desiaks
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“अब तो आप जाने का नाम नहीं लेंगे?"
"अर्चना जी।" विनीत बोला—“इतने अहसान! ऐसा न हो कि मैं आपके अहसानों तले ही दबकर रह जाऊं। मुझे विवश कर रही हैं आप।"
“यही समझ लो।" अर्चना बोली- नौकरने आपके लिये ऊपर वाला कमरा ठीक कर दिया होगा। चलो....कमरा दिखलाऊं।"
कुछ भी न कह सका वह। उठकर चुपचाप अर्चना के पीछे चल दिया। नौकर कमरे को ठीक कर चुका था। सब कुछ देखने के बाद अचेना ने पूछा-"कमरा पसद आया?"
"फुटपाथ पर सोने बालों से ऐसी बात नहीं पूछी जाती।"
"अब आप आराम कर लीजिये....मैं चलूं।" विनीत को बहीं छोड़कर अर्चना कमरे से बाहर चली गयी।
विनीत को सब कुछ बड़ा अजीब-सा लगा। जैसे कि वह कोई स्वप्न देख रहा हो। स्वप्न ही तो था—रात वह एक पार्क में हरी घास के ऊपर सोया था और आज शानदार बिस्तर! कैसी चाल है समय की भी! यह सोचकर वह स्वयं हैरानी में डूबा जा रहा था। दरवाजे को बन्द करने के बाद वह बिस्तर पर लेट गया। विचारों का सिलसिला फिर शुरू हो गया। देर तक अर्चना के विषय में सोचता रहा। उसके मन में यह बात भी आयी कि उसे अपने यहां रखने में कहीं उसका कोई स्वार्थ तो नहीं है? परन्तु उसका स्वार्थ क्या हो सकता है! अर्चना को तो केवल उससे हमदर्दी है। उसने उसकी गरीबी और अनाथ अवस्था पर तरस खाया है। हो सकता है वह उससे प्यार कर बैठी हो। बेकार की बात है। प्यार भी इतनी जल्दी हो जाता है क्या? और फिर कोई आधार भी तो हो। वह एक बेघर, बेसहारा इन्सान है। अर्चना केवल उसके जीवन को सुधारना चाहती है। इन्हीं विचारों में जूझते हुये उसे नींद आ गयी।
उसकी आंखें खुली तो पाया- अर्चना उसे पुकार रही थी। वह उठकर बैठ गया। "नींद पूरी हो गयी आपकी?"
“जी....दरअसल...." वह हकलाया।
“परेशानियों में घिरे व्यक्ति को नींद कम ही आती है।"
"परन्तु मैं तो....।"
"इसका मतलब है कि आप इतने परेशान नहीं रहे। खैर, मुझे खुशी हुई।" अर्चना बहीं एक सोफे पर बैठ गयी। शायद वह नौकर से कह आयी थी। उसके बैठने के कुछ ही देर बाद नौकर चाय रखकर चला गया।
विनीत को भी बहीं सोफे पर बैठना पड़ा। उसने पूछा-"आपके पापा नहीं आये अभी?"
“पापा कभी दस बजे से पहले नहीं लौटते।"
मेरा ख्याल है.....आपकी कोई फैक्ट्री....?"
"नहीं....."
"और....?"
“पापा एक होटल के मालिक हैं।" इस विषय में विनीत ने और कुछ अधिक नहीं पूछा। हां, उसने एक विशेष बात नोट की, वह यह कि अर्चना एकटक होकर उसी की ओर देख रही थी। इस बात को उसने अपने मन में कुछ और स्थान दिया, परन्तु दूसरे ही क्षण इसे एक भ्रम समझकर अपने दिमाग में से निकाल दिया।
चाय समाप्त हो चुकी थी। “मिस्टर विनीत , कहीं घूमने चलेंगे आप?"
"घूमने....?"
"हां।" अर्चना बोली-“प्रत्येक दिन शाम को घूमना मेरी आदत सी बन गई है।"
"मैं आपकी आदत में रुकावट नहीं डालूंगा।"
"परन्तु आप....?"
