XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 4 - SexBaba
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XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

"प्रोग्राम तो पक्का ही है न डॉली, तुम्हारे डैडी मना तो नहीं करेंगे?'माला ने डॉली का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

"मना क्यों करने लगे? केवल उनके कानों से बात निकलनी है और तुमने राज का यह नया प्राग्राम बना दिया?'

'इसमें बुराई क्या है? आदमी तो दिलचस्प जान पड़ता है।'

'तुम नहीं समझतीं। कभी-कभी आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी अच्छी नहीं होती। चलो, अब तो जो हो गया।'

'अच्छा तो मैं चलती हूं। बहुत देर हो गई।'

'कुछ देर और ठहरो। खाना खाकर ही चली जाना।'

'नहीं, बहुत देर हो जाएगी।

"दिलचस्प आदमी को भेज दंगी। रास्ता अच्छा कट जाएगा।'

'चल, शैतान कहीं की।' माला ने नीचे उतरते हुए कहा। दोनों हंसने लगीं।

डॉली फाटक तक उसे छोड़ने गई। वापस आने पर वह गुनगुनाती हुई ड्राइंगरूम में आ गई।

'क्यों डॉली, यदि तुम नहीं चाहती तो मैं पूना नहीं जाता। मैं तो वैसे ही हां कर बैठा।' राज ने कहा। वह सामने सोफे पर लेटा हुआ था।

'वैसे ही क्या?तुम्हारे जाने से तो मेरा मन लगा रहेगा।' डॉली ने एक फीकी हंसी होंठों पर लाते हुए कहा।

'सच डॉली! तब तो मैं अवश्य जाऊंगा।' राज ने प्रसन्नता से कहा। रात को जब डैडी वापस आए तो खाने के बाद डॉली ने बात छेड़ दी। दोनों के जाने में तो उन्हें कोई आपत्ति न थी, परंतु राज का सोमवार को वापस आना उन्हें स्वीकार न था। अंत में निर्णय यह हुआ कि राज इतवार को ही रात की गाड़ी से वापस आ जाए। राज इसी में प्रसन्न था। इतवार भी आया। दोनों ने आवश्यक सामान साथ लिया और स्टेशन पर पहुंच गए। माला पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने एक कम्पार्टमेंट बुक करवा लिया था। राज को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जय भी उनके साथ जा रहा है। जय के साथ एक और लड़का अनिल भी था जो हाथ मिलाते ही बोला, 'तो यह है मिस्टर राज, जिनके बारे में माला कह रही थी। आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई,
परंतु मैंने कभी आपको कॉलेज....।'

'कॉलेज में नहीं, यह तो डॉली के पिताजी के मैनेजर हैं।' जय ने राज को अपने पास ही बैठने का स्थान देते हुए कहा।

'माला और डॉली कहां गई?'राज ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।

'घबराइए नहीं, वे सामने प्लेटफार्म पर मैगजीन ले रही हैं।' गाड़ी चलने को थी। डॉली और माला शीघ्रता से कम्पार्टमेंट में आ गई। इंजन ने सीटी दी और गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। दोनों राज और जय के सामने वाली सीटों पर बैठ गई।

'आओ मैं तुम्हारी सबसे जान-पहचान करा दूं...।' डॉली ने राज से कहा और बारी-बारी से सबका परिचय देने लगी।

'जय और माला को तो तुम जानते ही हो और यह महाशय हैं मिस्टर अनिल। हैं कुछ हंसमुख। हंसी करने में तो कभी....।'

'अपना लिहाज भी न करू।' अनिल ने डॉली की बात काटते हुए कहा। इस पर सब हंसने लगे।

'और यह हैं मेरी सहेलियां, रानी और मधु।'

'आप सब लोगों से मिलकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। आशा है हम सब लोगों के मिल जाने से हमारी यह यात्रा बहुत मनोरंजक रहेगी।'

'आपकी वाणी सत्य हो। अनिल बोला, माला सच ही कह रही थी कि आदमी बहुत ही दिलचस्प है।'

'जी, परंतु लड़कियों की नजर में।' राज ने लापरवाही से उत्तर दिया और सब हंसने लगे।
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गाड़ी के डिब्बे में एक अच्छी-खासी मजलिस लगी हुई थी। बातों-बातों और गप्पों में समय इस प्रकार बीत गया कि पूना पहुंचने पर भी किसी को विश्वास न हुआ कि गाड़ी पूना पहुंच गई। जब माला ने दरवाजा खोलते हुए कुली-कुली की आवाज लगाई तो सबको होश आया।। गाड़ी से उतर कर सब माला के मकान पर पहुंचे। मकान क्या था एक बहुत बड़ी कोठी थी। माला के चाचा लखमीचंद पूना के धनवानों में से थे और माला उसके भाई की एकमात्र पुत्री थी।

सब अतिथियों से मिलकर लखमीचंद बहुत प्रसन्न हुए। जलपान करके सब तैयार होकर घुड़दौड़ के मैदान में पहुंचे।

राज को उसमें कोई विशेष दिलचस्पी न थी परंतु सहयात्रियों के कारण उसे भी इसमें भाग लेना पड़ा। लाखों मनुष्य एकत्रित थे। कोलाहल हो रहा था। 'नीलम जीतेगी' नहीं 'झांसी की रानी"विन लगाओ' नहीं 'प्लेस' यही आवाज चारों ओर गूंज रही थी। रेस समाप्त होते ही सब कोठी लौट गए। चाय पहले से ही तैयार थी और भूख भी सबको लगी थी, आते ही सब चाय पीने बैठ गए।

'एक बात कहूं, आज्ञा है?'राज ने माला को संबोधित करके कहा।

'अवश्य...' डॉली ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

'याद है आपने एक दिन वायदा किया था?'

'क्या?' माला ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।

'गाना सुनाने का!'

'ओह! मैंने सोचा न जाने कौन-सा वायदा।'

"बहुत अच्छे समय पर याद दिलाया।' अनिल बोला, 'हम तो सचमुच भूल ही गए थे कि माला गाना जानती है।' सबने उसकी हां में हां मिलाई और माला को भी कब इंकार था।

कुछ देर में ही वह पियानो के पास बैठी दिखाई दी और उसने गाना आरंभ कर दिया। गाना समाप्त हुआ। सबने तालियां बजाकर माला के गाने की प्रशंसा की। इसके बाद मधु ने एक छोटा-सा नाच दिखाया। संध्या गहरी हो चुकी थी और रात की गाड़ी से राज को वापस बंबई लौट जाना था। वह जाना तो न चाहता था पर विवश था। वैसे तो डॉली भी सवेरे की गाड़ी से पहुंच रही थी परंतु राज को ऐसा ही जान पड़ता था मानों वह उससे सदा के लिए बिछुड़ रहा हो।

'राज एक बात सुनो।' डॉली ने उसे कुछ दूर ले जाते हुए कहा।
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माला उसके समीप आते हुए बोली, 'क्यों? कोई प्राइवेट बात है?'

