XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 6 - SexBaba
  • From this section you can read all the hindi sex stories in hindi font. These are collected from the various sources which make your cock rock hard in the night. All are having the collections of like maa beta, devar bhabhi, indian aunty, college girl. All these are the amazing chudai stories for you guys in these forum.

    If You are unable to access the site then try to access the site via VPN Try these are vpn App Click Here

XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

डॉली ने दोनों चीजें सावधानी से अपने हाथ में ले ली। 'देखना, कहीं मुझे पछताना न पड़े!'

"ऐसा कभी हो सकता है?'

सीढ़िया उतरकर दोनों सड़क पर आ गए। वहां शामू कार लिए खड़ा था। डॉली ने कागज जल्दी से कार में फेंक दिए और दरवाजा खोला। पिछली सीट पर सेठ साहब भी बैठे थे।

राज को आश्चर्य हुआ और बोला, 'आप भी साथ ही थे क्या ?'

‘जी! परंतु इन्होंने ऊपर जाना उचित न समझा।' डॉली ने कहा।

'क्यों?'

'इसका उत्तर देने की आवश्यकता नहीं।' वह अगली सीट पर बैठ गई और शामू से कार चलाने के लिए कहा।

डॉली के तेवर बदलते देख राज ने कहा, 'अभिनय करना तो बहुत अच्छा जानती हो।' उसके स्वर में पहले जैसी गरमी थी और वह मुस्करा रहा था।

'राज अब अच्छा यही है कि तुम हमारे रास्ते से हट जाओ।' सेठ साहब ने कहा।

'इतनी आसानी से!'

'शामू कार चलाओ!'

'शामू एक मिनट ठहरना। डैडी, यदि आज्ञा हो तो एक निवेदन कर दूं।' राज बोला।

"क्या ?'

"एक बार डिब्बा और लिफाफा खोलकर देख लीजिए कि सारे कागज उसमें आ गए या नहीं?'

सेठ साहब ने पहले राज के चेहरे को देखा और फिर जल्दी से डिब्बे का ढकना उतार दिया। लिफाफे में से कागज निकाले तो होटल वाले पुराने बिल निकले। सेठ साहब के चेहरे का रंग उड़ गया।

राज अभी तक मुस्करा रहा था।

'चार सौ बीस।' सेठ साहब के मुंह से धीरे-से निकला।

'परंतु अपने गुरु से कम।'

डॉली अब तक मोटर में बैठी यह सब देख रही थी। उसका चेहरा पीला-सा पड़ गया था।

-
'अच्छा नमस्ते।' यह कह राज होटल की ओर मुड़ा।

'राज।' डॉली ने आवाज दी।

राज मुड़ा और उसके पास आकर बोला. 'आज्ञा है?'

'आखिर जीत तुम्हारी ही हुई।'

राज ने देखा, डॉली की आंखों में आंसू थे। इसके पहले कि राज उत्तर दे, शामू ने कार चला दी। राज सड़क के किनारे खड़ा का खड़ा रह गया।
 
डॉली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी। सामने की खिड़की खुली थी। नीले आकाश पर तारे आंख-मिचौनी खेल रहे थे, परंतु उनके संकेतों को चंद्रमा की सुंदर चांदनी ने फीका कर दिया था। वह उठी और खिड़की के पास जा खड़ी हुई और बाहर की ओर देखने लगी। रात्रि के अंधकार में समुद्र के जल पर बिखरी चांदनी उसे बहुत ही भली लग रही थी। अचानक किसी के पांवों की आहट सुनाई दी। किसी ने धीरे-से कमरे में प्रवेश किया और दरवाजे में चिटकनी लगा दी। डॉली संभली, शरमाई और मुंह दूसरी ओर फेरकर बाहर बिखरी हुई चांदनी को देखने लगी।

आगन्तुक धीरे-धीरे पैर बढ़ाता डॉली के समीप पहुंच गया। डॉली ने लज्जा से सिर झुका लिया।

'यह सब हमसे शर्म कैसी?'राज ने उसके सिर से चूंघट उतार दिया और उसका मुख अपनी ओर कर लिया।

अभी तक डॉली की आंखों में दो आंसू जमे हुए थे।

'मायके की याद सता रही है क्या?'

डॉली रो पड़ी। राज ने उसके हाथों से रूमाल लेकर उसके
आंसू पोंछे और बोला, 'अब भूल जाओ बीती बातों को, जो होना था वह हो चुका।'


'राज, मुझे उन बातों का कोई दुःख नहीं, परंतु हमारे बीच में अब जो घृणा का पर्दा सा पड़ गया है क्या वह हमारे भावी जीवन पर कोई प्रभाव न डालेगा?'

'यदि हम दोनों चाहे तो सब ठीक हो सकता है।'

'वह कैसे?'

"पिछली सब बातें भुलाकर।'

'परंतु तुम्हारे दिल में तो अब भी वही हठ है।'

'मुझे गलत समझने का प्रयत्न न करो। तुम सोच रही होगी कि मैं डैडी के कहने पर भी तुम्हें यहां ले आया। उनका कहना भी ठीक था कि मैं तुम्हारी कोठी में रहूं।'

'तुम्हें मेरी डैडी की ओर से....।'

'कोई शिकायत नहीं।' राज ने बात काटते हुए कहा, 'यही पूछना चाहती थीं ना? छोड़ो उन बातों को। देखो, सामने चांदनी समुद्र की लहरों से मिल-मिलकर क्या संदेश सुना रही है, इस नए स्थान को देखकर तुम्हारे हृदय में जो झिझक, भय और लज्जा है वह नई दुल्हन का वास्तविक आभूषण है। दुःख केवल इस बात का है कि तुम अपनी ससुराल में अकेली हो।'

डॉली ने देखा कि राज की आंखों में दो आंसू चमक उठे। वह उसके कुर्ते पर लगे बटन से खेलती हुई बोली, 'राज जब तुम हो तो मुझे कोई कमी नहीं है। मेरा संसार तो तुम ही हो।'

