Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा - Page 44 - SexBaba
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Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा


“जो भी हो, लेकिन सच्चाई यह है कि तू मेरा बेटा है।” मैं भी ढीठ ही थी।

“सच्चाई यह भी है कि तू औरत है और मैं मर्द हूं। तू नंगी है और मैं नंगा हूं। मैं चोदने को बेकरार हूं और तू भी चुदने को बेकरार है, यह और बात है कि तू मुंह से न न न न कर रही है और मैं खुलकर अपनी इच्छा व्यक्त कर रहा हूं।” वह बोलते बोलते मेरी लसीली योनि में यकायक अपनी उंगली घुसेड़ बैठा।

“उई मांआंआंआंआ।” मैं चिहुंक उठी। अपनी जांघों को सटा लिया मैंने।

“जांघें खोल।”

“नहीं।” मेरी चूत तो लंड लेने के लिए पगलाई हुई थी, किंतु मैं इतनी भी बेशरम नहीं थी कि अपने मुंह से बोल दूं, आ बेटे चोद ले।

“जांघ खोलती है कि नहीं लंडखोर। अब मुझे गुस्सा आ रहा है साली मां की लौड़ी। समझ गया, तू ऐसे खुशी खुशी चोदने देगी नहीं।” बेकरार तो था ही, वह अब खूंखार हो उठा। उसनें मेरी जांघों को जबरदस्ती अलग किया और मेरी जांघों के बीच आ गया। अब उसके लिंग का सुपाड़ा मेरी योनि के मुहांने पर आ टिका था या उसनें टिका दिया था, मैं तो गनगना उठी, इस बात को भूलकर कि इस विशालकाय लिंग से मेरी योनि की क्या दुर्दशा हो सकती है। इस पल तो बस, मेरी प्यासी गरम चूत में कोई गरमागरम लंड समा जाए, यही एकमात्र कामना उमड़ रही थी कामदेव के वशीभूत मेरे तन में। मन तो सोचने समझने की स्थिति में नहीं था। कामुक शैतान के वशीभूत, वासना की अग्नि में तपते तन की भूख के आगे मन नतमस्तक हो चुका था। जो बाहरी विरोध था वह मात्र दिखावा था।

“हरामी कहीं का।” मैं रोष दिखाती बोली।

“हां, मैं हूं हरामी, लेकिन कहीं का नहीं, घर का।” ढिठाई से बोला वह।

“कमीने इन्सान, कुत्ते।” मैं गाली ही दे सकती थी, कर तो कुछ सकती नहीं थी।

“हां मैं कमीना हूं, कुत्ता हूं। कुत्ते की तरह भी चोदता हूं और अगर चाहता तो तुझे किचन के स्लैब पर औंधा करके तुझे कुतिया की तरह चोद लेता, मगर आदमी हूं, अभी आदमी की तरह चोदुंगा। कमीना हूं, पहले कमीनापन दिखा दूं, कुत्ता बाद में बन जाऊंगा। अभी तो कमीने इन्सान की तरह ही चोदूंगा साली, गाली देती है बुरचोदी मॉम।” पूरा वहशी जानवर बन चुका था वह। दनादन दनादन अपनी उंगली मेरी चूत में डालकर अंदर बाहर करने लगा और मैं उत्तेजना के मारे मानो पगला ही गयी। जी तो कर रहा था कि उसका लंड ही घुसा दे मेरी चूत में, मगर अपने मुंह से कैसे कहती यह सब। अब सबकुछ मुझे साफ साफ दिखाई दे रहा था। एक घृणित रिश्ते का सृजन होने से अब कोई नहीं रोक सकता था। मां बेटे के पवित्र रिश्ते की पवित्रता में एक कभी न मिटने वाला बेहद बदनुमा और अमिट दाग लगाने की कागार पर हम पहुंच चुके थे।
 

“ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह भगवान, आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह नहीं नहीं।” मैं बदहवासी के आलम में बोली।