'नहीं, तुमसे क्या प्राइवेट बात हो सकती है।' डॉली ने माला के गले में बांहें डालते हुए कहा और राज से बोली, 'राज एक बात कहनी है।'

'कहो।'

'देखो, डैडी से यह न कहना कि जय और अनिल भी हमारे साथ थे।'

'क्यों? यह झूठ बोलने की क्या आवश्यकता है?'

'तुम इतना भी नहीं समझे? मेरा मतलब, हम तो एक पिकनिक पर आए हैं. कहीं डैडी को कोई संदेह न हो जाए।'

'अच्छा।' यह कहकर राज चुप हो गया। उसका चेहरा उतर गया और वह जाकर कार में बैठ गया।

'अच्छा, डॉली मैं भी जाती हूं। कार तो जा रही है, आते हुए कामिनी को ले आऊंगी। जरा रौनक रहेगी।' माला ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा और राज के साथ बैठ गई।

"जल्दी ही आना। अभी रात का प्रबंध भी करना है।'

'बस गई और आई।'

ड्राइवर ने कार स्टार्ट की और सबने हाथ उठा राज को विदाई दी। उसने भी उत्तर में हाथ हिलाया। इतना धीरे मानो वह निर्जीव हो। कार पक्की सड़क पर भागने लगी। वह अपनी पूरी गति पर जा रही थी। राज मौन था।

बहुत देर सन्नाटे के बाद माला बोली 'क्यों जी, मौन क्यों हो? चेहरे पर उदासी सी छा रही है।'

'नहीं तो।' उसने फीकी हंसी हंसते हुए कहा।।

'अकेले जा रहे हो इसलिए? मैं तो तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने भी आ गई।'

'इसके लिए हार्दिक धन्यवाद! माला एक बात पूछू?'

'अवश्य।'

'आते समय डॉली ने मुझसे जो बात कही उसका क्या मतलब था?'

माला हंस पड़ी और बोली, 'भई, इतना भी नहीं समझते। इसका मतलब यह था कि डैडी को इस बात का पता चल गया तो वह अवश्य बिगड़ेंगे। वह तो उनसे कहकर आई है कि कुछ सहेलियों के साथ जा रही है और यहां सहेलियों के साथ कुछ मित्र भी हैं।'

'तुम्हारा मतलब यह है कि डॉली ने जय को बुलाया था।'

'प्रोग्राम तो उन सबने ही बनाया था, मेरी तो केवल सेवाएं ही स्वीकार की गई थीं। यदि डैडी को पहले पता चल जाता कि जय आदि साथ हैं तो वह शायद डॉली को न भेजते।'

'मतलब यह कि डॉली डैडी की दी हुई स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रही है।'

'अरे करे भी क्या? आजकल के बड़े-बूढ़े अपनी लड़कियों का इस प्रकार अपने मित्रों के साथ मिलना, हंसना-खेलना पसंद कर सकते हैं?'

'कभी नहीं! परंतु डॉली को ऐसा करने की आवश्यकता क्या थी?'

'बहुत भोले हो। देखो, मैं तुम्हें आज एक बात बताती हूं। वचन दो कि यह केवल हम दोनों तक ही रहेगी। मैं तुम्हें इसलिए बतला रही हूं कि शायद तुम डॉली की कुछ सहायता कर सको।'

'तुम्हारा मतलब...?' उसने व्याकुलता से पूछा।

'डॉली जय से प्रेम करती है और...।'

"बस माला, मैं समझ गया।' राज ने माला के मुंह पर हाथ रखते हए कहा। उसके माथे पर पसीने की बंदें आ गई। उसके सिर में चक्कर-सा आने लगा। वह यह क्या सुन रहा है? उसे अपने कानों पर विश्वास ही न हो पाता था। उसने कांपते स्वर में माला से पूछा, 'क्या यह सब सच है?'

'क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?' तुम कांप रहे हो। यह तुम्हें क्या हो रहा है? वचन दो कि यह बात कभी डैडी के कानों तक नहीं पहुंचेगी। समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।

'तुम क्या सोचती हो और मैं क्या? मैं भला डैडी से क्यों कहने लगा। इतना ही क्या कम है कि तुमने समय पर मुझे सूचना दे दी।'

'तुम्हारा मतलब?'

'कुछ नहीं।'

'राज, नहीं अवश्य कोई बात है।' इतने में कार स्टेशन पर रुकी। राज लड़खड़ाता हुआ कार से नीचे उतर गया। वह अनमना-सा हो रहा था। उसका दिल चाहता था कि डॉली को अभी साथ ले आए परंतु क्यों कर...।
 
'माला मैं और कुछ सुनना नहीं चाहता। मैंने भूल की जो यहां चला आया।'

'और मैंने भी भूल की जो तुम्हें यह रहस्य बता दिया।'

'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। तुमने तो किसी गिरते हुए को बचा लिया।'

'मैं तुम्हारा मतलब समझीं नहीं।'

'क्या करोगी समझकर? अच्छा तुम जाओ। पार्टी को देर हो रही होगी।' यह कहकर राज प्लेटफार्म की ओर चल पड़ा।

माला भी उसके पीछे-पीछे आ गई और कहने लगी, 'राज, जब तक मुझे नहीं बताओगे, मुझे तसल्ली नहीं होगी।' ।

'व्यर्थ में क्यों चिंतित होती हो? कोई बात नहीं जाओ, देर हो रही है।'

'तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो। अच्छा, चलती हूं। मेरे जैसा भी कोई मूर्ख होगा?' यह कहकर माला जाने लगी।

राज ने उसका हाथ पकड़कर कहा, 'सुनना चाहती हो तो सुनो, मैं भी डॉली से प्रेम करता हूं। और....।'

'और डॉली?'