'यदि ऐसा समझती हो तो मेरा सौभाग्य है।' राज ने डॉली को अपनी बांहों में भर लिया। डॉली भी आज निःसंकोच आज राज के वक्ष से लिपट गई। छोटी-छोटी बदलियों ने थोड़ी-सी देर में घटा का रूप धारण कर लिया और चांद को अपने आंचल में छिपा लिया। चारों ओर घना अंधकार छा गया। डॉली भागकर अपने पलंग पर जा लेटी।

राज ने लपककर उसे रोकना चाहा परंतु उसके हाथ में केवल उसका दुपट्टा ही रह गया। उसने दुपट्टा एक ओर फेंक दिया और पलंग पर डॉली के निकट जाकर बैठ गया। हवा तेज होती गई। समुद्र की लहरें गर्जना-सी कर रही थी। खुली हुई खिड़की के किवाड़ जोर-जोर से बज रहे थे परंतु उन दोनों का ध्यान इस ओर न था।

……………………………

पूर्व दिशा में दिनकर ने झांका। अंधेरा पेड़ों के नीचे जा छिपा। सूर्यदेव की किरणें खिड़की के मार्ग से कमरे में आने लगीं। पर वे दोनों पलंग पर बेसुध पड़े थे। डॉली का सिर राज की छाती पर था। राज की आंख खुली तो उसने घड़ी की ओर देखा। आठ बज रहे थे। दिन चढ़ चुका था। डॉली अभी तक सो रही थी। वह डॉली की नींद खराब नहीं करना चाहता था, परंतु अपनी छाती पर से जब वह उसका सिर उठाएगा तो वह अवश्य जाग जाएगी। यह सोचकर वह उसी प्रकार लेटा रहा। पलंग पर बिखरे हुए फूल मुरझा चुके थे। फूलों के बिखरे जाल के बहुत-से धागे टूट चुके थे। राज ने उसके बालों को अपनी उंगलियों में लपेटना शुरु कर दिया और धीरे-से बोला.... 'डॉली!'

'ऊं हूं'- डॉली ने एक लंबा सांस लेते हुए कहा। परंतु उसकी आंखें अभी तक बंद थी।

'डॉली उठो। देखो, दिन निकल आया है।'

'तो क्या हुआ, तुम्हें कौन-सा दफ्तर जाना है?'उसने उठते हुए कहा।

'अच्छा जी! अभी से ऐसी बातें!'

'तो क्या बुढ़ापे में ऐसी बाते करोगे?'

राज हंस पड़ा और बोला, 'तुम जो कहो सिर आंखों पर।'

'राज तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुई। भविष्य के लिए क्या सोचा?'

'अभी से इसकी तुम्हें चिंता क्यों? वह मेरा काम है और मैं
जानता हूं कि मुझे क्या करना है।'

'आखिर मुझे भी तो कुछ पता चले।'

'तुम्हें क्या लेना है यह पूछकर?'

'मैं जीवन की आधी भागीदार जो हूं।'

'अच्छा यह बात है। धीरज रखो, सब जान जाओगी।' यह कहकर राज उठा और नहाने चला गया। नहा-धोकर दोनों ने साथ जलपान किया और तैयार होकर डैडी की कोठी जा पहुंचे। डॉली के कहने पर सेठ साहब राज को फिर फैक्टरी में लेने को तैयार हो गए, परंतु यह सब कुछ होने के बाद भी उसने अपने ससुर की नौकरी की अपेक्षा यही ठीक समझा कि वह चंद्रपुर लौट जाए। राज का विचार था कि इस अवधि में वह अकेला चंद्रपुर जाकर अपनी हवेली का नक्शा बदल दे और कुछ नए ढंग का फर्नीचर लगा दे।

कुछ ही दिनों में डॉली राज के समीप आ गई ताकि राज और उसके बीच किसी प्रकार का संदेह शेष न रह जाए। राज उसकी प्रत्येक चेष्टा को बहुत ध्यान से देखता और यह ढूंढने का प्रयत्न करता कि उसमें कहीं कोई छल न हो। पिछली बातों के कारण दोनों के हृदय में एक शंका-सी थी।


जैसे-जैसे दिन बीतते गए डॉली उदास होती गई। वह सोचती कि इस प्रकार जीवन वह कैसे बिताएगी। यदि चंद्रपूर चली गई तो और भी अकेली हो जाएगी। न मित्र, न कोई सहेली, न कोई सोसाइटी और न कोई मनोरंजन का साधन। क्या वह अपना जीवन उन जंगलों में इसी प्रकार काट देगी?
 
कुछ दिन बाद राज चंद्रपुर चला गया। उसने डॉली से चलने के लिए कहा परंतु वह न गई और बोली, 'जाना तो है ही, कुछ दिन और यहां रह लूं। डैडी को भी अकेला छोड़ा नहीं जाता।'

एक दिन जब वह अपने बाग में अकेली कुर्सी पर बैठी कोई मैगजीन पढ़ रही थी तो दरवाजे पर बाहर उसने जय को जाते देखा। जय ने डॉली को देखते ही अपना मुंह फेर लिया। डॉली ने सब-कुछ देखा और उसे आवाज दे दी। जय दो-चार कदम चलकर रुक गया। एक क्षण के लिए उसने सोचा कि वह सुनी-अनसुनी करके निकल जाए, परंतु जब उसने डॉली को अपनी ओर आते देखा तो वह रुक गया।

'आओ, आगे आ जाओ।' डॉली बोली।

'क्यों, क्या बात है?'

'आओ, आकर बैठो, कोई खा तो नहीं जाएगा जो व्याकुल हो।'

जय चुपचाप डॉली के साथ हो लिया और दोनों जाकर बाग में बैठ गए। जय मौन था।

डॉली ने उसे इस प्रकार बैठे देखा और कहा, 'जय मैं जानती हूं कि तुम क्या सोच रहे हो, परंतु मैं विवश थी।'

'वह सब मैं माला से सुन चुका हूं, परंतु मुझे तो किसी पर कोई विश्वास ही नहीं रहा। कौन ठीक कहता है और कौन गलत, यह तो केवल भगवान ही जानता है या तुम।'

'मैं तुम्हें किस प्रकार विश्वास दिलाऊं कि जो कुछ माला ने तुमने कहा है वह बिल्कुल सच है।'

'खैर जाने दो, अब मुझे क्या लेना है पुरानी बातों को कुरेद कर!'

