hotaks444
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संघर्ष--11
सावित्री काफ़ी ताक़त लगा कर चटाई पर से उठी लेकिन एकदम नंगी होने के वजह से सामने लेटे हुए पंडित जी को देख कर उसे लाज़ लग रही थी और अगले पल वह फर्श पर पड़े अपने कपड़ों को लेने के लिए बढ़ी लेकिन बुर झांट और चूतड़ पर चुदाई रस और खून से भीगे होने के वजह से रुक गयी और मज़बूरी मे नंगे ही शौचालय की ओर चल पड़ी. उसने जैसे ही अपने पाँव आगे बढ़ाना चाहे कि लगा बुर मे उठे दर्द से गिर पड़ेगी. काफ़ी हिम्मत के साथ एक एक कदम बढ़ाते हुए शौचालय तक गयी. चौकी पर लेटे लेटे पंडित जी भी नंगी सावित्री को शौचालय के तरफ जाते देख रहे थे. उसके चूतड़ काफ़ी गोल गोल और बड़े बड़े थे. उसकी कमर के पास का कटाव भी काफ़ी आकर्षक लग रहा था. धीरे धीरे वह शौचालय मे जा रही थी. वह जान रही थी कि पंडित जी उसे पीछे से देख रहे हैं और उसे लाज़ भी लग रही थी लेकिन उसे अपना बुर और झांते, चूतड़ पर का चुदाई रस और खून को धोना बहुत ज़रूरी भी था क्योंकि यदि उसके चड्डी और कपड़े मे लग जाती तो उसकी मा सीता उसे पकड़ लेती. इसी डर से वह अपनी बुर झांट और चूतड़ को धोने के लिए शौचालय मे अंदर जा कर दरवाजा मे सीत्कनी लगा कर फिर से अपनी चुदी हुई बुर को देखी. और खड़े खड़े एक बार हाथ भी बुर पर फिराया तो मीठा मीठा दर्द का आभास हुआ. फिर बुर धोने के नियत से बैठी लेकिन उसे कुछ पेशाब का आभास हो रहा था तो बैठे बैठे ही पेशाब करने की कोशिस की तो थोड़ी देर बाद पेशाब की धार बुर से निकलने लगी. तभी उसे याद आया कि पंडित जी के लंड से गर्म वीरया बुर के अंदर ही गिरा था. वह यही सोच रही थी कि उनका सारा वीरया उसकी बुर मे ही है. और बाहर नही निकला. फिर उसने पेशाब बंद होते ही सिर को झुकाते हुए बुर के दरार मे देखी की शायद वीरया भी बाहर आ जाए. लेकिन बुर की दरार से बस एक लसलाषसा चीज़ चू रहा था. वह समझ गयी कि यह वीरया ही है. लेकिन बस थोड़ी सी निकल कर रह गयी. फिर सावित्री ने अपने बुर मे अंदर से ज़ोर लगाई कि बुर मे गिरा पंडित जी का वीरया बाहर आ जाए. लेकिन ज़ोर लगाने पर बुर मे एक दर्द की लहर दौड़ उठी और बस सफेद रंग का लसलसा चीज़ फिर काफ़ी थोड़ा सा चू कर रह गया. सावित्री यह समझ गयी कि उसके बुर मे जब पंडित जी वीरया गिरा रहे थे तो उनका लंड बुर के काफ़ी अंदर था और ढेर सारा वीरया काफ़ी देर तक गिराते रहे. गिरे हुए वीरया की अनुपात मे चू रहा सफेद लसलसा चीज़ या वीरया कुछ भी नही है. यानी पंडित जी के लंड से गिरा हुआ लगभग पूरा वीरया बुर के अंदर ही रह गया था. सावित्री अब कुछ घबरा ही गयी थी. उसे अपने गाओं की सहेलिओं से यह मालूम था कि जब मर्द औरत को चोद्ता है तो चुदाई के अंत मे अपनी लंड से वीरया बुर मे गिरा या उडेल देता है तो औरत को गर्भ ठहर जाता है. वह यही सोच रही थी कि पंडित जी ने अपना वीरया अंदर गिरा चुके हैं और यदि यह वीरया अंदर ही रह जाएगा तो उसका भी गर्भ ठहर जाएगा. अब शौचालय मे बैठे बैठे उसे कुछ समझ नही आ रहा था. उसने फिर एक बार अपनी बुर को दोनो हाथों से थोड़ा सा फैलाई तो दर्द हुआ और फिर ज़्यादा फैला नही पाई. और जितना फैला था उतने मे ही अपने पेट के हिस्से से जैसे पेशाब करने के लिए ज़ोर लगाते हैं वैसे ही ज़ोर लगाई कि वीरया बुर के बाहर आ जाए लेकिन फिर बस थोड़ा सा सफेद लसलसा चीज़ चू कर रह गया. ******************************
