपने पिछले फेरे में हाजिरी भरी थी ।
जिस वेटर ने तब उन्हें सर्व किया था वो उसके करीब पहुंचा ।
“वापिस आ गये, साहब ?” - वो बोला ।
“हां ।”
“बार तो बन्द हो गया ।”
“कोई बात नहीं, किसी का भी ड्रिंक उठा ला ।”
“हीं हीं । साहब, ऐसे कौन उठाने देगा ।”
“इजाजत से नहीं, छीन के ला ।”
“मजाक कर रहे हैं, साहब ।”
“हां । ड्रिंक नहीं तो एक टार्च तो ला सकता है या वो भी नहीं ला सकता ?”
“टार्च ! टार्च क्या करेंगे ?”
“रोशनी पिऊंगा । अब हिल ।”
वेटर ने उसे टार्च ला के दी ।
“फूट ले ।” - मुकेश बोला - “टार्च अभी थोड़ी देर में यहां टेबल पर से उठा के ले जाना ।”
“साहब....”
“टिप के साथ ।”
“ओह ! शुक्रिया, साहब ।”
वो वहां से टल गया तो मुकेश सोफे पर पहुंचा । उसने टेबल को थोड़ा और सरकाया और फिर उसके नीचे उकडू हो गया । उसने टार्च जला ली और उसकी रोशनी नीचे कालीन बिछे फर्श पर फिरानी शुरू की ।
 
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