desiaks
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‘हाँ राजन, पूजा का नृत्य देखना हो तो आज...।’
‘तो तुम नाचोगी क्या?’ वह बात काटते हुए बोला।
‘हाँ परंतु देवताओं के सम्मुख।’
‘तो इंसान क्या करेंगे?’
‘लुक-छिपकर मंदिर के किवाड़ों से झाँकेंगे।’
‘यदि अंदर आ गए तो?’
‘तो क्या? देवताओं को प्रणाम कर कहीं कोने में जा बैठेंगे।’
‘नर्तकी नृत्य में बेसुध हो कहीं देवताओं को छोड़ मनुष्यों की ओर न झुक जाएँ।’
‘असंभव! शायद तुम्हें ज्ञात नहीं कि पायल की रुन-झुन, मन के तार और देवताओं की पुकार में एक ऐसा खिंचाव है, जिसे तोड़ना मनुष्य के बस का नहीं। मनुष्य उसे नहीं तोड़ पाता।’
‘तो हृदय को बस में रखना, कहीं भटक न जाए।’
‘ओह शायद बाबा आ गए!’ पार्वती संभलते हुए बोली। ड्यौढ़ी के किवाड़ खुलने का शब्द हुआ। राजन तुरंत अपने कमरे की ओर लपका। पार्वती ने अपनी ओढ़नी संभाली और बरामदे में लटके बंद चकोर को बाजरा खिलाने लगी। अब राजन कमरे से छिपकर उसे देख रहा था।
बाबा को देखकर पार्वती ने नमस्कार किया।
‘क्या अब सोकर उठी हो?’ बाबा ने आशीर्वाद देते हुए पूछा।
‘जी, आज न जाने क्यों आँख देर से खुली।’
‘पूजा का दिन जो था। गाँव सारा नहा-धोकर त्यौहार मनाने की तैयारी में है और बेटी की आँख अब खुली।’
‘अभी तो दिन चढ़ा है बाबा!’ वह झट से बोली।
‘परंतु नदी स्नान तो मुँह अंधेरे ही करना चाहिए।’
‘घर में भी तो नदी का जल है।’
‘न बेटा! आज के दिन तो लोग कोसों पैदल चलकर वहाँ स्नान को जाते हैं। तुम्हारे तो घर की खेती है। शीघ्र जाओ, तुम्हारे साथ के सब स्नान करके लौट भी रहे होंगे।’
‘बाबा! फिर कभी।’
‘तुम सदा यही कह देती हो, परंतु आज मैं तुम्हारी एक न सुनूँगा।’
‘बाबा!’ उसने स्नेह भरी आँखों से देखते हुए कहा।
‘क्यों? डर लगता है?’
‘नहीं तो।’
‘तो फिर?’
बाबा का यह प्रश्न सुन पार्वती मौन हो गई और अपनी दृष्टि फेर ली, फिर बोली-‘बाबा सच कहूँ?’
‘हाँ-कहो।’
‘शर्म लगती है।’ उसने दाँतों में उंगली देते हुए उत्तर दिया।
बाबा उसके यह शब्द सुनकर जोर-जोर से हँसने लगे और रामू की ओर मुँह फेरकर कहने लगे-
‘लो रामू-अब यह स्त्रियों से भी लजाने लगी, पगली कहीं की, घाट अलग है, फिर भी यदि चाहती हो तो थोड़ी दूर कहीं एकांत में जाकर स्नान कर लेना।’
‘अच्छा बाबा! जाती हूँ, परंतु जब तक एकांत न मिला नहाऊँगी नहीं।’
‘जा भी तो-तेरे जाने तक तो घाट खाली पड़े होंगे।’
‘हाँ-लौटूँगी जरा देर से।’
‘वह क्यों?’
‘मंदिर में रात को पूजा के लिए सजावट जो करनी है।’
‘और फल?’
‘पुजारी से कह रखे हैं।’
पार्वती ने सामने टँगी एक धोती अपनी ओर खींची-बाबा ने बरामदे में बिछी एक चौकी पर बैठकर इधर-उधर देखा और कहने लगे-‘क्या राजन अभी तक सो रहा है?’
‘देखा तो नहीं-उसकी भी आज छुट्टी है।’ पार्वती ने धोती कंधे पर रखते हुए उत्तर दिया।
बाबा ने राजन को पुकारा-वह तुरंत आँगन में जा पहुँचा, उसके हाथों में वही रात वाले फूल थे। ‘पार्वती उसे देखते ही एक ओर हो ली।’
राजन ने दोनों को नमस्कार किया।
‘मैं समझा शायद सो रहे हो।’
‘नहीं तो मंदिर जाने की तैयारी में था।’
‘तो तुम नाचोगी क्या?’ वह बात काटते हुए बोला।
‘हाँ परंतु देवताओं के सम्मुख।’
‘तो इंसान क्या करेंगे?’