“अब भगवान वगवान कुछ नहीं चलने वाला। चल अब तैयार हो जा, मेरा लौड़ा लेने के लिए।” कहते कहते उसनें अपना भीमकाय लंड के सुपाड़े को मेरी पनपनाती, पनियायी चूत के मुहांने पर रख कर रगड़ना आरंभ कर दिया। उफ, ओह, आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह, यह क क क क्या हो गया था मुझे उन पलों में। मेरी बोलती बंद हो गयी थी। मूक, सन्न, सुन्न, शरीर तो तरंगित हो रहा था, उत्तेजना का झंझावत चल पड़ा था अंदर, किंतु मस्तिष्क अर्धचेतन, निष्क्रिय, सोचने समझने की स्थिति से विरक्त हो चुका था। वैसे भी अब मैं शारीरिक वासना की आग में झुलसने लगी थी। बेटा अब बेटा न रह कर मेरी वासना की दहकती अग्नि में धधकती काया को शीतलता प्रदान करने वाला एकमात्र सहारा बना पूरे जलाल के साथ उपस्थित था।

“सोच क्या रही है अब पगली, बुझा ले अपनी प्यास, बेटा वेटा भूल, मर्द समझ, एक माहिर, मस्त चुदक्कड़ मर्द, चुद जा, यही समय का तकाजा है।” मेरे अंदर सरगोशी सी हुई, मैं पिघलती चली गयी और अंततः समर्पित हो गयी। “ले, अब जो करना है कर मादरचोद, मगर जल्दी कर मां के लौड़े, चोद हरामी चोद,” मन ही मन बोली, खुल कर तो बोलने में अब भी मेरी किरकिरी हो जाती। उस औरतखोर को मेरे मौन समर्पण का आभास होते देर नहीं लगी। सब कुछ तो तय था, तैयार था, लंड रुपी भाले की नोक पर लक्ष्य, यानी मेरी फकफकाती चूत। चुदास से बेहाल, मगर विशाल लंड से भयभीत, मैं सांस रोके पड़ी रही और तभी, तभी हौले हौले पंकज के लंड का दबाव मेरी चूत पर बढ़ने लगा। वे पल मेरे लिए असहनीय थे। मेरी चूत अवश्य लसीली थी किंतु इतना विशाल लंड पहली बार जबर्दस्ती इसके अंदर प्रवेश करने की चेष्टा कर रहा था, मेरी चूत का प्रवेश मार्ग फैलता जा रहा था और आहिस्ता आहिस्ता पंकज के लंड का चिकना सुपाड़ा सरकते सरकते मेरी चूत में प्रवेश करता जा रहा था, उफ उफ, मानो कोई गरमागरम मोटा सरिया घुसा चला जा रहा हो। पीड़ामय वे पल वाकई मेरे लिए असहनीय थे।

“आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह ननननननहीं, आह मर गयी अम्मांआंआंआ, छोड़ मुझे ओह, मर गयी रेए्ए्ए्ए।” मैं पीड़ा से छटपटा रही थी और वह घुसाता चला जा रहा था।

“चुप मेरी रांड मॉम। ले, घुस तो रहा है आराम से, ख्वामख्वाह ही नखरे कर रही हो।” कहते कहते मेरी चीख पुकार की परवाह किए बिना घुसा ही तो दिया, पूरा का पूरा लंड, जड़ तक। उफ्फ आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह, असहनीय पीड़ा, लग रहा था मेरी चूत फट गयी हो।
 

“निकाल ओह फट गयी मेरी…”

“क्या फट गयी तेरी…।” शरारत से बोला।

“मेरी चूत, मेरी बुर कमीने कुत्ते मां की अस्मत लूटने वाले लुटेरे।” दर्द और गुस्से से पगलाई मैं बोली, किंतु अश्लीलता से परे, एक सीमा तक ही उतरी थी।

“वाह मॉम, बहुत खूब, तो गाली भी आती है तुझे। थोड़ा और गंदी गालियां दो तो और मजा आए। दे गाली। खूब दे गाली साली कुतिया, हरामजादी रंडी मॉम। तेरी गाली सुनकर थोड़ा मजा आया। अब तू जितनी गंदी गालियां दे सकती है दे, तेरी गालियों से मुझे सच में दुगुना जोश चढ़ गया है।

