desiaks
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अब कहां जायेगा? वह पागलों की तरह खड़ा हआ सामने की सड़क पर गाड़ियों का आना-जाना देख रहा था। तभी एक रिक्शा चालक ने उसका ध्यान तोड़ा “कहीं जाओगे बाबू?"
“सोच तो रहा हूं....” उसने एक गहरी सांस ली।
"चलिये फिर....!"
"लेकिन कहां? अभी तो मुझे कुछ भी पता नहीं है।"
"मैं समझ गया बाबू....किसी होटल में?"
"होटल में नहीं। खैर....तुम जाओ.....मैं खुद चला जाऊंगा।" रिक्शा चालक निराश होकर चला गया। वह अपनी मुर्खता पर स्वयं ही मुस्करा दिया। जब उसे इस बात का पता ही नहीं था कि लखनऊ जाकर वह क्या करेगा तो उसे यहां आने की जरूरत ही क्या थी? तभी उसकी नजर दो कांस्टेबिलों पर पड़ी जो उसकी ओर ही आ रहे थे। विनीत के सारे विचार एक साथ ही हवा में उड़ गये। वह एक अनजाने भय से कांप उठा। निश्चय ही पुलिस उसका पीछा करती हुई यहां तक आ पहुंची थी। यह सोचकर वह अपने स्थान से हटकर आगे बढ़ने लगा। उसकी धारणा निर्मूल निकली। पुलिस वाले आगे बढ़ गये थे। वह मुख्य सड़क पर आ गया। सहसा उसकी नजर दो लड़कियों पर पड़ी जो सड़क पार करके एक दूकान की ओर बढ़ रही थीं। न जाने क्यों उसके मन ने कहा कि इन्हीं दोनों को सुधा अनीता होना चाहिये। उसने जल्दी से सड़क पार करने की सोची। परन्तु....!
उसे एक जबरदस्त धक्का लगा....मुंह से चीख निकल गई और वह सड़क पर गिर पड़ा। दोनों ओर का ट्रेफिक रुक गया। लोगों की भीड़ लग गयी।
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मजदरों की यह बस्ती शहर से दर थी। कभी कोई इक्का-दका ब्यक्ति ही इस ओर घूमने निकल आता था। अन्यथा ये लोग जैसे दुनिया से भी बिल्कुल अलग-अलग पड़े थे। इनकी बोल-चाल....रस्म-रिवाज सभी कुछ शहर के लोगों से भिन्न थे। सबेरे ये अपने झोपड़ों से निकलकर काम पाने के लिये शहर में चले जाते थे। दिन भर मजदूरी करते और शाम को वापिस लौट आते थे। यही इन लोगों का जीवन था। अनीता पढ़ी-लिखी थी। शुरू में तो नहीं, परन्तु कुछ दिनों बाद लोग अनीता की इज्जत करने लगे थे। अनीता ने भी अपने को एक दूसरे रूप में बदल लिया था। वह दूसरी झोपड़ियों में जाती और उन मजदूर औरतों को रहने का सलीका सिखलाती। धीरे-धीरे उसका प्रभाव बढ़ने लगा। लोग उसे एक नयी दृष्टि से देखने लगे। पूरी बस्ती में केबल मंगल नामक व्यक्ति ही ऐसा था जो अपने को न बदल सका था। उसकी लोलुप दृष्टि हर समय सुधा की ओर लगी रहती थी। अक्सर वह अपने साथियों से कहता-"तुम कितने भी उसके आगे-पीछे चक्कर लगाओ, वह चिड़िया तुम्हारे जाल में फंसने वाली नहीं है। परन्तु हां, यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं उन दोनों को तुम्हारे कदमों में डाल दूंगा।" दो-चार मनचले उसकी बात को सुनते तो अवश्य, परन्तु अपनी ओर से करते कुछ भी न थे। मंगल के दिल में जो आग सुलग रही थी, वह किसी प्रकार से कम न हो सकी। वह तरह तरह की योजना बनाता और उन्हें स्वयं ही मिटा डालता। कोई भी ठीक युक्ति उसकी समझ में नहीं आ रही थी। वह केवल सोच कर ही रह जाता था। अनीता इस विषय में सब कुछ जानती थी। उसने सुधा को कहीं अकेले भेजना भी बंद कर दिया था। दोनों साथ ही रहतीं। एक दिन सुधा कह बैठी— दीदी, लगता है हमें इस बस्ती को छोड़कर भी कहीं जाना पड़ेगा।"
"क्यों ....?"
"तुम तो स्वयं देखती हो....."
