Desi Chudai Kahani मकसद - Page 3 - SexBaba
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Desi Chudai Kahani मकसद

“मेरा अंदाज ठीक निकला ।” फिर मैं सीधा होकर बोला, “ये 22 कैलीबर की ही गोली है । ऐसी ही एक गोली मरनेवाले के ऐन दिल में से गुजर कर गई है जो कि इसकी बदकिस्मती है । 22 कैलीबर की गोली इसे कहीं भी और लगी होती तो ये हरगिज न मरा होता ।”
“इसे लगी गोली चलाई गई छ: गोलियों में से आखिरी होगी ।”
“क्यों ?” मैं सकपकाकर बोला ।
“वीर मेरे, अगर इसे पैल्ली ही गोली लग गई होती तो चलाने वाले ने और गोलियां काहे को चलाई होतीं !”
“दुरुस्त, लेकिन अगर इस आखिरी गोली से पहले पांच और गोलियां इस पर चल चुकी थीं तो भी ये कुर्सी पर टिका ही क्यों बैठा रहा ? पहली गोली चलते ही इसने उठकर भागने की या कहीं ओट लेने की या अपने हमलावर पर झपटने की कोशिश क्यों नहीं की ?”

“क्यों नहीं की ?” वो उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्योंकि इसे ऐसा कुछ करने का मौका ही नहीं मिला । गोलियां यूं आनन-फानन चलीं कि पलक झपकते ही सब खेल खत्म हो गया । किसी ने ताककर इसका निशाना लगाया होता तो वो यूं चलाई गई अपनी पहली गोली का नतीजा देखने के लिए ठिठकता और निशाना चूक गया पाकर फिर दूसरी गोली चलाता । तब मरने वाले को अपने बचाव के लिए हरकत में आने का मौका मिल जाता और वो कुछ न कुछ करता । निशाना चूका न होता तो हमलावर और गोलियां न चलाता लेकिन यहां तो ये हुआ मालूम होता है कि किसी ने रिवॉल्वर चलानी शुरू की तो तभी बंद की जबकि गोलियां खत्म हो गई । या यूं कहो कि गोलियां खत्म हो जाने पर रिवॉल्वर चलनी खुद ही बंद हो गई । यूं रिवॉल्वर का रुख ही सिर्फ मकतूल की तरफ रहा होगा, उससे कोई निशाना साधकर गोलियां चलाने की कोशिश ही नहीं की गई होगी । निशाना साधकर गोलियां चलाई गई होतीं तो बावजूद मकतूल के दिल का निशाना चूक जाने से गोलियां यूं दायें-बायें इधर-उधर बिखरती न चली गई होतीं ।”

“फिर तो ये काम किसी अनाड़ी का हुआ ?”
“या किसी औरत का जिसने कि रिवॉल्वर का रुख मरने वाले की ओर करके आंखें बंद कर ली होगी और घोड़ा खींचना शुरू कर दिया होगा ।”
“औरत !”
“बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर वैसे भी जनाना हथियार माना जाता है । यह एक नन्हीं-सी रिवॉल्वर होती है जो कि जनाना पर्स में बड़ी सहूलियत से समा जाती है । जनाना डिपार्टमेंट में क्या दखल था तुम्हारे भाई का ?”
“बहुत गहरा । औरतों का रसिया था । एक औरत से मन नहीं भरता था इसका । नाइट क्लब में जो खूबसूरत औरत आती थी, उसे पटाने के लिए उसके पीछे पड़ जाता था ।”

“कामयाब भी होता था ?”
“हां । अमूमन । आखिर खूबसूरत नौजवान था ।”
“मेरी तरह ?”
“ऐन तेरी तरह ।”
“हूं ।”
“अभी इतना ही नहीं, क्लब की होस्टेसों और डांसरों के भी पीछे पड़ा रहता था ।”
“औरतों के मामले में बाज लोगों का हाजमा कुछ खास ही तगड़ा होता है । कई हज्म कर जाते हैं । डकार भी नहीं लेते ।”
“ये औरतों के नहीं, औरतें भी इसके पीछे पड़ीं रहती थीं ।”
“अच्छा !”
“हां । सुनकर हैरान होवोगे, आजकल ऐसी एक लड़की बतौर हाउसकीपर सारा दिन इसकी खिदमत करती है । सिर्फ इसलिए क्योकि वो इस पर फिदा है ।”

“कौन है वो लड़की ?”
“सुजाता मेहरा नाम है । नाइट क्लब में चिट क्लर्क थी । क्लब बंद हो गई तो यहां आ गई । सारा घर संभालती है । शशि कहता था तो उसका और उसके मेहमानों का खाना तक पका देती थी ।”
“वो यहां रोज आती है?”
“फिलहाल तो आती ही है रोज ।”
“सारा दिन यहीं रहती है ?”
“हां । शशि कहे तो सारी रात भी ।”
“अगर शशि यहां न हो ?”
“तो भी । उसके पास यहीं की एक चावी पक्के तौर पर है ।”
“इस वक्त तो वो यहां नहीं है ।”

“अमूमन ग्यारह बजे तक आती है ।”
“कमाल है ! तुम्हारा भाई तो मेरे से भी बड़ा हरामी निकला । जरूर सूरतें मिलती हों तो फितरत भी मिलने लगती है ।”
“कोल्ली !” वो प्रशंसात्मक स्वर में बोला, “यानी कि तेरी भी कई गोपियां हैं !”
“हैं तो नहीं लेकिन हों, ऐसी ख्वाहिश रखता तो हूं । बहरहाल वो किस्सा फिर कभी । तुम ये बताओ कि इस लड़की सुजाता ने ही तो किसी बात पर इससे खफा होकर इसकी दुक्की नहीं पीट दी ?”
“अरे, नहीं । वो लड़की तो इस पर फिदा थी, इसके हाथों से चुग्गा चुगती थी । अठारहवीं सदी की बीवी की तरह इसकी खिदमत करती थी ।”

”सिर्फ करवा चौथ का व्रत रुखने की कसर रह जाती होगी ।” मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर मैं बोला ।
“शायद वो भी रखती ।”
“क्या मतलब ?”
“अभी करवा चौथ का त्योहार आया जो नहीं । कुछ ही दिन तो हुए हैं अभी क्लब को ताला पड़े ।”
“हूं । बहरहाल वो नहीं तो कोई और गोपी खास ही खफा हो गई थी इससे जो इस पर गोलियों की बरसात कर बैठी ।”
“मुझे यकीन नहीं आता ।”
“किस बात का ?”
“कि किसी औरत जात की इतनी मजाल हुई हो कि इसकी जान लेने की जुर्रत कर बैठी हो । औरतें खौफ खाती थीं इससे । औरतें क्या, हर कोई खौफ खाता था इससे । लोग क्या जानते नहीं थे कि ये किसका भाई था !”

“लेकिन बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर.....”
“होगा जनाना हथियार । जनाने हथियार के मर्द के इस्तेमाल पर कोई पाबन्दी तो नहीं ।”
“हां । पाबन्दी तो नहीं है ।”
“लेकिन सवाल ये है इसका कत्ल किसने किया ? क्यों किया ? इसका तो कोई दुश्मन नहीं था । दुश्मन तो सब मेरे थे । यूं किसी ने मुझ पर गोलियां बरसाई होतीं तो ये कतई हैरानी की बात न होती ।”
“तुमने अभी खुद कहा था कि कुछ अरसे से शशिकांत को कत्ल कर दिए जाने की धमकियां मुतवातर मिल रही थीं ।”
“कहा था लेकिन झूठ कहा था ।”
“क्या ?”

“वो झूठ मेरा ही फैलाया हुआ था ताकि पुलिस तफ्तीश करे तो बात में दम दिखाई दे । वो झूठ हमारी उस स्कीम का हिस्सा था जिस पर अमल करके हमने तुझे शशिकांत बना के तेरा कत्ल करना था और बीमे की रकम क्लेम करनी थी । असल में मेरी जरायमपेशा हरकतों से शशिकांत का कुछ लेना-देना नहीं था । इसे तो लोग ठीक से जानते तक नहीं थे । दादा मैं था, गैंगस्टर मैं था, अंडरवर्ल्ड डान मैं था, शशिकांत नहीं । वार होना था तो मुझ पर होना चाहिए था न कि इस पर ।”
“तुम पर वार बाइस कैलीबर के खिलौने से थोड़े ही होता ! तुम पर तो ए के फोर्टी सैवन राइफल की या मशीनगन की गोलियां बरसाई जातीं ।”
 
“दुरुस्त । यही तो मैं कह रहा हूं । इस कत्ल का रिश्ता अगर मेरे कारोबार से होता तो कत्ल यूं न हुआ होता ।”
“मैं अभी भी कहता हूं कि ये कत्ल किसी औरत का काम है ।”
“सबूत क्या है ? सबूत बता क्या है ? ये कोई सबूत नहीं है कि कत्ल बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर से हुआ है जो कि जनाना हथियार माना जाता है ।”
“लेकिन चलाई गई गोलियों का बिखरा-बिखरा पैटर्न..”
“बकवास । निशानेबाजी की सलाहियात हर किसी को हासिल नहीं होती । रिवॉल्वर कोई गुलेल नहीं होती जो चलाने के लिए हर किसी को हासिल हो । वीर मेरे, ऐसे पैटर्न में गोलियां ऐसा मर्द भी चला सकता है जिसने पहले कभी रिवॉल्वर न थामी हो ।”

मुझे मोतीबाग वाली इमारत में हामिद पर चलाई गोलियों का अपना खुद का अंदाज याद आने लगा ।
“बात तो तुम ठीक कह रहे हो ।” मैं बोला ,मेरा सिर स्वयंमेव ही सहमति में सिर हिलने लगा था ।
“कोल्ली ।” वो बोला, “मैनूं पता लगना चाहिए कि ए किस दी करतूत है ।”
“क्यों ?”
“क्यों ?” वो भड़का, “पागल है ? पूछता है क्यों ?”
“मेरा मतलब है ये मसला इतना अहमतरीन क्योंकर बन गया कि कातिल कौन है ? क्या तुम कातिल से बदला लेने के ख्वाहिश मंद हो ?”
“कातिल को उसके किए की सजा तो मिलनी ही चाहिए लेकिन ये अहमतरीन मसला किसी और वजह से है ।”

“और कौन सी वजह ?”
“असली कातिल का पता लगेगा तो ही तो मैं कत्ल के इल्जाम से बरी हो पाऊंगा ।”
“तुम पर कत्ल का इल्जाम कैसे आयद हो सकता है ?”
“क्योंकि सिर्फ मेरे पास ही कत्ल का कोई उद्देश्य है ।”
“क्या उद्देश्य है ? बीमे की रकम ?”
“हां ।”
“नॉनसैंस । यूं कोई अपने भाई का कत्ल कर देता है !”
“रकम का वजन ध्यान में रखकर बोल । उस रकम की मेरी मौजूदा जरूरत को ध्यान में रखकर बोल ।”
“वो सब ठीक है लेकिन फिर भी....”
“फिर भी ये कि ये मेरा भाई ही नहीं था ।”

मैं बुरी तरह से चौंका ।
“क्या !” हकबकाया-सा उसका मुंह देखता मैं बोला ।
“मरने वाला मेरा भाई नहीं था । मेरी इससे दूरदराज की भी कोई रिश्तेदारी नहीं थी ।”
“तो फिर... तो फिर...”
“ये एक लम्बी कहानी है ।”
“मुख्तसर करके सुनाओ । बस सिर्फ ट्रेलर दिखा दो ।”
“सुन । दिल्ली शहर में मेरी शुरुआती छोटी औकात से कोई बेखबर नहीं । मकबूल लोगों की गुजश्ता जिंदगी के बखिए उधेड़कर सनसनीखेज खवरें निकालने में माहिर अखबारनवीसों की मेहरबानी से सारा शहर जानता है कि कभी मैं पांच रुपए दिहाड़ी कमाने वाला बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन वर्कर हुआ करता था, बेलदार हुआ करता था । एक बेलदार दौलतमंद कैसे बन गया ? उसका ये कायापलट कैसे हुआ ?”

