XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 2 - SexBaba
  • From this section you can read all the hindi sex stories in hindi font. These are collected from the various sources which make your cock rock hard in the night. All are having the collections of like maa beta, devar bhabhi, indian aunty, college girl. All these are the amazing chudai stories for you guys in these forum.

    If You are unable to access the site then try to access the site via VPN Try these are vpn App Click Here

XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

राज वहां से उठकर सामने वाले यात्री के पास जा बैठा जो डॉली की तेज आवाज सुनकर उठ बैठा था। "क्यों साहब, क्या बात है?' वह नींद में ही बोला।

'कुछ नहीं जी, वे जरा लेटना चाहती थीं। मैंने सोचा आपके पास आ बैठू।' राज बोला।

'बड़ी खुशी से।' डॉली ने क्रोध में मुंह फेर लिया, मैगजीन नीचे रख टांगें पसार ली और थोड़ी ही देर में सो गई। गाड़ी यात्रियों को अपने निर्दिष्ट पर छोड़ती भागी जा रही थी। रात आधी से अधिक बीत चुकी थी।

डॉली की जब आंख खुली तो उसे यह देख आश्चर्य हुआ कि राज सामने बैठा उसकी मैगजीन पढ़ रहा था और बाकी की सीटें खाली थी। मैगजीन उसके हाथ में देखकर डॉली को बहुत अजीब-सी लगा परंतु वह बोली नहीं। हाथ से बंधी हुई घड़ी पर देखा चार बज चुके थे और बंबई पहुंचने में चार घंटे बाकी थे।

'ये बाकी के यात्री सब क्या हुए?' अपनी दबी-सी आवाज में पूछा।

'सब कुशलतापूर्वक अपने-अपने निर्दिष्ट पर पहुंच गए परंतु आपकी कोई वस्तु साथ नहीं ले गए, निश्चिंत रहिए। हां, एक यात्री आपका वह ले गया... क्या कहते हैं उसे?'
.

'क्या ले गया है, जल्दी कहो।' डॉली ने घबराहट में कहा।

"फिल्म इंडिया।' राज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

'आपको हंसी सूझ रही है और मैं....।' यह कहते-कहते वह रुक गई।

शायद आप घबरा रही हैं। घबराइए नहीं। आखिर हम जैसे जिंदादिल के मनुष्य आपका कर भी क्या सकते है?

'घबराता कौन है? और वह भी तुमसे? लाइए मेरा मैगजीन।'

'यह लीजिए।' राज अपनी असली सीट से उठा और डॉली के समीप जाकर उसे मैगजीन भेंट की।

डॉली ने कांपते हाथों से मैगजीन ले ली। राज मुस्कराता हुआ अपनी सीट पर आ बैठा। डॉली के चेहरे पर क्रोध की रेखाएं भी उतनी ही सुंदर जान पडती जितनी प्रसन्नता की।

गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी और दो यात्री उस डिब्बे में आ बैठे। डॉली की जान में जान आई। पौ फट रही थी। अंधकार धीरे-धीरे विलीन हो रहा था। डॉली ने अपना सामान संभालना आरंभ कर दिया। राज अपने सहयात्रियों के साथ बातचीत करने में लगा था। घड़ी ने आठ बजाए और गाड़ी बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नंबर छः पर आकर रुकी। 'कुली, कुली' की आवाजें चारों ओर गूंज उठीं। थोड़ी ही देर में दोनों अपना-अपना सामान उठाए स्टेशन से बाहर खड़े थे। राज खड़ा देखता ही रह गया। 'टैक्सी साहब?'

"ऊं? हां लगा दो सामान। देखो.... जेब से सेठजी का पता निकालते हुए राज बोला, कॉलेज स्ट्रीट तक जाना है। माटुंगा, कोठी नं. 115।'

‘अच्छा साहब, चलिए।' और टैक्सी माटुंगा की ओर चल दी। राज पहली बार ही बंबई आया था, फिर भी उसे सेठ साहब की कोठी ढूंढने में कोई कठिनाई न हुई। साधारण-सी पूछताछ के बाद वह उनकी कोठी पर पहुंच गया। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, कोई न था। वह सीधा सामने खुले हुए कमरे में प्रविष्ट हुआ। यह ड्राइंगरूम था। प्रवेश करते ही उसके पैरों के नाचे से मानों जमीन खिसक गई और वह घबराया हुआ देखता का देखता ही रह गया। डॉली सामने खड़ी थी।
 
डॉली उसे देखते ही चिल्लाई 'तुम मेरा पीछा करते हुए यहां तक आ पहुंचे!'