"देखती तो हूं।"
"एक दिन तो मैं यह सोच बैठी थी कि जहां एक खून अनजाने में कर डाला, बहीं एक खून और सही....। मंगल की नीचता मुझसे देखी नहीं जाती।"
"वह तो है सुधा।” अनीता बोली-"परन्तु जब आदमी का समय उसके पक्ष में न हो तो उसे हर बुरे काम से बचना चाहिये। एक ही खून करने का तो यह नतीजा है कि हम दोनों इस हालत में आ पहुंची हैं—पता नहीं फिर क्या होगा....।"
एक-न-एक दिन कुछ होना ही है दीदी। पुलिस की निगाह से भी हम हमेशा तक तो बच नहीं सकतीं। कभी न कभी तो....।"
“यह तो मैं भी सोचती हूं।"
"फिर....?"
“मैं भी जानती हूं कि कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं। हम हमेशा तक उसकी पकड़ से दूर नहीं रह सकतीं। परन्तु इससे पहले में कुछ और सोच रही हूं....।"
"वह क्या....?"
"कोई अच्छा-सा लड़का देखकर तेरी शादी कर दूं।"
“दीदी!" सुधा सहसा ही उदास हो गयी—“तुम्हें ऐसा कुछ कहना नहीं चाहिये जिसे सुनकर हमारी किस्मत हम पर और भी नाराज हो जाये। तुम जानती हो....हमारे जीवन में सुख की घड़ी कभी नहीं आयेगी....और जब तक बड़ी वहन अपने संसार को न संवार ले, तब तक छोटी वहन को सुख से जीने का कोई हक नहीं होता।"
“पगली है तू...." सुधा ने बात बदली—“दीदी, हमें यहां से जाने में क्या बुराई है।"
"बुराई....?"
"हां....मेरा मतलब....मेरा तो इस बस्ती में मन नहीं लगता।"
"ओह....!" अनीता कुछ सोचने लगी। सोचते-सोचते ही उसे नींद ने दबोच लिया। सबेरे दोनों जल्दी उठीं और उठकर लाइन पर कोयला चुनने के लिये चली गयीं। कोयले को बेचकर लौटीं तो दोपहर हो गयी। वहां ठेकेदार को अपनी प्रतीक्षा में बैठे हुये पाया। ठेकेदार, जो कभी मजदूर ही था, अब किस्मत ने उसे इस जमीन का मालिक बना दिया था। वह भी अच्छा आदमी नहीं था। जब भी मिलता, इन दोनों वहनों को घूर-घूरकर देखने लगता। अनीता उसकी बुरी निगाह को देखकर भी अनदेखा कर देती थी। वैसे ठेकदार में कभी इतना साहस नहीं हुआ था कि वह सीमा लांघने की सोचता।
“सोच तो रहा हूं....” उसने एक गहरी सांस ली।
"चलिये फिर....!"
"लेकिन कहां? अभी तो मुझे कुछ भी पता नहीं है।"
"मैं समझ गया बाबू....किसी होटल में?"
"होटल में नहीं। खैर....तुम जाओ.....मैं खुद चला जाऊंगा।" रिक्शा चालक निराश होकर चला गया। वह अपनी मुर्खता पर स्वयं ही मुस्करा दिया। जब उसे इस बात का पता ही नहीं था कि लखनऊ जाकर वह क्या करेगा तो उसे यहां आने की जरूरत ही क्या थी? तभी उसकी नजर दो कांस्टेबिलों पर पड़ी जो उसकी ओर ही आ रहे थे। विनीत के सारे विचार एक साथ ही हवा में उड़ गये। वह एक अनजाने भय से कांप उठा। निश्चय ही पुलिस उसका पीछा करती हुई यहां तक आ पहुंची थी। यह सोचकर वह अपने स्थान से हटकर आगे बढ़ने लगा। उसकी धारणा निर्मूल निकली। पुलिस वाले आगे बढ़ गये थे। वह मुख्य सड़क पर आ गया। सहसा उसकी नजर दो लड़कियों पर पड़ी जो सड़क पार करके एक दूकान की ओर बढ़ रही थीं। न जाने क्यों उसके मन ने कहा कि इन्हीं दोनों को सुधा अनीता होना चाहिये। उसने जल्दी से सड़क पार करने की सोची। परन्तु....!