‘परंतु मेरी विवशता को देख मुझे क्षमा तो कर सकते हो।'

'इससे क्या अंतर पड़ता है।'

'हृदय का संतोष ही सही।'

'यदि तुम इतने से ही संतुष्ट हो सकती हो तो इसमें क्या आपत्ति है?'

'तो एक बार कहो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया।'

'डॉली मुझे लज्जित क्यों करती हो?'

'क्या अब भी तुम्हारे हृदय में मेरे लिए कुछ आदर है?'

'क्यों नहीं, मैं इतना नीच नहीं कि अपने स्वार्थ-साधन के लिए किसी की पगड़ी उछाल दूं। मिलना न मिलना तो लगा रहता है
'तुम्हारा इशारा शायद....।'

'हां डॉली, राज की ओर है। मैं जानता हूं कि अब तुम उसकी जीवन-संगिनी बन चुकी हो परंतु तुम उसके साथ सुखी जीवन नहीं बिता सकतीं।'

"यह तुम कैसे कह सकते हो?'

'जो मनुष्य तुम्हारे डैडी द्वारा किए गए उपकार भूलकर उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार कर सकता है, क्या यह संभव नहीं कि वह कल तुम्हारी किसी बात पर तुम्हें इससे भी अधिक पतित बनाए।'

'परंतु जय, वह मुझसे सच्चे हृदय से प्रेम करता है।'

'केवल उस समय तक जब तक तुम उसकी हां में हां मिलाती रहोगी या वही करोगी जो वह चाहेगा।'

'परंतु वह तो मेरी प्रत्येक बात मानता है।'

'इसीलिए तो वह तुम्हें चंद्रपुर ले जाना चाहता है, उन सूनी पहाड़ियों में। वह भी तो शायद तुम्हारी ही इच्छा से है!'

'नहीं-नहीं, ऐसी बात तो नहीं है।'

'तुम्हारा शेष जीवन उन पहाड़ियों में ही समाप्त हो जाएगा। सच पूछो तो मुझे तुम पर तरस आता है।'

'परंतु जय, अब मैं कर भी क्या सकती हूं?'
'मनुष्य चाहे तो क्या नहीं कर सकता?'

'परंतु अब तो मेरे पैर समाज की जंजीरों में जकड़े जा चुके
'यदि तुम चाहो तो उनको तोड़ भी सकती हो।'

"परंतु लोग क्या कहेंगे?'

"उनको पता भी न चलेगा।'

'वह कैसे?'

'देखो डॉली, तुम एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हो। भगवान की दया से पढ़ी-लिखी हो, सुंदर हो, रुपया-पैसा है। फिर जो चाहो कर सकती हो।'

'परंतु मुझे करना क्या है?'

'जो तुम करना चाहती हो, परंतु मुंह से कहना नहीं चाहती।'

'मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।'

'क्या तुम यही नहीं चाहती कि बंबई में रहो!'

"क्यों नहीं!'

'क्या तुम्हारे हृदय में यह अभिलाषा नहीं कि जिसके साथ चाहो हंसो, खेलो, क्लब में जाओ, पिकनिक, सिनेमा द्वारा अपना मनोरंजन करो?'

'क्यों नहीं।'

'तो क्या अब तुम एक मनुष्य की दासता के कारण अपने जीवन के सुख को समाप्त कर दोगी?'

'यह तो तुम ठीक कहते हो, परंतु राज को क्यों कर मनाऊं?'

'कोशिश करो, स्त्री चाहे तो क्या नहीं कर सकती और फिर तुम चाहो...।'

"यदि मना भी लिया जाए तो भी वह ऐसे स्थान पर जाना पसंद न करेगा जहां तुम और हम जाकर प्रसन्न होते हो।'

'वह न जाए तुम तो जा सकती हो। जब तुम यहां रहोगी तो वह दबकर रह सकता है। उसके लिए तुम अपने जीवन को नीरस थोड़े ही बना लोगी?'

'अच्छा देखो क्या होता है। आओ पहले चाय पी लो।'

'नहीं, देर हो रही है, फिर कभी सही।'

'आओ न, तुम तो लड़कियों की तरह नखरे करने लगे।' डॉली ने चाय मंगाई और दोनों बैठकर पीने लगे।
 
जय ने बातों ही बातों में डॉली के सब निश्चय बदल डाले। कहते है मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर शीघ्र खिंच जाता है। डॉली भी जय की बातों में आ गई। जय के चले जाने पर डॉली मन ही मन सोचने लगी, जय ठीक ही तो कहता है। चंद्रपुर जाने पर तो वह एक बंदी के समान हो जाएगी और राज के संकेतों पर नाचना पड़ेगा। यदि वह बंबई में उसके घर रहे तो कोई अनुचित मनमानी न कर सकेगा और यहां उसे इच्छानुसार सब कुछ करने के लिए किसी की आज्ञा की आवश्यकता न होगी। मैं राज की पत्नी अवश्य हूं परंतु मेरी स्वतंत्रता छीनने का तो उसे कोई अधिकार नहीं। यदि वह किसी प्रकार की कठोरता का व्यवहार मुझसे करेगा तो मैं भी देख लूंगी और न जाने कितनी देर वह इसी प्रकार सोचती बैठी रही।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
दो-चार दिन बाद राज का एक पत्र डॉली को मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह जल्दी ही अपना कारोबार जमाकर उसे लेने के लिए आएगा। डॉली ने पत्र पढ़ा और बड़बड़ाकर बोली, 'लेने आएगा। जैसे सब उसी की चलती है।' वह डैडी के पास गई। वह चंद्रपुर कभी न जाएगी। वह किसी प्रकार राज को यहां रोक लें। डैडी ने सांत्वना दी। वह प्रयत्न करेंगे। डॉली स्वार्थी होती जा रही थी। राज का प्रेम उसे एक दिखावा-सा जान पड़ा। वह प्रतिदिन जय के साथ घूमने जाती। जय भी जले पर तेल का काम करने लगा। वह डॉली को राज के विरुद्ध भड़काता।


