Hindi Porn Story हसीन गुनाह की लज्जत - 2 - Page 3 - SexBaba
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Hindi Porn Story हसीन गुनाह की लज्जत - 2

मैंने वसुन्धरा के कान से अपनी जीभ छुवाई और कान के साथ साथ अपने होंठ और जीभ नीचे की ओर खिसकाता चला गया. ऊपरी गर्दन की त्वचा से धीरे-धीरे अपनी जीभ नीचे … और नीचे उतारता चला गया. जैसे ही मैं वसुन्धरा के बाएं कंधे की ढलान तक पहुंचा, मैंने वसुन्धरा के बाएं हाथ की उंगलियां अपने दाएं हाथ की उँगलियों में कस ली और अपने बाएं हाथ से वसुन्धरा को अपने आग़ोश में ज़ोर से कसा और अपने दोनों होंठ वसुन्धरा की ऊपरी पीठ पर जहां सिर के बाल ख़त्म होतें हैं, वहां जमा कर धीरे-धीरे अपने दोनों होंठों के बीच आयी वसुन्धरा की त्वचा को चुमलाने लगा.

वसुन्धरा बेचैन होकर फ़ौरन जोर-ज़ोर से कसमसाने लगी लेकिन मेरी पुख़्ता पकड़ से छूट पाना संभव नहीं था. हार कर वसुन्धरा ने ख़ुद को मेरे रहमो-करम पर छोड़ दिया और लम्बी-लम्बी सीत्कारें लेने लगी- आह … ह … ह! हाय … ऐ … ऐ …! सी … इ..इ..ई … ई … ई!” वसुन्धरा के दांतों से दांत बेसाख़्ता टकरा रहे थे.

इधर मेरा बायां हाथ ब्लाऊज़ के ऊपर से ही वसुन्धरा की पीठ पर ऊपर से नीचे गर्दिश कर रहा था. दोनों कन्धों के बीच … ज़रा नीचे, ब्रा के स्ट्रैप में मेरी उंगलियां उलझ-उलझ जाती थी लेकिन फिर नीचे नितम्बों की ओर गतिमान हो जातीं थी.

वसुन्धरा की नंगी कमर सहलाते-सहलाते साड़ी के नीचे बंधे पेटीकोट के नाड़े के रूप में उँगलियों के अविरल प्रवाह में एक छोटा सा अवरोध आ तो जाता था लेकिन मेरी उंगलियां चंचल मृग के जैसे उस अवरोध को फलांग कर साड़ी के ऊपर से ही नितम्बों की घाटी में उतर ही जाती थी और नितम्बों की दोनों गोलाइयों की दरार के साथ-साथ नितम्बों की गहराई की अंतिम सीमा छूकर पैंटी-लाइन के साथ-साथ, कभी दायें नितम्ब की अर्ध-गोलाई जांचते-जांचते, कभी बायें नितम्ब की अर्ध-गोलाई जांचते-जांचते वापिस ऊपर का सफ़र शुरू कर देतीं थी.

वसुन्धरा का दायां हाथ उत्तेजना-वश मेरी पीठ पर रह-रह कर कस-कस जाता था और उसके मुंह से सीत्कारों का प्रवाह सतत जारी था. मैंने अपना बायां हाथ वसुन्धरा के सर के नीचे लगाया और झुक कर अपना दायां हाथ वसुन्धरा के दोनों घुटनों के पीछे से घुमा कर उसको अपनी गोद में उठा लिया.

वसुन्धरा ने तत्काल अपना दायां हाथ मेरी गर्दन के गिर्द लपेट लिया और अपने बाएं हाथ की उँगलियों को दाएं हाथ की उँगलियों में लॉक कर लिया.

मैंने अपने सर को ज़रा सा झुकाया और अपने बाएं बाज़ू को हल्की सी ऊपर को जुम्बिश दे कर वसुन्धरा के होठों को अपने और करीब कर लिया और अपने जलते-तपते होंठ वसुन्धरा के गुलाब की बंद कलियों जैसे नम और रसभरे होंठों पर रख दिए.

वसुन्धरा इस दोहरे हमले को झेल नहीं पायी. उसकी आँखें बंद हो गयी और होंठ ज़रा से खुल गए. तत्काल मेरी जीभ वसुन्धरा के दांत गिनने लगी. जबाब में वसुन्धरा की बाज़ुओ की पकड़ मेरी गर्दन पर और अधिक संकीर्ण हो गयी.

मैं ऐसे ही वसुन्धरा को उठाये-उठाये बैडरूम में ले आया और बैडरूम में बैड के करीब कालीन पर आहिस्ता से उसे अपने पैरों पर खड़े कर दिया.
अभी तक इस सारी प्रतिक्रिया के दौरान वसुन्धरा ने अपनी दोनों आँखें बंद कर रखी थी.
“वसुन्धरा!”
“हूँ…!”
“आँखें खोलो”
“उँहूँ…!”
“अरे खोलो तो…!”
“डर लगता है.”
“डर …? किस बात का?”
“सपना टूट जाएगा.”
“ये सपना नहीं है. आंखें खोलो और देखो! तुम्हारा सपना सच हुआ जा रहा है.”

वसुन्धरा ने आँखें तो नहीं खोली पर अपना बायां हाथ मेरे हाथ से छुड़ा कर वो अपने दोनों हाथों की उँगलियों से मेरा चेहरा टटोलने लगी. जैसे ही उसकी नाज़ुक और पतली दो उँगलियाँ मेरे होंठों पर आयीं, मैंने तत्काल दोनों उँगलियाँ अपने मुंह में डाल लीं और अपनी जीभ से चुमलाने, चूसने लगा.

“सी..ई … ई..ई … ई … ई … ई … ई!!!!” वसुन्धरा के मुंह से एक तीखी सिसकारी निकल गयी और अपनी उंगलियां मेरे मुंह से निकालने की कोशिश करने लगी.
“रा..!..! …!..ज़! आह … ह … ह!! सी … ई … ई … ई! … बस बस..उफ़..फ़..फ़! प्लीज़ … मर जाऊंगी..सी..सी..सी आह … ह … ह … ह!”
“आह … ह … ह …!!”

मैंने कुछ देर बाद उसकी उँगलियों को अपने मुंह से खुद ही जाने दिया और वसुन्धरा की आँखों में झाँका! प्यार, डर, समर्पण,शर्म, ख़ुशी … जाने कितने ही भाव थे उन आँखों में. मैंने कोमलता से वसुन्धरा को बेड पर ले जा कर बिठा दिया और खुद नीचे क़ालीन पर घुटनों के बल बैठ गया.
“अरे.. अरे! क्या कर रहे हैं आप? नीचे क्यों? ऊपर बैठिये.” वसुन्धरा चौंकी.

“श..श..श..श..श! ” मैंने वसुन्धरा के होंठों पर उंगली रखते हुए इशारा किया. वसुन्धरा कुछ समझी या नहीं समझी … पता नहीं लेकिन उसने इस बात का विरोध बंद कर दिया.

तभी जोर से बिजली कड़की. एक क्षण को तो पूरा आलम एक अत्यंत चमकदार रोशनी में नहा गया लेकिन इस के साथ ही लाइट चली गयी घड़ … घड़..घड़..घड़..धड़ाम … धड़ाम!!!! इतनी ज़ोर की आवाज़ आयी कि जैसे बिजली सामने सड़क पर ही गिरी हो. साथ ही बाहर जोरों की बारिश शुरू हो गयी.

मैंने ड्रेसिंग-टेबल पर पड़ा शमादान जलाया.

कहानी जारी रहेगी.
 
तभी जोर से बिजली कड़की. एक क्षण को तो पूरा आलम एक अत्यंत चमकदार रोशनी में नहा गया लेकिन इस के साथ ही लाइट चली गयी घड़ … घड़..घड़..घड़..धड़ाम … धड़ाम!!!! इतनी ज़ोर की आवाज़ आयी कि जैसे बिजली सामने सड़क पर ही गिरी हो. साथ ही बाहर जोरों की बारिश शुरू हो गयी.

