hotaks444
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मैने माँ की बात नही सुनी उसकी मुझे बेहद फिकर थी....माँ ने दवाइयाँ लेना शुरू किया तो उसे कुछ राहत मिली लेकिन जब भी वो किचन में ज़्यादा काम कर लेती या बर्तन वर्तन या ज़्यादा कपड़े ही धो लेती तो बस उसे कमज़ोरी आ जाती...इस वजह से दिन भर नौकरी की थकान के बाद जब घर लौटता तो माँ ढंग से खाना नही परोस पाती थी....ज्योति भाभी और राजीव दा दोनो ने कहा कि या तो क़ामवाली हाइयर कर लो या अगर ज़्यादा कोई चिंता की बात है तो फिर किसी लड़की से शादी करके उसे घर ले आओ ताकि घर की सेवा भी हो जाएगी और तुम्हारा अकेलपन भी कट जाए
पर मैं नही माना मुझे अपनी माँ को छोड़ किसी भी पराई औरत से संबंध नही बनाना था...माँ के इनकार के बाद मेरा नज़रिया पहले जैसा ही हो चुका था लेकिन माँ की मुहब्बत में कोई कमी नही थी पर यहाँ बात माँ का ध्यानरखने की थी इसलिए सच में मुझे किसी औरत की तो ज़रूरत थी ही...मैने फिर भी एक बुढ़िया सी कामवाली को हाइयर किया...लेकिन वो छुट्टिया बड़ी करने लगी तो मुझे उस पर सख़्त गुस्सा आया एक तो टाइम से पहले तनख़ाह की फरमाइश और बहुत छुट्टियाँ करती थी...
मेरी ज़िद्द के कारण ही माँ ने उसे काम पे रख रखा था वरना उसे तो कोई मन नही था....वो कपड़े धोना बर्तन मान्झ्ना तक कर देती थी उसके बाद माँ ही खाना बनाती थी जिस्दिन वो ना आए तो माँ मुझे फोन करके कहती थी...मैं भी तंग आ गया कि यार एक तो मिल नही रही? और ऊपर से इस कामवाली के नखरे...चाहता तो किसी भरपूर जवान औरत को रख लेता पर साली के भी नखरे ज़्यादा होते और राजीव दा ने तो सख़्त कहा कि इस शहर की ज़्यादातर कामवालियाँ बहुत खराब है तुम्हें लूट लेंगी या फँसा देंगी अकेला देखके....मैं बहुत डरता था इन सब चीज़ो से
उस दिन लॅपटॉप पे हिसाब कर रहा था....इतने दिनो तक माँ और मेरे बीच कोई संबंध नही बने थे....फिर भी मेरे अंदर की हवस जाग जाती थी और हम बिस्तर पे जितने भी हालात खराब हो एकदुसरे के करीब आने की कोशिश करते थे माँ ने मेरे बाज़ू को सहलाया और कहा कि उन्हें मुझसे कुछ बात करनी है
मैने लॅपटॉप बंद किया और माँ के साथ लेट गया....माँ ने नाइटी पहन रखी थी नीले रंग की जो कोलकाता से खरीदी थी उसके लिए...."बेटा मैं कह रही थी? कि देख मैं जानती हूँ तेरा किसी पराई औरत पे कोई खिचाव नही पर मेरे दिल के लिए ये बात मान ले और किसी से शादी कर ले ताकि इस घर में अकेलापन थोड़ा कम हो तू तो चला जाता है काम पे फिर मेरा क्या होगा अकेले बोल ज़रा"........माँ समझाने का प्रयत्न कर रही थी उसे सच में किसी जवान लड़की की ज़रूरत थी शायद वक़्त काटने और अपनी मज़बूरियो के चलते...मैं इतना अमीर तो नही कि 4-5 नौकर रख लून लेकिन मेरी तो यही कोशिश की थी कि हम जितने अकेले होंगे एकदुसरे के उतने ही दरमियाँ नज़दीक होंगे
आदम : देख माँ पहले भी कह चुका हूँ मुझे शादी करने का कोई मान नही
माँ : देख आदम तू एक मर्द है जवान है तेरे पास नौकरी है सबकुछ तो है तेरे पास अच्छे से अच्छी लड़की तुझे मिलेगी तेरी लाइफ में तू एक बार कोशिश तो कर
आदम : माँ तुम जानती हो? कल को अगर उस पराई लड़की ने हमारे और तेरे रिश्ते पे उंगली उठाई तो क्या होगा?
