Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 12 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

"हां, परन्तु तुम....?"

“मैं अपना नाम उर्मिला बताऊंगी।"

"और कुछ?"

"बस, बाकी मैं देख लूंगी।" वह सुधा के साथ स्टेशन पहुंची। पता चला था कि नजीबाबाद के लिये गाड़ी जा रही थी। झटपट टिकिट लेकर दोनों गाड़ी में बैठ गयीं। जब तक गाड़ी ने स्टेशन न छोड़ा, तब तक वह घबरायी दृष्टि से प्लेटफार्म की ओर देखती रहीं। ऐसा स्वाभाविक ही था।
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रात का समय था। गाड़ी पैसेन्जर थी। इतनी भीड़ नहीं थी। दोनों एक सीट पर थीं, सामने बाली सीट पर एक मोटा-सा व्यक्ति बैठा था, बस। जैसे-तैसे सफर कट गया और गाड़ी नजीबाबाद स्टेशन पर रुकी। दिन निकल आया था। वहां समस्या यह खड़ी हो गयी थी कि कहां और किस प्रकार रहा जाये। "दीदी, शहर भी छोड़ दिया....अब....?" सुधा ने पूछा था।

"रुपये कितने हैं?"

"चार सौ होंगे।" काफी कुछ सोचने के बाद उसने कहा था-"सुन, तू तो एक घण्टे के लिये यहां बेटिंग रूम में बैठ। मुझे रुपये दे, मैं कोई मकान देखकर आती है। और हां, घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है।"

"और मान लिया, पुलिस यहां तक आ गयी तो?"

"पगली! जब तक बचा जाये तब तक बचो। हो सकता है पुलिस हम तक न पहुंच पाये। बस मकान मिल जाये कहीं....।"

"लेकिन जल्दी आना दीदी।"

"तू फिक्र मत कर।"

वह रिक्शा में बैठकर अन्दर शहर में पहुंची थी। कई गलियों के चक्कर लगाने के बाद एक छोटा-सा मकान मिल गया। मकान के दो हिस्से थे, ऊपर और नीचे। नीचे केबल एक बृद्धा रहती थी। बृद्धा ने बताया कि उसके दोनों बेटे बाहर नौकरी करते हैं। उसे बताना पड़ा था कि वह एक माउंटेसरी स्कूल में अध्यापिका है। साथ में उसकी छोटी वहन भी है। वृद्धा ने कुछ अधिक पूछताछ किये बिना उसे चालीस रुपये माहवार के किराये पर मकान दे दिया। उसने एक महीने का अग्रिम किराया भी दे दिया। स्टेशन पहुंचकर वह सुधा को भी बहीं ले आयी थी। काफी कोशिशों के बाद भी उसे कहीं नौकरी न मिल सकी। घर से बाहर निकलते हए भी डरना पड़ता था। क्या पता किसी दिन पुलिस वहां आ धमके। सुधा को तो वह घर से निकलने ही न देती थी। परन्तु उसमें सुधा से कहीं अधिक बुद्धि थी, साहस था।

और एक दिन..... उसने एक दुकान पर अखबार देखा। उसका तथा सुधा का फोटो छपा था। लिखा था तलाश है दो लड़कियों की, जो दो व्यक्तियों की हत्या करके फरार हो चुकी हैं। देखकर वह सहमकर रह गयी थी। शाम के समय उसने इस बात को सुधा को बताया। सुनकर सुधा और भी घबरा गयी। उसने अधीर होकर कहा-"दीदी, इससे तो अच्छा है कि हम अपने आपको पुलिस के हवाले कर दें....। इन तमाम मुसीबतों से तो बच जायेंगे।"

“पागल है तू!"

"क्यों....?"

"साहस खोने से मुसीबतें और भी अधिक बढ़ जाती हैं।"

"फिर....?"

"हम आज रात को इस मकान को भी छोड़ देंगे।"

"फिर...?"

“किसी दूसरी जगह....."

"परन्तु दीदी।" सुधा ने कहा- "आखिर हम इस प्रकार कब तक घूमते रहेंगे?"

"जब तक सांस बाकी है।"
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"मिलेगा क्या?"

"शायद कुछ भी नहीं।"
 
“तब इस प्रकार भटकने की क्या जरूरत है? किसी न किसी दिन तो हमें गिरफ्तार होना ही है, क्यों न हम....."

"मुझे सोचने दे।” काफी देर तक सोचने के बाद उसने कहा—"हम रात की गाड़ी से लखनऊ चलेंगे।"

"फिर...!"

"काफी बड़ा शहर है....आसानी से छुप जायेंगे।"

"जैसी तुम्हारी मर्जी दीदी।” सुधा के स्वर में निराशा थी—"मुझे तो लगता है कि जैसे हमारी सारी भाग-दौड़ बेकार ही है।"

"तू तो बड़ी जल्दी निराश हो जाती है।"

"फिर क्या करूं?"

"साहस रख....होगा तो बही जो भाग्य में होगा। लेकिन हमें अपनी ओर से भी कोई कसर नहीं उठा रखनी चाहिये।"

"ठीक है दीदी।" और उसी रात उन्होंने उस मकान को छोड़ दिया। वृद्धा को पता भी न चला था। स्टेशन पर लखनऊ के लिए गाड़ी तैयार मिल गयी थी। जैसे-तैसे सफर कटा था। सबेरे बे लखनऊ पहुंची थीं। वह स्टेशन से बाहर आकर यह सोच रही थीं कि अब क्या किया जाये। तभी एक लम्बे से कद का ब्यक्ति उनके पास आकर खड़ा हो गया था। उसने चुभती नजरों से बारी-बारी से दोनों वहनों की ओर देखा था।

"आपका नाम...."

“जी....?" वह बुरी तरह चौंकी थी।

“मैं केबल नाम पूछ रहा हूं।"

"क्यों....?
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"मैडम!" उस व्यक्ति ने इधर-उधर देखते हये कहा था-"अधिक चालाकी अच्छी नहीं होती। आपका नाम सुधा और अनीता है....।"

"क्या....?" वह जैसे ऊपर से गिरी थीं।

व्यक्ति धीरे से हंसा था—“मैं तुम दोनों के विषय में सब कुछ जानता हूं। तुम दोनों ने एक एक खून किया था। तुम दोनों फरार हो तथा पुलिस तुम्हारा पीछा कर रही है। बोलिये....क्या मैं जो कुछ कह रहा हूं....वह सब झूठ है।"

"ज....जी....।" वह भी अपना साहस खो बैठी थी।

"साफ बताइये....."

“परन्तु.....” उसने विवश दृष्टि से उसकी ओर देखा था।

"घबराइये मत, मैं पुलिस का आदमी नहीं हूं। एक बात और सुन लो....पुलिस यहां भी तुम्हारी खोज कर रही है।"

"ओह....!'' दोनों वहनों ने एक-दूसरे की ओर देखा था। उस समय वह इस बात को नहीं समझ सकी थी कि वह व्यक्ति कौन था और उनसे क्या चाहता था। यह तो निश्चित था कि उसने उन दोनों को पहचान लिया था। “सुनिये...."

"आप दोनों पुलिस के हाथों से बच सकती हैं।"

"केबल एक तरीका है।"

“वह क्या...?" उत्सुकता से उसने पूछा।

"मैं तुम दोनों वहनों का मेकअप कर दूंगा। मैं तुम्हें एक-एक फेसमास्क दे दूंगा। मेरा मतलब चेहरे पर लगाने वाली झिल्ली।"

"परन्तु....!"
 
"और बदले में तुम दोनों को मेरा काम करना पड़ेगा....."

