desiaks
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कनाट प्लेस में सुधा माथुर का ऑफिस सुपर बाजार के ऐन सामने की एक इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर था । ऑफिस क्या था इंटीरियर डेकोरेशन के आधुनिक कारोबार की दस्तावेज था । राजीव भैया के ले जाए देश भले ही इक्कीसवीं सदी में नहीं पहुंचा था, वो ऑफिस यकीनन पहुंच भी चुका था ।
बाहरी ऑफिस में दो सुंदरियां और एक सुन्दरलाल बैठा था । सुंदरलाल को नजरअंदाज करके एक सुंदरी को मैंने अपना विजिटिंग कार्ड थमाया और सुधा माधुर से मिलने की इच्छा व्यक्त की ।
उसके जरिये मेरा कार्ड भीतर ऑफिस में पहुंच गया ।
और दो मिनट बाद कार्ड के पीछे-पीछे मैं भी भीतरी ऑफिस में पहुंचा दिया गया ।
भीतरी ऑफिस पहले से भी ज्यादा शानदार था जहां कि सुधा माथुर बैठी थी । मैंने उसका अभिवादन किया और उसके इशारे पर उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया ।
मैंनै आंख भरकर उसकी तरफ देखा ।
अपनी बहन मधु से चार साल बड़ी होने के बावजूद खूबसूरती और आकर्षण में वो उससे किसी कदर भी कम न थी । उल्टे कैरियर वुमैन होने की वजह से उसके चेहरे पर एक बहुत सजती-सी गंभीरता थी और खानदानी रईस की बीवी होने की वजह से हाव-भाव में एक सजती-सी शाइस्तगी थी ।
“मिस्टर कोहली ।” वो बड़े सरल स्वर में बोली - “आपकी शक्ल किसी से बहुत मिलती है । बहुत ही ज्यादा मिलती है ।”
और आपकी आवाज ! मैं मन-ही-मन बोला । दो मांजाई बहनों की सूरतें मिलती हो, ऐसा मैंने आम देखा था लेकिन दो बहनों की आवाज मिलती हो, ऐसा मेरे सामने पहली बार हो रहा था ।
सुधा की आवाज ऐन मधु जैसी थी अलबत्ता अन्दाजेबयां में फर्क था । सुधा का लहजा कुछ-कुछ अंग्रेजियत लिए हुए था और वह धाराप्रवाह बोलती थी जबकि मधु के लहजे से लगता था जैसे उसे अंग्रेजी आती ही नहीं थी और वो फिकरों के टुकड़े कर-करके वोलती थी ।
“ ...हद से ज्यादा मिलती है ।” वो कह रही थी, “ऐन एक ही सूरत वाले दो आदमी... ।”
“कभी होते थे दिल्ली शहर में ।” मैं मुस्करा कर बोला, “अब एक ही है । मैं अकेला । युअर्स ट्रूली । दि ओनली वन ।”
“क्या मतलब ?”
मैंने मतलब समझाया । उसे शशिकांत के कत्ल की खबर सुनाई ।
वह हकबकाई - सी मेरा मुंह देखने लगी ।
“हालात ऐसे पैदा हो गए हैं, मैडम” मैं बोला - “कि शशिकांत के कत्ल में आपकी फैमिली के किसी मेम्बर का दखल निकल सकता है ।”
“क्या ?”
“ऐसा कोई दखल है या नहीं, इसी बात की तसदीक के लिए आपके हसबेंड ने मुझे रिटेन किया है ।”
“मेरे हस...माथुर साहब ने ?”
“जी हां लेकिन बरायमेहरबानी ये बात अपने तक ही रखियेगा । वो ही ऐसा चाहते हैं ।”
“कब ? कब रिटेन किया ?”
“कुछ ही घंटे पहले । जबकि मैं फ्लैग स्टाफ रोड पर उनसे मिलने आपकी कोठी पर गया था ।”
“उ... उन्होंने... कबूल किया आपसे मिलना ?”
“बिल्कुल किया मुलाकात के सबूत के तौर पर ये देखिए रिटेनर का चैक ।”
मैंने उसे दस हजार की अग्रिम धनराशि का चैक दिखाया ।
“कमाल है ।” वो बोली ।
“आप कल शाम मकतूल की कोठी पर गई थीं ?”
“किसने कहा ?” वो तत्काल बोली ।
“आप गई थीं ?”
