RajSharma Sex Stories कुमकुम - Page 5 - SexBaba
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RajSharma Sex Stories कुमकुम

चक्रवाल ने युवराज को मस्तक झुकाकर सम्मान प्रदर्शन किया। तब बोला—'पधारिये श्रीयुवराज।'

युवराज आकर उसी पलंग पर उसी बिछावन से उठंग कर पर बैठ गये। बिछावन के भीतर छिपी हुई किन्नरी निहारिका का मृदुत शरीर अनिर्वचनीय आनंद से परिपूर्ण हो उठा।

'श्रीयुवराज के असमय पर्दापण का कारण?' चक्रवाल ने पूछा।

युवराज के हृदय में जो अगम वेदना अन्तर्हित थी, उसे शब्दों में व्यक्त करने की शक्ति किसमें थी।

फिर भी वे बोले—'नीरव रजनी को प्रकम्पित कर अवाध गति से प्रवाहित तुम्हारा गायन स्वर सुनकर मेरी निद्रा टूट गई। मुझे जो व्यथा हई वह वर्णनातीत है, चक्रवाल।'

'मैं श्रीयुवराज से इसके लिए क्षमा-प्रार्थी हूं।'

'तुम ऐसे हृदय-विदरक गीत क्यों गाते हो, चक्रचाल?'

'................।' चक्रवाल चुप रहा। किन्नरी के हृदय का स्पन्दन तीव्र हो गया।

'व्यथित हृदय को तुम और व्यथित कर देते हो, चक्रवाल?' बोले युवराज।

'मैं विवश हूं श्रीयुवराज। चेष्टा करने पर भी मैं अपने को रोक नहीं पाता। हृदय की अगम व्यथा स्वरों के साथ फूट ही पड़ती है। चक्रवाल ने कहा।

'तुम अपनी व्यथा सुना-सुनाकर सभी को व्यथित करना चाहते हो? चक्रवाल, अब ऐसे गीत ने गाया करो-मुझे अत्यधिक दुख होता है।'

'किन्नरी से आप रुष्ट क्यों हैं श्रीयुवराज...?'

"ओह ! उस कलामयी का स्मरण न दिलाओ चक्रवाल। वह देवी है उसकी उपासना मेरे लिए दुर्लभ है।'

'वह आपके लिए अत्यंत व्यग्र रहती है।'

'व्यग्र रहती है? वह तो कलामयी है चक्रवाल! वह क्यों मेरे लिए व्यथित होगी?' युवराज ने कहा।

चन्द्रमा की एक प्रकाश रेखा खिड़की की राह आकर उस लिपटे बिछावन पर नृत्य कर रही
युवराज ने उसे देखा।

वे चौंक पड़े—बिछावन में कुद प्रकम्पन होता हुआ देखकर। 'यह क्या बात है, चक्रवाल? इस बिछावन में कम्पन क्यों हो रहा है?' युवराज ने पूछा।

'कहां श्रीयुवराज।' चक्रवाल ने कहा, परन्तु उसका मन तीव्र वेग से हंस पड़ना चाहता था।

'मैं इसे देखना चाहता हूं।' कहते हुए युवराज ने बिछावन उलट दिया। किन्नरी की सौंदर्य राशि आलौकित हो उठी। युवराज आश्चर्यचकित हो गये—अपनी हृद्देवी को इस प्रकार वहां उपस्थित देखकर। 'किन्नरी कलामयी!' युवराज का हृदय उमड़ पड़ा।

'देव!' वह सिसक उठी जोरों से। युवराज ने आगे बढ़कर उसका कोमल हाथ पकड़ लिया। दोनों के नेत्र सिक्त हो रहे थे। दोनों के नेत्रों से एक साथ ही दो बूंद आंसू भूमि पर एक ही स्थान पर टपक पड़े।

उन दोनों अश्रु बिन्दुओं का वह मधुमय मिलन अतीव करुणाजनक एवं हृदयद्रावक था।
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जम्बूद्वीप के उत्तर में अवस्थित गिरराज हिमालय अभेद्य एवं दुरूह है। हिमाच्छादित गगनचुम्बी शिखर, भयानक कण्टकाकीर्ण बन, और भयानक घाटियों से परिपूर्ण, यह असम्भव है कि कोई मध्य अशांत महाद्वीपों से इस ओर आ जाये।

परन्तु प्रकृति ने मार्ग बना ही दिया है—बह मार्ग है खट्वांग की घाटी। यद्यपि यह घाटी भी समतल एवं अकंटक नहीं है फिर भी साहसी मनुष्य के लिए इस मार्ग द्वारा, उस पार से इस पार चले आना असम्भव नहीं।

इस घाटी द्वारा आर्य-सम्राट तिगमांशु की विशाल सेना ने, उस पार से इस पार की शस्यश्यामला भूमि पर पर्दापण किया।

और घाटी के समीप ही सेना ने शिविर डाल दिया। सहस्रों शिविर पड़ गये, मानो एक नगर ही बस गया उस भयानक वनस्थली के कीड़ में। इस समय संध्या की लालिमा, क्रमश: अपना आंचल प्रसारित कर रही थी। एक शिविर में बैठे हुए भीमकाय आर्य सम्राट तिरमाशु अपने कुछ नायक योद्धाओं के साथ कोई गुप्त मंत्रणा करने में तल्लीन थे, क्योंकि उन्हें अभी-अभी ही समाचार मिला था कि किरातों का एक सशस्त्र दल उनका मार्ग अवरुद्ध करने के लिए, वहां से केवल अर्द्धयोजन की दूरी पर अपना शिविर डाले पड़ा है।

'गुप्तचर! तुम्हारा कहना है कि किरातों की सेना बहुत छोटी है—यही न?' आर्य-सम्राट ने पूछा।

'जी श्रीमान् ! यही कोई एक सहस्र होंगे...मगर जो भी हैं, सभी योद्धा हैं—दास को मारकर तब मरने वाले हैं और उनका नायक उसकी न पूछिये। मैंने देखा तो नहीं, गुप्त रीति से सुना है कि वह अभी बालक है, लेकिन आर्य-सेना का कदाचित् ही कोई वीर उसके समक्ष ठहर सके।' दूत ने नतमस्तक होकर कहा।

'ऐसा है वह...?'