******** अचानक जिगयसा वश सावित्री ने बुर से चू रही लसलासी चीज़ को उंगली पर ले कर नाक के पास ला कर सूंघने लगी. उसका महक नाक मे जाते ही सावित्री को लगा कि फिर से मूत देगी. गजब की महक थी वीरया की. सावित्री के जीवन का पहला मौका था जब किसी मर्द के वीरया को छु और सूंघ रही थी. पता नही क्यों पंडित जी के वीरया का महक उसे काफ़ी अच्छी लग रहा था. आख़िर पूरा वीरया बुर से ना निकलता देख सावित्री अपने बुर झांट और चूतड़ पर लगे चुदाई रस और खून को धोने लगी. सावित्री अपनी बुर को ही बार बार देख रही थी कि कैसे बुर का मुँह थोडा सा खुला रह जा रहा है. जबकि की चुदाई के पहले कभी भी पेशाब करने बैठती थी तो बुर की दोनो फाँकें एकदम से सॅट जाती थी. लेकिन पंडित जी के चोदने के बाद बुर की दरारें पहले की तरह सॅट नही पा रही हैं.फिर खड़ी हो कर धीरे से सीत्कनी खोल कर कमरे आई. उसने देखा कि पंडित जी अपनी लंगोट पहन रहे थे.उनका लंड अब छोटा होकर लंगोट मे समा चुका था. उसके बाद पंडित जी धोती और कुर्ता भी पहनने लगे. सावित्री भी काफ़ी लाज़ और शर्म से अपनी चुचिओ और बुर को हाथ से ढक कर फर्श पर पड़े कपड़ो की तरफ गयी. उन कपड़ो को लेकर सीधे दुकान वाले हिस्से मे चली गयी क्योंकि अब पंडित जी के सामने एक पल भी नंगी नही रहना चाहती थी. दुकान वाले हिस्से मे आकर पहले चड्डी पहनने लगी जो कि काफ़ी कसा हो रहा था. किसी तरह अपनी बुर और झांतों और चूतड़ को चड्डी मे घुसा पाई. पुरानी ब्रा को भी पहनने मे भी काफ़ी मेहनत करनी पड़ी. चुचिओ को पंडित जी ने काफ़ी मीज़ दिया था इसलिए ब्रा को दोनो चुचिओ पर चढ़ाने पर कुछ दुख भी रहा था. किसी तरह सलवार और समीज़ पहन कर दुपट्टा लगा ली. पूरी तरह से तैयार हुई तभी याद आया कि चटाई मे चुदाई का रस और बुर से निकला खून लगा है और उसे भी सॉफ करना है. दुकान के अगले हिस्से से पर्दे को हटा कर अंदर वाले कमरे मे झाँकी तो देखी की पंडित जी चौकी पर बैठ कर चटाई पर लगे चुदाई रस और खून को देख रहे थे. सावित्री को काफ़ी लाज़ लग रही थी लेकिन बहुत ज़रूरी समझते हुए फिर अंदर आई और चटाई को लेकर बाथरूम मे चली गयी और उसमे लगे चुदाई रस और खून को धो कर सॉफ कर दी. पंडित जी चौकी पर बैठे ही बैठे यह सब देख रहे थे. चटाई को साफ करने के बाद जब सावित्री बाथरूम से बाहर आई तो देखी कि पंडित जी अब दुकान का सामने वाला दरवाजा खोल रहे थे क्योंकि अब 3 बाज़ रहे थे और आज एक घंटे देर से दुकान खुल रही थी. **************************************** दुकान खुलने के बाद सावित्री अपने स्टूल पर बैठी तो उसे लगा की बुर और जांघों में दर्द बना हुआ है। पंडित जी भी अपने कुर्सी पर बैठ गए। सावित्री अपनी