अब तू देती रह गाली,

मैं चोदता रहूं साली।” मेरी गालियों से आनंदित होकर बोला वह, कितना गिर चुका था वह, यह उसकी बातों से जाहिर था। वैसे भी वह अपनी जीत का झंडा गाड़ने में सफल हो चुका था। रिश्ते की मर्यादा की धज्जियां उड़ गयीं थीं। यहां अब उन पवित्र रिश्तों की मर्यादा, सामाजिक वर्जनाओं, पाप पुण्यों की बातें मुझे मुंह चिढ़ा रही थीं। वैसे भी इतना हो चुकने के बाद अब बचा ही क्या था। चुदास की ज्वाला में धधकती, पंकज के विशाल, अमानवीय लंड को ग्रहण करने में अपने सामर्थ्य को आंके बिना खुद को समर्पित की ही थी कि पंकज नें मानो मुझ पर कहर ही ढा दिया। मुझे तो बेडरूम में तारे नजर आने लगे। इतना बड़ा लंड पहली बार मेरी चूत में घुसा था, पूरा का पूरा घुसा था, इतना लंबा, कि मेरी बच्चेदानी के द्वार में घुसने की दहलीज पर था, यह मैं स्पष्ट अनुभव कर सकती थी।

“आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह, निकाल…., बाहर निकाल…” दर्द से कलकला कर बोली मैं।

“क्या निकालूं?”

“लंड मादरचोद लंड, अपना लौड़ा साले मां के चुदक्कड़।” अब मैं भी अश्लील गालियों पर उतर आई थी।

“ये हुई न बात, हां ऐसे बोलो, लंड, लौड़ा।” कहते न कहते उसनें सचमुच में अपना मूसल मेरी चूत से बाहर खींचा।उफ्फ, वह अहसास, सकून भरा अहसास, किंतु चूत के अंदर एक खालीपन का अहसास, आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह। फटी तो फटी मेरी चूत, ठोंक दे दुबारा ठोंक दे, यह मेरे अवश तन की अनियंत्रित कामना थी, जिसके वशीभूत मेरी कमर खुद ब खुद उछल पड़ी ऊपर की ओर और गप्प से निगल गयी उसका लंड, वही विशालकाय गधे सरीखा लंड, जिसके प्रथम प्रवेश की पीड़ा से मुक्त भी नहीं हुई थी। यह मेरे अनियंत्रित तन द्वारा की गयी एक अक्षम्य भूल थी, जिससे पंकज को खुली छूट मिल गयी, मेरे तन से खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने की। मेरे दोनों स्तनों को अपने बनमानुषी पंजों से मसलते हुए, मेरे होंठों और गालों को चाटते हुए, चूमते हुए, अपने दांतों से काटते हुए किसी कुत्ते की रफ्तार से भकाभक भकाभक, मेरी चूत की जो कुटाई आरंभ हुई कि मैं अचंभित रह गयी। अचंभा मुझे इस बात का भी हुआ कि जो लंड दो मिनट पहले पीड़ा का कारण बना हुआ था, वही अब अद्भुत आनंद का श्रोत बन गया था।
 

“आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह, ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह, ओ मांआंआंआंआ ओ मांआंआंआंआ।” मेरे मुंह से निकलते उद्गारों से उसका जोश दुगुना हो गया और फिर जो धमाचौकड़ी मची, धकमपेल का दौर आरंभ हुआ, बता नहीं सकती। उसनें पूरी तरह मुझे अपने अनुसार ढाल लिया था और मैं पागल, होशोहवास खो कर उसके तन से एकाकार होने की जद्दोजहद में जुट गयी। ओह वह स्वर्गीय, अलौकिक, अनमोल सुखद कामुकता भरे पल। भूल गयी कि वह मेरे इसी चूत से पैदा हुआ मेरा बेटा है। आज इसी चूत की फसल का लंड पुनः इसी चूत में अंदर घुसता रहा, घुसता रहा, रगड़ रगड़ कर घुसता रहा, मचल मचल कर घुसता रहा, किलक किलक कर घुसता रहा।

“वाह मेरी रंडी मॉम, अब आई अपनी औकात में। साली कुतिया, ये ल्ल्ल्ले य्य्ये ल्ल्ल्ले्ए्ए्ए, हुम हुम हुम हुम हुम्म्म्आ्आःआ्आह्ह्ह्ह। उफ ऐसी मस्त लंडखोर चुदक्कड़ औरत आज तक मेरे लंड से बची कैसे। अहा, मजा आ रहा है ओह मेरी बुरचोदी मां।” बोलते बोलते भक्क भक्क ठोकता रहा ठोकता रहा, ऐसा लग रहा था कि यह दौर अनंत काल तक चलता रहेगा। करीब दस मिनट में ही आनंदातिरेक से मेरा तन ऐंठने लगा। थरथराने लगी मैं। उफ यह तो, यह तो शायद मेरा स्खलन था।

“आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह।” मैं झड़ रही थी।

“क्या हुआ?”

