desiaks
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राजन जब बाहर निकला तो बच्चों की एक भीड़ उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे इस हालत में देख सब हँसने लगे।
घर पहुँचकर उसने कुछ आवश्यक वस्तुएँ एक बैग में डालीं-वह वहाँ से कहीं दूर चला जाएगा। वह आज पराजित हुआ था और एक निर्लज्ज की भांति वहाँ नहीं रहना चाहता था। अब उसके प्रेम में कलंक का धब्बा पड़ चुका था। उसने बैग उठाया और अंतिम बार घर की ओर देखा, फिर तुरंत बाहर निकल आया। आज वह सारी वादी से भयभीत था। उसने देखा दूर तक कोई न था। वह ‘सीतलपुर’ जाने वाले रास्ते पर हो लिया।
ज्यों-ही वह मंदिर की सीढ़ियों के पास से निकला, उसके पाँव वहीं रुक गए। न जाने क्या सोचकर उसने अपना बैग सीढ़ियों पर रख दिया और धीरे-धीरे मंदिर तक पहुँचा। मंदिर में कोई न था। शायद केशव भी किसी काम से बस्ती गया हुआ था।
राजन आँखों में आँसू भरे देवता के सम्मुख जा खड़ा हुआ।
आज जीवन में पहली बार वह मंदिर में रो रहा था और उसका मस्तक भी पहली बार देवता के सामने झुका था। अचानक वह चौंक उठा और शून्य दृष्टि से देवता की ओर देखने लगा। देवता उसे हँसते हुए दिखाई दिए। इंसान-तो-इंसान भगवान भी आज उसका उपहास कर रहे हैं।
वह बेचैन हो उठा। उसी समय हॉल में उसे एक गूँज-सी सुनाई दी, शायद यह आकाशवाणी थी।
‘आओ... अब झूठे प्रेम का आसरा क्यों नहीं लेते, जिस पर तुम्हें अभिमान या भरोसा था-अब गिड़गिड़ाने से क्या होगा?’
उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई, वहाँ कोई न था। केवल हँसी और कहकहों का शब्द सुनाई दे रहा था।
उसे संसार की हर वस्तु से घृणा होती जा रही थी। ‘वादी’ का हर पत्थर एक शाप, चिमनी का उठा हुआ धुंआ एक तूफान, हर इंसान एक झूठ का पुतला और किरण जलती हुई अग्नि दिखाई देने लगी... मानो सारी ‘वादी’ एक धधकती हुई ज्वाला में स्वाहा हो रही है। वह इन्हीं विचारों में डूबा हुआ कुंदन के घर जा पहुँचा। कुंदन वहाँ न था। काकी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। राजन को देखते ही बोली, ‘जरा भीतर से लिहाफ तो उठा लाओ।’
वह चुपचाप अंदर चला गया। कमरे में कोई रोशनदान अथवा खिड़की न होने के कारण अंधेरा था। वह टटोलता-टटोलता अंदर बढ़ा और हाथों से लिहाफ उठाने लगा। अचानक उसने लिहाफ छोड़ दिया।
शैतान को इंसानियत से क्या? वह भीतर क्यों चला आया-उसे काकी से हमदर्दी क्यों? उसे किसी से क्या वास्ता?
वह पागलों की भांति सोचता हुआ लिहाफ छोड़ शीघ्रता से बाहर आने लगा। अंधेरे में किसी वस्तु से राजन के सारे वस्त्र भीग गए। झुँझलाया हुआ बाहर निकला। यह मिट्टी का तेल था। काकी घबराहट में उसे देख रही थी कि वह बाहर चला गया।
वह भागता हुआ कुंदन के पास जा पहुँचा-कुंदन उसे इस दशा में देखकर घबरा गया। राजन का साँस फूल रहा था। उसने टूटे हुए शब्दों में कहा-
‘कुंदन-काकी बहुत बीमार है, शीघ्र जाओ, कहीं...।’
‘परंतु ड्यूटी...।’
‘कुंदन यदि मैं पागल हूँ तो भी बुरा नहीं।’
कुंदन ने बंदूक राजन को दे दी और नीचे की ओर भागने लगा।
परंतु यह तेल की बदबू कैसी है?
यह सोच वह एक क्षण के लिए रुक गया और काँप उठा।
राजन शैतान की तरह उसे देख रहा था। बंदूक की नली उसके सीने पर थी।
‘राजन! यह क्या?’
