Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 10 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

"अकेला इन्सान यदि मुसीबतों के तूफान में फंस जाये तो उसके लिये जीना काफी मुश्किल पड़ सकता है। कभी-कभी वह खुदकशी भी कर बैठता है।"

"जी।"

"परन्तु जब साथ में दूसरा कोई हो तो ऐसे में सांत्वना जीने का सहारा बन जाती है।" विनीत खामोश ही रहा।
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पांच दिन और गुजर गये। विनीत की आशा अब निराशा में बदलने लगी थी। उसके मन में यह बात घर करने लगी थी कि सुधा और अनीता अब दुनिया में नहीं हैं। अर्चना स्वयं एस.पी. साहब से मिली थी। उन्हें उन दोनों के विषय में जानकारी नहीं मिल सकी थी। प्रीति के विचार को विनीत ने तब तक के लिये त्याग दिया था जब तक कि वहनें उसे नहीं मिल जाती थीं।

परन्तु प्रीति के स्थान पर अर्चना उसकी ओर बढ़ने लगी थी। 'आप' का सम्बोधन 'तुम' पर आ गया था। औपचारिकता बिल्कुल समास हो चुकी थी। इस पर भी अर्चना ने मुंह से तो कुछ नहीं कहा था। परन्तु उसके हाव-भाव यह जाहिर करते थे कि वह विनीत से प्रेम करने लगी है। स्वयं विनीत ने भी कुछ नहीं कहा था। अर्चना सुन्दरता की प्रतिमा थी....उसके पास सब कुछ था। इतना सब कुछ होते हुये भी विनीत ने अपनी भावनाओं को उसकी ओर नहीं बढ़ने दिया था। कोई प्रतिपल उसकी आस लगाये बैठा था। ऐसे में वह अर्चना का कैसे हो सकता था? उदासी और खामोशी पूर्वबत् बनी रही। । अर्चना काफी रात तक उसके पास बैठी रहती। अपनी मुक्त हंसी और मधुर मुस्कान से उसकी उदासी को दूर करने का प्रयास करती। हां....उन क्षणों में विनीत की बेचैनी किसी सीमा तक कम हो जाती थी। परन्तु उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन न आ सका था।

इस समय भी वह बिस्तर पर लेटा हआ सुधा और अनीता के बारे में सोच रहा था। अतीत के पृष्ठ बार-बार खुलते और बन्द हो जाते थे। उनमें उसे तड़प और अशांति के सिवाय और कुछ नहीं मिलता था। नौकर बिस्तर की चाय लेकर आता होगा, यह सोचकर वह उठा। दरवाजे को खोला और फिर बिस्तर पर लेट गया। न जाने क्यों उठने को जी नहीं हुआ। शायद इसलिये कि वह रात में बहुत ही कम सो पाता था। दरबाजे से बाहर आहट हुई। चौंककर उसने उस दिशा में देखा। अर्चना थी। होठों पर बही मधुर मुस्कान....चेहरे पर बही सुवह की ताजगी। चलती हुई वह उसके बिस्तर के पास आ गयी। उसे देखकर भी विनीत ने अनदेखा कर दिया।

अर्चना कुछ क्षणों तक खामोशी से उसकी ओर देखती रही। फिर बोली-"आज उठना नहीं है क्या....?"

“नहीं....” उसने असावधानी से उत्तर दिया।

"क्यों ....?"

“जी नहीं चाहता।"

"और दिन जो फैल चुका है।"

"वह तो उसका क्रम है। यदि रात के बाद दिन नहीं आयेगा तो दिन के बाद रात क्योंकर आयेगी? जिंदगी और वक्त, दोनों में धरती आकाश का अन्तर है।"

कैसे....?"

"ठीक कठपुतली की तरह।"

“मतलब....?"

"जिंदगी एक कठपुतली है, जिसकी डोर बक्त के हाथों में होती है। जिंदगी हंसती है....रोती है....गुनगुनाती है, परन्तु यह सब उसी वक्त के हाथों में होता है, जिसे आज तक किसी ने अपनी आंखों से नहीं देखा। दुनिया केबल उसके कारनामों को जानती है।"

"वक्त के विषय में बहुत कुछ जानते हो तुम।”

नहीं।” विनीत बोला—“मैंने भी केबल उसके कारनामे देखे हैं। देखा है कि बड़े से बड़ा इन्सान भी उसके हाथों का खिलौना ही होता है।"

"अच्छी कविता है।"

"क्या मतलब?"

"उर्दू में शायरी समझ लीजिये। खैर, अब उठोगे या...."

“या...?" विनीत ने दुहराया।

"आज दिन भर सोना ही है।"

"अर्चना....जो रात में नहीं सो पाते....बे दिन में सो सकते हैं क्या?"

"हां, कुछ लोगों का स्वभाब उल्लुओं जैसा होता है।" अर्चना ने कहा। कहने के तुरन्त बाद ही वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर बोली-“जनाब शायर साहब, यह सोने का नहीं, उठने का बक्त है।"

विनीत शायद न भी उठता, परन्तु तभी नौकर ने चाय ले कर कमरे में प्रवेश किया। वह उठकर बैठा हो गया। अर्चना ने उसके हाथ में चाय का प्याला थमा दिया।

चाय के मध्य अर्चना बोली-“एक बात कहूं।"

“बोलो....!"

"क्या तुम हमेशा-हमेशा के लिये यहां नहीं रह सकते?"

"क्यों....?"

"मैं चाहती हूं कि तुम हमेशा यहीं रहो।"

"परन्तु क्यों....?"

"कहना ही पड़ेगा क्या?" अर्चना ने उसकी ओर देखा।

"कह दो...."

