XXX Sex महाकाली--देवराज चौहान और मोना चौधरी सीरिज़ - Page 26 - SexBaba
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XXX Sex महाकाली--देवराज चौहान और मोना चौधरी सीरिज़

तुम आखिर हमसे चाहते क्या हो?” मोना चौधरी कह उठी।

“मैं तो आप सबको दोस्ती चाहता हूं। सबको अपना बनाना चाहता हूं।” वो मीठा-मधुर स्वर सबने सुना।

“हममें से किसी का मन पूर्वजन्म का सफर करने का नहीं था, परंतु हालात ऐसे बनते चले गए कि हमें यहाँ तक आ जाना पड़ा।”

मिन्नो। सब बातें यहीं हो जाएंगी तो मिलने पर हम कुछ भी बात नहीं कर पाएंगे। क्यों न ये सब बातें हम मिलने पर करें।”

मोना चौधरी होंठ भींचकर रह गई।

“तुम कैसे हो देवा?” जथूरा के सेवक की आवाज आई।

जगमोहन और सोहनलाल कहां हैं?”

“वो दोनों कालचक्र में फंसे हुए हैं। दोनों सुरक्षित हैं और जल्दी ही वे कालचक्र से बाहर, जथूरा की जमीन पर आ पहुंचेंगे। सारा कालचक्र सिमटता जा रहा है। सिर्फ वो हिस्सा ही वैसे-का-वैसा है, जहां जग्गू और गुलचंद मौजूद हैं।”

“तुम लोगों के इरादे स्पष्ट नहीं हैं।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“कैसे इरादे?"

तुम हमें पूर्वजन्म के सफर से रोकना चाहते थे या सफर कराना चाहते थे?”

तुम्हारा क्या विचार है देवा कि हम क्या चाहते हैं?”

“इस बारे में मेरा विचार स्पष्ट नहीं है।” देवराज चौहान ने कहा।

“अपने दिमाग पर ज्यादा जोर मत दो। उस वक्त का इंतजार करो, जब हमारी मुलाकात होगी और उस वक्त में ज्यादा समय नहीं है। अब तुम लोग आराम से सफर करो। मुझे कुछ जरूरी काम करने हैं।”

इसके साथ ही आवाज आनी बंद हो गई।

यों सबों तो बोत टेड़ो बंदो लगों हो।” कांच की पनडुब्बी की रफ्तार तेज हो चुकी थी।
 
रानी साहिबा यानी कि नानिया सोहनलाल का हाथ पकड़े, घने जंगल में तेजी से भागी जा रही थी। पचास बरस की खूबसूरत नानिया की चुस्ती-फुर्ती युवतियों जैसी थी। देखने में भी वो किसी भी तरफ से पचास की नहीं लगती थी। इसका राज सिर्फ ये था कि वो आज तक पुरुषों से दूर रही थी। अभी तक कुंआरी थी। देर तक दौड़ते रहने की वजह से नानिया का चेहरा गुलाबी सा हो रहा था। पसीने की वजह से बालों की लटें, माथे पर चिपक रही थीं।

जबकि सोहनलाल की सांस फूल रही थी।

आखिरकार सोहनलाल ठिठक गया और गहरी-गहरी सांसें लेने लगा।

“थक गए क्या?” नानिया बोली। वो हल्की सांसें ले रही थी।

मेरा हाथ छोड़ो।” नानिया ने फौरन उसका हाथ छोड़ दिया।

“तुमने तो इस तरह मेरा हाथ पकड़ा हुआ है जैसे कि मैं बच्चा हूं।” सोहनलाल हांफते हुए बोला। "

“तुम नहीं समझोगे कि तुम मेरे लिए कितने कीमती हो।” नानिया प्यार से बोली-“मैं कालचक्र से मुक्त होकर आजाद जीवन जीना चाहती हूं। अपनी इच्छा से जीवन बिताना चाहती हूं। कालचक्र में तो मैं सिर्फ मोहरा भर हूं। एक तुम ही हो कि जो मुझे कालचक्र से मुक्ति दिला सकते हो। मैं तुम्हें अपने से दूर नहीं होने देना चाहती।”

मैं तुम्हारे पास ही हूं।” ।

“जब तक तुम्हें थाम न लें, तब तक तुम मुझे दूर ही लगते हो सोहनलाल ।” नानिया गहरी आह भरकर बोली-“तुममें कुछ है कि मैं तुम्हारी दीवानी होती जा रही हूं। परंतु उस किताब में ये नहीं लिखा कि मेरा ऐसा हाल होगा।

“ये बताओ कि अभी कितनी दूर जाना है। मुझसे और नहीं दौड़ा जाता।”

“सूर्य पश्चिम में जा चुका है। हम अंधेरा होने तक महल में पहुंच जाएंगे। जंगल खत्म होने को है। वो देखो, पेड़ों के बीच में से । पहाड़ नजर आ रहे हैं। आगे पहाड़ और झरने हैं। उन्हें पार करके हम महल तक जा पहुंचेंगे। अगर तुम दौड़ नहीं सकते तो हम चलते हुए आगे बढ़ते हैं। इससे तुम्हें आराम मिलेगा।”

“ठीक है। चलकर आगे बढ़ते हैं।”
दोनों आगे बढ़ने लगे। नानिया ने सोहनलाल का हाथ थामना चाहा। परंतु सोहनलाल अपनी बांह पीछे करता कह उठा। रहने दो। कुछ देर हाथ को भी आराम करने दो।”

“तुम अजीब हो।” नानिया तुनककर बोली।

मैं अजीब नहीं हूं। बल्कि तुम मेरा हाथ नहीं छोड़ना चाहतीं। तुम परेशान लगती हो।”

* “शायद ।” नानिया ने चलते हुए गहरी सांस ली–“तुम बहुत लम्बे इंतजार के बाद मिले हो धुआं उड़ाने वाले इंसान। तुम्हारे इंतजार में मैं मरी जा रही थी। क्योंकि मैं कालचक्र से आजाद होना चाहती हूं। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि तुम मिल गए।” ।

सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा। “तुम मुझे कालचक्र से आजाद करा दोगे?” नानिया ने पूछा।

“करा सका तो जरूर कराऊंगा।”

जरूर कराना। मैं तुम्हारी हमेशा आभारी रहूंगी। तुम्हारा उपकार रहेगा मुझ पर।”

“मुझे जगमोहन की चिंता हो रही है।” सोहनलाल बोला।।

“अपने सेवक की बात कर रहे हो। उसकी फिक्र मत करो। वो चिमटा जाति वालों के पास है। चिमटा जाति का सरदार कह तो रहा था कि इस धरती पर बाहरी आदमी, उन्हें कालचक्र से बाहर ले जाएगा। सरदार तुम्हारे सेवक का ध्यान रखेगा।”

“तुमने महल में पहुंचते ही सबसे पहले चिमटा जाति के लोगों को आजाद करके वापस भेजना है।”

हां। ऐसा ही करूंगी।”

“वो किताब भी जगमोहन को देनी है। उसे वो पढ़ना चाहता है।” सोहनलाल बोला।

“तुम क्यों नहीं पढ़ते वो किताब?” ।

ये काम मेरा सेवक ही करता है। उसे ही करने दो। उसमें कुछ ख़ास होगा तो वो मुझे बताएगा।”

कुछ ही देर में सोहनलाल और नानिया जंगल से बाहर आ गए।
 
कुछ ही देर में सोहनलाल और नानिया जंगल से बाहर आ गए।

पूरी तरह छांव हो चुकी थी। सूर्य छिप चुका था। | सामने के पहाड़ और एक तरफ से नदी जाती दिख रही थी, जो कि कुछ आगे जाकर झरने का रूप ले लेतीं। पानी गिरने की मध्यम-सी आवाज उनके कानों में पड़ रही थी।

बस, उस पहाड़ के उस पार मेरा महल है।”

सोहनलाल ने पहाड़ को देखा फिर कह उठा। “तुम पहाड़ कैसे पार करतीं?”

तब तो हम दूसरे रास्ते से आते।”

“समझा।।

“जंगल में मैं इसलिए भाग रही थी कि वहां थोड़ा खतरा था। घोघा जाति के लोग शाम को टोलियों में घूमने निकलते हैं। मुझे डर था कि कहीं वो न मिल जाएं। वो मुझे कभी न छोड़ते।”

क्या तुमने सबसे दुश्मनी ले रखी है।”

“कुछ भी समझो।” नानिया ने कहा-“घोघा जाति के लोग चाहते हैं कि उन्हें अपनी नगरी में रहने को जगह दे दें। परंतु मैं उनकी बात नहीं मानती क्योंकि वो मेरी नगरी के नियमों पर नहीं चलते।”

“तुमने उन्हें कहा कि उन्हें तुम्हारे नियमों पर चलना पड़ेगा।” ।

“कहा। परंतु इस बात को वे इनकार करते हैं। यही वजह है कि वो मुझे अच्छा नहीं समझते। उनका बस चले तो वो मुझे जान से मार दें। परंतु ये अच्छा रहा कि उनमें से हमें कोई नहीं मिला।”

मिल गए।” सोहनलाल के होंठों से निकला।

क्या?” नानिया की निगाह भी सोहनलाल के साथ, उस तरफ घूमी।

वो पांच लोग थे। उनकी कमर पर कटोरों जैसे हथियार फंसे लटक रहे थे।

लम्बे ऊंचे सेहतमंद। उन पांचों की निगाह इसी तरफ थी।

ये घोघा जाति के लोग हैं?” सोहनलाल ने पूछा।

यहीं हैं। नानिया घबरा उठी–“मेरे साथ ये तुम्हें भी मार देंगे।”

सोहनलाल के होंठ सिकुड़ गए थे।

तुम्हारे पास वो है, जिससे तुम्हारे सेवक ने बोगस को मारा था।” नानिया हड़बड़ाकर कह उठी।

“नहीं। तुम रिवॉल्वर की बात कर रही हो।”

वो तुम्हें अपने पास रख लेना चाहिए था।” तभी वो पांचों इसी तरफ आने लगे थे।

“भागो सोहनलाल ।” ।

तब भी वो हमें पकड़ लेंगे।” सोहनलाल ने परेशान स्वर में कहा।

“भागो ।” नानिया उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई बोलीं-“झरने की ओर भागो।”

सोहनलाल को भागना पड़ा।

झरने पर हम कैसे बचेंगे?” दौड़ते-दौड़ते सोहनलाल ने पूछा।

वहां से हम नीचे कूद जाएंगे।”

कितनी ऊंचाई है पानी के गिरने की?”

“तुम देख लेना। तैरना जानते हों न?”

“ज्यादा नहीं।

ठीक है, काम चल जाएगा।”

“वो भी तो हमारे पीछे कूद जाएंगे।”

सोहनलाल ने दौड़ते हुए कहा-“वो पांचों...।” ।
“घोघा जाति के लोगों को तैरना नहीं आता। वो पानी से दूर रहना पसंद करते हैं।”

“अजीब बात है।”

पीछे वो पांच दौड़ते आ रहे थे। कटारें हाथों में आ चुकी थीं। परंतु पर्याप्त फासले पर थे वे।

“लगता है तुम यहां चैन से नहीं रहतीं।” सोहनलाल ने कहा। कालचक्र में किसी को भी चैन से रहने को नहीं मिलता।”
 
जल्दी ही वे दोनों नदी के किनारे पर जा पहुंचे। वहां से पानी नीचे गिर रहा था। नीचे पानी के टकराने की तेज आवाज ऊपर तक कानों में पड़ रही थी।

चलो, कूदो सोहनलाल ।” नानिया पीछे देखती चीखी। लेकिन नीचे तो कुछ भी नजर नहीं आ रहा कि कहां कूदना

“मुझे नीचे का सब पता है। तुम्हें कुछ नहीं होगा। वो आ गए। हमारे सिर पर कूद जाओ।”

