Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास) - Page 2 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास)

“आओ चलें ।” - सिन्हा बोला और उसने आशा की कमर में अपना हाथ डाल दिया ।
आशा ने ऐतराज नहीं किया । शायद सिन्हा साहब का वह एक्शन ऐटीकेट में आता था ।
चपरासी ने आगे बढकर आदरपूर्ण ढंग से द्वार खोल दिया ।
दोनों बाहर निकल गये ।
“तुम यहीं ठहरो ।” - इमारत से बाहर निकलकर सिन्हा बोला - “मैं पार्किंग में से कार निकाल कर लाता हूं ।”
आशा ने सहमति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
सिन्हा एक ओर बढा गया ।
दो मिनट बाद ही उसने अपनी ऐम्बैसेडर गाड़ी आशा के सामने ला खड़ी की । उसने हाथ बढाकर अगली सीट का आशा की ओर का द्वार खोल दिया ।
आशा उसकी बगल में आ बैठी ।
सिन्हा ने कार आगे बढा थी ।
“पहले मालाबार हिल चलते हैं ।” - सिन्हा गाड़ी को दूसरे गियर में डालता हुआ बोला ।
“माला बार हिल ?” - आशा ने प्रश्नसूचक ढंग से सिन्हा की ओर देखा ।
“हां, कमला नेहरू पार्क में चलने । ऊपर टैरेस पर बैठकर एक एक कप चाय पियेंगे और मैट्रो चलेंगे ।”
“देर नहीं हो जायेगी ।”
“क्या देर होगी ? मेन पिक्चर तो सात बजे के करीब शुरू होगी । अभी तो पांच चालीस ही हुये हैं । बहुत वक्त है ।”
“अच्छी बात है ।”
सिन्हा चुपचाप कार ड्राइव करता रहा ।
गाड़ी महालक्ष्मी रेस कोर्स की बगल में से होती हुई पैडर रोड की ओर बढ गई ।
फिर सिन्हा ने गाड़ी को पार्क के सामने ला खड़ा किया ।
आशा कार का द्वार खोलकर बाहर निकल आई और अपनी साड़ी का फाल ठीक करने लगी ।
सिन्हा ने भी कार इग्नीशन को लाक किया, बाहर आकर कार के द्वार का भी ताला लगाया और आशा से बोला - “आओ ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
दोनों टैरेस पर बिछी खाली मेजों में से एक पर आ बैठे ।
“चाय के साथ कुछ ?” - सिन्हा ने पूछा ।
“नहीं । आप लीजिये । मुझे भूख नहीं है ।”
“ओके ।”
सिन्हा ने चाय का आर्डर दे दिया ।
सिन्हा ने टैरेस से नीचे फैले हुये बम्बई के विहंगम दृष्य पर एक दृष्टिपात किया और बोला - “यहां से देखने पर तो बम्बई हिन्दोस्तान का शहर नहीं मालूम होता ।”
“जी हां ।” - आशा बोली । कमला नेहरू पार्क से वह जब भी बम्बई को देखती थी । मुग्ध हो जाती थी । चौपाटी के बीच की भीड़भाड़ मैरिन ड्राइव की अर्ध वृत्ताकार लम्बी सड़कों पर किसी पहाड़ी नदी की तरह बहता हुआ मोटर ट्रैफिक और चौपाटी और मैरिन ड्राइव के सामने ठाठें मारता हुआ समुद्र सब कुछ बड़ा ही लुभावना लगता था उसे ।
वेटर चाय ले आया ।
आशा ने दो कप चाय बनाई ।
दोनों धीरे धीरे चाय पीने लगे ।
रह रहकर आशा की दृष्टि अपने सामने फैली हुई जिन्दगी की ओर भटक जाती थी जिसका वह भी एक हिस्सा थी ।
सिन्हा उसे कोई बम्बई की दिलचस्प बात सुना रहा था जो उसे कतई समझ नहीं आ रही थी ।
“हल्लो, सिन्हा साहब ।” - एकाएक आशा के कानों में एक नया स्वर पड़ा ।
आशा ने सिर उठाया । एक दुबला पतला लम्बे कद का युवक सिन्हा का अभिवादन कर रहा था । उसकी नाक पर एक मोटे फ्रेम का एक वैसे ही मोटे शीशे का चश्मा लगा हुआ था और खास बम्बईया स्टाईल से एक कान से दूसरे कान तक उसकी बाछें खिली हुई थी और उसकी पूरी बत्तीसी दिखाई दे रही थी ।
यह आदमी जरूर शो बिजनेस से सम्बन्धित है - आशा ने मन ही मन सोचा ।
“हल्लो, फिल्मी धमाका साहब ।” - सिन्हा अपने चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “क्या हाल हैं ।”
“दुआ है, साहब, ऊपर वाले की ।”
“तशरीफ रखिये ।” - सिन्हा अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला । प्रत्यक्ष था उसे उस समय उस आदमी से मिलना पसन्द नहीं आया था ।
“शुक्रिया ।” - चश्मे वाला सिन्हा के बगल की कुर्सी पर बैठ गया ।
“चाय मंगाऊं आपके लिये ?”