“जिस दिन से तुम यहां आये हो, मुझे दुनिया में कुछ और ही नजर आने लगा है।”

"क्या नजर आने लगा है!"

"खूबसूरती....रौनक और बहारें।"

"अच्छा ।"
 
"पता नहीं मुझे क्या होता जा रहा है विनीत । जी चाहता है कि चौबीसों घंटे तुम्हारे पास ही बैठी रहूं....तुम्हें देखती रहूं।" आज अर्चना ने अपने मन की बात कह डाली।

"ऐसा क्या है मुझमें?"

"पता नहीं।” अर्चना बोली- “मैं स्वयं नहीं समझ पाई कि मेरे मन को यकायक ही यह क्या हो गया है। क्यों वह प्रत्येक समय तुम्हारी छवि को देखना चाहता है।"

"शायद मुझे नहीं, मेरे दर्द को।"

"विनीत !"

"दुःखी इन्सान को देखकर हमदर्दी पैदा हो ही जाती है। परन्तु ऐसे लोग भी तो कम ही हैं जो किसी की हालत पर तरस खाते हैं। मुझे धन्यबाद अदा करना चाहिये।"

"नहीं विनीत ।"

"फिर क्या बात है?"

“कह नहीं सकती।” अर्चना बोली- लेकिन क्या तुमने....मेरा मतलब..!"

"अर्चना, स्पष्ट शब्दों में बताओ तो कुछ समझू भी। पहेलियों का अर्थ निकालना मैं नहीं जानता। स्पष्ट कहो....।"

"दरअसल....खैर....!" अर्चना अपने भावों को व्यक्त नहीं कर पा रही थी।

"कहो...."

"प्रीति ने तो तुमसे प्रेम किया था....!"

"हां परन्तु ....!"

“जब तुम उससे पहली बार मिले थे....तब उसने क्या कहा था?"

"कुछ ठीक से याद नहीं रहा।” विनीत बोला—“बैसे उसने कुछ कहा जरूर था। परन्तु तुम्हें प्रीति से क्या मतलब....?"

अर्चना कुछ भी न कह सकी। संकोचवश उसके शब्द होठों को चीरकर बाहर न आ सके थे। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी बात को किस प्रकार कहे। चाय समाप्त हो चुकी थी। खामोशी से उठकर वह कमरे से बाहर चली गई।

विनीत उसे जात हुय दखता रहा। अनायास ही उसके मुंह से निकला—“तुम सुन्दरी हो अर्चना, सभी कुछ है तुम्हारे पास। परन्तु मैं तुम्हें प्यार नहीं दे सकता।" तौलिया उठाकर वह बाथरूम में चला गया।

स्नान आदि से निवृत्त होकर वह आइने के सामने कंघा करने लगा। सहसा दर्पण में अर्चना के प्रतिबिम्ब को देखकर वह कुछ चौंका। परन्तु उसने इन भावों को चेहरे पर न आने दिया। मन-ही-मन कह उठा वह-कैसी नादान है अर्चना....एक टूटे हुये तारे को पकड़ने की कोशिश कर रही है।

अर्चना ने निकट आकर कहा- कहीं जाने का इरादा है क्या?"

"तुम बताओ।"

"मैं क्या बताऊं! सिर्फ पूछ रही हूं।"

“आज तो नहीं, परन्तु लगता है कि मुझे जल्दी ही यहां से जाना पड़ेगा।"

“क्यों...?" वह चौंकी।

"मैं नहीं चाहता कि मेरे यहां रहने से तुम्हें कोई दुःख हो।” केबल अपने शब्दों की प्रतिक्रिया देखने के लिये विनीत ने कह दिया।

"परन्तु मुझे दुःख? पता नहीं क्या कह रहे हैं आप?"

"अभी तो तुम मेरे पास से दुःखी होकर गई थीं। यदि मैं यहां न होता तो तुम्हें इतना दुःख महसूस क्यों होता?"

"विनीत ....समझ में नहीं आता तुम इतने अनजान क्यों बनते हो।"

उसने उत्तर में तुरन्त ही कुछ नहीं कहा। बाल ठीक करने के बाद वह सोफे पर बैठ गया।
एक बार अर्चना की ओर देखा। फिर कहा-"अच्छा अर्चना, यदि आज मैं वास्तव में यहां से चला गया तो तुम्हें दुःख होगा!"

"बैसी कल्पना मात्र से ही मैं कांप उठती हूं।"

"क्यों....?"

“न जाने क्यों....." वह यकायक ही गम्भीर हो गई— ऐसा लगता है जैसे तुमने मेरा कुछ चुरा लिया हो। उसके बिना मेरे लिये जिंदा रहना असम्भव-सा हो जायेगा। परन्तु विनीत....तुम बार-बार इन्हीं शब्दों को क्यों दुहराते हो?"

“इसलिये कि मैं तुम्हें धोखा नहीं देना चाहता।"
 
"विनीत!" वह उसकी ओर देखती रह गयी। "झूठ अपने आप में एक पाप है। परन्तु सत्य पर आवरण डाल देना उससे भी बड़ा पाप होता है अर्चना! जीवन में जो कुछ हुआ, उसकी ही सजा अब तक पूरी नहीं हुई। कोई दूसरा पाप करूं....इतना साहस अब मुझमें नहीं है।"

"ओह...!"

"अर्चना, मुझे जाना ही पड़ेगा।"

“परन्तु क्यों....?"
अपनों को खोजने....उन स्वजनों की तलाश में जो आज भी अधूरे पड़े हैं। उनके बिना मेरी सांसें रुक जायेंगी अर्चना।"

"और मेरा प्यार...?"

"अर्चना....."