इसी प्रकार दिन बीतते गए। सेठ श्यामसुंदर ने डॉली का जय से आवश्यकता से अधिक मिलना पसंद न किया, परंतु वह बातों ही बातों में उन्हें टाल देती - वह तो एक मित्र के नाते उससे मिलने चला आता है और कौन है जिसके साथ वह बाहर घूमने जाए। आपको तो समय ही नहीं मिलता। डॉली कहती।

सेठ साहब अपनी लड़की की बात सुनकर मुस्करा देते और कहते, 'अब तुम सयानी हो, जो चाहो करो। जरा राज के साथ सावधानी से चलना। कुछ लोग इतनी स्वतंत्रता पसंद नहीं करते।'

शाम के साढ़े पांच बजे थे। टैक्सी सेठ साहब की कोठी के सामने रुकी और राज सामान लेकर उतरा। आज वह पूरे दो महीने बाद वापस बंबई आया था। उसने आने की सूचना किसी को नहीं भेजी थी। वह बरामदे में पहुंचा। इधर-उधर देखा। कोई न था। संध्या का समय था। शायद कहीं बाहर गई, यह सोचकर उसने कमरे की ताली उठाई और जाकर दरवाजा खोलने लगा। आहट पाकर किशन आ पहुंचा और राज को देखकर बोला, 'राज बाबू, कब आए?'

'बस आ ही रहा हूं। देखो बरामदे में सामान रखा है, उठा लाओ।'

'बहुत अच्छा।' यह कहकर किशन जाने लगा।

"किशन, जरा सुनो तो।'

'जी।'

'डॉली कहां है?'

'वह तो सिनेमा देखने गई हैं, जय बाबू के साथ।'

"किसके साथ?' उसने फिर पूछा।

'वह सामने वाले बंगले में हैं ना जय बाबू उनके साथ।'

'क्या जय रोज यहां आता है?'

'पहले तो कभी-कभी आते थे, परंतु कई दिन से रोज ही आते है
'अच्छा तो बता कर गई है कि सिनेमा जा रही है!'

'जी, मुझसे तो कुछ नहीं कहा। वह जाने को मना कर रही थीं तो जय बाबू ने कहा, 'पास ही 'अरोरा' में जा रहे हैं। घर लौटने में देर भी न होगी।'

'अरोरा टॉकीज में! देखो तुम सामान रखो, मैं अभी आता हूं।' यह कहकर राज उल्टे पैर बाहर चला गया।

'मुंह-हाथ धोते जाइए।'

'अभी आ रहा हूं।' राज ने बाहर जाते-जाते उत्तर दिया।
 
जय और डॉली दोनों सिनेमा देख रहे थे। जब इंटरवल हुआ तो दोनों ने निगाहें पर्दे से हटाकर एक-दूसरे को देखा और मुस्करा दिए। अंधेरे के कारण दोनों की आंखों में कुछ पानी-सा भरा हुआ था। जय का हाथ डॉली की कमर में था।

'क्यों जी, बाहर चलना है?' जय ने हाथ कमर में से निकालते हुए पूछा।

'क्या करेंगे।'

'पानी....।'

'मुझे प्यास नहीं।'

'क्यों, पिक्चर पसंद आ रही है?'

'पिक्चर तो जो है सो है, परंतु भय से प्राण निकले जा रहे है

'क्यों भय कैसा? डैडी से कह देना कि माला के साथ सिनेमा चली गई थी।'

'डैडी भला क्या कहते? जो थोड़ा-बहुत कहते थे, विवाह के बाद उसकी भी छुट्टी हो गई है।'

'तो फिर भय किस बात का?'

'ऐसे ही, न जाने मन में एक भय-सा क्यों बैठा हुआ है। सोचती हूं कि कहीं राज न आ गया हो!'

'आने से पहले सूचना तो देगा।'

'कभी-कभी वह सूचना दिए बिना भी आ जाता है।'

'आ भी जाए तो क्या हुआ? छोड़ो भी कैसी बात छेड़ी है, सारा मजा किरकिरा हो गया। वह क्या पास खड़ा है जो इतना डर रही हो?'

'यदि यहीं बैठे किसी परिचित व्यक्ति ने उसे इसकी सूचना दे दी तो?'

'यहां ऐसा है ही कौन। यह कहकर जय ने अपने चारों ओर बैठे हुए लोगों की ओर देखना शुरु किया और घूमकर पिछली सीटों पर भी देखा। अचानक उसकी दृष्टि पहली सीट पर ही रुक गई। वह आंखे फाड़-फाड़कर देखने लगा।'

'क्यों? क्या बात है?' डॉली ने घूमकर पीछे देखा और उसके मुंह से अनायास ही निकल गया,

'राज तुम!' और डॉली को काटो तो खून नहीं। राज का मुख लाल हो रहा था। उसकी आंखें जलते हुए अंगार के समान दिखाई दे रही थीं। राज ने उन दहकते अंगारों से डॉली की ओर देखा और अपनी सीट छोड़कर बाहर निकल गया। डॉली भी उसके पीछे-पीछे बाहर निकल आई। वह सिनेमा के एक स्तंभ के पास मौन खड़ा था। डॉली उसके निकट पहुंची और धीरे-से बोली, 'राज!'

'क्या कुछ और सुनना बाकी है जो....।' क्रोध से राज के होंठ कांप उठे।

'देखो, चारों ओर खड़े मनुष्य क्या कहेंगे! चलो घर चलें।'

'तुम अंदर जाओ। कहीं उस बेचारे का मजा किरकिरा न हो जाए।' और यह कहता हुआ वह सिनेमा के बरामदे से बाहर आ गया और तेजी से फुटपाथ पर पैर बढ़ाता हुआ अपने घर की ओर जाने लगा।

डॉली जब घर पहुंची तो राज को उसने अपने कमरे में लेटे रोते पाया। डॉली उसके निकट बैठ गई। उसका हृदय भर आया। ममतामयी नारी मानों थोड़ी देर के लिए उमड़कर बाहर आ निकली और वह राज के सिर पर हाथ फेरते हुए मुस्कराकर बोली 'कैसी अनोखी बात है। पुरुष भी क्या इस प्रकार रोया करते हैं?'