“नहीं ।”
“लेकिन आपने तो फोन पर पुनीत खेतान से वादा किया था कि आप प्रोपोजल के कागजात, जो कि मुकम्मल भी नहीं थे, लेकर मैटकाफ रोड शशिकांत की कोठी पर जाएंगी ।”
“आप खेतान से मिल भी आए ।”
“जी हां । तभी तो मुझे इस बात की खबर है ।”
“म... मैंने फोन पर हामी जरूर भर दी थी लेकिन असल में जा नहीं सकी थी ।”
“वजह ?”
“माथुर साहब की तबीयत ठीक नहीं थी । उनके पास मेरी हाजिरी जरूरी थी ।”
“ऐसा आपने फोन पर ही कहा होता खेतान को !”
“तब मेरा ख्याल था कि मैं जा सकूंगी लेकिन बाद में हालात कुछ ऐसे वन गए थे कि... कि... बस, नहीं ही गयी मैं ।”
“यही जवाब आप पुलिस को भी देंगीं ?”
“प... पुलिस !”
“जोकि देर सवेर पहुंचेगी ही आपके पास ।”
“वो किसलिए ?”
“जिसलिए मैं आपके पास पहुंचा हूं । अब जब मेरे सामने आपका वे जवाब नहीं चल पा रहा तो उनके सामने कैसे चलेगा ? मैं तो आपकी तरफ हूं । पुलिस तो नहीं होगी आपकी तरफ ।”
“आप तो मुझे डरा रहे है ।”
“मेरे सामने डर लीजिए, सुधा जी । निडर हो के डर लीजिए । मेरे सामने डरेंगी तो अपने डर से निजात पाने का कोई जरिया सोचने की तरफ आपकी तवज्जो जाएगी ।”
“कहना क्या चाहते हैं आप ? मैं झूठ बोल रही हूं ?”
“हां ।”
“आपके हां कहने से हां हो गई ?”
“सिर्फ मेरे कहने से नहीं हो गई लेकिन उस चश्मदीद गवाह के कहने से हो जायेगी जिसने कल शाम आपको एक टैक्सी पर मेटकाफ रोड पहुंचते देखा था ।”
उसके चेहरे की रंगत बदली ।
“मुझे लगता है” मैं सहज स्वर में बोला “कि शशिकांत के कत्ल की बात सुनकर आपने ये फैसला किया है कि आपका उससे कोई वास्ता स्थापित हो । अगर वो जिन्दा होता तो शायद आप ये झूठ बोलना जरूरी न समझती ।”
“मेरा उसके कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“अगर ऐसा है तो आप झूठ क्यों बोल रही हैं ?”
“उसी वजह से जो आपने अभी बयान की ।”
“हकीकतन आप वहां गई थीं ?”
“मिस्टर कोहली, जब आप हमारी फैमिली के लिए काम कर रहे हैं तो क्या मैं ये उम्मीद रखूं कि मेरे से हासिल जानकारी का आप कोई बेजा इस्तेमाल नहीं करेंगें ? आप उसे हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे ?”
“बशर्ते कि वो जानकारी इतनी विस्फोटक न हो कि आप ये कहें कि आपने ही ने उसका कत्ल किया है ।”
“मैंने उसकी सूरत भी नहीं देखी ।”
“गई तो थी न आप वहां ?”
“मैटकाफ रोड पर किसने देखा था मुझे ?”
मैं केवल मुस्कराया ।
“छुपाना बेकार है, मिस्टर कोहली ।” वो तनिक अप्रसन्न स्वर में बोली, “क्योंकि जब एक जना दूसरे को देखता है तो दूसरा जना भी पहले को देखता है ।”
“यानी कि आपने भी पिंकी को वहां देखा था ?”
“हां । उसकी हैडलाइट्स मेरी आंखों को चोंधिया रही थी लेकिन फिर भी मैंने उसे साफ पहचाना था उसकी बड़ी पहचान तो उसकी लाल मारुति ही है जिस पर उसने सौ तरह के स्टिकर लगाए हुए हैं ।”
“ये बात नहीं सूझी थी उसे । वो अपनी हैडलाइट्स की हाई बीम को ही अपना खास प्राटेक्शन समझ रही थी ।”
वो खामोश रही ।
“यानी कि आप कबूल करती हैं कि आप वहां गयी थीं ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“टैक्सी पर किसलिए ?”
”अपनी प्रोटेक्शन के लिए ।”
“जी !”
“रात के वक्त मैं आदमी के घर जाना नहीं चाहती थी । पुनीत खेतान की अपील पर मैं वहां जा रही थी । उस आदमी की शहर में जो रिप्युट है, उससे मैं नावाकिफ नहीं । इसलिए मैं अपने वाकिफकार टैक्सी ड्राइवर के साथ वहां गई थी । मैंनें उसे रास्ते में ही समझा दिया था कि अगर में पांच मिनट में कोठी से न निकलूं तो वो मुझे बुलाने के लिए निःसंकोच भीतर आ जाए ।”
“उसने ऐसा किया ?”