मैंने ड्रेसिंग-टेबल पर पड़ा शमादान जलाया.
शमा जलते ही जैसे कमरे का माहौल ही बदल गया. शमा की झिलमिलाती रोशनी में दीवारों पर नाचते सायों और बाहर धुआंधार बारिश के शोर से एक अजब सा जादुई सा माहौल बन गया. मैं वापिस बैड की ओर लौटा और मैंने बेड पर बैठी आँख भर कर वसुन्धरा को देखा. दोनों पैर बेड पर, दोनों खड़े हुए घुटनों को अपने दोनों बाजुओं से क्रास पकड़ कर अपनी ठोड़ी घुटनों पर रख कर मेरी ओर गहरी नज़रों से देख रही वसुन्धरा किसी और ही आयाम की लग रही थी.

मैंने वसुन्धरा के पांव देखे. सुडौल और गोरे, लम्बी समान अनुपात में पतली गोरी उंगलियाँ … मैंने बहुत प्यार से वसुन्धरा के पैरों पर हाथ फेरा एक सिहरन की लहर मेरे और वसुन्धरा दोनों के जिस्मों में से गुज़र गयी.
मैंने झुक कर वसुन्धरा के बाएं पैर के अंगूठे और उंगली के बीच में एक चुम्बन ले लिया. वसुन्धरा के मुंह से एक लम्बी सीत्कार निकल गयी. मैंने फिर उसी जगह (पैर के अंगूठे और उंगली के बीच) अपनी जीभ टिका दी और जैसे और लोग जीभ से योनि-भेदन करते हैं ठीक वैसे ही अपनी जीभ वसुन्धरा के पैर के अंगूठे और उंगली के बीच की जगह में आगे घुसाने लगा.

क्षणभर में ही वसुन्धरा पर इस की बड़ी विस्फ़ोटक प्रतिक्रिया हुई- सी..ई … ई..ई … हाय नहीं … सी..ई … ई..ई..हाय नहीं … बस बस … आह … ह … ह!
कहते-कहते वसुन्धरा ने मेरे सर के बाल पकड़ लिए और बहुत बेदर्दी से मुझे बेड पर अपने ऊपर खींच कर मेरे होठों पर अपने होंठ रख कर मेरे होंठ चूमने लगी … चूमने क्या लगी, यहां-वहां काटने लगी.

मैंने अपने दोनों हाथों से वसुन्धरा का चेहरा कनपटियों पर से थामा और पहले तो वसुन्धरा चेहरे पर, माथे पर, गालों पर, कानों पर कानों की लौ पर, चिबुक पर और यहां-वहां ढेर सारे चुम्बन लिए और फिर उसके दोनों होंठ अपने मुंह में लेकर मज़े-मज़े से चूसने लगा.
मारे काम-हिलौर के, वसुन्धरा बिस्तर पर पीछे सीधी लेट गयी और बुरी तरह छटपटाने लगी. कभी मेरे कंधे पकड़ कर मुझे पीछे हटाए, कभी मेरे सर के बाल नोचे लेकिन मैं वसुन्धरा को ना छोड़ने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था.

धीरे-धीरे मैंने अपने दोनों हाथों की उँगलियों में वसुन्धरा के दोनों हाथों की उंगलियां पकड़ ली और वसुन्धरा के शरीर पर लंबवत लेट गया. मेरे पेट तक का ऊपर का हिस्सा वसुन्धरा के पेट और वक्ष के ऊपर और टाँगें वसुन्धरा के शरीर के बायीं ओर साथ साथ. वसुन्धरा के दोनों होंठ मेरे होंठों की गिरफ़्त में थे और जैसे ही मैं उसके ऊपर या नीचे वाले होंठ पर अपनी जीभ फेरता, वसुन्धरा का पूरा शरीर तन जाता और सिहरन की लहरें वसुन्धरा के शरीर में उठनी शुरू हो जाती.

मैंने अपनी बायीं टांग आधी मोड़ कर वसुन्धरा के शरीर पर रख दी. मेरा बायां घुटना वसुन्धरा की जलती-धधकती योनि के ठीक ऊपर था. मैं अपना बायां घुटना वसुन्धरा की योनि पर ऊपर-नीचे रगड़ने लगा और हर बार वसुन्धरा की साड़ी मेरे पैर की ऊपर-नीचे की जुम्बिश के साथ थोड़ा और ऊपर खिसकने लगी.
पहले तो वसुन्धरा को इस बात का पता ही नहीं चला लेकिन जैसे ही उसे इस बात का इल्म हुआ तो फ़ौरन वसुन्धरा ने अपना दायां हाथ जबरन मेरे बाएं हाथ की ग़िरफ़्त से छुड़वाया और घुटनों से ऊपर उठ चुकी साड़ी वापिस नीचे व्यवस्थित करने लगी. मैंने भी उसके इस काम में कोई बाधा नहीं दी.
भारतीय नारी के सदियों से ओढ़े हुए शर्मो-हया के परदे पहली ही मुलाक़ात में कहाँ उठते हैं?

इसी बीच मैंने वसुन्धरा का दूसरा हाथ भी अपनी पकड़ से आज़ाद कर दिया. अपनी अस्त-व्यस्त साड़ी को अपनी ओर से व्यवस्थित कर के वसुन्धरा ने अपने दोनों हाथों से मुझे अपने आलिंगन में कस लिया. मैंने तत्काल सर उठा कर सीधे वसुन्धरा की आँखों में शरारत भरी आँखों से झाँका. फ़ौरन वसुन्धरा ने अपना चेहरा अपने दोनों हाथों से ढक लिया.

भोली वसुन्धरा! अपना चेहरा तो अपने हाथों से ढक लिया लेकिन उसकी सारी की सारी देह-राशि तो मेरे सामने खुली पड़ी थी.

मैंने फ़ौरन अपने दोनों हाथ वसुन्धरा के कंधों पर रखे और कोमलता से धीरे-धीरे ‘v’ के आकार में नीचे की ओर लाने लगा. पहले कन्धों की मांसपेशियां, फिर ब्रा के स्ट्रैप के बाद हंसली की हड्डी और ऊपरी पसलियां की नर्म त्वचा और फिर ब्लाउज़ के ऊपर दो पर्वत-श्रृंगों पर मेरे दोनों हाथ जम गए. दोनों हाथों की आठों उंगलियां वक्षों के उभार जहां से शुरू होते हैं, वहां जमी थी और दोनों अंगूठे दोनों उरोजों के मध्य दरार में एक-दूजे से सटे हुए थे. मेरी हथेलियों के मध्य-भाग दोनों पर्वत शिखरों को ढके हुए थे.
 
और धीरे-धीरे मैंने अपनी दसों उँगलियों को ऊपर की ओर जुम्बिश देनी शुरू की और अपनी हथेलियाँ ठीक ऐसे ऊपर को उठाने लगा जैसे छतरी बंद करते हैं. तत्काल वसुन्धरा के मुंह से आनंदप्रद सिसकारियों का सिलसिला शुरू हो गया. वसुन्धरा के वक्ष पर मचलती मेरी उँगलियों की जुम्बिश और वसुन्धरा के मुंह से निकलने वाली सिसकारियों की तेज़ी में ग़ज़ब का तारतम्य था.

जैसे जैसे मेरी उंगलियां पर्वतों के शिखरों के पास, और पास पहुँचती जा रही थी वैसे वैसे वसुन्धरा के मुख से निकलने वाली सिसकारियों में तेज़ी आती जा रही थी- आह … हा..हा.. आह..सी.. ओह … सी..ई..ई … ई … ई!
वसुन्धरा रह रह कर दांत किटकिटा सी रही थी और उसके मुंह से निकलने वाली सीत्कारों का कोई ओर-छोर नहीं था.

अचानक ही वसुन्धरा ने अपने दोनों हाथ अपने चेहरे से उठा कर मेरे सर को दोनों कानों के पीछे से थाम लिया और अपने लब मेरे लबों पर टिका दिए. मैंने मौके का फायदा उठाया और फ़ौरन अपनी जीभ वसुन्धरा के मुंह में डाल दी. वसुन्धरा बड़ी आतुरता से मेरी जीभ चूसने लगी और उसके दोनों हाथों की दसों उंगलियां मेरे सर में यहां-वहां गर्दिश करने लगी.