'ठीक कहती हो।' राज धीरे-से बोला, 'पुरुषों का रोना शोभा नहीं देता। मेरी आंखों में देखा। अब वह रो चुकी हैं। वे आंसू सूख चुके हैं। भविष्य में यह भूल मुझसे न होगी।' वह उठ बैठा।

डॉली ने अपनी बांहें उसके शरीर के चारों ओर लपेटते हुए कहा, 'मुझसे नाराज हो?'
 
'मेरे नाराज होने से क्या होता ही क्या है?'

'यदि तुम रूठ गए तो....।'

'जय जो है।' राज ने बात काटकर कहा।

'यह तुम क्या कह रहे हो राज?'

'मैं ठीक कह रहा हूं। मुझे आज पता चला कि तुम किस प्रकार अपनी मर्यादा खो बैठी हो।'

'मुझे तुमसे यह आशा न थी।'

'और डॉली मुझे भी....।'

'आज न जाने कितने दिनों बाद वह मुझसे मिलने आया था। तो न जाती, परंतु उसके बहुत कहने पर मुझे उसकी बात रखनी ही पड़ी। यदि तुम्हें यह भी पसंद नहीं तो मैं कभी
उससे बात न करूगी।'

'यह तो मैं जानता ही हूं कि वह कितने दिनों बाद आया था। खैर, इस वाद-विवाद से क्या लाभ! मेरा दृष्टिकोण इतना संकीर्ण नहीं।'

'तभी तो पीछा करते-करते सिनेमा तक पहुंच गए। यदि तुम्हारे हृदय में अभी इस प्रकार का संदेह है तो मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हमारे भावी जीवन में क्या होगा?'

'क्या होगा, वह मैं भली प्रकार जानता हूं, अब चलने की तैयारी करो।'

"कहां?'

'चंद्रपुर।

'कब?'

"जितनी जल्दी हो सके।

"दो-चार महीने तो....।'

'महीने नहीं, दिनों में।'

'परंतु इतनी जल्दी क्या है?'

'तुम्हें जल्दी नहीं तो मुझे तो है।'

'और यदि मैं न जाना चाहूं तो...।'

'इंकार सुनने की मुझे आदत नहीं, मेरा यह अंतिम निर्णय है।'

'राज, मैं वहां अकेली किस प्रकार रहूंगी?'

"मैं जो साथ हूं, तुम्हारा जी बहलाने के लिए।'

डॉली ने बहुत चाहा कि वह बंबई रुक जाए परंतु राज उसके सामने एक चट्टान के समान था। उसने रोकने के लिए विनय, अनुरोध, क्रोध, छल प्रत्येक संभव चेष्टा की परंतु राज के सामने उसकी एक न चली।

राज के सामने डॉली के सब प्रयत्न असफल रहे। राज के प्रेम के साथ यदि छल हुआ तो वह सहन कर लेगा, परंतु उसके विश्वास को धोखा देने वाले व्यक्ति को वह कभी क्षमा न करेगा।
*
 
संध्या का समय था। सूर्य अस्त होने ही वाला था। दूर पहाड़ों में उसकी किरणें फटती हुई सारे आकाश पर फैल रही थीं। ऐसा जान पड़ता था मानों आकाश पर आग-सी लग रही हो। पहाड़ के ऊपर आने वाली एक छोटी सी सड़क पर एक व्यक्ति तेजी से चल रहा था। यह राज था, उसके कुछ पीछे डॉली एक घोड़े पर बैठी धीरे-धीरे ऊपर की ओर जा रही थी। साथ ही दो-तीन घोड़ों पर सामान लदा था। राज संतुष्ट था, मानों कोई बहुत बड़ी पहेली जीतकर परस्कार संभाले घर लौट रहा हो। बात ही ऐसी थी। उसके जीवन की पहेली तो यही थी... डॉली।।

और यही सोचते-सोचते वह हवेली पहुंच गया। मुनीमजी और हरिया राज और उसकी बहू को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। घर में और कोई न था, उन्होंने ही अपनी रीति के अनुसार डॉली का स्वागत किया। चंद्रपुर की सबसे बड़ी हवेली बाहर से डॉली को ऐसी जान पड़ी मानों कोई अस्तबल हो, परंतु जब भीतर गई तो उसके हृदय को कुछ संतोष हुआ। अंदर सब कमरे मॉडर्न फर्नीचर से सजे हुए थे। बैठने के कमरे में कालीन, सोफा, रेडियो आदि सब उपस्थित थे। सोने और बनाव-श्रृंगार के कमरों में भी प्रत्येक आवश्यक वस्तु रखी थी। मुनीमजी और हरिया सामान संभालने में लग गए। राज घोड़े वालों को किराया आदि देने में लग गया था। डॉली धीरे-धीरे कमरे में से होती हुई पीछे मुंडेर पर जा खड़ी हुई और नीचे पहाड़ों की घाटियों को देखने लगी। हवेली के पीछे मुंडेर के नीचे एक छोटी-सी नदी बहती थी। डॉली एकटक उसी ओर देख रही थी। अंधेरा बढ़ता जा रहा था।

राज डॉली को ढूंढता हुआ वहां आ निकला और मुस्कराते हुए बोला, 'क्यों डॉली, कैसा है यह स्थान?'

'धीरे-धीरे पता चलेगा, अभी से क्या कह सकती हूं?'

'परंतु फिर भी जो देखा है उसके बारे में तो कुछ धारणा होगी।'

'जो देखा है, उसमें यह मुंडेर सबसे पसंद आई है।' डॉली ने कहा।

"यह स्थान पिताजी ने संध्या समय बैठने के लिए बनवाया था। वह कहते थे कि यहां बैठकर जब वह यह नदी, अपने लहलहाते खेत और यह छोटी-छोटी दौड़ती पगडंडियां देखते हैं, तो उनके हृदय को संतोष-सा प्राप्त होता है। डॉली, मेरा यह विश्वास है कि यह स्थान तुम्हारे हृदय को शांति प्रदान करेगा।'

'परंतु मैंने तो किसी और विचार से ही इसे पसंद किया है।'

"किस विचार से?'