'जी हां। किरात-सेना उसकी आज्ञा पर अपने प्राण दे सकती है। यदि हम प्रयत्न करके उस सेना को अपनी सेना मिला सकें तो हमारी शक्ति बहुत बढ़ जायेगी—साथ ही उनसे हमें मार्ग दर्शन में अतीव सहायता मिलेगी।'

'ऐसा सम्भव हो जाये तो अत्यंत उत्कृष्ट है।'

'गुप्तचर और स्वयं आर्य-सम्राट तिग्मांशु अश्व पर आरूढ़ हो, भयंकर जंगल में परिभ्रमण करते हुए निर्धारित दिशा की ओर चल पड़े।

बहुत दूर चले जाने के बाद एक स्थान पर गुप्तचर ने अपना अश्व रोका। दोनों अश्व से उतर पड़े।

'उधर, उन आकाश चूमे वृक्षों की ओर देखिए, उनकी शीतल छाया में किरातों की सेना शस्त्र सज्जा अवस्था में ही विराम कर रही है।' गुप्तचर ने कहा।

दोनों पैदल ही उस और बढ़ चले।

अंधकारपूर्ण रात्रि थी मार्ग कंटकाकीर्ण एवं दुरूह था। बहुत बचाकर दबे पांव वे चल रहे थे। कुछ दूर चले जाने पर एकाएक सम्राट चौंककर खड़े हो गए। उनके कान के पास से ही कोई सरसराती हुई वस्तु तीव्र वेग से निकल गई थी।

'अवश्य ही यहां पर कोई शत्रु उपस्थित है, उसी ने हम पर तीर चलाया है गुप्तचर। लेट जाओ भूमि पर शब्द न हो।' सम्राट ने कहा।

दोनों भूमि पर लेटकर इधर-उधर ही आहट लेने लगे, परन्तु पुन: कोई शब्द सुनाई न पड़ा और न कोई आकृति ही दिखाई दी।

धीरे-धीरे आर्यसम्राट और गुप्तचर उठे और अतीव सावधानी से पुन: आगे की ओर बढ़ने लगे। परन्तु चारपग आगे बढ़ते ही पुन: एक तीर सरसराता हुआ सम्माट की दक्षिण भुजा में एक साधारण खरोंच करता हुआ निकल गया।

सिहरकर सम्राट एवं गुप्तचर पास के एक दीर्घकाय वृक्ष की ओट में खड़े हो गये और विस्फारित नेत्रों से चारों ओर के घनीभूत अंधकार में अपने शत्रु की खोज करने लगे।
 
परन्तु ऐसा मालूम होता था कि उस बनस्थली के कोने-कोने में भयानक पिशाच परिभ्रमण कर रहे हों और उन्हीं का यह कार्य है।
सम्राट एवं गुप्तचर नीरव खड़े थे, उस वृक्ष की ओट में। एकाएक ठीक उनके पीछे से कठोर गर्जन सुनाई पड़ा—'सावधान ! जहाँ हो वहीं खड़े रहो।'

सम्राट एवं गुप्तचर आश्चर्यातिरेक से घूम पड़े। उन्होंने देखा, ठीक उनके पीछे खड़ा था एक धनुर्धारी किरात युवक, जिसके कार्मुक पर चढ़े हुए दो तीर इन दोनों के वक्ष की सीध में तने हैं।

सम्राट ने दांत पीसे और तुरंत ही उनके हाथ कृपाण की मूठ पर जा पड़े।

'सावधान...।' किरात युवक बोला-'हाथ जहां हैं वहीं स्थिर रहें। इस समय सारा वन्यप्रदेश किरातों से भरा पड़ा है। आपके नेत्रों से ये नेत्र अधिक दूरदर्शी है। अच्छा हो, आप लोग सीधे हमारे नायक के पास चलें।'

सम्राट तिग्मांशु आश्चर्यचकित रह गए, उस वीर किरात युवक की बातें सुनकर। जहां एक साधारण युवक इतना शौर्यवान है तो उनका नायक कैसा होगा? वे सोचने लगे। किरात युवक ने अपना कार्मुक कंधे से लटका लिया और आगे-आगे चल पड़ा।

सम्राट और गुप्तचर ने उसका अनुसरण किया। उस स्थान पर, जहां वृक्ष की सघन छाया के नीचे किरात सेना पड़ी थी, वहां आकर वह किरात युवक एक ऊंचे शिलाखंड पर बैठ गया।

उस युवक के साथ दो अपरिचितों को भी आया देख, समग्र किरात युवक उस स्थल पर एकत्रित हो गये।

'आप लोग कौन हैं...?' पूछा उस युवक ने।

'अपने नायक को बुलाओ, मुझे उससे कुछ आवश्यक बातें करनी हैं।' सम्राट ने कहा।

'नायक तो यही है।' किरात समुदाय में से किसी एक ने कहा।

'यही है।' चौंककर आर्य-सम्राट ने उस युवक को देखो, जो इस समय शिलाखंड पर बैठा हुआ मंद-मंद मुस्करा रहा था।

उसके कंठ प्रदेश में एक मूल्यवान रत्नहार था, जिसकी मणियों से मंद-मंद प्रकाश निकल रहा था। सम्राट को महान् आश्चर्य हुआ यह सोचकर कि ऐसा मूल्यवान रत्नहार कदातिच् उनके राजकोष में भी नहीं है।

'आपका परिचय?' नायक ने पूछा।

'मैं हूं आर्य सम्राट, तिग्मांशु।'

'आर्य सम्राट तिग्मांशु।' पर्णिक ने स्थिर वाणी में दुहराया, तत्पश्चात् उन्हें उचित स्थान पर बैठने का संकेत करते हुए बोला-आपके यहां आने का तात्पर्य?'

'इसके प्रथम कि मैं कुछ कहूं...मैं यह पूछना चाहता हूं वीर युवक कि तुम्हारे यहां आने का कारण क्या है?'