'यह तो तुम जानती ही हो।' इतने में गाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई। माला मौन खड़ी थी। राज गाड़ी की ओर लपका। माला वापस स्टेशन के बाहर आ गई और कार में बैठकर घर की ओर चल दी। राज रुका और उसे देखने लगा परंतु वह उसे दिखाई न दी।

माला घर पहुंची तो पार्टी का सब सामान तैयार था परंत राज की बात सुनने के बाद वह चिंतित सी थी। न वह उसके साथ जाती और न उसे कुछ पता चलता। आवश्यक वस्तुएं नौकरों के सिर पर उठवाकर वे सब साथ वाले बाग में पहुंच गए। चांदनी अपने पूर्ण यौवन पर थी। पास ही नदी बह रही थी। जय और डॉली 'बोटिंग' के लिए चले गए। अनिल और रानी आइसक्रीम बनाने लगे। मधु अनिल के मुंह का बाजा लेकर उसे बजाने लगी। माला का मन किसी भी बात में न लगा। वह कुछ दूरी पर एक पेड़ के पास आ खड़ा हुई। कुछ समय तक वह इसी प्रकार खड़ी दूर देखती रही। फिर पास पड़े बैंच पर बैठ गई। वह सोचती रही कि कैसा अनोखा प्रेम है, जिसमें दिन-रात एक दूसरे के निकट रहने पर भी एक जल रहा है और दूसरों को उसका पता तक नहीं।

'जरा देखू, आइसक्रीम तैयार हुई या नहीं।'

'हां, हां, अवश्य देखो। यदि हो गई हो तो हमारे लिए यहां भेज दो।' यह कहकर डॉली बैंच पर लेट गई और उसने अपना सिर जय की गोद में रख दिया। जय उसके बालों से खेलने लगा।

'राज के आने से कुछ मजा किरकिरा-सा हो गया था।'

'इसलिए तो उसे रात की गाड़ी से वापस भेज दिया है।'

'डॉली, तुम हो बहुत चतुर। उसके सामने तो मैं इस प्रकार डर-डरकर तुमसे बात करता था मानों वह मुझे खा ही जाएगा।'

'हो तो डरपोक ही न, प्रेम करना है तो फिर डर कैसा?'

'तुम तो जैसी डरती ही नहीं। तुम भी तो उसके सामने भीगी बिल्ली की तरह बैठ जाती हो।'

'करू भी क्या, घर के भेदिये से डरना ही पड़ता है।' दोनों हंसने लगे।

'डॉली, वह देखो तो सामने कौन आ रहा है।' जय ने डॉली का सिर अपनी गोदी से उठाते हुए कहा। डॉली घबराकर उठ बैठी। पर एक परछाई दूर उनकी ओर बढ़ती आ रही थी। डॉली भयभीत हो उठी। कुछ ही देर में वह परछाई उनके समीप पहुंच गई। परछाई एक पुरुष की थी जो कोट-पतलून पहने थे। उसके पास आते ही डॉली घबरा गई। उसकी जुबान खिंच गई और उसके मुंह से एक शब्द भी न निकल सका।

राज सामने खड़ा था। जय ने कुछ संभलते हुए पूछा, 'तुम गाड़ी में.....।'

'जी, परंतु गाड़ी मेरे पहुचने से पहले ही छूट गई।'

'अथवा यह कहिए कि भाग्य को तुम्हारा इस पार्टी में भाग लेना ही स्वीकार था और हमारा आकर्षण तुम्हें यहां तक खींच लाया।'

'जैसा आप समझें, आपका आकर्षण कहिए या मेरी ढिठाई।

'अच्छा तुम डॉली से बात करो, मैं सबको सूचना देता हूं।'

यह कहकर जय चला गया। डॉली अभी तक गुमसुम-सी बैठी उनकी बातें सुन रही थी।

उसने संभलते हुए अपनी साड़ी का पल्ला ठीक करना चाहा परंतु राज ने उसे खींचते हुए कहा, 'क्यों इसकी क्या आवश्यकता है। मुझमें और जय में क्या अन्तर है?' राज ने अपना मुंह डॉली की ओर से फेर लिया।

'यह आज तुम्हें क्या हो गया है?'

'कभी-कभी यह जंगलीपन सवार हो ही जाता है, विवश हूं।'

'शायद तुम्हें हमारा इस प्रकार अकेले बैठना पसंद नहीं?'

'मेरे पसंद न आने से क्या होता है। तुम्हें तो पसंद है न? और पसंद भी क्यों न हो, यह सुहावना समय, छिटकी हुई चांदनी।

मुझे अधिक बनाने का प्रयत्न न करो। अपने काम से मतलब रखो।'

'बहुत अच्छा, आगे से ऐसा ही होगा।'
 
इतने में माला और उनके अन्य साथी भी वहां आ गए और राज को खींचकर अपने साथ ले गए। सबने मिलकर आइसक्रीम खाई। आइसक्रीम बहुत अच्छी बनी थी परंतु आनंद किसी को भी न आया। रात्रि के बारह बज चुके थे। दिन के थके-मांदे तो थे ही। घर वापस पहंचते ही सोने की तैयारी की। राज, जय और अनिल एक कमरे में और बाकी सब दूसरे में। रानी और मधू तो आते ही सो गई। परंतु माला और डॉली बाहर बालकनी में खड़ी आपस में बातें करने लगीं। माला के पेट में कोई बात न रहती थी। तनिक-सी किसी ने सहानुभूति प्रकट की तो उसकी हो गई। डॉली ने जब राज की बात कही तो माला ने स्टेशन जाते समय की सारी घटना उसे कह सुनाई।

'माला, यह तुमने अच्छा नहीं किया।'

'परंतु अब जो भूल मुझसे हो गई है, उसका क्या करू।"

'तुम्हारे लिए साधारण भूल है। यदि उसने डैडी से कह दिया... तो?'

'इसकी तुम चिंता न करो। वह डैडी से कभी न कहेगा।'

'क्या तुम्हें इसका विश्वास है?'

'हां चलो, अब सो जाओ। सवेरे जाना है। रात बहुत हो चुकी है।' माला ने डॉली को ले जाकर बिस्तर पर लिटा दिया और स्वयं भी लेट गई। सवेरे की गाड़ी से सब बंबई लौट आए। सेठ साहब ने राज से रात को न आने के विषय में कुछ न कहा। जलपान करके दोनों फैक्टरी चले गए। डॉली के कॉलेज की छुट्टी थी और वह रात की थकी हुई थी। उसने अपने कमरे का दरवाजा बंद किया और सो गई।
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संध्या का समय था। डॉली बाहर बरामदे में बैठी कॉलेज का काम कर रही थी। एक साइकिल बरामदे के सामने रुकी। परंतु डॉली अपने काम में इतनी व्यस्त थी कि उसने उस ओर ध्यान ही न दिया। वह उसी प्रकार सिर नीचा किए बैठी लिखती रही। अनायास आगन्तुक की आवाज सुनकर वह चौंक गई। 'हुजूर की सेवा में नमस्कार करती हूं।' स्वर माला का था।

डॉली ने सिर उठाकर देखा और बोली, 'नमस्कार की बच्ची। इतने दिन से कहां थी? जब से पूना से लौटकर आई हो, सूरत नहीं दिखाई।'

'क्या करू, पूना से लौटी तो बुआ बीमार थीं। कॉलेज से छुट्टी ले रखी है। आज कुछ तबियत ठीक थी तो सोचा कि अपने प्राण-प्यारों से मिल लिया जाए।'

'अच्छा पहले तो बैठ जाओ।' डॉली ने पुस्तक बंद करते हुए कहा।

माला पास ही बिछी कुर्सी पर बैठ गई।

'हां, अब कहो, क्या मंगवाऊं, चाय या शरबत?'