'मेरा हृदय शांति पा सके या न पा सके परंतु जीवन अवश्य....।'

'वह कैसे? मैं भी तो सुनूं।'

'यदि मैं कभी अपने जीवन से ऊब गई तो चुपके से यहां बैठी-बैठी नदी में कूद पड़ेंगी।'

'तुम्हें संध्या समय ऐसी अशुभ बातें मुंह से न निकालनी चाहिए। चलो, अंदर चलो, अंधेरा हो रहा है।'

दोनों ने मुंह-हाथ धोकर कपड़े बदले। इतने में हरिया ने खाना तैयार कर दिया। दोनों मिलकर खाने बैठे। उसने डॉली से पूछा, 'क्यों, क्या बात है। बहुत उदास दिखाई देती हो?'

'प्रसन्न होने की बात ही क्या है?'

'नई जगह है ना, अभी तुमने चंद्रपुर में देखा ही क्या है। देखना, मैं तुम्हारा मन इस प्रकार लगाऊंगा कि तुम जाने का नाम भी न लोगी।'

'जब मन ही न हो तो उसे तुम लगाओगे क्या?'

'डॉली, मेरे होते हुए तुम्हें इस प्रकार की बातें नहीं करनी चाहिए। शाम को मुंडेर पर भी तुमने ऐसी ही अजीब बात कह डाली थी, परंतु मैं मौन रहा। यदि मनुष्य चाहे तो प्रत्येक वातावरण में प्रसन्न रह सकता है।'

'इसीलिए तो कहती थी कि यदि मैं प्रसन्न नहीं रह सकती तो किसी दूसरे की प्रसन्नता क्यों छीनूं! जीवन समाप्त हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा।'

'मेरे जीवित रहते तुम ऐसा नहीं कर सकतीं। यह दूसरी बात है कि मैं कल इस संसार से... अच्छा जाने दो इन बातों को। तुम थकी हुई हो, सो जाओ।' यह कहकर राज ने बत्ती बंद कर दी और सो गया।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सवेरा होते ही राज जल्दी से तैयार होकर अपने खेतों की ओर चला गया। उसने थोड़े ही दिनों में अपना सारा कारोबार अपने हाथों में ले लिया। नियमानुसार वह काम पर जाता, समय पर वापस आ जाता, परंतु डॉली इस नए वातावरण के अनुकूल अपने आपको न बना पाती। क्या वह अपना सारा जीवन इसी प्रकार बिताएगी! बिता सकेगी वह? कहां बंबई की चमक-दमक, सखी-सहेलियों का मिलना-जुलना, कितना सुख भरा पड़ा था उस जीवन में! और इधर इस गांव का सूनापन... राज का प्रेम! उधर राज के हृदय में डॉली के लिए वही भाव थी। वह उसे प्रसन्न रखने का हर संभव प्रयत्न करता। कहते हैं कि मनुष्य एक समुद्र की भांति है जिसका जल लहरों के प्रवाह से दूर-दूर तक जाकर फिर तट से जा टकराता है। डॉली एक ऐसे प्रवाह में बह रही थी कि राज के उद्गारों को अनुभव भी न कर पाती। उसके हृदय में राज के लिए एक घृणा-सी पैदा होती जा रही थी और वह यही चाहती थी कि किसी प्रकार वह चंद्रपर से निकल भागे।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
रात आधी बीत चुकी थी। सब सो रहे थे। राज की आंख खुली तो उसने अंधेरे में ऐसा अनुभव किया मानों डॉली अपने बिस्तर पर न हो। उसने दो-तीन बार डॉली को पुकारा। कोई उत्तर न पाकर वह उठा और शय्या के पास जाकर देखा, डॉली बिस्तर पर न थी। वह दरवाजे की ओर बढ़ा। किवाड़ खुले थे। इतनी रात को अकेली कहां गई होगी? यह सोचकर वह अपनी टार्च लिए मुंडेर की ओर हांफता उसके निकट पहुंचा। उसकी सांस जोर-जोर से चल रही थी। उसने अस्फुट स्वर में कहा, 'डॉली... इस समय...यहां... तुम क्या कर रही हो?'

'नींद नहीं आ रही थी। हवा में बैठने के विचार से ऊपर चली आई।'

'इतनी रात में! अनोखा स्वभाव है तुम्हारा। मेरे तो प्राण निकले जा रहे हैं।'

'इसमें प्राण निकलने की क्या बात थी? मैं नदी में कूदने के लिए तो नहीं आई थी। उसने लापरवाही से उत्तर दिया।

राज को मानों किसी ने तमाचा मारा हो। धीरे-से बोला, 'क्षमा करना, अभी भगवान ने इतनी शक्ति नहीं दी कि तुम यह कर सको और न ही अभी तुम जीवन से इतनी तंग आ गई हो?'

'यह तुम कैसे जानते हो?'

इसलिए कि अभी मैं जीवित हूं। उसने उसी प्रकार अपनी बांहें डॉली की कमर में डालीं और अपने साथ नीचे ले जाकर उसे बिस्तर पर लिटा दिया। "डॉली, तुम जानती हो कि मन व्याकुल क्यों होता है?'

'मुझे जानने की आवश्यकता नहीं।'

'जानने में हानि भी क्या है। लो सुनो, मैं बताता हूं। मां बालक का सिर चूमती है ताकि उसका जीवन बना रहे। पिता बालक का माथा चमता है ताकि उसका यौवन बना रहे और वह उसका सहारा बन सके। मित्र और सहेलियां एक-दूसरे के गाल चूमते हैं ताकि मुख का सौंदर्य बना रहे और प्रेमी अपने प्रेमिका के होंठ चूमता है ताकि उसके यौवन का सारा माधुर्य वह चूस ले और उसके सहारे जी सके।'

डॉली मौन थी। राज ने उसे धीरे-से झिंझोड़ते हुए कहा, 'क्या सो गई?'

