hotaks444
New member
- Joined
- Nov 15, 2016
- Messages
- 54,521
वो कौन थी ???
लेखक - दाग्रेटवॉरियर
19 जुलाइ 2007 ट्रेन मे
-------------------
यह उस समय की बात है जब मैं इंटर फर्स्ट एअर का एग्ज़ॅम दे चुका था और अभी सेकेंड एअर के लिए कॉलेजस नही खुले थे. मेरे डॅड जो एक लीगल प्रॅक्टिशनर ( वकील ) हैं उन्हों ने हमारे घर के ऊपेर के हिस्से मे एक पोल्ट्री फार्म बनाने का निर्णय लिया. पहले मैं आपको अपने घर के बारे मे
बता दू. हमारा घर बोहोत ही बड़ा है. 2 माले की पुरानी हवेली टाइप जिसके कमरे भी बोहोत बड़े बड़े हैं और बोहोत सारे हैं. घर का आँगन भी बोहोत बड़ा है जहाँ गर्मिओ के मौसम मे शाम को पानी का छिड़काव करके बैठ ते हैं. आँगन मे नीम के पेड़ भी हैं जिनसे ठंडी हवा भी आती रहती है. घर बड़ा है तो घर की छतें ( रूफ ) भी बोहोत ही ऊँची ऊँची हैं. वही एक पोर्षन मे पोल्ट्री फार्म का सोचा मेरे डॅडी ने छत पर एक टेंपोररी शेड डलवा दिया चारों तरफ से जाली लगा दी गई और उसके फ्लोर पे धान की लियरिंग भी करवा दी गई. पोल्ट्री का एक छोटा सा फार्म तो रेडी हो गया अब लाना था तो बॅस चिकन को. यह पोल्ट्री फार्म बिज़्नेस के लिए नही खोला गया था बस घर के लिए और आस पड़ोस के लोगो को फ्री मे एग्स देने के लिए बनाया गया था.
डॅडी को उनके किसी दोस्त ने किसी गाँव का पता बताया के वाहा अछी चिकन मिल जयगी. वो गाँव मेरे शहेर से बोहोत ज़ियादा दूर तो नही था पर हा ट्रेन से सफ़र कर ने के लिए पहले कुछ डिफरेंट डाइरेक्षन मे जाना पड़ता था फिर वाहा से दूसरी ट्रेन पकड़ के उस गाँव के करीब वाले रेलवे स्टेशन तक जाना पड़ता था उसके बाद शाएद 30 से 45 मिनिट का रास्ता बैल गाड़ी ( बुलक कार्ट ) मे तय करना पड़ता था. उस गाओं मे मेरे डॅडी का एक क्लाइंट भी रहता था जो गाँव का मुखिया भी था तो उस ने मेरे डॅडी से कहा के आप किसी को भेज दीजिए मैं सारा इंतज़ाम कर दूँगा और पोल्ट्री को भी डाइरेक्ट आपके शहेर के लिए लॉरी मे बुक कर दूँगा.
मैं ने सिर्फ़ गाँव का नाम ही सुना था और कभी ट्रेन या बस से सफ़र करते हुए विलेजस को दूर से ही देखा था पर सही मानो मैं विलेज लाइफ से वाकिफ़ नही था और ऐसे मौके को हाथ से जाने भी नही देना चाहता था. सोचा के एक साथ ट्रेन और बैल गाड़ी का सफ़र !!! मज़ा आ जाएगा मैं बोहोत एग्ज़ाइटेड हो गया था.
डॅडी से बोला तो उन्हो ने भी सोचा के चलो कॉलेज की भी छुट्टियाँ है तुम ही चले जाओ. मेरी समझ मे चिकन की सेलेक्षन क्या आनी थी वो तो बॅस नॉमिनल ही जाना था और अंदाज़े से कुछ पेमेंट करना था बाकी पेमेंट तो चिकेन्स के आने के बाद ही करनी थी. 300 चिकेंस का ऑर्डर करना था. यह कोई बिज़्नेस के लिए नही था बॅस ऐसे ही शौकिया तौर पे रखना था ता के घर के लोग और खानदान के लोग इस्तेमाल कर सके और पास पड़ोस मे बाँट सके.