माँ : मैं सब जानती हूँ उसे पता चलने हम नही देंगे हम कुछ फ़ासले कर लेंगे अपने दरमियाँ और मेरी ये इच्छा भी तो है कि इस घर में एक सुलझी सुशील पढ़ी लिखी तुझसे मुझसे भी ज़्यादा मुहब्बत करने वाली कोई बिंगाली बहू आए देख मुझे चाहिए कि तू भी उससे मुहब्बत करे
आदम : माँ ये नही हो सकता भला तुझे छोड़के मैं किसी और से कैसे?
माँ : अपने दिल पे हाथ रखके तो सोच मेरी इस इच्छा को तू पूरी नही कर सकता बोल ज़रा मैं कब तक जवान रहूंगी अभी से तो काम करके थक जाती हूँ बीमारी हो गयी जैसे कब तक मैं तुझे संभालूंगी मैं चाहती हूँ कि मेरे बाद कोई तेरा ध्यान रखे
आदम : मामा (माँ के मेरे बाद कहने से मुझे जैसे दुख हुआ)
माँ ने मेरे चेहरे पे हाथ फेरते हुए मुझे पूचकारा मुझे लाख समझाया कि ये ज़िद्द छोड़ दे जो संभव नही वो कैसे हो सकता है?...मैने काफ़ी सोच विचार किया एक तरफ तो दिल ने कहा कर ले कब तक यूँ माँ को तरसाए रखेगा उसकी मज़बूरी तो देख....मैने माँ की तरफ निहारा...फिर मैने अपनी सहमति ज़ाहिर की...माँ ने मुझे अपने गले लगाया उसने कहा कि मुझे अगर कोई पसंद आए तो मैं उसे ज़रूर दिखाऊ एक तरह से एक माँ ने अपने बेटे को किसी पराई औरत को डेट करने का अवसर दिया था
अगले दिन राजीव दा को मैने ये बात कही वो मुझे मेन मार्केट के पोलीस थाना चौक पे चेक पोस्ट करते हुए मिले थे..."अर्रे कर ले भाई बहुत मज़े करेगा ज़िंदगी में कभी पर्मनेंट भी होना माँगता है दोस्त बस एक बार किसी औरत पे पर्मनेंट मोहर मार दे तो दिल की सारी हसरतें पूरी हो जाएगी बस जान सुनके शादी करना".........राजीव दा भी जैसे माँ की बातों से सहमत थे वो तो उल्टे यही चाह रहे थे कि मैं उनकी तरह घर बसा लूँ
मैं काफ़ी सोच विचार किए था...क्या मालूम जो माँ सोच रही है वैसा ना हो क्या मालूम घर पे आते ही उनकी बहू उन्हें कष्ट देने लगे? या फिर हमारे बीच की मुहब्बत में फासला होते होते कहीं दरार ना पड़ जाए....यही सब दिमाग़ में उल्जुलुल बातें आ रही थी मेरे और मैं अपने इरादे से लगभग मुक़रने के फिराक में था...समीर को कुछ कहा नही क्यूंकी वो सोफीया से शादी करके हँसी खुशी ज़िंदगी बिता रहा था खामोखाः वो यूँ परेशान हो जाता मेरे हालातों के चलते इसलिए उसे कुछ नही बताया...
उस दिन बाइक से घर की ओर जा रहा था....मैने पाया कि मैं लालपाड़ा से गुज़र रहा था...उफ्फ वहीं याद मुझे खीच रही थी.....मैं जानता था यहाँ सब पेशेवर रंडिया रहती थी...मुझे गुज़रते वक़्त याद आया कि वो एरिया पड़ने वाला था जहाँ मेरे दिल में बसी वो कातिल हसीना रहती थी....जिसका नाम था चंपा उफ़फ्फ़ उसकी अदा उसके पान चबाते वो होंठ वो मदमस्त अधखुली साड़ी में दिखता उसका यौवन जो अक्सर मुझे उसके घर पे खीच लाता था....
सोचते ही मेरा पूरा बदन सिहर उठा....मैने बाइक रोकी और उस गली की तरफ झाँका इतने दिनो से वापिस अपने होमटाउन आया पर एक बार भी उससे बात नही की...सोचा कि उसे कॉल भी कर लूँ पर ना जाने मन उस वक़्त क्यूँ नही माना? वो औरत जिसने मुझे सेक्स करना सिखाया...जिसके साथ कयि रातें गुज़ारी? जिसने माँ के प्रति मेरा नज़रिया बिल्कुल बदल डाला था....जिस माँ से कलतक नफ़रत करता आया? आज उसके आगोश में रहता था...उससे बेपनाह मुहब्बत करने की जो इच्छा मुझमें बसाई वो कोई और नही चंपा ही तो थी....जो मेरे दिल के इतने करीब थी उस जैसी खूबसूरत लड़की मैने अपनी पूरी ज़िंदगी में नही पाई थी काश वो उसका पेशा ना होता तो उसे ही अपने घर की बहू बना लेता मैं नही करता जात की परवाह ना ही हालातों की...