'तो क्या यह सेठ श्यामसुंदर.....।'

'हां, हां उन्हीं का मकान है। आप जैसे लोगों को किसी के सूटकेस या बिस्तर से पता नोट करते क्या देर लगती है?' वह आवेश में बोल रही थी, 'कुशलता चाहते हो तो यहां से निकल जाओ।'

'यह शोर कैसा?' दूसरे कमरे से किसी की आवाज आई।

'डैडी, देखिए ना यह साहब....।'

'हैलो राज! तुम कब आए?' सेठ जी ने कमरे से निकलते ही पूछा।

'अभी फ्रंटियर से।'

'डॉली भी तो इसी ट्रेन से आ रही है, परंतु तुम्हारा परिचय नहीं हुआ। यह है मेरी इकलौती बच्ची, डॉली। सेठ साहब ने डॉली के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, और यह हैं राज, जिनके यहां हम चंद्रपुर में एक रात रुके थे।'

'नमस्ते। बहुत प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।' राज ने सस्मित कहा।

डॉली का चेहरा पीला पड़ रहा था। वह इस प्रकार मौन खड़ी थी मानों उसके मुंह को ताला लगा दिया गया हो। राज के होंठों पर एक मुस्कराहट थी।

'जमींदार साहब कैसे हैं? उन्हें भी साथ ले आए होते।'

ठीक हैं, दिल तो उनका भी आपसे मिलने को बहुत चाहता था परंतु उनका स्वास्थ्य उन्हें यात्रा की आज्ञा नहीं देता। कुछ स्वास्थ्य और कुछ उनकी बनाई हुई दुनिया। उसे भी तो वह छोडना नहीं चाहते।

सेठ साहब हंसते हुए बोले, 'अच्छा राज, मैं एक आवश्यक काम से बाहर जा रहा हूं और दोपहर तक लौटुंगा। फिर जी भरकर बातें होंगी। इसे अपना ही घर समझो।'

'जी।'

'डॉली, इनके स्नान आदि का प्रबंध कर दो और किशन से कहो कि बाहर से सामाने ले आए।' और यह कहते सेठ साहब बाहर निकल गए।
 
राज और डॉली एक-दूसरे को आश्चर्य भरी निगाहों से देख रहे थे। दोनों कुछ देर इसी प्रकार खड़े रहे। 'यदि मुझसे कोई अशिष्टता हो गई हो तो मैं क्षमा चाहती हूं।' डॉली ने दबे स्वर में कहा और पास वाले कमरे में भाग गई।

राज दबे पांव कमरे में प्रविष्ट हुआ। डॉली चुपचाप पलंग पर लेटी छत की ओर देख रही थी।

'डॉली!' राज ने धीरे-से पुकारा।

'जी? ओह मैं भूल गई। स्नान के लिए पानी।' वह शीघ्रता से उठी।

'देखिए मुझे कहीं जाना तो है ही नहीं और आप भी तो लंबी यात्रा से लौटी हैं, तनिक आराम कर लीजिए। मैं पानी के लिए किशन को कहे देता हूं।' राज ने नम्रता भरे स्वर में कहा और किशन को आवाज दे दी।

'आपने मेरी बात का कुछ बुरा तो नहीं माना?'

'नहीं साहब, मैं बुरा क्यों मानने लगा। यह भी जीवन में एक अद्भुत संयोग हुआ, हम सहयात्री बने और वह भी खूब....।' राज ने मुस्कराते हुए कहा।

'मैं दिल्ली एक सहेली के विवाह में गई थी। वापसी पर हम चार लड़कियां थीं। 'लेडीज' कम्पार्टमेंट में सीट्स न मिली, 'जेन्टस' में ही बुक करवा लीं, वे सब बीच में ही मथुरा उतर गई और मुझे बंबई तक अकेला आना पड़ा।'

'खैर, इसमें बुराई ही क्या है? आज की नई सभ्यता में पली लड़कियां तो सारे संसार में अकेली घूम आवे तो भी कोई आश्चर्य नहीं। हम जैसे जिंदादिल छोकरे आप लोगों का कर भी क्या सकते हैं!'