नज़रें झुकाए हुए यही सोच रही थी कि वीर्य आखिर कैसे बुर से निकलेगा और गर्भ ठहरने की विपत उसके ऊपर से हट जाय। थोड़ी देर में कुछ औरतें दुकान पर आई और कुछ सामान खरीदने के बाद चली गयी। अब शाम हो चुकी थी और अँधेरा के पहले ही सावित्री अपने घर चली जाती थी। क्योंकि रास्ते में जो सुनसान खंडहर पड़ता था। थोड़ी देर बाद सावित्री पंडित जी की तरफ देख कर मानो घर जाने की इजाजत मांग रही हो। भोला पंडित ने उसे जाने के लिए कहा और सावित्री घर के लिए चल दी। उसे चलने में काफी परेशानी हो रही थी। थोड़ी देर पहले ही चुदी हुयी बुर कुछ सूज भी गयी थी और जब चलते समय बुर की फांकें कुछ आपस में रगड़ खातीं तो सावित्री को काफी दर्द होता। उसका मन करता की अपनी दोनों टांगों को कुछ फैला कर चले तो जांघों और बुर की सूजी हुई फाँकों के आपस में रगड़ को कुछ कम किया जा सकता था। लेकिन बीच बाज़ार में ऐसे कैसे चला जा सकता था। वह कुछ धीमी चल से अपने गाँव की और चल रही थी। कसबे में से बाहर आते ही सावित्री की बुर की फाँकों के बीच का दर्द रगड़ के वजह से कुछ तेज हो गया। लेकिन उसे इस बात से संतोष हुआ कि अब वह कसबे के बाहर आ गयी थी और चलते समय अपने दोनों टांगों के बीच कुछ जगह बना कर चले तो कोई देखने वाला नहीं था। और चारो तरफ नज़र दौड़ाई और पास में किसी के न होने की दशा में वह अपने पैरों को कुछ फैला कर चलने लगी। ऐसे चलने में कुछ दर्द कम हुआ लेकिन आगे फिर वही खँडहर आ गया। सावित्री को खँडहर के पास से गुजरना काफी भयावह होता था। किसी तरह से खँडहर पार हुआ तो सावित्री को बड़ी राहत हुई और कुछ देर में वह अपने घर पहुँच घर पहुँचते ही सावित्री को पेशाब का आभास हुआ तो उसे कुछ आशा हुआ की इस बार पेशाब के साथ पंडित जी का वीर्य बुर से बाहर आ जाये तो काम बन जाये और गर्भ ठहरने का डर भी समाप्त हो जाये। इसी उम्मीद से सावित्री तुरंत अपने घर के पिछवाड़े दीवाल के पीछे जहाँ वह अक्सर मुता करती थी, गयी और चारो और नज़र दौड़ाई और किसी को आस पास न पाकर सलवार और चड्डी सरकाकर मुतने बैठ गयी। सावित्री अपनी नज़रें बुर पर टिका दी और बुर से मूत की धार का इंतजार करने लगी। थोड़ी देर बाद मूत की एक मोती धार बुर से निकल कर जमीन पर गिरने लगी। लेकिन पंडित जी द्वारा गिराए गए वीर्य का कुछ अता पता नहीं चल रहा था। मनो सारा वीर्य बुर सोख गयी हो। सावित्री बार बार यही याद कर रही थी की कितना ज्यादे वीर्य गिराया था बुर के अंदर। अब तो केवल मूत ही निकल रही थी और वीर्य के स्थान पर कुछ लसलसा चीज़ भी पहले की तरह नहीं चू रही थी। मूत के बंद होते ही सावित्री के मन में निराशा और घबराहट जाग उठी। अब सावित्री के मन में केवल एक ही भय था की यदि उसे गर्भ ठहर गया तो क्या होगा। इस मुसीबत की घडी में कौन मदद कर सकता है। तभी उसे याद आया की चोदने के पहले पंडित जी ने उससे कहा था की लक्ष्मी का छोटा वाला लड़का उन्ही के चोदने से पैदा हुआ है। इस बात के मन में आत ही उसे और दर लगने लगा। उसके मन में यही याद आता की उसे भी गाँव के लक्ष्मी