मेरे कदम अपने ही मन की कशमकशो में उलझे उस गली की तरफ बढ़ चले...जब वहाँ गया तो पाया कि कुछ नही बदला था...गली एकदम तंग हो चुकी थी भला इस बदनाम रास्ते पे अयाशों को छोड़के कदम ही कौन रखने वाला था? मैं जैसे ही चंपा के ठिकाने पे पहुचा...तो पाया वहाँ एक बड़ा सा ताला झूल रहा था..."अर्रे यार आज भी यह यहाँ नही है?"........मैं अपनी सोच में ही चुपचाप वहाँ खड़ा दरवाजे के सामने ताले को घूर्र रहा था
अभी दो कदम पीछे हटा ही था कि एक औरत को सामने खड़ा पाया...ये वहीं औरत थी जिसे चंपा काकी काकी कहती थी जिससे उसकी दोस्ती थी...उस औरत ने एक साड़ी साड़ी पहन रखी थी पेशे से तो वो भी रंडी ही थी....शायद मज़बूरी में उसने ये कदम उठाया था क्यूंकी उसके बातों में बड़ी कोमलता और मुलायमित थी...उसने मुझे आश्चर्य से घुर्रा फिर कहा
"तुम तो वहीं हो ना जो उस रात चंपा के पास आया था?".........
.मैने मुस्कुरा कर सर हां में हिलाया...
आदम : आंटी वो चंपा कहाँ है? सोचा इतने दिनो बाद यहाँ से गुज़ारा तो उससे मिलता चलूं कही कोई कस्टमर के साथ तो!
औरत : तुम्हें क्या नही पता? कि अब वो यहाँ नही रहती?
आदम : क्या? पर क्यूँ ऐसा क्यूँ हुआ? कहाँ चली गयी वो (मैने एका एक सवाली और परेशानी दोनो निगाहो से पूछा)
तो उस औरत के चेहरे पे दुख के भाव आए और फिर दुख रोने में तब्दील हो गया...मैने साफ पाया वो अपने आँसू पोंछते हुए मुझे देखके मुस्कुरा रही थी जैसे अपने दुख पर काबू करना चाह रही हो
पर मैं नही माना मुझे अपनी माँ को छोड़ किसी भी पराई औरत से संबंध नही बनाना था...माँ के इनकार के बाद मेरा नज़रिया पहले जैसा ही हो चुका था लेकिन माँ की मुहब्बत में कोई कमी नही थी पर यहाँ बात माँ का ध्यानरखने की थी इसलिए सच में मुझे किसी औरत की तो ज़रूरत थी ही...मैने फिर भी एक बुढ़िया सी कामवाली को हाइयर किया...लेकिन वो छुट्टिया बड़ी करने लगी तो मुझे उस पर सख़्त गुस्सा आया एक तो टाइम से पहले तनख़ाह की फरमाइश और बहुत छुट्टियाँ करती थी...