सुबह सुबह सफ़र शुरू हो गया. ट्रेन से पहले तो गुंटकाल जंक्षन तक चला गया वाहा से ट्रेन दूसरी चेंज कर के उस गाँव के पास वेल स्टेशन का टिकेट ले लिया ( अब तो उस गाँव का नाम भी याद नही ). गुंटकाल से मीटर गेज ट्रेन मे जाना था. मीटर गेज ट्रेन छोटी ट्रेन होती है. उसके डिब्बे भी छोटे होते हैं. और डिब्बे के बीच मे रास्ता भी छोटा सा ही होता है. यूँ समझ ले के आज कल जैसे ट्रेन्स हैं वो ब्रॉड गेज ट्रेन्स हैं. मीटर गेज उसकी तकरीब 3/4थ होती थी. ( अब तो खैर मीटर गेज ट्रेन्स बंद हो चुकी हैं पर तब चला करती थी लैकिन सिर्फ़ रिमोट टाइप के इंटीरियर विलेजस को करीब के शहेर तक कनेक्ट करने के लिए ही चला करती थी ). खैर मीटर गेज ट्रेन मे सफ़र करने का और देखने का पहला मौका था. ट्रेन चल पड़ी तो एक अजीब सा एहसास हुआ थोडा मज़ा भी आया एक नये सफ़र का. वो ट्रेन बोहोत हिल रही थी जैसे कोई झूला झूला रहा हो. दिन का समय होने के बावजूद ट्रेन के झूला झुलाने से नींद आ रही थी.
दिन के तकरीबन 11 बजे के करीब उस गाओं के करीब वाले स्टेशन पे ट्रेन पहुँची तो मेरे डॅडी के उस क्लाइंट का बेटा जिसका नाम लक्ष्मण था वो बैल गाड़ी लिए स्टेशन पे मेरा इंतेज़ार कर रहा था. लक्ष्मण के साथ उसके गाँव तक एक घंटे मे पहुँच गये. खेतों मे से बैल गाड़ी गुज़र रही थी तो बोहोत अछा लग रहा था. खेतों मे उगी हुई फसल ( पता नही कौनसी थी ) उसकी एक अनोखी सी खुसबू मंन को बोहोत भा रही थी. बैल गाड़ी मे सफ़र करने का अपना ही मज़ा है. एक तरफ बैठो तो एक ही झटके मे दूसरे तरफ हो जाते हैं. हिलते झूलते गाओं को पोहोन्च गये.
लक्ष्मण के घर मे खाना खाया. यह टिपिकल सफ़र की वजह से जो घर से खा के निकला था वो सब हजम हो गया था और पेट पूरा खाली हो गया था. बोहोत ज़ोर की भूक लगी थी. लक्ष्मण की मा ने बोहोत अछा और मज़े दार खाना बनाया था बोहोत जम्म के खाया. खाने के बाद एक बड़ा सा ग्लास लस्सी का पिलाया गया तो तबीयत मस्त हो गई. अब तो मंन कर रहा था के थोड़ा रेस्ट होना चाहिए बॅस यह सोच ही रहा था के लक्ष्मण के पिताजी जिनका नाम विजय आनंद था. .
वो गाओं के मुखिया भी थे. गाओं वाले सब उनको इज़्ज़त से लालजी कह कर बुलाते थे. लाला जी ने मुझ से कहा बेटा थोड़ा सा आराम कर लो थोड़ी ही देर
मे चलते है तुम चिकेन्स देख लेना. मैं तो लेट ते ही सो गया तो शाएद 2 घंटे के बाद आँख खुली.
शाम के ऑलमोस्ट 3 बजे हम राजू के फार्म पे पहुचे. राजू के पास ही चिकेन्स का ऑर्डर देना था. राजू का फार्म लालजी के घर से ज़ियादा दूर नही था. हम चलते चलते ही पोहोन्च गये. देखा तो वाहा पे छोटी छोटी मुर्गियाँ ( चिकेन्स ) थी. मेरी समझ मे नही आया. मैं तो समझ रहा था के बड़ी बड़ी पर्चेस करना है लैकिन यहा तो छोटी छोटी मुर्घियाँ थी.