“कैसे हुआ ?”
“वही तुझे बताने जा रहा हूं कोल्ली । लेकिन जो कुछ तू अभी सुनेगा, अगर तूने उसे आगे कहीं दोहराया या उसका कोई बेजा इस्तेमाल किया तो, रब दी सौं, खुद अपने हाथों से मैं तेरी बोटी-बोटी काट के फेंक दूंगा । समझ गया ?”
मैंने बड़े सशंक भाव से सहमति में सिर हिलाया । उसका उस घड़ी का रौद्र रूप मुझे सच में ही बहुत डरा रहा था । अपना डर छुपाने के लिए मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला तो उसने भी मेरी ओर हाथ बढ़ा दिया । मैंने एक सिगरेट उसे दिया और एक खुद सुलगा लिया ।

“सुन ।” अपने विशिष्ट अंदाज से सिगरेट का लंबा कश लगाकर धुएं की दोनाली छोड़ता हुआ वह बोला, “जिस ठेकेदार के पास मैं बेलदारी का काम करता था, उसका नाम मुकंदलाल सेठी था । असल में वो स्मगलर था और ठेकेदारी उसके स्मगलिंग के धंधे की ओट थी । उसी ने मुझे एक बार कहा कि मैं ईंटें उठाने के हकीर काम में खामखाह अपनी नौजवानी बर्बाद कर रहा था । बात तू मुख्तसर में सुनना चाहता है इसलिए मैं सीधे ही तुझे बता रहा हूं कि पहले में उसका कूरियर बना फिर उसका पच्चीस फीसदी का पार्टनर । बतौर कूरियर मैं दिल्ली से चरस लेकर मुम्बई जाता था ओर सोना लेकर वापस आता था । रब्ब दी मेहर थी कि कभी पकड़ा नहीं गया । कामयाबी का ये आलम था कि मुझे अपना एक चौथाई का पार्टनर बनाने में भी मुकंदलाल सेठी को अपना ही फायदा दिखाई दे रहा था । बहरहाल आगे किस्सा यूं है कि उन दिनों ऑफिस में बिल वगैरह टाइप करने केलिए और खाता लिखने के लिए कौशल्या नाम की एक लड़की हुआ करती थी जो कि निहायत खूबसूरत थी । मैं और सेठी दोनों ही उसके दीवाने थे लेकिन वो मेरी जगह सेठी को ही भाव देती थी जबकि मैं कुंवारा था और सेठी न सिर्फ शादीशुदा था बल्कि बालबच्चेदार भी था ।”

“गरीब लड़की होगी । दौलत की दादागिरी को समझती होगी ।”
“यही बात थी । लेकिन तब गरीब तो मैं भी नहीं था ।”
“उसे मालूम हो गया होगा कि पहले तुम्हारी क्या औकात थी !”
“शायद । बहरहाल वो लड़की सेठी जैसे शादीशुदा, उम्रदराज मर्द से प्यार की पींगे बढ़ाती थी और मैं कुढ़ता था । एक दिन इसी कुढन में मैंने सेठी की बीवी को एक गुमनाम चिट्ठी लिख दी जिसमें मैने सेठी और कौशल्या की मुहब्बत का तमाम कच्चा चिट्ठा खोल दिया । सेठी की बीवी को आग लग गई । उसने सेठी की ऐसी ऐसी-तैसी फेरी कि पट्ठा पनाह मांग गया । सेठी अपनी बीवी से खौफ खाता था क्योकि वो एक बहुत बड़े गैंगस्टर की बहन थी और उस गैंगस्टर के सदके ही वो स्मगलिंग के धंधे में पड़ा था । बीवी का हुक्म नादिर हुआ कि कौशल्या को डिसमिस करो । सेठी ने कौशल्या को नौकरी से तो निकाल दिया लेकिन उसका साथ न छोड़ा । उसने कौशल्या को कालकाजी में एक फ्लैट ले दिया जहां वो उससे चोरी-छुपे मिलने जाता रहा । मैंने वो बात भी एक और गुमनाम चिट्ठी में सेठी की बीवी को लिख दी ।”

“बड़े कमीने हो, यार ।”
“बक मत और चुपचाप सुन ।”
“सुन रहा हूं ।”
 
“तब सेठी की बीवी ने पहले से कई गुणा ज्यादा कोहराम मचाया । सेठी को बीवी से तलाक की और साले से कत्ल की धमकियां मिलने लगीं । सेठी ऐसा हत्थे से उखड़ा कि एक दिन उसने घबराकर आत्महत्या कर ली । ऑफिस में ही उसने अपने आपको गोली मारली ।”
“ओह !”
“नतीजतन सारा कारोबार मेरे हाथ में आ गया ।”
“ओह ! ओह !”
“तब कौशल्या उम्मीद से थी । वो सेठी के बच्चे की मां बनने वाली थी । सेठी की मौत के पांच महीने बाद उसने एक बच्चे को जन्म दिया । बावजूद इसके मैंने उससे शादी की पेशकश की जो उसने साफ ठुकरा दी ।”

“दिल से चाहती होगी वो सेठी को ।”
“ऐसा ही था कुछ ।”
“आगे ।”
“बच्चा होने के दो साल बाद वो मर गई । लेकिन मरने से पहले अपने वकील के पास एक सीलबंद लिफाफे में एक चिट्ठी लिख के छोड़ गई जो कि उसके बच्चे के बालिग हो जाने के बाद उसे सौंप दी जानी थी । ऐसा ही हुआ । वो चिट्ठी पढ़कर वो बच्चा मेरे पास पहुंच गया । उसने मुझे बताया कि वो कौशल्या का बेटा था और उसके पास इस बात के सिक्केबंद सबूत थे कि मैंने मुकंदलाल सेठी का खून किया था । मेरे छक्के छूट गए ।”

“तुमने किया था ?”
“हां । बुनियादी तौर पर तो उस खून ने ही मुझे दौलत की ड्योढ़ी पर लाकर खड़ा किया था ।”
“वो लड़का शशिकांत था ?”
“एकदम ठीक पहचाना । वो बाकायदा मुझे ब्लैकमेल करके मेरा छोटा भाई बना । मैंने हर किसी को ये ही बताया कि पहले वो देहात में मेरी मां के पास रहता था, एकाएक मेरी मां मर गई थी तो मैने उसे अपने पास बुला लिया था ताकि वो शहर में आकर तरक्की कर सके, जिन्दगी मे कुछ बन सके । देख, ब्लैकमेल से इस छोकरे ने कितना कुछ हासिल किया मेरे से ? नाइट क्लब की सूरत में मैने इसे कारोबार मुहैया कराया । रहने को यहां मैटकाफ रोड पर ये कोठी लेकर दी ओर इसी के कहने पर इसकी आइन्दा जिंदगी की खुशहाली की गारंटी के तौर पर मैंने इसका पचास लाख रुपए का बीमा कराया जिसकी किस्त मैं भरता था ।”

“तुम्हें अपना नामिनी बनाने को तैयार हो गया ये ?”
“किसी को तो नामिनी बनाना ही था इसने । दोनों मर चुके मां-बाप की नाजायज औलाद का और कौन था इस दुनिया में ! वैसे भी वो तो यही समझता था कि इंश्योरेंस तो उसने खुद ही कलेक्ट करनी थी, अर्जी में नामिनी भरना तो महज एक औपचारिकता थी ।”
“आई सी ।”
“अब सूरत अहवाल ये है, वीर मेरे, कि ये सिर्फ कत्ल का ही नहीं, एक करोड़ रुपए के इंश्योरेंस क्लेम का भी मामला है । इस केस की तफ्तीश में कातिल की तलाश पुलिस ही नहीं करेगी, बीमा कंपनी के बड़े-बड़े जासूस भी करेंगे । अब अगर ये बात खुल गई कि आजकल मेरी माली हालत पतली थी और मरने वाला, जिसके बीमे का मैं नामिनी था, मेरा कुछ नहीं लगता था तो मेरी तो वज्ज जाएगी ।”

“तुमने कत्ल किया है ?”
“खोत्ता ! ओए ! अगर मैंने इसका कत्ल करना होता तो फिर तेरा अगवा करने के लिए इतने पापड़ बेलने की क्या जरूरत थी ? अगर मैने इसका कत्ल करना होता तो मैं यूं खामखाह अपनी जान सांसत में डाल बैठता ?”
“तुम क्या करते ?”
“मैं कत्ल कराता हबीब बकरे से और खुद कत्ल के वक्त थाने में ए सी पी के पास बैठा होता ।”
“असल में कत्ल के वक्त कहां थे तुम ?”
“कत्ल के वक्त ?”
“साढ़े आठ के आसपास । कल शाम । और तसदीक पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से हो जाएगी । फिलहाल टूटी घड़ी यही साबित कर रही है कि कत्ल कल शाम आठ अट्ठाइस पर हुआ था ।”

“तब मैं अपने फ्लैट में था ।
“और कौन था वहां ?”
“कोई नहीं ।”
“कोई नौकर-चाकर तो होगा ।”
“कोई नहीं । कभी होता भी नहीं । नौकर-चाकर न रखने पड़ें तभी तो होटल के फ्लैट में रहता हूं ।”
“तुम्हारी बीवी ?”
“वो अपनी बहन से मिलने गई थी ।”
“कब ?”
“घर से छ: बजे निकली थी, लेकिन पहले उसने करोल बाग अपने दर्जी के पास भी जाना था । ऐसा बोल के गई थी वो ।”
“यूं बीवी को अकेले जाने देते हो ?”
“हमेशा नहीं । हर जगह नहीं ।”
“बहन कौन है ?”
“सुधा नाम है उसका । सुधा माथुर ।”

“शादीशुदा है ?”
“हां । मधु से बहुत पहले से ।”
“बड़ी बहन है ?”
“हां । चार साल बड़ी ।”
“कहां रहती है ?”
”फ्लैग स्टाफ रोड पर ।”
“बाराखम्भा से फ्लैग स्टाफ रोड जाने के लिए तो यहीं से गुजरना पड़ता है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं । लौटी कब थी ?”
“साढ़े नौ बजे ।”
“इस बात की गारंटी है कि वो बहन के घर ही थी ?”
वो खामोश रहा ।
“क्या हुआ ?”
“आगे-पीछे ऐसी गारंटी होती थी । कल नहीं थी ।”
“क्या ?”
“ज्यादा पी गया था । तेरे अगवा की तरफ दिमाग लगा हुआ था न ! उसकी टेंशन में । फोन करने का ख्याल ही न आया ।”