“नहीं, मेहरबानी । चाय मैंने अभी पी है ।”
“और सुनाइये । आपका पेपर कैसा चल रहा है ?”
“दौड़ रहा है, साहब ।”
“और !”
“सब कृपा है, ऊपर वाले की । आप आज इधर कैसे भटक पड़े ।”
 
“चाय पीने चले आये थे ।”
“आई सी ।” - चश्मे वाला बोला और फिर उसने एक बड़ी निडर दृष्टि आशा पर डाली । सिन्हा से औचारिकता पूर्ण बातचीत समाप्त करके उसने बड़े इतमीनान से आशा के नखशिख का निरीक्षण करना आरम्भ कर दिया । उसका आशा को देखने का ढंग ऐसा था जैसे कोई जौहरी किसी हीरे को परख रहा हो या जैसे कोई कलाल किसी बकरे को देखकर यह अन्दाजा लगाने का प्रयत्न कर रहा हो कि उसमें से कितना गोश्त निकलेगा ।
आशा ने वैसी ही निडर निगाहों से उसकी ओर देखा ।
अपना निरीक्षण समाप्त कर चुकने के बाद चश्मे वाले ने एक गहरी सांस ली और फिर सिन्हा साहब की ओर मुड़कर बोला - “आप की तारीफ ।”
“ये आशा हैं ।” - सिन्हा यूं बोला जैसे नाम ही आशा का सम्पूर्ण परिचय हो ।
“आशा पारेख ?”
“नहीं केवल आशा ।” - सिन्हा कठिन स्वर से बोला - “और आशा, इन साहब का नाम देव कुमार है । ‘फिल्मी धमाका’ नाम का एक फिल्मी अखबार निकालते हैं । ये सारे फिल्म उद्योग में धमाका साहब के नाम से बेहतर पहचाने जाते हैं ।”
चश्मे वाले ने सिर नाकर आशा का अभिवादन किया आशा ने भी मुस्करा कर हाथ जोड़ दिये ।
“अभी तक आपकी कोई फिल्म रिलीज तो नहीं हुई है ।” - देवकुमार ने शिष्ट स्वर से आशा से पूछा ।
“मेरी फिल्म !” - आशा मुस्कराती हुई बोली - “आप को गलतफहमी हो रही है साहब, मैं सिनेमा स्टार नहीं हूं ।”
“असम्भव !” - देव कुमार अविश्वास पूर्ण स्वर से बोला ।
“मैं वाकई सिनेमा स्टार नहीं हूं ।”
“देखिये, अगर आप पब्लिसिटी से बचने के लये ऐसा कह रही हैं तो...”
“ऐसी कोई बात नहीं है ।” - आशा उसकी बात काट कर बोली - “मैं तो एक बड़ी ही साधारण कामकाजी लड़की हूं ।”
“विश्वास नहीं होता ।” - देव कुमार पलकें झपकता हुआ बोला ।
आशा हंस पड़ी ।
“मेरे ख्याल से आप विश्वास कर ही लीजिये ।” - वह बोली ।
“खैर” - देवकुमार अपने सिर को झटका देता हुआ बोला - “कर लिया विश्वास, साहब । लेकिन, मैडम, कामकाज के नाते आप साधारण हो सकती हैं लेकिन जहां तक आपकी खूबसूरती और आकर्षण का सवाल है, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सारी बम्बई में शायद ही आपको मुकाबले की कोई दूसरी लड़की होगी । मैंने फिल्म उद्योग की नई पुरानी बहुत अभिनेत्रियां देखी हैं लेकिन ऐसी चमक और ताजगी मैंने आज तक कभी किसी सूरत पर नहीं देखी । आपके मुकाबले में सब परसों के खाने जैसी बासी और बदमजा मालूम होती हैं ।”
“इज दैट ए काम्प्लीमैंट ?” - आशा ने मुस्कराकर पूछा ।
“दिस मोस्ट सर्टेनली इज ।” - देवकुमार जोशपूर्ण स्वर से बोला ।
आशा ने प्रश्न सूचक नेत्रों से सिन्हा की ओर देखा ।
सिन्हा परेशान था ।
“वैसे आप किस साधारण काम का जिक्र कर रही थीं ?” - देवकुमार ने पूछा - “क्या करती हैं आप ? और सिन्हा साहब को कैसे जानती हैं आप ?”