इसके साथ ही नानिया ने उसका हाथ पकड़ा और कूद गई।

सोहनलाल कूदने को तैयार नहीं था। नानिया के साथ लगभग वो लुढ़कता चला गया। हवा में उसका नीचे गिरने का अंदाज, तीव्र गति से घूमने जैसा था। इस दौरान उसे निचाई दिखाई दी तो वो कांप गया। बहुत ही नीचे था पानी। नानिया का हाथ छूट चुका था। सोहनलाल को पानी में गिरने के साथ ही अपनी मौत महसूस होने लगी।

सोहनलाल को ये नहीं पता चला कि पानी में टकराने के साथ ही, वो मर गया था या जिंदा रहा। परंतु पक्की बात तो ये थी कि उसके होश गुम हो गए थे।

अंधेरा घिरना आरम्भ हो चुका था। आकाश में टिमटिमाते तारे नजर आने लगे थे। बेहद मध्यम-सी हवा चल रही थी। परंतु वातावरण स्पष्ट नजर आ रहा था। नानिया बेहोश सोहनलाल को कंधे पर डालें आगे बढ़ रही थी। आखिरकार वो एक दीवार के पास जा पहुंची। जहां छोटा-सा दरवाजा था और दो पहरेदार खड़े थे।

ये उसकी नगरी का पश्चिम की तरफ का छोटा द्वार था। इस चारदीवारी के भीतर ही उसका महल था और नगरी थी।

चारदीवारी मीलों लम्बी थी, जो कि महल के एक तरफ से आरम्भ होकर, मीलों लम्बा चक्कर काटकर महल के दूसरे हिस्से में लगी हुई थी। सुरक्षा के लिए पर्याप्त पहरेदार थे, चारदीवारी के पास। चिमटा और घोघा जाति ने कई बार महल पर हमला करने की चेष्टा की, परंतु सफल नहीं हो पाए वे अपने इरादों में।

कौन हो तुम?” अंधेरे में किसी को आते पाकर, पहरेदारों ने हथियार संभाल लिए।

“दरवाजा खोलो। मैं नानिया हूं।” वो अधिकार भरे स्वर में बोली।

“ओह रानी साहिबा, आप इस हाल में।” पहरेदार के होंठों से निकला।

दूसरे पहरेदार ने उसी फ्ल दरवाजा खोल दिया था।

नानिया सोहनलाल को कंधे पर लादे, झुकते हुए छोटे दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गई। फिर ठिठककर हर तरफ नजरें घुमाईं। सामने परंतु दूर, शानदार महल बना नजर आ रहा था, जो कि रोशनियों में चमक-दमक रहा था। सामने सड़क के किनारे रोशनियों का पर्याप्त प्रबंध था। यहां पहुंचकर नानिया को राहत महसूस हुई।

वो आगे बढ़ गई। । हर कोई अपने आप में व्यस्त था। ऊपर से अंधेरा। नानिया को कोई पहचान न पाया, अलबत्ता कई लोगों ने देखा अवश्य कि कोई और किसी को कंधे पर डालें तेजी से आगे बढ़ी जा रही है।

नानिया सीधे महल की तरफ बढ़ती जा रही थी।

कुछ देर बाद एक मोड़ पर नीली वर्दी पहने एक ओहदेदार टकरा गया।

“ऐ रूको ।” वो कह उठा “तुम कौन हो और इसे कहां ले जा रहे हो। अपना चेहरा दिखाओ। इधर रोशनी की तरफ ।” ।

नानिया ने अपना चेहरा रोशनी की तरफ घुमाया।

“ओह, रानी साहिबा। आप इस हाल में। लाइए इसे मैं कंधे पर उठा लेता हूं।”

“जरूरत नहीं। इसे मैं ले जाऊंगी।” कहने के साथ ही नानिया आगे बढ़ती चली गई।

पंद्रह मिनट बाद वो महल के बड़े से फाटक पर जा पहुंची। वहां आठ-दस पहरेदार खड़े थे। रोशनी थी।

उन्होंने नानिया को फौरन पहचान लिया। “ओह रानी साहिबा।”

फाटक खोलो।”

फाटक खुलते ही नानिया सोहनलाल को उठाए भीतर प्रवेश कर गई।

महल का बाहरी हिस्सा बेहद खूबसूरत था। फूलों की क्यारियां। पेड़। फव्वारे। रंग-बिरंगी रोशनियों।
वहां का माहौल देखते ही बनता था।

नानिया जिस रास्ते पर बढ़ रही थी, वहां तीन-चार घोड़ा-गाड़ियां खड़ी थीं। । बहरहाल नानिया महल के भीतर कमरे में पहुंची और सोहनलाल को बैड पर लिटा दिया और प्यार से उसके गालों पर हाथ फेरा। महल के नौकरों ने नानिया को इस तरह आते देखा तो वे हैरान हुए।

बात मंत्री तक पहुंची तो वो फौरन महल में आ पहुंचा।

नानिया कमरे से बाहर निकली तो बाहर तीन नौकरों को खड़े पाया।

“यहीं खड़े होकर पहरा दो।” नानिया ने कहा-“मेरी इजाजत के बिना कोई भीतर न जाए।”

“जी ।” नानिया आगे बढ़ गई।

एक राहदारी से गुजर रही थी तो सामने से आते मंत्री से मिलन हुआ। ।

“ओह रानी साहिबा।” मंत्री कह उठा ये मैं क्या सुन रहा हूं।

आप तो काफिले के साथ गई थीं। परंतु आपकी वापसी अकेले में हुई। आपने किसी को कंधे पर उठा रखा था। ये सब क्या हो रहा

“वापसी पर कुछ परेशानियां आईं। तुम्हें ये सुनकर खुशी होगी कि बोगस मर गया।”

“मर गया?” मंत्री के होंठों से निकला–“असम्भव, यहां भला कोई कैसे मर सकता है।”

नानिया मुस्कराई।

बाहरी दुनिया से धुआं उड़ाने वाला आ गया है, जिसके बारे में मैं तुमसे कहा करती थी।”

यकीन नहीं होता।” ।

वो धुआं उड़ाने वाला कमरे में बेहोश पड़ा है।”