“फोन ?”
“मधु जब बहन के घर जाती है तो मैं वहां फोन करके इस बात की तसदीक कर लेता हूं कि वो वहां पहुंच गई थी ।”
“कल ऐसा नहीं कर सके थे । क्योंकि ज्यादा पी गए थे !”
“हां ।”
“मैं तुम्हारे साथ शरीक था ।”
“किस काम में ?” वो सकपकाकर बोला ।
“ज्यादा पी जाने में । कल मैं तुम्हारा मेहमान था । कत्ल के वक्त, यानी कि कल शाम साढ़े आठ बजे, मैं तुम्हारे फ्लैट में तुम्हारे साथ बैठा दारू पी रहा था ।”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या हुआ ?” मैं बोला ।

“कोल्ली, इतने बड़े केस में तेरी झूठी गवाही नहीं चलने वाली । पुलिस यूं” उसने चुटकी बजाई, “पता लगा लेगी कि तू मेरा दोस्त नहीं, जोड़ीदार नहीं ।”
“तो क्या हुआ ! हर काम की कभी तो पहल होनी ही होती है । समझ लो कल शाम की बैठक दोस्ती की शुरुआत थी ।”
“नहीं चलेगा ।”
“क्यों ?”
“दारू के लिये यूं किसी को घर नहीं बुलाता मैं । सबको मालूम है ।”
 
“फिर भी बुलाने पर कोई सरकारी पाबंदी तो नहीं ! कोई गजट में तो नहीं छपा था कि.....”
“पिच्छा छोड़, कोल्ली ।” वो तनिक चिढे स्वर में बोला, “कोई और बात सोच । ये नहीं चलने की ।”

“लेकिन....”
“ओये वीर मेरे, इतने बड़े केस में तेरी झूठी गवाही नहीं चलने की । तेरी झूठी गवाही मुझे तो बचा नहीं सकेगी, तुझे जरूर साथ फंसा देगी । ओये, तेरे जैसे प्राइवेट जसूस को बड़े आराम से खरीदा जा सकता है । कह कि मैं झूठ कह रहा हूं ।”
मैं कसमसाया, तिलमिलाया, भुनभुनाया लेकिन ये न कह सका कि वो झूठ कह रहा था ।
“ऊपर से अभी और सुन ।” वो बड़ी संजीदगी से बोला, “सुन और सोच । तेरी झूठी गवाही का खरीददार कौन है ? क्या चीज हूं मैं ? मैं एक अंडरवर्ल्ड डान हूं । दिल्ली का नामचीन दादा हूं । स्मगलर हूं । रेकेटीयर हूं । बुर्दाफरोश हूं । इन बातों से सोसायटी में खौफ तो बनता है, रुतबा नहीं बनता । मेरे जैसे आदमी का कोई हमदर्द नहीं होता सोसायटी में । एक बार फंस जाए तो हर कोई ये ही कहता है कि अच्छी हुई साले के साथ । बहुत कहर बरपाया हुआ था कमीने ने । ऐसी रिप्युट वाले आदमी का एक कत्ल में दखल बन जाता है । मुझे तो उधेड़ के रख देंगे मेरे दुश्मन । कत्ल के इल्जाम से पुलिस ने बख्श भी दिया तो बीमा कम्पनी वाले पसर जाएंगे । वो इसे डिस्प्यूट वाला केस बना देंगे और रकम की अदायगी में इतने अडंगे लगा देंगे कि सालों मुझे रकम के दर्शन नहीं होंगे । कोर्ट कचहरी के चक्कर में पडूंगा तो और मिट्टी खराब कराऊंगा । पल्ले से पैसा लगाकर केस लड़ना पडेगा, दीवानी का केस होगा, सालों फैसला नहीं होगा । तब तक कुछ मेरे वकील मुझे नंगा कर देंगे और कुछ वैसे ही मेरे दाने बिक जाएंगे । वीर मेरे, मौजूदा हालात से मेरी निजात का एक ही रास्ता है कि असली कातिल पकड़ा जाए । ठीक ?”

“ठीक ।”
“तो पकड़ ।”
“क्या ?” मैं हड़बड़ाया ।
“असली कातिल और क्या ?”
“उसे तो पुलिस ही पकड़ लेगी । आखिर पुलिस.....”
“खौत्ते ! पुलिस कोशिश तक नहीं करेगी । वो तो ये ही जान के बाग-बाग हो जाएगी कि कत्ल के इल्जाम में मैं” उसने अपनी तेल के बड़े वाले ड्रम जैसी छाती ठोकी, “लेखराज मदान फंस रहा था । अव्वल तो उनके किए कुछ होगा नहीं, उनको शर्म आ गई, लिहाज आ गया और कुछ हो गया तो तो तब होगा जवकि मेरी वैसे ही वज्ज चुकी होगी ।”
“वो कैसे ?”
“कौशल्या की उस चिट्ठी की वजह से जिसमें इस बात का सबूत है कि मुकन्दलाल सेठी का कातिल मैं था ।”

“वो चिट्ठी अभी तक शशिकान्त रखे हुए होगा ?”
“बिल्कुल रखे हुए होगा । कलेजे से लगाकर जान से ज्यादा अजीज वनाकर रखे हुए होगा ।”
“वो चिट्ठी कोठी में ही कहीं होगी । ढूंढ लेते हैं । क्या मुश्किल काम है ! ऐसी तलाश से हमें रोकने वाला तो मरा पड़ा है ।”
“कोल्ली आज तेरा ऐसा कोई बरत-वरत तो नहीं जिसमें अक्ल इस्तेमाल करने पर वरत टूट जाता हो ।”
“क्या हुआ ?”
“अरे, चौदह साल तक ये कुत्ती दा पुत्तर मेरी छाती पर हिमालय पहाड़ की तरह जमा रहा, इतने अरसे में मैंने कोई कसार छोड़ी होगी, कोई कोशिश उठा रखी होगी उस चिट्ठी की तलाश में । चार बार सुई की तलाश जैसी महीन तलाशी कर चुका हूं मैं इस कोठी की । यहां के अलावा क्लब को और और भी हर उस मुमकिन जगह को, जहां शशिकांत का दूर-दराज का भी दखल हो, मैं खंगाल चुका हूं । लेकिन वो चिट्ठी मेरे हाथ नहीं लगी ।”

“किसी बैंक के लॉकर में होगी । किसी वकील के दफ्तर में होगी ।”
“कहीं तो होगी ही । फेंकने वाला तो वे था नहीं उसे । आखिर वो चिट्ठी ही तो थी जो मेरी नाक की नकेल बनी हुई थी । कोल्ली, मेरी सलामती इसी में है कि वो चिट्ठी नुमाया होने से पहले असल कातिल पकड़ा जाए ।”
“वो तो फौरन नुमायां हो सकती है ।”
“मुझे उम्मीद नहीं । जिस किसी के पास भी वो चिट्ठी होगी, वो कुछ अरसा तो देखेगा ही कि पुलिस की सरगर्मियों का क्या नतीजा निकलता है । अगर उसे मालूम होता है कि कातिल मैं नहीं हूं और जो कातिल है उसकी पीठ पर मेरा हाथ भी साबित नहीं होता तो फिर वो क्यो भला उस चिट्ठी को आम करेगा ।”

“हूं ।”
“कोल्ली, सारी कथा का निचोड़ यही है कि कातिल को पकड़ फौरन पकड़, फौरन से पेश्तर पकड़ ।”
“कहां मिलेगा ?”
“मजाक मत कर बकवास भी मत कर ।”
“फोकट में पकडूं ?”
“फोकट में क्यों वीर मेरे, तू कोई वालंटियर है !”
“ऐन मेरे मन की बात कही ।”
“अपनी कीमत खुद बोल ।”
“रजनी के नाम वाला जो लिफाफा तुम्हारी कोट की जेब में है, वो मुझे दो ।”
“ज्यादा है ।”
“क्या बात है, मेरी औकात अपने पहलवान हबीब बकरे जितनी भी नहीं समझते हो ?”
“वो रकम जिक्र के लिए थी, देने के लिए नहीं ।”

“यानी कि मुझे यहां लाकर जब वो मेरा खून कर देता तो खुद तुम उसका पत्ता साफ कर देते ?”
“जरूरी था । ऐसे मामलों में गवाह नहीं छोड़े जाते ।”
“मेरे बारे में भी तो ऐसा ही कुछ नहीं सोचे बैठे हो ?”
“अब नहीं । अब मुझे तेरी जरुरत है ।”
“ऐसे तुम्हारी जरूरत कैसे पूरी होगी, लिफाफा तो अभी भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा ।”
“कम से नहीं मानेगा ?”
“वक्त खराब कर रहे हो जबकि जानते हो कि एक-एक मिनट कीमती है ।”
उसने एक आह सी भरी और जेब से लिफाफा निकाला । चिट्ठी समेत ही उसने वो लिफाफा मुझे सौंप दिया ।

सुधीर कोहली - मैंने मन ही मन खुद अपनी पीठ थपथपाई लक्की बास्टर्ड ।
मेरे और पुलिस के कारोबार में जो भारी फर्क है, वो यह कि उनका काम लोगों को सजा दिलाना है जबकि मेरा काम उन्हें सजा से बचाना होता है । उन्होंने अपनी तनख्वाह को जस्टिफाई करने के लिए बेगुनाह को भी मुजरिम मानना होता है जवकि मुझे अपनी फीस को जस्टीफाई करने के लिए मुजरिम को भी बेगुनाह साबित करके दिखाना होता है । इसीलिए मेरी फीस उनकी तनख्वाह से कहीं ज्यादा है ।
 
मेरी इस मोटी लेकिन वक्ती कमाई का रोब खाकर जो कोई साहब प्राइवेट डिटेक्टिव का धंधा अख्तियार करने का इरादा कर रहे हों तो उनसे मेरी दरख्वास्त है कि वे गरीब रिश्तेदार की तरह फौरन इस इरादे से किनारा कर लें । मोटी रकम मुझे कभी-कभार ही हासिल होती है । अमूमन तो मुझे अपने ऑफिस में बैठकर किसी क्लायंट के इंतजार में मक्खियां मारनी पड़ती हैं । और अगर क्लायंट आ भी जाए तो मुझे क्या हासिल होता है । पांच सौ रुपये जमा खर्चे । मेरी मौजूदा फीस । जो कि मेरे तकरीबन क्लायंट को ज्यादा लगती है जबकि इससे ज्यादा पैसे तो मैंने सुना है कि लोग-बाग करोल बाग या चांदनी चौक में गोलगप्पे बेचकर कमा लेते हैं ।

और इस रकम का ख्याल करते हुए साहबान उस जान को न भूलें जो कि आपके खादिम की थी और जाते-जाते बची था ।
“क्या सोच रहा है ?” मदान तनिक उतावले स्वर में बोला ।
“कुछ नहीं ।” मेरी तन्द्रा टूटी, “इंश्योरेंस के बारे में और कौन जानता है ? मेरा मतलब है तुम्हारे, शशिकान्त और इंश्योरेंस कम्पनी के अलावा ।”
“मेरा वकील ।” वो बोला ।
“पुनीत खेतान !”
“तू कैसे जानता है ?”
“क्या ?”
“कि पुनीत खेतान मेरा वकील है ?”
“आल इंडिया रेडियो से घोषणा हुई थी । और कौन जानता है ?”
“कोई नहीं ।”