“यानि....।"

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"कोई बुरा काम नहीं, इस बात का भी मैं बचन देता हूं कि तुम दोनों वहनों की इज्जत पर कभी आंच नहीं आयेगी। मेरा एक छोटा-सा धन्धा है।"

वह कुछ सोचने लगी थी। पता नहीं उसका क्या धंधा था? उसने इशारों ही इशारों में सुधा की ओर देखा था, जैसे कि पूछ रही हो, क्या इरादा है? इशारों में ही सुधा ने बताया था कि दीदी, फिलहाल तो पुलिस से बचो। बाद में कुछ और सोचा जायेगा....।

उस व्यक्ति ने फिर कहा था-"मैं समझता हूं, सोचने का समय न तो तुम्हारे पास ही है और न मेरे ही पास। यदि पुलिस की दृष्टि तुम पर पड़ गयी तो उस हालत में मैं भी तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकूँगा.....बोलो....."

"हम तैयार हैं......" सनकर उस व्यक्ति की आंखों में चमक आ गयी थी। उसने तरन्त ही संकेत से एक टैक्सी ड्राईबर को टैक्सी लाने के लिये कहा था। टैक्सी में बैठने से पहले उसने उनसे कहा था

"सुनो, तुम लोग अपनी सीट पर जरा झुककर बैठना।" टैक्सी उन दोनों को लेकर चल पड़ी। खिड़कियों के पर्दे सरका दिये गये। वह व्यक्ति आगे चालक के पास बैठा था।

सुधा बहुत ही घबरायी हुई थी। उसने उसे सांत्वना देते हुए कहा था—“घबराती क्यों है पगली? जो कुछ होगा देखा जायेगा....।"

"दीदी, पता नहीं....."

“सब कुछ ठीक हो जायेगा।"

"मेरा मतलब यह ब्यक्ति हमसे चाहता क्या है?"

“वह भी सामने आ जायेगा।" उसने कहा था। सुधा खामोश हो गयी थी। लगभग पौन घण्टे तक शहर की विभिन्न सड़कों के चक्कर काटने के बाद टैक्सी एक छोटे से होटल के सामने रुकी। टैक्सी का भाड़ा देने के बाद वह व्यक्ति उन दोनों को लेकर होटल के अन्दर दाखिल हो गया। सुधा का तो मारे घबराहट के बुरा हाल था। परन्तु किसी प्रकार अपने को संभाले हुई थी। घबरा तो वह भी रही थी, पता नहीं अभी जिन्दगी किस मोड़ पर जाकर रुकेगी। उसके भाग्य में अभी और क्या बदा है? उस समय तरह-तरह के विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे। बहुत-सा आशंकायें थीं। वह ब्यक्ति उन दोनों को लेकर एक कमरे में पहंचा— बैठिये।" उसने सामने पड़े सोफे की ओर संकेत किया। फिर बोला-"सबसे पहले तुम लोग कुछ खा पी लो। इसके बाद आराम से बैठकर सारी बातें की जायेंगी। बैसे तुम्हारी मजबूरी का गलत फायदा नहीं उठाया जायेगा।"

वह आश्वस्त तो खैर नहीं हुई थी क्योंकि उसे अनुभव था कि इस दुनिया में प्रत्येक इन्सान दूसरे की मजबूरी का लाभ उठाना चाहता है। बेटर नाश्ता लगा गया था। सुधा की तो इच्छा भी नहीं थी, परन्तु उसके कहने पर उसे खाना पड़ा था। उसने खाने में कोई बुराई नहीं समझी। इसके बाद उस व्यक्ति ने कहा था-"पहले मैं तुम्हें अपना परिचय दे दूं। मेरा नाम रतन कुमार है। तुम मुझे सिर्फ रतन कह सकती हो। मैं तुम दोनों का चेहरा तथा कपड़े बगैरह सब बदल दूंगा।"

"फिर हमें क्या करना पड़ेगा?"

"बताऊंगा।” रतन ने कुछ न कहकर कहा-"मैं तुम दोनों के लिये एक छोटा-सा मकान किराये पर ले दूंगा। तुम्हें पैसे सम्बन्धी किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होगी।"

"और काम....?"

“वह क्या होगा?" उसके कहने से पहले ही सुधा ने पूछा था।

"तुम दोनों सबेरे तैयार होकर घर से निकला करोगी। तुम दोनों को ऐल्यूमीनियम के बर्तन बेचने का काम करना पड़ेगा।"

"बर्तन बेचने का....?"

"हां, परन्तु बर्तन बेचोगी नहीं। बर्तनों के नीचे टोकरी में छोटी-छोटी चार-पांच थैलियां होंगी। तुम्हें उन थैलियों को विभिन्न स्थानों पर देना होगा। काम समाप्त करके अपने स्थान पर आ जाया करोगी। इसके बाद पूरे दिन की छुट्टी और रात का आराम। मेरा एक आदमी तुम्हारे पास प्रतिदिन उन थैलियों को पहुंचा दिया करेगा।"

सुनकर वह कुछ सोचने लगी। उसे रतन की कही गई बात पर गहराई से विचार करना था। उसने सुधा की ओर देखा। "तुम्हारा क्या ख्याल है?"

"देख लो दीदी....काम तो बुरा नहीं है। ऐसी कोई दिक्कत भी नहीं है। और फिर हमें कहीं न कहीं तो ठिकाना देखना ही है।"

"ठिकाना ही नहीं।" रतन ने कहा था-"तुम दोनों की जिम्मेदारी मेरे ऊपर रहेगी। इसके अलावा तुम्हें किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होगी।"

"और पुलिस?"

"उसके पहचानने का तो सबाल ही पैदा नहीं होता। भई, तुम दोनों के चेहरों को बड़ी ही होशियारी से बदल दिया जायेगा।"

"कैसे....?”

"फेस मास्क द्वारा....मेरे पास है। मैं दिखलाता हूं...." कहकर रतन बाहर चला गया था। लौटने पर उसने अपने कोट की जेब में से एक रबर की झिल्ली निकालकर उसकी ओर बढ़ायी थी।

सुधा के चेहरे पर लगाकर देख लो....तुम्हारा रहा-सहा भय भी जाता रहेगा।" वह तो नहीं लगा सकी थी। उस काम को रतन ने ही किया था। उसने मास्क चढ़े हुये सुधा के चेहरे की ओर देखा था। देखकर वह आश्चर्य में डूब गयी थी। मास्क के कारण सुधा की सूरत एकदम बदल गयी थी। वह अधेड़ तथा कुरूप औरत दिखलाई दे रही थी।

सधा ने दर्पण में अपनी नई शक्ल को देखा था। देखकर उसकी धुंधली आंखों में चमक आ गयी। उसने कहा—“यह तो कमाल की बात है दीदी। भला इस सूरत में कोई मुझे लड़की बता सकेगा।"

"बिल्कुल नहीं।” रतन ने कहा।

“तब इनकी बात मान लेने में क्या हर्ज है?"

“कुछ नहीं।” उसने कहा था— रतन साहब, आप मकान का प्रबंध करा दीजिये....मैं तैयार
"शाम तक सब कुछ ठीक हो जायेगा।"
 
उसी दिन शाम को शहर के एक मुहल्ले में उन्हें मकान दिलवा दिया गया। मकान था तो छोटा ही, परन्तु बिल्कुल अलग था। रतन ने साथ आकर सब कुछ समझा दिया था। अल्यूमीनियम के बर्तन भी ला दिये थे और फिर जिंदगी का दूसरा रूप शुरू हो गया। काम कोई मुश्किल न था। सवेरे दोनों वहनें। टोकरे लेकर अलग-अलग रास्तों पर चली जाती तथा दोपहर तक ही वापिस आ जाती थीं। कोई विशेष बात सामने नहीं आयी थी। उन छोटी-छोटी थैलियों में क्या होता था, इस विषय में उन्हें कुछ भी पता न चला था। कुछ और जानने की जरूरत भी नहीं समझी थी।
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परन्तु उस दिन....। शाम के समय रतन का आदमी आया था। बेहद घबराये हुये स्वर में उसने बताया था ____"आप लोग इसी वक्त इस मकान को छोड़कर चली जाओ।"

"क्यों....?” दोनों ने एक साथ पूछा था।

"पुलिस ने होटल पर छापा मारकर रतन को गिरफ्तार कर लिया है।"

"ओह...."

