desiaks
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"हां, परन्तु तुम....?"
“मैं अपना नाम उर्मिला बताऊंगी।"
"और कुछ?"
"बस, बाकी मैं देख लूंगी।" वह सुधा के साथ स्टेशन पहुंची। पता चला था कि नजीबाबाद के लिये गाड़ी जा रही थी। झटपट टिकिट लेकर दोनों गाड़ी में बैठ गयीं। जब तक गाड़ी ने स्टेशन न छोड़ा, तब तक वह घबरायी दृष्टि से प्लेटफार्म की ओर देखती रहीं। ऐसा स्वाभाविक ही था।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
रात का समय था। गाड़ी पैसेन्जर थी। इतनी भीड़ नहीं थी। दोनों एक सीट पर थीं, सामने बाली सीट पर एक मोटा-सा व्यक्ति बैठा था, बस। जैसे-तैसे सफर कट गया और गाड़ी नजीबाबाद स्टेशन पर रुकी। दिन निकल आया था। वहां समस्या यह खड़ी हो गयी थी कि कहां और किस प्रकार रहा जाये। "दीदी, शहर भी छोड़ दिया....अब....?" सुधा ने पूछा था।
"रुपये कितने हैं?"
"चार सौ होंगे।" काफी कुछ सोचने के बाद उसने कहा था-"सुन, तू तो एक घण्टे के लिये यहां बेटिंग रूम में बैठ। मुझे रुपये दे, मैं कोई मकान देखकर आती है। और हां, घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है।"
"और मान लिया, पुलिस यहां तक आ गयी तो?"
"पगली! जब तक बचा जाये तब तक बचो। हो सकता है पुलिस हम तक न पहुंच पाये। बस मकान मिल जाये कहीं....।"
"लेकिन जल्दी आना दीदी।"
"तू फिक्र मत कर।"
वह रिक्शा में बैठकर अन्दर शहर में पहुंची थी। कई गलियों के चक्कर लगाने के बाद एक छोटा-सा मकान मिल गया। मकान के दो हिस्से थे, ऊपर और नीचे। नीचे केबल एक बृद्धा रहती थी। बृद्धा ने बताया कि उसके दोनों बेटे बाहर नौकरी करते हैं। उसे बताना पड़ा था कि वह एक माउंटेसरी स्कूल में अध्यापिका है। साथ में उसकी छोटी वहन भी है। वृद्धा ने कुछ अधिक पूछताछ किये बिना उसे चालीस रुपये माहवार के किराये पर मकान दे दिया। उसने एक महीने का अग्रिम किराया भी दे दिया। स्टेशन पहुंचकर वह सुधा को भी बहीं ले आयी थी। काफी कोशिशों के बाद भी उसे कहीं नौकरी न मिल सकी। घर से बाहर निकलते हए भी डरना पड़ता था। क्या पता किसी दिन पुलिस वहां आ धमके। सुधा को तो वह घर से निकलने ही न देती थी। परन्तु उसमें सुधा से कहीं अधिक बुद्धि थी, साहस था।
और एक दिन..... उसने एक दुकान पर अखबार देखा। उसका तथा सुधा का फोटो छपा था। लिखा था तलाश है दो लड़कियों की, जो दो व्यक्तियों की हत्या करके फरार हो चुकी हैं। देखकर वह सहमकर रह गयी थी। शाम के समय उसने इस बात को सुधा को बताया। सुनकर सुधा और भी घबरा गयी। उसने अधीर होकर कहा-"दीदी, इससे तो अच्छा है कि हम अपने आपको पुलिस के हवाले कर दें....। इन तमाम मुसीबतों से तो बच जायेंगे।"
“पागल है तू!"
"क्यों....?"
"साहस खोने से मुसीबतें और भी अधिक बढ़ जाती हैं।"
"फिर....?"
"हम आज रात को इस मकान को भी छोड़ देंगे।"
"फिर...?"
“किसी दूसरी जगह....."
"परन्तु दीदी।" सुधा ने कहा- "आखिर हम इस प्रकार कब तक घूमते रहेंगे?"
"जब तक सांस बाकी है।"
.
.
"मिलेगा क्या?"