“तुम्हारी बीवी भी नहीं ?”
“नहीं ।”
“पुनीत खेतान का पता ठिकाना ?”
“क्यों चात्ता है ?”
“बहस न करो ।”
“ऑफिस शक्ति नगर में । घर शालीमार बाग में ।”
“दोनों जगहों का पता बताओ । फोन नम्बर भी ।”
उसने बताया । मैंने नोट किया ।
“वो सामने” फिर मैंने पूछा, “वाल केबिनट की बगल में जो बंद दरवाजा है, उसके पीछे क्या है ?”
“बाथरूम ।” वो बोला, “क्यों ?”
“कुछ नहीं ।” मैंने कुर्सी पर पड़े शशिकांत की ओर इशारा किया, “घर ये ऐसे ही रहता था ?”
“क्या मतलब ?”
“ये सूट-बूट पहने तैयार बैठा है ।”

“कहीं जाने की तैयारी में होगा । या कहीं से लौटा होगा ।”
“ये अपनी स्टडी में बैठा है ।”
“तो क्या हुआ? साफ-साफ बोल क्या कहना चाहता है !”
“इसका यहां मौजूद होना साबित करता है कि हत्यारा न सिर्फ इसके लिए अपरिचित नहीं था बल्कि वो इतना जाना-पहचाना था कि हत्प्राण उसे यहां स्टडी में लेकर आया । ऐसा न होता तो उसने आगंतुक को ड्राइंगरुम में बिठाया होता या बाहर से ही टरका दिया होता ।”
“इसका क्या मतलब हुआ ?”
“इसका ये मतलब हुआ कि हत्यारा कोई अजनबी नहीं था । वो मरने वाले का खूब जाना-पहचाना था और उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि वो यूं उस पर गोली चला सकता था ।”

“हूं ।”
“ऐसा बंदा कौन हो सकता है ? या बंदी कौन हो सकती है ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“वो लड़की.. .सुजाता मेहरा...मकतूल की मुफ्त की हाउस कीपर, वो शाम को यहां से वापस कब जाती थी ?”
“कोई पक्का नहीं । जल्दी भी जाती थी । देर से भी जाती थी । नहीं भी जाती थी । शशि के मूड की बात थी । मैंने बताया तो था ।”
“हां, बताया था ।”
“वो कोई मुलाजिम तो नहीं थी न जो...”
“आई अडरस्टैंड । यानी कि हो सकता है कि कातिल के यहां आगमन के वक्त वो यहीं हो ।”

“कैसे हो सकता है ? कातिल इतना अहमक तो नहीं होगा कि यू अपने पीछे कत्ल का एक गवाह छोड़ जाता ।”
“उसे पता नहीं लगा होगा कि कोठी में कोई और भी था । आखिर इतनी बड़ी कोठी है ये ।”
“लेकिन अंधाधुंध गोलियां चलने की आवाज सुनकर वो लड़की क्या भीतर खामोश बैठी रही होगी ।”
“अपनी जान की खैर चाहती होगी तो खामोश ही बैठी होगी !”
“लेकिन बाद में...बाद में भला कैसे वो यूं शशि को पीछे मरा छोड़कर यहां से खिसक गई होगी ?”
“कत्ल के केस में इन्वोल्व्मेंट से हर कोई बचना चाहता है ।”

“कोल्ली, वो लड़की हर कोई नहीं थी, वो शशि की दीवानी थी । वो शशि को पीछे मरा छोड़कर यूं खिसक नहीं सकती थी । खिसक भी सकती थी तो कत्ल के” उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली, “चौदह -पंद्रह घंटे बाद तक वो खामोश नहीं रह सकती थी । और कुछ नहीं तो वो कम से कम पुलिस को एक गुमनाम टेलीफोन कॉल ही कर तकती थी । आज यहां तेरे कत्ल का प्रोग्राम न होता और उसकी वजह से मेरा यहां आना लाजिमी न होता तो यूं तो पता नहीं कब तक ये यहां मरा पड़ा रहता !

“तुम कहते हो कि लड़की ग्यारह बजे के आसपास यहां आती है ?”
“हां ।”
“अगर वो ग्यारह बजे यहां आ गई तो इसका मतलब ये होगा कि कत्ल की उसे कोई खबर नहीं यानी कि कल रात कत्ल के दौरान वो वहां मौजूद नहीं थी ।”
“न आई तो भी तो ये मतलब नहीं होगा कि उसे कत्ल की खबर थी । सौ और वजह हो सकती हैं, उसके यहां न आने की ।”
“ये भी ठीक है । वो रहती कहां है ?”
“मंदिर मार्ग । वर्किंग गर्ल्ज होस्टल में ।”
“अब तुम एक काम करो ।”
“क्या ?”

“यहां से फूट जाओ ।”
“कहां फूट जाऊं ?”
“अपने घर । चुपचाप । समझ लो कि तुम यहां आए ही नहीं । घर जाकर अपनी बीवी को समझाओ कि कल शाम से तुम घर से नहीं निकले । तुम्हारी तबीयत खराब थी । तुम्हारे पेट में, पसली में, कान में, कहीं दर्द था । या ऐसी ही कोई और अलामत सोच लो जिसकी वजह से डॉक्टर को तो नहीं बुलाना पड़ता लेकिन आराम जरूरी होता है, बल्कि मजबूरी होता है ।”
“मुझे कभी-कभी गठिया का दर्द होता है ।”
“बढ़िया । एन वही कल शाम को तुम्हें हो गया था । अभी भी है । मदान दादा, ये जरूरी है कि तफ्तीश के लिए जब तुम्हारे यहां पहुंचे तो वो तुम्हें हाय-हाय करता बिस्तर के हवाले पाए और तुम्हारी बीवी इस बात की तस्दीक करे कि वो हाय-हाय कल शाम से जारी थी । कहना मानती है वो तुम्हारा ?”

“कैसे नहीं मानेगी ? खौफ खाती है वो मेरा ।”
“बढ़िया । कहने का मतलब ये है कि अगर मेरी झूठी गवाही नहीं चल सकती तो तुम्हारी बीवी की झूठी गवाही तो चल सकती है ।”
“तुमसे बेहतर चल रुकती है लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“वो शाम को घर पर नहीं थी । अगर किसी को ये बात पता हुई या ऐन कत्ल के समय उसे किसी ने कहीं और देखा हुआ हो तो ?”
“उससे बात करो । मालूम करो कि ऐसी कोई सम्भावना है या नहीं ।”
“अगर हुई तो ?”
“तो अपनी ये जिद फिर भी बरकरार रखना कि गठिया वाले दर्द की वजह से तुम घर पर थे, अलबत्ता अपने खस्ताहाल की वजह से तुम्हें ये खवर नहीं थी कि बीवी वीच में थोड़ी देर के लिए कहीं चली गई थी ।”
 
“मुझे बिना बताए ?”
“क्या हर्ज है ?”
“तू मरवाएगा, कोल्ली । यूं तो वो भी शक के दायरे में आ जाएगी ।”
“तो क्या बुरा होगा ? बतौर मर्डर सस्पेक्ट पुलिस की तवज्जो अगर किसी और की तरफ जाती है तो तुम्हें फायदा ही है ।”
“लेकिन मधु....”
“ये न भूलो कि कत्ल के वक्त वो घर पर नहीं थी और तुम्हें मालूम भी नहीं कि वो कहां थी ।”
“कोल्ली तू पागल है । तेरा दिमाग चल गया है । अरे, मधु तो शशि को ठीक से जाननी-पहचानती तक नहीं वो भला क्यों इसका कत्ल करेगी ?”
“ये खोजबीन का, जांच-पड़ताल का मुद्दा है ।”

“मां के सिर का मुद्दा है तेरी ।”
“मदान दादा, मेरे से गाली-गलौज की जुबान बरतोगे तो फीस बढ़ जाएगी ।”
“उसने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला और फिर कुछ सोचकर चुप हो गया ।”
“अब हिलो यहां से सुजाता मेहरा के आने का वक्त हो रहा है ।”
“तू भी तो हिल ।”
“नहीं, मैं अभी यहीं ठहरूंगा ।”
“क्यों ?'
“एक तो मैं ये देखना चाहता हूं कि निर्धारित वक्त पर वो लड़की यहां आती है नहीं । दूसरे मैं यहां रिवॉल्वर तलाश करना चाहता हूं ।”
“क्या !”
“मैं यहां भीतर और बाहर, और कोठी के आसपास भी, बाईस कैलिबर की वो रिवॉल्वर तलाश करना चाहता हूं जिससे कि कत्ल हुआ है ।”

“वो यहीं होगी ?”
“उम्मीद तो है । अगर वाकई कत्ल किसी औरत जात ने किया है जिसने कि रिवॉल्वर का रुख मकतूल की तरफ किया और आंखें बन्द करके रिवॉल्वर उस पर खाली कर दी तो फिर इस बात की भी काफी सम्भावना है कि कत्ल के बाद वो रिवॉल्वर यहीं कहीं फैंक गयी होगी ।”
“दम तो है तेरी बात में । मैं मदद करूं तेरी रिवॉल्वर की तलाश में ?”
“नहीं । जरूरत नहीं । तुम फिलहाल वही करो जो मैंने कहा है । फूटो यहां से ।”
“बाहर राहदारी में मर्सरी के टायरों के निशान हैं । उन निशानों से साफ पहचाना जाएगा कि कोई मर्सरी यहां आई थी और मर्सरी सिर्फ मेरे पास...”

“वो निशान पुलिस को नहीं मिलेंगे तुम्हारे जाते ही उन्हें मैं मिटा दूंगा ।”
उसके चेहरे पर प्रशंसा और कृतज्ञता के भाव आए ।
“पहलवान का क्या होगा ?” एकाएक वह बोला ।
“वो मोती बाग वाले मकान में ही है ।” मैं बोला “किसी भरोसे के आदमी को वहां भेजकर उसे वहां से छुड़वा लो ।”
“मैं खुद जाता हूं ।”
“खुद जाते हो तो जल्दी जाओ क्योंकि अपने फ्लैट पर तुम्हारी हाजिरी जरूरी है । तुम उसे वहां से छुड़ाकर हो सके तो कुछ दिन के लिए इस शहर से रुखसत कर दो ।”
“हो सकता है क्यों नहीं हो सकता ?”

