desiaks
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‘यह किसलिए’-राजन बाहर आते ही बोला। उसके कान अब तक शहनाई की ओर लगे हुए थे।
‘तुम्हारे लिए थोड़ी चाय।’ अभी वह कह भी नहीं पाई थी कि राजन बाहर निकल गया। माँ बर्तन को वहीं छोड़ शीघ्रता से राजन के पीछे आँगन में आ गई। राजन को दरवाजे की ओर बढ़ते देख बोली-
‘राजन!’
आवाज सुनकर वह रुक गया और घूमकर माँ की ओर देखा।
‘राजन! मैं जानती हूँ तू इतनी रात गए इस तूफान में क्यों आया है। परंतु बेटा तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिए।’
‘भला क्यों?’
‘इसी में तुम दोनों की भलाई है।’
‘भलाई-यह तो निर्धन की कमजोरियाँ हैं, जिनका वह शिकार हो जाता है। नहीं तो आज किसी की हिम्मत थी, जो मेरे प्रेम को इस प्रकार पैरों तले रौंद देता?’
‘मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि सब कुछ देखते हुए विष का घूँट पी ले।’
‘किसी के घर में आग लगी है और तुम कहती हो कि चुपचाप खड़ा देखता रहे?’
‘आग लगी नहीं-लग चुकी है। सब कुछ जलने के पश्चात् खबर नहीं तो और क्या कर सकोगे।’
‘मैं आग लगाने वाले से बदला लूँगा।’
‘तो तुम्हारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं, एक भूख है-जो तुम्हें पिशाच बनने के लिए विवश कर रही है। सच्चा प्रेम आत्मा से होता है, इस नश्वर शरीर से नहीं।’
‘मेरी यह जलन, तड़प, बेचैनी और आँसू-क्या यह सब धोखा है माँ?’
‘हाँ-सब धोखा है। तेरे प्रेम को किसी ने नीलाम नहीं किया, बल्कि तू स्वयं अपने प्रेम को भरी सभा में नीलाम करने जा रहा है। यह प्रेम की नहीं बल्कि तेरी मनुष्यता और उस माँ की नीलामी होगी, जिसकी कोख में तूने जन्म लिया है।’
‘माँ!’ राजन क्रोध से चिल्लाया। उसके नेत्रों से शोले बरस रहे थे। राजन ने दाँत पीसते हुए एक बार उधर देखा और फिर आकाश की ओर देखने लगा, जहाँ आतिशबाजी के रंगीन सितारे टूट रहे थे। बेचैनी से बोला-
‘माँ! देख उधर आकाश में बिखरते मेरे दिल के टुकड़ों को-देख, मैं आज नहीं रुकूँगा। शम्भू ने भी मुझे रोकना चाहा था, परंतु कुछ न कर सका। भगवान ने राह में कई संकट ला खड़े किए, परंतु वे भी मेरा कुछ न कर सके। आज मुझे कोई भी न रोक सकेगा-न किसी के आँसू और न किसी की ममता।’
‘परंतु शायद तू नहीं जानता कि माँ के आँसुओं में भगवान से अधिक बल है।’
‘तो फिर इस शरीर में भगवान का नहीं, बल्कि राजन का दिल है।’
यह कहते ही वह दरवाजे के करीब पहुँचा और कुंडे में ताला लगा देख रुक गया। एक कड़ी दृष्टि माँ पर फेंकी, फिर हथौड़ा लेकर कुंडे पर दे मारा। कुंडा ताला सहित नीचे आ गिरा। वह विक्षिप्त सा एक विकट हँसी हँसते हुए बाहर निकल गया। माँ खड़ी देखती रह गई।
राजन शीघ्रता से हरीश के घर की ओर बढ़ा जा रहा था। लंबा रास्ता छोड़ वह बर्फ के ढेरों के ऊपर से जाने लगा। उसके कानों में माँ की पुकारें आ रही थीं, जो शायद उसका पीछा कर रही थी और ‘राजी-राजी’ चिल्ला रही थी। उसका शरीर काँप रहा था, पाँव लड़खड़ा रहे थे। बर्फ पर फिसलते ही वह संभल जाता और पाँव जमाने का प्रयत्न करता। शहनाइयों और आतिशबाजियों का शोर बढ़े जा रहा था। जब आतिशबाजी आकाश पर फटती तो धमाके के साथ राजन के दिल पर चोट-सी लगती। ऐसा लगता जैसे उसके दिल पर कोई हथौड़े से वार कर रहा हो।
अचानक उसे माँ की आवाज सुनाई दी और फिर नीरवता छा गई। दो-चार कदम चलकर राजन के पाँव रुक गए और उसके कान माँ की आवाज पर लग गए।
‘माँ लौट गई क्या?’
