hotaks444
New member
- Joined
- Nov 15, 2016
- Messages
- 54,521
मुझे दो मर्दों के बदन से खेलते देख जीवन के बदन मे और जोश भर गया. उसकी वैसे ही काफ़ी सालो से अपनी वाइफ को किसी अंजन आदमी से सेक्स करते हुए देखने की तमन्ना थी. जिस तमन्ना को मैने ही कोई लिफ्ट नही दे रही थी. ये अलग बात है की उनकी पीठ के पीछे मैं एक्सट्रामरिटल सेक्स के मज़े भी खूब ले रही थी. लेकिन मैं दूसरे से भरपूर मज़े लेते हुए भी उनको अंधेरे मे रख रही थी. वो कई बार मुझे स्वापिंग के लिए कुरेदते थे मगर मैं किसी पतिव्रता नारी की तरह उन्हे सॉफ मना कर देती थी. हां ये ज़रूर है कि हम सेक्स करते वक़्त अक्सर किसी और को भी शामिल कर लेते थे. चाहे वो मेरी कोई सहेली हो या उनका कोई दोस्त.
आज जो झीना सा परदा था शर्म का हमारे संबंध मे वो तार तार हुआ जा रहा था. कुच्छ ही हाथ दूर मैं किसी और मर्द के साथ सेक्स के खेल मे लिप्त थी तो वो किसी दूसरी औरत को अपने जिस्म की गर्मी से तृप्त कर रहा था.
काफ़ी देर से रंजन और दिवाकर मेरे बदन के एक एक अंग को सहला रहे थे. मसल रहे थे. मैं बुरी तरह उत्तेजित हो गयी थे. मैने रंजन और दिवाकर को अपनी ओर खींचा.
"बस अब मुझे रगड़ डालो" मैने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा,” अब उत्तेजना सहन से बाहर होती जा रही है. उफफफफफफफफ्फ़…..क्य्ाआ करते हूऊऊ…म्म्म्मम…..जीईएवआन क्य्ाआ सोचईएगाआ? बस करूऊऊ…..बुसस्स्स करूऊऊ”
मैने दोनो को बाँह से पकड़ कर अपनी ओर खींचा. और अपने स्तनो को और अपनी जांघों को उनके बदन से रगड़ने लगी. लेकिन दोनो तो अभी सेक्स के खेल के लिए तयार ही नही थे.
"नही पहले तुम गुरुजी को भोग लगओगि. पहले तुम्हारे जिस्म को स्वामीजी ग्रहण करेंगे. उनके संतुष्ट होने के बाद ही हम तुम्हारे बदन को च्छुएँगे. बिना तुम्हारी योनि मे उनका अमृत गिरे हम नही छ्छू सकते. ये हमारे उसूलों के खिलाफ है." उन्हों ने कहा.
मैं उनका चेहरा देख रही थी.
“उठो और आगे बढ़ कर स्वामी जी से अपने जिस्म को तृप्त करने के लिए निवेदन करो. बिना माँगे तो इस दुनिया मे कुच्छ भी नही मिलता चाहे वो स्वामीजी का संबंध ही क्यों ना हो.” दिवाकर कह रहा था
मैं उठी और लड़खड़ाते कदमो से गुरुजी की तरफ बढ़ी. दिवाकर ने मुझे रोक कर मेरे बदन पर झूलता वो गाउन एक दम अलग कर दिया.
“हां अब तुम्हारा नाज़ुक फूल सा जिस्म तैयार है स्वामीजी का आशीर्वाद ग्रहण करने के लिए.” उसने मेरे गाउन को रंजन को दिया जिसने उसे तह कर के एक कॅबिनेट मे रख दिया.
क्रमशः............
आज जो झीना सा परदा था शर्म का हमारे संबंध मे वो तार तार हुआ जा रहा था. कुच्छ ही हाथ दूर मैं किसी और मर्द के साथ सेक्स के खेल मे लिप्त थी तो वो किसी दूसरी औरत को अपने जिस्म की गर्मी से तृप्त कर रहा था.
काफ़ी देर से रंजन और दिवाकर मेरे बदन के एक एक अंग को सहला रहे थे. मसल रहे थे. मैं बुरी तरह उत्तेजित हो गयी थे. मैने रंजन और दिवाकर को अपनी ओर खींचा.
"बस अब मुझे रगड़ डालो" मैने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा,” अब उत्तेजना सहन से बाहर होती जा रही है. उफफफफफफफफ्फ़…..क्य्ाआ करते हूऊऊ…म्म्म्मम…..जीईएवआन क्य्ाआ सोचईएगाआ? बस करूऊऊ…..बुसस्स्स करूऊऊ”
मैने दोनो को बाँह से पकड़ कर अपनी ओर खींचा. और अपने स्तनो को और अपनी जांघों को उनके बदन से रगड़ने लगी. लेकिन दोनो तो अभी सेक्स के खेल के लिए तयार ही नही थे.
"नही पहले तुम गुरुजी को भोग लगओगि. पहले तुम्हारे जिस्म को स्वामीजी ग्रहण करेंगे. उनके संतुष्ट होने के बाद ही हम तुम्हारे बदन को च्छुएँगे. बिना तुम्हारी योनि मे उनका अमृत गिरे हम नही छ्छू सकते. ये हमारे उसूलों के खिलाफ है." उन्हों ने कहा.
मैं उनका चेहरा देख रही थी.
“उठो और आगे बढ़ कर स्वामी जी से अपने जिस्म को तृप्त करने के लिए निवेदन करो. बिना माँगे तो इस दुनिया मे कुच्छ भी नही मिलता चाहे वो स्वामीजी का संबंध ही क्यों ना हो.” दिवाकर कह रहा था
मैं उठी और लड़खड़ाते कदमो से गुरुजी की तरफ बढ़ी. दिवाकर ने मुझे रोक कर मेरे बदन पर झूलता वो गाउन एक दम अलग कर दिया.
“हां अब तुम्हारा नाज़ुक फूल सा जिस्म तैयार है स्वामीजी का आशीर्वाद ग्रहण करने के लिए.” उसने मेरे गाउन को रंजन को दिया जिसने उसे तह कर के एक कॅबिनेट मे रख दिया.
क्रमशः............