“ओह।” ।

उसने ही बोगस को खत्म कर दिया। बोगस के लोगों के साथ मेरे सिपाहियों का झगड़ा हुआ। वो आते ही होंगे।”
 
“ओह। लेकिन आप तो कहा करती थीं कि वो दो होंगे।”

“दो ही हैं। दूसरा इस वक्त चिमटा जाति के लोगों के पास बंधक है। वो चाहते हैं कि हम चिमटा जाति के सब सेवकों को छोड़ दें। उसके साथ मेरी दासी कोमा भी है।” नानिया बोल रही थी—“दूसरी दासी और कोचवान मेरे साथ ही आ रहे थे परंतु घोघा जाति के लोगों की वजह से मैंने उन्हें अलग से आने को कह दिया। ज्यादा लोग एक साथ रहते तो घोघा जाति के लोग हमारी टोह पा लेते । फिर भी एक जगह टकराव हुआ, परंतु हम बच निकले ।”

“परंतु ये धुआं उड़ाने वाला बेहोश कैसे हुआ?” |

“हमें झरने से नीचे कूदना पड़ा। घोघा जाति के लोगों से बचने के लिए। इसी दौरान धुआं उड़ाने वाला बेहोश हो गया। उसका नाम सोहनलाल है। वो अच्छा इंसान है।” नानिया ने कहा।

“उसने कहा कि वो आपको कालचक्र से बाहर निकाल देगा।”

उसने तो अभी तक नहीं कहा, परंतु वो निकालेगा, किताब में ऐसा ही लिखा है। मंत्रीजी, रात ही रात मैं तुम्हें कई काम करने हैं। चिमटा जाति के लोगों को आजाद करके उन्हें उनकी बस्ती में वापस भेजना है।”

जो हुक्म।”

“सोबरा की लिखी जो किताब मेरे पास है, उस किताब को चिमटा जाति के पास मौजूद सोहनलाल के सेवक जगमोहन के पास पहुंचाना है। बेहतर होगा कि ये काम किसी जिम्मेवार आदमी का सौंपा जाए।”

मैं ऐसा ही करूंगा। रानी साहिबा।”

“चिमटा जाति के लोगों को आजाद करने के बाद मुझसे मिलिए, मैं आपको किताब दूंगी।”

4जी ।” मंत्री ने कहा और पलटकर तेज-तेज कदमों से वहां से चला गया।

सोहनलाल के होंठों से कराह निकली। धीरे-धीरे उसे होश आने लगा। फिर आंखें खोली।

सबसे पहले उसे नानिया का चेहरा दिखा, जो उनके ऊपर झुका हुआ था।

नानिया।” सोहनलाल के होंठों से धीमा-सा स्वर निकला।

“तुम ठीक हो मेरे प्यारे सोहनलाल ।” नानिया ने उसके माथे पर हाथ फेरा।

सोहनलाल ने आंखें खोलीं । कमरे में नजर दौड़ाईं।

“तुम मेरे महल में हो।” नानिया मुस्कराकर बोली।

महल में मुझे यहां कौन लाया?”

मैं।

तुम झरने से कूदने के पश्चात बेहोश हो गए थे। मैंने तुम्हें पानी से बाहर निकाला और कंधे पर लादकर यहां ले आई।”

“ओह, फिर तो तुमने बहुत तकलीफ उठाई।”

तकलीफ कैसी। तुम्हारा बोझ ज्यादा नहीं है। तुम पतले और हल्के हो।”

सोहनलाल ने नानिया को देखा। “तुम मुझे जरूर कालचक्र से बाहर निकाल दोगे।”

पता नहीं।” एकाएक सोहनलाल कह उठा–“चिमटा जाति के लोगों को फौरन आजाद करो।”

मैंने मंत्री से ऐसा करने को कह दिया है।”

मंत्री को?” ।

हां, मैं यहां की मालकिन हूं। तुमने अभी मेरे ठाठ देखे ही कहां हैं।” नानिया हंसी–“सोहनलाल, आज की रात का मुझे बरसों से इंतजार था। ये मेरे जीवन की महत्त्वपूर्ण रात है।”

क्यों?”

क्योंकि मैं खुद को तुम्हारे हवाले करने वाली हूं। आज पहली बार कोई मर्द मेरे कुंआरे जिस्म को छुएगा। पचास की हो गई हूँ मैं, परंतु तुम्हारे इंतजार में कुंआरी थी।” नानिया मादकता भरे स्वर में कह उठी।।

ये तुम क्या कह रही हो?”

“क्यों?"

“मैं...मैं बहुत थका हुआ हूं।” ।

“कोई बात नहीं। तुम कुछ मत करना। सब कुछ मैं ही करूंगी। तुम्हें आनंद आएगा।”

ये...ये कैसे हो सकता है।” सोहनलाल हड़बड़ाया।

“नहीं हो सकता तो तुम कर लेना मैं...।”

मेरा मतलब है कि मैं ये सब नहीं करना चाहता।” सोहनलाल अजीब-सी उलझन में था।

“क्यों?"

यूं ही–मैं...।”

“उस किताब में लिखा है जब तक हम रात को एक साथ नहीं सोएंगे, कालचक्र से बाहर जाने का रास्ता नहीं खुलेगा।”

ये लिखा है?"

“हां। तुम्हें मेरे कुंआरेपन को तोड़ना होगा। तभी हम कालचक्र से बाहर निकल पाएंगे।”

सोहनलाल ने मुंह लटकाकर, नानिया को देखा।

“क्या हुआ—तुम...तुम परेशान क्यों हो गए?”

परेशान नहीं हूं। हिम्मत इकट्ठी कर रहा हूं।”

मेरे साथ रात बिताने के लिए?”

“हां।”

तुम फिक्र मत करो। सब कुछ मैं ही...।”

तुम तो तब करोगी कुछ, जब मेरी तरफ से सिग्नल होगा। सिग्नल ही नहीं होगा तो...।”

“सिग्नल क्या होता है?” नानिया ने पूछा।

नहीं जानती?