“नौबत ही न आई । मैं ही भीतर न गई ।”
“अच्छा !”
“हां । पहले तो मैं कंपाउंड में ही दाखिल नहीं हो रही थी । पहले तो मैंने बाहर सड़क से ही आयरन गेट के पहलू में लगी कॉलबैल बजाई थी । उसका कोई नतीजा सामने नहीं आया था तो बहुत डरती झिझकती मैं भीतर दाखिल हुई थी । भीतर कोठी के प्रवेशद्वार पर भी घंटी थी । मैंने वो भी बजाई थी और दरवाजे को खुला पाकर उसे नाम लेकर भी पुकारा था लेकिन नतीजा वही सिफर निकला था ।”
“आपने कोठी के भीतर कदम नहीं रखा था ?”
“बिल्कुल भी नहीं । भीतर तो अंधेरा था । मुझे तो उस तनहा और अंधेरी जगह में दाखिल होने के ख्याल से ही दहशत हो रही थी ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? एकाध मिनट और मैंने भीतर से किसी जवाब का इन्तजार किया और फिर वापस लौट आई ।”
“कागजात का क्या हुआ ?”
“वो मैं वापस ले आई । वहां किसके सुपुर्द करके आती मैं उन्हें ? ऐसे ही फेंक आती वहां ?”
“वो तो मुनासिब न होता ।”
“एग्जेक्टली ।”
“जैसे पिंकी ने आपको वहां देखा था, वैसे ही क्या आपको भी वहां कोई जानी पहचानी सूरत दिखाई दी थी ?”
उसने इन्कार में सिर हिलाया ।
“फिर से तो झूठ नहीं बोल रहीं ?”
उसने फिर इन्कार में सिर हिलाया ।
“कुल कितनी देर आप वहां थीं ?”
“चार-पांच मिनट । एक-दो मिनट बाहर आयरन गेट पर और एक-दो मिनट भीतर कोठी के प्रवेशद्वार पर ।”
“पहुंची कब भी आप वहां ?”
“साढ़े-आठ के बाद ही किसी वक्त पहुंची थी ।”
“आपका वो वाकिफकार टैक्सी ड्राइवर इस बात की तसदीक करेगा कि आप कोठी के भीतर दाखिल नहीं हुई थीं ?”
वो हिचकिचाई ।
मैं अपलक उसकी ओर देखता रहा ।
बाहरी ऑफिस में दो सुंदरियां और एक सुन्दरलाल बैठा था । सुंदरलाल को नजरअंदाज करके एक सुंदरी को मैंने अपना विजिटिंग कार्ड थमाया और सुधा माधुर से मिलने की इच्छा व्यक्त की ।
उसके जरिये मेरा कार्ड भीतर ऑफिस में पहुंच गया ।
और दो मिनट बाद कार्ड के पीछे-पीछे मैं भी भीतरी ऑफिस में पहुंचा दिया गया ।
भीतरी ऑफिस पहले से भी ज्यादा शानदार था जहां कि सुधा माथुर बैठी थी । मैंने उसका अभिवादन किया और उसके इशारे पर उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया ।
मैंनै आंख भरकर उसकी तरफ देखा ।
अपनी बहन मधु से चार साल बड़ी होने के बावजूद खूबसूरती और आकर्षण में वो उससे किसी कदर भी कम न थी । उल्टे कैरियर वुमैन होने की वजह से उसके चेहरे पर एक बहुत सजती-सी गंभीरता थी और खानदानी रईस की बीवी होने की वजह से हाव-भाव में एक सजती-सी शाइस्तगी थी ।
“मिस्टर कोहली ।” वो बड़े सरल स्वर में बोली - “आपकी शक्ल किसी से बहुत मिलती है । बहुत ही ज्यादा मिलती है ।”
और आपकी आवाज ! मैं मन-ही-मन बोला । दो मांजाई बहनों की सूरतें मिलती हो, ऐसा मैंने आम देखा था लेकिन दो बहनों की आवाज मिलती हो, ऐसा मेरे सामने पहली बार हो रहा था ।
सुधा की आवाज ऐन मधु जैसी थी अलबत्ता अन्दाजेबयां में फर्क था । सुधा का लहजा कुछ-कुछ अंग्रेजियत लिए हुए था और वह धाराप्रवाह बोलती थी जबकि मधु के लहजे से लगता था जैसे उसे अंग्रेजी आती ही नहीं थी और वो फिकरों के टुकड़े कर-करके वोलती थी ।
“ ...हद से ज्यादा मिलती है ।” वो कह रही थी, “ऐन एक ही सूरत वाले दो आदमी... ।”
“कभी होते थे दिल्ली शहर में ।” मैं मुस्करा कर बोला, “अब एक ही है । मैं अकेला । युअर्स ट्रूली । दि ओनली वन ।”
“क्या मतलब ?”
