desiaks
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चक्रवाल का गायन उनके लिए प्रात:जागरण का मधुर संदेश था। सब जाग पडते, परन्तु चक्रवाल का गायन न रुकता—तब तक, जब तक कि किन्नरी प्रकोष्ठ में आकर न कहती-'रहने दो चक्रवाल! सब जाग पड़े हैं। अब तुम भी स्नानादि से निवृत्त होकर शीघ्र ही मंदिर में चलने की तैयारी करो...।'
नित्य की भांति आज भी किन्नरी उसके प्रकोष्ठ में आयी—'सब तो जाग पड़े हैं और तुम गाते ही रहोगे क्या...?' उसने कहा।
चक्रवाल का गायन-प्रवाह रुक गया।
'आज युवराज पधारेंगे, शीघ्र ही तैयार होकर आओ....।' कहकर वह तीव्र गति से अपने प्रकोष्ठ की ओर चली गई।
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महामाया के पूजन का उत्सव दर्शनीय होता था।
अगणित सुगंधित द्रव्य अग्निकुण्ड में पड़ते थे, वायु उस सुगंधित द्रव्य को ग्रहण कर वातावरण को सुरभित किया करती थी।
महामाया की रत्नजड़ित प्रतिमा, हृदय में अपूर्व भक्ति का स्रोत प्रवाहित कर देती थी। महामाया की प्रतिमा के समक्ष एक स्वर्णनिर्मित थाल में कुंकुम एवं आरती हेतु कपूर रहता था। द्रविड़राज एवं महामंत्री का पूजनोत्सव के समय मंदिर में उपस्थित रहना अनिवार्य था।
आज बहुत दिनों के पश्चात युवराज ने राजमंदिर में पदार्पण किया। द्रविड़राज, युवराज एवं महामंत्री-सब यथायोग्य स्वर्णासनों पर आसीन थे।
आज किन्नरी निहारिका की वेशभूषा अपूर्व थी। इस समय वह चक्रवाल के पार्श्व में मस्तक नीचा किये हुए, तर्जनी को ठुड्डी पर रखकर कुछ सोचने की सी मुद्रा में बैठी थी—मगर बैठने में भी उस कलामयी युवती की अनोखी कला प्रकट हो रही थी। उसके प्रत्येक अंग संचालन में अपूर्व कला का सम्मिश्रण था। अपूर्व थी वह कलामयी।
पूजन समाप्त हुआ। महापुजारी ने महामायी का विधिवत् पूजन किया। प्रबल घंटारव से सुविशाल मंदिर गुंजायमान हो उठा। शंखध्वनि वातावरण में गुंजरित होने लगी।
द्रविड़राज एवं युवराज आदि ने महामाया एवं महापुजारी को मन-ही-मन प्रणाम किया। चक्रवाल सजग हुआ।
अब उसका कार्य प्रारंभ होने वाला था। उसने अपनी संचित मधुरता का एकत्रीकरण किया तुरंत ही महामाया का गुणगान उसकी स्वर-लहरी से फूट पड़ा था 'वर दे, शत्रु विनाशिनी वर दे !' साथ ही उसके अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर जा पड़ीं। तार मधुर स्वर में झंकृत हो उठे। यह मधुर आह्वान था, उस कलामयौं किन्नरी के लिए। वह उठी। मंथर गति से पग-पग पर अपनी कलापूर्ण प्रभा बिखेरती हुई वह कुंकुम के थाल के पास आ खड़ी हुई।
उसने कपूर-पात्र उठाकर अग्नि-शलाका से उसे प्रज्जवलित किया और तब महामाया की आरती उतारने लगी। मंदिर के घंटे पुन: तीन वेग से गुंजायमान हो उठे। आरती होती रही, चक्रवाल गाता रहा 'काट अंध उर के बंधन हर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर'
कलुषा भेद तम हर, प्रकाश भर, जगमग जग कर दे। वर दे ।
आरती समाप्त हुई। उस मंगलमयी आरती का स्वागत करने हेतु किन्नरी आरती का थाल ले, सबके समक्ष होती हुई आगे बढ़ने लगी।
सभी श्रद्धालु भक्ति एवं श्रद्धा से दोनों हाथ आरती के थाल पर घुमाकर मस्तक से लगाते रहे। द्रविड़राज ने आरती का स्वागत किया। उनके पार्श्व में ही बैठे थे युवराज। किन्नरी आरती का थाल लेकर युवराज के समक्ष आई।