'आप तो लजित कर रहे हैं।'

'नहीं तो। यह तो वैसे ही हंसी हो रही थी।' दोपहर तक दोनों इसी प्रकार की बातें करते रहे और अपने-अपने जीवन के मनोहर चुटकुले एक-दूसरे को सुनाते रहे। दोपहर बाद सेठ साहब आए और सबने एक साथ बैठकर खाना खाया और फिर देर तक गप्पें चलती रहीं। शाम को सेठ साहब राज और डॉली को अपने साथ बाहर सैर को ले गए और एक मित्र के घर में ही भोजन करके देर से लौटे।
* * *
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
राज को श्यामसुंदर का अतिथि बने आज आठ दिन हो चुके थे। सवेरे सेठ साहब के साथ ही कारखाने चला जाता और शाम को ठीक पांच बजे लौट आता। डॉली भी उसी समय कॉलेज से आती। दोनों एक साथ ही चाय पीते। वह सोचता, आखिर कब तक वह इसी प्रकार उनका अतिथि बना रहेगा? उसे अब किसी दूसरे स्थान पर रहने का प्रबंध कर लेना चाहिए। एक दिन सवेरे जब सब बैठे चाय पी रहे थे तो राज ने सेठ साहब से कह ही दिया

'बंबई में स्थान तो शीघ्र मिलना कठिन है। मेरे एक मित्र यहां ग्रीन होटल में मैनेजर हैं। अभी तो एक कमरे का प्रबंध वहां कर लिया जाए। स्थान भी अच्छा है और किराया भी उचित। आपकी क्या सम्मति है?'

"परंतु इतनी जल्दी क्या है?' सेठ साहब ने केक का टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा, 'होटलों में रहना मुझे पसंद नहीं और फिर तुम अकेले हो। पहले काम-काज का प्रबंध हो जाने दो फिर देखा जाएगा। घर में ही तो बैठे हो।'

'वह तो सेठजी आपकी कृपा है, परंतु फिर भी....।'

'अच्छा छोड़ो इस विषय को।' सेठ साहब ने कुर्सी पर से उठते हुए कहा, 'पहले काम की बातें हो जाएं। कल मैं ज्वालाप्रसाद के यहां गया था और तुम्हारे बारे में बातचीत भी की। परंतु सच पूछो तो मुझे वह काम तुम्हारे वश का नहीं दीखता। बहुत-सी कठिनाइयां हैं। तुम्हारे पास अभी अनुभव की कमी है। कम से कम एक डेढ़ वर्ष ट्रेनिंग में लगाओ तो कारोबार के सही भेदभाव जान सकते हो और यदि ऐसे ही पैसा लगाया जाए तो हानि होने का भय है।'

'यह तो ठीक कहते हैं। आजकल किसी प्रकार का रिस्क का समय नहीं, जो हो सब सोच-समझकर करना चाहिए। यह भी तो आवश्यक नहीं कि यही काम किया जाए। मुझे तो कुछ करना है, ताकि पिताजी यह न कह सकें कि एक छोटी-सी हठ के कारण मैंने जीवन नष्ट कर लिया और मुझे एक हारे सिपाही की भांति उन्हीं सूनी घाटियों में आश्रय लेना पड़े जिनसे विदा ले आया हूं।'

'इसका अभी से क्या कहा जा सकता है? मनुष्य का कर्त्तव्य तो प्रयत्न करना है, सो किए जाओ।' सेठ साहब ने बात बदलते हुए डॉली से कहा, जो चुपचाप बैठी दोनों की बातें सुन रही थी 'मेरी कुछ फाइलें यहां पड़ी थी?'

"वे सामने अलमारी में रखी हैं, अभी ला देती हूं।' डॉली ने कुर्सी से उठते हुए उत्तर दिया।

सेठ साहब ने जेब से घड़ी निकालकर देखते हुए कहा 'राज, एक काम करो। आज तुम बस में सीधे फैक्टरी चले जाओ। मैनेजर आ चुका होगा। उससे कहना कि मद्रास की पार्टी का सारा माल तैयार करवा दें, मुझे कुछ देर हो जाएगी। इम्पोर्ट ऑफिस जाना है। तुम वहीं रहना।'


'यह लीजिए।' डॉली ने फाइलें देते हुए कहा।

अच्छा डॉली, तुम्हें भी तो कॉलेज जाना होगा। जल्दी से तैयार होकर राज के साथ ही बस में चली जाओ। मुझे तो जाने में देर है। दस बजे दफ्तर खुलेगा।

'अच्छा डैडी।' थोड़ी देर में दोनों तैयार होकर सड़क के किनारे खड़े बस की प्रतीक्षा कर रहे थे। दोनों चुप थे।

'क्यों, आज सवेरे से 'मूड' बिगड़ा हुआ दिखाई देता है?'