“गयी रे गयी मैंऐं्ऐं्ऐं्ऐं,” बोलती हुई चिपक गयी उससे।

“न न न न, अभी तो बहुत बाकी है मॉम, ये ये ये ले, ये ले, ये ले” कहते कहते मेरे शिथिल पड़ते शरीर को कस के दबोचे दे दनादन दे दनादन, दे गचागच दे गचागच, लगा चोदने, तूफानी रफ्तार से, नतीजा? दो तीन मिनट बाद मेरे शरीर में फिर जान आ गयी। इस बार मेरे अंदर की सारी ग्लानि समाप्त हो चुकी थी। अब मैं भी खुल्लमखुल्ला रांड बन गयी थी।

“आह्ह्ह्ह्ह्, आह आह चोद साले मादरचोद, ओह मां, ओह, बना डाल अपनी मां को अपनी रंडी आह आह हां हां ऐसे ही, ऐसे ही ले मेरी चूत मां के लौड़े हरामी कुत्ते, मुझे आह मुझे अपनी दासी बना ले आह ओह मेरी चूत के रसिया, ओह मेरे बुर के मालिक, इस्स्स्स्स हां हां हा,” और भी न जाने क्या क्या बके जा रही थी पागलों की तरह, म़ै अब रंडी बन चुकी थी, अपने बेटे की बेशरम रंडी मॉम। मैं उस वक्त उसके लंड और चुदाई की दिवानी बन गयी थी सारी लाज शरम को छोड़ कर।
 

“वाह मेरी बुरचोदी, आ रहा है न मजा अब? बहुत खूब। साली नौटंकी, नखरे कर रही थी।” न जाने और क्या क्या बोलता रहा, मुझे होश कहां था। मैं भी तो बड़बड़ा रही थी, अश्लीलता की सारी हदों को पार करते हुए बेशरमों की तरह न जाने क्या क्या बोलती हुई चुदी जा रही थी। करीब चालीस मिनट की अथक चुदाई के दौरान पंकज नें मेरे शरीर का सारा कस बल निचोड़ कर रख दिया। अंततः उसके स्खलन का समय आ पहुंचा। इतनी जोर से मुझे दबोचा मानो मेरी हड्डियों का चूरमा बना डालने पर आमादा हो। मेरी तो सांसें ही थम सी गयीं थीं। और लो, तभी मैं भी झड़ने लगी। गजब, यह मेरा तीसरा स्खलन था। एक मां अपने बेटे की नंगी देह में और एक बेटा अपनी मां की नंगी देह में समा जाने की पुरजोर कोशिश में एकाकार हो गये। मेरा गर्भ पंकज के, मेरे अपने कोखजाए बेटे के गरमागरम वीर्य से सिंचित होता रहा और मैं मानो हवा में उड़ने लगी थी, वह अहसास ही बेहद आनंददायक, सुखद, स्वर्गीय था। हम दोनों के झड़ते ही वासना का वह भयानक तूफान मानो यकायक थम सा गया। सन्नाटा सा पसर गया। सिर्फ हमारी लंबी लंबी सांसें चल रही थीं। हम दोनों तृप्ती के सुखद संसार में डूब गये थे। अब भी वह अपने पसीने से नहाए शरीर से मुझे चिपकाए हुए था। मैं शिथिल पड़ी उसकी नग्न देह से चिपकी रही। तभी फच्च की आवाज से पंकज का लिंग मेरी योनि से बाहर निकल पड़ा।

“वाह मॉम मजा आ गया।” वह मुझे चूम कर बोला। तब जाकर मेरी चेतना जगी। हाय, यह क्या हो गया। उत्तेजना के उन पलों में इस निहायत ही घृणित कृत्य में मैं खुद भी बराबर की भागीदार बन चुकी थी। पाप की भागीदार। ग्लानि से भर उठी।

“हट।” मैं छिटक कर अलग हुई। उसनें भी परवाह नहीं की, छोड़ दिया मुझे। आखिर उसे अपनी कुत्सित मनोकामना पूर्ति में सफलता तो मिल ही गयी थी ना।