जल्दी करो....इसी बक्त।” उस दिन उन्हें उस मकान को भी छोड़ना पड़ा। परेशान सी दोनों वहनें गोमती के किनारे पर आकर बैठ गयीं। भाग्य की ऐसी बिडम्बना कभी सुनने को भी न मिली थी। बार-बार मस्तिष्क में यही प्रश्न चक्कर काटता था, अब क्या होगा? बेहद सुस्त और उदास बे दोनों रात की खामोशी में गोमती की लहरों को देख रही थीं। सारे में गहरा सन्नाटा था। सधा ने खामोशी को तोड़ा था—"दीदी, क्या दुनिया भर की मुसीबतें हमारे भाग्य में ही लिखी हैं? जहां जाते हैं, मुसीबतें पीछा नहीं छोड़तीं।"

"हां....!"

"पता नहीं अभी और क्या-क्या देखना है।"

"जो भी बढ़ा होगा वह सब तो देखना ही पड़ेगा सुधा। देखना यह है कि किस्मत हम दोनों को कहां ले जाकर पटकेगी।"

"वैसे पुलिस तो हम दोनों को पहचान नहीं सकेगी।” सुधा ने कहा था।

"हां, परन्तु बदकिस्मती तो हमें अच्छी तरह से पहचानती है। वह भला हमारा पीछा क्यों छोड़ेगी? जन्म से साथ जो रही है।"

ठीक कहती हो दीदी।” सुधा ने कुछ रुककर कहा—“तब हम एक काम क्यों न करें....."

"क्या...?"

"सामने नदी है....!"

"तो....?"

"क्यों न हम दोनों अपने को समाप्त कर डालें। सारी मुसीबतें कुछ ही देर में समाप्त हो जायेंगी....हमें सदा-सदा के लिये सुख की नींद मिल जायेंगी। और दीदी, इसके अलावा किया भी क्या जा सकता है? मैं तो समझती हूं कि किस्मत को यही मंजूर था।"

"सोचती तो मैं भी यही हूं सुधा।" उसने कहा-"परन्तु केवल सोचने से क्या होता है? और फिर क्या पता मरकर भी शांति मिले, न मिले....."

“मरकर तो सभी को शांति मिलती है दीदी....!"

"नहीं सुधा।” उसने कहा था- "इस तरह मरना कायरता होगी। मौत के इर से ही तो हम इधर-उधर भटक रहे हैं। यदि मौत का डर न होता तो हम अपने आपको उसी समय पुलिस के हवाले न कर देतीं? परन्तु नहीं, तू जानती है मैं मरना क्यों नहीं चाहती....?"

"क्यों....?" “इसलिये कि मुझे तेरे लिये जिंदा रहना है। मुझे तो अपने जीवन में सिवाय घुटन और मुसीबतों के कुछ मिला नहीं। मैं नहीं चाहती कि तू भी जिंदगी भर मेरी ही तरह घुटती रहे....तुझे भी कहीं चैन न मिले। मैं तेरे लिये बहुत कुछ सोच रही हैं। तेरी शादी करूं....तेरा संसार संबर जाये। इसके बाद चाहे बला से मुझे फांसी हो जाये....."

“दीदी.....”

"हां सुधा....मैं तुझे दुःखी नहीं देख सकती।” उस समय भाबातिरेक में उसकी आंखों से कई बूंद आंसू निकलकर गालों पर वह निकले थे। रात के अंधेरे में सुधा उसकी भीगी पलकों को न देख सकी थी। उस ओर पुल था। रात की खामोशी में उस पर गाड़ियां आ-जा रही थीं। तभी उसे ध्यान आया था कहीं पुलिस की दृष्टि उन पर न पड़ जाये। यही सोचकर वह बुरी तरह से कांप उठी थी। उसने कहा था-"चल सुधा।"

"कहां....?"

"कहीं भी....हमारा यहां बैठना खतरे से खाली नहीं है। यदि पुलिस की नजर पड़ गयी तो और भी मुसीबत खड़ी हो जायेगी।"
 
"ओह....." उठकर दोनों गोमती के किनारे-किनारे आगे को बढ़ने लगी थीं। एक ओर खामोशी में सोया हुआ शहर तथा दूसरी ओर गोमती की लहरें....चारों ओर फैला हुआ रात का सन्नाटा। सब कुछ बड़ा भयानक-सा लग रहा था। सामने रेलवे लाइन थी। दोनों को ठिठककर रुक जाना पड़ा था। पुल से धड़धड़ाती हुई गाड़ी शहर की दिशा में जा रही थी। गाड़ी निकल गयी तो फिर दोनों आगे बढ़ी थीं। एक मील के लगभग आगे बढ़ी थीं,सामने कुछ झोंपड़ियां दिखलायी दे रही थीं। आगे बढ़ने में भी खतरा था। बाकी रात उन्होंने वहीं झाड़ियों में बैठकर बितायी थी। सबेरे एक मजदूर औरत ने उन पर रहम खाया था। उसने ठेकेदार से कहकर एक झोंपड़ी उन्हें भी दिलवा दी थी। जगह पर ठेकेदार का कब्जा था, अतः किराये के बीस रुपये पेशगी देने पड़े थे। फिर जिंदगी का रूप बदला। उन मजदूरों के साथ में रहकर सुख भी मिला और शांति भी। जिंदगी वह चली। अब तक वही क्रम है।

"दीदी.....!" सुधा की आवाज सुनते ही अनीता की विचारधारा टूट गयी। वह अपने अतीत के साथ बुरी तरह से उलझकर रह गयी थी। समय का कुछ भी पता न चला था, यह भी पता न चला था कि सुधा कब से वहां खड़ी है। उठकर उसने अपनी वहन की ओर देखा। उसकी धुंधली और उदास आंखों में चमक आ गयी थी। सोचने लगी, क्या यह समय की निर्दयता नहीं है? सुधा ने उसे खामोश देखकर पूछा-"तुम क्या सोचने लगीं दीदी?"

"कुछ नहीं।” अनीता के सूखे अधरों ने मुस्कराने की कोशिश की, परन्तु कामयाबी नहीं मिली—“अन्दर आ जा....। देख, पसीना कितना आया है तुझे! पोंछ दूं....।"

सुधा अन्दर आकर अनीता के पास ही बैठ गयी। अनीता ने अपने आंचल से उसके चेहरे के पसीने को पोंछा और फिर उसके माथे को चूम लिया। अकस्मात ही उसकी आंखें भर आईं। सुधा से उसकी यह मनोदशा छुपी न रह सकी। वह तुरन्त बोली-“दीदी....."

"हां....।

" "क्या बात है...?"

अनीता ने अपने आंसुओं को अन्दर ही अन्दर पी लिया। मुस्कराने का प्रयत्न करते हये बोली-“बात कुछ नहीं। हां....कल सेतु इतनी देर मत लगाया कर। मेरी आंखें तुझे ही देखती रहती हैं....। न जाने क्या-क्या सोचने लगती हूं मैं....!"

“बेकार को सोचने लगती हो दीदी। यदि तुम्हारी सुधा ऐसी होती तो....!"