“आशा मेरे आफिस में काम करती है ।” - सिन्हा खंखार कर बोला - “मेरी सैकेट्री है ।”
“यानी कि आप इन्हें फेमस सिने बिल्डिंग के अपने चिड़िया के घौंसले जैसे दफ्तर में दबा कर बैठे हुए हैं ?” - देव कुमार यूं चिल्लाया जैसे कोई बेहद असम्भव बात सुनली हो ।
“हां ।” - सिन्हा बोला - “और जिसे तुम चिड़िया का घौंसला बता रहे हो वह फेमस सिने बिल्डिंग का सब से बड़ा दफ्तर है ।”
“होगा ।” - देव कुमार लापरवाही से बोला - “तुम्हारा दफ्तर ही बड़ा है लेकिन तुम्हारे द्वारा वितरित फिल्मों का विज्ञापन फिल्मी धमका के चौथाई पृष्ठ से ज्यादा में कभी नहीं छपा ।”
“मैडम” - वह फिर आशा की ओर आकर्षित हुआ - “सिन्हा साहब की सैकेट्री बनने की काबिलयत रखने वाली बम्बई में कम से कम बीस हजार लड़कियां होंगी लेकिन आप जैसा आकर्षण बम्बई की तमाम लड़कियों में से किसी में नहीं है । मैडम, सिन्हा साहब की सैक्रेट्री बनी रह कर आप सारे हिन्दोस्तान के फिल्म उद्योग के साथ ज्यादती कर रही हैं । यू शुड एट वन्स स्टैप आउट आफ दैट पिजन होल एण्ड बी ए सिनेमा स्टार ।”
“कौन बनायेगा मुझेगा सिनेमा स्टार ?” - आशा पूर्ववत् मुस्कराती हुई बोली ।
“कौन नहीं बनायेगा आपको सिनेमा स्टार ।” - देव कुमार मेज पर घूंसा मारता हुआ बोला ।
“मेज टूट जायेगी ।” - सिन्हा बोला ।
“ऐसी की तैसी मेज की ।” - देवकुमार गरज कर बोला ।
“इतना चिल्लाओ मत । आस पास और भी लोग बैठे हैं ।”
“ऐसी की तैसी उनकी भी ।” - देवकुमार और भी ऊंचे स्वर में बोला - “मैडम, मुझे हैरानी है आज तक किसी निर्माता की आप पर नजर क्यों नहीं पड़ी । एक बार आप के अपने दायरे से बाहर निकल कर यह इच्छा जाहिर करने की देर है कि आप सिनेमा स्टार बनना चाहती हैं, अगर आप के घर के सामने फिल्म निर्माताओं का क्यू न लग जाये तो मुझे फिल्मी धमाका नहीं, सफेद रीछ की औलाद कह देना । और न सिर्फ आप एक्ट्रेस बनेंगी, मेरा दावा है कि अपनी पहली फिल्म के बाद आप सारी बम्बई के फिल्म अभिनेत्रियों के झंडे उखाड़ कर रख देंगी ।”
 
“मुझे शक है ।”
“आपका शक बेबुनियाद है ।” - देवकुमार आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “मैडम, एक बार अपने दायरे से बाहर निकल कर फिल्म उद्योग का रुख कीजिये, बम्बई का सारे हिन्दोस्तान, का फिल्म उद्योग आपके कदमों में होगा । मैडम, सिकन्दर अगर मकदूनिया में ही अपनी जिन्दगी गुजार देता तो क्या वह सारी दनिया को फतह कर पाता ?”