'आपके मार्ग में बाधा उपस्थित कर आपको अग्रसर होने से रोकना —यही है हमारे यहां आने का कारण...।' पणिक ने निभीक भाव से उत्तर दिया।

'तुम मुझे अग्रसर होने से क्यों रोकने चाहते हो।'

'क्योंकि स्वदेश रक्षा का उत्तरदायित्व प्रत्येक व्यक्ति पर समान रूप से होता है।'
 
'परन्तु मैं तो इस देश में मित्रता स्थापित करने आया हूं।'

'परन्तु आर्य सम्राट ! मित्रता के लिए साथ में इतनी विशाल सेना की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्या आप बल प्रयोग द्वारा मित्रता स्थापित करना चाहते हैं।'

'नायक!' आर्य सम्राट मुस्करा उठे- 'मैं तुम्हारे बुद्धि-चातुर्य की प्रशंसा करता हूं। धन्य है तुम्हारी माता जिसने तुम्हें जन्म दिया।'

'आप भी धन्य हैं, श्रीमान्। अपनी माता की प्रशंसा करने वाले को मैं आदर की दृष्टि से देखता हूं।' पर्णिक ने कहा।

'देखो नायक' सम्राट गंभीर वाणी में बोले—'हमारा आर्य-धर्म संसार में सर्वोच्च है। हम लोग उसके कदर अनुयायी हैं। उसी धर्म का प्रसार करने हम निकले हैं...हमारे यहां आने के दो मुख्य कारण है। प्रथम तो यह कि हमें रहने के लिए मध्य अशांत महाद्वीप में स्थान का बहुत अभाव है,अत: हम यहां अपने कुछ मनुष्यों को बसाना चाहते हैं। इस देश से अच्छा निकटतम कोई भी देश नहीं है कि हम वहां जाकर बस सकें—इसलिए हम यहाँ आये हैं। दूसरा कारण यह है कि यहां हम लोग अपनी सभ्यता का प्रसार करना चाहते हैं।'

'परन्तु अपना धर्म एवं अपनी संस्कृति त्यागकर, आपकी सभ्यता को कौन स्वीकार करना चाहेगा, श्रीमान्?' पूछा पर्णिक ने।

'तुम अंधकार में हो नायक उत्कृष्ट संस्कृति को ग्रहण करना मनुष्यमात्र का परम कर्तव्य है।'

'अगर कोई इसके लिए प्रस्तुत न हो तो...?'

'तो इसके लिए बल प्रयोग करना मैं राजनीति का एक अंग समझता हूं।'

'आपको जानना चाहिये श्रीमान ! कि पर्णिक की माता ने उसे मरना सिखाया है, जीना नहीं...।' पर्णिक ने गर्व से कहा।

'धन्य है तुम्हारी माता!'

आर्य सम्राट के मुख से पुन: अपनी माता की प्रशंसा सुन पर्णिक का मन आर्य सम्राट की शालीनता पर पानी-पानी हो गया।

'मगर श्रीमान्। हमने स्वदेश-रक्षा के निमित्त यह अभियान किया है।'

'तुम्हारी स्वदेश-भक्ति प्रशंसनीय है, वीर युवक मैं तुम्हारे स्वदेश का अहित चिंतक नहीं हूं। मैं अपने रहने के लिए कुछ भूमि चाहता हूं और चाहता हूं, अपने उत्कृष्ट धर्म का प्रसार। यदि यह कार्य नम्रतापूर्वक पूर्ण हो जाय तो बल प्रयोग करना मैं कभी नहीं चाहूंगा।'

............।' पर्णिक निस्तबध रहकर आर्य सम्राट की बातों पर विचार करता रहा।

'मैं इसी हेतु तुम्हारे पास आया हूं, नायक मैं अपने कार्य में तुम्हारी सहायता करना चाहता हूं —तुम्हें अपनी सेना में सम्मिलित करना चाहता हूं। तुम्हारी सम्मिलित होने से हमारी शक्ति द्विगुणित हो जायेगी...यों तो मैं बल प्रयोग भी कर सकता था, मगर तुम्हारी सहृदयता एवं वीरता से मैं अत्यंत प्रभावित हुआ हूं।'

'परन्तु मैं इसे अस्वीकार करता हूं, श्रीमान्।'

'इसका कारण...? इधर देखो, आर्य-सम्राट तिग्मांशु आकर एक तुच्छ भिक्षा मांग रहे हैं और तुम अस्वीकार कर रहे हो? क्या तुम्हारी माता ने तुम्हें यही शिक्षा दी है कि अपने पास आये हए अतिथि की प्रार्थना पैरों तले कुचल दो? क्या तुम्हारी माता ने तुम्हें यही सिखाया है कि तुम अपने पास सहायता के लिए पास आये हुए व्यक्ति का अपमान एवं तिरस्कार करो?'
'...........।
 
' पर्णिक आपादमस्तक-कांप उठा।

'क्या तुम्हारी पूजनीय माता ने तुम्हें यही आदेश दिया है कि तुम स्वदेश रक्षा के अभिमान से ग्रस्त होकर, सुदूर से आए हुए अतिथि का, जिसका कोई दूषित उद्देश्य नहीं—निरादर करो? नायक यह तुम्हारा घर है, यहां तुम्हें सभी सुविधायें प्राप्त हैं....हैं न?'

'हम विदेशी हैं, नाना प्रकार के कष्ट झेलते हुए हम यहां, तुम्हारे देश में तुम्हारे पास तक आये हैं—और तुम हमें ठुकरा रहे हो। क्या यही तुम्हारी माता का सदुपदेश है?'

'..........।' पर्णिक धर्म-संकट में पड़ गया।

अपनी माता का आक्षेप, वह सहन नहीं कर सकता था। वह स्तब्ध हो उठा, आर्य सम्राट की बात सुनकर।

'बोलो तुम्हारा क्या विचार है ?' पूछा आर्य सम्राट ने।

'मैं आपका साथ दे सकता हूं।'

'दे सकते हो। वीर युवक, तुम्हारा अभिनंदन करता हूं मैं...।'

'परन्तु एक शर्त पर।

'वह क्या...?' सम्राट ने पूछा।

'वह यह कि आपको मुझे कृपाण युद्ध करना होगा।'

और पर्णिक ने कृपाण खींच ली। आर्य सम्राट युवक की स्फूर्ति देखकर आश्चर्यचकित हो गये। आज तक किसी व्यक्ति ने उनसे इस प्रकार निर्भीकतापूर्वक बातें नहीं की थीं और न युद्ध में कोई आर्य सम्राट को ललकार ही सकता था।

पर्णिक की स्फूर्ति एवं उसका आवेश देखकर आर्य सम्राट को हँसी आ गई, स्वत: बुदबुदाये तो यह नादान युवक आर्य सम्राट का हसतकौशल देखना चाहता है? इसे कृपाण के दो-चार हाथ दिखा देने चाहिए।