"सुधा, जमाने का क्या भरोसा....."
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तभी सुधा को कुछ ध्यान आया। उसने अपनी धोती की गांठ में बंधी दो गोलियां निकालकर अनीता के हाथ पर रख दीं- "बुखार की हैं....गली बाले डॉक्टर के पास गयी थी।"

“पागल है तू....बेकार ही पैसे खर्च कर दिये। मैं तो यूं ही ठीक हो जाती।"

"नहीं दीदी।" सुधा ने पानी दिया। गोली खाकर अनीता लेट गयी। सुधा को अभी खाने के लिये कुछ बनाना था। अतः वह अपने काम में व्यस्त हो गयी। लेटते ही अनीता की आंखों के सामने फिर अतीत की घटनायें घूमने लगीं। सैकड़ों मोड़ों से गुजरती हुई उन दोनों वहनों की जिंदगी कहां से कहां पहुंच गयी थी। अभी आगे का भी क्या पता था, मंजिल कहां मिलेगी। सुवह....शाम और रात के दायरे में चक्कर काटता हुआ समय ही अनीता तथा सुधा का जीवन बन गया था। वहीं काम, एक घुटन और विगत की ओर से आते हुये विचार। दोनों सोचतीं और कभी-कभी अपने आंसुओं को बहाकर संतोष कर लेतीं। अक्सर विनीत की बातें करते-करते रात ढल जाती। दोनों जी भरकर रोतीं। अब इन दोनों को रतन के दिये हुये मास्क लगाने की कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। मैले कुचैले कपड़ों में लिपटी इन दोनों वहनों को देखकर कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि ऊपर से उदास और खामोश दीखने वालीं ये लड़कियां किसी का खून भी कर सकती हैं। हां, बस्ती में इन दोनों के विषय में लेकर कभी-कभी काना-फूसी होने लगती थी। लेकिन किसी में इतना साहस न था कि इनके मुंह पर कोई कुछ कह पाता। वह इसलिये कि एक बार इसी तरह की बात पर अनीता ने एक मजदूर के गाल पर थप्पड़ मार दिया था। उस दिन के बाद किसी में इतना साहस नहीं हुआ था कि इनके सामने कुछ कह देता। आज दीवाली थी। अपनों के नाम पर दोनों वहनें बैठी हुई आंसू बहा रही थीं। कौन किस को धैर्य बंधाता? भावों का बांध टूटने पर साहस जैसे वहकर बहुत दूर चला गया था, जिनकी जिंदगी में शुरू से ही मुसीबतों के तूफान चल रहे हों, उनके लिये दीवाली क्या लेकर आयेगी। अन्त में बड़ी होने के नाते अनीता ने अपने आंसुओं को पोंछकर सुधा के आंसू पोंछे और उसे अपने सीने से लगा लिया।

"रो मत....!"

"दीदी....!"

"सुन यदि हमने जिंदगी से हार मान ली तो हमारे पास आज जो भी सांसं शेष हैं, वे भी टूट जायेंगी। रोना छोड़ दो और साहस से काम लो।"

“न जाने भइय्या कहां होंगे दीदी...."

क्या पता!” अनीता ने गहरी सांस लेकर कहा-"अब विनीत भइय्या को याद करने से भी क्या मिलेगा....चल उठ।"

"दीदी....."

"आज दीवाली है। लोग अपने घरों की सफाई कर रहे हैं, हमारी झोंपड़ी में सफाई करने को रखा ही क्या है। हां, कल दिन के मैले कपड़े पड़े हैं।"

*"मैं धो लाऊंगी दीदी।"

“नहीं, तू बाजार से कुछ सामान ले आना। कपड़े मैं धो लाऊंगी।"

"दीदी, न जाने क्यों मुझे बाजार जाते हुये डर-सा लगता है। पुलिस के किसी भी आदमी को देखकर बुरी तरह घबरा उठती हूं।"

अनीता ने सुधा की ओर देखा-"पगली! अब तो पुलिस वालों ने उस केस को ही भुला दिया होगा। खैर, बाजार में चली जाऊंगी।"

थोड़ी देर बाद सुधा कपड़ों की गठरी लेकर गोमती के किनारे पहुंची। सुवह का समय था, सूरज की चटकीली धूप बड़ी प्यारी लग रही थी। सहसा ही उसकी दृष्टि दांयी ओर सड़क पर से गुजरते हए एक जोड़े पर पड़ी। दोनों एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर चले जा रहे थे। देखकर उसका अन्तर्मन कसमसाकर रह गया, वह जवान थी, जबानी उसके बदन से फूट-फूटकर निकल रही थी। उसके मन में कुछ भाबनायें थीं, कुछ उमंगें थीं। परन्तु बक्त ने जैसे सभी कुछ जलाकर रख दिया था। सांसें भी बोझ बन रही थीं। उसने जबरन अपनी दृष्टि को उस ओर से खींच लिया और अपने काम में व्यस्त हो गयी। तभी वह चौंकी। किसी पुरुष की छाया पानी में पड़ी थी। चौंककर वह पलटी। बस्ती का मंगल बहां खड़ा था। मंगल अभी कुंआरा था। बस्ती के लोग उसे दादा भी कहते थे। सुधा जानती थी कि वह अच्छा आदमी नहीं है। वह उठकर खड़ी हो गयी। भीगी हुई धोती अभी तक उसके हाथ में थी। साहस करके उसने पूछा-"क्या बात है....?"
 
मंगल और भी करीब आ गया। उसने सुधा के चेहरे पर एक भरपूर दृष्टि डाली। मोटे और भद्दे होंठ खुले–“तुम्हें देखने चला आया....."

"कभी देखा नहीं था?"

"देखा था....लेकिन तूने मुझे कहां देखा था?"

“मैं अंधी नहीं हूं, समझे!” सुधा ने गुस्से में कहा-“चल फूट यहां से!"

"तेरा गुस्सा भी कितना प्यारा लगता है सुधा....।" मंगल ने चहककर कहा-"जिस दिन तू इस बस्ती में आयी थी, मैं तो तुझ पर उसी दिन मर मिटा था। लेकिन तूने तो आज तक बात ही न की थी। ऐसी भी क्या नाराजगी है?"

"देख मंगल!" सुधा ने उसे समझाते हुए कहा—“बस्ती की दूसरी छोकरियों की बात मैं नहीं कहती परन्तु मैं ऐसी-बसी लड़की नहीं हूं..... चल यहां से।"

"सुधा, मैं इतना बुरा लगता हूं क्या?" मंगल ने अपना सीना फुलाकर पूछा।

“तू अच्छा है या बुरा, मुझे क्या? मुझे काम करने दे।"

मंगल ने हाथ बढ़ाकर उसके हाथ से धोती को छीन लिया। बोला- अब यह नाराजगी नहीं चलेगी जानी। क्या ख्याल है....?"

मंगल मैं फिर कहती हूं....यदि ज्यादा तंग करेगा तो...."

"तो....तो क्या होगा?" “मैं तेरा मुंह नोच लूंगी, समझे।"

मंगल असाबधान था। सुधा ने उसके हाथ से धोती छीन ली।

अपने कपड़े उठाकर वह कुछ और आगे बढ़कर धोने लगी। मंगल ने अपने चारों ओर एक दृष्टि डाली। उसे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि वहां आस-पास कोई न था।

वह फिर आगे बढ़ा। इस बार उसने फुर्ती से सुधा की कलाई पकड़ ली। सुधा ने बिजली जैसी फुर्ती से पलटकर अपनी कलाई छुड़ा ली, साथ ही मंगल के गाल पर एक भरपूर थप्पड़ जमा दिया। साथ ही गुस्से में फुफकारती हुई बोली—"बड़ा आया छैला कहीं का? मुझे भी कोई बाजारू औरत समझ लिया है....।"

“बाजारू नहीं है तो बना दूंगा जानी।" मंगल ने कहा-"मंगल ने जिस पर भी हाथ रखा है उसे अपना बनाकर ही छोड़ा है....."

“बस्ती की दूसरी छोकरियों की बात कर रहा है?"