ऊपर की ओर बढ़ती मेरे दोनों हाथों की उँगलियां बस, दोनों शिखरों तक पहुँचने ही वाली थी कि पर्वत शिखरों की ऊंचाई और बढ़ने लगी और साथ ही मेरी उँगलियों के पोरुओं तले पर्वतों का तल कुछ-कुछ कठोर हो उठा था. वसुन्धरा के दोनों वक्षों के निप्पल धीरे-धीरे तनने, सख़्त और सख़्त होने लगे थे. क्षण-भर बाद ही मेरी उँगलियों के पोरुओं की गिरफ़्त में सिर्फ दो निप्पल ही थे.
कुछ कुछ नर्म, कुछ कुछ कठोर … मैंने अपने दोनों हाथों से हल्का सा दबा कर दोनों निप्पलों की सख्ती को जांचा.
वसुन्धरा का प्रत्युत्तर बहुत उत्तेजक और अप्रत्याशित था. वसुन्धरा ने तत्काल एक घुटी-घुटी सिसकी ली और मेरी जीभ इतनी जोर से अपने मुंह के अंदर खींची जैसे वो मेरी जीभ को अपने अंदर उतार लेना चाहती हो.

जवाब में मैंने वसुन्धरा के दोनों निप्पलों को जरा सा और भींच दिया. वसुन्धरा का मुंह खुला और उसके मुंह से जोर से ‘आह’ की सिसकारी निकली और इसके साथ ही मेरी जीभ वसुन्धरा की पकड़ से छूट गयी. मैंने फ़ौरन वसुन्धरा के ब्लाऊज़ के हुक खोलने शुरू किये और दो क्षण में ही वसुन्धरा के ब्लाऊज़ दोनों पटल दाएं-बाएं खुले पड़े थे और अंदर लेसिज़ वाली डिज़ाईनर ब्रा में दो हंसों का जोड़ा अपनी झलक से वातावरण चकाचौंध करने लगा.

इससे पहले कि वसुन्धरा कुछ शर्मो-हया दिखाती, मैंने फ़ौरन वसुन्धरा की दायीं कोहनी मोड़ कर उसकी बाज़ू ब्लाऊज़ की पकड़ से आज़ाद कर दी और अपना बायां हाथ उसकी बगल में से पीछे ले जा कर ब्रा का हुक खोल दिया और साथ ही अपना हाथ बाहर खींचते हुए साथ ही मेरी बायीं ओर वाला ब्रा का स्ट्रैप वसुन्धरा की पीठ से बाहर खींच कर वसुन्धरा की दायीं बाजू को ब्रा की पकड़ से भी आज़ाद दिया.

बस … पर्दा उठने को था और हंसों के इस अछूते जोड़े पर मेरी पूरी मनमानी चलने को थी. जैसे ही वसुन्धरा का वक्ष अर्ध-नग्न हुआ, एक मोहक, नशीली सी काम-आह्लादित करने वाली तीक्ष्ण गंध मेरे नथुनों में प्रवेश कर गयी. यूं कमरे में सर्वत्र काम-गंध तो पहले से ही छायी हुई थी.

मैंने अपनी बायीं ओर ज़रा झुक कर वसुन्धरा की दायीं बगल से ज़रा नीचे इक भरवां चुम्बन लिया और मेरे होंठों ने एक एक चुम्बन लेते हुए वसुन्धरा के दाएं उरोज़ के निप्पल की ओर बढ़ने का मोहक और नशीला सफर शुरू किया.
“सी..ई..ई … ई … ई …!..आ … आ … आ..आ … ह … ह … ह! … ऊ..ऊ … ऊ..फ़!” मेरे हर चुम्बन के साथ साथ वसुन्धरा के मुंह से जैसे एक दीर्घ ग़ुर्राहट सी निकलती.

वसुन्धरा के दोनों हाथों से मुझे अपने साथ कसे हुए थी, मेरा दायां हाथ अभी भी वसुन्धरा के ब्रा के ऊपर से ही वसुन्धरा के बाएं वक्ष के निप्पल के साथ अठखेलियां कर रहा था.

अब मेरे लबों का सफ़र वक्ष के ऊपर पड़े ब्रा के कप की वजह से थोड़ा सा दुश्वार होने को था कि तभी आनंद की किलकारियों से सराबोर वसुन्धरा ने अपने दाएं हाथ से अपने ब्रा का कप ज़रा सा ऊपर उठा कर मेरे होंठों को अपना सफर जारी रखने का मौन निर्देश जारी किया.
और इसके साथ ही शमा की झिलमिलाती रोशनी में मुझे वसुन्धरा के दाएं अमृत-कलश की पहली झलक मिली … सुडौल, झक सफ़ेद, नर्म-गर्म गोलाकार गुंबद के शीर्ष के चारों ओर एक रूपये के सिक्के के आकार का थोड़े गहरे रंग का वलय और शीर्ष पर मटर के दाने जिनता अमृतकलश का शिखर.

यही ज़न्नत थी और मेरे होंठ इस जन्नत का लुत्फ़ लेने से एक-डेढ़ इंच ही दूर थे. मैंने जीभ निकाल कर उस मटर के दाने को हल्का सा बस छुआ भर ही. वसुन्धरा के शरीर में एक छनाका सा हुआ और वसुन्धरा सिहर-सिहर उठी, हम दोनों के जिस्म का रोआं-रोआं खड़ा हो गया और उत्तेजना की एक तीखी लहर हमारे जिस्मों में से गुज़र गयी.
 
मैंने आगे झुक कर वसुन्धरा के दाएं निप्पल को अपने मुंह में लिया और उसे अपने होंठों और जीभ से चुमलाने लगा. तत्काल वसुन्धरा मेरा सर अपने हाथों में ले अपने उरोजों पर दबाने लगी और उसके मुंह से आहों-कराहों तूफ़ान फ़ट पड़ा- आह … उफ़ … हा … उई … ई … ई … हक़्क़ … सी … इ … इ … ई … ई … आह … उफ़ … हाय … जोर से करो राज … यस … यस … ओ गॉड! सी..इ … इ … इ … ई … ई … ई!

वसुन्धरा की देह में काम-प्रवाह अपने चरम पर था. वसुन्धरा ने जल्दी-जल्दी अपने शरीर से ब्लाउज़ और अंगिया को मुक्त किया और मेरा दायां हाथ उठा कर अपने बाएं उरोज़ पर रख कर मेरे हाथ के ऊपर से ही अपने हाथ द्धारा अपने उरोज़ को दबाने लगी और मेरे धड़ का नीचे का हिस्सा नीचे से साड़ी समेत अपनी दोनों टांगों की कैंची में बाँध लिया.
और वो अपने दाएं हाथ से मेरी शर्ट के बटन खोलने की कोशिश लगी.

मैंने महसूस किया कि मेरे ज्यादा नर्मी दिखाने की वजह से वसुन्धरा मुझ पर हावी होने की कोशिश कर रही थी. यह तो सरासर मेरे पौरूष को खुली चुनौती थी और ऐसा तो मैं होने नहीं दे सकता था.

मैंने महसूस किया कि मेरे ज्यादा नर्मी दिखाने की वजह से वसुन्धरा मुझ पर हावी होने की कोशिश कर रही थी. यह तो सरासर मेरे पौरूष को खुली चुनौती थी और ऐसा तो मैं होने नहीं दे सकता था.
मैंने तत्काल थोड़ा सा और कठोर होने का फैसला किया. अंगिया और ब्लाउज़ हटने के बाद वसुन्धरा की साड़ी, अस्त-व्यस्त ही सही … रंग में भंग डाल रही थी. मैंने पहले वसुन्धरा की साड़ी और साया निकालने का फ़ैसला किया. मैंने फ़ौरन खुद को वसुन्धरा की पकड़ से छुड़वाया और अपने बदन पर जॉकी को छोड़ कर बाकी के सारे कपड़ों को जल्दी से तिलांजलि दी और मुड़ कर वसुन्धरा का रुख किया.

वसुन्धरा बिस्तर पर लेटी-लेटी मुदित भाव से मेरी ओर ही निहार रही थी. जॉकी के अंदर मेरा लिंग रौद्र रूप में था. अचानक ही वसुन्धरा की नज़र मेरे जॉकी पर पड़ी और वहीं ठिठकी रह गयी. उसके चेहरे पर डर, ख़ौफ़, ख़ुशी, आश्चर्य के भाव आ जा रहे थे. वो अपने थरथराते होंठों को अपनी जीभ से रह-रह कर गीला कर रही थी.

