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- Dec 5, 2013
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राज वहां से उठकर सामने वाले यात्री के पास जा बैठा जो डॉली की तेज आवाज सुनकर उठ बैठा था। "क्यों साहब, क्या बात है?' वह नींद में ही बोला।
'कुछ नहीं जी, वे जरा लेटना चाहती थीं। मैंने सोचा आपके पास आ बैठू।' राज बोला।
'बड़ी खुशी से।' डॉली ने क्रोध में मुंह फेर लिया, मैगजीन नीचे रख टांगें पसार ली और थोड़ी ही देर में सो गई। गाड़ी यात्रियों को अपने निर्दिष्ट पर छोड़ती भागी जा रही थी। रात आधी से अधिक बीत चुकी थी।
डॉली की जब आंख खुली तो उसे यह देख आश्चर्य हुआ कि राज सामने बैठा उसकी मैगजीन पढ़ रहा था और बाकी की सीटें खाली थी। मैगजीन उसके हाथ में देखकर डॉली को बहुत अजीब-सी लगा परंतु वह बोली नहीं। हाथ से बंधी हुई घड़ी पर देखा चार बज चुके थे और बंबई पहुंचने में चार घंटे बाकी थे।
'ये बाकी के यात्री सब क्या हुए?' अपनी दबी-सी आवाज में पूछा।
'सब कुशलतापूर्वक अपने-अपने निर्दिष्ट पर पहुंच गए परंतु आपकी कोई वस्तु साथ नहीं ले गए, निश्चिंत रहिए। हां, एक यात्री आपका वह ले गया... क्या कहते हैं उसे?'
.
'क्या ले गया है, जल्दी कहो।' डॉली ने घबराहट में कहा।
"फिल्म इंडिया।' राज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
'आपको हंसी सूझ रही है और मैं....।' यह कहते-कहते वह रुक गई।
शायद आप घबरा रही हैं। घबराइए नहीं। आखिर हम जैसे जिंदादिल के मनुष्य आपका कर भी क्या सकते है?
'घबराता कौन है? और वह भी तुमसे? लाइए मेरा मैगजीन।'
'यह लीजिए।' राज अपनी असली सीट से उठा और डॉली के समीप जाकर उसे मैगजीन भेंट की।
डॉली ने कांपते हाथों से मैगजीन ले ली। राज मुस्कराता हुआ अपनी सीट पर आ बैठा। डॉली के चेहरे पर क्रोध की रेखाएं भी उतनी ही सुंदर जान पडती जितनी प्रसन्नता की।
गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी और दो यात्री उस डिब्बे में आ बैठे। डॉली की जान में जान आई। पौ फट रही थी। अंधकार धीरे-धीरे विलीन हो रहा था। डॉली ने अपना सामान संभालना आरंभ कर दिया। राज अपने सहयात्रियों के साथ बातचीत करने में लगा था। घड़ी ने आठ बजाए और गाड़ी बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नंबर छः पर आकर रुकी। 'कुली, कुली' की आवाजें चारों ओर गूंज उठीं। थोड़ी ही देर में दोनों अपना-अपना सामान उठाए स्टेशन से बाहर खड़े थे। राज खड़ा देखता ही रह गया। 'टैक्सी साहब?'