उन्होंने अपनी कृपाण खींच ली, परन्तु कुछ ही क्षणों में उन्हें ज्ञात हो गया कि किरातों की उस क्षुद्र टोली का नायक वास्तव में समस्त आर्य सेना का नायक होने की योग्यता रखता है।

वे चकित हो उठे, उस किरात युवक का अद्भुत पराक्रम देखकर। 'आज तुमने आर्य सेना के सर्वश्रेष्ठ वीर का मानमर्दन किया है, वीर युवक सम्राट ने कहा - 'मैं तुम्हें आर्य सेना का सेनाध्यक्ष नियुक्त करता हूं।'

'परन्तु यह पद मैं तभी स्वीकार कर सकता है, आर्य सम्राट! जबकि आप मुझे यह आश्वासन दें कि हमारी मान-मर्यादा पर कुठाराघात न करेंगे।'

'विश्वास को पैरों तले रौंदकर अपना मार्ग में संकीर्ण नहीं बनाना चाहता वीर युवक मैं तुम्हें आश्वासन देता हूं।'

'तो मुझे स्वीकार है।' किरात समुदाय के जयघोष से आकाशमंडल गूंज उठा।
 
अनुभवहीन युवक पर्णिक ने आर्य सम्राट की सहायता करना स्वीकार कर लिया। बह निकला था देश की रक्षा करने, मगर राजनीति-कुशल आर्य सम्राट की चिकनी-चुपड़ी बातों में फंसकर वह अपने पवित्र ध्येय से च्युत हो गया।
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दस
राजसभा में घोर नीरवता व्याप्त थी। सभी की मुखाकृति म्लान एवं मुद्रा भयभीत थी। द्रविड़राज स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान थे। उनसे भी उच्चासन पर आसीन थे महापुजारी पौत्तालिक

युवराज एवं नगर के सभी गणमान्य सज्जन उपस्थित थे। आज राजसभा में कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार-विनिमय हो रहा था।

एकाएक महापुजारी ने गुप्तचर से पूछा 'आर्य सम्राट के इस प्रकार अचानक आक्रमण का कारण क्या हो सकता है?'

'गुरुदेव!' पास ही खड़े हुए गुप्तचर ने नतमस्तक होकर उत्तर दिया-'सुनने में आया है कि आर्य सम्राट मध्य अशांत महाद्वीप से कुछ आर्यजनों को यहां लाकर बसाना चाहते हैं ताकि उन लोगों द्वारा यहाँ पर आर्य संस्कृति का प्रसार हो।'

.................' द्रविड़राज के मस्तक पर दुश्चिन्ता की रेखायें उभर आयीं। वे अपना सिंहासन छोड़कर उठ खड़े हुए।

'प्रिय सज्जनों!' उच्च स्वर में बोले वे—'आज युगों की सुख-शांति के बाद, क्रांति का समय आया है। एक विदेशी सम्राट ने हम पर अन्यायपूर्ण आक्रमण किया है...हम सदा से स्वाधीन रहे हैं, अब पराधीनता को कैसे स्वीकार कर सकते हैं?'

सभा में पूर्ववत् नीरवता व्याप्त रही। 'अपना देश हम विदेशियों को कैसे सौंप सकते हैं...?' सारी राजसभा नीरवता में डूबी हुई द्रविड़राज का भाषण सुन रही थी। हमें इस आक्रमण का प्रत्युत्तर देना ही होगा। हमें अपने स्वत्व के लिए वीरतापूर्वक, समरांगण में मर मिटना है। यह जम्बूद्वीप हमारा था, हमारा है और हमारा ही रहेगा। हम लोग इस पर विदेशियों के पैर स्थिर नहीं होने दे सकते...वे बल-प्रयोग द्वारा हम पर राज्य नहीं कर सकते।'

द्रविड़राज ने स्थिर दृष्टि से राजसभा के प्रत्येक व्यक्ति की ओर देखा। 'वीरो ! क्या तुम यह चाहते हो कि यह शस्य-श्यामला भूमि विदेशियों के पैरों तले रौंदी जाय? क्या तुम चाहते हो कि हम अपनी सुख-शांति और मान-मर्यादा विदेशियों को समर्पित कर दें...क्या तुम चाहते हो कि अपना सब कुछ लुटाकर अपनी सारी सम्पदा विदेशियों के पैरों पर रखकर स्वयं भिखारी बन बैठे? क्या तुम चाहते हो कि अपनी जन्म भूमि के श्वेत सुकोमल पैरों में सर्वदा के लिए परतन्त्रता की लौह-श्रृंखलायें डाल दी जायें?'

'नहीं! हम लोग यह कभी स्वीकार नहीं कर सकते...।' सभा गर्जन उठी—'हम चाहते हैं स्वदेश की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देना।'

'धन्य है ! पुष्पपुर के वीर नागरिको आप लोग धन्य हैं।' महापुजारी बोले।

'आज हमारी परीक्षा का समय उपस्थित है।' युवराज खड़े होकर कहने लगे—'अब तक हम शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते आ रहे थे—परन्तु आज जबकि हमारा देश सिक्त नेत्रों से हमारी और देख रहा है, हम कायर नहीं बनेंगे। उसकी रक्षा के लिए अपना तन-मन-प्राण सब-कुछ विसर्जन कर देंगे। हम अपनी वीरता पर कलंक न लगने देंगे, अपने पूर्वजों के पवित्र रक्त को दूषित नहीं होने देंगे...।' \

'श्रीसम्राट...!' तभी द्वारपाल ने सभा में प्रवेश कर निवेदन किया—'द्वार पर आर्य-सम्राट द्वारा प्रेषित राजदूत उपस्थित है और श्रीसम्राट के चरण कमलों का दर्शनाभिलाषी है।'

राजदूत आया। उसने नतमस्तक होकर द्रविड़राज एवं युवराज को अभिवादन किया। 'श्रीमान की सेवा में आर्य-सम्राट का शुभ संदेश लाया हूं...।' उसने कहा।

'शुभ संदेश...!' द्रविड़राज ने व्यंग किया—'कौन-सा शुभसंदेश है...? सुनाओ तो?' द्रविड़राज विकृत हंसी हंसकर मौन हो गए।
 
दत पुन: बोला—'हमारे सम्राट केवल अपने कुछ स्वजनों के जीविकार्थ आपके साम्राज्य के कुछ भाग की याचना करते हैं। अस्वीकार करने पर बल-प्रयोग भी सम्भव है।'

'बल प्रयोग...!' निर्भीक राजदूत ने उत्तर दिया--- बल प्रयोग राजनीति का अंतिम अस्त्र है।' 'याचना के साथ बल प्रयोग करना यही तुम्हारे देश की संस्कृति एवं तुम्हारे आर्य सम्राट की राजनीति है?'