"विनीत, मैं समझ नहीं पायी कि मुझे क्या हो गया है।" अर्चना भावुक हो उठी—“जी नहीं चाहता कि तुमसे एक पल के लिये भी अलग हो जाऊं। प्लीज विनीत, यहां से जाने का नाम भी मत लेना। मैं तुम्हारे लिये सब कुछ करूंगी। सुधा और अनीता कहीं भी हुईं, मैं उन्हें खोज निकालूंगी। उनकी तुम बिल्कुल भी परवाह मत करो....."

"अर्चना।" विनीत ने एक निःश्वास लेकर कहा-"तुम मेरे विषय में सब कुछ जानती हो। तुम्हें यह भी मालूम है कि जो सारे समाज में बदनाम हो चुका है, जो वर्षों से मेरी राह में पलकें बिछाये बैठा है....मैं उसी का न हो सका। फिर यह कैसे सम्भव है कि मैं....."

“करने के लिये सभी कुछ सम्भब हो जाता है विनीत । एक बात है, प्रीति कभी भी तुम्हारी नहीं हो सकती।"

“यह....यह तुम कह रही हो अर्चना?" विनीत ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।

"झूठ नहीं है। मैंने उस दिन सारी बातें सुनी थीं। प्रीति के पिताजी के शब्द आज भी मुझे याद हैं। उस दीवार को तुम नहीं गिरा सकते।"

"मैं भी जानता हूं।"

"फिर....?"

"अर्चना, यदि मैं दीवार को नहीं गिरा सकता तो स्वयं तो गिर सकता हूं।"

अर्चना निरुत्तर सी हो गयी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह विनीत को किस प्रकार से समझाये। और फिर प्रीति तथा उसमें तो जमीन-आकाश का अन्तर है। वह प्रीति से अधिक सुन्दर है। सब कुछ है उसके पास।

विनीत ने फिर कहा- "अर्चना...इन ब्यर्थ की बातों को छोड़ दो। इस भाबुकता में कुछ भी नहीं है। सिबाय इसके कि तुम्हारे मन की शांति भी भंग हो जाये। दूसरी ओर सोचने वाली बात यह है कि मैं....."

*मैं क्या....?"

“मैं किस योग्य हूं?"

"इस विषय में जितना मुझे जानना चाहिये था, मैं जान चुकी हूं।"

"ओह! परन्तु अर्चना–तुम यह तो सोचो कि मैं एक बेघर, बेसहारा इन्सान हूं। यदि मैंने तुम्हारी बात मान ली तो इससे तुम्हें क्या मिलेगा?"

सुनकर अर्चना की निराशा फिर आशा में बदल गयी। उसने विनीत को उत्तर देते हुये कहा —“विनीत, मुझे तुमसे सिवाय प्यार के कुछ नहीं चाहिये। विश्वास करो, मैं इसके अलावा और कुछ नहीं चाहती।”

"मैं समझता हूं यह मूर्खता की बात होगी।"

"क्यों....?"

"इसलिये कि मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकूँगा। मेरी मानो....इन बिचारों को अपने दिमाग से निकालकर फैंक दो।"
 
बातचीत का क्रम रुक गया। नौकर नाश्ता लेकर आया था। न जाने अर्चना को क्या हुआ कि वह नाश्ते को छोड़कर बाहर चली गई। विनीत से उसकी यह मनोदशा छपी न रही थी। समझ गया कि अर्चना को उसके शब्द जरा भी अच्छे नहीं लग रहे थे। मन में तरह-तरह के विचार चक्कर काटने लगे। उसे लगा कि उसने अच्छा नहीं किया। उसे अर्चना का दिल नहीं तोड़ना चाहिये था। परन्तु प्रीति....क्या वह अर्चना के लिये प्रीति को छोड़कर देगा? उसे यह सोचना चाहिये कि कोई दिन-रात उसकी उपासना कर रही है। यदि उसने अर्चना का साथ दिया तो प्रीति किसी भी दशा में जिंदा नहीं रह पायेगी। लेकिन अर्चना भी तो यही कह रही है। उसका प्रेम भी तो निःस्वार्थ ही है। वह इतने बड़े घर की इकलौती बेटी है, फिर भी वह उससे प्रेम करती है। वह तो है परन्तु प्रीति के मुकाबले उसके प्रेम में वह शक्ति नहीं है। अर्चना उसे प्रेम से नहीं बल्कि दौलत से खरीदना चाहती है। यह नहीं हो सकता। अर्चना ऐसी नहीं है।

तब क्या प्रीति का प्रेम केबल एक धोखा है? नहीं! वह भी सत्य है और यह भी। समस्या तो यही है कि दोनों सत्यों को एक साथ लेकर कैसे चला जा सकता है? तब एक काम करो..... वह क्या? अर्चना बेचारी ने तुम्हारा बिगाड़ा ही क्या है? उसका दिल मत तोड़ो। यदि प्रीति तुम्हारी न हो सकी तो अर्चना के प्रेम को स्वीकार कर लेना। इसका मतलब अर्चना को वहलाना पड़ेगा? हां, ऐसा किये बिना कुछ नहीं होगा। आज तुम एक प्रकार से बेसहारा हो। यदि तुम यहां से चले गये तो तुम्हें फिर रोटी की चिन्ता करनी पड़ेगी। उससे तो यही अच्छा है कि तुम अर्चना का मन रखो। भावनाओं से हटकर वह बास्तविक संसार में लौटा। मेज पर नाश्ता लगा था। अर्चना उससे नाराज होकर गयी थी। यह बात विनीत को कचोटने लगी। वह उठा, अपने कमरे से निकलकर बाहर आ गया। अर्चना के कमरे में पहुंचकर देखा। वह तकिये में मुंह छुपाकर सुबक रही थी