“आपका बात कहने का ढंग बहुत शानदार है ।” - आशा बोली ।
“मेरे बात करने के ढंग को भाड़ में झोंकिये आप ।” - देव कुमार बोला - “आप अपने बारे में सोचिये । अपने भविष्य के बारे में सोचिये ।”
“मैं सोचूंगी ।” - आशा चाय का आखिरी घूंट हलक से नीचे उतारती हुई बोली ।
“चलें -।” सिन्हा उतावले स्वर में बोला ।
“चलिये ।” - आशा ने उत्तर दिया ।
सिन्हा ने वेटर को संकेत किया ।
“कहां का प्रोग्राम है ?” - देवकुमार ने पूछा ।
“पिक्चर देखने जा रहे हैं ?”
“कौन सी ?”
“अरे बस्क्यू ।”
“आई सी । सोफिया लारेन को देखने जा रही हैं आप ?”
“जी हां और ग्रैगरी पैक को ।”
“जबकि सोफिया लारेन को चाहिए कि वह आपको देखे ।”
“क्या मतलब ?”
“आप सोफिया लारेन से एक हजार गुणा ज्यादा खूबसूरत हैं मैडम ।”
“आपका ख्याल गलत है । सोफिया लारेन बहुत खूबसूरत अभिनेत्री है ।”
“मैं उसकी अभिनय कला की नहीं उसकी शारीरिक सुन्दरता की बात कर रहा हूं ।”
“खूबसूरती के लिहाज से भी वह संसार की गिनी चुनी तीन चार अभिनेत्रियों में से एक है ।”
“आप उसकी फैन मालूम होती हैं, इसीलिये आप उसकी इतनी तारीफ कर रही हैं । खुद मुझे तो सोफिया लारेन में उभरी हुई गाल की हड्डियां और बाकी शरीर के अनुपात से बड़ी छातियों के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता ।”
“अपना अपना ख्याल है ।” - आशा बोली ।
“मैंने तो अपनी जिन्दगी में जो सबसे अधिक खूबसूरत औरत देखी है, वह आप हैं ।”
“धमाका साहब यह क्या है ?” - आशा मेज पर रखे पानी के गिलास की ओर संकेत करती हुई बोली ।
“यह ?” - देवकुमार तनिक हड़बड़ाकर गिलास की ओर देखता हुआ बोला ।
“हां ।”
“पानी का गिलास है ।”
“अच्छा ।” - आशा आश्चर्य का प्रदर्शन करती हुई बोली - “जिस अनुपात से आप बात को बढा चढाकर कहते हैं, उससे मैं तो मैं समझी थी कि आप इसे बाल्टी बतायेंगे ।”
देवकुमार के चेहरे ने एक साथ कई रंग बदले ।
“आप” - वह बोला - “आप मेरी बातों को मजाक समझ रही हैं, मैडम ?”
“धमाका साहब” - सिन्हा उठता हुआ बोला - “आशा तुम्हारी बातों को क्या समझ रही है इस विषय में हम फिर कभी बात करेंगे । आओ आशा ।”
आशा खड़ी हुई ।
“मैं आप से फिर मिलूंगा, मैडम ।” - देवकुमार भी खड़ा हो गया और ऐसे बोला जैसे धमकी दे रहा हो ।
“जरूर मिलियेगा ।”
“मैडम, मेरा दावा है कि बहुत जल्दी ही सारी बम्बई की नजर सिर्फ आप पर होगी । आप बहुत जल्दी ही बम्बई में एक हंगामा बरपाने वाली हैं ।”
“अच्छा, देखते हैं ।”
“जरूर देखियेगा और तब आप इस बन्दे को मत भूल जाईये जिसने सबसे पहले आपको भविष्य में झांका है ।”
“नहीं भूलूंगी ।” - आशा मुस्कराकर बोली ।
“थैंक्यू वैरी मच ।” - देव कुमार सिर नवा कर बोला ।
“ओके ।” - सिन्हा देवकुमार से बोला और आशा के साथ उस ओर चल दिया जिधर उसमें अपनी कार पार्क की थी ।
देवकुमार वहीं खड़ा रहा ।
***
 
सिन्हा की गाड़ी मैरिन ड्राइव के मोटर ट्रैफिक के सैलाब में बही जा रही थी ।