'नहीं तो।' डॉली ने होठों पर मुस्कराहट लाकर कहा।

'बात कुछ अवश्य है। चाय भी बहुत ही चुपचाप पी गई और अब।'

'उस समय तो डैडी आपके रहने का प्रबंध कर रहे थे। मैंने सोचा कि मुझे चुप ही रहना चाहिए। आजकल मकान बड़ी कठिनता से मिलते हैं और अब बस भी तो कोई आसानी से मिलती दिखाई नहीं देती।'

'दोनों हंस पड़े।'

'आपकी यहीं बातें तो हमें आपकी ओर खींच लेती हैं और आपकी खामोश सूरत देख नहीं सकते।'

'तनिक कम खींचियेगा। खींचा-तानी में कभी-कभी धागे टूट भी जाते हैं।'

'कोई बात नहीं। टूटे हुए जोड़ लेंगे।'
 
'अच्छा तो कब जा रहे हैं आप?'

"कहां?'

'नए मकान में।'

'अभी तो विचार नहीं। यदि आप चाहती हैं तो शीघ्र प्रबंध हो जाएगा।'

'मेरे चाहने न चाहने से क्या। अंत में आपको जाना तो है ही।'

'अवश्य। इसमें तो कोई संदेह नहीं। मुझे तो जाना ही है। आपको तो शायद कोई विशेष फर्क न पड़े परंतु मुझे....।' यह कहता-कहता राज चुप हो गया।

बस आकर रुकी और दोनों जल्दी से बस में बैठ गए। कुछ देर चुप रहने के बाद डॉली बोली 'हां तो तुम क्या कह रहे थे?'

'कुछ नहीं, यों ही कुछ दिमाग में आ गया।'

'और अब चला गया? चलो यह भी अच्छा हुआ।' डॉली ने एक व्यंग्यभरी मुस्कराहट के साथ कहा और चुप हो गई। अकस्मात् दोनों के विचारों की श्रृंखला किसी स्वर से टूट गई। स्वर डॉली का था 'अच्छा अब मेरा स्टाप आ रहा है। आपको बहुत आगे जाना

'ओह.... तो आपका कॉलेज आ गया?'

'जी। शाम को पांच बजे भेंट होगी। समय पर पहुंचिएगा।' 'बस रुकी और डॉली अपनी पुस्तकें संभालती उतर गई।'

'सेठ साहब लगभग दोपहर के दो बजे पहुंचे। राज उनकी प्रतीक्षा कर ही रहा था। उन्होंने आते ही कहा - देर कुछ अधिक हो गई। दफ्तरों के काम कुछ ऐसे ही होते हैं। तुमने तो अभी खाना भी न खाया होगा?'

'जी, कोई बात नहीं। विशेष भूख तो है नहीं।'

'अच्छा चपरासी से कहो कि खाना लगाए। मैं तब तक पता कर लूं कि माल तैयार हुआ कि नहीं।' सेठ साहब यह कहते हुए मैनेजर के कमरे में चले गए।

राज ने चपरासी से कहकर खाना लगवा दिया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर में सेठ साहब लौटे। वह क्रोध से लाल-पीले हो रहे थे।

"क्यों, क्या बात है?' राज ने आश्चर्य से पूछा।

"दूसरों पर मनुष्य कितना ही विश्वास क्यों न करें परंतु जब तक अपने-आप चिंता न करो, कोई काम समय पर नहीं होता।' सेठ साहब ने कोट उतारते हुए कहा, 'देखो, अब इस ऑर्डर को पंद्रह दिन हो गए, अभी तक माल तैयार नहीं हुआ। यदि ग्राहक ने स्वीकार न किया तो मैनेजर का क्या किया जाएगा?'

"ठीक है। परंतु आप इतनी असावधानी के लिए दंड क्यों नहीं देते? जब दाम पूरे मिलते हैं तो काम भी पूरा होना चाहिए।'

'कारोबार में इस प्रकार नहीं चलता। यह जाएगा तो दूसरा कौन-सा परवाह वाला मिल जाएगा। या तो कोई अपना आदमी ही हो जिसे उतना ही दर्द हो जितना मुझे। चलो खाना खाएं।' दोनों ने हाथ धोएं और खाना खाने को बैठ गए।

.
 
'देखिए, यदि आप मानें तो एक निवेदन करू?'साग का कटोरा आगे बढ़ाते हुए राज ने कहा।

'हां हां कहो।'

'यदि मैं आपके किसी काम आ सकू तो.....।'

"परंतु तुम तो अपना कारोबार करना चाहते हो?'