'राजदूत के समक्ष श्रीमान् उसके सम्राट का अपमान कर रहे हैं।' दूत ने कहा- 'मेरे सम्राट की याचना स्वीकार कर लेने से ही आप सब का लाभ एवं कल्याण है-आप लोग किसी प्रकार भी उनके प्रबल वेग को संभाल नहीं सकेंगे।"

संभाल नहीं सकेंगे...? राजदूत, जब तुम्हारे सम्राट की सेना से द्रविड़ सेना की मुठभेड़ होगी, तब वास्तविक बलाबल का निर्णय होगा।' द्रविड़राज बोले।

'श्रीमान को विदित हो कि किरात-युवकों का दल उनके नायक सहित, हमारे सम्राट की सहायता के लिए प्रस्तुत हो गया है और मुझे आशा है कि मार्ग प्रदर्शन में उनसे आशातीत सहायता हमें मिलेगी और विश्वास है कि आपकी सेना के तैयार होने से पूर्व ही हमारी सेना पुष्पपुर नगर में प्रवेश कर जायेगी...।'

'तुम भूलते हो राजदूत...। हमारी सेना पूर्ण रूप से तैयार है तुम्हारे आर्य-शिविर में पहुंचने के पूर्व ही वह वहां पहुंच जाएगी, यह तुम निश्चय समझ लो और अपने सम्राट से जाकर कह देना कि उन्होंने हम पर आक्रमण का विचार कर, अपने को हमारी दृष्टि में हेय एवं घृणित प्रमाणित किया हैं उनके इस आक्रमण से हमारे सम्मान पर धक्का लगा। इसके प्रतिकार के लिए वे प्रस्तुत रहें। द्रविड़राज की रक्त-पिपासातुर सेना शीघ्र ही तुम्हारे सम्राट का गर्व-खर्व करेगी...।' युवराज बोले।

राजदूत ने पूछा- 'क्या यह श्रीमान् का अंतिम निर्णय है?'

'अवश्य।' राजदूत ने झुककर अभिवादन किया और राजसभा से बाहर हो गया। कई क्षणों तक राजसभा में घोर निस्तब्धता का साम्राज्य व्याप्त रहा।

कुछ देर बाद द्रविड़राज बोले—'हमें अत्यंत शीघ्र सम्पूर्ण तैयारी करके अपनी सेना गुप्त मार्ग द्वारा युद्धस्थल की ओर भेज देनी चाहिए ताकि सीमान्त पर ही हम आर्य सेना को रोक सकें। गुप्त मार्ग द्वारा वहां पहुंचना केवल दो घड़ी का कार्य है-सीधे मार्ग से वहां तक पहुंचने में दो दिन लग जायेंगे। परन्तु इससे पहले हम अपनी सेना युद्धभूमि की ओर भेजें, हमें एक सेनाधिपति की आवश्यकता है, जो इस कार्य का सफलतापूर्वक संचालन कर सके...। इस कार्य के लिए मैं स्वयं अपने को प्रस्तुत करता हूं।'

'पिताश्री !' युवराज बोले- 'आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं मैं सेनापति का कार्यभार सम्भाल लूंगा। मुझे आशा है कि मेरी यह तुच्छ याचना श्रीसम्राट को अस्वीकार न होगी।'

'युवराज!' द्रविड़राज बोले—'यह मेरे लिए सौभाग्य का विषय है कि तुम जैसा योग्य पुत्र स्वदेश के लिए रणवेदी पर बलि होने को प्रस्तुत है, परन्तु...।'

'परन्तु के व्यूह से बाहर आइये पिताजी। आज्ञा दीजिए। वचन देता हूं कि मैं जीते-जी स्वदेश पर कलंक न लगने दूंगा।'

'युवराज की जय हो।' सबने एक स्वर में जयघोष किया।
और युवराज इस युद्ध के लिए सेनाधिपति नियुक्त हुए। महापुजारी चौंक पड़े, यह घोष सुनकर। वे द्रविड़राज के निकट आकर धीरे से बोले— 'श्रीसम्राट ! श्रीयुवराज को रणक्षेत्र में भेजना उचित नहीं होगा।'

'आपका अभिप्राय?' वार्तालाप धीरे-धीरे हो रहा था ताकि कोई सुन न सके।

'इस वर्ष श्रीयुवराज की जन्मकुंडली में अनिष्टकारी ग्रह आ गये हैं...विपत्ति की आशंका है। अच्छा हो कि युवराज का जाना स्थगित कर, स्वयं आप युद्धक्षेत्र को प्रस्थान करें....।'

'यही ठीक होगा...।' द्रविड़राज ने निश्चय किया। महापुजारी अकस्मात् उठ खड़े हुए। उच्च स्वर में बोले—'श्रीयुवराज! समर भूमि में आपका जाना नहीं हो सकेगा।'

'इसका कारण...?' युवराज ने पूछा।

'श्रीसम्राट की आज्ञा।' महापुजारी बोले। युवराज ने द्रविड़राज की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा।

'युद्ध का संचालन कौन करेगा?' पुन: पूछा युवराज ने।

'स्वयं श्रीसम्राट।' महापुजारी ने कहा।
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'यह कैसे हो सकता है, महापुजारी जी...। पिता कष्ट का सामना करते हुए युद्ध-क्षेत्र में प्रोणोत्सर्ग करे और पुत्र राजप्रकोष्ठ में बैठा हुआ आनंद का उपभोग करे...? यह अन्याय है गुरुदेव। ऐसा नहीं होना चाहिये, ऐसा नहीं हो सकता। मेरे जीवन की यह प्रबल आकांक्षा है। मैं युद्ध-क्षेत्र में अपने अब तक के अनुभव की परीक्षा करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरा यह अधम शरीर देश और पिता के कार्य-साधन में उत्सर्ग हो...।'

'युवराज!'

'पिताजी...!'