बिस्तर पर बैठ कर मैंने वसुन्धरा के रसभरे होंठों को प्यार से चूमा और थोड़ा झुक कर अपना बायां हाथ वसुन्धरा की कमर के परली ओर जमाया और अपने दायें हाथ से वसुन्धरा के बाएं अमृतकलश की घुंडी मसलते- मसलते अपने जलते-प्यासे होंठ वसुन्धरा के गोरे-चिट्टे पेट पर रख दिए और जगह-जगह चूमता-चूसता हुआ वसुन्धरा की नाभि की ओर बढ़ा.

तत्काल ही वसुन्धरा के शरीर में थरथराहट होने लगी और उसके जिस्म की हरारत बढ़ने लगी और वसुन्धरा के दोनों हाथ मेरे सर पर आ जमे. जैसे ही मेरे होंठ वसुन्धरा की नाभि पर पहुंचे, तत्काल मैंने अपनी जीभ उसकी नाभि में डाल दी और नाभि के अंदर अपनी जीभ फिराने लगा.

मेरी इस हरकत ने वसुन्धरा के रहे-सहे होश भी उड़ा दिए- आह … हा..हा..आह! सी … सी … ओह … ओह … सी..ई..ई … ई … ई! रा … ज़! सी … ई … ई … ई! … बस..उफ़..फ़..फ़! प्लीज़ … मर जाऊंगी … आह … ह … ह … ह! … सी..सी..सी!

उधर वसुन्धरा के दोनों हाथों की उँगलियों के नाख़ून मेरे सर में गड़े जा रहे थे और इधर मेरा बायां हाथ वसुन्धरा के पेट का पूरा जुग़राफ़िया नाप रहा था. वसुन्धरा के पेट के बायीं ओर पेटीकोट के नाड़े की गांठ लगी हुयी थी. मैंने अपने बाएं हाथ से धीरे से नाड़े की गाँठ खोल दी जिसका वसुन्धरा को रत्ती-भर भी अहसास नहीं हुआ.

मैंने चुपके से अपने बाएं हाथ की चारों उंगलियाँ वसुन्धरा के ढीले इज़ारबंद में से पेटीकोट के अंदर सरका दी और धीरे-धीरे वसुन्धरा के पेट के परले सिरे की ओर खिसकानी शुरू कर दी. पेटीकोट के ढ़ाई-तीन इंच अंदर मेरी उँगलियों के सिरे वसुन्धरा की पैंटी के इलास्टिक को छू रहे थे.

मैंने अपना बायां हाथ थोड़ा सा और पेटीकोट के अंदर घुसाया, तत्काल मेरी उंगलियां जाली जैसी संरचना से टकराई. लगता था कि वसुन्धरा सिर्फ़ डिज़ाईनर अंडर गारमेंट्स पहनती थी.
“नईं … यहां नहीं … रा … ज़! प्लीज़ नहीं … न..न … न करो … नई … ईं … ईं … ईं … ईं … तुम्हें मेरी कसम … सी … ई … ई … ई! हा..आह.. सी..ओह..सी … ओह … हा … आह..सी … मर गयी मैं … ओह … सी … सी … सी … ईं … ईं … ई!

मैंने फ़ौरन सर उठा कर वसुन्धरा की आँखों में झाँका!
इतनी सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें, आँखों में एक इल्तज़ा, थरथराते होंठ, आने वाले पलों वाले पहले अभिसार की परिकल्पना में रह रह कर सिहरता शरीर, जिंदगी भर ओढ़े शर्मो-हया के परदे अपने प्यार पर एक-एक कर के कुर्बान होते देखना. जिंदगी में ऐसा तिलिस्मी अनुभव सिर्फ एक ही बार मिलता है.
 
यूं काम-क्रीड़ा तो अपने जीवन में स्त्री-पुरुष सैंकड़ों-हज़ारों बार करते हैं लेकिन पहली बार अपनी देह पर अपने महबूब के हाथों का जादुई स्पर्श वाला सुख फिर दोबारा नसीब नहीं होता. वसुन्धरा अपनी जिंदगी के बेहतरीन पलों में से गुज़र रही थी. और अभी तो सिर्फ शुरुआत थी. आज की रात वसुन्धरा जन्मों-जन्मों तक नहीं भूल सके, मैं सतत इसी प्रयास में था.

अचानक ही वसुन्धरा का एक हाथ मेरे सर पर से खिसकता-खिसकता, मेरी पीठ पर से होता हुआ मेरे जॉकी के अंदर जाकर मेरे दाएं कूल्हे पर फिरने लगा. चूंकि मेरी वसुन्धरा की ओर अर्धपीठ थी इसलिए मेरा काम-ध्वज अभी वसुन्धरा की पकड़ में नहीं था.

लेकिन यह मुकाबला बराबरी का नहीं था. वसुन्धरा के शरीर पर बहुत सारे कपड़े (साड़ी, पेटीकोट और पैंटी) थे और मेरे सिर्फ एक (जॉकी). मैंने अपना दायां हाथ वसुन्धरा के उरोज़ से उठाया और वसुन्धरा की कमर के परले सिरे से ढीले इज़ारबंद में से पेटीकोट के अंदर सरका दिया और अपना बायां हाथ वसुन्धरा की कमर के अपने पास वाले सिरे से ढीले इज़ारबंद में से पेटीकोट के अंदर डाल कर साड़ी और पेटीकोट इक्कठे एक ही झटके में वसुन्धरा के घुटनों के नीचे तक उतार दिये.

बाहर झमझमाती बारिश के शोर और कमरे में शमा की पीली झिलमिलाती रोशनी में मुझे वसुन्धरा की गोरी, पुष्ट जाँघों के ऊपरी सिरे पर छोटी सी डिज़ाईनर किसी हल्के रंग की पैंटी (गुलाबी या पीली) में बंद नारी के अन्तरंग और गुप्त अंग की झलक मिली.
डिज़ाईनर पेंटी की जाली में से कुछ कुछ रेशमी बालों की झलक सी भी मिली जैसे वैक्स करवाए 15-20 दिन हो गए हों.

वसुन्धरा ने शरमा कर तत्काल अपनी बायीं टांग घुटने से मोड़ कर दायीं टांग पर रख ली और वो स्वर्गिक नज़ारा मेरी आँखों से ओझल हो गया लेकिन वसुन्धरा की इस हरकत का मुझे लाभ यह मिला कि वसुन्धरा की बायीं टांग खुद ही साड़ी और पेटीकोट की गिरफ्त से आज़ाद हो गयी.
मैंने आगे बढ़ कर वसुन्धरा की दायीं टांग को साड़ी और पेटीकोट में से निकाल बाहर किया.

अब हम दोनों सिर्फ एक-एक कपड़े में थे. मैं जॉकी में और वसुन्धरा पैंटी में. मैंने बिस्तर पर से उठ कर तनाव के कारण कड़कड़ाते हुए अपने लिंग को अपने अंडरवियर के अंदर हाथ डाल कर अंदर ही अंदर अपने पेट के साथ-साथ ऊपर नाभि की तरफ सेट किया.
वसुन्धरा मुझे बहुत गौर से ऐसा करते हुए देख रही थी.
मैंने आंख भर कर वसुन्धरा की ओर देखा. जैसे ही मेरी नज़र वसुन्धरा की नज़र से टकराई तो मारे शर्म के, वसुन्धरा ने फ़ौरन अपने दोनों हाथ अपनी आँखों पर रख कर करवट ले कर मेरी ओर पीठ कर ली.