“तो जाके हो सकने का इंतजाम करो ।”
एक आखिरी निगाह मकतूल पर डालकर वो वहां से विदा हो गया ।
हाथी दांत की मूंठ वाली बाईस कैलीवर की नन्ही-सी खूबसूरत रिवॉल्वर मुझे सफेदे के एक पेड़ की जड़ में उगी लंबी घास में पड़ी मिली । मुझे उस पर से उंगगलियों के कोई निशान मिलने की कतई उम्मीद नहीं थी फिर भी मैंने उसे बड़ी सावधानी से रूमाल में लपेटकर उठाया और उसका सीरियल नम्बर देखा ।
फायरआर्म्स रजिस्ट्रेशन के आफिस मेरा पुराना पटाया हुआ एक जमूरा था जो कि स्कॉच व्हिस्की की एक बोतल या पीटर स्कॉट की दो बोतल की एवज में चुपचाप मुझे बता देता था कि किस सीरियल का कौनसा हथियार किसके नाम रजिस्टर्ड था ।

ड्राइंगरूम के फोन से हाथ में रुमाल लपेटकर मैंने उसे फोन किया और उसे वो नम्बर बता दिया । उसने मुझे एक घंटे बाद फोन करने को कहा ।
फिर मैंने ड्राइव-वे पर से मर्सडीज के टायरों के निशान मिटाने का काम आरम्भ किया । ड्राइव-वे के दोनों ओर ऊंचे पेड़ उगे होने की वजह से मुझे काफी ओट हासिल थी लेकिन फाटक की ओर से कोई भीतर झांकता तो वो साफ देख सकता था कि मैं क्या कर रहा था ।
लेकिन पचास हजार रूपये फीस देने वाले क्लायंट के लिए इतना रिस्क तो मैंने लेना ही था ।

टायरों के निशान मिटाने की अपनी प्रक्रिया मैंने शुरू ही की थी कि एकाएक मैं ठिठका ।
ड्राइव-वे के बीचों-बीच मझे एक जोड़ी टायरों के निशान और दिखाई दिए । वे निशान बाइसिकल के टायर से ज्यादा चौड़े नहीं थे और कार के टायरों की तरह ही समानांतर बने हुए थे ।
मुझे साइकिल रिक्शा का ख्याल आया ।
लेकिन वे निशान संकरे थे, साइकिल रिक्शा की चौड़ाई के हिसाब से एक-दूसरे के ज्यादा करीब थे ।
व्हील चेयर ।
अपाहिजों के काम आने वाली पहियों वाली कुर्सी ।
निश्चय ही वे व्हील चेयर के निशान थे ।
व्हील चेयर के ताजा बने निशान ।

क्या मतलब था उनका !
किसी संभावित मतलब पर सिर धुनते हुए मैंने मर्सिडीज के टायरों के निशान मिटाने का काम आगे बढाया ।
मैं ड्राइव-वे के मिडल में पहुंचा तो मुझे जमीन पर एक जुगनु-सा चमकता दिखाई दिया ।
मैंने झुककर उसका मुआयना किया तो पाया कि वह एक नन्हा-सा हीरा था ।
हीरा !
तुरंत मेरा ध्यान मदान की बीवी के टॉप्स की ओर गया । मैंने हीरा उठाकर जेब के हवाले किया ।
टायरों के निशान मिटाने के चक्कर में मैं झुका हुआ न होता और मेरी निगाह पहले से ही जमीन पर न होती तो वो हीरा शायद ही मुझे दिखाई दे पाता ।

मैंने जल्दी-जल्दी टायरों के बाकी निशान मिटाए ।
तब तक ग्यारह बज चुके थे लेकिन सुजाता मेहरा के कदम वहां नहीं पड़े थे ।
मैंने उसका थोड़ी देर और इन्तजार करने का फैसला किया । वक्तगुजारी के लिए मैंने सारी इमारत के हर कोने खुदरे का चक्कर लगाया ।
कहीं कोई असाधारण बात मुझे दिखाई न दी ।
मैं वापस स्टडी में पहुंचा ।
वहां मैंने देखा कि एक चाबियों का गुच्छा मेज के दराजों के ताले में लगी एक चाबी सहारे लटक रहा था । जाहिर था कि अगर मालिक मर न गया होता तो दराजों को मजबूती से ताला लगा होता और चाबी मालिक के अधिकार में होती ।

फिंगर प्रिंट्स का खास ध्यान रखते हुए मैंने बारी-बारी मेज के तीनों दराज खोले ।
सबसे नीचे के दराज में मुझे एक वीडियो कैसेट दिखाई दिया ।
मैं सोचने लगा ।
पिछले बैडरूम में जहां कि टीवी और वीडियो था, मैंने कम से कम सौ विडियो कैसेट एक शैल्फ में बड़े करीने से सजे देखे थे ।
तो फिर वो एक कैसेट मेज की दराज मे क्यों !
मैंने कैसेट को अपने अधिकार में किया और पिछले बैडरूम में पहुंचा । मैंने टीवी और वीडियो का स्विच ऑन किया, कैसट को वीडियो में लगाया, उसे थोड़ा रीवाइंड किया और ऑन का स्विच दबा दिया ।

स्क्रीन पर अनिद्य सुन्दरी का अक्स उभरा ।
उसके जिस्म पर कपड़े की एक धज्जी भी नहीं थी ।
लड़की बहुत जवान थी और यौवन की दौलत से मालामाल थी । उसकी आंखों में एक वहशी चमक थी, चेहरे पर अजीब-सी तृप्ति के भाव थे और उसे अपनी नग्नता से कोई एतराज नहीं मालूम होता था ।
फिर स्क्रीन पर उसके करीब सूट बूट से लैस एक व्यक्ति प्रकट हुआ ।
मैंने उसे तुरंत पहचाना ।
न पहचानने का कोई मतलब ही नहीं था आखिर वो मेरा हमशक्ल था ।
वो मकतूल शशिकान्त था ।
उसने नंगी लड़की को अपने आगोश में ले लिया ।

मैंने वीडियो ऑफ करके कैसेट निकाल लिया । मुझे मजा तो बहुत आ रहा था फिल्म देखकर लेकिन उस पर और बरबाद करने के लिए उस घड़ी मेरे पास वक्त नहीं था ।
तब तक सवा ग्यारह वज गए थे और सुजाता मेहरा का कहीं पता नहीं था । अब वहां और ठहरना बेमानी था । बेमानी और खतरनाक भी ।
मैने बिजली का स्विच ऑफ किया और वापस स्टडी में पहुंचा । वहां मेज पर मेंने एक इकलौती चाबी पड़ी देखी थी । उम चाबी को वहां से उठाकर मैंने कोठी के मुख्यद्वार के ताले में ट्राई किया तो पाया कि चाबी उसी ताले की थी ।

वो ताला स्प्रिंग लॉक था जो खोलना चाबी से पड़ता था लेकिन जो पल्ले के चौखट के साथ लगते ही खुद ही बंद हो जाता था । मैंने वहां से निकलकर दरवाजा बन्द किया ड्राइव-वे को पार करके बाहर का फाटक भी बंद किया और वहां से रुखसत हो गया ।
 
मैं कनाट प्लेस मेहरासंस के शोरूम में पहुंचा ।
मैंने उस सेल्समैन के बारे में दरयाफ्त किया जिसे सुबह मदान हीरे के टोप्स सोंपकर गया था । मैंने उसे मकतूल के ड्राइव-वे पर से मिला हीरा दिखाया । उसने टोप्स निकाले और उसे खाली पड़ी जगह में जोड़कर इस बात की तसदीक की कि वो वहीं से उखड़ा हुआ हीरा था ।
“अब नया हीरा तराशने की जरूरत नहीं ।” सेल्समैन बोला, “अब तो यही लग जाएगा ।”
“नया ही तराशिये ।” मैं वो हीरा बड़ी सफाई से उसकी उंगलियों से निकालता हुआ बोला ।
अपने पीछे तनिक हकबकाए सेल्समैन को छोड़कर मैं वहां से रुखसत हो गया ।

मैं मंदिर मार्ग पहुंचा ।
सुजाता मेहरा वहां गर्ल्स होस्टल के दूसरी मंजिल पर स्थित अपने कमरे में मौजूद थी ।
वो वक्त वर्किंग गर्ल्स के होस्टल में मौजूद होने नहीं होता था इसलिए होस्टल में काफी हद तक सन्नाटा छाया हुआ था ।
सुजाता मेहरा 'तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना' मार्का लड़की निकली । उम्र में वो कोई तेईस चौबीस साल की थी, खूबसूरत थी, नौजवान थी लेकिन सूरत से ही मौहल्ले भर में मुंह मारती फिरने वाली बिल्ली की तरह चरकटी और नदीदी लग रही थी ।
पता नहीं चालू लड़कियों को भगवान इतना खूबसूरत क्यों बनाता है, या शायद खूबसूरत लड़कियां ही चालू होती हैं ।

मैंने उसे अपना परिचय दिया और परिचय की तसदीक के तौर पर अपना एक विजिटिंग कार्ड भी थमाया ।
उसने मुझे कमरे में एक कुर्सी पर बिठाया और स्वयं मेरे सामने पलंग पर बैठ गई । वह बिना दुपट्टे के शलवार कमीज पहने थी इसलिए ढका होने के बावजूद उसके उन्नत वक्ष का बहुत दिलकश नजारा मुझे हो रहा था ।
एक गिला मुझे रहा ।
दरवाजा उसने खुला छोड़ दिया था ।
युअर्स ट्रूली ये नहीं कहता कि दरवाजा बंद होता तो वो आकर मेरी गोद में ही बैठ जाती लेकिन तब ये सुखद सम्भावना कम से कम विचारणीय तो रहती ।

“कमरे में मेल गैस्ट को रिसीव करने के लिए” वो जैसे मेरे मन की बात भांपकर बोली, “दरवाजा खुला रखना जरूरी है । रूल है ये यहां का ।”
“ओह !” मैं बोला, “सिगरेट के बारे में क्या रूल है ?”
“चलेगा । एक मुझे भी दो । सुलगा के ।”
मैंने अपना एक डनहिल का पैकेट निकालकर दो सिगरेट सुलगाए और एक उसे थमा दिया । उसने बड़े तजुर्बेकार ढंग से सिगरेट के दो लम्बे कश लगाए और उसकी राख करीब मेज पर पड़े एक चाय के कप में झाड़ी । फिर उसने वही कप मेरी ओर सरका दिया ।

“मै सुन रही हूं ।” वो बड़ी बेबाकी से बोली ।
“क्या ?” मैं तनिक हकबकाया ।
“वही जो तुम कहने जा रहे हो ।”
“ओह! गुड । बात कैसी पसन्द करती हो ? आउटर रिंग रोड से खूब लंबा घेरा काट कर मकसद तक पहुचने वाली या शार्टकट वाली ।”
“शार्टकट वाली ।”
“गुड । आज मैटकाफ रोड नहीं गई ?”
उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।
“शशिकात के यहां ।” मैं आगे बढा, “शार्टकट वाली बात तो ऐसी ही होती है ।”
“नहीं गई तो तुम्हें क्या ?”
“मुझे तो कुछ नहीं लेकिन किसी और को है ?”