'तुम्हारा कर्तव्य है, पिता की आज्ञा शिरोधार्य करना।'

'मुझे विश्वास नहीं होता पिताजी, कि ये वाक्य आपके विशुद्ध अंतस्तल से निकले हैं...मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि यह आज्ञा मेरे न्यायी पिताजी ने दी है, या मर्मव्यथा से व्यथित एवं पुत्र-प्रेम से उन्मत्त एक असहाय आत्मा ने।' ...............।'

'आप चुप हैं पिताजी...। चुप हैं आप...। आज तक आपकी आज्ञा का पालन करता आया हूं मैं। अब ऐसा अवसर न दीजिये कि उस आज्ञा का उल्लंघन करूं। आपकी यही अभिलाषा है कि मैं कायर की भांति अपनी संस्कृति को दुषित करूं? आज्ञा दीजिये, मुझे आशीर्वाद दीजिये जिससे मैं अपना शौर्य प्रदर्शित कर पिता के उज्ज्वल यश की रक्षा कर सकू। आज तक जिस पिता ने अपनी स्नेहमयी गोद में स्थान दिया–वीरत्व गाथायें सुना-सुनाकर हृदय में आत्मोत्सर्ग की अग्नि प्रज्ज्वलित की-उसी अग्नि पर पानी के छींटे मारकर आज उसे शांत कर देना चाहते हैं। देश परतन्त्र हो जाए और मुझ जैसा युवक उसे शांत चित्त से देखता रहे...यह देखने के पूर्व में मृत्यु की गोद में सो जाना पसंद करूंगा।'
 
.........' वडराज ने सिर नहीं उठाया। '....।'

महापुजारी मौन रहे।

राजसभा ने सम्मिलित जयघोष किया। महापुजारी को युवराज के निश्चय और दृढ़ता के समक्ष नत होना पड़ा। 'वत्स...!' बोले महापुजारी—'जाओ, अपने कुल की लाज की रक्षा करो और समर में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर अपने देश की आन रखो, परन्तु एक बात का ध्यान रखना, शिविर में बैठकर सेना का संचालन करना और युद्धभूमि में तब तक न जाना जब तक विशेष आवश्यकता न आ पड़े।'

युवराज ने श्रद्धापूर्वक महापुजारी के समक्ष सर झुकाया।
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'यह तुम क्या कह रहे हो चक्रवाल?' किन्नरी निहारिका ने कहा—'वास्तव में श्रीयुवराज रणक्षेत्र को प्रस्थान कर रहे हैं।'

'हा...। आर्य सेना ने द्रविड़राज पर आक्रमण किया है। श्रीयुवराज द्रविड़राज सेना के अध्यक्ष चुने गये हैं।'

'क्या श्रीसम्राट की सम्मति से...?'

"प्रथम तो श्री सम्राट युवराज को रणक्षेत्र में नहीं जाने देना चाहते थे, परन्तु युवराज के हठ से बाध्य हो गये। समस्त सेना गुप्त मार्ग द्वारा सीमांत की और भेज दी गई हैं। श्रीयुवराज कल प्रातःकाल प्रस्थान करेंगे।'

'क्या भवितव्य है चक्रवाल?' किन्नरी खिन्न स्वर में बोली-'जिस समय मैं शद्ध मन से महामाया के समक्ष नृत्य करती हूं तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो महामाया के मुख से भयंकर प्रलयाग्नि निकल रही है...यह देखो, मेरी दक्षिण भुजा फड़क उठी हे। अवश्य कुछ न कुछ अनिष्ट होने वाला है, चक्रवाल।'

'इधर बहुत दिनों से मैं भी अत्यंत भयभीत हो रहा है यह देखकर कि मैं जब अपने हृदय में सुखद गीत गाने की धारणा करता हूं, तो वीणा कर में लेते ही तारों से दुखद गीत की धारा प्रवाहित हो उठती है। मैं बहुत चाहता हूं कि ऐसा न हो, परन्तु महामाया की इच्छा...।'

'कल वे प्रात:काल चले जायेंगे—इधर बहुत दिनों से उनसे भेंट भी नहीं हुई है, हृदय अत्यंत व्यग्न है, चक्रवाल। हृदय में ऐसा मान होता है कि कदाचित् अब वे हमें सर्वदा के लिए त्याग कर जा रहे हैं...ऐसा प्रयत्न करो कि एक बार उनसे मिलन हो जाय, चक्रवाल...।'

'यह कैसे हो सकता है निहारिका वे युद्धकार्य में व्यस्त होगे। कल प्रात:काल मंदिर में उनके दर्शन कर लेना...।'

'केवल दर्शन से काम नहीं चलेगा, चक्रवाल। हृदय-व्यथा अब मुख द्वारा बाहर आने की चेष्टा कर रही है। अब तक वाणी मूक थी, परन्तु अब उसमें वाक्शक्ति का संचार हो गया है, वह युवराज के कर्ण-कुहरों में प्रवेश करने के लिए अधीर हो उठी है। अब तो तो दाहक अग्नि, जो असहनीय व्यथा अपने हृदय में दबाये बैठी हूं-उसे उन पर प्रकट कर देना चाहती हूं, चक्रवाल! तुम मेरा इतना उपकार कर दो...।'

किन्नरी के नेत्रों से मोती जैसे आंसू टपक पड़े।

'तुम्हें पीड़ा हो रही है?' चक्रबाल गंभीर स्वर में बोला—“विषय ज्वाला जला रही है...तुम्हारे...? मगर किन्नरी अपने देव पर अपनी व्यथा प्रकट कर उन्हें विचलित न कर देना.. इस समय उनके सामने कर्तव्य का दुर्गम-पथ है...।'
'............।'
चुप रही किन्नरौ। आंखों के आंसू पोंछ लिए उसने।

'मैं जा रहा हूं...।' बोला चक्रवाल—'अगर वे आ सके तो मैं उन्हें यहाँ तक अवश्य लाऊंगा।'

कहकर चला गया चक्रवाल। किन्नरी पलंग पर गिरकर रोने लगी। रोते-रोते उसका आंचल भीग गया। 'ओह!'
आज उसे जो दुख और जो वेदना हो रही थी वह वर्णनातीत थी। आज उसके हृदय पर जो कुछ बीत रहा है, वह असह्य था।

'किन्नरी।' लौट आकर बोला चक्रवाल—'श्रीयुवराज इस समय अधिक व्यस्त हैं। कहा है उन्होंने कि तुम आधी रात को उद्यान से मिलना। वे भी कम दुखी नहीं हैं, निहारिका...।'

और चला गया चक्रवाल। किन्नरी पलंग पर पड़ी हुई देर तक सिसकती रही। उसके नेत्रों के सामने युवराज की सौम्य प्रतिमा नृत्य करती रही।
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अर्द्धरात्रि का आगमन जैसे किन्नरी निहारिका के लिए युवराज के आवाहन का शुभ संदेश था। राजोद्यान में सन्नाटा छाया हुआ था। संगमरमर की चौकी पर बैठे हुए युवराज नारिकेल, किन्नरी की प्रतीक्षा कर रहे थे। किन्नरी आई। युवराज को सम्मान प्रदर्शन किया उसने। युवराज ने कोमल वाणी में कहा—'बैठो...।'

और किन्नरी आज बिना किसी हिचक के युवराज की बगल में बैठ गई। 'किन्नरी...!