सच कह रहा हूँ पाठकगण! तन्हाई में, सेज़ पर, कभी आँख मिलाती … कभी चुराती, आने वाले पलों में होने वाले अभिसार की प्रत्याशा से रह-रह कर थरथराती, कभी अपने यौवन को दिखाते-दिखाते छुपाती या छुपाते-छुपाते दिखाती, शर्म से लाल हुयी जा रही जवान अर्ध-नग्न अभिसारिका के ज्यादा सम्मोहक़ इस संसार में कोई और चीज़ है ही नहीं. इस संसार की तमाम उपलब्धियां, संसार के सारे धर्मों के सारे स्वर्ग, सारे मोक्ष, सब समाधियां, सब योग, सब पुण्य ऐसे एक पल के सम्मोहन के आगे हेय हैं.
यह वो पल होता है जिसकी जद में आये हुए लोग और उनकी आइंदा तमाम नस्लें भी सदियों तक इस पल के फ़ैसले के पाबन्द रहते हैं. इसी पल के उरूज़ के कारण आदम और हव्वा खुदा के बाग़ से निकाले गए और आज उनकी नस्लों को भी इस पल के फैसले पर ऐतराज़ नहीं … ऐसा है इस पल का सम्मोहन.

और आज हम दोनों इसी पल की ग़िरफ़्त में थे.

मैं बैड के पास पहुंचा और वसुन्धरा के पीछे बैठ कर आहिस्ता से पैरों में पड़ी जयपुरी रजाई वसुन्धरा के ऊपर ओढ़ा कर खुद भी वसुन्धरा की पीठ की तरफ से रज़ाई में घुस गया और वसुन्धरा की पीठ की तरफ से अपना निचला (दायाँ) हाथ वसुन्धरा की गर्दन के नीचे से परली तरफ निकाल के ऊपर की ओर घुमा कर उसे वसुन्धरा के ऊपर वाली (बाएं) छाती पर रखा और अपना बायां हाथ वसुन्धरा के ऊपर से परली तरफ ले जा अपनी हथेली वसुन्धरा के निचले (दायें) उरोज़ पर जमा कर उसे अपने आलिंगन में कस लिया. वसुन्धरा के दोनों उरोजों के एकदम तने हुए और सख़्त निप्पल मेरे दोनों हाथों की हथेलियों के ऐन बीचों-बीच थे.
 
“वसुन्धरा”
“हुँ …”
“जानती हो … मेरे दोनों हाथों में क्या हैं?” मैंने शरारत भरे लहज़े में पूछा.
“मुझे नहीं पता!” वसुन्धरा मेरे लहज़े में शरारत को भांप गयी थी.
“मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं.”

तत्काल सारा कमरा वसुन्धरा की खनकती हंसी से गूँज उठा. उसने अपने दोनों हाथ उठा कर अपने दोनों उरोज़ थामे मेरे हाथों को ऊपर से जकड़ लिया. मैंने अपने होंठों से वसुन्धरा के बायें कान के ज़रा सा नीचे एक चुम्बन लिया. तत्काल वसुन्धरा के मुंह से एक तीखी सिसकारी निकल गयी और वो लगी अपने जिस्म को आगे-पीछे झुलाने, जिसके कारण वसुन्धरा के जिस्म के साथ-साथ मेरे जिस्म में एक जुम्बिश सी पैदा हुई और दोनों जिस्म आपस में रगड़ खाने लगे.

उफ़! वसुन्धरा के नंगे, गर्म जवान जिस्म को पीछे से रगड़ कर मेरा नंगा जिस्म मानो आग पैदा करने की कोशिश में था. मेरा गर्म फ़ौलाद जैसा लिंग वसुन्धरा की पैंटी के ऊपर से ही उसके नितम्बों की ऐन दरार पर रगड़ खा रहा था, मेरी बायीं टांग वसुन्धरा की बायीं टांग पर चढ़ी हुयी थी और हम दोनों की दोनों दायीं टांगें लंबवत बिस्तर पर सीधे फ़ैली हुई थी. मेरी दोनों हथेलियों के नीचे वसुन्धरा के दोनों उरोजों और उनके निप्पल्स रगड़ खा रहे थे.

क्या गज़ब का तारतम्य था दोनों जिस्मों की गति में. कमरे में सर्वत्र काम-गंध फैली थी और रति-कामदेव की लीला अपने चरम पर पहुँचने को अग्रसर थी. वसुन्धरा के जिस्म का रेशा-रेशा फड़क रहा था और उसके मुंह से गर्म-उबलती आहों-कराहों का प्रवाह सतत जारी था- ओ … ओह … ओ गॉड … हा … आह … उह … ऊ … ऊ … स … हु … सी … इ … ई … ई … सी … मर गयी … ओह … सी … ई … ई … ई!
वसुन्धरा के जिस्म में रह-रह कर सिहरन उठ रही थी.

अचानक ही वसुन्धरा ने मेरे दाएं हाथ को अपने बाएं उरोज़ पर से उठाया और मेरे दाएं हाथ को अपने हाथ में पकड़ कर जगह-जग़ह से चूमने लगी और मेरी तर्जनी और मध्यमा उंगली अपने मुंह में लेकर बेसब्री से चूसने लगी. मैंने अपना बायां हाथ उठा कर वसुन्धरा के बायें कंधे से नीचे लंबवत उतारना शुरू कर दिया. कमर के ख़म के और नीचे हाथ ले जाने की बजाए मैंने पैंटी के इलास्टिक के साथ-साथ पेट के सेंटर की ओर हाथ बढ़ाया.

वसुन्धरा ने अपनी बायीं टांग मोड़ कर मुझे अपनी योनि छूने से रोकने की कोशिश की तो सही लेकिन चूँकि मेरी बायीं टांग, वसुन्धरा की बायीं टांग के ऊपर थी इसलिए इस बार वसुन्धरा अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हो पायी और ऐन नाभि के नीचे पहुँचते ही अपना हाथ पैंटी के इलास्टिक के अंदर से नीचे की ओर बढ़ा दिया.
उफ़! मेरा हाथ जैसे किसी तपती-धधकती भट्टी की ओर बढ़ रहा था. तभी मेरे हाथ को नर्म नर्म रेशमी रोमों का एहसास हुआ. मैंने अपना हाथ पैंटी के अंदर ही थोड़ा ऊपर उठाया और हथेली का एक कप सा बना कर, जिस में मेरी चारों उंगलियां नीचे की ओर थी वसुन्धरा की तपती जलती योनि पर रख दिया.
 
मैंने अपना हाथ पैंटी के अंदर ही हथेली का एक कप सा बना कर, जिसमें मेरी चारों उंगलियां नीचे की ओर थी वसुन्धरा की तपती जलती योनि पर रख दिया.
“आ … आ … आ … आह!” उत्तेजना-वश वसुन्धरा ने मेरी उँगलियों पर ज़ोर से काट लिया. मैंने फ़ौरन अपना हाथ वसुन्धरा के मुंह से निकाल लिया और उसी हाथ से वसुन्धरा के दोनों उरोजों से खिलवाड़ करने लगा.

वसुन्धरा की योनि से कामरस का अत्यधिक प्रवाह हो रहा था. मेरा हाथ वसुन्धरा के योनि-रज से पूरा सन गया था. लगता था कि वसुन्धरा एक-आध बार स्खलित भी हो चुकी थी.

मैंने अपने बाएं हाथ की मध्यमा उंगली को योनि के निचले सिरे से शुरू कर के, योनि की दरार के ऊपर-ऊपर, अंदर की ओर मोड़ना शुरू किया। तत्काल वसुन्धरा के जिस्म में थिरकन सी होने लगी. मेरी उंगली का सिरा तो योनि की दरार के ऊपरी हिस्से पर स्थित चने के दाने के साइज़ के भगनासे पर आ कर ठहर गया लेकिन वसुन्धरा के मुंह से जोर-जोर से कराहें … कराहें क्या एक तरह से चीखें निकलने लगी.
” रा..!..! …!..ज़! सी … ई … ई … ई! … उफ़..फ़..फ़ … बस..! मर गयी … मैं..!!! … सी..सी..सी … आह … ह … ह … ह!”
अब तक तो मेरी उंगली ने वापसी का सफर शुरू कर दिया था.
” राज … बस … बस … बस करो … नईं..ईं … ईं … और आगे नहीं … आ … ह …! आ … आ … आ … ह … आह …!!!”

लेकिन इन चीखों का कोई मोल नहीं था, ये चीखें आनन्द … बल्कि परमानन्द वाली थी. धीरे-धीरे मेरी उंगली वसुन्धरा की योनि के निचले सिरे पर वापिस अपने मुकाम तक पहुंची और फिर उसने योनि की दरार के साथ-साथ ऊपर की ओर दोबारा गश्त शुरू कर दी. मध्यमा उंगली से सितार बजाने की सी जुम्बिश मैंने बारह-पंद्रह बार दोहरायी. वसुन्धरा के मुंह से निकलने वाली सिसकारियाँ बदस्तूर जारी थी.