” नहीं।”

“वो हीं तो सब कुछ होता हैं औरत-मर्द के बीच। सिग्नल नहीं दिखेगा तो गाड़ी कैसे चलेगी।”

मैं अभी भी नहीं समझी।”

“रात को समझाऊंगा सिग्नल के बारे में।”

“ठीक है।”

नानिया के चेहरे पर खुशी दिखी—“अब चलो गुलाब जल में स्नान करेंगे।”

गुलाब जल?” सोहनलाल गहरी सांस लेकर कह उठा।

उसके बाद नशा करेंगे। बंद कमरे में कपड़े उतारकर ।”

तुम तो सिग्नल का बुरा हाल कर दोगी।”

ये सिग्नल क्या...।”

बताऊंगा-बताऊंगा।” सोहनलाल बैड से नीचे उतरा–“बता गुलाब जल किधर है। शायद उससे कुछ हिम्मत बंधे ।”
 
बताऊंगा-बताऊंगा।” सोहनलाल बैड से नीचे उतरा–“बता गुलाब जल किधर है। शायद उससे कुछ हिम्मत बंधे ।”

चिमटा जाति का सरदार जगमोहन को अपनी बस्ती में ले गया। साथ में बस्ती के बाकी लोग भी थे। जंगल में बनी झोंपड़ियों की साधारण-सी बस्ती थी। बस्ती में औरतें और बच्चे भी थे। शाम के सूर्य की तीव्र पीली रोशनी पेड़ों से छनकर, तीखी होकर वहां तक आ रही थी। | एक बड़े से झोंपड़े में सरदार जगमोहन को ले गया। कोमा साथ में थी। बाकी सब लोग बाहर ही रह गए थे।

बैठ।” सरदार बोला-"नशा करोगे?

” मैं नशा नहीं करता।” लकड़ी की कुर्सी पर बैठता जगमोहन बोला।

“आराम कर लो। खाना-पीना चाहो तो बता दो।”

कॉफी मिलेगी?” जगमोहन ने पूछा।

कॉफी, वो क्या होती है?”

रहने दो। तुम नहीं समझोगे। मुझे आराम की जरूरत नहीं है। क्या तुम मुझे वो रास्ता दिखाओगे?”

कालचक्र से बाहर निकलने का?”

हां, जिसके बारे में तुम कह रहे थे कि तुम कालचक्र से बाहर निकलने का रास्ता जानते हो।”

क्यों नहीं, तुम चलो मेरे साथ।” । तभी कोमा कह उठी।

“इतनी जल्दी भी क्या है। तुम थोड़ा आराम कर लो। मैं भी तुम्हारे साथ आराम...।” *

“तुम जैसा आराम करना चाहती हो, वैसा आराम करने की मुझे आदत नहीं है।” जगमोहन कह उठा।

वैसा आराम तो सब मर्द करते हैं।”

सब नहीं करते।”

जो नहीं करते, वो मर्द नहीं होते।” ।

“तुम्हारा मतलब कि मैं मर्द नहीं हूं।” जगमोहन तेज स्वर में कह उठा।

“मैंने कब कहा।”

अभी कहा, सरदार से पूछ लो ।”

सरदार मुस्करा रहा था।

तुम नाराज क्यों होते हो। मैं क्या तुमसे मजाक भी नहीं कर सकती।” कोमा मुंह फुलाकर बोली।

जगमोहन ने गहरी सांस लेकर मुंह घुमा लिया।

*अगर तुम्हें किसी मर्द की जरूरत है तो मैं अभी मर्द को बुला देता हूं।” सरदार बोला।।

“मर्दो की कमी नहीं है मुझे। मैं तो जग्गू के साथ ही प्यार करना चाहती थी।"

। “इसका अभी मन नहीं लगता।”

कोई बात नहीं। मैं इंतजार कर लूंगी।”

“ये तो अच्छी बात है।” सरदार ने कहा फिर जगमोहन से बोला—“चलो, मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊं।”

जगमोहन उठ खड़ा हुआ।

मैं भी साथ चलूंगी।” कोमा कह उठी। वे तीनों झोंपड़े से बाहर निकले। सरदार ने दस लोग साथ लिए और चल पड़े। जंगली रास्ता था।

“तुमने इन लोगों को साथ क्यों लिया?” जगमोहन ने पूछा।

तुम्हारे लिए। ताकि तुम भागने का प्रयत्न न करो।”

मैं क्यों भागूंगा।”

*आखिर हो तो तुम मेरे कैदी ही। जब तक रानी साहिबा चिमटा जाति के लोगों को नहीं छोड़तीं। तब तक तुम मेरे पास रहोगे।”

वो छोड़ देगी। उसके बाद मैं चला जाऊंगा।”

मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा।” सरदार बोला। बातों के दौरान वो सब तेजी से आगे बढ़े जा रहे थे।

“क्यों?”

क्योंकि तुम मुझे कालचक्र से बाहर निकालोगे। सोबरा ने कालचक्र में फंसाते वक्त मुझे बताया था कि तुम आओगे तो मुझे इस कालचक्र से मुक्ति मिलेगी। क्या तुम मुझे आजाद कराओगे?”

“ये बात तुमने पहले भी पूछी थी। कोशिश करूंगा।” जगमोहन ने कहा।

“मुझे कालचक्र से जरूर आजाद कराना।” सरदार खुशामद-भरे स्वर में कह उठा।

करीब आधे घंटे बाद वे सब एक पहाड़ के पास पहुंचे। नीचे से पहाड खोखला था। रास्ता भीतर को जा रहा था। सूर्य ने अब पश्चिम में छिपना आरम्भ कर दिया था।

चार लोग मशालें जलाकर साथ आओ।” सरदार बोला-“बाकी सब यहीं खड़े रहो।”

ऐसा ही किया गया।

जलती मशालें थामे चार लोग भीतर प्रवेश कर गए। सरदार, जगमोहन और कोमा साथ में थे। । शुरू में रास्ता चौड़ा था फिर धीरे-धीरे रास्ता तंग होने लगा।
 