"ऊं? हां लगा दो सामान। देखो.... जेब से सेठजी का पता निकालते हुए राज बोला, कॉलेज स्ट्रीट तक जाना है। माटुंगा, कोठी नं. 115।'
‘अच्छा साहब, चलिए।' और टैक्सी माटुंगा की ओर चल दी। राज पहली बार ही बंबई आया था, फिर भी उसे सेठ साहब की कोठी ढूंढने में कोई कठिनाई न हुई। साधारण-सी पूछताछ के बाद वह उनकी कोठी पर पहुंच गया। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, कोई न था। वह सीधा सामने खुले हुए कमरे में प्रविष्ट हुआ। यह ड्राइंगरूम था। प्रवेश करते ही उसके पैरों के नाचे से मानों जमीन खिसक गई और वह घबराया हुआ देखता का देखता ही रह गया। डॉली सामने खड़ी थी।
'कुछ नहीं जी, वे जरा लेटना चाहती थीं। मैंने सोचा आपके पास आ बैठू।' राज बोला।
'बड़ी खुशी से।' डॉली ने क्रोध में मुंह फेर लिया, मैगजीन नीचे रख टांगें पसार ली और थोड़ी ही देर में सो गई। गाड़ी यात्रियों को अपने निर्दिष्ट पर छोड़ती भागी जा रही थी। रात आधी से अधिक बीत चुकी थी।
डॉली की जब आंख खुली तो उसे यह देख आश्चर्य हुआ कि राज सामने बैठा उसकी मैगजीन पढ़ रहा था और बाकी की सीटें खाली थी। मैगजीन उसके हाथ में देखकर डॉली को बहुत अजीब-सी लगा परंतु वह बोली नहीं। हाथ से बंधी हुई घड़ी पर देखा चार बज चुके थे और बंबई पहुंचने में चार घंटे बाकी थे।
'ये बाकी के यात्री सब क्या हुए?' अपनी दबी-सी आवाज में पूछा।
'सब कुशलतापूर्वक अपने-अपने निर्दिष्ट पर पहुंच गए परंतु आपकी कोई वस्तु साथ नहीं ले गए, निश्चिंत रहिए। हां, एक यात्री आपका वह ले गया... क्या कहते हैं उसे?'
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'क्या ले गया है, जल्दी कहो।' डॉली ने घबराहट में कहा।
"फिल्म इंडिया।' राज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
'आपको हंसी सूझ रही है और मैं....।' यह कहते-कहते वह रुक गई।
शायद आप घबरा रही हैं। घबराइए नहीं। आखिर हम जैसे जिंदादिल के मनुष्य आपका कर भी क्या सकते है?
'घबराता कौन है? और वह भी तुमसे? लाइए मेरा मैगजीन।'
'यह लीजिए।' राज अपनी असली सीट से उठा और डॉली के समीप जाकर उसे मैगजीन भेंट की।
डॉली ने कांपते हाथों से मैगजीन ले ली। राज मुस्कराता हुआ अपनी सीट पर आ बैठा। डॉली के चेहरे पर क्रोध की रेखाएं भी उतनी ही सुंदर जान पडती जितनी प्रसन्नता की।
गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी और दो यात्री उस डिब्बे में आ बैठे। डॉली की जान में जान आई। पौ फट रही थी। अंधकार धीरे-धीरे विलीन हो रहा था। डॉली ने अपना सामान संभालना आरंभ कर दिया। राज अपने सहयात्रियों के साथ बातचीत करने में लगा था। घड़ी ने आठ बजाए और गाड़ी बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नंबर छः पर आकर रुकी। 'कुली, कुली' की आवाजें चारों ओर गूंज उठीं। थोड़ी ही देर में दोनों अपना-अपना सामान उठाए स्टेशन से बाहर खड़े थे। राज खड़ा देखता ही रह गया। 'टैक्सी साहब?'
"ऊं? हां लगा दो सामान। देखो.... जेब से सेठजी का पता निकालते हुए राज बोला, कॉलेज स्ट्रीट तक जाना है। माटुंगा, कोठी नं. 115।'
‘अच्छा साहब, चलिए।' और टैक्सी माटुंगा की ओर चल दी। राज पहली बार ही बंबई आया था, फिर भी उसे सेठ साहब की कोठी ढूंढने में कोई कठिनाई न हुई। साधारण-सी पूछताछ के बाद वह उनकी कोठी पर पहुंच गया। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, कोई न था। वह सीधा सामने खुले हुए कमरे में प्रविष्ट हुआ। यह ड्राइंगरूम था। प्रवेश करते ही उसके पैरों के नाचे से मानों जमीन खिसक गई और वह घबराया हुआ देखता का देखता ही रह गया। डॉली सामने खड़ी थी।