मेरी ज़िद्द के कारण ही माँ ने उसे काम पे रख रखा था वरना उसे तो कोई मन नही था....वो कपड़े धोना बर्तन मान्झ्ना तक कर देती थी उसके बाद माँ ही खाना बनाती थी जिस्दिन वो ना आए तो माँ मुझे फोन करके कहती थी...मैं भी तंग आ गया कि यार एक तो मिल नही रही? और ऊपर से इस कामवाली के नखरे...चाहता तो किसी भरपूर जवान औरत को रख लेता पर साली के भी नखरे ज़्यादा होते और राजीव दा ने तो सख़्त कहा कि इस शहर की ज़्यादातर कामवालियाँ बहुत खराब है तुम्हें लूट लेंगी या फँसा देंगी अकेला देखके....मैं बहुत डरता था इन सब चीज़ो से
उस दिन लॅपटॉप पे हिसाब कर रहा था....इतने दिनो तक माँ और मेरे बीच कोई संबंध नही बने थे....फिर भी मेरे अंदर की हवस जाग जाती थी और हम बिस्तर पे जितने भी हालात खराब हो एकदुसरे के करीब आने की कोशिश करते थे माँ ने मेरे बाज़ू को सहलाया और कहा कि उन्हें मुझसे कुछ बात करनी है
मैने लॅपटॉप बंद किया और माँ के साथ लेट गया....माँ ने नाइटी पहन रखी थी नीले रंग की जो कोलकाता से खरीदी थी उसके लिए...."बेटा मैं कह रही थी? कि देख मैं जानती हूँ तेरा किसी पराई औरत पे कोई खिचाव नही पर मेरे दिल के लिए ये बात मान ले और किसी से शादी कर ले ताकि इस घर में अकेलापन थोड़ा कम हो तू तो चला जाता है काम पे फिर मेरा क्या होगा अकेले बोल ज़रा"........माँ समझाने का प्रयत्न कर रही थी उसे सच में किसी जवान लड़की की ज़रूरत थी शायद वक़्त काटने और अपनी मज़बूरियो के चलते...मैं इतना अमीर तो नही कि 4-5 नौकर रख लून लेकिन मेरी तो यही कोशिश की थी कि हम जितने अकेले होंगे एकदुसरे के उतने ही दरमियाँ नज़दीक होंगे
आदम : देख माँ पहले भी कह चुका हूँ मुझे शादी करने का कोई मान नही
माँ : देख आदम तू एक मर्द है जवान है तेरे पास नौकरी है सबकुछ तो है तेरे पास अच्छे से अच्छी लड़की तुझे मिलेगी तेरी लाइफ में तू एक बार कोशिश तो कर
आदम : माँ तुम जानती हो? कल को अगर उस पराई लड़की ने हमारे और तेरे रिश्ते पे उंगली उठाई तो क्या होगा?
माँ : मैं सब जानती हूँ उसे पता चलने हम नही देंगे हम कुछ फ़ासले कर लेंगे अपने दरमियाँ और मेरी ये इच्छा भी तो है कि इस घर में एक सुलझी सुशील पढ़ी लिखी तुझसे मुझसे भी ज़्यादा मुहब्बत करने वाली कोई बिंगाली बहू आए देख मुझे चाहिए कि तू भी उससे मुहब्बत करे
आदम : माँ ये नही हो सकता भला तुझे छोड़के मैं किसी और से कैसे?
माँ : अपने दिल पे हाथ रखके तो सोच मेरी इस इच्छा को तू पूरी नही कर सकता बोल ज़रा मैं कब तक जवान रहूंगी अभी से तो काम करके थक जाती हूँ बीमारी हो गयी जैसे कब तक मैं तुझे संभालूंगी मैं चाहती हूँ कि मेरे बाद कोई तेरा ध्यान रखे
आदम : मामा (माँ के मेरे बाद कहने से मुझे जैसे दुख हुआ)
माँ ने मेरे चेहरे पे हाथ फेरते हुए मुझे पूचकारा मुझे लाख समझाया कि ये ज़िद्द छोड़ दे जो संभव नही वो कैसे हो सकता है?...मैने काफ़ी सोच विचार किया एक तरफ तो दिल ने कहा कर ले कब तक यूँ माँ को तरसाए रखेगा उसकी मज़बूरी तो देख....मैने माँ की तरफ निहारा...फिर मैने अपनी सहमति ज़ाहिर की...माँ ने मुझे अपने गले लगाया उसने कहा कि मुझे अगर कोई पसंद आए तो मैं उसे ज़रूर दिखाऊ एक तरह से एक माँ ने अपने बेटे को किसी पराई औरत को डेट करने का अवसर दिया था
अगले दिन राजीव दा को मैने ये बात कही वो मुझे मेन मार्केट के पोलीस थाना चौक पे चेक पोस्ट करते हुए मिले थे..."अर्रे कर ले भाई बहुत मज़े करेगा ज़िंदगी में कभी पर्मनेंट भी होना माँगता है दोस्त बस एक बार किसी औरत पे पर्मनेंट मोहर मार दे तो दिल की सारी हसरतें पूरी हो जाएगी बस जान सुनके शादी करना".........राजीव दा भी जैसे माँ की बातों से सहमत थे वो तो उल्टे यही चाह रहे थे कि मैं उनकी तरह घर बसा लूँ
मैं काफ़ी सोच विचार किए था...क्या मालूम जो माँ सोच रही है वैसा ना हो क्या मालूम घर पे आते ही उनकी बहू उन्हें कष्ट देने लगे? या फिर हमारे बीच की मुहब्बत में फासला होते होते कहीं दरार ना पड़ जाए....यही सब दिमाग़ में उल्जुलुल बातें आ रही थी मेरे और मैं अपने इरादे से लगभग मुक़रने के फिराक में था...समीर को कुछ कहा नही क्यूंकी वो सोफीया से शादी करके हँसी खुशी ज़िंदगी बिता रहा था खामोखाः वो यूँ परेशान हो जाता मेरे हालातों के चलते इसलिए उसे कुछ नही बताया...