'यह कोई आवश्यक तो नहीं है। मुझे तो यदि आप आपने पास रख लें तो मेरा जीवन अवश्य सार्थक बन जाए।'

'भली प्रकार विचार कर लो। यह काम बड़े उत्तरदायित्व का है और यदि कल इससे ही उकता जाओ तो....।'

'मनुष्य करना चाहे तो सब कुछ कर सकता है। आप मुझे अवसर तो दीजिए।' राज ने विनम्र भाव से कहा।

'तो कल से काम सीखना आरंभ कर दो।'

'बहुत अच्छा।' राज ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया। घड़ी ने चार बजाए और राज ने घर जाने की आज्ञा ली।

'आज तो जा सकते हो परंतु कल से....।'

"मैं सब समझता हूं आप निश्चिंत रहे।' राज ने सेठ साहब की बात काटते हुए कहा और कमरे से निकल गया। उसके पैर बहुत तेजी से बढ़ रहे थे। राज बस से उतरते ही सीधे कोठी पहुंचा। डॉली पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। राज ने मुंह-हाथ धो लिए और दोनों एक-साथ चाय पीने को बैठे। डॉली की आंखों में एक अद्भुत सी मादकता भरी थी, होंठों पर एक दबी-सी चंचल मुस्कराहट थी। राज के वश में होता तो वह इन नेत्रों में सदा के लिए समा जाता। वह एकटक उसे देखे जा रहा था।

'क्या बात है? आज आवश्यकता से अधिक प्रसन्न दिखाई दे रहे हो। डॉली ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा।'

'डॉली, कुछ बात ही ऐसी है कि....।'

'हम भी तो सुनें।'

'भविष्य में हर शाम की चाय इस प्रकार साथ बैठकर न पी सकेंगे।'

'तो इतने प्रसन्न होने की क्या बात है?' डॉली ने व्यंग्य से कहा।

'खुशी तो नहीं, मैं तो तुम्हें यह सूचना देने वाला था कि तुम्हारे डैडी ने मुझे अपने पास रख लिया है।'

'तो उन्होंने जाने को कब कहा था?'

'घर में नहीं कारखाने में।'

'अच्छा? मैंने समझा कि न जाने हृदय की कौन-सी अभिलाषा पूरी हो गई कि फूले नहीं समाते।' ।

'तो क्या यह कम प्रसन्नता की बात है कि अब तुम्हारे समीप रह सकूँगा?'

'मेरे समीप रहने से आपको क्या मिल जाएगा?'

राज एकटक डॉली को देखता रहा फिर डॉली का हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोला, 'सच पूछो तुम मुझे इतनी अच्छी लगती हो, यह मैं कैसे बताऊं? तुम क्या जानो कि तुम्हारी एक झलक के लिए मैं कितना व्याकुल हो उठता हूं।'

'अच्छा जी, बातें तो कवियों की भांति करते हो।' डॉली ने हाथ छुड़ाते हुए कहा, 'परंतु यह ध्यान रहे यह चंद्रपुर नहीं बंबई है।'
और वह दूसरे कमरे में चली गई।

राज भी पीछे-पीछे वहां जा पहुंचा।" 'आज का क्या प्रोग्राम है जी?'

'एक सहेली के घर जाना है, तुम अपने प्रोग्राम के आप मालिक हो।' 'यह कहकर वह ड्रेसिंग रूम में चली गई और राज अपने कमरे में।'

कुछ ही दिनों में उसने एक कमरे का प्रबंध कर लिया। यद्यपि वह इनके घर से जाना न चाहता था, परंतु वह यह भी भली प्रकार जानता था कि सेठ साहब कहें चाहे न कहें उसे अपना कर्त्तव्य भूलना न चाहिए।
 
सेठ साहब को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने इसे स्वीकार न किया। फिर मान गए और किसी ने उसे वहां रहने के लिए विशेष जोर नहीं दिया। कल उसे वहां से चले जाना था। वह कमरे में अकेला खड़ा खिड़की से बाहर झांक रहा था। रात के ग्यारह का समय होगा। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। हवा के हल्के-हल्के झोंके खिड़की से आ-आकर उसे निद्रा देवी का संदेश सुना रहे थे। परंतु आज उसकी आंखों में नींद कहां? वह चिंतित था। कल वह डॉली से दूर हो जाएगा। आखिर वह डॉली के लिए इतना चिंतित क्यों है? यह वह स्वयं भी न समझ पाता था। राज ने बत्ती जलाई और एक पुस्तक पढ़ने लगा। कुछ समय वह इसी प्रकार पढ़ता रहा परंतु उसके हृदय की विकलता शांत न हुई।