मैंने मतलब समझाया । उसे शशिकांत के कत्ल की खबर सुनाई ।
वह हकबकाई - सी मेरा मुंह देखने लगी ।
“हालात ऐसे पैदा हो गए हैं, मैडम” मैं बोला - “कि शशिकांत के कत्ल में आपकी फैमिली के किसी मेम्बर का दखल निकल सकता है ।”
“क्या ?”
“ऐसा कोई दखल है या नहीं, इसी बात की तसदीक के लिए आपके हसबेंड ने मुझे रिटेन किया है ।”
“मेरे हस...माथुर साहब ने ?”
“जी हां लेकिन बरायमेहरबानी ये बात अपने तक ही रखियेगा । वो ही ऐसा चाहते हैं ।”
“कब ? कब रिटेन किया ?”
“कुछ ही घंटे पहले । जबकि मैं फ्लैग स्टाफ रोड पर उनसे मिलने आपकी कोठी पर गया था ।”
“उ... उन्होंने... कबूल किया आपसे मिलना ?”
“बिल्कुल किया मुलाकात के सबूत के तौर पर ये देखिए रिटेनर का चैक ।”
मैंने उसे दस हजार की अग्रिम धनराशि का चैक दिखाया ।
“कमाल है ।” वो बोली ।
“आप कल शाम मकतूल की कोठी पर गई थीं ?”
“किसने कहा ?” वो तत्काल बोली ।
“आप गई थीं ?”
“नहीं ।”
“लेकिन आपने तो फोन पर पुनीत खेतान से वादा किया था कि आप प्रोपोजल के कागजात, जो कि मुकम्मल भी नहीं थे, लेकर मैटकाफ रोड शशिकांत की कोठी पर जाएंगी ।”
“आप खेतान से मिल भी आए ।”
“जी हां । तभी तो मुझे इस बात की खबर है ।”
“म... मैंने फोन पर हामी जरूर भर दी थी लेकिन असल में जा नहीं सकी थी ।”
“वजह ?”
“माथुर साहब की तबीयत ठीक नहीं थी । उनके पास मेरी हाजिरी जरूरी थी ।”
“ऐसा आपने फोन पर ही कहा होता खेतान को !”
“तब मेरा ख्याल था कि मैं जा सकूंगी लेकिन बाद में हालात कुछ ऐसे वन गए थे कि... कि... बस, नहीं ही गयी मैं ।”
“यही जवाब आप पुलिस को भी देंगीं ?”
“प... पुलिस !”
“जोकि देर सवेर पहुंचेगी ही आपके पास ।”
“वो किसलिए ?”
“जिसलिए मैं आपके पास पहुंचा हूं । अब जब मेरे सामने आपका वे जवाब नहीं चल पा रहा तो उनके सामने कैसे चलेगा ? मैं तो आपकी तरफ हूं । पुलिस तो नहीं होगी आपकी तरफ ।”
“आप तो मुझे डरा रहे है ।”
“मेरे सामने डर लीजिए, सुधा जी । निडर हो के डर लीजिए । मेरे सामने डरेंगी तो अपने डर से निजात पाने का कोई जरिया सोचने की तरफ आपकी तवज्जो जाएगी ।”
“कहना क्या चाहते हैं आप ? मैं झूठ बोल रही हूं ?”
“हां ।”
“आपके हां कहने से हां हो गई ?”
“सिर्फ मेरे कहने से नहीं हो गई लेकिन उस चश्मदीद गवाह के कहने से हो जायेगी जिसने कल शाम आपको एक टैक्सी पर मेटकाफ रोड पहुंचते देखा था ।”
उसके चेहरे की रंगत बदली ।
“मुझे लगता है” मैं सहज स्वर में बोला “कि शशिकांत के कत्ल की बात सुनकर आपने ये फैसला किया है कि आपका उससे कोई वास्ता स्थापित हो । अगर वो जिन्दा होता तो शायद आप ये झूठ बोलना जरूरी न समझती ।”
“मेरा उसके कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“अगर ऐसा है तो आप झूठ क्यों बोल रही हैं ?”
“उसी वजह से जो आपने अभी बयान की ।”
“हकीकतन आप वहां गई थीं ?”