उसे एक जबरदस्त धक्का लगा....मुंह से चीख निकल गई और वह सड़क पर गिर पड़ा। दोनों ओर का ट्रेफिक रुक गया। लोगों की भीड़ लग गयी।
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मजदरों की यह बस्ती शहर से दर थी। कभी कोई इक्का-दका ब्यक्ति ही इस ओर घूमने निकल आता था। अन्यथा ये लोग जैसे दुनिया से भी बिल्कुल अलग-अलग पड़े थे। इनकी बोल-चाल....रस्म-रिवाज सभी कुछ शहर के लोगों से भिन्न थे। सबेरे ये अपने झोपड़ों से निकलकर काम पाने के लिये शहर में चले जाते थे। दिन भर मजदूरी करते और शाम को वापिस लौट आते थे। यही इन लोगों का जीवन था। अनीता पढ़ी-लिखी थी। शुरू में तो नहीं, परन्तु कुछ दिनों बाद लोग अनीता की इज्जत करने लगे थे। अनीता ने भी अपने को एक दूसरे रूप में बदल लिया था। वह दूसरी झोपड़ियों में जाती और उन मजदूर औरतों को रहने का सलीका सिखलाती। धीरे-धीरे उसका प्रभाव बढ़ने लगा। लोग उसे एक नयी दृष्टि से देखने लगे। पूरी बस्ती में केबल मंगल नामक व्यक्ति ही ऐसा था जो अपने को न बदल सका था। उसकी लोलुप दृष्टि हर समय सुधा की ओर लगी रहती थी। अक्सर वह अपने साथियों से कहता-"तुम कितने भी उसके आगे-पीछे चक्कर लगाओ, वह चिड़िया तुम्हारे जाल में फंसने वाली नहीं है। परन्तु हां, यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं उन दोनों को तुम्हारे कदमों में डाल दूंगा।" दो-चार मनचले उसकी बात को सुनते तो अवश्य, परन्तु अपनी ओर से करते कुछ भी न थे। मंगल के दिल में जो आग सुलग रही थी, वह किसी प्रकार से कम न हो सकी। वह तरह तरह की योजना बनाता और उन्हें स्वयं ही मिटा डालता। कोई भी ठीक युक्ति उसकी समझ में नहीं आ रही थी। वह केवल सोच कर ही रह जाता था। अनीता इस विषय में सब कुछ जानती थी। उसने सुधा को कहीं अकेले भेजना भी बंद कर दिया था। दोनों साथ ही रहतीं। एक दिन सुधा कह बैठी— दीदी, लगता है हमें इस बस्ती को छोड़कर भी कहीं जाना पड़ेगा।"
"क्यों ....?"
"तुम तो स्वयं देखती हो....."
"देखती तो हूं।"
"एक दिन तो मैं यह सोच बैठी थी कि जहां एक खून अनजाने में कर डाला, बहीं एक खून और सही....। मंगल की नीचता मुझसे देखी नहीं जाती।"
"वह तो है सुधा।” अनीता बोली-"परन्तु जब आदमी का समय उसके पक्ष में न हो तो उसे हर बुरे काम से बचना चाहिये। एक ही खून करने का तो यह नतीजा है कि हम दोनों इस हालत में आ पहुंची हैं—पता नहीं फिर क्या होगा....।"
एक-न-एक दिन कुछ होना ही है दीदी। पुलिस की निगाह से भी हम हमेशा तक तो बच नहीं सकतीं। कभी न कभी तो....।"
“यह तो मैं भी सोचती हूं।"
"फिर....?"
“मैं भी जानती हूं कि कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं। हम हमेशा तक उसकी पकड़ से दूर नहीं रह सकतीं। परन्तु इससे पहले में कुछ और सोच रही हूं....।"
"वह क्या....?"
"कोई अच्छा-सा लड़का देखकर तेरी शादी कर दूं।"
“दीदी!" सुधा सहसा ही उदास हो गयी—“तुम्हें ऐसा कुछ कहना नहीं चाहिये जिसे सुनकर हमारी किस्मत हम पर और भी नाराज हो जाये। तुम जानती हो....हमारे जीवन में सुख की घड़ी कभी नहीं आयेगी....और जब तक बड़ी वहन अपने संसार को न संवार ले, तब तक छोटी वहन को सुख से जीने का कोई हक नहीं होता।"
“पगली है तू...." सुधा ने बात बदली—“दीदी, हमें यहां से जाने में क्या बुराई है।"
"बुराई....?"
"हां....मेरा मतलब....मेरा तो इस बस्ती में मन नहीं लगता।"
"ओह....!" अनीता कुछ सोचने लगी। सोचते-सोचते ही उसे नींद ने दबोच लिया। सबेरे दोनों जल्दी उठीं और उठकर लाइन पर कोयला चुनने के लिये चली गयीं। कोयले को बेचकर लौटीं तो दोपहर हो गयी। वहां ठेकेदार को अपनी प्रतीक्षा में बैठे हुये पाया। ठेकेदार, जो कभी मजदूर ही था, अब किस्मत ने उसे इस जमीन का मालिक बना दिया था। वह भी अच्छा आदमी नहीं था। जब भी मिलता, इन दोनों वहनों को घूर-घूरकर देखने लगता। अनीता उसकी बुरी निगाह को देखकर भी अनदेखा कर देती थी। वैसे ठेकदार में कभी इतना साहस नहीं हुआ था कि वह सीमा लांघने की सोचता।