। देखकर कसमसा उठा विनीत । एक साथ सैकड़ों विचार प्रश्न चिन्ह की तरह उसके सामने आकर खड़े हो गये। वह समझ नहीं सका कि क्या करे। सत्यता यह थी कि वह किसी भी दशा में अर्चना को अपने हृदय में स्थान नहीं दे सकता था। इसका कारण था—प्रीति। प्रीति और उसके मध्य बिबशता जैसे दीबार की तरह खड़ी थी। इतना सब कुछ होते हुये भी एक आशा थी। उसी आशा के कारण वह स्वयं को प्रीति से अलग नहीं समझता था। उसे इस बात का विश्वास था कि प्रीति एक दिन उसे अवश्य मिलेगी। परन्तु अर्चना....! वह उसका प्यार पाने के लिये तड़प रही थी। पता नहीं अर्चना ने उसमें ऐसा क्या देखा था कि वह उस पर आसक्त हो गयी थी। विनीत का मस्तिष्क बार-बार इसी विषय पर उलझकर रह जाता था। लेकिन अब जो स्थिति सामने थी, उसने विनीत को पानी-पानी कर दिया। कुछ देर के लिये वह प्रीति को भूल गया। उस पुजारिन को भूल गया जो रात-दिन उसी की माला जपती थी। वह कुछ और आगे बढ़ा, पलंग के पास पहुंचकर पुकारा– “अर्चना....!"

प्रत्युत्तर में अर्चना ने तकिये को हटाया, जल्दी से अपनी आंखों को पोंछा और उठकर बैठी हो गयी। विनीत को देखते ही उसने अपनी ग्रीवा को झुका लिया। अपने हृदय की बात को वह होठों तक न ला सकी थी।

"बड़ी अजीब सी बात है....” विनीत ने उसके चेहरे पर दृष्टि डालकर खामोशी को तोड़ा।

“क्या?" अर्चना ने पूछ लिया।

"किसी अमीर को पहली दफा रोते हुये देख रहा हूं।"

"तो....?"

"अमीरों को तो रोना नहीं चाहिये।"

"परन्तु कोई रोता है तो तुम्हें क्या?"

"कहा तो ठीक है।" विनीत बोला-"यूं भी किसी के हंसने तथा रोने में दूसरों को दखल नहीं देना चाहिये, परन्तु जब सामने ही कोई रो रहा हो तब....।"

"तब....?"

"मेरा मतलब, उस समय देखने बाला किस प्रकार अनदेखा कर सकता है।"

"बिल्कुल उसी तरह, जब कोई सुनी हुई बात को भी टाल देता है।"

"ओह....."

"और कुछ कहिये...."

जी....?" विनीत का मस्तिष्क फिर चकराकर रह गया। समय को देखते हुये उसे कहना पड़ा
- "अर्चना, मैं तुम्हारे आंसू नहीं देख सकता।"

"हमदर्दी के लिये शुक्रिया।"

"इसका नाम हमदर्दी नहीं है।" विनीत ने कहा- मैं तो केवल यह चाहता था कि तुम मेरे विषय में और भी अच्छी तरह से सोच लेतीं। मैं किन परिस्थितियों से गुजर रहा हूं, यह बात तुमसे छुपी नहीं है। इससे पहले तुम्हें प्रीति के विषय में भी सोचना चाहिये था।"

अर्चना ने तुरन्त कहा- क्या मेरे सीने में हृदय नहीं है?"

"है, परन्तु प्रीति का प्रेम एक पूजा है।"

"क्या मैं तुम्हारी पूजा नहीं कर सकती?"
 
प्रत्युत्तर में विनीत अवाक रह गया। एक बार फिर उसके मन में आया कि किसी का दिल तोड़ने से क्या लाभ। बात के क्रम को और भी आगे बढ़ाते हुय उसने कहा-"क्या सेठजी मान जायेंगे।"

"उसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर है।"

"ठीक है।"

सुनकर अर्चना की आंखों में धुंधली सी चमक आ गयी। उसने बिस्तर से उत्तरकर विनीत के दोनों हाथ थाम लिये। गहराई से उसकी आंखों में देखकर कहा-"प्रॉमिस?"

"प्रॉमिस।"

अर्चना जैसे प्रसन्नता में झूम उठी। दोनों फिर उसी कमरे में आ गये। मेज पर नाश्ता उसी प्रकार लगा था। दोनों नाश्ता करने लगे। नाश्ते के बाद काफी समय तक इधर उधर की बात चलती रही। विनीत ने फिर उसके सामने बैसी बात नहीं रखी थी। उसने सोच लिया था जब तक वह वहां रहेगा, अर्चना को अप्रसन्न नहीं करेगा। शाम के समय अर्चना ने फिर एस.पी.को फोन किया। वह इससे पहले भी उन्हें दो बार फोन कर चुकी थी। उन्होंने यह नहीं पूछा था कि अनीता और सुधा से तुम्हारा क्या सम्बन्ध परन्तु आज पूछ लिया-"अर्चना, आखिर ये दो लड़कियां कौन हैं?"

"दोनों मेरी सहेलियां हैं अंकल।"

"सहेलियां! परन्तु यह बात तो पांच वर्ष पूर्व की है....."

"हां अंकल....."