उसका दिल न माना और वह घूमकर अंधेरे में माँ को खोजने लगा। बर्फ की सफेदी दूर-दूर तक दिखाई दे रही थी, परंतु माँ का कोई चिह्र न था। दो-चार कदम वापस चलकर उसने ध्यानपूर्वक देखा तो आने वाली राह पर एक स्थान पर बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े गिरकर ढेर सा बना रहे थे। वह भय से चीख पड़ा और उस ओर लपका।
‘तुम्हारे लिए थोड़ी चाय।’ अभी वह कह भी नहीं पाई थी कि राजन बाहर निकल गया। माँ बर्तन को वहीं छोड़ शीघ्रता से राजन के पीछे आँगन में आ गई। राजन को दरवाजे की ओर बढ़ते देख बोली-
‘राजन!’
आवाज सुनकर वह रुक गया और घूमकर माँ की ओर देखा।
‘राजन! मैं जानती हूँ तू इतनी रात गए इस तूफान में क्यों आया है। परंतु बेटा तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिए।’
‘भला क्यों?’
‘इसी में तुम दोनों की भलाई है।’
‘भलाई-यह तो निर्धन की कमजोरियाँ हैं, जिनका वह शिकार हो जाता है। नहीं तो आज किसी की हिम्मत थी, जो मेरे प्रेम को इस प्रकार पैरों तले रौंद देता?’
‘मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि सब कुछ देखते हुए विष का घूँट पी ले।’
‘किसी के घर में आग लगी है और तुम कहती हो कि चुपचाप खड़ा देखता रहे?’
‘आग लगी नहीं-लग चुकी है। सब कुछ जलने के पश्चात् खबर नहीं तो और क्या कर सकोगे।’
‘मैं आग लगाने वाले से बदला लूँगा।’
‘तो तुम्हारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं, एक भूख है-जो तुम्हें पिशाच बनने के लिए विवश कर रही है। सच्चा प्रेम आत्मा से होता है, इस नश्वर शरीर से नहीं।’
‘मेरी यह जलन, तड़प, बेचैनी और आँसू-क्या यह सब धोखा है माँ?’
‘हाँ-सब धोखा है। तेरे प्रेम को किसी ने नीलाम नहीं किया, बल्कि तू स्वयं अपने प्रेम को भरी सभा में नीलाम करने जा रहा है। यह प्रेम की नहीं बल्कि तेरी मनुष्यता और उस माँ की नीलामी होगी, जिसकी कोख में तूने जन्म लिया है।’
‘माँ!’ राजन क्रोध से चिल्लाया। उसके नेत्रों से शोले बरस रहे थे। राजन ने दाँत पीसते हुए एक बार उधर देखा और फिर आकाश की ओर देखने लगा, जहाँ आतिशबाजी के रंगीन सितारे टूट रहे थे। बेचैनी से बोला-
‘माँ! देख उधर आकाश में बिखरते मेरे दिल के टुकड़ों को-देख, मैं आज नहीं रुकूँगा। शम्भू ने भी मुझे रोकना चाहा था, परंतु कुछ न कर सका। भगवान ने राह में कई संकट ला खड़े किए, परंतु वे भी मेरा कुछ न कर सके। आज मुझे कोई भी न रोक सकेगा-न किसी के आँसू और न किसी की ममता।’
‘परंतु शायद तू नहीं जानता कि माँ के आँसुओं में भगवान से अधिक बल है।’
‘तो फिर इस शरीर में भगवान का नहीं, बल्कि राजन का दिल है।’
यह कहते ही वह दरवाजे के करीब पहुँचा और कुंडे में ताला लगा देख रुक गया। एक कड़ी दृष्टि माँ पर फेंकी, फिर हथौड़ा लेकर कुंडे पर दे मारा। कुंडा ताला सहित नीचे आ गिरा। वह विक्षिप्त सा एक विकट हँसी हँसते हुए बाहर निकल गया। माँ खड़ी देखती रह गई।
राजन शीघ्रता से हरीश के घर की ओर बढ़ा जा रहा था। लंबा रास्ता छोड़ वह बर्फ के ढेरों के ऊपर से जाने लगा। उसके कानों में माँ की पुकारें आ रही थीं, जो शायद उसका पीछा कर रही थी और ‘राजी-राजी’ चिल्ला रही थी। उसका शरीर काँप रहा था, पाँव लड़खड़ा रहे थे। बर्फ पर फिसलते ही वह संभल जाता और पाँव जमाने का प्रयत्न करता। शहनाइयों और आतिशबाजियों का शोर बढ़े जा रहा था। जब आतिशबाजी आकाश पर फटती तो धमाके के साथ राजन के दिल पर चोट-सी लगती। ऐसा लगता जैसे उसके दिल पर कोई हथौड़े से वार कर रहा हो।
अचानक उसे माँ की आवाज सुनाई दी और फिर नीरवता छा गई। दो-चार कदम चलकर राजन के पाँव रुक गए और उसके कान माँ की आवाज पर लग गए।
‘माँ लौट गई क्या?’
उसका दिल न माना और वह घूमकर अंधेरे में माँ को खोजने लगा। बर्फ की सफेदी दूर-दूर तक दिखाई दे रही थी, परंतु माँ का कोई चिह्र न था। दो-चार कदम वापस चलकर उसने ध्यानपूर्वक देखा तो आने वाली राह पर एक स्थान पर बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े गिरकर ढेर सा बना रहे थे। वह भय से चीख पड़ा और उस ओर लपका।