“क्या हुआ?” अलसाए से स्वर में बोला।

“सब कुछ बरबाद कर के पूछ रहे हो क्या हुआ।” मैं अब बेड से उतर कर खड़ी हो चुकी थी, हालांकि मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। मेरे पैर थरथरा रहे थे। मेरी योनि से पंकज के वीर्य की कुछ मात्रा मेरी जांघों तक बह आई थी। “पाप हुआ पाप, महापाप, हमसे महापाप हुआ है।”

 

“फिर चालू हुआ तेरा उपदेश। हुआ तो हुआ, मजा तो आया ना? सच तो यह है कि तुझे भी बड़ा मजा आया है। इसे झुठलाने का कोई लाभ नहीं। अब जब जी चाहेगा हम चोदाचोदी खेलेंगे, हां कि ना?” बेशरम बोला।

“निश्चय ही ना। जो हुआ सो हुआ, अब आगे नहीं। जो हुआ सो गलत हुआ। इसे मैं सुधार तो नहीं सकती, मगर दुबारा दुहराने के खिलाफ हूं मैं।” मैं ढिठाई से बोली, हालांकि मेरा तन अब तक उसकी चुदाई की मस्ती से भरा हुआ था। मन ही मन सोच भी रही थी कि यदि दुबारा पंकज नें मुझे चोदने का प्रयास किया तो मैं क्या रोक पाऊंगी? शायद, या शायद कत्तई नहीं। खैर जो बोलना था बोल चुकी और किचन में पड़े अपने कपड़ों को पहनने चली।

“जाओ जाओ मॉम, सब समझता हूं। मन की बात छिपा नहीं पा रही हो, मैं जानता हूं, अब तू खुद आकर मेरे लंड पर बैठोगी।” पीछे से पंकज की आवाज आई। फिर मैं अपने को संभाल कल कपड़े वपड़े पहन कर पुनः अपने बेडरूम में आई, तबतक पंकज अपने कमरे में जा चुका था।

उसकी भीषण चुदाई के कारण मेरी योनि फूल गयी, मीठे मीठे दर्द का अहसास भी साथ था। थकान से टूटते शरीर को समेटते कब मेरी आंख लगी पता ही नहीं चला। सवेरे से परेशान हूं, कि इस कपूत के साथ और इस तरह अपराध बोध के साथ कैसे जी पाऊंगी।”

मैं पूरी तन्मयता से उसकी कहानी सुन रही थी। काफी उत्तेजक कहानी थी। मैं खुद उत्तेजित हो उठी थी उसकी कहानी सुनकर। क्या गलत हुआ? पंकज को संभोग का मजा लेना था, ले लिया। रेखा के विरोध का क्या अंजाम हुआ? आखिर चुद ही तो गयी। खुद ही स्वीकार भी कर रही है कि उसे भी मजा आया। बेवकूफ रेखा की बेवकूफी पर मुझे तरस आ रहा था। वैसे पहले ही मैं अपनी बातों से रेखा को काफी हद तक प्रभावित कर चुकी थी। अपने दो चार और लच्छेदार बातों से रेखा के अंदर की सारी रही सही ग्लानि, अपराधबोध, पाप पुण्य के झंझावत को धो पोंछ कर साफ करने में सफल हो गयी। अब रेखा का चेहरा तनाव रहित था।

“एक बात है खास तुझमें।” रेखा मुझसे बोली।

“क्या?”
 

“खूबसूरत होने के साथ साथ कितने सुलझे विचार रखती हो।” वह बोली। सुलझे! हा हा हा, घंटा सुलझे विचार, मेरी सोच साफ है, अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जियो, पूरी तरह जियो, जिस बात में खुशी मिले, कर गुजरो, ताकि मनुष्य जन्म गुजरने के बाद कोई पश्चाताप न रहे।

“हां सो तो है।” अपनी पीठ थपथपा उठी। “वैसे तुम्हारा बेटा पंकज है बड़ा अच्छा।”

“मुझसे ज्यादा जानती हो उसे?” वह बोली।

“आज की तारीख में तो शायद तुमसे ज्यादा।” मैं बोली।

“कैसे?”