वह न जाने क्यों सहम सी गई, लज्जित सी हो उठी। उसका हाथ एक क्षण के लिए प्रकम्पित हो उठा। युवराज ने भी आरती का स्वागत किया।
नित्य की भांति आज भी किन्नरी उसके प्रकोष्ठ में आयी—'सब तो जाग पड़े हैं और तुम गाते ही रहोगे क्या...?' उसने कहा।
चक्रवाल का गायन-प्रवाह रुक गया।
'आज युवराज पधारेंगे, शीघ्र ही तैयार होकर आओ....।' कहकर वह तीव्र गति से अपने प्रकोष्ठ की ओर चली गई।
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महामाया के पूजन का उत्सव दर्शनीय होता था।
अगणित सुगंधित द्रव्य अग्निकुण्ड में पड़ते थे, वायु उस सुगंधित द्रव्य को ग्रहण कर वातावरण को सुरभित किया करती थी।
महामाया की रत्नजड़ित प्रतिमा, हृदय में अपूर्व भक्ति का स्रोत प्रवाहित कर देती थी। महामाया की प्रतिमा के समक्ष एक स्वर्णनिर्मित थाल में कुंकुम एवं आरती हेतु कपूर रहता था। द्रविड़राज एवं महामंत्री का पूजनोत्सव के समय मंदिर में उपस्थित रहना अनिवार्य था।
आज बहुत दिनों के पश्चात युवराज ने राजमंदिर में पदार्पण किया। द्रविड़राज, युवराज एवं महामंत्री-सब यथायोग्य स्वर्णासनों पर आसीन थे।
आज किन्नरी निहारिका की वेशभूषा अपूर्व थी। इस समय वह चक्रवाल के पार्श्व में मस्तक नीचा किये हुए, तर्जनी को ठुड्डी पर रखकर कुछ सोचने की सी मुद्रा में बैठी थी—मगर बैठने में भी उस कलामयी युवती की अनोखी कला प्रकट हो रही थी। उसके प्रत्येक अंग संचालन में अपूर्व कला का सम्मिश्रण था। अपूर्व थी वह कलामयी।
पूजन समाप्त हुआ। महापुजारी ने महामायी का विधिवत् पूजन किया। प्रबल घंटारव से सुविशाल मंदिर गुंजायमान हो उठा। शंखध्वनि वातावरण में गुंजरित होने लगी।
द्रविड़राज एवं युवराज आदि ने महामाया एवं महापुजारी को मन-ही-मन प्रणाम किया। चक्रवाल सजग हुआ।
अब उसका कार्य प्रारंभ होने वाला था। उसने अपनी संचित मधुरता का एकत्रीकरण किया तुरंत ही महामाया का गुणगान उसकी स्वर-लहरी से फूट पड़ा था 'वर दे, शत्रु विनाशिनी वर दे !' साथ ही उसके अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर जा पड़ीं। तार मधुर स्वर में झंकृत हो उठे। यह मधुर आह्वान था, उस कलामयौं किन्नरी के लिए। वह उठी। मंथर गति से पग-पग पर अपनी कलापूर्ण प्रभा बिखेरती हुई वह कुंकुम के थाल के पास आ खड़ी हुई।
उसने कपूर-पात्र उठाकर अग्नि-शलाका से उसे प्रज्जवलित किया और तब महामाया की आरती उतारने लगी। मंदिर के घंटे पुन: तीन वेग से गुंजायमान हो उठे। आरती होती रही, चक्रवाल गाता रहा 'काट अंध उर के बंधन हर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर'
कलुषा भेद तम हर, प्रकाश भर, जगमग जग कर दे। वर दे ।
आरती समाप्त हुई। उस मंगलमयी आरती का स्वागत करने हेतु किन्नरी आरती का थाल ले, सबके समक्ष होती हुई आगे बढ़ने लगी।
सभी श्रद्धालु भक्ति एवं श्रद्धा से दोनों हाथ आरती के थाल पर घुमाकर मस्तक से लगाते रहे। द्रविड़राज ने आरती का स्वागत किया। उनके पार्श्व में ही बैठे थे युवराज। किन्नरी आरती का थाल लेकर युवराज के समक्ष आई।
वह न जाने क्यों सहम सी गई, लज्जित सी हो उठी। उसका हाथ एक क्षण के लिए प्रकम्पित हो उठा। युवराज ने भी आरती का स्वागत किया।