“वैसे देवकुमार गलत नहीं कह रहा था ।” - सिन्हा बोला ।
“क्या ?” - आशा ने सहज स्वर से पूछा ।
“तुम वाकई बहुत खूबसरत हो ।”
“आप उस बातूनी आदमी की बातों पर जा रहे हैं । तिल का ताड़ बना देना तो उसकी आदत मालूम होती है मुझे । आपके धमाका साहब तो अपनी बातों के दम पर ही किसी भी लड़की के मन में यह वहम पैदा कर सकते हैं कि वह महारानी शीला या क्लोपैट्रा है ।”
“लेकिन तुम्हारे बारे में उसने जो कहा था उसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं थी । तुम बम्बई की किसी भी खूबसूरत अभिनेत्री से अधिक खूबसूरत हो ।”
“और मैं जब चाहूं, बम्बई फिल्म उद्योग की सारी अभिनेत्रियों के झण्डे उखाड़ सकती हूं ।” - आशा उपहासपूर्ण स्वर से बोली ।
“हां ।” - सिन्हा निश्चयात्मक स्वर बोली ।
आशा हंस दी ।
“इसमें हंसने की कोई बात नहीं है ।” - सिन्हा एक उड़ती हुई दृष्टि आशा के चेहरे पर डालकर फिर कार से बाहर सामने सड़क पर दृष्टि जमाता हुआ बोला - “देवकुमार ने एकदम हकीकत बयान की है । यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि तुम जैसी बेहद खूबसूरत लड़की की जगह किसी फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर का दफ्तर नहीं सिनेमा की स्क्रीन है ।”
आशा चुप रही ।
“बम्बई में कई फिल्म निर्माता और निर्देशक मेरे दोस्त हैं, मैं तुम्हारे बारे में किसी से बात करूंगा ।” - सिन्हा निर्णायात्मक स्वर से बोला ।
“मुझे फिल्म अभिनेत्री बनने का शौक नहीं है ।”
“शौक नहीं है तो न सही । तुम फिल्म अभिनय करने के काम को एक पेशे के ढंग से क्यों नहीं सोचती । तुम एक कामकाजी लड़की हो । मैं तुम्हें मुश्किल से साढे तीन सौ रुपये तनख्वाह देता हूं । बम्बई जैसे शहर में साढे तीन सौ रुपए तो एक बड़ी ही साधारण रकम होती है । एक थोड़ा पैसा कमाने वाली कामकाजी लड़की हमेशा किसी ऐसी ओपनिंग की तलाश में रहती है जहां उसे ज्यादा पैसा हासिल हो सके । फिल्म अभिनेत्री बनने का तुम्हें शौक नहीं है तो क्या हुआ तुम फिल्म अभिनय में तो दिलचस्पी ले सकती हो ।”
“मुझे ज्यादा पैसे की जरूरत नहीं है ।”
“लेकिन जरूरत पड़ सकती है ।”
“मुझे नहीं पड़ेगी । मेरी बुनियादी जरूरतें बहुत कम हैं । साढे तीन सौ रुपये मुझे बड़ी संतोषजनक रकम मालूम होती है ।”
“वक्त का कोई भरोसा नहीं होता, आशा कभी भी कुछ भी हो सकता है । पैसा इन्सान की जिन्दगी में बहुत बड़ा सहारा होता है । आदमी के पास पैसा हो तो वह कभी भी कुछ भी हासिल कर सकता है । पैसा हो तो जिन्दगी की कई सहूलियतें खुद ब खुद हासिल हो जाती हैं । इस आज के जमाने में वह इनसान मूर्ख कहलाता है जो अधिक पैसा कमाने का मौका इसीलिये छोड़ देता है क्योंकि उसकी बुनियादी जरूरतें बहुत कम हैं और क्योंकि थोड़े में गुजारा करना उसने अपनी आदत बना ली है ।”
“मैं मूर्ख ही ठीक हूं ।” - आशा धीरे से बोली ।
“आखिर तुम्हें एतराज क्या है ? तुम इतनी खूबसूरत हो...”