'देव...।' दोनों का स्वर कांप रहा था।

'कष्ट के लिए क्षमा करना निहारिका...।'

'कष्ट किस बात का देव।' निहारिका अपनी आंखों से निकल पड़ने के लिए मचलते आंसुओं को बड़े यत्न से रोके हुए थी।

'कल मैं रणक्षेत्र को जा रहा हूं। हृदय अत्यंत व्यथित था तुमसे मिलने की लालसा रोक न सका...।'

'यह श्रीयुवराज की अत्यंत कृपा है...मगर हम लोगों की क्या अवस्था होगी, श्रीयुवराज! आपका बिछोह हम लोग किस प्रकार सहन कर सकेंगे?' किन्नरी का स्वर कम्पित था।

'मनुष्य को महामाया ने सहन-शक्ति प्रदान की है, किन्नरी...।'

'परन्तु मनुष्य का हृदय पाषाण-सा कठोर नहीं बनाया है, देव...।'

'यह क्या ? तुम रो रही हो...तुम्हें पीड़ा पहुंच रही है कलामयी। मुझे कायर न बनाओ। इन अश्रु-बिन्दुओं को देखकर मेरी सारी शक्ति क्षीण हो जायेगी।'

'ये अश्रुकण ही तो शेष हैं, देव। और मेरे पास है ही क्या...? और सब तो आपके चरणों पर अर्पित कर चुकी हूं। विश्राम, सुख एवं हृदय सब कुछ तो आपने छीन लिया।'

'ऐसा न कहो किन्नरी। तुम्हारे पास अगम ऐश्वर्य एवं अतुल सम्पदा का कोष है—मैं कितना दीन सकता हूं...तुम कलायमयी हो, देवी हो।'

'आप तो मुझे निराश्रय छोड़े जा रहे हैं, श्रीयुवराज! आपकी अनुपस्थिति किस प्रकार सहन कर सकूँगी मैं...।'

युवराज कुछ न बोले। विछोह के स्मरणमात्र से उनके हृदय में संघर्ष-सा मच गया था। राजोद्यान के कुमुदिनी-पुष्पों द्वारा आच्छादित सरोवर का जल, दोनों के परों के सन्निकट हिलोरे मार रहा था।

सौंदर्य और सुगंधित-युक्त कुमुदिनी के पुष्प, उन दोनों के मूक हृदय में मादकता कमी सृष्टि कर रहे थे।
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चक्रवाल अपने प्रकोष्ठ में बैठा हआ इस इस अर्ध-रात्रि की बेला में विहाग की करुण स्वर रागिनी अलाप कर प्रकृति को विकल कर रहा था
'कुमुदिनी तू क्वारी केहि हेत।
बरबस वयसि वितावति बावरी।
जलजहि वरि किन लेत?'
मदमत्त कुमुदिनी-पुष्पव वायु के वेग से हिलकर एक-दूसरे का चुम्बन कर रहे थे—मानो चक्रवाल का गायन सुनकर स्नेहपूर्वक एक-दूसरे से पूछ रहे हों कि वास्तव में जलज को वरण कर लेना चाहिये।

युवराज ने किन्नरी का सुकोमल कर अपने कर में ले लिया और अपनी अनामिका की उरत्नजड़ित मुद्रिका निकालकर किन्नरी की अनामिका में पहना दी।

बहुत काल तक दोनों निस्तब्ध रहे। नीरव रजनी की स्थिरता के साथ-साथ उनके नेत्र भी स्थिर थै— एक-दूसरे की मुखाकृति पर। --
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प्रात:काल महामाया के मंदिर में बृहद पूजनोत्सव हुआ, क्योंकि आज युवराज के रणक्षेत्र में जाने के पहले, उनके मस्तक पर परम कल्याणकारी देवी के चरण का प्रसाद 'कुंकुम' लगाया जाने वाला था।

महापुजारी ने महामाया की विधिवत् आराधना की। किन्नरी ने धड़कते हुए हृदय से आरती का थाल उठाकर आरती की।
चक्रवाल ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से गाया—'वर दे, शत्रु विनासिनी बर ।' पूजन के पश्चात किन्नरी ने कुंकुम की थाली उठा ली और मंथर गति से वह युवराज की ओर बढ़ी।

चक्रवाल ने अपनी वीणा उठाई। उसकी वाणी सिक्त थी, परन्तु उसने गाया
लेकर कुंकुम थाली कर में,
चलो चलें हम एक नगर में,
जहां न दु:ख का मान हो आली,
सुख की सरिता करे कलोल।
प्राण पपीहे पी पी बोल।।
बहुत ही करुणाजनक दृश्य था। सबके हृदय पर आसीन, कर्तव्यशील युवराज की विदाई का वह दृश्य, अत्यंत हृदयद्रावक था। सभी के नेत्रों से अश्रु-कण प्रवाहित हो रहे थे। परम धैर्यवान महापुजारी भी अपना मुख दुसरी ओर फेरकर बैठे हुए थे। कदाचित् उनके नेत्र-अश्व का प्रबल वेग सम्भालने में असमर्थ हो रहे थे। कुंकुम की थाली लेकर किन्नश्रीयुवराज के समक्ष आकर खड़ी हो गई। उसके नेत्र आंसुओं से फट पड़ना चाहते थे। उसका स्वर फूट-फूटकर रो उठना चाहता था। किन्नरी ने कम्पित करों से थोड़ा-सा कुंकुम उठाकर युवराज के मस्तक पर लगाया।