लेखक - दाग्रेटवॉरियर
19 जुलाइ 2007 ट्रेन मे
-------------------
यह उस समय की बात है जब मैं इंटर फर्स्ट एअर का एग्ज़ॅम दे चुका था और अभी सेकेंड एअर के लिए कॉलेजस नही खुले थे. मेरे डॅड जो एक लीगल प्रॅक्टिशनर ( वकील ) हैं उन्हों ने हमारे घर के ऊपेर के हिस्से मे एक पोल्ट्री फार्म बनाने का निर्णय लिया. पहले मैं आपको अपने घर के बारे मे
बता दू. हमारा घर बोहोत ही बड़ा है. 2 माले की पुरानी हवेली टाइप जिसके कमरे भी बोहोत बड़े बड़े हैं और बोहोत सारे हैं. घर का आँगन भी बोहोत बड़ा है जहाँ गर्मिओ के मौसम मे शाम को पानी का छिड़काव करके बैठ ते हैं. आँगन मे नीम के पेड़ भी हैं जिनसे ठंडी हवा भी आती रहती है. घर बड़ा है तो घर की छतें ( रूफ ) भी बोहोत ही ऊँची ऊँची हैं. वही एक पोर्षन मे पोल्ट्री फार्म का सोचा मेरे डॅडी ने छत पर एक टेंपोररी शेड डलवा दिया चारों तरफ से जाली लगा दी गई और उसके फ्लोर पे धान की लियरिंग भी करवा दी गई. पोल्ट्री का एक छोटा सा फार्म तो रेडी हो गया अब लाना था तो बॅस चिकन को. यह पोल्ट्री फार्म बिज़्नेस के लिए नही खोला गया था बस घर के लिए और आस पड़ोस के लोगो को फ्री मे एग्स देने के लिए बनाया गया था.
डॅडी को उनके किसी दोस्त ने किसी गाँव का पता बताया के वाहा अछी चिकन मिल जयगी. वो गाँव मेरे शहेर से बोहोत ज़ियादा दूर तो नही था पर हा ट्रेन से सफ़र कर ने के लिए पहले कुछ डिफरेंट डाइरेक्षन मे जाना पड़ता था फिर वाहा से दूसरी ट्रेन पकड़ के उस गाँव के करीब वाले रेलवे स्टेशन तक जाना पड़ता था उसके बाद शाएद 30 से 45 मिनिट का रास्ता बैल गाड़ी ( बुलक कार्ट ) मे तय करना पड़ता था. उस गाओं मे मेरे डॅडी का एक क्लाइंट भी रहता था जो गाँव का मुखिया भी था तो उस ने मेरे डॅडी से कहा के आप किसी को भेज दीजिए मैं सारा इंतज़ाम कर दूँगा और पोल्ट्री को भी डाइरेक्ट आपके शहेर के लिए लॉरी मे बुक कर दूँगा.
मैं ने सिर्फ़ गाँव का नाम ही सुना था और कभी ट्रेन या बस से सफ़र करते हुए विलेजस को दूर से ही देखा था पर सही मानो मैं विलेज लाइफ से वाकिफ़ नही था और ऐसे मौके को हाथ से जाने भी नही देना चाहता था. सोचा के एक साथ ट्रेन और बैल गाड़ी का सफ़र !!! मज़ा आ जाएगा मैं बोहोत एग्ज़ाइटेड हो गया था.
डॅडी से बोला तो उन्हो ने भी सोचा के चलो कॉलेज की भी छुट्टियाँ है तुम ही चले जाओ. मेरी समझ मे चिकन की सेलेक्षन क्या आनी थी वो तो बॅस नॉमिनल ही जाना था और अंदाज़े से कुछ पेमेंट करना था बाकी पेमेंट तो चिकेन्स के आने के बाद ही करनी थी. 300 चिकेंस का ऑर्डर करना था. यह कोई बिज़्नेस के लिए नही था बॅस ऐसे ही शौकिया तौर पे रखना था ता के घर के लोग और खानदान के लोग इस्तेमाल कर सके और पास पड़ोस मे बाँट सके.