“खैर...मैं कल स्वयं उधर आ रहा हूं, उसी समय पूरी बातें बता दूंगा।" सुनकर अर्चना आश्वस्त हुई। इसके साथ ही वह किसी अन्जाने भय से भी कांप उठ थी। उसने रिसीवर रख दिया।

जब विनीत को इस बात का पता चला कि आज एस.पी. साहब यहां आ रहे हैं तो वह एक अनजाने भय से कांप उठा। एक साथ ही कई बिचार उसके इर्द-गिर्द आकर खड़े हो गये। हो सकता है वे उसे पहचान लें। इस बात का अर्चना के पापा के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? मन ने कहा भी कि वह खूनी जरूर है, परन्तु वह तो उसकी सजा को भोग चुका है। इसमें डरने की क्या बात है? वह अपने इन्हीं विचारों में गुम था। तभी अर्चना ने उसके कमरे में आकर कहा-"विनीत , एक खुशखबरी सुनाऊं?"

“क्या...?" अर्चना की ओर देखकर उसने मुस्कराने का असफल प्रयास किया। "

अनीता और सुधा का पता चल गया है। अंकल आये हैं।"

"एस.पी.साहब?"

"हां, तुमसे मिलना चाहते हैं।"

सुनकर विनीत खामोश हो गया। बे उससे मिलना चाहते हैं, परन्तु क्यों? इस बात पर उसका मस्तिष्क उलझकर रह गया। उसने पूछा-"अनीता-सुधा कहां हैं?"

“अभी उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया। मैंने कहा तो कहने लगे कि मैं स्वयं विनीत से मिलना चाहता हूं। वे तुम्हें बुला रहे हैं।"

"ओह।"

"आओ चलो....." अर्चना बड़े ही ध्यान से विनीत के चेहरे को देख रही थी। वह आश्चर्य में थी कि सुधा अनीता की बात को सुनकर भी विनीत को प्रसन्नता नहीं हुई थी। जिनके लिये वह इतने समय से परेशान था, आज उनका पता चलने पर भी उसकी उदासी दूर नहीं हुई थी। उसने कहा-"विनीत , क्या बात है?"

विनीत जैसे नींद से जगा हो। पलक झपकाते हुये उसने कहा-"कुछ नहीं...."
 
"तुम्हें यह सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई?"
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“फिर क्या बात है? अंकल तुम्हें बुला रहे हैं। उन्होंने तो यह भी बताया है कि दोनों वहनें अच्छी दशा में जी रही हैं।"

उत्तर में विनीत ने कुछ नहीं कहा। वह उठा और अर्चना के साथ चलकर दूसरे कमरे में आ गया। अर्चना ने कहा-"अंकल, ये हैं मिस्टर बिनीता"

"अच्छा ! बैठिये....।" एस.पी.साहब ने उसकी ओर देखा। न जाने क्यों विनीत उनकी दृष्टि से दृष्टि न मिला सका।

अभिवादन के उपरान्त वह एक दूसरे सोफे पर बैठ गया। बिल्कुल उसी तरह जैसे कोई अपराधी बैठा हो। वह अपनी ग्रीवा को न उठा सका। एस.पी. साहब के स्वर ने खामोशी को तोड़ा-"तो, सुधा और अनीता तुम्हारी वहनें हैं?"

“ज....जी हां....।" वह हकलाया।

“जेल से छूटकर कब आये हो?" इस प्रश्न पर विनीत बुरी तरह चौंका। स्पष्ट था कि वे उसके विषय में सबकुछ जानते थे। वह कोई उत्तर न दे सका।

उत्तर दिया अर्चना ने— लगभग एक महीना हो चुका है।"

“जी हां।" बात को संभलती देखकर विनीत ने कहा।

"विनीत!" एस.पी.साहब बोले-"तुम्हारी दोनों वहनें जिंदा हैं। परन्तु उस अवस्था में जिसमें कि तुम उन तक नहीं पहुंच सकोगे।”

“जी....." उसने चौंककर अपनी दृष्टि को उठाया।

"हां।" एस.पी. साहब ने कुछ सोचने के बाद कहा-“मैं नहीं जानता कि दोनों को इस मोड़ तक आने में किन दशाओं से गुजरना पड़ा है....परन्तु तुम्हारी दोनों वहनें अपराधी वर्ग में शामिल हो चुकी हैं। पिछले दो महीनों से वे कानून की आंखों में धूल झोंक रही हैं और अभी तक पुलिस उन तक पहुंचने में असमर्थ रही है।"

“एस.पी. साहब! यह....यह क्या कह रहे हैं आप....?"

"सच्चाई! परन्तु सुनो....अपराधी चाहे बड़ा हो या छोटा, कोई भी अपने को कानून के फंदे से नहीं बचा सकता....."

"परन्तु....."

"अब एक बात बताओ....तुम अपनी वहनों तक पहुंचना चाहते हो?"

"जी।"

"चलो मेरे साथ।"

अर्चना बीच में बोली—“परन्तु अंकल....सुधा और अनीता....क्या ये दोनों....?"

"बेटी, पिछले दो महीनों में शहर में दो हत्यायें हुई हैं। वे दोनों साधारण हस्ती के मालिक नहीं थे।"

"परन्तु अंकल....इस बात का क्या प्रमाण है कि हत्या...?"