"तू भी तो बस्ती से अलग नहीं है।" कहकर मंगल ने फिर उसकी कलाई को पकड़ लिया। इस बार पकड़ मजबूत थी। सुधा ने अपने आपको छुड़ाने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु असफल रही।

“तू मेरा हाथ नहीं छोड़ेगा?"

"नहीं...."

"मैं कहती हूं....." मंगल ने उसकी बात काटकर कहा—“तेरे कहने से क्या होता है? होता तो बही है जो मंगल चाहता है। आज भी बही होगा....."

"क्या....?" हताशा से उसके मुंह से निकल गया।

"जो कुछ भी मेरे मन में है....."

सुधा ने फिर जोर लगाया, परन्तु मंगल की पकड़ मजबूत थी। उसने विवश सी दृष्टि से अपने चारों ओर देखा। बस्ती दूर थी....सड़कें बीरान सी नजर आ रही थीं। आस-पास कोई न था।

मंगल ने फिर कहा-"देखती क्या है जानी, आज यहां तक कोई नहीं आयेगा। अपने आपको चुपचाप मेरे हवाले कर दे....."

"कमीने....।" वह गरजी।

"कुछ भी कर ले सुधा....आज तो कुछ न कुछ होकर ही रहेगा।" मंगल ने उसकी कलाई को एक झटका दिया। सुधा अपना संतुलन न सम्भाल पायी और नीचे गिर पड़ी। यहीं, सुधा को एक अवसर मिल गया। मंगल द्वारा पकड़ी हुई कलाई छुट
गयी थी। वह फिर बिजली जैसी फुर्ती से उठी। परन्तु मंगल उसे छोड़ने वाला नहीं था। उसने उसे फिर दबोचना चाहा। सुधा ने एक पलटा खाया और वह पानी में गिर पड़ी। मंगल किनारे पर अबाक बना खड़ा रहा। सुधा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। मंगल ने फिर कहा- "सुधा, तेरी सारी कोशिशें बेकार हैं। मैंने पहले ही बताया था कि मंगल जो चाहता है, वह हर हालत में पूरा होकर रहता है।"

"शैतान...।" वह जैसे चीख उठी।
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"बड़ा प्यारा नाम निकाला है तूने तो....."

"मंगल, मैं कहती हूं कि मेरे रास्ते में मत आ....। यदि दीदी को पता चल गया तो बे तेरा खून कर देंगी।"

"जैसे कि खूनी हैं तेरी दीदी।"

"हां....!" अचानक उसके मुंह से निकल पड़ा। बाद में उसे अहसास हुआ कि उसे दीदी के विषय में ऐसा नहीं कहना चाहिये था।

"तेरी दीदी जैसे औरतें न जाने कितनी देखी हैं मैंने। किसी दिन दाब पड़ गया तो उसे भी....।"
 
"कमीने....कुत्ते....!"

"खैर।" मंगल ने पता नहीं क्या सोचकर कहा- "आज तो मैं तुझे छोड़ रहा है। परन्तु देखना....मंगल तुझे अपनी बनाकर ही रहेगा।" कहकर मंगल चला गया।

सुधा ने संतोष की सांस ली। पानी से बाहर आकर वह देर तक बैठी रोती रही। अपनी मजबूरियों पर....अपने भाग्य पर। गीले कपड़े उसी प्रकार पड़े थे। उसे इस बात का भी ध्यान न रहा था कि दीदी उसकी राह देख रही होंगी। उसके मन में बार-बार यही बात आयी, काश आज के दिन विनीत भैया होते....। आहट पाकर वह चौंकी। पलटकर देखा, अनीता खड़ी थी। उसने जल्दी से अपने आंसुओं को पोंछा तथा उठकर बोली ____"दीदी! तुम....।"

"हां सुधा, मैं बाजार से लौट भी आयी। परन्तु तू....। क्या बात है, अभी तो तूने कपड़े भी नहीं धोये? त....तु रो क्यों रही है....?" अनीता ने पूछा। उसकी दृष्टि सुधा की गीली आंखों पर जमकर रह गयी थी। भावों का बांध टूट गया। सुधा अनीता से लिपटकर फफककर रो उठी। अनीता उसके रोने का कारण न समझ सकी।

"क्या बात है सुधा? बोल....मुझसे बता....."

“दीदी..."

"हो....हां....बोल....."

"मंगल मुझे तंग करने आया था....बड़ी मुश्किल से अपने आपको बचा पायी हूं। तुम्हारे आने से कुछ देर पहले ही....."

"वही बस्ती बाला?"

“हां दीदी....!"

“खैर।” अनीता ने कुछ सोचकर कहा-“मैं सब कुछ ठीक कर लूंगी। तू कपड़ों का काम खत्म कर...." दोनों वहनों ने मिलकर भीगे हुये कपड़ों को धोया और उन्हें लेकर चल दीं। रास्ते भर अनीता, सुधा के विषय में ही सोचती रही थी। उसे अपनी इतनी चिन्ता नहीं थी जितनी कि सुधा की। झोपड़ी में आकर अनीता ने कहा-"सुधा, तू कल से कहीं भी अकेली मत जाया कर।"

“परन्तु दीदी, फिर काम किस तरह चलेगा?"

"जैसे भी चलेगा, चल ही जायेगा। यहां बस्ती के कुछ आदमियों की आदत अच्छी नहीं है। समय को टाल देना ही अच्छा है।"

सुधा ने और कुछ नहीं कहा। बेमन-सी दोनों घर की झाड़-पौंछ में लग गईं। बस्ती में एक उत्साह था, लोग शाम होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन सुधा और अनीता, इन दोनों के दिन और रात में कोई भी अन्तर न था। जो जिन्दगी हर बक्त दुःखों के नीचे पिसती हो....जो जबानी केबल आह भरकर रह जाती हो....उसे दीवाली से भला क्या मिलने वाला था....| शाम हुई. झोपड़ियों के आगे टंगे हये कन्डील रोशन हो गये। चारों ओर बिखरी हुई रोशनी मुस्करा उठी। बच्चों की खिलखिलाहट.... एक ओर से दूसरी ओर तक गूंजती हुई किलकारी और उसमें पटाखों की आवाज, शहर से अलग-थलग की यह बस्ती प्रसन्नता में डूब गयी। उस कोने से तीसरी बाली झोंपड़ी....उसमें रहने वाले शायद यह नहीं जानते थे कि आज दीवाली है। लोग अपनी खुशियों की तुलना दीयों की लौ से कर रहे हैं। केबल एक दीया टिमटिमा रहा था। हवा के झोंके के साथ कभी लौ बढ़ जाती और कभी ऐसा लगता, जैसे यह दीपक हमेशा-हमेशा के लिये बुझ जायेगा। अनीता की आंख से टपककर आंसू की एक बूंद दीये में गिरी। लौ एक बार फिर कमजोर पड़ गयी।

सुधा ने करीब आकर कहा-"भइय्या के दीपक में तेल और भर दो दीदी....रात भर जलता रहेगा। नहीं तो दीवाली मां नाराज हो जायेंगी....।"
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विनीत के कदम जैना होटल की ओर बढ़ गये। सब बातों से अलग इस समय उसका मस्तिष्क केबल सुधा और अनीता के विषय में सोच रहा था। उन्होंने दो खून किये थे, पुलिस शहर के चप्पे-चप्पे में उनकी खोज कर रही थी। दोनों फरार थीं। उसके विचारानुसार उसकी वहनों ने जो कुछ किया था, वह बुरा नहीं था। एस.पी. साहब ने बताया था कि वे दोनों अक्सर जैना होटल में आती हैं। यह बात उसे तर्कसंगत नहीं लगी थी। यदि ऐसा होता तो पुलिस उन्हें कभी भी गिरफ्तार कर सकती थी। जरूर पुलिस किसी गलतफहमी में थी। परन्तु नहीं, वह अपने को नहीं रोक पा रहा था। उसके कदम तेजी से होटल की ओर बढ़ रहे थे। सहसा किसी ने उसे पुकारा। उसी का नाम था। उसने रुककर पीछे की ओर देखा, अर्चना तेजी से उसकी ही ओर चली आ रही थी। जी में आया कि चल दे। आखिर उसे अर्चना से लेना ही क्या है? परन्तु वह ऐसा न कर सका। अर्चना उसके करीब आ गयी। पैदल आने के कारण उसकी सांस फूल रही थी। उसने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाते हुये कहा—"विनीत....।"

"अर्चना तुम....!"