अकस्मात् उसे किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। उसने मुड़कर देखा। डॉली खिड़की में खड़ी थी। 'डॉली तुम... इस समय... यहां!' राज के मुंह से अकस्मात् निकल गया।

'पानी पीने के लिए उठी थी। बत्ती जली देखकर मैंने सोचा, देखू महाशय इतनी रात गए तक क्यों जाग रहे हैं या बत्ती बुझाना तो नहीं भूल गए।' उसने अपनी ओढ़नी संभालते हुए कहा।

'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। नींद नहीं आ रही थी और आज इस कमरे में अंतिम रात है। सोचा जी भरकर देख लूं।'

'क्या सचमुच ही आपको कल जाना है?'

'जी, मन तो नहीं करता पर विवश ह।'

"विवशता कैसी? देखिए आप मेरी एक बात मानेंगे?'

'क्यों नहीं!' राज ने डॉली के सामने झुकते हुए कहा।


'आप हमारे यहां से न जाइए।'

'क्या? यह तुम क्या कह रही हो।'

"क्यों, इसमें आश्चर्य की क्या बात है?'

'कुछ नहीं, अंदर आ जाओ, मैं दरवाजा खोलता हूं।'

'नहीं जल्दी कहो क्या कहना चाहते हो। रात बहुत बीत चुकी है।

'मुझे एक दिन तो जाना ही है। जितनी देर से जाऊंगा दिल उतना ही उदास होगा। फिर 'डैडी' ने भी तो आज्ञा दे दी है।'

'वह तो सब कुछ आप ही की हठ के कारण हुआ, नहीं तो हम दोनों की इच्छा तो तुम्हें अपने पास रखने की थी।'

'जैसा भी आप समझ लें।'

'अच्छा चलती हूं।'

'यह सब तुम अपने हृदय से कह रहे हो या केवल दिखावे के लिए?'

'थोड़ी-सी देर तो और रुक जाओ।'

'नहीं, बहुत देर हो रही है। सवेरे मिलूंगी।' यह कहकर वह चली गई।

'डॉली, तुम कितनी अच्छी हो।' राज के यह शब्द कदाचित् डॉली के कानों तक न पहुंच सके। प्रातः होते ही डॉली के कहने से सेठ राज के पास पहुंच गए और उसका वहां से जाना स्थगित कर दिया। अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें और वह मिल गई। राज के चेहरे पर एकदम रौनक-सी आ गई। उसका दिल बल्लियों उछलने लगा।
 
रात्रि का अंधकार दूर हुआ। प्रभात के प्रकाश ने उसका स्थान ले लिया। राज अब मैनेजर के पद पर काम कर रहा था। कछ ही महीनों में उसने सारा भार संभाल लिया और सेठ साहब के बहुत से उत्तरदायित्वों का बोझ हल्का कर दिया। नित्य की भांति आज राज दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। सेठ साहब 'टाइपिस्ट' से कुछ चिट्ठियां लिखवा रहे थे। चिट्ठियां समाप्त होते ही उन्होंने फाइल बंद कर दी और टाइपिस्ट दसरे कमरे में चला गया। 'राज जरा सामने का दरवाजा बंद कर दो।' सेठ साहब ने अपनी ऐनक डिबिया में रखते हुए कहा।

राज उठा और दरवाजा बंद कर दिया। 'देखो राज, तुमने जिस तेजी और खूबी से मेरा काम संभाला है, उसकी मुझे आशा न थी। मैं सोचता हूं कि भविष्य में भी तुम इसी प्रकार मन लगाकर पूरे उत्तरदायित्व के साथ काम करते रहोगे।'

'यह सब तो आपकी कृपा है कि आज मैं इस योग्य बन सका।'

'मैंने निश्चय किया है कि भविष्य में तुम्हारा वेतन सौ रुपये और बढ़ा दिया जाए, अर्थात् ढाई सौ के स्थान पर साढ़े तीन सौ।' सेठ साहब मुस्कराते हुए बोले।

'इसकी क्या जल्दी थी।' राज कुर्सी पर बैठते हुए बोला, 'आप जानते हैं, मुझे रुपये-पैसे का तो इतना ख्याल नहीं जितना....।'

'ठीक है।' बात काटते हुए सेठ साहब बोले, वह तो मैं समझता हूं परंतु यह तुम्हारा मूल्य है, पुरस्कार नहीं।

'यह तो आप ही अधिक जानते हैं। मेरा काम तो परिश्रम करना है।'

'मैं अपने कारोबार में कुछ परिवर्तन करना चाहता हूं, यदि तुम चाहो तो इसमें मेरी सहायता कर सकते हो।'

'कहिए, सेवक किस योग्य है?'