"उन्होंने ही की है।"

विनीत की समझ में नहीं आया कि उनकी बातों में कहां तक सच्चाई है। उनकी वहनों का हत्याओं से क्या सम्बन्ध? निश्चय ही वे उसे वहला रहे हैं। अन्त में उसने कहा— एस.पी. साहब, यह तो मैं नहीं जानता कि मेरी वहनों को किस प्रकार का जीवन बिताना पड़ा होगा....परन्तु मैं इस बात को मानने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं हूं कि मेरी सीधी-सादी वहनें किसी की हत्या भी कर सकती हैं।"
 
“विनीत, मैं इतने वर्षों से पुलिस विभाग में हूं। न जाने कितने अपराधियों के चेहरे मेरे सामने से गुजरे हैं। जहां मैंने उन्हें कठोर से कठोर सजा दिलवायी है, वहां इस बात का भी अनुभव किया है कि प्रत्येक अपराधी किसी न किसी परिस्थिति वश अपराध करने पर विवश हो जाता है। उसके द्वारा किया हुआ एक अपराध भी उसके जीवन को बदल देता है। इसलिये कि वह अपने को कानून की दृष्टि से बचाना चाहता है। बचने के लिये उसे और भी कई अपराधों का सहारा लेना पड़ता है....। अपराधों का यह क्रम उस समय तक चलता रहता है जब तक कानून उस तक नहीं पहुंचता। छोटे अपराधी भी बड़े बन जाते हैं..... "अनीता ने सबसे पहले एक सेठ का खून किया था। अनीता उसकी कोठी पर खाना बनाने का काम करती थी। हत्या दिन में हुई थी। दरअसल अपनी इज्जत बचाने के लिये ही उसे यह हत्या करनी पड़ी थी। ये सभी सूत्र पुलिस को मिल चुके थे। कोठी के दो नौकरों ने भी अपने बयान में यही बात कही थी। “यहां अनीता से सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उसने अपने आपको कानून के हवाले नहीं किया और वह फरार होने में सफल हो गयी। हां, यदि वह हत्या के बाद भी कानून की सहायता लेती तो फैसला उसी के पक्ष में रहता। उसे बरी किया जा सकता था। और आज....पुलिस विभाग को इस बात की जानकारी है कि अनीता, सुधा के साथ दो व्यक्तियों का खून कर चुकी है। प्रत्येक खून उसके प्रतिशोध का दूसरा रूप है।" इतना कहने के बाद एस.पी.साहब ने विनीत की ओर देखा।

उसने पूछा- "एस.पी. साहब, प्रतिशोध लेना क्या गुनाह है?"

“हां।” बे बोले—“क्योंकि कानून है ही इसलिये कि आदमी उसका सहारा ले सके। उसके सहारे सुरक्षा से रह सके। जबकि कुछ लोग कानून को कुछ नहीं समझते और बे किसी को सजा देने का अधिकार भी अपने हाथ में ही ले लेते हैं जो कि कानून की दृष्टि में अपराध

“परन्तु मेरा बिचार दूसरा है।"

"वह क्या....?"

"जिन दशाओं में मेरी वहनों को जीना पड़ा था, उस दशा में कोई भी औरत नहीं जीना चाहती। आप यह भी जानते होंगे कि औरत सब कुछ सहन कर सकती है, परन्तु अपनी इज्जत का सौदा करना उसे बिल्कुल भी पसन्द नहीं होता। वह उसे किसी भी दशा में बर्दाश्त नहीं कर सकती।"

एस.पी. साहब तुरन्त बोले- लेकिन विनीत , इस बात का अर्थ यह तो नहीं होता कि औरत कानून को अपने हाथ में ले ले....वह किसी की हत्या कर दे।"

विनीत कुछ सोचकर खामोश हो गया। उसे यह सुनकर पश्चाताप हुआ था कि उसकी अनुपस्थिति ने उसकी वहनों को दर-दर भटकने पर विवश कर दिया था। इस विवशता ने उन्हें किसी का कत्ल करने पर विवश कर दिया था। परन्तु उसके विचार में सुधा और अनीता ने जो कुछ किया था, वह बुरा नहीं था। यह स्मरण करके विनीत ने गर्व का अनुभव किया था।

बे फिर बोले—“विनीत , यदि तुम चाहो तो तुम्हारी वहनें अब भी उस रास्ते से हट सकती हैं, जो रास्ता उन्हें फांसी के फन्दे तक पहुंचाता है।"

"परन्तु इसमें मैं क्या कर सकता हूं?"

"तुम....”

"हां....!"

"सुनो, वे दोनों भी तुम्हें खोज रही होंगी।"

"तब....?"

पुलिस को इस बात का भी पता चला है कि बे जैना होटल में आती-जाती हैं। तुम्हें प्रतिदिन उस होटल में जाना चाहिये।"

"इससे क्या होगा?"

"सुधा और अनीता....कोई भी तुम्हें पहचान लेगी।"

"एस.पी.साहब....।" प्रत्युत्तर में विनीत ने कहा—"सच्चाई आप जानते ही हैं कि मैं अपनी दोनों वहनों से मिलने के लिये कितना बेचैन हूं। बास्तबिकता तो यह है कि आज मैं उसी उम्मीद पर जिंदा हूं....। परन्तु...."

"परन्तु क्या....?"

“मैं अपनी वहनों को फांसी के तख्ते पर नहीं चढ़वा सकता।”

“विनीत !” एस.पी. साहब का स्वर तनिक कठोर हो गया।
 
“एस.पी. साहब, यदि बास्तब में मेरी वहनों ने कोई गुनाह किया है, तब मैं स्वयं ही दोनों को खोजकर आपके सुपुर्द कर देता।"

“तुम खून करने को जुर्म नहीं मानते?"