“विनीत , क्या बास्तब में इतने निर्दयी हो तुम....?"

“यह तुमने कैसे कहा.....?"

"मझे छोड़कर जो चले आये। तुमने यह नहीं सोचा कि जो तुम पर मर मिटा है, तुम्हारे पीछे उसके दिल पर क्या गुजरेगी? आने से पहले तुम्हें कुछ तो सोच लेना चाहिये था विनीत ।"

"सोचा था अर्चना।" विनीत ने एक गहरी सांस ली—“बहुत सोचा था परन्तु....मेरे सामने भी एक दूसरी राह थी। मुझे उस पर बढ़ना था।" "क्या मैं उस राह पर तुम्हारा साथ नहीं दे सकती थी?"

"शायद नहीं।"

"क्यों....?"

"अर्चना, भाबुकता में मत डूबो। तुम स्वयं इस बात को नहीं जानती हो कि मैं बहुत ही बदकिस्मत इन्सान हूं। मैं किसी को कुछ भी नहीं दे सकता....किसी को भी अपने साथ लेकर नहीं चल सकता। ईश्वर के लिये मेरा विचार भी छोड़ दो। मैं तुम्हारे हाथों से बहुत दूर हूं। मैं तुम्हें इस जन्म में तो क्या अगले जन्म में भी नहीं मिल सकता। जाओ अर्चना....घर पर सेठजी तुम्हारा इन्तजार कर रहे होंगे.....

" नहीं विनीत ....।" अर्चना ने हठ पकड़ी।

"क्यों ....?"

"यदि तुम बहां नहीं जाओगे तो मैं भी उस कोठी में अपने कदम नहीं रचूंगी।"
 
"अर्चना, तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? मेरी दोनों वहनों पर खून का इल्जाम लगा हुआ है। न जाने बे किस दशा में भटक रही होंगी। मुझे उनको तलाश करना है....उन्हें सहारा देना है। तुम जानती हो कि उनका इस दुनिया में है ही कौन....?"

“मैं सब कुछ जानती हूं विनीत ।”

"तो फिर समझदारी से काम लो...."

“दिल के मामले में समझदारी काम नहीं करती....।" अर्चना बोली-“मैं रुकना चाहती हूं....लेकिन मन नहीं मानता तो मैं क्या करूं?"

“बिबेक से काम लो...."

"मैं नहीं जानती कि विवेक कहते किसे हैं? मैं तो केवल इतना जानती हूं कि मैंने तुमसे प्यार किया है। करती रहूंगी, तुम्हें मुझसे कोई नहीं छीन सकता।"

“बेकार की बात है अर्चना।” विनीत बोला—“बास्तबिकता यह है कि मैं तुम्हें धोखा नहीं दे सकता। यदि मेरे स्थान पर कोई और होता तो वह कुछ और सोचता। परन्तु मैं नहीं चाहता कि मैं तुम्हारे जीवन से खेलने का दुस्साहस करूं। इससे मुझे कुछ नहीं मिलेगा। इसलिये मेरी मानो....चली जाओ।"

"परन्तु एस.पी.साहब तो लखनऊ गये हैं।"

"लखनऊ....?"

"हां....अभी थोड़ी देर पहले फोन आया था। फोन मैंने रिसीव किया था। कह रहे थे कि अनीता और सुधा का पता लखनऊ में चला है। तुम विनीत को अपनी कोठी से बाहर मत जाने देना। मुझे लौटकर उससे मिलना है।"

"तब तो मुझे....!" अर्चना ने उसकी बात काटकर कहा-"तुम वहां जाओगे? नहीं-नहीं, सुनो विनीत....मैंने एक बात सोची है। मेरी एक सहेली है। है तो गरीब ही परन्तु घर में उसकी मां के अलावा और कोई नहीं रहता। तुम बहां रह लो। अंकल को भी कुछ पता नहीं चलेगा। मैं तुमसे बहीं मिल लिया करूंगी।"

"अर्चना, तुम्हारा यह बिचार गलत है कि मैं एस.पी. साहब के भय से कहीं जा रहा हूं। जिस समय तक सुधा तथा अनीता का पता न चला था, मैं खामोश था। परन्तु अब....अब मैं किसी दशा में इस बात को सहन नहीं कर सकता कि मेरी वहनें इधर-उधर ठोकरें खाती फिरें। मैं केवल उनके लिये जी रहा हूं।"

“विनीत ....!"

"कहो...."

"तो फिर मुझे भी अपने साथ ले चलो।"

"क्यों ....?"

"तुम्हारा साथ दूंगी।” उसकी बात पर विनीत हंस पड़ा। अन्दर-ही-अन्दर वह अर्चना की मूर्खता पर सोचने लगा। समझ नहीं आया कि अर्चना क्या वास्तव में उससे प्यार करती है। इतने बड़े घर की लड़की एक बेसहारा इंसान से प्यार करे, बात जंचने वाली नहीं थी। शाम धीरे-धीरे घिर रही थी और वे दोनों फुटपाथ पर खोये-खोये से खड़े थे। विनीत की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसे किस प्रकार से समझाये। अर्चना अपनी हठ पर अड़ी हुई थी। विनीत ने फिर कहा था- "मुझे जाने दो अर्चना। और कुछ तो नहीं, इतना वचन अवश्य दे सकता हूं कि सुधा और अनीता के मिलने के बाद मैं तुमसे अवश्य मिलूंगा।"

"भूल तो न जाओगे?" वह कुछ आश्वस्त हुई।

"नहीं....."

"वायदा?"

"बायदा।"

"तो यह रख लो।" अर्चना ने अपने हाथ में थमे एक छोटे से पर्स को उसकी ओर बढ़ा दिया। "इसमें कुछ रुपये हैं। न जाने कब तक लौटो....काम आयेंगे।"

"भला क्या जरूरत थी?"

"मन नहीं माना विनीत ।" अर्चना बोली- मैं इस बात को जानती थी कि तुम नहीं लौटोगे —इसीलिये ले आई थी।"

"ठीक है।" विनीत ने पर्स लेकर जेब में डाल दिया।

“जल्दी आना विनीत। और हां....यदि लखनऊ जाओ तो वहां मेरी एक सहेली है—प्रभा। अमीनाबाद में दो सौ ग्यारह नम्बर का मकान है। यदि जरूरत समझो तो वहां चले जाना, वह तुम्हारी पूरी-पूरी सहायता करेगी।"

"ठीक है....." विनीत उससे अलग होने को हुआ तो अर्चना की पलकें बोझल हो गयीं। उसने एक बार फिर पलक झपकाकर उसकी ओर देखा। बोली- अपना ध्यान रखना विनीत ।"

"हां....और तुम भी....."

"देखा जायेगा।" अर्चना से बिदा लेकर वह आगे बढ़ गया। चलता-चलता फिर रुक गया। सोचने लगा, आखिर वह जायेगा कहां? मस्तिष्क में शब्द उभरा-लखनऊ'। परन्तु इस बात का भी क्या पता था कि सुधा और अनीता लखनऊ में ही होंगी। पहले एस.पी. साहब उन्हें जैना होटल में बता रहे थे। हो सकता है इस बार भी पुलिस गलतफहमी का शिकार हो गई हो। क्योंकि यदि पुलिस को उनके सही ठिकाने का पता होता तो वह उन्हें गिरफ्तार ही न कर लेती? हां, यह हो सकता है कि पुलिस को केबल सन्देह हो। संदेह के आधार पर वह भी लखनऊ की गलियों के चक्कर लगाये, यह तो समझदारी की बात नहीं थी। फिर कहां जाना चाहिये उसे?
 