'इस गरमी में साइकिल चलाकर आई हूं और ऊपर से चाय!'

'तो शरबत ही सही... किशन!' डॉली ने नौकर को आवाज देते हुए कहा, 'और कोई सेवा?'

'तुम सेवा करोगी? कोई सेवा हो तो मुझसे कहो।'

'न बाबा, तुम्हारी की हुई सेवा के तो अहसान अभी तक भूले नहीं!'

'कौन-सी?'

'जो राज को स्टेशन पहुंचाते समय की थी।'

'ओह! कहो राज का पारा अभी तक उतरा है या नहीं?'

'मुझे तो उतरा हुआ दिखाई नहीं देता।'

'क्यों, क्या बात है?'

'उसने तो मुझसे बोलना ही छोड़ दिया है। मेरे तैयार होने से पहले ही फैक्टरी चला जाता है और संध्या को भी देर से लौटता है। पहले तो इधर मैं कॉलेज से आई उधर वह आ पहुंचा।'

'डॉली, क्या तुम्हें यह मालूम न था कि वह तुमसे प्रेम करता है?'

'जानती क्यों नहीं थी।'

फिर तुमने उसे इस प्रकार अंधेरे में क्यों रखा? किसी दिन साफ-साफ कह देती कि तू जय को पसंद करती है।

'तू नहीं जानती कि उसको साफ इंकार करना कितना कठिन है

'तो क्या अब वह कठिनता दिन-प्रतिदिन सरल होती जा रही है?'

'नहीं परंतु मैं करू क्या?'

'वह बुद्धिमान है। उसे किसी समय ठीक प्रकार से समझा दो। वह स्वयं ही तुम्हारा ध्यान छोड़ देगा।'

'वह तो मैं चाहूं तो आज भी हो सकता है, परंतु वह मुझे कितना चाहता है, इसका अनुमान तुम नहीं लगा सकती।'

"जब उसकी चाहना का ध्यान है तो उसकी ही रहो।'

'यह कैसे संभव है?'

"क्या वह तुम्हें पसंद नहीं?'

"पसंद की बात नहीं। शुरु से ही मैं उससे कुछ इतनी अधिक घुल मिल गई थी कि वह समझने लगा कि मैं भी उससे प्रेम करने लगी हूं। मैंने सोचा कि इस बेचारे का यहां कोई नहीं, यदि दो घड़ी मन बहला ले तो मेरा क्या जाता है और मेरे भी हंसने-खेलने का सामान मुफ्त में हो गया।'

'दूसरे शब्दों में तुम उसे खिलौना समझकर उसके साथ खेलती रही।'

'नहीं, ऐसा तो मैंने कभी नहीं समझा, मेरा विचार था कि थोड़ी-सी उपेक्षा भी उसे मुझसे दूर रख सकती है।'

'और अब?'

'अब वह दिल बहलावा मेरे लिए एक संकट-सा बन गया है।'

'तुम तमाशा देखकर केवल हंसना जानती हो, पुरस्कार देना नहीं।'

'तुम्हें तो सदा हंसी ही सूझती है।'

'और मैं कर भी क्या सकती हूं?'

'जो आग तुमने लगाई है, उसे ही बुझा दो। आगे मैं संभाल लूंगी।'

'मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।'

"किसी प्रकार राज को यह विश्वास दिला दो कि जो बात तुमने उससे कही थी वह झूठ थी।'

'अर्थात् तुम जय से प्रेम नहीं करती।'

'नहीं।'

'राज से प्रेम करती हो।'

'तुम तो फिर हंसी करने लगी। यह तो केवल राज को बताना है।'

'डॉली, एक बात कहूं?'

'कहो, क्या है?'

'वैसे राज जय से कहीं अच्छा है। मेरा मतलब है सुंदर, मधुर स्वभाव वाला....।'

'तुम्हीं उसके साथ विवाह कर लो ना! करू बात। आदमी बहुत दिलचस्प भी है।'

'लो यह खूब रही। प्रेम तुमसे करे और तुम उसे किसी और को सौंपो।'

‘परंतु तुमने छोटा मुंह बड़ी बात वाली कहावत नहीं सुनी क्या ?'

'तुम्हारा मतलब है कि जय उससे कहीं अधिक मूल्य दे सकता है!'

'क्यों नहीं?'

'भला कैसे? मैं भी सुनूं!'

'उसके पास पैसा है, राज से अधिक पढ़ा हुआ है, मान है और हमारी टक्कर का है। राज तो फिर भी हमारा एक नौकर ही है।'

'इसका अर्थ है कि तुम्हें जय से अधिक उसके धन से प्रेम है।'

'क्यों नहीं! कौन लड़की यह नहीं चाहती कि वह अपने पति के घर सुख से जीवन बिताए, अच्छे से अच्छा पहने, खाए और सुख और आदर से रहे?'

'इन सब वस्तुओं के सामने क्या राज का प्रेम भरा दिल कम है?'
 
"ऐसे दिल तो सवेरे से शाम तक हजारों ले लो।'

'डॉली, अब इस बहस से क्या लाभ? बोलो, अब क्या करू?'

'कोई ऐसा उपाय सोचो जिससे उसके मन से यह संदेह दूर हो जाए।'

माला सोच में पड़ गई। थोड़ी देर बाद बोली, 'देखो यह काम तुम मुझ पर छोड़ दो, मैं अभी चली जाती हूं। राज आने वाला है। उसे यह न पता लगे कि मैं यहां आई थी।'

'इससे क्या होगा?' डॉली ने पूछा।

'तुम देखती जाओ, आज रात को एक पत्र तुम्हें भेजूंगी। तुम्हें मिलने से पहले किसी तरह उसे राज पढ़ ले तो सब काम बन जाएगा। घबराओ नहीं, मेरा काम तो तुम लोगों की सेवा करना है।' यह कहकर माला ने साइकिल उठाई और चल दी। डॉली की समझ में न आया कि उसे यह पत्र की क्या सूझी। कहीं और आपत्ति न खड़ी कर दे। माला ने घर पहुंचते ही डॉली के नाम एक पत्र लिखा और अंधेरा होते ही अपने नौकर को सिखाकर उसके घर भेज दिया।

नौकर पत्र लेकर डॉली के घर पहुंचा और उसने राज के कमरे की खिड़की से झांका। राज अपने कमरे में ही था। नौकर दरवाजे की ओर बढ़ गया और उसने धीरे-से खटखटाया। राज ने दरवाजा खोलते ही पूछा, 'क्या काम है?'