चाची के छोटे लड़के की तरह ही लड़का पैदा होगा। वह यही बार बार सोच रही थी की अब क्या करे। आखिर रोज की तरह माँ और छोटे भाई के साथ खाना खा कर रात को सोने चली गयी। उसे आज नीद भी बहुत तेज लग रही थी। उसका शरीर काफी हल्का और अच्छा लग रहा था। वह जीवन में पहली बार भोला पंडित जी के लन्ड पर झड़ी थी। बिस्तर पर जाते ही वह दिन भर की थकी होने के वजह से तुरंत नीद लग गयी। सुबह उसके माँ सीता ने जब उसे आवाज दे कर उठाया तो उसकी नीद खुली तो भोर हो चूका था। वह माँ के साथ शौच के लिए खेत के तरफ चल पड़ी । खेत में वह माँ से काफी दूर टट्टी करने के लिए बैठी क्योंकि उसे शक था की माँ की नज़र कहीं सूजे हुए बुर पर पड़ेगी तो पकड़ जाएगी। सावित्री टट्टी करते समय अपने बुर पर नज़र डाली तो देखा की सुजन लगभग ख़त्म हो गया है लेकिन बुर की फांके पहले की तरह आपस में सट कर एक लकीर नहीं बना पा रही थीं। हल्का सा बुर का मुंह खुला रह जा रहा था जैसा की उसके माँ सीता का बुर थी। शौच करने के बाद जब घर आई और बर्तन धोने के लिए बैठी तो उसे लगा की अब पिछले दिन की तरह कोई दर्द नहीं हो रहा था। लेकिन ज्योंही पंडित जी के वीर्य की याद आती सावित्री कांप सी जाती। उसका जीवन मानो अब ख़त्म हो गया है। घर पर नहाने के लिए सावित्री की माँ ने अपने घर के एक दीवाल के पास तीन और से घेर दिया था की कोई नहाते समय देख न सके और एक ओर से कपडे का पर्दा लगा होता था। सावित्री उसी में नहाने के लिए गयी और रोज की तरह पर्दा को लगा कर अपने कपडे उतारने लगी।
Sangharsh--11
सावित्री काफ़ी ताक़त लगा कर चटाई पर से उठी लेकिन एकदम नंगी होने के वजह से सामने लेटे हुए पंडित जी को देख कर उसे लाज़ लग रही थी और अगले पल वह फर्श पर पड़े अपने कपड़ों को लेने के लिए बढ़ी लेकिन बुर झांट और चूतड़ पर चुदाई रस और खून से भीगे होने के वजह से रुक गयी और मज़बूरी मे नंगे ही शौचालय की ओर चल पड़ी. उसने जैसे ही अपने पाँव आगे बढ़ाना चाहे कि लगा बुर मे उठे दर्द से गिर पड़ेगी. काफ़ी हिम्मत के साथ एक एक कदम बढ़ाते हुए शौचालय तक गयी. चौकी पर लेटे लेटे पंडित जी भी नंगी सावित्री को शौचालय के तरफ जाते देख रहे थे. उसके चूतड़ काफ़ी गोल गोल और बड़े बड़े थे. उसकी कमर के पास का कटाव भी काफ़ी आकर्षक लग रहा था. धीरे धीरे वह शौचालय मे जा रही थी. वह जान रही थी कि पंडित जी उसे पीछे से देख रहे हैं और उसे लाज़ भी लग रही थी लेकिन उसे अपना बुर और झांते, चूतड़ पर का चुदाई रस और खून को धोना बहुत ज़रूरी भी था क्योंकि यदि उसके चड्डी और कपड़े मे लग जाती तो उसकी मा सीता उसे पकड़ लेती. इसी डर से वह अपनी बुर झांट और चूतड़ को धोने के लिए शौचालय मे अंदर जा कर दरवाजा मे सीत्कनी लगा कर फिर से अपनी चुदी हुई बुर को देखी. और खड़े खड़े एक बार हाथ भी बुर पर फिराया तो मीठा मीठा दर्द का आभास हुआ. फिर बुर धोने के नियत से बैठी लेकिन उसे कुछ पेशाब का आभास हो रहा था तो बैठे बैठे ही पेशाब करने की कोशिस की तो थोड़ी देर बाद पेशाब की धार बुर से निकलने लगी. तभी