घुटन बढ़ने लगी। *

“तीन मशालें बंद कर दो।” जगमोहन बोला“मशालों का धुआं, सांस लेने में परेशानी पैदा कर रहा है।”

फौरन तीन मशालें बुझा दी गईं।

अब वे एक मशाल की रोशनी में आगे बढ़ रहे थे, जो कि सबसे आगे के आदमी ने थाम रखी थी। तंग होती वो सुरंग जैसी जगह, अब ऐसी हो गई कि सिर्फ एक ही आदमी आगे बढ़ सकता था।

वे एक-एक करके आगे बढ़ने लगे।

“आगे क्या है?” जगमोहन ने पूछा।

कुछ देर बाद देख लेना।” सरदार बोला। इसी प्रकार थोड़ा-सा रास्ता और तय किया गया।

फिर उन सबने खुद को पहाड़ी के खोखले हिस्से में पाया, जो कि एक बड़े कमरे जैसा था। बेढंगी-सी छत थी उस जगह की। दीवारें पहाड़ की थीं। फर्श दीवारों की अपेक्षा समतल था, परंतु उबड़-खाबड़ था। उसी पहाड़ी दीवार पर एक तरफ किसी खेल जैसा बोर्ड लगा हुआ था। उस पर गोटियां लटक रही थीं वा में।

जगमोहन ने सब तरफ नजरें घुमाईं। अजीब सी जगह थी ये। समझ में नहीं आया कुछ तो उसने सरदार को देखा।
यहां रास्ता किधर है?”

सोबरा ने मुझे बताया था कि जब बाहरी आदमी यहां आएगा तो वो इन लटकती गोटियों को ठीक नम्बरों पर लगा देगा, जिससे कि यहां की एक तरफ की दीवार सरक जाएगी और बाहर निकलने का रास्ता बन जाएगा।”

“तुमने गोटियों को ठीक से खानों में लगाने की चेष्टा की होगी?” जगमोहन ने पूछा।

“मैं तो कब से कर रहा हूं कोशिश, परंतु कभी सफल नहीं हो सका।”

जगमोहन उन गोटियों के पास जा पहुंचा।

धागे में बंधी वो हवा में लटक रही थीं। दीवार पर जो खेल जैसा बोर्ड लगा था, वहां हर खाने में एक छेद था गोटी के साइज़ का। गोटियों को पकड़कर उन छेदों में फिट करना था।

सद्दार पास आ गया। सिर्फ एक ही बात परेशान करती है।” सरदार बोला।

क्या?"

“एक गोटी कम है। एक छेद हुमेशा खाली रह जाता है।” सरदार ने बताया।

“तो वहां पर गोटी के साइज का कोई पत्थर रख दो।” जगमोहन बोला।

कर चुका हूं ऐसा। परंतु कोई फायदा नहीं हुआ।” ।

“मैं देखता हूं।” कहने के साथ ही जगमोहन गोटियों को, उस खेल जैसे बोर्ड पर लगाने लगा।

बाकी सब भी पास आ गए थे।

सब गोटियों को खाने में फिट किया गया। परंतु एक खाना खाली रह गया। उसमें फंसाने को कोई गोटी नहीं बची थी। जगमोहन ने गोटी के साइज़ का पत्थर ढूंढा और उस खाली जगह में फिट कर दिया।
परंतु जवाब में कुछ भी नहीं हुआ।

जगमोहन ने गोटियों को निकाला और उन्हें पुनः फिट करने लगा।

“ये सब करते-करते मेरी जिंदगी बीत गई।” सरदार बोला-“अब तो तंग आ गया हूँ इस काम से ।”

लेकिन जगमोहन लगा रहा अपने काम में ।

एक घंटे में उसने कई बार गोटियां अलग-अलग ख़ानों में फिट कीं और ख़ाली बचे खाने में पत्थर फंसाया, लेकिन नतीजा जीरो ही रहा। मशाल धीमी पड़ने लगी।

“हमें चलना चाहिए।” सरदार बोला–“मैं तुम्हें कल फिर यहां ले आऊंगा।”

“अगर तुम्हें सोबरा ने कहा कि बाहरी आदमी ये सब करके रास्ता बनाएगा, तो अब तक रास्ता बन जाना चाहिए था।

” जगमोहन ने कहा-“हो सकता है तुमने सोबरा की बात गलत सुनी हो। उसका मतलब कुछ और हो।”

“मैंने ठीक सुना था।” सरदार बोला–“सोबरा ने ये बात मुझे तीन बार बताई थी।” ।

“तब तुमने सोवरा से नहीं पूछा कि एक गोटी क्यों कम है। क्यों एक खाना ज्यादा है।”

“कैसे पूछता। उस वक्त मुझे नहीं पता था कि एक गोटी कम है।” सदार ने बताया।

चलो वापस चलते हैं।” जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा। सब वापस चल पड़े।

रास्ते में नदी आई तो जगमोहन ने नहाना पसंद किया। कपड़े उतारकर वो नदी में उतर गया। सरदार और उसके साथी बाहर खड़े रहे। अंधेरे का मौका देखकर, कोमा कपड़े उतारकर नदी में उतर गई।

जगमोहन के पास पहुंची कोमा।

तुम।” उसे देखते ही जगमोहन बोला—“तुम क्यों आ गईं। तुम्हारे कपड़े भीग जाएंगे।”

“उतार आई हूं उन्हें ।”

कपड़ों को?” जगमोहन सकपकाया।

“हाँ।” जगमोहन ने उसी पल पलटकर किनारे की तरफ बढ़ना चाहा। कोमा ने फुर्ती से उसका हाथ थाम लिया। “तुम मुझसे दूर क्यों भागते हो जग्गू?”

हाथ छोड़ो। मैं नहीं भागता।” जगमोहन ने अपना हाथ छुड़ाया।

मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लूंगी तो क्या हो जाएगा। तुम्हारा नुकसान होगा?”

“नहीं।”

“तो मुझे हाथ पकड़ने दो।” कोमा ने फौरन उसका हाथ थाम लिया। वो कुछ करीब आई–“क्या तुम कुंआरे हो?”