'ओह! क्षमा कीजिए मैं कमरा भूल गया। उसने कांपती आवाज में कहा, मुझे तो डॉली बीबी से काम है।'

'क्या काम है?' राज ने उतावलेपन से पूछा।

'यह चिट्ठी उन्हें देनी है।'

"किसने भेजी है?'

'यह मैं आपको नहीं बता सकता।'

'लाओ, मैं दे दूंगा।'

'नहीं साहब, यह केवल उन्हीं को देनी है।' उसने पत्र को राज के सामने करते हुए कहा। राज ने पत्र को संदेह की दृष्टि से देखकर हाथ से छीन लिया।

'साहब, यह आप क्या कर रहे हैं? यह तो डॉली बीबी....।'

'हां! मैं जानता हूं। जाओ मैं उसे दे दूंगा, वह घर पर नहीं है।'

'अच्छा साहब, मैं जाता हूं। किसी और के हाथ न लग जाए, बहुत प्राइवेट है।' यह कहकर वह मुड़ा और दरवाजे से बाहर निकल गया।
 
राज ने लिफाफे को ध्यान से देखा। उस पर डॉली लिखा था। उसने सोचा कि हो न हो वह जय का पत्र है। नहीं तो चोरी-चोरी इस समय उसे यह पत्र और कौन भेज सकता है। देखें तो सही क्या लिखा है। यह सोचकर उसने लिफाफा पिन की सहायता से इस प्रकार खोला कि फिर से चिपकाने पर किसी को पता न चले कि किसी ने पत्र खोला है। पत्र खोलने पर सबसे पहले पत्र लिखने वाले का नाम पढ़ा। यह जानकर उसे आश्चर्य हुआ कि वह माला का पत्र था। उसने व्यर्थ ही खोला। परंतु फिर भी पढ़ने में क्या दोष है, यह सोचकर पढ़ने बैठ गया। "प्रिय डॉली, आज पूना से आए छः दिन हो चुके हैं और तुम मुझसे मिलने नहीं आई। मैं यह भली प्रकार जानती हूं कि मैंने जो बात हंसी में राज से पूना में कह दी थी, उसके कारण तुम मुझसे क्रुद्ध हो। मुझे क्या पता था कि मेरी साधारण-सी हंसी राज को तुमसे इतना दूर कर देगी और तुम्हें मुझसे। पहले तो मैंने सोचा कि स्वयं तुम्हारे पास आऊं परंतु साहस न हुआ। मेरी प्रिय सखी, अब जो हो चुका उसे भूल जाओ। सच पूछो तो मेरा इसमें दोष ही क्या है? मुझे क्या पता था कि राज तुमसे प्रेम करता है और तुम... नहीं तो मैं इस प्रकार की हंसी नहीं करती। आशा है तुम इस पत्र के उत्तर में स्वयं राज को साथ लेकर मुझसे मिलने आओगी।
- तुम्हारी माला।

राज ने माथे से पसीना पोंछा। क्या यह सत्य है? क्या माला ने जो कुछ कहा था हंसी में कहा था? परंतु डॉली का जय के साथ इस प्रकार रात के समय अकेले बातें करना, वह भी क्या हंसीमात्र था? उसे इतने शक्की स्वभाव का न होना चाहिए। आखिर वह उसका मित्र है और आधुनिक युग में तो लड़कियों के मित्र होते ही हैं। बुराई भी क्या है? मित्रता, मित्रता है। प्रेम - प्रेम। उसके मुख पर हल्की-सी चमक दौड़ गई। उसने सावधानी से लिफाफा बंद किया और डॉली के कमरे की ओर चल दिया।


वहां पहुंचकर उसने धीरे-से दरवाजा खटखटाया।

'अंदर आजाओ।' डॉली ने आवाज दी। राज धीरे से दरवाजा खोलकर अंदर आ गया। उसे शर्म सी आ रही थी और वह भयभीत हो रहा था कि न जाने डॉली उसे देखते ही किस प्रकार का व्यवहार करेगी। डॉली बिस्तर पर बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। उसे देखते ही बोली 'आओ राज।'

'यह पत्र कोई यह कहकर दे गया कि डॉली को दे देना।'

'तुमने क्यों कष्ट किया? किशन के हाथ भिजवा देते अथवा मुझे वहीं बुलवा लेते।' उसने पत्र को राज के हाथ से लेते हुए कहा और पत्र खोलकर पढ़ने लगी । पढ़ने के बाद फिर लिफाफे में डालते हुए बोली, 'खड़े क्यों हो, आओ बैठ जाओ।'

राज कुर्सी पर बैठ गया।

'वहां नहीं, मेरे पास।' उसने राज को इशारा करते हुए कहा।

राज डॉली के समीप आकर बैठ गया। डॉली बोली 'माला का पत्र है तुम्हें बुलावा भेजा है।'

'केवल मुझे या तुम्हें भी?'

'यह तुम कैसे जान गए?'

'इसमें जानने की क्या बात है, सहेली तो तुम्हारी है।'

'हां लिखा है कि आकर मुझसे मिल जाओ और राज को भी साथ ले आना। क्यों चलोगे?'

'अवश्य। क्यों नहीं? कब?'

'कल कुछ जल्दी आ जाना, चलेंगे।' इसके बाद दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखने लगे।

'डॉली! एक बात पूछू, तुम मुझसे नाराज तो नहीं?'

'नहीं तो।'

'मैंने सोचा शायद पूना वाली बात से तुम कुछ....।'

'इधर मैं समझ रही थी कि तुम नाराज हो।' डॉली ने बात काटते हुए कहा।

"वास्तव में यह मानव-स्वभाव है कि साधारण-सा भी संदेह उत्पन्न हो जाए तो साधारण घटनाएं भी उस संदेह की पुष्टि करने लगती हैं।'

'जय तो समीप रहने और कॉलेज में एक-साथ पढ़ने के कारण कुछ मेरे साथ घुल-मिल गया है। यदि तुम्हें पसंद न हो तो मैं उससे बोलना छोड़ दूं?'

'नहीं, ऐसा करने की क्या आवश्यकता है और फिर इसमें बुरी बात भी क्या है? क्या थोड़े ही दिनों में मैं माला से घुलमिल नहीं गया?'