‘लुक-छिपकर मंदिर के किवाड़ों से झाँकेंगे।’
‘यदि अंदर आ गए तो?’
‘तो क्या? देवताओं को प्रणाम कर कहीं कोने में जा बैठेंगे।’
‘नर्तकी नृत्य में बेसुध हो कहीं देवताओं को छोड़ मनुष्यों की ओर न झुक जाएँ।’
‘असंभव! शायद तुम्हें ज्ञात नहीं कि पायल की रुन-झुन, मन के तार और देवताओं की पुकार में एक ऐसा खिंचाव है, जिसे तोड़ना मनुष्य के बस का नहीं। मनुष्य उसे नहीं तोड़ पाता।’
‘तो हृदय को बस में रखना, कहीं भटक न जाए।’
‘ओह शायद बाबा आ गए!’ पार्वती संभलते हुए बोली। ड्यौढ़ी के किवाड़ खुलने का शब्द हुआ। राजन तुरंत अपने कमरे की ओर लपका। पार्वती ने अपनी ओढ़नी संभाली और बरामदे में लटके बंद चकोर को बाजरा खिलाने लगी। अब राजन कमरे से छिपकर उसे देख रहा था।
बाबा को देखकर पार्वती ने नमस्कार किया।
‘क्या अब सोकर उठी हो?’ बाबा ने आशीर्वाद देते हुए पूछा।
‘जी, आज न जाने क्यों आँख देर से खुली।’
‘पूजा का दिन जो था। गाँव सारा नहा-धोकर त्यौहार मनाने की तैयारी में है और बेटी की आँख अब खुली।’
‘अभी तो दिन चढ़ा है बाबा!’ वह झट से बोली।
‘परंतु नदी स्नान तो मुँह अंधेरे ही करना चाहिए।’
‘घर में भी तो नदी का जल है।’
‘न बेटा! आज के दिन तो लोग कोसों पैदल चलकर वहाँ स्नान को जाते हैं। तुम्हारे तो घर की खेती है। शीघ्र जाओ, तुम्हारे साथ के सब स्नान करके लौट भी रहे होंगे।’
‘बाबा! फिर कभी।’
‘तुम सदा यही कह देती हो, परंतु आज मैं तुम्हारी एक न सुनूँगा।’
‘बाबा!’ उसने स्नेह भरी आँखों से देखते हुए कहा।
‘क्यों? डर लगता है?’
‘नहीं तो।’
‘तो फिर?’
बाबा का यह प्रश्न सुन पार्वती मौन हो गई और अपनी दृष्टि फेर ली, फिर बोली-‘बाबा सच कहूँ?’
‘हाँ-कहो।’
‘शर्म लगती है।’ उसने दाँतों में उंगली देते हुए उत्तर दिया।
बाबा उसके यह शब्द सुनकर जोर-जोर से हँसने लगे और रामू की ओर मुँह फेरकर कहने लगे-
‘लो रामू-अब यह स्त्रियों से भी लजाने लगी, पगली कहीं की, घाट अलग है, फिर भी यदि चाहती हो तो थोड़ी दूर कहीं एकांत में जाकर स्नान कर लेना।’
‘अच्छा बाबा! जाती हूँ, परंतु जब तक एकांत न मिला नहाऊँगी नहीं।’
‘जा भी तो-तेरे जाने तक तो घाट खाली पड़े होंगे।’
‘हाँ-लौटूँगी जरा देर से।’
‘वह क्यों?’
‘मंदिर में रात को पूजा के लिए सजावट जो करनी है।’
‘और फल?’
‘पुजारी से कह रखे हैं।’
पार्वती ने सामने टँगी एक धोती अपनी ओर खींची-बाबा ने बरामदे में बिछी एक चौकी पर बैठकर इधर-उधर देखा और कहने लगे-‘क्या राजन अभी तक सो रहा है?’
‘देखा तो नहीं-उसकी भी आज छुट्टी है।’ पार्वती ने धोती कंधे पर रखते हुए उत्तर दिया।
बाबा ने राजन को पुकारा-वह तुरंत आँगन में जा पहुँचा, उसके हाथों में वही रात वाले फूल थे। ‘पार्वती उसे देखते ही एक ओर हो ली।’
राजन ने दोनों को नमस्कार किया।
‘मैं समझा शायद सो रहे हो।’
‘नहीं तो मंदिर जाने की तैयारी में था।’