सुबह सुबह सफ़र शुरू हो गया. ट्रेन से पहले तो गुंटकाल जंक्षन तक चला गया वाहा से ट्रेन दूसरी चेंज कर के उस गाँव के पास वेल स्टेशन का टिकेट ले लिया ( अब तो उस गाँव का नाम भी याद नही ). गुंटकाल से मीटर गेज ट्रेन मे जाना था. मीटर गेज ट्रेन छोटी ट्रेन होती है. उसके डिब्बे भी छोटे होते हैं. और डिब्बे के बीच मे रास्ता भी छोटा सा ही होता है. यूँ समझ ले के आज कल जैसे ट्रेन्स हैं वो ब्रॉड गेज ट्रेन्स हैं. मीटर गेज उसकी तकरीब 3/4थ होती थी. ( अब तो खैर मीटर गेज ट्रेन्स बंद हो चुकी हैं पर तब चला करती थी लैकिन सिर्फ़ रिमोट टाइप के इंटीरियर विलेजस को करीब के शहेर तक कनेक्ट करने के लिए ही चला करती थी ). खैर मीटर गेज ट्रेन मे सफ़र करने का और देखने का पहला मौका था. ट्रेन चल पड़ी तो एक अजीब सा एहसास हुआ थोडा मज़ा भी आया एक नये सफ़र का. वो ट्रेन बोहोत हिल रही थी जैसे कोई झूला झूला रहा हो. दिन का समय होने के बावजूद ट्रेन के झूला झुलाने से नींद आ रही थी.
दिन के तकरीबन 11 बजे के करीब उस गाओं के करीब वाले स्टेशन पे ट्रेन पहुँची तो मेरे डॅडी के उस क्लाइंट का बेटा जिसका नाम लक्ष्मण था वो बैल गाड़ी लिए स्टेशन पे मेरा इंतेज़ार कर रहा था. लक्ष्मण के साथ उसके गाँव तक एक घंटे मे पहुँच गये. खेतों मे से बैल गाड़ी गुज़र रही थी तो बोहोत अछा लग रहा था. खेतों मे उगी हुई फसल ( पता नही कौनसी थी ) उसकी एक अनोखी सी खुसबू मंन को बोहोत भा रही थी. बैल गाड़ी मे सफ़र करने का अपना ही मज़ा है. एक तरफ बैठो तो एक ही झटके मे दूसरे तरफ हो जाते हैं. हिलते झूलते गाओं को पोहोन्च गये.
लक्ष्मण के घर मे खाना खाया. यह टिपिकल सफ़र की वजह से जो घर से खा के निकला था वो सब हजम हो गया था और पेट पूरा खाली हो गया था. बोहोत ज़ोर की भूक लगी थी. लक्ष्मण की मा ने बोहोत अछा और मज़े दार खाना बनाया था बोहोत जम्म के खाया. खाने के बाद एक बड़ा सा ग्लास लस्सी का पिलाया गया तो तबीयत मस्त हो गई. अब तो मंन कर रहा था के थोड़ा रेस्ट होना चाहिए बॅस यह सोच ही रहा था के लक्ष्मण के पिताजी जिनका नाम विजय आनंद था. .
वो गाओं के मुखिया भी थे. गाओं वाले सब उनको इज़्ज़त से लालजी कह कर बुलाते थे. लाला जी ने मुझ से कहा बेटा थोड़ा सा आराम कर लो थोड़ी ही देर
मे चलते है तुम चिकेन्स देख लेना. मैं तो लेट ते ही सो गया तो शाएद 2 घंटे के बाद आँख खुली.
शाम के ऑलमोस्ट 3 बजे हम राजू के फार्म पे पहुचे. राजू के पास ही चिकेन्स का ऑर्डर देना था. राजू का फार्म लालजी के घर से ज़ियादा दूर नही था. हम चलते चलते ही पोहोन्च गये. देखा तो वाहा पे छोटी छोटी मुर्गियाँ ( चिकेन्स ) थी. मेरी समझ मे नही आया. मैं तो समझ रहा था के बड़ी बड़ी पर्चेस करना है लैकिन यहा तो छोटी छोटी मुर्घियाँ थी.