अभी तक तो मैं वसुन्धरा की योनि से सिर्फ हल्की-फ़ुल्की छेड़-छाड़ ही कर रहा था ताकि वसुन्धरा आगे की काम-केलि की परम काम-उत्तेजना को सहन करने लायक हो जाए. अभी तक मैंने अपनी उंगली से वसुन्धरा की योनि को हल्का सा भी कुरेदा नहीं था.
लेकिन अब वक़्त आ गया था कि थोड़ा आगे बढ़ा जाए. मैंने अपनी तर्जनी उंगली और अनामिका उंगली से वसुन्धरा की योनि की दरार को ज़रा सा फैलाया और इस बार भगनासा की ओर बढ़ती मेरी मध्यमा उंगली, वसुन्धरा की योनि की दरार के ऊपर नहीं अपितु योनि की पंखुड़ियों के जरा सी अंदर-अंदर ऊपर को उठ रही थी.

वसुन्धरा के मुंह से निकलती आहों-कराहों में भयंकर वृद्धि हो गयी थी. जैसे ही मेरी उंगली से वसुन्धरा की योनि के शीर्ष पर सजे भगनासा को छुआ, मैंने अपने अंगूठे और उंगली के बीच में लेकर भगनासा ज़रा सा मसल दिया.
वसुन्धरा का शरीर पलंग से करीब फुटभर उछला- हे राम! रा … आ … अ … ज़! मर गयी … मैं! उफ़..फ़..फ़ …!

मेरी प्रेयसी की योनि ने तत्काल बहुत सारा काम-रस छोड़ा. वसुन्धरा ने तत्काल रजाई परे फेंक मारी और हाँफते हुए अपना बायां हाथ अपनी पैंटी के अंदर लेजा कर मेरे बाएं हाथ पर रखकर उसे अपने योनि से जबरन उठाने की कोशिश करने लगी.
अब इंसान की सारी कोशिशें तो कामयाब नहीं होती न … तो वसुन्धरा की यह कोशिश भी कामयाब नहीं हुई. लेकिन इस धींगा-मुश्ती में वसुन्धरा का जिस्म करवट लिए होने की बजाये बिस्तर पर सीधा हो गया और मैं अभी भी दायीं करवट ही था. मैंने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए वसुन्धरा के बाएं निप्पल को अपने मुंह में लिया और चुमलाने लगा.

वसुन्धरा ने तत्काल अपना बायां हाथ मेरे हाथ पर से हटाया और अपने दोनों हाथों से मेरे सर को जकड़ा और मेरे सर को अपने स्तन की ओर दबाने लगी. इधर मैंने अपने बाएं हाथ को वसुन्धरा की योनि से उठा कर हल्के हाथ से वसुन्धरा की पैंटी घुटनों तक उतार दी और फिर उसी हाथ से वसुन्धरा की रेशमी जाँघों पर हाथ फेरते-फेरते, वसुन्धरा के घुटने खड़े करके वसुन्धरा की पैंटी को भी उसकी ड्यूटी से फ़ारिग कर दिया.
और साथ ही उसी हाथ से अपने जॉकी को भी अपने जिस्म से अलग कर दिया.

अब हम दोनों एक से हो गये थे … एकदम नग्न! लेकिन वसुन्धरा को इसका अभी अहसास नहीं था और बिना एहसासों के न तो जिंदगी सार्थक होती है न कामक्रीड़ा. तो मैंने अपने बायें हाथ से वसुन्धरा का दायां हाथ अपने सर पर से उठाया और पकड़ कर नीचे ले जा कर अपने लिंग पर धर दिया.

जैसे ही वसुन्धरा समझ में आया कि उसके हाथ में मेरा कौन सा अंग है, उसका सारा जिस्म ऐसे काँपा जैसे उसे चार सौ चालीस वाल्ट का झटका लगा हो. वसुन्धरा ने तत्काल अपना हाथ मेरे लिंग पर से परे झटकने की कोशिश तो की लेकिन वसुन्धरा के हाथ के ऊपर तो मेरे बायें हाथ की मज़बूत पकड़ अभी भी बनी हुई थी.
 
मैंने सर उठा कर वसुन्धरा की आँखों में देखा. अपने हाथ में मेरे लिंग का साइज़ अनुभव करते हुए उसका मुंह और आँखें यूं खुली हुई थी जैसे कोई न-काबिल-ए-यक़ीन चीज़ से दो-चार हो रही हो.
दो-चार पल की ज़ोर-आजमाईश के बाद वसुन्धरा ने अपना हाथ मेरे लिंग पर से उठाने की कोशिश को विराम दे दिया और अपनी उँगलियों से मेरे लिंग को थाम कर उसके आकार-प्रकार का ज़ायज़ा लेने लगी.

अब मैंने तो अपना लिंग थामे वसुन्धरा के हाथ पर से अपना हाथ उठा लिया लेकिन वसुन्धरा बदस्तूर मेरे लिंग को थामे रही. मारे उत्तेजना के मेरा लिंग पत्थर सा सख़्त हो रहा था और उसमें से प्री-कम भी बहुत निकल रहा था जिस के कारण वसुन्धरा की उंगलियां मेरे प्री-कम से सनी सनी जा रही थी. लेकिन अब वसुन्धरा को इस से कोई ऐतराज़ नहीं था, वो कभी अपनी उँगलियों के पोरुओं से मेरे मेरे प्री-कम से सने हुए लिंग-मुंड को दबाती और कभी अपनी उंगलियों की गोलाई में मेरे लिंग को दबा दबा कर लिंग की जड़ तक ले जाती और मैं अपने बाएं हाथ से वसुन्धरा की पेशानी से लेकर वसुन्धरा का सर धीमे-धीमे सहला रहा था.

कुछ पल ऐसे ही बीते. अचानक ही वसुन्धरा ने मेरी तरफ करवट ली और अपनी दायीं टांग उठा कर मेरे जिस्म पर रखकर अपने पाँव को मेरे नितम्बों के पीछे लगा कर मेरे जिस्म के निचले भाग को अपने जिस्म के के निचले भाग के साथ रगड़ने का प्रयास करने लगी.
इस प्रक्रिया में मेरा लिंग जोकि वसुन्धरा के दायें हाथ में ही था, वसुन्धरा की जलती-धधकती योनि से सट गया और वसुन्धरा मेरे लिंग को अपनी योनि की पंखुड़ियों पर ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर रगड़ने लगी और इसी के साथ वसुन्धरा के मुंह से आहों-कराहों का बाज़ार बुलंद होने लगा.

मैंने फ़ौरन वसुन्धरा को अपने बाएं हाथ से अपने आलिंगन में लेकर कस लिया और लगातार उसके चेहरे पर यहां-वहाँ चुम्बन लेने लगा. मैंने नोट किया कि वसुन्धरा अपनी योनि के भगनासा पर मेरा लिंग-मुंड सख्ती से गोल-गोल रगड़ रही थी, यकीनन इस में उसे ज्यादा मज़ा आ रहा था.

जहां तक मेरा सवाल है, वसुन्धरा की योनि की पंखुड़ियों की मेरे लिंग पर लगती मुतवातिर(अनवरत) रगड़, मुझे सरासर जन्नत का नज़ारा करवा रही थी.
अब चूंकि काम-क्रीड़ा की कमान वसुन्धरा के खुद के हाथ में थी इस लिए वसुन्धरा के मुंह से निकलने वाली आहों-सिसकारियों में भी फर्क था- ओ राज! तुम … आह! इतनी देर से … स..सी … इ..इ.. क्यों मिले? … आ … आ … आ … आ … आह! हाय … सी! ओह … आए … ह … ओह … ओ … ह … हां … हा … मर गयी … सी … इ … इ..इ … ई … ई!

वसुन्धरा काम-उत्तेजना के शिखर-बिंदु से ज्यादा दूर नहीं थी अब.