“किस को ?”
“पुलिस को ।”
“क्या ?”
“बात को बातरतीब आगे बढ़ने दोगी तो आसानी से सब कुछ समझ पाओगी । यकीन जानो जब मैं यहां से रुखसत होऊंगा तो समझने के लिए कुछ बाकी छोड़कर नहीं जाऊंगा ।”
“हूं ।” उसने हथेली में छुपाए रखकर ही सिगरेट का एक कश लगाया और धुआं पता नहीं किधर हजम कर लिया ।
“अब बोलो । मेटकाफ रोड शशिकान्त की कोठी पर क्यों नहीं गई जहां कि तुम हर रोज ग्यारह बजे जाती हो ?”
“नहीं गई । आगे भी कभी नहीं जाऊंगी ।”
“क्यों ?”
“वो कहानी अब खत्म ।”

“कैसे खत्म ?”
“कल शाम बहुत कमीनगी से पेश आया वो मेरे से । खामखाह मेरे से उल्टा-सीधा बोलने लगा । अकेले में कुछ कहता तो मैं सुन लेती लेकिन उसने तो अपने एक मेहमान के सामने मुझे बेइज्जत किया ।”
“मेहमान ?”
“कोई पुनीत खेतान करके था स्टाक ब्रोकर था वो उसका ।”
“स्टाक ब्रोकर या वकील ?”
“वकील भी होगा ।”
“यानी कि टू इन वन । कानूनी सलाहकार भी ओर इनवेस्टमेंट एडवाइजर भी । लीगल एंड फाइनांशल एडवाईजर !”
“वही समझ लो ।”
“वो कल शाम वहां था ?”
“हां । छ पांच पर आया था ।”

“ठहरा कब तक था ?”
“मुझे नहीं मालूम । क्योकि मैं सात बजे तक वहां से चली आई थी ।”
“यानी कि तुम्हारे वहां से रुखसत होने तक वो वहीं था ?”
“न सिर्फ वहीं था, बल्कि अभी जल्दी रुखसत होने का उसका कोई इरादा भी नहीं लगता था ।”
“ऐसा कैसे सोचा ?”
“किसी बात पर झगड़ रहे थे दोनों । मेरे वहां से चले जाने तक वो झगड़ा किसी अंजाम तक पहुंचता जो नहीं लग रहा था ।”
“किस बात पर झगड़ रहे थे ?”
“मुकम्मल बात मुझे नहीं मालूम । मैं कोई उसके साथ थोड़े ही बैठी थी ।”

“वो कहां बैठे थे ?”
“शशि की स्टडी में ।”
“और तुम कहां थीं ?”
“पिछवाड़े के बैडरूम में ।”
“वहां तक स्टडी की आवाजें पहुचती थीं ?”
“तभी जब कोई बहुत ऊंचा बोले ।”
“झगड़ा पुनीत खेतान के आते ही शुरू हो गया था ?”
“नहीं । झगड़े का माहौल उसके आने के कोई पन्द्रह-बीस मिनट बाद बना था । बीच में एक-दो बार ठण्डा भी पड़ा था ।”
“वो किसलिए ?”
“मेरे से भी जो झगड़ना था उसने ।”
“आदतन झगड़ालू आदमी था शशिकांत ?”
“था क्या मतलब ? अब कौनसा उसे हैजा हो गया है ?”
उसके सिर्फ ‘था’ और ‘है’ में मीन-मेख निकालने लगने से ये मतलब नहीं लगाया जा सकता था कि उसे शशिकांत के कत्ल की खबर नहीं थी । मैं उसे जानना नहीं था । वो जितनी दिखती थी, उससे कहीं ज्यादा चालाक और पहुंची हुई हो सकती थी ।”

“आदतन झगड़ालू आदमी है” मैंने संशोधन किया, “शशिकान्त ?”
“पता नहीं क्या बला है ।” वो तिक्त भाव से बोली, “मैं तो समझ ही नहीं सकी उसका मिजाज ।”
“तुम जो बाकायदा उसकी हाउसकीपर बनी बैठी थी, किस खुशी में कर दी उसकी इतनी खिदमत ? क्यों हो गई इतनी मेहरबान उस पर ?”
“इसी खामख्याली में कर दी खिदमत कि उसे मेरी कद्र होगी वो मुझ पर मेहरबान होगा ।”
“सफा-सफा हिन्दोस्तानी में इसे मर्द को अपने पर आशिक करवाने की कोशिश कहते हैं ।”
उसने घूरकर मुझे देखा ।
“औरत जात की” मैं निर्विकार भाव से बोला, “कुछ खास उम्मीदें जब किसी मर्द मे पूरी नहीं होती तो वो चिड़कर उस पर ये लांछन लगाने लगती है कि वो बेमुरब्बत है, बद्जुबान है, खुदगर्ज है, नाशुक्रा है वगैरह ...”

वो कुछ क्षण पूर्ववत् मुझे घूरती रही और फिर एकाएक हंसी ।
“यानी कि मैंने ठीक कहा ?” मैं बोला ।
“हां ।”
“ठीक कहने का कोई इनाम ?”
उसने सिगरेट का आखिरी कश लगाया और बचे हुए टुकड़े को आगे को झुककर उस चाय के प्याले में डाला जो उसने पहले ही मेरी तरफ सरका दिया हुआ था । यूं मुझे उसके उन्नत दूधिया वक्ष की घाटी में बहुत दूर तक झांकने का मौका मिला । अब पता नहीं वो बेध्यानी में ज्यादा नीचे झुक गई थी या वो नजारा मुझे कराकर उसने मुझे इनाम दिया था ।
“देखो” वो मुझे समझाती हुई बोली, “मैं उसकी नाइट क्लब में चिट क्लर्क की नौकरी करती थी । दो हजार तनख्वाह थी । और भी सुविधाएं थीं । नाइट क्लब जैसी जगह की मुलाजमत होने की वजह से ऊपरी कमाई के भी बड़े चांस थे । कुल मिलाकर बढिया, मौज-बहार वाली नौकरी थी । लेकिन पुलिस की मेहरबानी से नाइट क्लब पर ताला पड़ गया । खड़े पैर क्लब के सारे मुलाजिम बेरोजगार हो गए । दिल्ली शहर में आनन-फानन नई, बढ़िया नौकरी ढूंढ लेना कोई मजाक तो है नहीं । ऐसे माहौल में मैंने क्लब के मालिक को शीशे में उतारने की कोशिश की तो क्या गलत किया ?”
 
“क्लब खुलने पर नौकरी की बहाली हो जाती सिर्फ इसलिए ऐसा किया था या और कोई भी मकसद था ?”
“शुरू में कोई और मकसद नहीं था लेकिन जब माहौल ऐसा बन गया कि मैं एक तरह से उसकी कोठी पर ही रहने लगी तो और भी मकसद सूझने लगे ।”
“जैसे शादी ?”
“या एक्सपेंसिव मिस्ट्रेस ।”
“तुम्हें उसकी रखैल बनना भी मंजूर था ?”
“मामूली रखैल नहीं । कीमती रखैल । एक्सपेंसिव मिस्ट्रेस ।”
“लेकिन मंजूर था ।”
“मिस्टर, मेल ट्रेन मिस हो जाए तो पैसेंजर से सफर करने मे कोई हर्ज होता है ?”
“कोई हर्ज नहीं होता । पैसेंजर के बाद मालगाड़ी भी होती है फिर बस, घोड़ा-तांगा, बैलगाड़ी...”

“शटअप !” वो भुनभुनाई ।
“ ओके ।”
“मैं इतना नीचे नहीं गिरने वाली ।”
“एक बार डाउनवर्ड स्लाइड शुरू हो जाए तो क्या पता लगता है कोई कितना नीचे गिरेगा ! लेकिन वो किस्सा फिर कभी । बहरहाल वो पटा नहीं तुम्हारे से ?”
“यही समझ लो । अजीब कन्फ्यूजन का माहौल रहा पूरा एक महीना । कभी लगता था पट रहा है तो कभी लगता था परों पर पानी पड़ने देने को तैयार नहीं । मैंने तो उसका मिजाज भांपने के लिए उसे जलाने की भी कोशिश की ।”
“अच्छा ! वो कैसे ?”
“अपने एक ब्वाय फ्रेंड के चर्चे करके ।”

“था कोई ऐसा । ब्वाय फ्रेंड ?”
“था । है ।”
“कौन ?”
“डिसूजा नाम है उसका । पॉप सिंगर है । क्लब में गाता-बजाता था ।”
“आई सी ।”
“एक-दो बार मैं शशिकांत के सामने डिसूजा के साथ डेट पर गई । मैंने खास ऐसा इंतजाम किया कि डिसूजा मुझे पिक करने के लिए ऐसे वक्त पर मेटकाफ रोड शशिकांत की कोठी पर आए जबकि वो घर हो ।”
“कोई नतीजा निकला ?”
“वो भुनभुनाया तो सही लेकिन हसद की उस आग में न जला जिसमें जलता मैं उसे देखना चाहती थी ।”
“फिर ?”
“कल भी डिसूजा मुझे लेने कोठी पर आने वाला था । उसके सामने ही जबकि उसका वकील पुनीत खेतान भी बैठा था, मेरे लिए डिसूजा का फोन आया जो कि मैंने स्टडी में शशिकांत के सिरहाने खड़े होकर सुना । मेरे फोन रखते ही वो मेरे पर फट पड़ा । अपने मेहमान के सामने जलील करके रख दिया कमीने ने मुझे । गुस्से में पता नहीं क्या-क्या भोंकता रहा । भड़क खेतान से रहा था और गले मेरे पड़ गया । कहने लगा अगर उस डिसूजा के बच्चे ने मेरी कोठी में कदम रखा तो साले को शूट कर दूंगा । फिर मुझे भी गुस्सा चढ़ गया । मैंने भी कह दिया कि वो कौन होता था मुझे किसी से मिलने से रोकने वाला ! जवाब में उसने इतनी गन्दी जुबान बोली कि कान पक गए मेरे ।”

“क्या बोला ?”
“बोला उसकी बला से मैं चाहे सारे शहर के डिसूजाओं के बिस्तर गर्म करूं लेकिन उसकी कोठी से बाहर ।”
“ओह ।”
“उसको अपने पर आशिक करवाने के अपने मिशन को निगाह में रखते हुए शायद मैं फिर भी जब्त कर लेती लेकिन वो उसका मेहमान, वो हरामजादा खेतान का बच्चा, मुझे बेइज्ज्त होता देखकर यूं मजे ले रहा था और हंस रहा था कि जी चाहता था कि उसका मुंह नोच लूं ।”
“उसका ? शशिकान्त का नहीं !”
“उसको तो उस वक्त गोली से उड़ा देने का जी चाह रहा था मेरा ।”
“इस काम के लिए तो कोई फायरआर्म, कोई हथियार दरकार होता । था तुम्हारे पास ?”