उसे याद आया कि पंडित जी के लंड से गर्म वीरया बुर के अंदर ही गिरा था. वह यही सोच रही थी कि उनका सारा वीरया उसकी बुर मे ही है. और बाहर नही निकला. फिर उसने पेशाब बंद होते ही सिर को झुकाते हुए बुर के दरार मे देखी की शायद वीरया भी बाहर आ जाए. लेकिन बुर की दरार से बस एक लसलाषसा चीज़ चू रहा था. वह समझ गयी कि यह वीरया ही है. लेकिन बस थोड़ी सी निकल कर रह गयी. फिर सावित्री ने अपने बुर मे अंदर से ज़ोर लगाई कि बुर मे गिरा पंडित जी का वीरया बाहर आ जाए. लेकिन ज़ोर लगाने पर बुर मे एक दर्द की लहर दौड़ उठी और बस सफेद रंग का लसलसा चीज़ फिर काफ़ी थोड़ा सा चू कर रह गया. सावित्री यह समझ गयी कि उसके बुर मे जब पंडित जी वीरया गिरा रहे थे तो उनका लंड बुर के काफ़ी अंदर था और ढेर सारा वीरया काफ़ी देर तक गिराते रहे. गिरे हुए वीरया की अनुपात मे चू रहा सफेद लसलसा चीज़ या वीरया कुछ भी नही है. यानी पंडित जी के लंड से गिरा हुआ लगभग पूरा वीरया बुर के अंदर ही रह गया था. सावित्री अब कुछ घबरा ही गयी थी. उसे अपने गाओं की सहेलिओं से यह मालूम था कि जब मर्द औरत को चोद्ता है तो चुदाई के अंत मे अपनी लंड से वीरया बुर मे गिरा या उडेल देता है तो औरत को गर्भ ठहर जाता है. वह यही सोच रही थी कि पंडित जी ने अपना वीरया अंदर गिरा चुके हैं और यदि यह वीरया अंदर ही रह जाएगा तो उसका भी गर्भ ठहर जाएगा. अब शौचालय मे बैठे बैठे उसे कुछ समझ नही आ रहा था. उसने फिर एक बार अपनी बुर को दोनो हाथों से थोड़ा सा फैलाई तो दर्द हुआ और फिर ज़्यादा फैला नही पाई. और जितना फैला था उतने मे ही अपने पेट के हिस्से से जैसे पेशाब करने के लिए ज़ोर लगाते हैं वैसे ही ज़ोर लगाई कि वीरया बुर के बाहर आ जाए लेकिन फिर बस थोड़ा सा सफेद लसलसा चीज़ चू कर रह गया. ******************************
******** अचानक जिगयसा वश सावित्री ने बुर से चू रही लसलासी चीज़ को उंगली पर ले कर नाक के पास ला कर सूंघने लगी. उसका महक नाक मे जाते ही सावित्री को लगा कि फिर से मूत देगी. गजब की महक थी वीरया की. सावित्री के जीवन का पहला मौका था जब किसी मर्द के वीरया को छु और सूंघ रही थी. पता नही क्यों पंडित जी के वीरया का महक उसे काफ़ी अच्छी लग रहा था. आख़िर पूरा वीरया बुर से ना निकलता देख सावित्री अपने बुर झांट और चूतड़ पर लगे चुदाई रस और खून को धोने लगी. सावित्री अपनी बुर को ही बार बार देख रही थी कि कैसे बुर का मुँह थोडा सा खुला रह जा रहा है. जबकि की चुदाई के पहले कभी भी पेशाब करने बैठती थी तो बुर की दोनो फाँकें एकदम से सॅट जाती थी. लेकिन पंडित जी के चोदने के बाद बुर की दरारें पहले की तरह सॅट नही पा रही हैं.फिर खड़ी हो कर धीरे से सीत्कनी खोल कर कमरे आई. उसने देखा कि पंडित जी अपनी लंगोट पहन रहे थे.