“मिस्टर कोहली, जब आप हमारी फैमिली के लिए काम कर रहे हैं तो क्या मैं ये उम्मीद रखूं कि मेरे से हासिल जानकारी का आप कोई बेजा इस्तेमाल नहीं करेंगें ? आप उसे हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे ?”
“बशर्ते कि वो जानकारी इतनी विस्फोटक न हो कि आप ये कहें कि आपने ही ने उसका कत्ल किया है ।”
“मैंने उसकी सूरत भी नहीं देखी ।”
“गई तो थी न आप वहां ?”
“मैटकाफ रोड पर किसने देखा था मुझे ?”
मैं केवल मुस्कराया ।
“छुपाना बेकार है, मिस्टर कोहली ।” वो तनिक अप्रसन्न स्वर में बोली, “क्योंकि जब एक जना दूसरे को देखता है तो दूसरा जना भी पहले को देखता है ।”
“यानी कि आपने भी पिंकी को वहां देखा था ?”
“हां । उसकी हैडलाइट्स मेरी आंखों को चोंधिया रही थी लेकिन फिर भी मैंने उसे साफ पहचाना था उसकी बड़ी पहचान तो उसकी लाल मारुति ही है जिस पर उसने सौ तरह के स्टिकर लगाए हुए हैं ।”
“ये बात नहीं सूझी थी उसे । वो अपनी हैडलाइट्स की हाई बीम को ही अपना खास प्राटेक्शन समझ रही थी ।”
वो खामोश रही ।
“यानी कि आप कबूल करती हैं कि आप वहां गयी थीं ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“टैक्सी पर किसलिए ?”
”अपनी प्रोटेक्शन के लिए ।”
“जी !”
“रात के वक्त मैं आदमी के घर जाना नहीं चाहती थी । पुनीत खेतान की अपील पर मैं वहां जा रही थी । उस आदमी की शहर में जो रिप्युट है, उससे मैं नावाकिफ नहीं । इसलिए मैं अपने वाकिफकार टैक्सी ड्राइवर के साथ वहां गई थी । मैंनें उसे रास्ते में ही समझा दिया था कि अगर में पांच मिनट में कोठी से न निकलूं तो वो मुझे बुलाने के लिए निःसंकोच भीतर आ जाए ।”
“उसने ऐसा किया ?”
“नौबत ही न आई । मैं ही भीतर न गई ।”
“अच्छा !”
“हां । पहले तो मैं कंपाउंड में ही दाखिल नहीं हो रही थी । पहले तो मैंने बाहर सड़क से ही आयरन गेट के पहलू में लगी कॉलबैल बजाई थी । उसका कोई नतीजा सामने नहीं आया था तो बहुत डरती झिझकती मैं भीतर दाखिल हुई थी । भीतर कोठी के प्रवेशद्वार पर भी घंटी थी । मैंने वो भी बजाई थी और दरवाजे को खुला पाकर उसे नाम लेकर भी पुकारा था लेकिन नतीजा वही सिफर निकला था ।”
“आपने कोठी के भीतर कदम नहीं रखा था ?”
“बिल्कुल भी नहीं । भीतर तो अंधेरा था । मुझे तो उस तनहा और अंधेरी जगह में दाखिल होने के ख्याल से ही दहशत हो रही थी ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? एकाध मिनट और मैंने भीतर से किसी जवाब का इन्तजार किया और फिर वापस लौट आई ।”
“कागजात का क्या हुआ ?”
“वो मैं वापस ले आई । वहां किसके सुपुर्द करके आती मैं उन्हें ? ऐसे ही फेंक आती वहां ?”
“वो तो मुनासिब न होता ।”
“एग्जेक्टली ।”
“जैसे पिंकी ने आपको वहां देखा था, वैसे ही क्या आपको भी वहां कोई जानी पहचानी सूरत दिखाई दी थी ?”
उसने इन्कार में सिर हिलाया ।
“फिर से तो झूठ नहीं बोल रहीं ?”
उसने फिर इन्कार में सिर हिलाया ।
“कुल कितनी देर आप वहां थीं ?”
“चार-पांच मिनट । एक-दो मिनट बाहर आयरन गेट पर और एक-दो मिनट भीतर कोठी के प्रवेशद्वार पर ।”
“पहुंची कब भी आप वहां ?”
“साढ़े-आठ के बाद ही किसी वक्त पहुंची थी ।”
“आपका वो वाकिफकार टैक्सी ड्राइवर इस बात की तसदीक करेगा कि आप कोठी के भीतर दाखिल नहीं हुई थीं ?”
वो हिचकिचाई ।
मैं अपलक उसकी ओर देखता रहा ।