जैना होटल में? वह इस बात को मानने के लिये कतई तैयार नहीं था। सुधा और अनीता खूनी बन जाने के बाद भी इसी शहर में होंगी, यह सोचना भी मूर्खतापूर्ण था। यदि ऐसा होता तो पुलिस उन्हें कभी-न-कभी खोज ही लेती। तब कहां जाये? क्या करे वह? इस प्रश्न पर उसका मस्तिष्क फिर उलझकर रह गया। यहां आकर उसे पता चला कि यूं ही कहीं चक्कर काटने से क्या लाभ। शाम और भी गहरी हो गयी थी। कहीं जाने के विचार को त्यागकर वह सड़क के किनारे बने एक पार्क में आकर बैठ गया।

कुछ रंगीन जोड़े इधर-उधर घास पर फैले हुये, बातों में व्यस्त थे। यह सब देखकर अनायास ही उसके मुंह से एक आह निकल गयी। सोचने लगा, कितना सुख है इन लोगों के पास....। जैसे कि जीवन की समस्त खुशियां इन्हीं के भाग्य में लिखी हैं। एक वह है! जब से होश संभाला है, अभाबों के अलावा और कुछ नहीं देखा। पिताजी तथा मां के जाने के बाद जिंदगी जैसे बोझ बन गयी थी। कुछ ही सांसें चैन से ले पाया था, तभी उसके माथे पर एक दाग लग गया और उसे अपनी घुटती सांसों को जेल में पूरा करना पड़ा। इसके बाद फिर घुटन....तड़प और कसमसाहट। सुख का नाम कई बार सुना था, परन्तु जीवन में कभी ऐसा अबसर नहीं आया जब उसने सुख को चन्द घड़ियों को भी देखा हो। और अभी क्या पता....। न राह है, न मंजिल। पता नहीं जिंदगी का दूसरा किनारा क्या होगा। इस समानता में उसे बेदना के अलावा और कुछ न मिला। देर तक इधर-उधर की सोचता रहा, फिर भी किसी नतीजे पर न पहुंच सका। एक ओर अर्चना तथा प्रीति का प्रेम....। शायद यह भी उसके जीवन में एक यादगार बनकर रह जायेगा। अपनों को पाने की लालसा में वह किसी पराये का भी नहीं हो सकेगा, यह बात उसके मन-मस्तिष्क में ठीक से बैठ चुकी थी। शाम के बाद रात का अंधकार सारे संसार को ढकने लगा था। पार्क में बैठे हुए जोड़े भी हाथों में हाथ डाले बाहर चले गये थे। रह गया था वह अकेला। जाने बालों को देखता रहा। सोच रहा, इन सबका अपना छोटा सा घर होगा....आंगन होगा, ढेर सारे अपने होंगे। लेकिन वह बेकार, बेसहारा। कहां जायेगा वह? उसका तो कोई भी अपना नहीं है।

सहसा वह चौंका। कोई उसके बिल्कुल ही करीब आकर खड़ा हो गया था। उसने देखा, कोई युबक था। बिल्कुल उसी तरह फटेहाल में। अपने ही गम बहुत थे, दूसरे के गम को कोई क्या देखे। उसकी ओर से लापरवाह होकर वह फिर अपने विचारों में उलझ गया। "आप यहीं बैठे रहेंगे क्या?" कानों में शब्द पड़े....। उसने उचटती निगाह से यह बात पूछने बाले की ओर देखा। चेहरे पर किसी प्रकार के भाव लाये बिना उसने कह दिया-"हा...."

"क्यों...?" फिर प्रश्न।

"इसलिये कि....।" वह कुछ कहता-कहता रुक गया। फिर बात बदल कर बोला-"परन्तु आप....?"

“मैं भी एक इन्सान हूं।"

"आपकी तरह से रात भर यहीं रहना चाहता हूं।" अब उसने तनिक ध्यान से उस युवक को देखा। एक साथ ही कई प्रश्न उभरे-आखिर यह युवक पार्क में क्यों रहना चाहता है। वह खामोश न रह सका और बोला-"शायद बक्त के सताये हुए हो...."

"हां।" उस युबक ने कहा-"जिन्दगी ने कुछ ऐसा नाटक खेला कि मैं उसमें उलझकर ही रह गया। निकलना चाहता हूं, परन्तु निकल नहीं सकता।"

बैठ जाओ।" विनीत के कहने पर वह युवक उसके पास ही बैठ गया। युवक के कपड़ों से तो ऐसा लगता था जैसे कि वह अच्छे घराने से सम्बन्धित है। केबल चेहरे पर दुःखों की अनेक पर्ते जमी हुई थीं। उसे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि इस तन्हाई में कोई उसका साथी तो मिला। उसने पूछ लिया-"क्या नाम है...?"

"शीश पाल।” "क्या करते हो?"

“कहानियां लिखता हूं।"

"बस....?" विनीत अब उसमें दिलचस्पी लेने लगा था।

"हां।" उस युबक ने कहा- कोई नौकरी नहीं मिली तो इसी काम का सहारा लेकर बैठ गया।"

"तो तुम्हें नौकरी चाहिये?" विनीत कुछ देर के लिये अपने दुःखों को भूल गया था।

"नहीं...."

"और....?"

"मैं मरना चाहता हूं।"
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विनीत ने एक नयी दृष्टि से उस युवक की ओर देखा। आखिर वह क्यों मरना चाहता है, यह बात उसकी समझ में न आ सकी। "लेकिन जनाब, तुम मरना क्यों चाहते हो?"

"क्योंकि मैं जिन्दगी से हार गया हूं।"

“कायर हो?"

"नहीं तो।"

"तब तुम मूर्ख हो।" विनीत ने कह दिया "जिन्दगी से हारकर मौत का दामन थामना चाहते हो। आखिर जीने में क्या हर्ज है?"

"हर्ज यह है कि मैं जीना नहीं चाहता।” युवक भाबुक हो गया— "मैं एक पल के लिये भी जिन्दा रहना नहीं चाहता। मैं ऐसी दुनिया का मुंह देखना भी गुनाह समझता हं जो किसी के सीने में छरा भौंकने में ही अच्छाई समझे, जो किसी को बरबाद करके ही सुख हासिल करती हो।"
 
"शायद....मुहब्बत का चक्कर था?"

"हां....."

"लड़की ने धोखा दिया?"

"उसके घरवालों ने।"

"तो महाशय, अपने घर जाकर संतोष से बैठ जाओ। मुहब्बत करने वालों की किस्मत में यह दिन भी देखने को मिलता है।"

"तुम मेरा मजाक बना रहे हो?" युवक के स्वर में कठोरता आ गयी—"सुनो, मैं मर चका हूं। मैंने एक ऐसा जहर खाया है जिसे लेने के बाद आदमी एक घण्टे बाद मरता है। मेरे मरने में अभी पांच मिनट बाकी हैं।"

विनीत ने चौंककर फिर उस युबक की ओर देखा—"तब तुम श्मशान क्यों नहीं चले जाते?"

"वहां जाकर क्या करूंगा?"

"आराम से मर जाओगे.....”

“नहीं....."

"तब, तुम्हारी इच्छा!"