"खून करने को जुर्म मानता हूं, परन्तु इज्जत बचाने को जुर्म नहीं मानता। एस.पी. साहब! मैं स्वयं सजा काट चुका हूं, परन्तु मैंने कभी यह बात नहीं सोची कि मैंने कोई गुनाह किया था। मैंने केवल कर्तव्य पालन किया था। यदि वहनों को भी कर्तव्य पालन करना पड़ रहा है तो मैं इसे गुनाह नहीं कहूंगा।"

लम्बी खामोशी। अर्चना काफी पहले से खामोश थी और इस विवाद पर झल्ला रही थी। आखिर विनीत का उन हत्याओं से क्या मतलब था, जो उसकी वहनों से हो चुकी थीं।। चुप्पी को फिर एस.पी. साहब के स्वर ने ही तोड़ा—"देखो विनीत , यदि तुम्हारा यह अनुमान हो कि तुम्हारी वहनें कानून की निगाह से बच जायेंगी, तो यह सोचना मूर्खता की बात होगी। क्योंकि अपराधी कैसा भी हो....उसे कभी-न-कभी कानून की गिरफ्त में अवश्य आना पड़ता है। आज नहीं तो कल उन दोनों को अपने किये का प्रायश्चित करना होगा। मैंने यह बात तुम्हारे सामने केवल इसलिए रखी कि इस वक्त तुम मेरे भाई के घर में रहते हो। मैं नहीं चाहता कि फिर तुम्हारे सामने कोई मुसीबत आकर खड़ी हो जाये।”

"एस.पी.साहब, जहां तक यहां रहने की बात है....तो उसके विषय में मैं इतना ही कहूंगा कि अर्चना जी ने मुझ पर कृपा की है। मैं जब जीबन से ऊब चुका था, तब इन्होंने मुझे इंसान समझा और मुझे जीने की राह दिखायी। आप कहते हैं तो मैं आज ही यहां से चला जाऊंगा....आप कहिये।"

"मिस्टर विनीत....मेरा मतलब दूसरा था। मैं चाहता हूं कि इस विषय में गहराई से सोचो। तुम्हें कानून की मदद करनी चाहिये।"

“जी....."

"अच्छा बेटी....मैं चलूं....!" एस.पी. साहब अपने स्थान से उठकर खड़े हो गये।

"इतनी जल्दी अंकल....।" अर्चना बोली।

"हां....." अर्चना उन्हें मुख्य द्वार तक छोड़ने गयी। जब वह वापिस आयी तो विनीत अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ा था। वह जानती थी कि अंकल की बातों से उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ा

विनीत ने उसे कमरे में आते देख भी लिया था, फिर भी वह खामोश था। अर्चना को उसकी खामोशी काटने लगी। पुकारा-"विनीत !"

“कहिये।"

"मुझसे नाराज हो?"

"नहीं तो।”

"फिर क्या बात है?"

"कुछ नहीं....हां, मैं इसी वक्त यहां से जा रहा हूं।"

"क्यों....?"

"अर्चना।” विनीत बोला—“मैं समझता था कि जो गुनाह मैंने किया था, मैं उसकी सजा भोग चुका हूं....."

"परन्तु अब क्या हुआ?" अर्चना ने अधीर होकर पूछा।

"मेरे गुनाह की सजा अभी बाकी है अर्चना। सोचता हूं क्या करूं? मन में इतनी शक्ति नहीं है कि वह और भी कुछ सहन कर सके। मैं यहां रहूंगा तो एस.पी. साहब कभी मुझे चैन से न बैठने देंगे। बे मेरे द्वारा मेरी वहनों को गिरफ्तार करवाना चाहेंगे। जबकि मैं किसी दशा में भी ऐसा नहीं कर सकता। अब तुम ही बताओ कि मुझे क्या करना चाहिए....?" कहकर विनीत ने अर्चना की ओर देखा।

अर्चना स्वयं भी यह बात सोच रही थी। इसलिये वह तुरन्त ही कोई उत्तर न दे सकी। फिर बोली- "मैं पापा से सिफारिश कर दूंगी।"

"किस बात की?"
..
“कि अंकल आपको परेशान न करें।"

"एक बात बताओ।"

“बोलो..."

"क्या तुम्हारे पापा को इस बात का पता है कि मैं खूनी हूं?"

"कमाल है। भला मैं उनसे ऐसी बात क्यों बता देती? पता नहीं इस बात को सुनकर वे तुम्हारे विषय में क्या धारणा बनाते....."
 
विनीत धीरे से हंसा-"तब फिर तुम उनसे क्या सिफारिश कर दोगी? मैं समझता हूं....एस.पी. साहब स्वयं उनसे कह देंगे।"

"ओह...."

मुझे जाना ही पड़ेगा अर्चना। तुम्हारे पापा भी इस बात को सहन न करेंगे कि एक खूनी उनके घर में रहे।"

"परन्तु तुम तो सजा भोग चुके हो।"

"हां, यह समझो कि कानून की दृष्टि में।” विनीत ने कहा-“कानून मुझे सजा दे चुका है। परन्तु समाज....दुनिया के लोग....कौन मुझे अच्छा समझ सकता है?"

“पापा वैसे नहीं हैं।"

"हो सकता है, परन्तु समय के साथ हर इन्सान के विचार बदल जाते हैं।"

अर्चना निरुत्तर सी हो गयी। विनीत के तर्क ने उसे जैसे मूक बना दिया था। वह विनीत को रोकना चाहती थी....उसके लिये कुछ भी करने को तत्पर थी। उसका मन इस बात को स्वीकार कर चुका था कि विनीत एक देवता है। यह दूसरी बात है कि वह पत्थर था....पत्थर का देवता था। किसी विवशता ने उसे ऐसा बनाया था। वह नहीं चाहती थी कि विनीत यहां से चला जाये। उसे ऐसा लगा था कि जैसे वह उसके बिना जिंदा नहीं रह सकेगी। अनायास ही उसकी पलकें भारी हो गयीं। खामोशी के बाद वह बोली-"विनीत!"

"कहो...."