“आप बार-बार मेरी खूबसूरती का ही हवाला दिये जा रहे हैं” - आशा उसकी बात काटकर बोली - “लेकिन आप यह क्यों नहीं सोचते कि अभिनेत्री बनने के लिये सिर्फ खूबसूरत होना ही काफी नहीं होता उसके लिये अभिनय करना भी तो आना चाहिये । और मुझे अभिनय कला की कतई जानकारी नहीं है ।”
“बम्बई में अभिनेत्री बनने के लिये सिर्फ खूबसूरत होना ही काफी होता है, मैडम ।” - सिन्हा बोला - “लड़की खूबसूरत हो और गूंगी न हो तो यह एक बेकार की बात रह जाती है कि वह अभिनय करना भी जानती है या नहीं । मैं अभी बम्बई की कम से एक दर्जन ऐसी प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्रियों के नाम तुम्हें गिना सकता हूं जो अभिनय का क ख ग भी नहीं जानती दर्जनों फिल्मों में काम कर लेने के बाद भी अभिनय नहीं जानती और जिनकी अभिनय के मामले में अकेली योग्यता यह है कि भगवान ने उन्हें अच्छी सूरत और खूबसूरत शरीर प्रदान किया है अगर वे अभिनेत्रियां बन सकती हैं तुम हर हाल में अभिनेत्री बन सकती हो । तुम उनसे एक हजार गुणा ज्यादा खूबसूरत हो ।”
आशा चुप रही ।
“और फिर मेरे ख्याल से तो अभिनय करना तो हर औरत के लिये एक स्वाभाविक किया है । हर औरत जन्मजात अभिनेत्री होती है । मुझे विश्वास है कि तुम बहुत जल्दी और बड़ी आसानी से अभिनय करना सीख जाओगी ।”
“शायद मैं नहीं सीख पाऊंगी ।”
“यह वहम है तुम्हारा और सिनेमा स्टार बनने से इनकार करने के लिये यह बड़ी खोखली दलील है । जब तक तुम एक काम करोगी नहीं तब तक तुम्हें कैसे मालूम होगा कि उसे करने की क्षमता और प्रतिभा तुम में है या नहीं ।”
सिन्हा एक क्षण चुप रहा और फिर बोला - “और फिर तुम अभिनय कर पाओगी या नहीं, यह तुम्हारा नहीं उन लोगों का सिर दर्द है जो तुम्हें अभिनेत्री बनायेंगे ।”
“ऐसी सूरत में कोई मुझे अभिनेत्री बनायेगा ही क्यों ?”
“क्योंकि इस धन्धे में सीरत के मुकाबले में सूरत का महत्व ज्यादा है । अभिनेत्री खूबसूरत है यह बात सौ में से सौ आदमियों को दिखाई दे जायेगी लेकिन अभिनेत्री अच्छा अभिनय करना भी जानती है, यह बात सौ में से दो आदमियों को भी मुश्किल से दिखाई देगी । आशा, सूरत का सम्बन्ध आंखों से होता है और सीरत का सम्बन्ध दिमाग से । हिन्दोस्तान के सिने दर्शकों में आंखें सबके पास हैं लेकिन दिमाग किसी किसी के पास है हिन्दोस्तान में फिल्में आंखों वालों के लिये बनाई जाती है दिमाग वालों के लिये नहीं । इसलिये तुम अभिनेत्री बनोगी ।” - सिन्हा अपने अन्तिम वाक्य के एक एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला ।
“मैं अभिनेत्री नहीं बनूंगी ।” - आशा ऐसे स्वर से बोली जैसे ख्वाब में बड़बड़ा रही हो ।
“लेकिन क्यों ? क्यों ?”