"इन्कार कैसे कर सकता हूं।" विनीत ने कहा- लेकिन मुझे आपके साथ देखकर ....मेरा मतलब था कि....?" वह अपने शब्द पूरे न कर पाया।
सुनकर अर्चना खिलखिलाकर हंस पड़ी। फूलों जैसी मुक्त हंसी। हंसी रुकने पर वह बोली —“मिस्टर विनीत ! कालेज के वातावरण में रहने के बाद भी आप ऐसे थोथे विचारों को पकड़े हुये हैं? यह तो बीसवीं सदी है। लड़के और लड़की में अन्तर ही कितना रह गया
"जी...."
"और फिर छोटे लोगों में ऐसी बातें चलती हैं। यहां ऊंचे लोगों में आपको सभ्यता का दूसरा रूपही देखने को मिलेगा।"
"क्षमा चाहता हूं।"
"किस बात की?"
"मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिये थी। और फिर घूमने के समय बहुत से लोग अपने साथ नौकरों को भी तो ले जाते हैं।"
अर्चना बात की गहराई को समझ गयी। सुनकर उसे दुःख तो हआ, परन्तु उसने अपने चेहरे पर ऐसे भावों को न आने दिया। विनीत को समझाने की कोशिश की-"मिस्टर विनीत , एक मित्र और नौकर में अन्तर समझना चाहिये। मेरा आपसे केवल इतना स्वार्थ है कि आपकी जिन्दगी बदल जाये....आपका खोया संसार आपको मिल जाये। इसके बाद आप यहां से जाने के लिये कहेंगे तो मैं आपको रोवूगी नहीं। उसके लिये मैं अभी से पूरी-पूरी कोशिश करूंगी।"
"धन्यवाद!"
"मैंने नौकर को आपके लिये कपड़े लेने भेजा है। वह आता ही होगा।"
अर्चना के शब्द पूरेही हुए थे, तभी दरवाजे से नौकर की आवाज सुनायी दी। अर्चना ने आगे बढ़कर उसके हाथ से पैकेट ले लिया। खोला, उसमें से पेंट तथा शर्ट निकालकर सोफे पर रख दी।
"अर्चना जी।" विनीत बोला—“इतने अहसान! ऐसा न हो कि मैं आपके अहसानों तले ही दबकर रह जाऊं। मुझे विवश कर रही हैं आप।"
“यही समझ लो।" अर्चना बोली- नौकरने आपके लिये ऊपर वाला कमरा ठीक कर दिया होगा। चलो....कमरा दिखलाऊं।"
कुछ भी न कह सका वह। उठकर चुपचाप अर्चना के पीछे चल दिया। नौकर कमरे को ठीक कर चुका था। सब कुछ देखने के बाद अचेना ने पूछा-"कमरा पसद आया?"
"फुटपाथ पर सोने बालों से ऐसी बात नहीं पूछी जाती।"
"अब आप आराम कर लीजिये....मैं चलूं।" विनीत को बहीं छोड़कर अर्चना कमरे से बाहर चली गयी।
विनीत को सब कुछ बड़ा अजीब-सा लगा। जैसे कि वह कोई स्वप्न देख रहा हो। स्वप्न ही तो था—रात वह एक पार्क में हरी घास के ऊपर सोया था और आज शानदार बिस्तर! कैसी चाल है समय की भी! यह सोचकर वह स्वयं हैरानी में डूबा जा रहा था। दरवाजे को बन्द करने के बाद वह बिस्तर पर लेट गया। विचारों का सिलसिला फिर शुरू हो गया। देर तक अर्चना के विषय में सोचता रहा। उसके मन में यह बात भी आयी कि उसे अपने यहां रखने में कहीं उसका कोई स्वार्थ तो नहीं है? परन्तु उसका स्वार्थ क्या हो सकता है! अर्चना को तो केवल उससे हमदर्दी है। उसने उसकी गरीबी और अनाथ अवस्था पर तरस खाया है। हो सकता है वह उससे प्यार कर बैठी हो। बेकार की बात है। प्यार भी इतनी जल्दी हो जाता है क्या? और फिर कोई आधार भी तो हो। वह एक बेघर, बेसहारा इन्सान है। अर्चना केवल उसके जीवन को सुधारना चाहती है। इन्हीं विचारों में जूझते हुये उसे नींद आ गयी।
उसकी आंखें खुली तो पाया- अर्चना उसे पुकार रही थी। वह उठकर बैठ गया। "नींद पूरी हो गयी आपकी?"