"ईश्वर के लिये ऐसी बात मत कहो। मैंने अपने जीवन में पहली बार प्यार किया है। कई बार प्रेम के विषय में सोचा भी। परन्तु न जाने क्यों तुमसे पहले मुझे इस शब्द से नफरत थी। लेकिन तुम्हें देखते ही मेरा मन छटपटा उठा....और मैं तुम्हें पाने के लिये बेचैन हो उठी। विनीत, मैं जानती हूं कि मैं प्रीति नहीं बन सकती। हां, इतना अवश्य है कि मैं तुम्हारे लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे सकती हूं। तुम्हारे लिये चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े, मैं तुम्हें कुछ भी न होने दूंगी।"

उसकी बातों को सुनकर विनीत किसी गहरे विचार में डूब गया। एक बार उसके मन में भी आया कि वह अर्चना की मूर्खता पर खुलकर हंसे। इसलिये कि वह उसको प्यार नहीं करता था....न ही कर सकता था। फिर भी उसने कहा-"अर्चना, इसके साथ दूसरी बात यह है कि मैं अपनी वहनों के बिना नहीं रह सकता। मुझे किसी भी प्रकार उनसे मिलना ही पड़ेगा।"

“यानि तुम उन दोनों को कानून के हवाले कर दोगे....."

"नहीं...."

“फिर उनके साथ रहोगे?"

"शायद नहीं।"

"तब क्या करोगे?"

"फिलहाल कुछ भी नहीं कह सकता।"

"मूर्खतापूर्ण बात मत सोचो विनीत ।" अर्चना बोली-"कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। आज तक कोई अपराधी उसकी पकड़ से नहीं बचा। सुधा और अनीता ने दो खून किये हैं, कानून उन्हें कभी भी माफ नहीं कर सकता। मेरा विचार है, तुम्हें उन दोनों को ही अपने दिमाग से निकाल देना चाहिये। इसके बाद अंकल को मैं समझा दूंगी।"

“नहीं अर्चना।"

"क्यों?"

"कह नहीं सकता क्यों, परन्तु उनको भुला देना मेरे वश की बात नहीं है।"

"और मुझे....?" कहकर अर्चना ने उसकी ओर देखा।
 
"बेटी!" सेठजी ने कहा- "मैं यह नहीं कह रहा कि तुमने एक गैर आदमी को पनाह क्यों दी। जिस अवस्था में वह सड़कों के चक्कर लगा रहा था, तुमसे उसकी वह दशा देखी नहीं गयी और तुमने उसे इन्सान बना दिया। आज उसको देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि कल यही आदमी सड़कों पर पागलों की तरह घूमता रहा होगा। तुमने अच्छा किया। क्योंकि इतनी बड़ी कोठी में तुम अकेली रहती थीं, मैंने भी तुम्हारे मन-वहलाव के कारण कुछ न कहा था। परन्तु...."

"परन्तु पापा...?"

"तुम्हें असलियत जाननी चाहिये थी।"

लेकिन पापा....।"

"सुनो बेटी! विनीत नाम का यह व्यक्ति वास्तव में खूनी है। इसने किसी फर्म के मैनेजर का खून किया था। यह सजा काटकर आया है।"

"परन्तु पापा।" अर्चना ने अपने को संभाला—“क्या पाप का प्रायश्चित करने के बाद भी आदर्मी पापी ही कहलाता है....?"

सेठजी तुरन्त ही कोई उत्तर न दे सके। फिर बोले- पाप एक दाग है बेटी। एक बार इन्सान के माथे पर लगने के बाद वह कभी नहीं छूटता। विनीत ने खून किया था।"

“आपको यह सब किसने बताया?"

"तुम्हारे अंकल....अरबिंद कुमार ने।"

"तब तो उन्होंने यह भी बताया होगा कि विनीत ने किन दशाओं से तंग आकर उस मैनेजर का खून किया था....?"

“मैंने पूछने की जरूरत नहीं समझी।"

"मैं बताती हूं।” अर्चना बोली-“फर्म का मैनेजर चरित्रहीन था।"

"हो सकता है।" वे बोले- मेरे कहने का अर्थ तो केवल इतना है कि हमें किसी खुनी को अपने घर में शरण नहीं देनी चाहिये। तुम जानती हो कि तुम्हारे अंकल पुलिस विभाग में हैं। हम यदि ऐसा करते हैं तो इससे अरविंद की कर्तव्यनिष्ठा पर आंच आती है। हमें कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिये जिसके कारण कानून हमारी ओर आंख उठा सके।"

"ओह....."

"एक बात और है ....." अर्चना ने केवल उनकी ओर देखा। बे फिर बोले- सुधा तथा अनीता नाम की दोनों लड़कियां फरार हैं। दोनों ने एक-एक करके दो खून किये थे। पुलिस अभी तक दोनों को पकड़ने में असमर्थ रही है।"

"ओह।"

"सुनो बेटी! विनीत भले ही शरीफ बन गया हो, परन्तु जिसकी दोनों वहनें खूनी हों, उस भाई को कौन आदमी शरीफ कह सकेगा? आज नहीं तो कल लोग मेरी ओर भी उंगली उठाना शुरू कर देंगे। तब हम क्या जवाब देंगे?"

“पापा, एक बास्तबिकता और है।"

“वह क्या?" उन्होंने चौंककर अर्चना की ओर देखा।

“दरअसल मैं....।” अर्चना साहस नहीं जुटा पा रही थी।

“बोलो....."

“मैं विनीत से....प्यार....."

प्रत्युत्तर में सेठजी हंसने लगे। अर्चना पागलों की तरह उनका चेहरा देख रही थी। हंसी रुकने पर वे बोले-"नासमझदारी की बात है।"

"परन्तु पापा.....”
 
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