'नहीं तो। ऐसे ही तुम्हारे बे-पैर को सुन रही थी।'

'यह बे-पैर की नहीं, वास्तविकता है।' यह कहकर राज उठा और अपने पलंग पर जा लेटा। उसे धीरे-धीरे अनुभव होने लगा कि डॉली उससे घृणा करती है। उसके हृदय को ठेस लगी। राज अब डॉली को संदेह और घृणा की दृष्टि से देखने लगा।

डॉली भी यह बात ताड़ गई। अब उसे राज से डर लगने लगा। जब वह अपनी तीखी दृष्टि डॉली पर डालता तो वह सहम जाती। डॉली सोचती कि अब उसके लिए दो ही मार्ग हैं। आत्महत्या अथवा अपेक्षा।

राज के हृदय में अब यह भय था कि उसकी अनुपस्थिति में डॉली कहीं चली न जाए। उसने हरिया और चौकीदार को समझा कर चौकन्ना कर दिया।

विष्णु हवेली के चौकीदार का भाई था। उसे पहलवानी का बहुत शौक था। वह प्रायः अपने भाई से मिलने के लिए आया करता था और कई-कई दिन वहीं पड़ा रहता। जब कभी भी वह आता अपने साथ फल आदि ले आता, कुछ अपने भाई के लिए और कुछ उसके स्वामी राज के लिए। इन दिनों जब भी वह भीतर फल देने जाता तो डॉली का उससे सामना होता और वह फलों के बदले उसे पुरस्कार दे दिया करती। वह पुरस्कार पाकर बहुत प्रसन्न होता और अपनी फटी-फटी नजरों से डॉली को देखा करता। डॉली उसे इस प्रकार निहारते देख कर मुस्करा देती और वह उसे देखकर फूला न समाता।

नित्य की भांति एक दिन जब विष्णु ने फलों को टोकरा डॉली के सामने रखा तो डॉली ने मुस्कराते हुए उसकी हथेली पर दस रुपये का नोट रख दिया। वह आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। आज एक के स्थान पर दस क्यों?

डॉली उसे आश्चर्यचकित देखकर बोली, 'तुम्हारा इनाम! तुम बहुत अच्छे हो।'

विष्णु फूला न समाया और दस का नोट पल्ले से बांध वापस जाने लगा। जब वह दरवाजे तक पहुंचा तो डॉली ने उसे आवाज दी 'क्यों विष्णु, मैं तुम्हें कैसी लगती हूं?'

डॉली का यह एक अनोखा प्रश्न था जिसे सुनकर विष्णु धर्म-संकट में पड़ गया। कुछ देर चुप रहने के बाद बोला - 'मैं कुछ समझा नहीं बीबीजी।'

"मेरा मतलब यह है कि तुम्हें मेरा स्वभाव पसंद है?' ।

'क्यों नहीं?' वह हंसते हुए बोला, 'आप जैसी देवियां भला किसे अच्छी नहीं लगतीं?'

"तो तुम मेरा एक काम करोगे?'
 
'मैं इसे अपना सौभाग्य समझूगा कि आपके किसी काम आ सकूँ।'

'तो मैं तुम पर विश्वास करू?'

'यह कहने की क्या आवश्यकता है? आप चिंता न करे।'

'यदि तुम यह काम करो तो मैं तुम्हें एक सौ रुपया इनाम दूंगी।'

'जान पड़ता है कि काम बहुत कठिन है जिसके लिए आप इतना अधिक इनाम....'

'ठीक है, परंतु घबराने की कोई बात नहीं। आओ, अंदर आ जाओ।' डॉली यह कहकर कमरे के अंदर चली गई। विष्णु धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे कमरे में आया और जाकर निःसंकोच डॉली के समीप ही बैठ गया। डॉली ने उसके कान में कुछ कहा। पहले तो उसने सिर हिला दिया परंतु डॉली के बहुत कहने पर उसने हां कर दी। थोड़ी देर तक वे इसी प्रकार बातें करते रहे। जाते समय डॉली ने विष्णु के हाथ में दस-दस के दो नोट रखे और बोली, 'बाकी इनाम काम हो जाने पर।'

राज संध्या को घर लौटा। अंधेरा बहुत हो चुका था। कपड़े उतार कर उसने डॉली के साथ खाना खाया। डॉली आज प्रसन्न दिखाई देती थी। जब वह हवेली के दरवाजे बंद करने गया तो डॉली भी उसके साथ थी। उसने ताले लगाए और चाबियों के गुच्छे को बहुत ही सावधानी से हाथ में लेकर कमरे की ओर जाने लगा। डॉली ने अपना हाथ राज की कमर में डाल दिया। राज जब बरामदे की सीढ़ियां चढ़ने लगा तो उसने देखा कि कोने वाली हौदी का दरवाजा खुला है। वह उल्टे पैर लौटा, 'न जाने कितनी बार इन लोगों से कहा है कि दरवाजा बंद रखा करें परंतु कोई सुनता ही नहीं', यह कहते-कहते उसने दरवाजे का पल्ला उठाया। उसे ऐसा जान पड़ा जैसे हौदी की सीढ़ियों पर कोई बैठा हो। उसने आवाज दी, 'कौन है?'

'मालिक मैं।'

'कौन तुम? विष्णु! यहां क्या कर रहे हो?'

'मैंने सोचा कि रात को बाहर पानी लेने कौन जाए। सोचा कि सीढ़ियों से उतरकर नदी में से भर लूं।'

'यदि जरा पांव फिसल जाता तो सीधे स्वर्ग की सैर करते। तुम्हारा दिमाग भी पहलवानी करते-करते मोटा हो गया है। देखो इसे बंद कर दो।' 'कल इन तख्तों में एक कुण्डी लगवा देंगे।'

यह सुनते ही विष्णु ने तख्ते बंद किए और राज डॉली को साथ ले अपने सोने वाले कमरे में चला गया।

डॉली ने कहा, ' इसमें इतना पानी तो नहीं कि कोई फिसल जाए।'

'अभी तो नहीं परंतु आगे चलकर बरसात में देखना, ये सब सीढ़ियां पानी में बिल्कुल डूब जाएंगी।'

'आपने जब विष्णु से कहा तो मैं डर-सी गई।'

'वह तो मैं ऐसे ही डरा रहा था ताकि फिर कभी वहां जाने का साहस न करे।'

'कितने अच्छे हैं आप!'