‘कुंदन! तुम मेरे मित्र हो न। इसलिए कहता हूँ-जितनी जल्द भाग सको भाग जाओ। एक भयानक तूफान आने वाला है।’
‘राजन!’ कुंदन उसकी ओर बढ़ते हुए बोला।
‘देखो कुंदन! यदि आगे कदम बढ़ाया तो गोली से उड़ा दिए जाओगे।’
कुंदन आश्चर्यचकित खड़ा था कि राजन ने बंदूक की सतह पर दियासलाई को सुलगाया और अपने वस्त्रों में आग लगा दी। कुंदन चिल्लाया और लड़खड़ाते पत्थर की भांति नीचे जाने लगा। उसके कानों में भयानक हँसी गूँज रही थी-राजन की अंतिम हँसी।
जलते हुए राजन ने चट्टानों की उस गुफा में प्रवेश किया, जिसमें विषैली गैसें और बारूद भरा हुआ था।
कंपनी में हाहाकार मच गया, मजदूर अपनी जान बचाने के लिए पत्थरों की तरह लड़खड़ाते-गिरते-टकराते नीचे आ रहे थे। उनके ऊपर ऊँची चट्टानों के फटते हुए पत्थर नीचे गिर रहे थे। राजन के दिल को कुचलने वाले अरमान और सीने में सुलगने वाले आँसू एक-एक करके फूट रहे थे। कोलाहल से वायुमंडल गूँज रहा था, अंधेरा बढ़ता जा रहा था, ‘वादी’ की हजारों माताएं अपने लालों को पुकार रही थीं।
प्रातःकाल जब ‘सीतलवादी’ को सूरज की पहली किरण ने छुआ तो एक बढ़ता हुआ जत्था खानों की ओर जा रहा था। चीख व पुकार के स्थान पर अब सबके मुख पर शांति के चिह्र दिखाई दे रहे थे। हर मनुष्य प्रसन्न प्रतीत होता था।
केशव यह देख शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरने लगा। सब लोग पागलों की तरह बढ़े जा रहे थे। केशव ने भीड़ में एक मनुष्य से कारण पूछा तो वह बोला-
‘बस बढ़ते जाओ-कंपनी को करोड़ों रुपए का लाभ होगा-लाखों मजदूर काम पर लग जाएँगे। वह हजारों की आबादी, लाखों की हो जाएगी और यह बस्ती एक बड़ी बस्ती बन जाएगी।’
केशव भी जत्थे के साथ हो लिया।
उसकी नजर लोगों के सिरों पर होती हुई पहाड़ी के दूसरी ओर निकलते हुए एक चश्मे पर रुकी। यह तेल का चश्मा था जिसकी खोज संसार वालों को एक अर्से से थी और जो खानों के फट जाने से अपनी गहराइयां छोड़ बाहर आ गया था।
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घर पहुँचकर उसने कुछ आवश्यक वस्तुएँ एक बैग में डालीं-वह वहाँ से कहीं दूर चला जाएगा। वह आज पराजित हुआ था और एक निर्लज्ज की भांति वहाँ नहीं रहना चाहता था। अब उसके प्रेम में कलंक का धब्बा पड़ चुका था। उसने बैग उठाया और अंतिम बार घर की ओर देखा, फिर तुरंत बाहर निकल आया। आज वह सारी वादी से भयभीत था। उसने देखा दूर तक कोई न था। वह ‘सीतलपुर’ जाने वाले रास्ते पर हो लिया।
ज्यों-ही वह मंदिर की सीढ़ियों के पास से निकला, उसके पाँव वहीं रुक गए। न जाने क्या सोचकर उसने अपना बैग सीढ़ियों पर रख दिया और धीरे-धीरे मंदिर तक पहुँचा। मंदिर में कोई न था। शायद केशव भी किसी काम से बस्ती गया हुआ था।
राजन आँखों में आँसू भरे देवता के सम्मुख जा खड़ा हुआ।
आज जीवन में पहली बार वह मंदिर में रो रहा था और उसका मस्तक भी पहली बार देवता के सामने झुका था। अचानक वह चौंक उठा और शून्य दृष्टि से देवता की ओर देखने लगा। देवता उसे हँसते हुए दिखाई दिए। इंसान-तो-इंसान भगवान भी आज उसका उपहास कर रहे हैं।
वह बेचैन हो उठा। उसी समय हॉल में उसे एक गूँज-सी सुनाई दी, शायद यह आकाशवाणी थी।
‘आओ... अब झूठे प्रेम का आसरा क्यों नहीं लेते, जिस पर तुम्हें अभिमान या भरोसा था-अब गिड़गिड़ाने से क्या होगा?’
उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई, वहाँ कोई न था। केवल हँसी और कहकहों का शब्द सुनाई दे रहा था।
उसे संसार की हर वस्तु से घृणा होती जा रही थी। ‘वादी’ का हर पत्थर एक शाप, चिमनी का उठा हुआ धुंआ एक तूफान, हर इंसान एक झूठ का पुतला और किरण जलती हुई अग्नि दिखाई देने लगी... मानो सारी ‘वादी’ एक धधकती हुई ज्वाला में स्वाहा हो रही है। वह इन्हीं विचारों में डूबा हुआ कुंदन के घर जा पहुँचा। कुंदन वहाँ न था। काकी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। राजन को देखते ही बोली, ‘जरा भीतर से लिहाफ तो उठा लाओ।’
वह चुपचाप अंदर चला गया। कमरे में कोई रोशनदान अथवा खिड़की न होने के कारण अंधेरा था। वह टटोलता-टटोलता अंदर बढ़ा और हाथों से लिहाफ उठाने लगा। अचानक उसने लिहाफ छोड़ दिया।
शैतान को इंसानियत से क्या? वह भीतर क्यों चला आया-उसे काकी से हमदर्दी क्यों? उसे किसी से क्या वास्ता?
वह पागलों की भांति सोचता हुआ लिहाफ छोड़ शीघ्रता से बाहर आने लगा। अंधेरे में किसी वस्तु से राजन के सारे वस्त्र भीग गए। झुँझलाया हुआ बाहर निकला। यह मिट्टी का तेल था। काकी घबराहट में उसे देख रही थी कि वह बाहर चला गया।
वह भागता हुआ कुंदन के पास जा पहुँचा-कुंदन उसे इस दशा में देखकर घबरा गया। राजन का साँस फूल रहा था। उसने टूटे हुए शब्दों में कहा-
‘कुंदन-काकी बहुत बीमार है, शीघ्र जाओ, कहीं...।’
‘परंतु ड्यूटी...।’
‘कुंदन यदि मैं पागल हूँ तो भी बुरा नहीं।’
कुंदन ने बंदूक राजन को दे दी और नीचे की ओर भागने लगा।
परंतु यह तेल की बदबू कैसी है?
यह सोच वह एक क्षण के लिए रुक गया और काँप उठा।
राजन शैतान की तरह उसे देख रहा था। बंदूक की नली उसके सीने पर थी।
‘राजन! यह क्या?’
‘कुंदन! तुम मेरे मित्र हो न। इसलिए कहता हूँ-जितनी जल्द भाग सको भाग जाओ। एक भयानक तूफान आने वाला है।’
‘राजन!’ कुंदन उसकी ओर बढ़ते हुए बोला।
‘देखो कुंदन! यदि आगे कदम बढ़ाया तो गोली से उड़ा दिए जाओगे।’
कुंदन आश्चर्यचकित खड़ा था कि राजन ने बंदूक की सतह पर दियासलाई को सुलगाया और अपने वस्त्रों में आग लगा दी। कुंदन चिल्लाया और लड़खड़ाते पत्थर की भांति नीचे जाने लगा। उसके कानों में भयानक हँसी गूँज रही थी-राजन की अंतिम हँसी।
जलते हुए राजन ने चट्टानों की उस गुफा में प्रवेश किया, जिसमें विषैली गैसें और बारूद भरा हुआ था।
कंपनी में हाहाकार मच गया, मजदूर अपनी जान बचाने के लिए पत्थरों की तरह लड़खड़ाते-गिरते-टकराते नीचे आ रहे थे। उनके ऊपर ऊँची चट्टानों के फटते हुए पत्थर नीचे गिर रहे थे। राजन के दिल को कुचलने वाले अरमान और सीने में सुलगने वाले आँसू एक-एक करके फूट रहे थे। कोलाहल से वायुमंडल गूँज रहा था, अंधेरा बढ़ता जा रहा था, ‘वादी’ की हजारों माताएं अपने लालों को पुकार रही थीं।
प्रातःकाल जब ‘सीतलवादी’ को सूरज की पहली किरण ने छुआ तो एक बढ़ता हुआ जत्था खानों की ओर जा रहा था। चीख व पुकार के स्थान पर अब सबके मुख पर शांति के चिह्र दिखाई दे रहे थे। हर मनुष्य प्रसन्न प्रतीत होता था।
केशव यह देख शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरने लगा। सब लोग पागलों की तरह बढ़े जा रहे थे। केशव ने भीड़ में एक मनुष्य से कारण पूछा तो वह बोला-
‘बस बढ़ते जाओ-कंपनी को करोड़ों रुपए का लाभ होगा-लाखों मजदूर काम पर लग जाएँगे। वह हजारों की आबादी, लाखों की हो जाएगी और यह बस्ती एक बड़ी बस्ती बन जाएगी।’
केशव भी जत्थे के साथ हो लिया।
उसकी नजर लोगों के सिरों पर होती हुई पहाड़ी के दूसरी ओर निकलते हुए एक चश्मे पर रुकी। यह तेल का चश्मा था जिसकी खोज संसार वालों को एक अर्से से थी और जो खानों के फट जाने से अपनी गहराइयां छोड़ बाहर आ गया था।
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