“जब तुम और पंकज हमारे घर आये थे, मैं पंकज को घुमाने बाहर ले गयी थी, इधर तुम हमारे बूढ़ों के साथ रंगरेलियां मना रही थी, उधर मैं पंकज के साथ क्या रामायण पाठ कर रही थी?” बाकी बातें तो पहले ही उसे बता चुकी थी।

रेखा अवाक, विस्फरित नेत्रों से देखती रह गयी और मैं उसे उसी हालत में छोड़ कर मुस्कुराते हुए उसके घर से निकली।

कहानी चालू रहेगी
 
उस दिन रविवार था। सवेरे सवेरे रेखा के घर में मैंने जो कुछ रेखा के मुख से सुना, सुनकर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह तो होना ही था। सत्य तो यह था की आग मेरी ही लगाई हुई थी। उसका बेटा पंकज, अठारह साल की पढ़ने लिखने वाली उम्र में ही स्त्री संसर्ग के सुख से परिचित हो चुका था। शनिवार को जब रेखा अपने बेटे के साथ मेरे घर आई, तभी पंकज नें मेरा शिकार करके यह बता दिया था कि वह कितना बड़ा औरतखोर है। रेखा की कहानी, एक बेटे द्वारा मां के साथ संभोग की अत्यंत कामोत्तेजक कहानी सुनकर मेरी हालत क्या हो रही थी यह आपलोग बेहतर समझ सकते हैं। बाप रे, मेरी तो योनि से संभोग पूर्व श्राव आरंभ हो चुका था। मेरी पैंटी भीग कर चिपचिपी हो उठी थी।मेरा शरीर तपने लग गया था। यह क्या हुआ मेरे साथ, काश, कोई मर्द मिल जाता मुझे अभी, अभी, इसी वक्त, यही सोचते सोचते घर पहुंच गयी।

घर जैसे ही घुसी, हरिया और करीम, रामलाल के साथ सज धज कर कहीं बाहर जाने को तैयार थे, मेरे वापस आने का ही इंतजार कर रहे थे। ताज्जुब हुआ मुझे, अभी इतने सवेरे, अभी साढ़े सात ही तो बजे थे।

“कहां जा रहे हो आपलोग, इतने सवेरे?” मैं पूछ बैठी।

“लालपुर जा रहे हैं। बारह बजे तक वापस आ जाएंगे” हरिया बोला।

“समझ गयी।”

“क्या?”

“जाओ जाओ ऐश करो, संडे मनाओ।” मैं जानती थी कि इनकी मंजिल क्या है। वही, रबिया, शहला और सरोज, या फिर और, खैर, थे भी वे एक नंबर के औरतखोर, ओरतों की कमी तो थी नहीं। मगर मैं थोड़ी मायूस हुई। अंदर में कामाग्नि की ज्वाला धधक रही थी और सोच रही थी आज संडे को रंगीन करूं, तभी तीनों मर्द उड़न छू हो रहे हैं। “लेकिन मेरा नाश्ता खाना?” मैं पूछी।

“नाश्ता तैयार है और खाना, मैं आकर बना लूंगा, चिंता न कर मेरी बुलबुल।” हरिया पूरी मस्ती के मूड में था, आखिर मस्ती करने ही तो जा रहे थे तीनों।

“बहुत मस्ती चढ़ रही है, अब फूटो यहां से।” मैं झिड़कते हुए बोली।

“फूटते हैं फूटते हैं। दूधवाला अभी तक आया नहीं, दूध ले लेना।” जाते जाते हरिया नें मानो मेरे दिमाग की बत्ती जला दी। दूधवाला, वाह, मानो बिजली सी कौंधी मेरे दिमाग में। मर्द चाहिए था मुझे, मौके का तकाजा था।