'पुरुष कुछ अधिक संदेही स्वभाव वाले होते हैं।'

राज सोच रहा था.... यह भी अजीब लड़की है, पल में रुलाती है और पल में हंसाती है। रात में वस्त्रों में वह और भी सुंदर जान पड़ती थी और राज के मन में अजीब गुदगुदी पैदा कर रही थी। किशन पानी का गिलास रखने आया तो डॉली बोली, 'किशन! खाने के कमरे में एक प्लेट में माल्टे रखकर तो ले आओ।'

'अच्छा जी।'
और थोड़ी देर में किशन एक प्लेट में माल्टे लेकर लौट आया। 'यहां रख दो और तुम जाओ।' डॉली ने यह कहते हुए अपनी पुस्तक मेज पर रख दी। 'लो राज, खाओ।'

'इसकी क्या आवश्यकता थी!'
 
'मैं जानती हूं कि खाने के बाद तुमने फल नहीं खाया।'

'जब तुम्हें मेरा इतना ध्यान है तो काटकर भी खिला दो।'

'अवश्य।' और डॉली ने छुरी हाथ में ली। उसने माल्टे काटकर प्लेट में रख दिए और बोली, 'लो खाओ।'

राज ने प्लेट उठाकर उसके आगे बढ़ाते हुए कहा, 'पहले तुम।'

'मैं तो अभी खा चुकी हूं।' 'कोई बात नहीं, मेरा साथ ही सही।' डॉली ने एक टुकड़ा उठाकर चूसना आरंभ कर दिया और फिर राज ने भी। राज की दृष्टि डॉली के मुख पर जमी थी। बड़े प्यार से उसे माल्टे खिला रही थी वह। माल्टे के टुकड़े को चूसते समय राज को ऐसा लगता मानों वह डॉली के होठों का रस चूस रहा है। 'डॉली, एक बात पूछू?' राज ने छिलके प्लेट में रखते हुए कहा।

'पूछो।'

'तुम्हें जय पसंद है या मैं?'

'तुम्हारा मतलब मैं नहीं समझी।'

'मेरा मतलब? तुम्हें दोनों में से एक को चुनना हो तो किसे चुनोगी?'

'अभी तो मुझे तुम अच्छे लगते हो, आगे न जाने ऊंट किस करवट बैठता है। परंतु मेरे इन शब्दों का कोई और अर्थ न निकाल लेना।'

'नहीं, वह तो मैं भली प्रकार समझता हूं। अच्छा अब मैं चलता हूं। देर बहुत हो चुकी है। डैडी न आ जाए।'

'तो डैडी क्या कहेंगे?'

डॉली ने राज के हाथ में कैंची बनाकर कहा। 'यही कि इतनी रात तक तुम यहां क्या कर रहे हो?' 'क्या कुछ चोरी करने आये हो जो....।'

'हो सकता है?'

'क्या चुरा लोगे?'

'तुम्हारा हृदय।'

'जाओ, हटो तुम्हें तो शरारत ही सूझती है।' कहकर डॉली करवट बदलकर बिस्तर पर लेट गई। फिर धीरे-से बोली, "जरा बत्ती बंद करते जाओ। राज ने बत्ती बुझा दी और अपने कमरे की ओर चल दिया।

वह प्रसन्न मन अपने बिस्तर पर जा लेटा। दूसरे दिन वह ठीक समय पर डॉली के पास पहुंच गया। फिर दोनों माला के घर गए। वहां माला ने भी बातों-बातों में राज के मन से अनेक संदेह निकाल दिए। राज सब कुछ मान गया और पुरुष जब सुंदरियों के वश में हो जाए तो वह सब-कुछ मनवा लेती है। राज को डॉली की बातों पर विश्वास हो गया। वह जो कहती वह मान लेता। अभी तो वह उसे जय से अधिक पसंद करती है और लड़कियों को अभी तो... यह सोचकर वह मुस्कराने लगा। परंतु यह दिल-बहलावा और डॉली की बातें अधिक समय तक उसे प्रसन्न न रख पाई। एक रात जब वह सो रहा था तो किसी ने दरवाजा खटखटाया। वह घबराकर उठा। वह किशन था। बोला, 'जरा जल्दी से चलिए, सेठ साहब के पेट में बहुत दर्द हो रहा है।'

'क्यों, क्या बात है?' उसने चप्पलें पहनते हुए कहा।

'पता नहीं, मैं रसोई में बर्तन मांज रहा था। आवाज सुनकर गया तो वह बोले कि जरा राज या डॉली को जगा दो। मेरे पेट में बहुत दर्द है। इसलिए मैं आपके पास....।'

'अच्छा किया तुमने, डॉली की क्या आवश्यकता है। उसकी नींद खराब करने से क्या लाभ? चलों, मैं चलता हूं।' यह कहकर राज जल्दी से सेठ साहब के कमरे में पहुंचा।

'क्यों डैडी क्या बात है?' राज ने घबराकर पूछा।

'न जाने अचानक पेट में कुछ दर्द-सा उठा और बढ़ता ही जा रहा है। अब तो सहन भी नहीं होता। डॉली नहीं आई?'

'उसे जगाने की क्या आवश्यकता है, मैं जो हूं।'

'देखो, अलमारी में अमृतधारा रखी होगी, दो-चार बूंदें दे दो।' राज ने अलमारी खोली और शीशियां टटोलने लगा परंतु दवा न मिली।

'न जाने कहां रख दी। सौ बार कहा है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्थान पर होनी चाहिए। देखो, सामने दराज में तो नहीं?' सेठ साहब ने कहा। वह दर्द से कराह रहे थे। राज ने दराज खोला और अमृतधारा मिल गई। उसने दो-चार बूंदें पानी में मिलाकर सेठ साहब को पिला दी। दर्द कुछ घटा, पर थोड़ी देर बाद फिर होने लगा। राज ने दो-चार बूंदें अमृतधारा और पिला दी।
 
'राज, मेरा विचार है कि गरम पानी की बोतल करके सेंक लूं।'

'अभी पानी गरम करे देता हूं। बोतल कहां है?'