इससे पहले कि वसुन्धरा के जिस्म में काम-विस्फोट हो जाए, मुझे इस काम-केलि की कमान अपने हाथ में लेनी थी. मैंने फ़ौरन वसुन्धरा का ऊपर वाला कन्धा (दायां) अपने ऊपर वाले (बायें) हाथ से बिस्तर पर लगा कर वसुन्धरा को सीधा किया और खुद उसके ऊपर चढ़ गया. इसी चक्कर में वसुन्धरा के (दाएं) हाथ से मेरा लिंग छूट गया. मैंने अपने बाएं हाथ से वसुन्धरा का दायां हाथ वसुन्धरा की कमर के ख़म के पास बिस्तर पर दबा लिया और ख़ुद वसुन्धरा की दोनों टांगों के बीच में घुटनों के बल उकडू बैठ कर दायें हाथ से अपना लिंग-मुण्ड वसुन्धरा की योनि पर रगड़ने लगा.

वसुन्धरा ने तत्काल अपनी दोनों टांगें हवा में उठा कर मेरे लिंग का अपनी योनि के मुख पर स्वागत किया. मैंने तत्काल वसुन्धरा के दोनों पैर अपने कन्धों पर टिकाये और अपने लिंग-मुण्ड को अपने दाएं हाथ में लेकर वसुन्धरा की योनि की पंखुड़ियों को ज़रा सा खोल कर योनि के ऊपर भगनासा तक घिसने लगा.

वसुन्धरा के मुंह से सिसकारियाँ मुतवातिर जारी थी लेकिन अब वक़्त था कर्म करने का.

अचानक ही मेरा लिंग-मुण्ड वसुन्धरा की योनि के मध्य से ज़रा सा नीचे, किसी गुदगुदे से गड्ढे में अटक गया. मैं अपना लिंग-मुण्ड वहीं टिका छोड़ कर वसुन्धरा के जिस्म के ऊपरी भाग पर छा गया. इस प्रक्रिया में वसुन्धरा की दोनों टाँगें मेरी निचली पीठ तक फ़िसल गयी. वसुन्धरा ने अपने पांवों की कैंची सी बनाकर जुड़ी हुईं अपनी दोनों एड़ियां मेरे नितम्बों पर टिका दी.

मैंने अपने लिंग पर धीरे-धीरे दबाव बढ़ाना शुरू किया. काम-रस से मेरा लिंग और वसुन्धरा की योनि, दोनों बुरी तरह सने हुए थे. मेरा लिंग वसुन्धरा की योनि में करीब डेढ़ इंच प्रवेश कर चुका था कि वहीं अटक गया. मैं समझ गया कि आगे हाईमन है. हाईमन बोले तो … अक्षत-योनि की पहचान या आम भाषा में योनि की ‘सील’.

मैंने बहुत नर्मी से अपने लिंग पर दबाव बढ़ाया, तत्काल वसुन्धरा के चेहरे पर पीड़ा की लक़ीरें उभरी. मैंने अपना लिंग थोड़ा सा वापिस बाहर खींचा तो वसुन्धरा के चेहरे पर राहत के भाव आये. मैंने फिर हल्के से अपने लिंग को वसुन्धरा की योनि में वापिस आगे उसकी पुरानी जग़ह तक पहुँचाया.
 
और इससे पहले वसुन्धरा कोई प्रतिक्रिया करती, फ़ौरन अपने लिंग को वसुन्धरा की योनि से वापिस बाहर खींच लिया लेकिन लिंग की योनि के अंदर आने-जाने की प्रक्रिया में मेरे लिंग-मुण्ड की जो योनि की दीवारों पर रगड़ लगी उसके कारण वसुन्धरा की उत्तेजित योनि ने और काम-रस उगल दिया.

यह प्रक्रिया मैंने बार-बार दोहराई. बारह-चौदह बार मेरे लिंग वसुन्धरा की योनि के अंदर योनि के हाईमन को बस छू कर वापिस लौट आया. कमरे के अंदर वसुन्धरा की आहों-सीत्कारों का बाजार खूब गर्म हो उठा था.
“ओह … ओह … सी … इ … इ … ओ … ह … हां … हा … मर गयी … सी … इ … इ..इ … ई … ई!”
” रा..!..! …!..ज़! सी … ई … ई … ई! … उफ़..फ़..फ़ … बस..! बस..! … हा … आह … ह … ह … ह..!!! … सी..सी..सी …!”
” राज … बस … बस … बस करो … नईं..ईं … ईं … और नहीं … आगे नहीं … आ … ह …! आ … आ … आ … ह … आह …!!!”

मेरे नितम्बों पर वसुन्धरा के पैरों की कैंची की पकड़ हर पल संकीर्ण होती जा रही थी. वसुन्धरा ने अपने दोनों हाथ मेरी गिरफ़्त से छुड़वा कर मेरी पीठ पर कस कर बाँध रखे थे. वसुन्धरा अब पहले से ज्यादा सहज़ हो चुकी थी और अब वक़्त आ गया था कि एक मर्द, इक मर्द की तरह पेश आकर एक स्त्री के नारीत्व को संपूर्णता प्रदान करे.

हालांकि इस प्रक्रिया में मर्द को पल भर के लिए क्रूर होना पड़ता है. लेकिन यह क्रूरता उस डॉक्टर जैसी होती है जो किसी अस्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ करने के लिए इंजेक्शन लगाता है या उसका ऑपरेशन करता है.

बाहर बादल टूट कर बरस रहे थे और बाहर की ठिठुरती सर्दी में, कमरे के अंदर आदम और हव्वा के सम्पूर्ण जीवन के सब से जादुई पल आन पहुंचे थे. दो से एक होने की घड़ी बस … आने को ही थी. वसुन्धरा की जिद, वसुन्धरा का मान, वसुन्धरा का नारीत्व, वसुन्धरा का प्यार … ये सब पूर्णता को प्राप्त होने को थे और वसुन्धरा चौदह साल के जमे हुए काल-खण्ड की क़ैद से से बस … बाहर निकलने को ही थी.

फिर आया वो पल … मैंने वसुन्धरा के दोनों होंठों को अपने होंठों में लिया और लगा वसुन्धरा के दोनों होंठ चूसने. वसुन्धरा के दोनों बाज़ू मेरी पीठ के इर्द-गिर्द सख्ती से लिपट गए और वसुन्धरा के दोनों पुष्ट स्तनाग्र मेरी छाती में छेद करने पर आमादा थे.
मैंने कामाग्नि से जलते-धधकते हुए अपने साढ़े छह सात इंच के काम-ध्वज को वसुन्धरा की काम-रस से भीगी योनि से बाहर खींचा और वापिस बिजली की गति से वसुन्धरा की योनि के हाइमन को चीरते हुए वसुन्धरा की योनि में जड़ तक गाड़ दिया.

एक क्षण लगा वसुन्धरा को समझने के लिए और उसी क्षण ही वसुन्धरा ने अपने दोनों हाथों से मेरे कंधे पकड़ कर मुझे अपने ऊपर से उठाने की कोशिश की.
मैं तो वसुन्धरा के ऊपर से क्या उठता पर इस ज़ोर-आज़माईश में मेरे होंठों की पकड़ से वसुन्धरा के दोनों होंठ छूट गए. जैसे ही मेरे होंठों की पकड़ वसुन्धरा के होंठों पर से हटी.
” आह … ह … ह … ह..!!! ” एक गगनभेदी चीख़ वसुन्धरा के मुंह से फ़ूट पड़ी और वसुन्धरा मुझे अपने ऊपर से हटाने के लिए संघर्षरत हो उठी. पर अब इन सब का क्या फ़ायदा था! अब तो जो होना था वो हो चुका था और हम दोनों भी यही तो चाहते थे.

वसुन्धरा की दोनों आँखों से आंसुओं की मोटी-मोटी बूँदें टपक रही थी और मैं अपने होंठों से वसुन्धरा का एक-एक आंसू बीन रहा था. हम दोनों के निचले धड़ बिल्कुल स्पंदनहीन थे. दोनों के जिस्मों के नाभि के नीचे के भाग इक-दूसरे से ऐसे सटे हुए थे कि लोहे के दो टुकड़े वैल्ड हो गए हों.
मेरे लिंग पर वसुन्धरा की योनि का रह-रह कर स्पंदन हो रहा था जैसे कोई नर्म-गर्म मख़मल अपने हाथ में लपेट कर मेरे लिंग की सख़्ती की थाह ले रहा हो.