'यह तुमने अनुभव किया। अनोखी बात है।' राज ने बिस्तर पर लेटते हुए उत्तर दिया। डॉली राज के पास आकर लेट गई और अपना सिर राज की छाती पर रख दिया। उसके बटनों को खोलते और बंद करते हुए बोली, 'यदि सवेरे का भूला सांझ को...।'


'ठीक है डॉली।' राज ने बात काटते हुए कहा, 'ऐसी बात न करों, मेरे हृदय को दुःख पहुंचता है।' राज ने डॉली को प्यार से अपनी बांहों में ले लिया।

डॉली उसके और समीप आ गई और उसकी आंखों में आंखें डालकर देखने लगी। बोली, 'कैसे लग रहे हैं मेरे होंठ?'

राज के आश्चर्य का ठिकाना न । उसने कहा, 'नटखट कहीं की!' और डॉली को अपने हृदय से लगा लिया। 'अच्छा डॉली, अब तुम आराम करो।' राज ने डॉली का हाथ दबाते हुए कहा और वह उठकर अपने बिस्तर पर जा लेटी। राज भी आंखें बंद करके सोने का प्रयत्न करने लगा। वह हैरान था कि आज डॉली को क्या हो गया है, इतनी प्रसन्न तो वह विवाह के बाद आज ही हुई है। कुछ देर बाद जब डॉली को विश्वास हो गया कि राज सो गया है तो वह चुपके से उठी। उसने समीप रखी मेज के नीचे से एक अटैची निकाली जिसमें शायद उसके गहने इत्यादि थे। धीमे-धीमे पैर बढ़ाती हुई वह दरवाजे के पास जा पहुंची। उसने धीरे-से किवाड खोले और बाहर निकल गई। भयानक काली रात थी। हवा बहुत तेज चल रही थी। घास के खेत सांय-सांय कर रहे थे। हौदी के पास विष्णु पहले से ही बैठा था। उसने तख्ता उठाया और डॉली को साथ लेकर नीचे उतर गया। उसने तख्त उसी प्रकार बंद कर दिया। हौदी के अंदर बहुत अंधेरा था। विष्णु ने अपना हाथ फैला दिया और डॉली उसके हाथ का सहारा लेकर उसके साथ-साथ आगे बढ़ने लगी। नदी का पानी कुछ फुट की ही दूरी पर था, परंतु वहां तक पहुंचने के लिए भी भयानक दलदल में से होकर जाना था। वहां धूप न पहुंचने के कारण बहुत दुर्गध थी। डॉली ने अपनी नाक बंद कर ली और विष्णु से पूछा, 'सब तैयार है?'
 
'जी, मालिकन, सड़क पर घोडागाड़ी तैयार है और आप आसानी से सवेरे चार बजे की गाड़ी पकड़ सकती हैं।'

'अब हम बाहर किस प्रकार निकलेंगे? अंधेरा बहुत है।'

'अब घबराने की बात ही क्या है? नदी के किनारे तक तो पहुंच गए। पहले पत्थर का सहारा लेकर मैं ऊपर चढ़ता हूं। फिर आपको पकड़कर खींच लूंगा।'

'यह शोर कैसा है?' 'ऐसे ही हवा के तेज चलने से नदी की रेत उड़ रही है और घास के खेत शोर मचा रहे है।'

'इस अंधेरे में कहीं पांव न फिसल जाए!'

"मेरी जेब में दियासलाई थी। देखता हूं।' कहकर विष्णु ने अपनी जेब टटोलनी शुरु की और दियासलाई निकालकल जला दी। प्रकाश होते ही डॉली की चीख निकल गई। सामने राज चमड़े का हंटर लिए खड़ा था। डॉली उसे देखते ही आश्चर्यचकित हो गई और उल्टे पैर लौट पड़ी। उसके कानों में हंटर की आवाज आ रही थी और साथ ही राज के मुंह से निकलती हुई गालियां। 'नमकहराम... कमीने।'

डॉली भागते-भागते अपने कमरे में पहुंची। उसके सब कपड़े कीचड में लथपथ थे। वह भयभीत थी। बार-बार उसके सामने राज की भयानक आकृति आ जाती। जैसे वह उसकी ओर बढ़ा आ रहा हो और मानों हंटर उसके शरीर को उधेड़कर रख देगा।

थोड़ी ही देर बाद राज कमरे में आया। पैरों की आहट सुनते ही डॉली दरवाजे के पीछे छिप गई। आते ही उसने बत्ती जलाई और डॉली को पुकारा। डॉली डरती-डरती कुछ सहमी-सी दरवाजे के पीछे से निकली।

राज बोला, 'क्या इससे अधिक कोई पतित मार्ग न था?' डॉली मौन खड़ी रही। राज ने फिर कहा, 'जी चाहता है कि इसी हंटर से तुम्हारी चमड़ी उधेड़ दूं। परंतु क्या करू, विवश हूं! यदि तुम मेरे बालक की मां बनने वाली न होती तो....।' डॉली रो पड़ी। राज क्रोध में भरा बाहर निकल गया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया। सारी रात राज लौटकर न आया। जब पौ फटी तो उसने आकर कमरे का दरवाजा खोला। डॉली ऐसी ही बेसुध भूमि पर सो रही थी।

राज उसे इस प्रकार देखकर क्षण भर घबराया, परंतु नाड़ी देखकर उसे धैर्य हुआ। उसने दोनों हाथों में डॉली को उठाया और पलंग पर लिटा दिया। डॉली की आंखें खुल गई। उसने जब राज को इस प्रकार देखा तो शरमाकर आंखें नीची कर लीं। राज ने प्यार से उसे छाती से लगा लिया। डॉली बालकों की भांति फूट-फूटकर रोने लगी।
*
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
Back
Top