“ठीक है, ठीक है, ले लूंगी।” प्रत्यक्षतः बोली किंतु और क्या क्या लूंगी यह तो सिर्फ मुझे पता था या ऊपरवाले को पता था। उधर ये तीनों रुखसत हुए, इधर मैं हड़बड़ा कर तैयार होने लगी। दूधवाला, उमेश यादव, एक करीब पचास पचपन साल का लंबा छरहरा मगर गठे शरीर वाला, ग्वाला था। बेतरतीब दाढ़ी और आधा गंजा। नाक नक्श बस कामचलाऊ सा, रंग काला, बड़ी बड़ी आंखें, नाक पकौड़े जैसी। अगर उसके चेहरे पर न जाऊं तो उसके शरीर की बनावट खास थी और इस वक्त मेरी कल्पना में उसी की छवी नाच रही थी। मेरे खुद की नग्न देह का उसके नंगे बदन से एकाकार होने की कल्पना मात्र से रोमांचित हो रही थी। छरहरा होने के बावजूद मजबूत कंधे, चौड़ा चकला सीना, पेट बिल्कुल सपाट था किंतु फिर भी प्रभावशाली कद काठी का मालिक धा वह। कद करीब छ: फुट। खैर अब तो मन में जो बैठ गया तो बैठ गया, मैं योजना बना बैठी, कैसे उसे फांस कर अपनी प्यास बुझानी है। मुझ पर आकर्षित था, इसका मुझे पता था, सिर्फ मेरी ओर से लिफ्ट मिलने की देर थी। उसकी लार टपकाती दृष्टि से मैं अनभिज्ञ नहीं थी। खूब पता था मुझे।लेकिन उसे लिफ्ट दूं तो कैसे, इतनी सस्ती भी खुद को दिखा नहीं सकती थी, जैसे कि मेरी आदत थी। मुझे याद आ रहा था मेरी मां वाला किस्सा, किस तरह उन्होंने एक दूधवाले को फांस कर अपनी हवस की आग ठंढी की थी। आज मैं उसी स्थिति में थी। अंदर वासना की आग धधक रही थी और मैं पागल हो रही थी एक मर्द के लिए, कैसा भी मर्द, जो मेरे जलते तन को ठंढक प्रदान कर दे।
 
मैं उस ग्वाले को फांसने के लिए वही उपाय करना चाहती थी जो कई सालों पहले मेरी मां सफलता पूर्वक आजमा चुकी थी। मैं फटाफट नहा धो कर तैयार हो गयी। शरीर पर सुगंधित परफ्यूम का छिड़काव किया, तत्पश्चात मैंने अपनी नग्न देह पर मात्र एक पतले साटन के पिलपिले आसमानी नाईटी का आवरण चढ़ाया, जो पारदर्शी तो नहीं था किंतु अपने पिलपिले, मुलायमपन के कारण मेरे तन के हर उतार चढ़ाओं का साफ साफ आभास करा रहा था। अभी मैं तैयार होकर सोफे पर बैठी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। मेरा दिल धाड़ धाड़ कर रहा था। सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं। धमनियों में रक्त प्रवाह तूफानी गति से प्रवाहित हो रहा था। आखिर इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं। वह पल आ चुका था जिसका इंतजार मैं बड़ी बेकरारी से कर रही थी।

ज्योंहि मैंने दरवाजा खोला, भक्क सी रह गयी। यह तो ग्वाला नहीं था। उसके स्थान पर मटमैली धोती और कुर्ते में करीब पचपन साठ की उम्र का, काला कलूटा, साढ़े छ: फुटा, मोटा ताजा, गंजा, बेतरतीब, शायद हफ्ते दो हफ्ते बिना शेव किये दाढ़ी, कंजी आंखें, पान खा खा कर लाल होंठ वाला, धोती कुर्ते में खड़ा, पीले पीले दांत दिखाता हुआ खींसे निपोर रहा था। मुझे ऊपर से नीचे देख कर उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ गयी थी।

“अ अ आप क क कौन?” मैं तनिक घबराई सी बोली। यह मेरे लिए निहायत ही घटिया मजाक था ऊपरवाले का। मगर मैं भी कम कमीनी थोड़ी न थी, स्थित को अपने अनुकूल करना मुझे अच्छी तरह से पता था।‌‌‌‍

“हम रमेश हैं। उमेश के बड़के भैया। कल ही गांव से आए हैं। उमेश एक जरूरी काम से कल ही जमशेदपुर गया है सो हम दूध लेकर आए हैं।” वह अब भी ऊपर से नीचे तक मेरा मुआयना कर रहा था और उसकी मुस्कान गहरी होती जा रही थी। उसकी नजरें खास तौर पर, सीने और कमर से निचले हिस्से पर ही बार बार टिक जाती थीं, मानो मेरे कपड़े को भेदकर मेरे स्तन और योनि का दीदार कर रहा हो। इतनी अनुभवी और घाट घाट का पानी पी चुकने के बावजूद न जाने क्यों मैं लाज से दोहरी हुई जा रही थी। मगर अंदर की आग तो मानो ज्वालामुखी का रुप धरती जा रही थी। लाज की ऐसी की तैसी, कैसा भी था, मर्द था, देखने में जैसा भी था लेकिन साफ साफ दिख रहा था मुझे खा जाने को ललायित, अच्छा खासा ताकतवर मर्द, इस वक्त आसमान से टपका मेरा तारणहार, मेरे जलते तन मन का एकमात्र सहारा।
 