"शायद कुछ भी नहीं।"
“मैं अपना नाम उर्मिला बताऊंगी।"
"और कुछ?"
"बस, बाकी मैं देख लूंगी।" वह सुधा के साथ स्टेशन पहुंची। पता चला था कि नजीबाबाद के लिये गाड़ी जा रही थी। झटपट टिकिट लेकर दोनों गाड़ी में बैठ गयीं। जब तक गाड़ी ने स्टेशन न छोड़ा, तब तक वह घबरायी दृष्टि से प्लेटफार्म की ओर देखती रहीं। ऐसा स्वाभाविक ही था।
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रात का समय था। गाड़ी पैसेन्जर थी। इतनी भीड़ नहीं थी। दोनों एक सीट पर थीं, सामने बाली सीट पर एक मोटा-सा व्यक्ति बैठा था, बस। जैसे-तैसे सफर कट गया और गाड़ी नजीबाबाद स्टेशन पर रुकी। दिन निकल आया था। वहां समस्या यह खड़ी हो गयी थी कि कहां और किस प्रकार रहा जाये। "दीदी, शहर भी छोड़ दिया....अब....?" सुधा ने पूछा था।
"रुपये कितने हैं?"
"चार सौ होंगे।" काफी कुछ सोचने के बाद उसने कहा था-"सुन, तू तो एक घण्टे के लिये यहां बेटिंग रूम में बैठ। मुझे रुपये दे, मैं कोई मकान देखकर आती है। और हां, घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है।"
"और मान लिया, पुलिस यहां तक आ गयी तो?"
"पगली! जब तक बचा जाये तब तक बचो। हो सकता है पुलिस हम तक न पहुंच पाये। बस मकान मिल जाये कहीं....।"
"लेकिन जल्दी आना दीदी।"
"तू फिक्र मत कर।"
वह रिक्शा में बैठकर अन्दर शहर में पहुंची थी। कई गलियों के चक्कर लगाने के बाद एक छोटा-सा मकान मिल गया। मकान के दो हिस्से थे, ऊपर और नीचे। नीचे केबल एक बृद्धा रहती थी। बृद्धा ने बताया कि उसके दोनों बेटे बाहर नौकरी करते हैं। उसे बताना पड़ा था कि वह एक माउंटेसरी स्कूल में अध्यापिका है। साथ में उसकी छोटी वहन भी है। वृद्धा ने कुछ अधिक पूछताछ किये बिना उसे चालीस रुपये माहवार के किराये पर मकान दे दिया। उसने एक महीने का अग्रिम किराया भी दे दिया। स्टेशन पहुंचकर वह सुधा को भी बहीं ले आयी थी। काफी कोशिशों के बाद भी उसे कहीं नौकरी न मिल सकी। घर से बाहर निकलते हए भी डरना पड़ता था। क्या पता किसी दिन पुलिस वहां आ धमके। सुधा को तो वह घर से निकलने ही न देती थी। परन्तु उसमें सुधा से कहीं अधिक बुद्धि थी, साहस था।
और एक दिन..... उसने एक दुकान पर अखबार देखा। उसका तथा सुधा का फोटो छपा था। लिखा था तलाश है दो लड़कियों की, जो दो व्यक्तियों की हत्या करके फरार हो चुकी हैं। देखकर वह सहमकर रह गयी थी। शाम के समय उसने इस बात को सुधा को बताया। सुनकर सुधा और भी घबरा गयी। उसने अधीर होकर कहा-"दीदी, इससे तो अच्छा है कि हम अपने आपको पुलिस के हवाले कर दें....। इन तमाम मुसीबतों से तो बच जायेंगे।"
“पागल है तू!"
"क्यों....?"
"साहस खोने से मुसीबतें और भी अधिक बढ़ जाती हैं।"
"फिर....?"
"हम आज रात को इस मकान को भी छोड़ देंगे।"
"फिर...?"
“किसी दूसरी जगह....."
"परन्तु दीदी।" सुधा ने कहा- "आखिर हम इस प्रकार कब तक घूमते रहेंगे?"
"जब तक सांस बाकी है।"
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"मिलेगा क्या?"
"शायद कुछ भी नहीं।"