उनका लंड अब छोटा होकर लंगोट मे समा चुका था. उसके बाद पंडित जी धोती और कुर्ता भी पहनने लगे. सावित्री भी काफ़ी लाज़ और शर्म से अपनी चुचिओ और बुर को हाथ से ढक कर फर्श पर पड़े कपड़ो की तरफ गयी. उन कपड़ो को लेकर सीधे दुकान वाले हिस्से मे चली गयी क्योंकि अब पंडित जी के सामने एक पल भी नंगी नही रहना चाहती थी. दुकान वाले हिस्से मे आकर पहले चड्डी पहनने लगी जो कि काफ़ी कसा हो रहा था. किसी तरह अपनी बुर और झांतों और चूतड़ को चड्डी मे घुसा पाई. पुरानी ब्रा को भी पहनने मे भी काफ़ी मेहनत करनी पड़ी. चुचिओ को पंडित जी ने काफ़ी मीज़ दिया था इसलिए ब्रा को दोनो चुचिओ पर चढ़ाने पर कुछ दुख भी रहा था. किसी तरह सलवार और समीज़ पहन कर दुपट्टा लगा ली. पूरी तरह से तैयार हुई तभी याद आया कि चटाई मे चुदाई का रस और बुर से निकला खून लगा है और उसे भी सॉफ करना है. दुकान के अगले हिस्से से पर्दे को हटा कर अंदर वाले कमरे मे झाँकी तो देखी की पंडित जी चौकी पर बैठ कर चटाई पर लगे चुदाई रस और खून को देख रहे थे. सावित्री को काफ़ी लाज़ लग रही थी लेकिन बहुत ज़रूरी समझते हुए फिर अंदर आई और चटाई को लेकर बाथरूम मे चली गयी और उसमे लगे चुदाई रस और खून को धो कर सॉफ कर दी. पंडित जी चौकी पर बैठे ही बैठे यह सब देख रहे थे. चटाई को साफ करने के बाद जब सावित्री बाथरूम से बाहर आई तो देखी कि पंडित जी अब दुकान का सामने वाला दरवाजा खोल रहे थे क्योंकि अब 3 बाज़ रहे थे और आज एक घंटे देर से दुकान खुल रही थी. **************************************** दुकान खुलने के बाद सावित्री अपने स्टूल पर बैठी तो उसे लगा की बुर और जांघों में दर्द बना हुआ है। पंडित जी भी अपने कुर्सी पर बैठ गए। सावित्री अपनी नज़रें झुकाए हुए यही सोच रही थी कि वीर्य आखिर कैसे बुर से निकलेगा और गर्भ ठहरने की विपत उसके ऊपर से हट जाय। थोड़ी देर में कुछ औरतें दुकान पर आई और कुछ सामान खरीदने के बाद चली गयी। अब शाम हो चुकी थी और अँधेरा के पहले ही सावित्री अपने घर चली जाती थी। क्योंकि रास्ते में जो सुनसान खंडहर पड़ता था। थोड़ी देर बाद सावित्री पंडित जी की तरफ देख कर मानो घर जाने की इजाजत मांग रही हो। भोला पंडित ने उसे जाने के लिए कहा और सावित्री घर के लिए चल दी। उसे चलने में काफी परेशानी हो रही थी। थोड़ी देर पहले ही चुदी हुयी बुर कुछ सूज भी गयी थी और जब चलते समय बुर की फांकें कुछ आपस में रगड़ खातीं तो सावित्री को काफी दर्द होता। उसका मन करता की अपनी दोनों टांगों को कुछ फैला कर चले तो जांघों और बुर की सूजी हुई फाँकों के आपस में रगड़ को कुछ कम किया जा सकता था। लेकिन बीच बाज़ार में ऐसे कैसे चला जा सकता था। वह कुछ धीमी चल से अपने गाँव की और चल रही थी। कसबे में से बाहर आते ही सावित्री की बुर की फाँकों के बीच का दर्द रगड़ के वजह से कुछ तेज हो गया। लेकिन उसे इस बात से संतोष हुआ कि अब वह कसबे के बाहर आ गयी थी और चलते समय अपने दोनों टांगों के बीच कुछ जगह बना कर चले तो कोई देखने वाला नहीं था। और चारो तरफ नज़र दौड़ाई और पास में किसी के न होने की दशा में वह अपने पैरों को कुछ फैला कर चलने लगी। ऐसे चलने में कुछ दर्द कम हुआ लेकिन आगे फिर वही खँडहर आ गया। सावित्री को खँडहर के पास से गुजरना काफी भयावह होता था। किसी तरह से खँडहर पार