लगाते समय उसके सिक्त नेत्रों से मोतियों के सदृश अश्रुबिन्दु टपक कर युवराज के सामने धरती पर गिर पड़े।

एक क्षण के लिए युवराज प्रेम-विह्वल हो अस्थिर हो गये, परन्तु दूसरे ही क्षण गुरुजनों की उपस्थिति ने उनके ज्ञान-चक्षु खोल दिये।

किन्नरी लौट चली। उसके पग कांप रहे थे—उसका शरीर निष्प्रभ-सा हो रहा था। चार पग आगे बढ़ते ही वह धड़ाम से भूमि पर गिर पड़ी। कुंकुम इधर-उधर उड़कर भूमि का चुम्बन करने लगा।
 
'किन्नरी!' महापुजारी का तीव्र स्वर गूंज उठा। किन्नरी ने अपने को संभाला। शीघ्र ही पूजन समाप्त हुआ।

युवराज ने महापुजारी एवं द्रविड़राज के पैर छुए। महापुजारी और द्रविड़राज ने उनकी मंगलकामना की। जिस समय युवराज मंदिर से बाहर जा रहे थे, उन्होंने देखा कि एक कोने में किन्नरी निहारिका खड़ी है।

'किन्नरी...।' युवराज ने पुकारा।

किन्नरी उनके पास तक चली आई। '
व्यथित न हो, कलामयी। मैं शीघ्र ही विजय लाभ कर लौटूंगा...।' बोले युवराज।

'.........।' किन्नरी कुछ न बोली, केवल उसने अपने अंचल से थोड़ा-सा कुंकुम निकालकर पुन: उनके मस्तक पर लगा दिया।

'मुझे भूलोगी तो नहीं, कलामयी ?' ........।'

'बोलो किन्नरी।'

'क्या बोलू देव।' कहकर वह जोरों से रो पड़ी। पुन: अस्थिर होने के पूर्व ही युवराज आगे बढ़ गये। चक्रवाल की आंखों में आंसू और हृदय में दारुण रोर उठ खड़ा हुआ था। वाणी उसकी मूक थी—मगर हृदय व्यथित था।
और उसी समय युवराज नारिकेल गुप्त सुरंग द्वारा सीमांत की ओर रवाना हो गये। द्रविड़ सेना कल ही जा चुकी थी।
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ग्यारह

आर्य सम्राट के विशाल शिखिर के चतुर्दिक शस्त्रधारी सैनिक पहरा दे रहे थे। युद्ध की समस्त तैयारियां गुप्तनीति से सम्पन्न की जा रही थीं, क्योंकि आर्य सम्राट तिग्मांशु को यह भली प्रकार ज्ञात था कि स्वाभिमानी द्रविड़राज बिना युद्ध के कभी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे।

यद्यपि उन्होंने अपने दूत को बहुत प्रकार से समझा-बुझाकर द्रविड़राज के पास भेजा था, फिर भी हृदय में यह शंका तो थी कि द्रविड़राज युगपाणि उनका प्रस्ताव स्वीकार करेंगे या नहीं।

आर्य-सम्माट तिग्मांशु अपने शिविर में नवीन सैन्य-संचालक पर्णिक एवं अन्य सैनिक पदाधिकारियों के साथ किसी गुप्त मंत्रणा में तल्लीन थे।

शिविर के द्वारदेश पर कई सैनिक पहरा दे रहे थे। इस समय पर्णिक की वेशभूषा अनोखी थी। अब वह पहले का नग्न शरीर वाला किरातकुमार पणिक नहीं था। उसके शरीर पर उस सम बहुमूल्य वस्त्र चमक-दमक रहे थे, जिनकी आभा को उनके कण्ठ-प्रदेश में पड़े रत्नहार ने द्विगुणित कर रखा था।

अनेक प्रकार के नवीन अस्त्र-शस्त्र उसके शरीर पर सुशोभित हो रहे थे, जिससे उसकी मुखाकृति पर शौर्य की अविस्मरणीय आभा प्रस्फुटित हो रही थी।

इधर कुछ ही दिनों के सम्पर्क में आर्य-सम्राट को विश्वास हो गया कि किरात-समुदाय में रहने वाला यह वीर युवक अवश्य उच्च-कुलोत्पन्न है।

'यद्यपि हमने द्रविड़राज के पास अपना राजदूत भेज दिया है, परंतु अभी-अभी हमारे गुप्तचर यह समाचार लाये हैं कि द्रविड़राज की सेना यहाँ से योजन भर की दूरी पर आ गई है और वहीं उनका शिविर पड़ गया है। अब बिना युद्ध के हमारा कार्य सफलीभूत नहीं हो सकता...परन्तु आश्चर्य तो यह है कि हमारा राजदूत अभी तक लौटा क्यों नहीं?'

'आता ही होगा. श्रीमान। पर्णिक बोला—'विपक्षी की सेना आ गई है. हमारे लिए यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है। हमें युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाना चाहिये।'

'उनकी सेना का संचालक कौन है...?' पूछा आर्य सम्राट ने।

"पता लगा है...।' एक सैनिक बोला—'कि अभी तक युद्ध क्षेत्र में संचालक आया नहीं है। प्रात:काल तक आने की संभावना है।'

'कितनी सेना होगी?'

'आर्य सेना की आधी।'

'इतनी छोटी सेना लेकर वे किस प्रकार हमारा सामना कर सकेंगे?' आर्य सम्राट को आश्चर्य हुआ।

'परन्तु श्रीमान्।' सैनिक बोला—'सुना है कि उसका संचालन करने के लिए राजकुल का कोई बहुत ही योग्य व्यक्ति आ रहा है। ऐसी अवस्था में हमें उन्हें निर्बल समझ लेना भारी भूल होगी।'

'आ गये राजदत।' द्रविड़राज के यहां से लौट हुए राजदत को आता देखकर, आर्य सम्राट अतीव प्रसन्न हुए–'क्या समाचार लाये हो ? क्या कहा है उन्होंने?'

राजदूत ने सम्राट को अभिवादन किया तत्पश्चात् बोला— 'मेरा जाना निष्फल हुआ, श्रीमान्... । द्रविड़राज ने युद्ध की आकांक्षा प्रकट की है। साथ ही आपका और हमारे धर्म का...।'

'हमारे धर्म का और मेरा उपहास किया होगा...क्यों?'
 
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