“जी....दरअसल...." वह हकलाया।
“परेशानियों में घिरे व्यक्ति को नींद कम ही आती है।"
"परन्तु मैं तो....।"
"इसका मतलब है कि आप इतने परेशान नहीं रहे। खैर, मुझे खुशी हुई।" अर्चना बहीं एक सोफे पर बैठ गयी। शायद वह नौकर से कह आयी थी। उसके बैठने के कुछ ही देर बाद नौकर चाय रखकर चला गया।
विनीत को भी बहीं सोफे पर बैठना पड़ा। उसने पूछा-"आपके पापा नहीं आये अभी?"
“पापा कभी दस बजे से पहले नहीं लौटते।"
मेरा ख्याल है.....आपकी कोई फैक्ट्री....?"
"नहीं....."
"और....?"
“पापा एक होटल के मालिक हैं।" इस विषय में विनीत ने और कुछ अधिक नहीं पूछा। हां, उसने एक विशेष बात नोट की, वह यह कि अर्चना एकटक होकर उसी की ओर देख रही थी। इस बात को उसने अपने मन में कुछ और स्थान दिया, परन्तु दूसरे ही क्षण इसे एक भ्रम समझकर अपने दिमाग में से निकाल दिया।
चाय समाप्त हो चुकी थी। “मिस्टर विनीत , कहीं घूमने चलेंगे आप?"
"घूमने....?"
"हां।" अर्चना बोली-“प्रत्येक दिन शाम को घूमना मेरी आदत सी बन गई है।"
"मैं आपकी आदत में रुकावट नहीं डालूंगा।"
"परन्तु आप....?"
"इन्कार कैसे कर सकता हूं।" विनीत ने कहा- लेकिन मुझे आपके साथ देखकर ....मेरा मतलब था कि....?" वह अपने शब्द पूरे न कर पाया।
सुनकर अर्चना खिलखिलाकर हंस पड़ी। फूलों जैसी मुक्त हंसी। हंसी रुकने पर वह बोली —“मिस्टर विनीत ! कालेज के वातावरण में रहने के बाद भी आप ऐसे थोथे विचारों को पकड़े हुये हैं? यह तो बीसवीं सदी है। लड़के और लड़की में अन्तर ही कितना रह गया
"जी...."
"और फिर छोटे लोगों में ऐसी बातें चलती हैं। यहां ऊंचे लोगों में आपको सभ्यता का दूसरा रूपही देखने को मिलेगा।"
"क्षमा चाहता हूं।"
"किस बात की?"
"मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिये थी। और फिर घूमने के समय बहुत से लोग अपने साथ नौकरों को भी तो ले जाते हैं।"
अर्चना बात की गहराई को समझ गयी। सुनकर उसे दुःख तो हआ, परन्तु उसने अपने चेहरे पर ऐसे भावों को न आने दिया। विनीत को समझाने की कोशिश की-"मिस्टर विनीत , एक मित्र और नौकर में अन्तर समझना चाहिये। मेरा आपसे केवल इतना स्वार्थ है कि आपकी जिन्दगी बदल जाये....आपका खोया संसार आपको मिल जाये। इसके बाद आप यहां से जाने के लिये कहेंगे तो मैं आपको रोवूगी नहीं। उसके लिये मैं अभी से पूरी-पूरी कोशिश करूंगी।"
"धन्यवाद!"
"मैंने नौकर को आपके लिये कपड़े लेने भेजा है। वह आता ही होगा।"
अर्चना के शब्द पूरेही हुए थे, तभी दरवाजे से नौकर की आवाज सुनायी दी। अर्चना ने आगे बढ़कर उसके हाथ से पैकेट ले लिया। खोला, उसमें से पेंट तथा शर्ट निकालकर सोफे पर रख दी।