“ठ ठ ठीक है रुकिए, मैं अभी दूध का बर्तन ले कर आई।” उसकी नजरों की ताब न ला सकी, जल्दी से मैं बर्तन लाने मुड़ी और कमर लचकाते हुए, कयामत ढाती, मदमस्त चाल के साथ किचन की ओर चली। मन ही मन सोच भी रही थी, चलो, कोई तो मिला, अच्छा खासा मर्द तो है, मुझ पर फिदा भी है, मेरी जलती काया की ज्वाला शांत कर सकने में पूर्णतः सक्षम भी दिख रहा था, मात्र सक्षम ही नहीं, देखने में तो मेरा कचूमर निकाल डालने जैसी शख्सियत थी उसकी। यह तो बाद में पता चलना था कि वह आखिर है क्या चीज़। देखती हूं आगे आगे होता है क्या, फिलहाल तो मुझे एक मर्द से मतलब था, जो कि यह है। खैर, यही सब सोचते सोचते मैं एक खाली पतीला ले आई। अब आगे बात कैसे बढ़े, यही मेरे दिमाग में चल रहा था। उसके दिमाग में क्या चल रहा था यह तो पता नहीं किंतु उसकी नजरें अब भी मुझी पर गड़ी हुई थीं।

मैंने दूध लेने के लिए पतीला आगे बढ़ाया और कहा,

“लाओ, इसमें डाल दो।” कहने को तो कह गयी मगर इस दोहरे अर्थ वाले दूसरे अर्थ को समझ कर खुद ही पानी पानी हो उठी। उसकी दृष्टि मेरे चेहरे के भाव पढ़ रही थीं, शायद पूछ रही थीं, क्या अर्थ है मेरे इस कथन का?

“हां हां, इस बर्तन में डालो।” मैंने पुनः कहा।

“ओह हां।” वह मानो निद्रा से जागा। उसने मेरे हाथों में थामे पतीले में दूध डालना आरंभ किया लेकिन उसकी दृष्टि मेरे तन पर ही घूम रही थी। कभी मेरे चेहरे, कभी मेरे सीने और कभी मेरी कमर के निचले हिस्से पर, नतीजा यह हुआ कि कुछ दूध पतीले से बाहर भी गिर गया, फर्श पर।

“अरे अरे, यह क्या कर दिया?” मैं ने झल्लाकर कहा। हालांकि मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि वह मुझ पर आकर्षित था। उसकी नजरें साफ बता रही थीं कि मुझपर लट्टू हो चुका था, झिझक थी तो सिर्फ हमारे बीच हैसियत, स्तर की।

वह चौंक उठा, “ओह माफ कीजिएगा मैडम। मेरा ध्यान कहीं और था। मैं अभी साफ कर देता हूं। जरा पोंछा दीजिएगा।” मगर उसके चेहरे पर शर्मिंदगी का भाव नहीं था। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि वह जल्दी में बिल्कुल नहीं था।

“नहीं नहीं, कोई बात नहीं, मैं खुद ही साफ कर लूंगी, तुम परेशान बिल्कुल न हो।” मैं जल्दी से बोली।

“नहीं जी, ऐसे कैसे। गलती मेरी थी, साफ भी हम ही करेंगे। पोंछा लाईए।” वह जिद करने लगा।

“ठीक है ठीक है, लाती हूं।” कहकर मैं पोंछा ले कर आई और उसे थमा दी। इस दौरान मैंने अपने ठसकों से उस पर बिजली गिराने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही थी। नतीजा मेरे मनोनुकूल ही रहा। मैं समझ रही थी कि खुद को नियंत्रण में रखने में उसे कितना कष्ट हो रहा था होगा। वह पोंछा लगाने में समय ले रहा था।
 
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