हुआ तो सावित्री को बड़ी राहत हुई और कुछ देर में वह अपने घर पहुँच घर पहुँचते ही सावित्री को पेशाब का आभास हुआ तो उसे कुछ आशा हुआ की इस बार पेशाब के साथ पंडित जी का वीर्य बुर से बाहर आ जाये तो काम बन जाये और गर्भ ठहरने का डर भी समाप्त हो जाये। इसी उम्मीद से सावित्री तुरंत अपने घर के पिछवाड़े दीवाल के पीछे जहाँ वह अक्सर मुता करती थी, गयी और चारो और नज़र दौड़ाई और किसी को आस पास न पाकर सलवार और चड्डी सरकाकर मुतने बैठ गयी। सावित्री अपनी नज़रें बुर पर टिका दी और बुर से मूत की धार का इंतजार करने लगी। थोड़ी देर बाद मूत की एक मोती धार बुर से निकल कर जमीन पर गिरने लगी। लेकिन पंडित जी द्वारा गिराए गए वीर्य का कुछ अता पता नहीं चल रहा था। मनो सारा वीर्य बुर सोख गयी हो। सावित्री बार बार यही याद कर रही थी की कितना ज्यादे वीर्य गिराया था बुर के अंदर। अब तो केवल मूत ही निकल रही थी और वीर्य के स्थान पर कुछ लसलसा चीज़ भी पहले की तरह नहीं चू रही थी। मूत के बंद होते ही सावित्री के मन में निराशा और घबराहट जाग उठी। अब सावित्री के मन में केवल एक ही भय था की यदि उसे गर्भ ठहर गया तो क्या होगा। इस मुसीबत की घडी में कौन मदद कर सकता है। तभी उसे याद आया की चोदने के पहले पंडित जी ने उससे कहा था की लक्ष्मी का छोटा वाला लड़का उन्ही के चोदने से पैदा हुआ है। इस बात के मन में आत ही उसे और दर लगने लगा। उसके मन में यही याद आता की उसे भी गाँव के लक्ष्मी चाची के छोटे लड़के की तरह ही लड़का पैदा होगा। वह यही बार बार सोच रही थी की अब क्या करे। आखिर रोज की तरह माँ और छोटे भाई के साथ खाना खा कर रात को सोने चली गयी। उसे आज नीद भी बहुत तेज लग रही थी। उसका शरीर काफी हल्का और अच्छा लग रहा था। वह जीवन में पहली बार भोला पंडित जी के लन्ड पर झड़ी थी। बिस्तर पर जाते ही वह दिन भर की थकी होने के वजह से तुरंत नीद लग गयी। सुबह उसके माँ सीता ने जब उसे आवाज दे कर उठाया तो उसकी नीद खुली तो भोर हो चूका था। वह माँ के साथ शौच के लिए खेत के तरफ चल पड़ी । खेत में वह माँ से काफी दूर टट्टी करने के लिए बैठी क्योंकि उसे शक था की माँ की नज़र कहीं सूजे हुए बुर पर पड़ेगी तो पकड़ जाएगी। सावित्री टट्टी करते समय अपने बुर पर नज़र डाली तो देखा की सुजन लगभग ख़त्म हो गया है लेकिन बुर की फांके पहले की तरह आपस में सट कर एक लकीर नहीं बना पा रही थीं। हल्का सा बुर का मुंह खुला रह जा रहा था जैसा की उसके माँ सीता का बुर थी। शौच करने के बाद जब घर आई और बर्तन धोने के लिए बैठी तो उसे लगा की अब पिछले दिन की तरह कोई दर्द नहीं हो रहा था। लेकिन ज्योंही पंडित जी के वीर्य की याद आती सावित्री कांप सी जाती। उसका जीवन मानो अब ख़त्म हो गया है। घर पर नहाने के लिए सावित्री की माँ ने अपने घर के एक दीवाल के पास तीन और से घेर दिया था की कोई नहाते समय देख न सके और एक ओर से कपडे का पर्दा लगा होता था। सावित्री उसी में नहाने के लिए गयी और रोज की तरह पर्दा को लगा कर अपने कपडे उतारने लगी।
Sangharsh--11