'तुम्हें कष्ट होगा, जरा डॉली को जगा दो।' राज डॉली के कमरे की ओर गया और वहां पहुंचकर उसने धीरे-से दरवाजा खटखटाया। कोई उत्तर न मिला। उसने कुछ जोर से खटखटाया। उत्तर इस बार भी न मिला। शायद गहरी नींद में सो रही हो, यह सोचकर वह अपने कमरे में गया, टार्च उठाई और बाहर खिड़की से डॉली को आवाज दी। कोई उत्तर न पाकर उसने टार्च की रोशनी डॉली के बिस्तर पर डाली। वह स्तब्ध खड़ा रह गया। डॉली बिस्तर पर न थी। वह जा भी कहां सकती है इतनी रात गए? दरवाजा तो अंदर से बंद है। उसके रक्त की गति मानो बंद हो गई। उसने अपनी उंगली काटी, अपनी आंखों को मला, अपने हाथों को रगड़ा और जब उसे विश्वास हो गया कि वह स्वप्न नहीं देख रहा तो उसने फिर कमरे में टार्च की रोशना डाली। कमरे में कोई न था। उसने घूरकर आगे-पीछे देखा, चारों ओर घना अंधकार था! दूर बाग में उसने किसी के पैरों की आहट सुनी। वह धीरे-धीरे उसी ओर बढ़ा। उसका हृदय धड़क रहा था। कुछ दूरी पर उसको एक छाया-सी दिखाई दी। उसने टार्च की रोशनी उसी ओर डाली। उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसके पैरों के नीचे से मानों जमीन खिसक गई हो। वह देखता क्या है कि डॉली एक युवक के बाहुपाश में बंधी खड़ी है। रोशनी पड़ते ही डॉली संभली। वह घबरा -सी गई।

राज ने देखा वह युवक जय था। राज का अंग-प्रत्यंग क्रोध से फड़कने लगा, पर वह शांत रहा।

'कौन? दी. प. क?'

'डॉली, डैडी बुला रहे हैं।' राज यह कहकर वापस लौट पड़ा। डॉली उसके पीछे-पीछे आ रही थी। वह कांप रही थी। इस समय डैडी ने क्यों बुलाया है? क्या वह यह सब जान गए

दोनों बरामदे में पहुंच गए। राज सीढ़ियों पर रुक गया। डॉली ने समीप पहुंचते हुए धीरे-से कहा, 'कहां है डैडी?'

'अपने कमरे में।' राज का स्वर गंभीर था।

'क्यों? क्या बात है?' डॉली डरते-डरते बोली।

'उनके पेट में बहुत दर्द है। गरम पानी की बोतल मंगवाई है।'

'तुम चलो, मैं आती हूं।' डॉली यह कहकर बाहर गई और खिड़की के रास्ते से अंदर जाकर अपने तकिए के नीचे से तालियां उठाई और शीघ्रता से डैडी के पास पहुंची।

'क्यों, डैडी क्या बात है?'

"पेट में बहुत दर्द है। घोड़े बेचकर सो गई थी जो जगाने में इतनी देर लगी?'

'ऐसे ही जरा नींद आ गई थी।' उसने कनखियों से राज की ओर देखा। वह क्रोध से लाल हो रहा था। डॉली ने सामने का कमरा खोला और बोतल निकालकर राज के हाथ में दे दी। डॉली रसोई से गरम पानी का बर्तन ले आई। राज ने बोतल का कार्क खोला और बोतल आगे कर दी। डॉली ने पानी बोतल में डालना आरंभ किया। उसके हाथ कांप रहे थे। उबलता हुआ राज के हाथ पर जा पड़ा और बोतल उसके हाथ से छूटकर फर्श पर गिर गई।

'होश में हो या सो रही हो?' सेठ साहब ऊंचे स्वर में बोले।

'जी, कोई बात नहीं।' राज ने कहा और बोतल फिर से उठाकर हाथ में ले ली। डॉली ने पानी डाला और बोतल का कार्क बंद करके राज ने बोतल सेठ साहब के हवाले की। सेठ साहब ने उसे लेकर पेट पर रख लिया।

'अब तबियत कैसी है?' थोड़ी देर बाद राज ने पूछा।

'अब तो कुछ आराम है?' 'नहीं, वह तो मामूली....।'

'इधर आओ।'

राज ने अपना हाथ आगे कर दिया। चमड़ी लाल होकर उभर आई थी। उबलता पानी था, जलना तो था ही।

'डॉली, जाओ, गीला आटा इस पर लगा दो, कहीं छाले न पड़ जाएं....' डैडी बोले, 'और देखो, बत्ती बंद कर दो, शायद नींद आ जाए।'

राज ने बत्ती बंद कर दी और दोनों कमरे से बाहर निकल गए। 'कहां जा रहे हो?' डॉली ने राज से पूछा।

'अपने कमरे में।' 'ठहरो, देखती हूं शायद आटा मिल ही जाए।'

'मुझे आवश्यकता नहीं।' राज के स्वर में कठोरता थी।

"देखो तो कितना जल गया है।'

'हाथ जला है तो आटा लगा दोगी, परंतु दिल को....?' और राज ने अपना मुंह फेर लिया।

'राज, मै तुम्हारे सामने बहुत लजित हूं। बात वास्तव में....'

'मुझे किसी सफाई की आवश्यकता नहीं। रात अधिक बीत चुकी है। जाओ सो रहो।' और राज अपने कमरे की ओर बढ़ा।

'बात तो सुनो राज!'
परंतु राज सीधा अपने कमरे में चला गया और उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया।
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राज और डॉली के बीच अब एक दीवार-सी खड़ी हो गई थी। डॉली को अब वह अपने से दूर समझने लगा। जब डॉली उसे पसंद ही नहीं करती तो वह मूर्ख की भांति उसके पीछे क्यों पड़ा है? डॉली ने कई बार प्रयत्न किया कि राज को बातों में लाकर फिर से मना ले परंतु राज इस बार उससे दूर-दूर ही रहा। निराश होकर डॉली ने भी उपेक्षा प्रकट करनी आरंभ कर दी।

संध्या का समय था। राज घर लौटा तो डॉली बरामदे में रैकेट लिए खड़ी थी। शायद वह खेलने जा रही थी। राज ने चाहा कि उसका सामना न हो। वह दूसरी ओर जाने लगा। 'राज!' डॉली की आवाज ने उसे रोक दिया। वह राज के सामने आकर बोली, 'क्यों, मेरे सामने आते भय लगता है जो सीधा रास्ता छोड़कर टेढ़े रास्ते जाने लगे? भयभीत तो मुझे होना चाहिए।'

'तुम्हारी तरह निर्लज्ज तो नहीं बन सकता।'

'तो बनने को कौन कहता है? तुम तो एक भले आदमी हो और भलाई अपना आभूषण मानते हो, फिर मुझ जैसी निर्लज्ज और चंचल लड़की से तुम क्या आशा रखते हो।'

"तुमसे मुझे क्या-क्या आशाएं थीं परंतु...।' वह मौन हो गया।

डॉली ने बात काटकर कहा, 'परंतु उस रात के दृश्य को देखकर अब जी भर गया और कोई इच्छा नहीं रही... यह कहना चाहते हो ना?'

'मैं तुम्हारा अभिप्राय नहीं समझा।'

'राज, मैं जानती हूं तुम्हें मुझसे घृणा हो गई है, होनी भी चाहिए। तुम मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते। मेरी केवल एक इच्छा है यदि मानो तो....।'

'क्या?'