“क्योंकि” - आशा सुसंयत स्वर में बोली - “मेरे फ्लैट में मेरे साथ मेरी एक सहेली रहती है जो खूबसूरती के मामले में मुझसे किसी भी लिहाज से कम नहीं है । यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब देवकुमार जैसे राई का पहाड़ बनाने वाले और केवल बातों की खातिर बातें करने वाले लोग उसे बम्बई की किसी भी खूबसूरत अभिनेत्री से अधिक खूबसूरत लड़की बताया करते थे और भारतीय रजतपट की एक बेहतरीन हीरोइन के रूप में उसकी कल्पना किया करते थे । मेरी कम उम्र और नादान सहेली वाकई यह समझ बैठी कि उसके मुंह से यह बात निकलने की देर है कि वह अभिनेत्री बनेगी कि उसके सामने फिल्म निर्मताओं के क्यू लग जायेंगे और अगले ही क्षण वह फिल्म उद्योग के सातवें आसमान पर होगी । और फिर आपके दोस्त ‘फिल्मी धमाका’ के कथनानुसार वह बम्बई की सारी नई पुरानी फिल्म अभिनेत्रियों के झण्डे उखाड़ देगी, उसकी फिल्में देखने वालों का उड़नतख्ता हो जायेगा और वह बम्बई के फिल्म निर्माता और निर्देशकों के सिर पर नाचेगी । नतीजा यह हुआ कि वह बम्बई के फिल्म उद्योग के इस अथाह समुद्र में कूद गई जहां मगरमच्छ ही मगरमच्छ भरे पड़े हैं । फिल्म उद्योग के आधार स्तम्भों द्वारा अच्छी तरह झंझोड़ी जा चुकने के बाद जब उसकी आंखें खुली तब तक बहुत देर हो चुकी थी । हीरोइन बनने की इच्छुक मेरी सहेली की लम्बी कहानी का अन्त यह है कि अब वह फिल्मों में दो-दो, तीन-तीन मिनट के छोटे छोटे रोल करती है, मतलब यह कि एक्स्ट्राओं से जरा ही बेहतर हालत में है, हर समय एक बड़े ही सुन्दर भविष्य की कल्पना करती है और इस आशा में अपने होठों से मुस्काराहट नहीं पुंछने देती कि शीघ्र ही कोई करिश्मा हो जायेगा, कोई पैसे वाला उस पर कुर्बान हो जायेगा और वह इतनी तेजी से सोने चांदी के कुतुबमीनार की चोटी पर पहुंच जायेगी कि देखने वाले हैरान रह जायेंगे । सिन्हा साहब, अपनी सहेली की कहानी को मैं अपनी जिन्दगी में भी दोहराऊं, इससे अच्छा यह नहीं होगा कि मैं ऐसा इनसान ही बनी रहूं जो इसलिये मूर्ख कहलाता है क्यों कि उसने अधिक पैसा कमाने का मौका इसलिये छोड़ दिया है क्योंकि उसकी बुनियादी जरूरतें बहुत कम है और क्योंकि थोड़े में गुजारा करना उसने अपनी आदत बना ली है ।”
 
“आशा” - सिन्हा व्यग्र स्वर से बोला - “किसी दूसरे की जिन्दगी से अपनी जिन्दगी की रूपरेखा तैयार कर लेना कोई भारी समझदारी की बात नहीं है । हर आदमी अपनी जिन्दगी जीता है । हर आदमी का जिन्दगी जीने का अपना ढंग होता है । सम्भव है तुम्हारी सहेली की जो हालत हुई है उसमें उसकी अपनी ही गलतियों का हाथ हो । और फिर यह तों कतई जरूरी नहीं है कि जो जैसी हालत उसकी हुई है, वैसी तुम्हारी भी होगी ।”
“क्या गारन्टी है ?”
“मैं गारन्टी हूं ।” - सिन्हा आवेशपूर्ण स्वर से बोला - “तुम्हारी सहेली बम्बई महानगरी के कुछ गलत प्रकार के लोगों के चंगुल में फंस गई होगी । इसलिये धोखा खा गई लेकिन मैं खुद तुम्हारी किसी भी प्रकार की सुरक्षा की गारन्टी करता हूं ।”
और स्वयं आप से मेरी सुरक्षा की गारन्टी कौन करेगा - आशा ने मन ही मन सोचा ।
“बहस छोड़िये, सिन्हा साहब ।” - प्रत्यक्ष में वह बोली - “आपने मेरे भविष्य में इतनी दिलचस्पी ली, इसके लिये धन्यवाद लेकिन मैं अपनी वर्तमान स्थिति से शत प्रतिशत सन्तुष्ट हूं । मुझे हीरोइन नहीं बनना है ।”
सिन्हा फिर नहीं बोला । वह चुपचाप गाड़ी चलाता रहा ।
जिस समय वे लोग सिनेमा हाल के भीतर अपने दो सीटों वाले बाक्स में पहुंचे उस समय स्क्रीन पर ‘अरेबस्क’ के क्रैडिट्स दिखाये जा रहे थे ।