मैंने अपने नितम्ब थोड़े ऊपर को उठाये. मेरा लिंग कोई दो इंच वसुन्धरा की योनि से बाहर आया और मैंने तत्काल अपना लिंग वापिस वसुन्धरा की योनि में धकेल दिया. वसुन्धरा के मुंह से एक ‘सी … इ … इ..इ … ई … ई’ की सिसकी सी निकल गयी.
मैंने फिर दोबारा वही हरक़त दोहरा दी. वसुन्धरा के मुंह से फिर एक ‘सी..सी..सी … इ … इ..इ!’ की सिसकारी निकली लेकिन इस बार सिसकी में दर्द में आनंद का थोड़ा सा समावेश था.

अगले चार-पांच मिनट मैं यही हरक़त बार-बार दोहराता रहा लेकिन हर बार अपने लिंग को पिछली बारी से ज़रा सा ज्यादा बाहर निकाल कर वापिस वसुन्धरा की योनि में उतार देता और हर बार वसुन्धरा के मुंह से निकलने वाली सिसकारियों में दर्द की मात्रा क्रमश: कम और आनंद की मात्रा बढ़ती गयी. हर बार मेरा लिंग जैसे ही वसुन्धरा की योनि के दीर्घतम छोर को जाकर छूता, वसुन्धरा का मुंह भी इसी अनुपात में खुल जाता.
 
पाँचेक मिनट बाद अचानक वसुन्धरा ने अपने दोनों घुटने मोड़ कर अपनी दोनों टाँगें दाएं-बाएं फैला ली और अपने दोनों हाथों से मुझे आलिंगन में ले कर मेरी पीठ पर अपने दोनों हाथ कस दिए और मेरी ताल से ताल मिलाने लगी. जैसे ही मैं अपना लिंग, अपने लिंग-मुण्ड तक उसकी योनि से बाहर खींचता, वसुन्धरा अपनी कमर को ख़म दे कर थोड़ा पीछे ले जाती. और जैसे ही मैं अपने लिंग को तेज़ी से उसकी योनि में अंदर को धकेलता, वसुन्धरा भी अपनी कमर के ख़म को सीधा कर के अपनी योनि ऊपर को धकेलती.

वसुन्धरा के गोरे और पुष्ट नितंबों से मेरी जांघें जा कर ज़ोर से टकराती, एक ‘टप्प’ की आवाज़ आती. वसुन्धरा की योनि से निकलते काम-ऱज़ और मेरे लिंग से निकले प्री-कम के कारण मेरे लिंग का उसकी योनि में आवागमन थोड़ा आसान हो गया था. लेकिन फिर भी अपने लिंग को वसुन्धरा की योनि से बाहर खींच कर दोबारा अंदर घुसाने में वसुन्धरा की योनि की उत्कृष्ट संकीर्णता आड़े आ रही थी और अपने लिंग को दोबारा योनि-प्रवेश करवाने के लिए मुझे बल प्रयोग करना पड़ रहा था. परिणाम स्वरूप योनि की दीवारों से मेरे लिंग-मुण्ड का घर्षण हर गुज़रते पल के साथ-साथ बढ़ता जा रहा था.

हर बार मेरा लिंग-मुण्ड वसुन्धरा की योनि में गर्भाशय के मुंह पर हल्की सी चोट करता और उधर वसुन्धरा के मुंह से ‘आह … ह … उफ़्फ़्फ़ … उम्म्ह… अहह… हय… याह… हाय … सी … इ … ई … ई’ की ऊँची-ऊँची सीत्कारें निकल रही थी. उत्तेजना वश वसुन्धरा की दोनों टांगें हवा में लहरा उठी थी और ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे वसुन्धरा अपनी योनि के रास्ते मेरे लिंग को नहीं अपितु मुझे अपने अंदर समा लेना चाहती हो.

और इधर मैं वसुन्धरा को अपने आगोश में कस कर समेटे हुए नीचे बिजली की तेज़ी से अपनी कमर चलाते हुए ऊपर मैं अनवरत वसुन्धरा के माथे पर, गालों पर, आँखों पर, होठों पर, गर्दन पर, दोनों छातियों के बीच में चुंबनों की बौछार किये जा रहा था.

उत्तेजना-वश वसुन्धरा की दसों उँगलियों के तीखे नाख़ून मेरी पीठ में गड़े जा रहे थे लेकिन अब मुझे इसकी क़तई कोई परवाह नहीं थी. मेरे तीव्र आवेश के कारण वसुन्धरा के मुंह से निकलने वाली ऊँची-ऊँची काम-कराहों से सारा कमरा गुंजायमान था. कामदेव की सार्वभौमिक सत्ता सर्वत्र विराजमान थी.

काम-शिखर अब ज्यादा दूर नहीं था. अचानक ही वसुन्धरा के जिस्म में ज़बरदस्त थरथराहट होने लगी. दो पल बाद ही उसका जिस्म अकड़ने लगा और वो मुझे यहां-वहां काटने की कोशिश करने लगी. मैंने फ़ौरन वसुन्धरा के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर उसके सर के आजु-बाज़ू टिकाये और खुद कोहनियों पर हो कर अपनी कमर को और ज्यादा तेज़ी से चलाना शुरू कर दिया.

अचानक ही मेरे लिंग पर योनि का स्पंदन और सख़्त हो गया. तभी वसुन्धरा के मुंह से ज़िबह होते पशु की ‘गुर्र.. गर्र.. गर्र.. गुर्र.. गुर्र!’ सी दीर्घ आवाज़ें निकलने लगी. फिर अचानक ही वसुन्धरा की योनि ने काम-ऱज़ की जम कर बौछार कर दी और इस के साथ ही उसकी आँखें उलट गयी और वसुन्धरा बेहोश सी हो गयी. वसुन्धरा का गर्म-गर्म ऱज़ मेरे लिंग के साथ-साथ योनि से बाहर टपकने लगा.

अपनी जिंदगी के पहले सम्भोग में वसुन्धरा स्खलित हुई थी लेकिन मैं अभी भी डटा हुआ था. हालांकि मैं भी अपनी मंज़िल से कोई ख़ास दूर नहीं था. मेरी कमर अब बिजली की तेज़ी से चलने लगी थी.
दो-एक मिनट बाद अचानक मेरा लिंग वसुन्धरा की योनि के अंदर फूलने लगा और मैंने अपना लिंग अपने लिंग-मुंड तक वसुन्धरा की योनि से बाहर खींच कर पूरी शक्ति से वापिस वसुन्धरा की योनि में धकेलना शुरू कर दिया.
टप्प … टप्प … टप्पा … टप्प टप्प … टप्प … टप्पा … टप्प! टप्प … टप्प … टप्पा … टप्प!

फिर अचानक ही वसुन्धरा की योनि के अंदर आँखिरी बिंदु पर पहुँच कर जैसे मेरे लिंग में विस्फ़ोट हो गया. गर्म-गर्म वीर्य की एक ज़ोरदार धार सीधी वसुन्धरा वसुन्धरा के गर्भाशय के मुख पर पड़ी … फिर एक और … एक और … एक और! और इस के साथ ही मैं वसुन्धरा के पसीने से लथपथ अर्ध-बेहोश जिस्म पर ढह गया. अर्ध-बेहोशी में भी वसुन्धरा ने मुझे अपने अंक में कस लिया.

वसुन्धरा आज पहली बार अपने स्त्री-रूप अस्तित्व के रु-ब-रू हुई थी. एक नारी लगभग अपनी आधी जिंदगी गुजरने के बाद आज पहली बार अपने नारीत्व को प्राप्त हुई थी. एक काल्पनिक भार्या ने अपने काल्पनिक पति को अपने असली कामौर्य की भेंट चढ़ा दी थी.

आज वसुन्धरा के पैरों में पड़ी चौदह साल पुरानी ज़ंज़ीर कट चुकी थी. आज एक और अहिल्या शाप मुक्त हो चुकी था.
मैंने अपना वादा निभा दिया था, अब बारी थी वसुन्धरा की … अपना वादा निभाने की.


आशा करता हु आपको यह कहानी जरूर पसंद आई होगी....सतीश


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