“नहीं था । जो कि अच्छा ही हुआ । नहीं तो जैसी उसने मेरी बेइज्जती की थी मैं जरूर उसे शूट कर देती ।”
“शूट कर देने की जगह क्या किया ?”
“मैने उसकी चाबी उसके मुंह पर मारी और घर चली आई ।”
“सात बजे ?”
“हां ।”
“'तब पुनीत खेतान अभी वहीं था ?”
“हां । बोला तो ?”
“और डिसूजा ?”
“क्या डिसूजा ?”
“वो तुम्हें लेने जो आने वाला था ?”
“वो बात तो मैं भूल ही गई थी । वो तो मुझे तब याद आया जब कि अंगारों पर लोटती मैं यहां पहुंच गई ।”

“वो गया तो होगा वहां ? आखिर उसे थोड़े ही पता था कि तुम वहां से हमेशा के लिए रुखसत ले चुकी हो ।”
“वह तो है ।”
“तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की कि वो वहां गया था या नहीं ?”
“नहीं ।”
“कमाल है ।”
“वो....वो क्या है कि मैंने सोचा था कि मुझे वहां न पाकर वो यहां आएगा ?”
“आया ?”
“आया तो नहीं ।”
“कल नहीं तो आज तो मालूम करती कि वो गया था या नहीं ?”
“मैं ...मैं अभी करती हूं ।”
“कैसे ?”
“उसे फोन करके । नीचे ग्राउण्ड फ्लोर पर पब्लिक फोन है ।”

मैं कुछ क्षण खामोश रहा, फिर मैंने सहमति में सिर हिला दिया ।
वह पलंग से उठी और कमरे से बाहर निकल गई ।
मैं दबे पांव दरवाजे के पास पहुंचा । मैंने बाहर गलियारे में झांका । वह सीढियों की ओर बढ रही थी । कुछ क्षण बाद जब वह सीढियां उतरती मेरी आखों से ओझल हो गई तो मैं चौखट पर से हटा । मैने घूमकर कमरे में चारों ओर निगाह डाली ।
एक कोने में एक वार्डरोब थी । उसके करीब जाकर मैंने उसका हैंडल ट्राई किया तो मैंने उसे खुली पाया । मैने भीतर निगाह दौडाई ।

भीतर एक खूंटी पर एक जनाना साइज की बरसाती टंगी हुई थी । उन दिनों बरसात का मौसम नहीं था ।
मैंने जेब से रूमाल में लिपटी रिवॉल्वर निकाली और रूमाल समेत उसे बरसाती की एक भीतरी जेब में डाल दिया ।
हजरात, खाकसार की उस हरकत को गलत न समझें । मेरा इरादा लड़की को फंसाने का कतई नहीं था, मैं तो महज वक्ती तौर पर उम फसादी रिवॉल्वर को किसी सुरक्षित जगह पर ट्रांसफर करना चाहता था और उस वक्त सामने मौजूद सुरक्षित जगह के इस्तेमाल का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया था ।
मैंनै वार्डरोब को पूर्ववत बन्द किया और वापस कुर्सी पर आकर बैठ गया । मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और सुजाता के लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।

कुछ क्षण बाद वह वापस लौटी ।
“बात नहीं हुई ।” वो पलंग पर ढेर होती हुई बोली, “पता नहीं नम्बर खराब है या वो घर पर नहीं है घंटी बजती है पर कोई उठाता नहीं ।”
“कोई बात नहीं ।” मैं बोला, “रहता कहां है वो ?”
“पंडारा रोड ।”
“पता और फोन नम्बर एक कागज पर लिख दो । कभी मौका लगा तो मैं उससे संपर्क करूंगा ।”
उसने ऐसा ही किया ।
“अकेले रहता है ?” कागज तह करके जेब के हवाले करते हुए मैंने पूछा ।
“हां ।”
“फिर तो घर ही नहीं होगा । तुम एक बात बताओ ।”

“पूछो ।”
“ये डिसूजा, तुम्हारा ब्वाय फ्रेंड तुम्हारे से इतना फिट है कि तुम्हारे भड़काने से वो किसी का खून कर दे ?”
“ऐसा कोई करता है !”
“मरता हो तो करता है । मरता है तुम्हारे पर ?”
“मरता तो बहुत है ।”
“फिर तो वो खून ....”
“ये खून वाली बात कहां से आ गई ?”
“तुम्हें नागवार लगती है तो फिलहाल जहां से आई है, वहीं वापस भेज देते हैं खून वाली बात और शशिकान्त और पुनीत खेतान के झगड़े पर आते हैं । किस बात पर झगड़ रहे थे वो ? ठहरो, ठहरो” उसे प्रतिवाद को तत्पर पाकर मैं जल्दी से बोला, “ये न कहना कि तुम उनके साथ नहीं बैठी थी या जहां तुम थीं वहां तक उनकी आवाज नहीं पहुचती थी । तुमने खुद कहा था कि ऊंचा बोलने पर आवाजें पीछे बैडरूम में तुम तक पहुंचती थी । अब झगड़ा खुसर-पुसर में तो होता नहीं । झगड़े का रिश्ता तुनकमिजाजी से, गुस्से से होता है । ऐसे माहौल में जब आदमी भड़कता है उसे पता भी नहीं लगता कि वो कब उंचा ऊंचा बोलने लगता है । कुछ तो न चाहते हुए भी तुमने सुना होगा ?”
 
“मेरी तवज्जो नहीं थी उधर ।”
“नहीं थी तो हो गई होगी । झगड़े का मुद्दा चाहे न समझ पाई होवो लेकिन फिर भी कुछ तो जरूर सुना होगा ।”
वो सोचने लगी ।
“मैं आशापूर्ण निगाहों से उसकी सूरत देखता रहा । सोच में उसकी भवें तन गई, होंठों की कोरें नीचे को झुक गई और चेहरा यू खिंच गया कि वो उस घड़ी मुझे जरा भी खूबसूरत न लगी । अच्छी-भली खूबसूरत लड़की सोचने की कोशिश में पता नहीं क्या लगने लगी । जिस किसी ने भी ये कहा था कि खूबसूरती और अक्ल में छत्तीस का आंकड़ा होता था, जरूर उसने किसी खूबसूरत औरत को वैसे ही सोच में जकड़ा देख लिया था जैसे मैं उस घड़ी सुजाता मेहरा को देख रहा था ।

फिर उसके चेहरे से क्षणिक विकृति के लक्षण गायब होने लगे ।
मैं आशान्वित हो उठा । सोच का कोई सुखद नतीजा निकलता दिखाई दे रहा था ।
“उनमे झगड़े का मुद्दा वो बोली, कोई कागजात थे ।”
“कागजात !” मैं सकपकाया ।
“हां । किन्हीं कागजात को लेकर शशिकान्त पुनीत खेतान पर कोई इल्जाम लगा रहा था जिसकी खेतान पहले सफाई देने की कोशिश करता रहा था और फिर वो भी भड़क उठा था ।”
“क्या कागजात रहे होंगे वो ?”
“मुझे क्या पता ?”
“सोचो ।”
“जितना सोच सकती थी सोच लिया । अब और सोचने से भी कोई नतीजा नहीं निकलने वाला ।”

तब उसकी जगह मैं साचने लगा ।
क्या झगड़े का मुद्दा वो कागजात शशिकान्त की मां कौशल्या की वो चिट्ठी हो सकती थे जिसमे इस बात का सबूत निहित था कि लेखराज मदान मुकंदलाल सेठी का कातिल था । उस चिट्ठी ने कहीं तो होना ही था । क्या वो खेतान के कब्जे में रही हो सकती थी । कहीं इसीलिए तो चिट्ठी मदान के हाथ नहीं आ रही थी क्योंकि वो खेतान के पास रखकर चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रही थी ।
लेकिन उस चिट्ठी को ले के झगड़ने वाली क्या बात थी ?

मुझे कोई बात ना सूझी ।
“कल शाम की कोई और बात ?” प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“और क्या बात ?” वह बोली ।
“शशिकांत की कोठी पर तुम्हारी मौजूदगी के दौरान कोई और आया था ?”
“पुनीत खेतान के अलावा कोई नहीं ।”
“कोई और जिक्र के काबिल बात ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“सोच के जबाव दो ।”
उसने कुछ क्षण सोच की पहले जैसी ही भयानक मुद्रा बनाई और फिर दोबारा इनकार में सिर हिलाया ।
“नैवर माइंड । अब नहीं तो फिर सही । कई बार किसी के कहने पर दिमाग पर जबरन जोर देने पर कोई बात नहीं याद आती जबकि वाद में किसी वक्त वो सहज स्वाभाविक ढंग से ही याद आ जाती है । यूं कोई बात बाद में याद आ जाए तो गांठ बांध लेना और वक्त आने पर मुझे बताना न भूलना ।”

उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“गुड ।” मैं बोला, “अब तुम सुनो खून वाली बात और पुलिस वाली बात ।”
“सुनाओ ।”
“शशिकांत का खून हो गया है ।”
“क्या !”
“वो मेटकाफ रोड पर अपनी स्टडी में मरा पड़ा है । किसी ने बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर से गोलियां बरसाकर उसकी दुक्की पीट दी है । हालात ये बताते हैं कि कत्ल शाम साढ़े आठ के करीब हुआ था और गोलियां चलाई जाने का पैटर्न ये साबित करता है कि गोलियां किसी औरत ने चलाई थीं, उसने आंख बंद कर ली थीं और रिवॉल्वर का रुख मकतूल की तरफ करके घोड़ा खींचना शुरू कर दिया था ।”

“पै....पैटर्न क्या ?”
मैने उसे बताया कि गौलियां कैसे-कैसे चली थीं और कहां कहां टकराई थीं ।
“वो...वो औरत”, वो हकलाई, “मैं थोड़े ही हो सकती हूं !”
“क्यों नहीं हो सकती ?”
“मैं....मैं तो सात बजे ही वहां से चली आई थी । वो...वो वकील वो पुनीत खेतान...वो मेरा गवाह है ।”
“कहीं से चले आकर वहां वापिस भी लौटा जा सकता है ।”
“मैंने ऐसा नहीं किया । और फिर मेरे पास रिवॉल्वर का क्या काम ?”
“वो घटनास्थल पर मौजूद रही हो सकती है ।”
“मुझे रिवॉल्वर चलाना नहीं आता ।”
“वो क्या मुश्किल काम है । रिवॉल्वर का रुख टारगेट की तरफ करना होता है और घोड़ा दबा देना होता है ।”

“ल...लेकिन निशाना लगाना तो मुश्किल काम होता होगा ।”
“जब बहुत सी गोलियां चलाई जाएं तो कोई तो निशाने पर लग ही जाती है ।”
“ब..बहुत-सी गोलियां !”
मैंने बड़े उदासीन भाव से हामी में गर्दन हिलाई ।
“देखो” वह तनिक दिलेरी से बोली, “तुम खामखाह मुझे डरा रहे हो । मेरा उसके कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“तुमने अभी कहा था कि तुमने उसके मुंह पर चाबी मारी और घर चली आई ।”
“हां ।”
“कैसे ?”
“ऑटो से ।”
“सीधे ?”
“नहीं ! पहले मैं तालकटोरा गार्डन गई थी ।”
“वो किसलिए ?”
“जो कुछ पीछे मेटकाफ रोड पर हुआ था उसकी वजह से मन बहुत अशांत था । मूड सुधारने की नीयत से तालकटोरा टहलने गई थी । फिर वहां से पैदल चलकर यहां लौटी थी ।”

“कितने बजे ?”
“नौ तो बज ही गए थे ।”
“इस लिहाज से साढ़े आठ बजे तुम तालकटोरा गार्डन में टहल रही थीं ?”
“हां ।”
“साबित कर सकती हो ?”
“कैसे साबित कर सकती हूं ? कोई वाकिफकार तो मुझे वहां मिला नहीं था ।”
“पुलिस ये दावा कर सकती है कि तुम अकेले या अपने फ्रेंड के साथ वापस मैटकाफ रोड गई थीं और खून करने के बाद सीधे यहां आई थीं ।”
“प...पुलिस !”
“हर हाल में तुम्हारे तक पहुंचेगी ।”
“मैं क्या करूं ?”
“ये मैं बताऊं ?”
“तुम्हीं बताओ । आखिर डिटेक्टिव हो । मुझे निकालो इस सांसत से । कुछ मदद करो मेरी ।”