विनीत के दिमाग में यह बात भी आयी थी कि कहीं यह युवक सचमुच ही न मर जाये, इसलिये उसे पार्क से चले जाना चाहिये। परन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने इस विचार पर मुस्कराकर रह गया। भला इस तरह भी कोई मरता होगा? निश्चय ही वह युवक उसे मूर्ख बना रहा है। यह भी हो सकता है कि वह गुप्तचर विभाग का कोई आदमी हो और उसका पीछा कर रहा हो। इस विचार ने विनीत को कंपकपाकर रख दिया। वह उठने कोही था कि ठीक उसी समय उस युवक के मुंह से एक घुटी-सी चीख निकली, दूसरे ही क्षण वह घास पर लुढ़क गया। विनीत ने उसे हिलाया-डुलाया। वह युवक सचमुच मर चुका था। विनीत और भी कांपकर रह गया। उसके कानों में पुलिस की सैकड़ों सीटियां गूंजने लगीं....जेल की दीवारें आस-पास ही तैरती हुई नजर आने लगीं। कोई भी देखकर यही समझेगा कि उसने इस युबक को मार डाला है। उसे खूनी कहा जायेगा। फिर उसे जेल में सड़ने के लिये डाल दिया जायेगा। यह सब सोचते ही वह उठा और फुर्ती से पार्क से बाहर आ गया। वह जल्दी-से-जल्दी कहीं दूर निकल जाना चाहता था। इस समय उसे सड़कों की बीरानगी बहुत ही बुरी लग रही थी। यदि भीड़ होती तो वह बड़ी आसानी से भीड़ में खो सकता था। चलत समय उसने पीछे मुड़कर देखा। कहीं पुलिस की गाड़ी तो उसके पीछे नहीं आ रही....। आश्वस्त होने पर वह फिर चल पड़ा। सहसा अगले चौराहे पर एक कांस्टेबिल ने उसे रोक लिया, “कौन हो...?"

"मेरा नाम विनीत है।"

"तुम इस कदर परेशान क्यों हो?"

"परेशान? नहीं तो....मैं तो....” वह अपनी सफाई भी न दे सका।

"और इधर कहां जा रहे हो?"

"स्टेशन पर....।" सिपाही ने उसे और भी गहरी दृष्टि से देखा, फिर कहा- "स्टेशन? परन्तु यह सड़क तो घण्टाघर बाजार में जाती है....।"

विनीत को अब अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने अपने चारों ओर दृष्टि घुमाकर देखा। बास्तव में वह गलत रास्ते पर था। किसी प्रकार अपने को संभालकर उसने कहा- दरअसल घण्टाघर पर मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं। उन्हें लेकर...."

"हं....खैर....जाओ....।" सिपाही की बातों से छुट्टी मिली तो विनीत की जान में जान आयी। उसका हृदय इस समय भी बुरी तरह से धड़क रहा था। विभिन्न प्रकार के विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे। यदि किसी ने उसे उस युवक के पास बैठा हुआ देखा होगा तो क्या होगा? विनीत की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे? कहां जाये? तथा किस प्रकार से कहींछुपने का प्रयत्न करे। बुद्धि चकराकर रह गयी। भावना ने कहा- तुम्हें खून के अपराध में फिर जेल में बन्द कर दिया जायेगा।' 'क्योंकि मरने वाला तुम्हारे पास ही तो आकर मरा था।' 'तो इससे क्या हुआ?' 'हुआ यह कि किसी ने तुम्हें पार्क में बैठे हुए देखा अवश्य होगा। बाद में पुलिस को उस युवक की लाश मिलेगी। सारा दोष तुम ही पर लगाया जायेगा।' 'ओह....।' वह पसीना-पसीना हो गया।

जी में आया कि बेतहाशा भागकर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाये। उसे प्रत्येक दशा में जहां तक सम्भव हो, अपने आपको पुलिस से बचाना चाहिये। इन्हीं विचारों में उलझा हुआ विनीत निरन्तरआगे की ओर बढ़ने लगा। वास्तविकता यह थी कि उसके मन में एक बात घर कर गयी थी कि पुलिस अथवा किसी आदमी ने उसे देख अवश्य लिया होगा। हालांकि यह बात निराधार ही थी। उसकी दशा बिल्कुल उस व्यक्ति जैसी हो गयी थी जो किसी का खून करके आया हो। अब पुलिस से बचने के लिये भागता जा रहा हो। कब कितनी सड़कों को पार किया, अपने इस पागलपन में उसे पता भी न चला। उसे ध्यान आया, वह उसी ढाबे के सामने खड़ा था। ढाबे के मालिक ने उसे पहली नजर में ही पहचान लिया। उसने अपने स्थान से ही पुकारा-"दादा......" इन क्षणों में भी वह मुस्करा उठा। निकट आया-औपचारिकता वश पूछा-"कैसे हो लाला?"

ठीक हूं...। परन्तु दादा, तुम कहां चले गये थे? उस दिन से रोजाना तुम्हारी इन्तजार करता था। एक दो और भी तुम्हें पूछ रहे थे।"

"क्यों ....?"

"अरे भई, पूछ है तुम्हारी। आओ तो....."

विनीत ने एक बार फिर पलटकर देखा। वही पुलिस का भय। परन्तु धारणा निर्मूल थी। कोई भी पुलिस वाला उसे दिखलायी न दिया। वह लाला के पास आकर बैठ गया। लाला ने पहले तो उसके लिये चाय वगैरह मंगवायी, फिर कहने लगा—"दादा, मुझे तो ऐसा लगता है जैसे इस धंधे को ही छोड़ देना पड़ेगा।"

"क्यों....?"

"एक दो नये दादा पैदा हो गये हैं। रोज दुकान पर आते हैं और खा-पीकर चले जाते हैं....एक दिन पैसे मांगे तो मरने-मारने पर उतारू हो गये।"

"अच्छा....!” विनीत मुस्कराया।

"अब तुम ही बताओ मैं क्या करूं?"

विनीत ने कहा-“लाला, तुम उन लोगों के नाम मुझे बता दो। मैं उन सबसे निबट लूंगा।"

लाला की आंखें प्रसन्नता से चमक उठीं। उसने विनीत के कान में दो-तीन ब्यक्तियों के नाम बता दिये। विनीत उठकर बाहर आ गया। पुलिस का भय अब भी बना हुआ था। उसके मन में यह बात भी आयी कि उसे अर्चना के पास ही चलना चाहिये। दूसरे ही क्षण उसने इस विचार को भी गलत साबित कर दिया।

अंत में उसके कदम जैना होटल की ओर उठ गये।। वह होटल पहुंचा। पहले तो कम्पाउंड में ही खड़ा रहा और फिर अन्दर हॉल में दाखिल हो गया। हॉल में काफी भीड़ थी तथा उस भीड़ में उसकी निगाहें सुधा और अनीता को खोज रही थीं। बहुत से चेहरे थे....परन्तु इन चेहरों में कोई ऐसा न था जिसे वह अपना कह सकता। निराश होकर वह एक खाली मेज पर बैठ गया। बेटर आया तो उसने केवल कॉफी मांगी। कॉफी समाप्त करने के बाद उठा और बाहर आ गया। फिर वे ही उलझनें और परेशानियां! न तो मस्तिष्क ही स्थिर था और न ही विचार। भावनाओं की उथल-पुथल उसे बेचैन करने पर तुल रही थी। अन्त में उसने बिचार बनाया कि उसे लखनऊहीं जाना चाहिये। इस विचार में भी कई संशय उभरे और मिट गये। स्टेशन पहुंचा, लखनऊ के लिये गाड़ी तैयार मिल गई। वह एक खाली सीट पर बैठ गया। गुम-सुम और उदास। मंजिल का अब भी कहीं पता न था। आज पहली बार लखनऊ जा रहा था। सोच रहा था कि कहां-कहां खोजता फिरेगा वह उन दोनों को? कुछ सोते और कुछ जागते सफर पूरा हुआ। दिन के उजाले में वह गाड़ी से उतरकर स्टेशन से बाहर आ गया। फिर वही पुराना प्रश्न उसके सामने आकर खड़ा हो गया
 
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