'परंतु वचन दो कि यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच रहेगी।'

'क्या इसकी भी आवश्यकता है? आप कहिए तो।'

'मेरी इच्छा है तुम्हारे नाम से खाता खुलवा दिया जाए और जो सौदे बाहर-ही-बाहर कर दिए जाए, उसमें जमा हो जाएं। इससे बहुत लाभ होगा।'

'कैसे?' राज ने और समीप आते हुए पूछा।

"एक तो लंबे-चौड़े हिसाब रखने की आवश्यकता न होगी, दूसरे इन्कमटैक्स की बचत।'

'ठीक तो है परंतु कोई आपत्ति तो न खड़ी हो जाए।'

'यह मुझ पर छोड़ो, जैसा कहूं करते जाओ परंतु इस बात को किसी से....।'

'आप निश्चिंत रहें। दोनों यह बात कर ही रहे थे कि दरवाजा खुला और डॉली हाथ में पुस्तकें लिए अंदर आई।

'तुम इस समय यहां?' सेठ साहब ने आश्चर्य से डॉली की ओर देखते हुए कहा।

'जान पड़ता है कि आप सवेरे का वायदा भूल गए....।' मेज पर पुस्तक रखते हुए डॉली ने उत्तर दिया।

'ओह! मैं तो बिल्कुल भूल ही गया था। तुमने तो सिनेमा जाने को कहा था ना। कौन-सी पिक्चर?'

'रेंजर्स एज।'

'देखो डॉली, आज काम अधिक है और मैंने सात बजे एक महाशय से मिलने के लिए कह भी दिया है। कल चले चलेंगे।'

'मैंने तो टिकट भी मंगवा लिए हैं। भीड़ बहुत है। पहले ही बहुत कठिनाई से टिकट मिले हैं।' डॉली ने कुछ बिगड़ते हुए कहा।

'तो लाचारी है क्या करू.... तो ऐसा करो आज राज को साथ ले जाओ। आधे घंटे में कारखाना बंद होने वाला है। वह शीघ्र ही काम समाप्त कर लेगा।'

'परंतु डैडी....।'

'मैं फिर किसी दिन देख लूंगा, आज तुम दोनों देख आओ। राज! शामू से कहना तुम्हें छोड़ आएगा और वापस तुम बस पर आ जाना।'
 
सिनेमा आरंभ होने में आधा घंटा था। डॉली और राज बोर्ड पर लगे चित्र देख रहे थे।

'आओ तो जरा रेस्तरां की ओर।' राज ने डॉली का हाथ खींचते हुए बोला।

'क्यों! मुझे तो प्यास नहीं।'

'केवल एक-एक आइसक्रीम।'

'तुम्हें खानी हो तो खा लो, मेरा तो जी नहीं है।'

'चलो रहने दो।' राज ने बिगड़ते हुए कहा।

"तुम्हारी इच्छा।' डॉली ने मुंह चिढ़ाकर उत्तर दिया।

'इसमें मुंह बनाने की क्या आवश्यकता है। शायद तुम्हें मेरा तुम्हारे साथ इस प्रकार जबरदस्ती चला आना पसंद नहीं।'

'नहीं, यह तो कोई बात नहीं, तुम तो व्यर्थ ही छोटी-छोटी बातों को पकड़ लेते हो। अब जी न करे तो कैसे खा लूं।'

"किसी का मन रखने के लिए।'

'यह तो हमसे नहीं हो सकता।'

'तुम किसी का दिल क्या रखोगी! सिनेमा के टिकट तक मंगवा लिए और मुझे पूछना तो एक ओर रहा, बतलाया तक नहीं।'

'तुम भी अजीब इंसान हो। इतना भी नहीं समझते। डैडी का तो केवल एक बहाना था। उनके पास सिनेमा के लिए अवकाश कहां! सोचा था उनके मना करने पर तुमसे प्रार्थना करूगी। उसकी आवश्यकता ही न पड़ी। डैडी ने अपने आप ही तुम्हें भेज दिया।'

'सच कह रही हो डॉली?'