“कुंआरा–हां मैंने शादी नहीं की।”

वो कुंआरा नहीं, दूसरा कुंआरा, क्या कभी लड़की को नहीं छुआ?”

“छू...छुआ है।” जगमोहन फंसे स्वर में कह उठा।

तो फिर मुझे क्यों नहीं छूते।” ।

समझा करो।” जगमोहन सकपकाया।

क्या समझें ।”

सरदार और उसके आदमी आंखें फाड़े हमें ही देख रहे हैं। सबके सामने अच्छा नहीं लगता।”

समझ गई। रात को करेंगे। अकेले में...।” जगमोहन ने बिजली की तेजी से अपना हाथ खींचा।

क्या हुआ?”

“तुम मेरे हाथ को कहां ले जा रही थीं?” जगमोहन की हालत बुरी-सी होने लगी थी।

जहां तुम्हारा हाथ ले जा रही थी। वो बुरी जगह तो नहीं है।” कोमा चंचल स्वर में कह उठी।।

जगमोहन से कुछ कहते न बना।

हाथ दो न अपना।” कोमा की आवाज में आग्रह था।

नहीं। वो सरदार...सदार देख रहा है।”

 
ठीक है। रात को तैयार रहना। जानते हो मैं अभी तक कुंआरी हूं। रानी साहिबा का सख्त हुक्म था कि जब तक उन्हें धुआं उड़ाने वाला नहीं मिल जाता, तब तक उनकी सेविकाएं कुंआरी रहेंगी।”

जगमोहन ने गहरी सांस ली।

तुम नशा नहीं करते।”

“नहीं, वैसे कसम भी नहीं खा रखी, कभी-कभी कर भी लेता हूं।”

तो आज रात कर लेना। बहुत मजा आएगा। मैं भी नशा करूंगी।” कोमा ने जगमोहन का हाथ थाम लिया।

नदी से बाहर आ जाओ।” जगमोहन हाथ छुड़ाकर किनारे की तरफ बढ़ गया_

*ज्यादा नहाना भी अच्छा नहीं होता। साली, पीछे ही पड़ गई है। बार-बार हाथ पकड़कर वहां...।”

“वो धुआं उड़ाने वाला तो, रानी साहिबा के साथ मजा कर रहा होगा।” पीछे कोमा कह उठीं।

“करने दे उन्हें, तेरे को क्यों खुरक उठ रहा है।” जगमोहन नदी से बाहर आकर कपड़े पहनने लगा।

होगी नहीं क्या ।” कोमा हंस पड़ी—“रात को बताऊंगी।”

‘खामखाह की मुसीबत ।' जगमोहन बड़बड़ा उठा।

रात का खाना खाने के बाद वे सब अपने-अपने झोंपड़ों में नींद लेने के लिए जाने लगीं। परंतु तब कोमा परेशान हो गई, जब उसने देखा कि जगमोहन को जिस झोंपड़े में सुलाया गया है, वहां दो आदमी, पहरे के लिए मौजूद हैं।

जबकि कोमा एकांत चाहती थी। उसकी हालत पर जगमोहन मुस्कराया।

तुम तो यही चाहते थे न” कोमा ने नाराजगी से कहा।

मैंने तो नहीं कहा सरदार से कि ये सब इंतजाम किए जाएँ।” जगमोहन हंसा।

मैं अभी सरदार से बात करती...।” । तभी सरदार कमरे में आ पहुंचा।

तुम्हें यहां कोई तकलीफ तो नहीं जग्गू?” सरदार ने पूछा।

“मुझे है।” कोमा कह उठी–“तुम इन दोनों को पहरे पर से हटा लो, हमें एकांत चाहिए।”

“ये नहीं हो सकता। मुझे जग्गू की रखवाली करनी है कि कहीं ये भाग न जाए। रानी साहिबा के यहां मेरी जाति के जो कैदी लोग हैं, उन्हें मैं वापस पाना चाहता हूं। जग्गू भाग गया तो मुझे मेरे लोग नहीं मिलेंगे।”

“तुम इन पहरेदारों को झोंपड़े के बाहर खड़ा कर दो।” कोमा
बोलीं।

ये नहीं हो सकता।” सरदार ने कहा और वहां से चला गया। कोमा चिढ़कर रह गई।
 
ये नहीं हो सकता।” सरदार ने कहा और वहां से चला गया। कोमा चिढ़कर रह गई।

अब तुम एक ही काम कर सकती हो।” जगमोहन ने शरारत-भरे स्वर में कहा।

क्या?" मेरे पांव दबाओ।”

नहीं दबाती।” कोमा ने नाराजगी से कहा-“तुम सरदार से कहते तो वो मान जाता। परंतु तुमने जरा भी कोशिश नहीं की।”

“तुम कोशिश करती रहो।”

रात का जाने कौन-सा पर था।

कानों में शोर पड़ा तो जगमोहन की आंख खुल गई। उसने नजर घुमाई तो सामने की चारपाई पर कोमा को गुड़मुड़ नींद में पाया। सरदार के दोनों पहरेदार सतर्कता से पहरा दे रहे थे। एक तरफ मशाल जल रही थी।

“क्या हो रहा है बाहर?” जगमोहन ने कहा।

हमें नहीं मालूम।” पहरेदार ने कहा।

मालूम करो।”

“हमारा काम तुम पर नजर रखना है। हम यहां से हट नहीं सकते।” पहरेदार ने जवाब दिया। |

जगमोहन उठ बैठा। तभी एक व्यक्ति ने भीतर प्रवेश करके कहा।

रानी साहिबा ने हमारी जाति के लोगों को आजाद कर दिया है। वे आ पहुंचे हैं।” ख़बर देकर वो चला गया।

अब तक कोमा की आंख खुल चुकी थी। वो खुशी से बोली।
ये तो अच्छी बात है। सरदार अब इन दोनों को पहरे से हटा लेगा।”

“तुम नींद में भी इसी बात के सपने ले रही थी।”

तुम मेरे साथ सोने में चिढ़ते क्यों हो?” कोमा ने मुंह फुलाया।

मैं कहां चिढ़ता हूं। परंतु इस बात की तरफ ज्यादा सोचना भी ठीक नहीं होता।”

“ज्यादा सोचना?