'तुम मुझसे बोलना न छोड़ो। मैं तुमसे बोले बिना नहीं रह सकती। तुम जिस नाते से मुझे चाहते हो वह पूरा नहीं हो सकता और न अब तुम्हारे हृदय में उसके लिए कोई इच्छा ही शेष है परंतु मित्रता के नाते तुम मुझे नहीं छोड़ोगे।'

'मित्रता! कैसी मित्रता।'

'कम्पेनियनशिप।'

'तुम कैसे जानती हो कि अब मेरे हृदय में तुम्हें पाने की कोई इच्छा नहीं रही?'

'मुझे उस रात उस दशा में देखकर जो कोई भी होता, यही करता। क्या अब भी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति कोई झुकाव

'हो सकता है।'

'फिर तो मैं भाग्यवान हूं जो इतना होने पर भी तुम्हारे हृदय में मेरे लिए कुछ सहानुभूति है।'

"ऐसा ही समझ लो। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण किसी के मन को ठेस पहुंचे। इस प्रयास में मेरा अपना अस्तित्व ही मिट जाए तो मुझे परवाह नहीं।'

'राज, मुझे तुमसे यही आशा थी। जब तुम मेरा इतना ख्याल रखते हो तो मुझे एक वचन दो।'

'कैसा वचन?'

'कि तुम मेरे और जय के रास्ते में न आओगे।' 'मैं जय से प्रेम करती हूं और मैं....' 'मैं तुम्हारा दिल दुखाना न चाहती थी।'

'बस डॉली, बस! क्या तुम समझती हो कि इन बातों से मेरे हृदय को शांति मिल रही है?'

'परंतु अब मैं तुमसे कुछ छिपाकर रखना नहीं चाहती। तुम विश्वास दिलाओ कि अब मेरा ख्याल छोड़ दोगे।'


'प्रयत्न करूगा, विश्वास नहीं दिला सकता।' यह कहकर राज अंदर चला गया। डॉली भी उसके पीछे-पीछे गई।

'तुम्हारी आंखों में आंसू कैसे?'उसने राज को रोते देखकर कहा।

'अभी हृदय पतथर का नहीं बना। प्रयत्न कर रहा हूं।'

'तुम तो बालकों की भांति रोने लग गए।' डॉली ने अपने रुमाल से उसके आंसू पोंछे।

'तुम जाओ डॉली, मुझे अकेला छोड़ दो। मैं प्रयत्न करूंगा कि जो कुछ हुआ है उसे शीघ्र भूल जाऊं।'

'तुम भी साथ चलो न, कुछ देर खेलकर लौट आएंगे।'

"मेरी इच्छा नहीं. तम जाओ।'

'मेरी बात का बुरा तो नहीं माना तुमने।'

'बुरा क्यों मानने लगा और फिर तुम्हारी बातों का?'

'अच्छा राज!' डॉली ने राज के हाथ को अपने हाथ में दबाते हुए कहा और बाहर चली गई।
 
राज बहुत उदास था। आज उसकी रही-सही आशा भी उसे छोड़ गई। क्या यह सब सत्य था? उसने प्रेम किया है अपने को खोकर... परंतु डॉली का व्यवहार? कभी स्वप्न में भी वह नहीं सोचता था कि डॉली उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करेगी। इसी प्रकार विचारों में संध्या बीत गई और वह कमरे में ही लेटा हुआ इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने उसका दरवाजा खटखटाया....| 'कौन है?'

"मैं माला।'

'दरवाजा खुला है, अंदर आ जाओ।' माला ने दरवाजा खोला और अंदर आ गई। राज उठ बैठा और बोला, 'आओ माला।'

'डॉली कहां है?' 'बैडमिन्टन खेलने गई है।'

'अच्छा , क्या तुम सो रहे थे?'

'नहीं तो।'

'आंखों से ऐसा जान पड़ता है कि नींद से उठे हो या रो रहे थे।


अभी आया हूं, थका हुआ था। चलो ड्राइंगरूम में चलकर बैठे।

दोनों उठकर ड्राइंगरूम की ओर चल दिए। राज, तुम कुछ छिपा रहे हो। मेरे आने से पहले तुम अवश्य रो रहे थे।

'नहीं, नहीं ऐसी कोई बात नहीं। मैं अभी हाथ-मुंह धोकर आता हूं।' यह कहकर राज गुसलखाने में चला गया और माला ड्राइंगरूम में बैठी उसकी प्रतीक्षा करने लगी। थोड़ी ही देर में राज मुंह-हाथ धोकर माला के पास आ गया और दोनों एक साथ चाय पीने लगे।

माला ने पूछा, 'आज चाय इतनी देर से क्यों? डॉली तो कहती थी, आप दोनों शाम की चाय एक साथ पीते हैं। झगड़ा हो गया है?'

'नहीं तो, इसमें झगड़े की क्या बात है? आज मैं कुछ देर से आया। वह पीकर जा चुकी थी।'

'तुम्हें यह कैसे पता चला कि वह बैडमिंटन खेलने गई है?'

"रैकेट उसके हाथ में था।'

'अभी तो तुमने कहा कि वह तुम्हारे आने से पहले ही जा चुकी थी।'

"मेरा मतलब.... वह जा रही थी।'

'हूं। कुछ दाल में काला अवश्य दिखाई देता है। राज, मुझसे क्यों छिपाते हो, हो सकता है कि मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकू।'

तुमने झूठ क्यों बोला था माला
'मैं समझी नहीं।'

"तुमने पूना में जो कुछ मुझसे कहा था वह सत्य था। फिर न जाने क्यों मैं मूर्ख की भांति डॉली की बातों में आकर सब कुछ भूल गया और विशेषकर मुझे तुम्हारे पत्र में लिखी बातों ने बहुत धोखे में रखा।'

'कौन-सा पत्र?'

'जो तुमने डॉली को लिखा था। भूल से मैंने पढ़ लिया। तुमने अपनी सहेली को मनाने के लिए झूठ लिखा था। परंतु मुझे कहीं का भी न रखा।'

'जब वह तुम्हें नहीं चाहती तो फिर तुम इतने आतुर क्यों हो?'

'तुम क्या जानो माला। परंतु अब ऐसा ही करना होगा। उसने आज साफ-साफ कह दिया कि वह जय को पसंद करती है और मुझसे वचन मांगा है कि मैं उनके रास्ते में न आऊं।'

'मैं तो पहले ही समझती थी कि वह कभी तुम्हारी नहीं हो सकती।'

'कितना अच्छा होता, यदि मैं पहले से ही जान लेता।'

'अच्छा अब चलती हूं।'

'अभी ठहरो ना, डॉली आती होगी।'

'नहीं, पता नहीं कब आए।' यह कहकर माला उठी।
 
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