“कुछ क्या पूरी मदद करता हूं ।” मैं उसकी आंखों मे झांकते हुए बोला ।
“शुक्रिया ।”
“दरवाजा बन्द करो ।” मैंने आगे झुककर उसकी जांघ पर हाथ रखा ।
“पागल हुए हो !” उसने तत्काल मेरा हाथ परे झटक दिया, “मुझे होस्टल से निकलवाओगे ।”
“तो फिर किसी जगह चलो जहां ऐसा खतरा न हो ।”
“कहां ?” वो संदिग्ध स्वर में बोली ।
“जहां मैं ले चलूं ।”
“पहले मेरी जान तो सांसत से छुड़वाओ ।”
“वो तो समझ लो छूट गई ।”
“कैसे ?”
“तुम्हें नहीं पता, अभी भी नहीं पता, कि शशिकांत का कत्ल हो गया है । तुम आज भी ऐसे ही वहां जाओ जैसे रोज जाती हो । जाके दरवाजा खोलो, लाश बरामद करो और शोर मचाना शुरू कर दो । यूं यही लगेगा कि तुम कल शाम के वाद पहली बार वहां लौटी हो ।”

“चाबी !”
“तुम्हें उम्मीद थी कि वो घर होगा ।”
“दरवाजा खुला होगा ?”
“रात को इतनी तकरार के बाद सुबह फिर वहां पहुंच जाने की मैं क्या सफाई दूंगी ?”
“कहना कि तुम्हें अहसास हुआ था कि गलती तुम्हारी थी । इसलिए आज तुमने अपनी गलती की तलाफी के तौर पर वहां जाना और भी जरूरी समझा था ।”
उसने संदिग्ध भाव से मेरी ओर देखा ।
“चाहने वालों में” मैं आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला, “ऐसी तकरार होती ही रहती हैं । आज रूठे कल मान गए ।”
“यानी कि मैं उसे अपना चाहने वाला कबूल करूं ?”
 
“ऐसा तो वैसे भी समझा ही जाएगा । आखिर तुम उसके घर में रहती थीं और ये बात कहीं छुपने वाली है ।”

वह कुछ क्षण सोचती रही, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“तो फिर चलो ।” मैं उठता हुआ बोला, “मैंने उधर ही जाना है, तुम्हें मैटकाफ रोड उतारता जाऊंगा ।”
“मैं कपड़े तो बदल लूं ।”
“बदल लो ।” मैं सहज भाव से बोला ।
“तुम्हारे सामने बदल लूं ?”
“क्या हर्ज है ?”
“पागल हुए हो ।”
“मैं नीचे जाके ऑटो तलाश करता हूं । जल्दी आना ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
नीचे पहुंचकर मैंनै खुद डिसूजा का टेलीफोन नम्बर ट्राई किया लेकिन नतीजा सुजाता वाला ही निकला । कोई जवाब न मिला ।
फिर मैंने एक निगाह अपनी कलाई घड़ी पर डाली और फायर आर्म्स रजिस्ट्रेशन के आफिस में फोन किया ।

मालूम हुआ कि वाईस कैलीबर की हाथी दांत की मूठ वाली जो रिवाल्वर मैंने शशिकांत की कोठी के कम्पाउंड से बरामद की थी, वो कृष्ण बिहारी माथुर नाम के किसी सज्जन के नाम रजिस्टर्ड थी जो कि फ्लैग स्टाफ रोड पर एक नम्बर कोठी में रहता था ।
माथुर ! फ्लैग स्टाफ रोड ।
पहले मेरा इरादा शक्तिनगर पुनीत खेतान के ऑफिस में जाने का था लेकिन अब मैंने फ्लैग स्टाफ रोड जाने का निश्चय किया ।
वहां पहुंचने के लिए भी मैटकाफ रोड रास्ते में आती थी इसलिए कोई समस्या नहीं थी ।
मैंने डायरेक्ट्री में मदान के पेंटहाउस अपार्टमेंट का नम्बर देखा और उस पर फोन किया ।

फोन खुद मदान ने उठाया ।
“कोल्ली ।” मेरी आवाज सुनते ही वह व्यग्र भाव से बोला, “ओए, अभी तक पुलिस नहीं बोल्ली ।”
“बोल पड़ेगी ।” मैं बोला, “बस एक घंटा और लगेगा ।”
“मैं सस्पेंस से मरा जा रहा हूं ।”
“मत मरो । तुम भी मर गए तो इंश्योरेंस क्लेम की दुक्की पिट जाएगी ।”
“दुर फिटे मूं ।”
“कहानी तैयार है तुम्हारी ।”
“पूरी तरह से ।”
“बीवी फिट हो गई ।”
“हां । सब समझा दिया है उसे ।”
“बढ़िया ।”
“फोन कैसे किया ?”
“तुम्हारी बीवी की जो बहन है....सुधा माथुर जो फ्लैग स्टाफ रोड पर रहता है फ्लैग स्टाफ रोड पर कहां रहती है ?”

“एक नम्बर कोठी में ।”
“हस्बैंड का क्या नाम है ?”
“कृष्णबिहारी माथुर । क्यों ?”
“मैं उससे मिलना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“है कोई वजह ।”
“तू उसके पास भी नहीं फटक पाएगा ।”
“क्यों ?”
“वो पुराने जमाने का टिपीकल रईस आदमी है जो ऐरे गैरे लोगों को अपने पास न फटकने देने में अपनी शान समझता है । करोड़पति है । कई कारोबार कई मिल हैं उसकी । बादशाह की तरह रहता है फ्लैग स्टाफ रोड पर । आम, मामूली लोगों से आदम बू आती है उसे । कीड़े-मकोड़े समझता है उन्हें । तू उससे मिलने की कोशिश करेगा तो कोई तुझे उसकी कोठी का फाटक भी नहीं लांघने देगा ।”

“इस पंजाबी पुत्तर ने फ्लैग स्टाफ रोड की किसी कोठी से बड़े-बड़े किले फतह किये हुए हैं ।”
“वहां दाल नहीं गलेगी वीर मेरे । यकीन कर मेरा ।”
“कभी वहां तुम्हारी अपनी दाल कच्ची रह गई मालूम होती है ।”
जवाब में उसके मुंह से बड़ी भद्दी गाली निकली और फिर वह बोला, “भूतनी दा रईस होगा तो अपने घर का होएगा ।”
“तुम्हारे से रिश्तेदारी नहीं मानता ?”
“मैं नहीं मानता ।”
“उसी ने पास नहीं फटकने दिया होगा अंडरवर्ल्ड डान को ! गैंगस्टर शिरोमणि को ! रैकेटियर-इन-चीफ को ।”
“बक मत ।”
“क्लायंट का हुक्म सिर माथे पर ।”

“तू क्यों मिलना चाहता है उससे ?”
“तुमने अभी उसे पुराने जमाने का टिपीकल रईस कहा । है ही वो पुराने जमाने का रईस या उसकी फितरत पुराने जमाने के रईसों जैसी है ?”
“दोनों ।”
“क्या मतलब ?”
“अगर तेरा जवाब उसकी उम्र की बाबत है तो वो साठ साल का है ।”
“तोबा । तुम्हारे से भी पांच साल बड़ा !”
“कोल्ली, दसवीं बार पूछ रहा हूं । तू क्यों मिलना चाहता है उससे ?”
उत्तर देने के स्थान पर मैंने लाइन काट दी ।
मामला गहराता जा रहा था ।
जिस रिवॉल्वर से हत्या हुई थी, वो हत्प्राण के कथित भाई की बीवी की बहन के पति के नाम रजिस्टर्ड थी ।

मैंने डायरैक्ट्री में कृष्णबिहारी माथुर की एंट्री निकाली । उसके नाम के आगे दो दर्जन टेलीफोन अंकित थे जिनमें से कम से कम चारफ्लैग स्टाफ रोड के पते वाले थे ।
मैंने एक नंबर पर फोन किया ।
तुरंत उत्तर मिला ।
“हल्लो ।” एक मर्दाना आवाज मुझे सुनाई दी ।
“मैं” मैं बोला, “मिस्टर कृष्यबिहारी माथुर से बात करना चाहता हूं ।”
“आप कौन साहब ?”
“मेरा नाम सुधीर कोहली है ।”
“किस बारे में बात करना चाहते हैं ?”
“मामला पर्सनल है l”
“मुझे बताइए । मैं उनका प्राइवेट सैक्रेट्री हूं ।”
“और गोपनीय भी, प्राइवेट सैक्रेट्री साहब ।”

“फिर भी मुझे बताइए ।”
“और अर्जेंट भी ।”
“आप खामखाह वक्त जाया कर रहे हैं । साफ बोलिए आप कौन सी प्राइवेट, पर्सनल और अर्जेंट बात करना चाहते हैं वर्ना मैं फोन बंद करता हूं ।”
“आपको बताए बिना बात नहीं होगी ?”
“मुझे बताने के वाद भी होने की कोई गारंटी नहीं ।”
“वो मामला इतना नाजुक है कि खुद माथुर साहब ही पसंद नहीं करेंगे कि.....”
“आप बेकार बातों में वक्त जाया कर रहे हैं । मैं फोन बद करता हूं ।”
“सुनिए । सुनिए । प्लीज ।”
“बोलिये । जल्दी ।”
“मैं माथुर साहब से एक रिवॉल्वर के बारे में बात करना चाहता हूं ।”

“रिवॉल्वर ।”
“बाइस केलीबर की । हाथी दांत की मूठ वाली । सीरियल नम्बर डी-24136 है । माथुर साहब के नाम रजिस्टर्ड है ।”
“क्या बात करना चाहते हैं है आप उस रिवॉल्वर के बारे में ।”
“मै उन्हें ये बताना चाहता हूं कि वो रिवॉल्वर इस वक्त कहां है ।”
“कहां है क्या मतलब ? उनकी रिवॉल्वर उनके पास नहीं है ?”
“नहीं है ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“मालूम है । कैसे मालूम है, ये मैं उन्हीं को बताऊंगा । अब आप बेशक फोन बंद कर दीजिए ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“अपना नाम फिर से बताइए ।” फिर पूछा गया ।

“कोहली । सुधीर कोहली ।”
“आपकी लाइन आफ बिजनेस क्या है, मिस्टर कोहली ?”
“मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“आधा घंटे बाद फोन कीजिए, मिस्टर कोहली ।”
“लेकिन......”
मैं खामोश हो गया । तब तक लाइन कट चुकी थी ।
मैंने सीढ़ियों की ओर निगाह दौड़ाई, सुजाता को नमूदार होती न पाकर वक्त्गुजारी के लिए मैंने अपने ऑफिस फोन किया ।
“यूनिवर्सल इन्वेस्टिगेशंस । मुझे अपनी सैक्रेट्री रजनी का खनकता हुआ स्वर सुनाई दिया ।
“मैं” मैं बोला, “तुम्हारा एम्प्लोयर बोल रहा हूं ।”
“बोलिए !”
“बोलिए ! मैं भुनभुनाया, “हद है तुम्हारी भी ।”
“क्या हुआ ?” उसने भोलेपन से पूछा ।
 
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