तुम समझते क्यों नहीं कि मैं कुंआरी हूं। एक बार तुम्हें पा लूंगी तो चैन मिल जाएगा।”

“चैन मिल नहीं जाएगा, चैन छिन जाएगा। तब तुम खाते-पीते, जागते-सोते, इसी बात के सपने देखोगी।”

“ये नहीं होगा।” ।

“ये ही होगा।”

“देख्नेगी, पहले तुम एक बार तो मेरे हाथ के नीचे आओ।” कोमा ने चंचल स्वर में कहा।

“तुम किसी और के साथ...।”

“मुझे, तुम ही चाहिए।” कोमा की प्यार-भरी आवाज में, जिद के भाव भरे थे।

करों इंतजार।” ।

“अब कोई इंतजार नहीं है। सरदार अभी इन दोनों को यहां से हटा लेगा, उसके बाद तो...।”

तभी सरदार ने झोंपड़े में प्रवेश किया। साथ में नीली वर्दी पहने एक और व्यक्ति था। जिसने कपड़े में बंधा कुछ उठा रखा था।

जगमोहन उसे देखते ही बोला।

“तुम्हारे सब आदमी नानिया ने छोड़ दिए?”

हां-वो...।” । ।

“तो अब इन पहरेदारों को यहां से हटा लो।” कोमा कह उठी-“तुमने ही कहा था कि...”

अभी मुझे जग्गू की जरूरत है।” सरदार बोला।

क्या मतलब?”

ये हमें कालचक्र से बाहर निकालेगा। अगर ये भाग गया तो फिर हमें कौन यहां से बाहर निकालेगा।”

तुम अपनी बात से फिर रहे हो।” कोमा ने तीखे स्वर में कहा।
 
“तुम जग्गू को पाने के लिए बल क्यों खा रही हो। कोई और मर्द ले लो। बढ़िया मर्द दूंगा।”

नहीं, मुझे जग्गू ही चाहिए।” कोमा ने सिर हिलाकर कहा।

“ऐसा है तो ये बात मुझे जग्गू ने एक बार भी नहीं कही।”

“तुम कह दो जग्गू।” कोमा ने जगमोहन को देखा।

जगमोहन सरदार से कह उठा। ये नीले कपड़ों वाला मुझे, नानिया का सेवक लगता है।”

हां। रानी साहिबा ने तुम्हारे लिए कोई किताब भेजी है।” सरदार बोला।

“जरूर। मुझे किताब की जरूरत थी।” कहकर जगमोहन ने नीले कपड़े पहने सैनिक से किताब थामी।

तुम सरदार से कह दो जग्गू कि तुम्हें एकांत चाहिए।”

“ये ठीक कहती है। मुझे एकांत चाहिए। किताब को पढ़ना है मैंने। तुम कोमा को बाहर ले जाओ।” ।

“ये क्या कर रहे हो?” कोमा गुस्से से बोली।

“मुझे किताब पढ़नी है। ये जरूरी है।”

तो मुझे क्यों बाहर निकलवा रहे हो?” ।

“तुम मुझे परेशान करोगी। किताब नहीं पढ़ने दोगी।”

“नहीं करती परेशान । मुझे कम-से-कम अपने पास तो रहने दो।” कोमा ने नाराजगी से कहा “पता नहीं कैसे मर्द हो, जो एक कुंआरी से दूर भाग रहे हो। दूसरा होता तो अब तक जाने क्या से
क्या हो गया होता।”

जवाब में जगमोहन मुस्कराकर रह गया।

अगले दिन की सुबह नानिया के लिए बहुत खुशगवार थी। उसका एक-एक अंग हिला-सा हुआ था। रात उसने जिंदगी के नए स्वाद का मजा चखा था। पचास साल की उम्र में इस नए स्वाद का मज़ा चखना, उसके लिए बहुत बड़ा अनुभव था। सोहनलाल ने अपनी तरफ से कोई कसर न छोड़ी थी। रात भर मस्ती में कराहतीं रही थी नानिया। कई बार तो उसके होंठों से निकलने वाली आवाज में ऐसे भाव थे कि जैसे कोई उसका गला काट रहा हो। ये सब एक बार नहीं, पांच बार चला। सोहनलाल ने तो एक बार के बाद ही बस कर दी थी, परंतु नानिया को चैन कहां था। वो तो जैसे पचास साल की कमी को एक ही रात में पूरा कर लेना चाहती थीं। आधी रात के बाद जाकर ही वो सो पाए थे। तब शायद रात के तीन बज रहे थे।

अगले दिन जब नानिया की आंख खुली तो चेहरे पर बच्चों जैसी मासूम मुस्कान थी।

जैसे उसे पसंदीदा चीज मिल रही हो। बीती रात का जागता सपना उसकी आँखों के सामने घूमने लगता कि रात क्या-क्या कैसे हुआ।

* आज नानिया को दुनिया की रंगीन तस्वीर कुछ अलग ही नजर आ रही थीं।

नानिया के शरीर पर गाऊन जैसा एक ही कपड़ा था। वो आगे बढ़ी और खिड़की खोलकर बाहर देखने लगी।

नगरी में तो कब की जाग हो गई थी। हर कोई अपने काम में व्यस्त दिखा। सिपाही नीली वर्दियों में अपने कामों में लगे दिखाई दिए। नानिया आंखों में रात की मस्ती समेटे देर तक बाहर देखती रहीं।

तभी नानिया पल भर के लिए चौंकी।

पीछे से सोहनलाल ने आकर उसकी कमर के गिर्द बांह डाल दी थीं।

शरारती हो तुम।” नानिया बिना पलटे मीठे स्वर में कह उठी।

“तुमसे कम्।” सोहनलाल के स्वर में मस्ती थी—“रात तुमने क्या किया?”

“मैंने तो कुछ नहीं किया। जो किया तुमने किया।” ।

मैंने तो एक बार किया, लेकिन तुमने चार बार...।”
 
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