उस दिन बाइक से घर की ओर जा रहा था....मैने पाया कि मैं लालपाड़ा से गुज़र रहा था...उफ्फ वहीं याद मुझे खीच रही थी.....मैं जानता था यहाँ सब पेशेवर रंडिया रहती थी...मुझे गुज़रते वक़्त याद आया कि वो एरिया पड़ने वाला था जहाँ मेरे दिल में बसी वो कातिल हसीना रहती थी....जिसका नाम था चंपा उफ़फ्फ़ उसकी अदा उसके पान चबाते वो होंठ वो मदमस्त अधखुली साड़ी में दिखता उसका यौवन जो अक्सर मुझे उसके घर पे खीच लाता था....
सोचते ही मेरा पूरा बदन सिहर उठा....मैने बाइक रोकी और उस गली की तरफ झाँका इतने दिनो से वापिस अपने होमटाउन आया पर एक बार भी उससे बात नही की...सोचा कि उसे कॉल भी कर लूँ पर ना जाने मन उस वक़्त क्यूँ नही माना? वो औरत जिसने मुझे सेक्स करना सिखाया...जिसके साथ कयि रातें गुज़ारी? जिसने माँ के प्रति मेरा नज़रिया बिल्कुल बदल डाला था....जिस माँ से कलतक नफ़रत करता आया? आज उसके आगोश में रहता था...उससे बेपनाह मुहब्बत करने की जो इच्छा मुझमें बसाई वो कोई और नही चंपा ही तो थी....जो मेरे दिल के इतने करीब थी उस जैसी खूबसूरत लड़की मैने अपनी पूरी ज़िंदगी में नही पाई थी काश वो उसका पेशा ना होता तो उसे ही अपने घर की बहू बना लेता मैं नही करता जात की परवाह ना ही हालातों की...
मेरे कदम अपने ही मन की कशमकशो में उलझे उस गली की तरफ बढ़ चले...जब वहाँ गया तो पाया कि कुछ नही बदला था...गली एकदम तंग हो चुकी थी भला इस बदनाम रास्ते पे अयाशों को छोड़के कदम ही कौन रखने वाला था? मैं जैसे ही चंपा के ठिकाने पे पहुचा...तो पाया वहाँ एक बड़ा सा ताला झूल रहा था..."अर्रे यार आज भी यह यहाँ नही है?"........मैं अपनी सोच में ही चुपचाप वहाँ खड़ा दरवाजे के सामने ताले को घूर्र रहा था
अभी दो कदम पीछे हटा ही था कि एक औरत को सामने खड़ा पाया...ये वहीं औरत थी जिसे चंपा काकी काकी कहती थी जिससे उसकी दोस्ती थी...उस औरत ने एक साड़ी साड़ी पहन रखी थी पेशे से तो वो भी रंडी ही थी....शायद मज़बूरी में उसने ये कदम उठाया था क्यूंकी उसके बातों में बड़ी कोमलता और मुलायमित थी...उसने मुझे आश्चर्य से घुर्रा फिर कहा
"तुम तो वहीं हो ना जो उस रात चंपा के पास आया था?".........
.मैने मुस्कुरा कर सर हां में हिलाया...
आदम : आंटी वो चंपा कहाँ है? सोचा इतने दिनो बाद यहाँ से गुज़ारा तो उससे मिलता चलूं कही कोई कस्टमर के साथ तो!
औरत : तुम्हें क्या नही पता? कि अब वो यहाँ नही रहती?
आदम : क्या? पर क्यूँ ऐसा क्यूँ हुआ? कहाँ चली गयी वो (मैने एका एक सवाली और परेशानी दोनो निगाहो से पूछा)
तो उस औरत के चेहरे पे दुख के भाव आए और फिर दुख रोने में तब्दील हो गया...मैने साफ पाया वो अपने आँसू पोंछते हुए मुझे देखके मुस्कुरा रही थी जैसे अपने दुख पर काबू करना चाह रही हो