'तो मुझे इसमें झूठ बोलकर लेना ही क्या है।'

"हैलो डॉली! फैशनेबल कपड़े पहने एक युवक ने डॉली के निकट आते हुए कहा।'

'तुम तो कह रहे थे कि सीट बुक नहीं हो सकती।'

'प्रबंध कर ही लिया है।'

'ओह!' डॉली ने राज की ओर देखते हुए कहा। राज तीखी निगाहों से उन दोनों को देख रहा था। डॉली बोली, 'यह है मिस्टर राज, जिनके बारे में मैं बहुत बार आपसे बात करती हूं और यह है मिस्टर जय, जो हमारे सामने वाली कोठी में रहते हैं।'

'बहुत प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।' राज ने जय से हाथ मिलाते हुए कहा, 'देखा तो आपको कई बार है परंतु भेंट नहीं हुई।'

"कदाचित् आप डॉली के साथ पढ़ते हैं।'

'जी कॉलेज तो एक ही है परंतु कक्षा भिन्न हैं। मैं इस वर्ष एम.ए. की तैयारी कर रहा हूं और यह...।'

'वह तो मैं जानता ही हूं।'
 
"डॉली तुम्हारी सीट्स कहां की हैं!' जय ने डॉली से पूछा।

'स्टॉल्स की और तुम?'

'मैं तो बॉलकनी में हूं। जरा एक बात सुनो। राज दो मिनट के लिए क्षमा चाहता हूं।' जय ने डॉली को कुछ दूर ले जाते हुए कहा। 'डॉली, मेरे साथ एक मित्र है। कहो तो उसे नीचे तुम्हारे मैनेजर के पास भेज दें और तुम मेरे साथ...।'

'नहीं जय, ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हें मुझे इस प्रकार बुलाना नहीं चाहिए था।' डॉली ने राज की ओर देखते हुए कहा जो इस समय उन्हीं की ओर देख रहा था। दोनों वापस राज के पास आ गए।

'क्यों राज, वापसी कैसे होगी?'

'कार तो डैडी को चाहिए थी, बस में चले जायेंगे।' राज ने फीकी मुस्कराहट होंठों पर लाकर कहा।

'वह सामने मेरी कार खड़ी है। वहां प्रतीक्षा करना। सब साथ ही चलेंगे।' जय ने कहा और डॉली की ओर देखकर फिर बोला 'आओ, एक-एक आइसक्रीम हो जाए।'

'कोई आवश्यकता तो नहीं।'

'ऐसी भी क्या बात है?' जय ने डॉली का हाथ खींचकर उसे बाहर की ओर ले जाते हुए कहा। डॉली राज की ओर देखकर मुस्कराने लगी और बोली, 'चलो राज।' तीनों ने बैठकर आइसक्रीम खाई।

खेल आरंभ होने में थोड़ी देर अभी बाकी थी। जय उनसे आज्ञा लेकर चला गया और वे दोनों जाकर हॉल में बैठ गए। राज चुप बैठा था।

'सिनेमा देखने आये हो या किसी जंगल में तपस्या करने?'डॉली ने राज की बांह पर चिकोटी भरते हुए कहा।

'तपस्या तो नहीं। जरा आइसक्रीम खाने से कलेजा ठंडा हो गया है। उसे गर्म करने के प्रयत्न में हूं।'

'गुस्सा तो तुम्हें हवा के चलने से आ जाता है। मेरी और तुम्हारी बात तो अपने घर की सी है। जब दूसरा आदमी अनुरोध करे तो इंकार किस प्रकार हो!'

'ठीक है और वे प्राइवेट बातें क्या हो रही थीं?'

डॉली हंस पड़ी, 'अरे वह तो वैसे ही कॉलेज की एक लड़की की बात थी जिसे तुम्हारे सामने कहना अच्छा न लगा।'

'शायद शर्म आती होगी! देखो डॉली, खेल समाप्त होते ही हम सीधे बस पर वापस चलेंगे, जय के साथ जाना मुझे पसंद नहीं।'

'तो इसमें डर क्या है? मैं अकेली तो हूं नहीं, तुम भी तो मेरे साथ हो।'

'कुछ भी हो, मैं नहीं जाऊंगा।'

'अच्छा बाबा, जैसा कहोगे वैसा ही करेंगे। अब पिक्चर का मजा किरकिरा न करो। देखो, बत्तियां बंद हो गई। अब उधर ध्यान दो।'
 
Back
Top