दोनों सीटों पर जा बैठे ।
फिल्म आरम्भ हुई ।
फिल्म आरम्भ होने के पांच मिनट बाद ही सिन्हा ने वे हरकतें करनी आरम्भ कर दी जिनकी आशा को आशंका थी ।
हाल के अन्धेरे और बाक्स को तनहाई में सिन्हा का दायां हाथ सांप की तरह फनफनाता हुआ आगे बढा और सीट के पीछे से होता हुआ आशा के नंगे कन्धे पर आ पड़ा ।
आशा के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई ।
कुछ क्षण सिन्हा की उंगलियां आशा के कन्धे से लेकर कोहनी तक के भाग पर फिरती रहीं फिर आशा के कन्धे पर उनकी पकड़ मजबूत हो गई । सिन्हा ने आशा को अपनी ओर खींचा ।
आशा अपने स्थान से टस से मस नहीं हुई ।
सिन्हा ने दुबारा प्रयत्न किया ।
आशा ने बलपूर्वक सिन्हा का हाथ अपने कन्धे पर से हटा दिया लेकिन उसने सिन्हा का हाथ छोड़ा नहीं । अपने बायें हाथ से वह सिन्हा के बायें हाथ को दोनों सीटों के बीच की पार्टीशन पर थामे रही ।
कुछ देर सिन्हा शान्त बैठा रहा फिर उसने धीरे से अपना हाथ आशा के हाथ में से खींच लिया ।
आशा कुछ क्षण बड़ी सतर्कता से सिन्हा की अगली हरकत की प्रतीक्षा करती रही लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो वह फिल्म देखने में लीन हो गई ।
न जाने कब सिन्हा का दायां हाथ फिर उसकी गर्दन से लिपटता हुआ उसके दायें कन्धे पर आ पड़ा ।
आशा के शरीर में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई ।
एकाएक सिन्हा का हाथ कन्धे से नीचे सरक आया और आशा के उन्नत वक्ष पर आ पड़ा ।
आशा के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई । उसने एक झटके से सिन्हा का हाथ अपने वक्ष से हटाना चाहा लेकिन इस बार सिन्हा की पकड़ बहुत मजबूत थी । आशा ने बड़ी बेचैनी से अपनी सीट में पहलू बदला और अपने दोनों हाथों से बलपूर्वक सिन्हा का हाथ अपने वक्ष से हटा दिया ।
लेकिन तभी सिन्हा का दूसरा हाथ भी बढा और आशा के पेट से लिपट गया । सिन्हा का दायां हाथ आशा की पकड़ से निकल कर कन्धे से नीचे फिसला और गर्दन से लिपट गया । सिन्हा ने बलपूर्वक आशा को अपनी ओर खींचा और उसके तमतमाये हुये होठ आशा के गालों से छू गये ।
“सिन्हा साहब, प्लीज ।” - आशा सिन्हा की पकड़ से छूटने के लिये तड़पड़ाती हुई, याचनापूर्ण स्वर से बोली ।
“ओह, कम आन ।” - सिन्हा थरथराते स्वर से बोला । उसका दायां हाथ आशा के पेट से होता हुआ फिर वक्ष पर आ पड़ा था ।
आशा ने एक बार अपने शरीर का पूरा जोर लगाया और सिन्हा के बन्धन से मुक्त हो गई । वह एकदम अपनी सीट से उठ खड़ी हुई और बाक्स के द्वार की ओर बढी ।
“ओके, ओके ।” - सिन्हा हांफता हुआ बोला और उसने अपना शरीर सीट पर ढीला छोड़ दिया ।
आशा अनिश्चित सी खड़ी रही । फिर उसने अपनी साड़ी ठीक की और वापिस सीट पर आ बैठी ।
उसने एक सतर्क दृष्टि सिन्हा पर डाली ।
सिन्हा निढाल सा बाक्स के फर्श पर बहुत दूर तक टांगें फैलाये अधलेटी स्थिति में अपनी सीट पर पड़ा था । उसका चेहरा उतेजना से तमतमा रहा था और आंखें बाहर को उबली पड़ रही थीं । उसके माथे और अधगंजे सिर पर पसीने की बून्दें चमक रही थीं । उसकी मुंह खुला हुआ था और उसके तेजी से सांस लेने की आवाज सारे बाक्स में गूंज रही थी ।
स्क्रीन पर चलती हुई फिल्म से वह एकदम बेखबर था ।
आशा ने अपनी दृष्टि घुमा ली और स्क्रीन पर देखने लगी । स्क्रीन पर उसे क्रियाशील चेहरे ही दिखाई दिये । फिल्म उसे खाक भी समझ नहीं आई ।
न जाने कितना समय यूं ही गुजर गया ।
सिन्हा अब कुर्सी पर सीधा होकर बैठा हुआ था । उसके चेहरे पर हताशा के भाव थे और नेत्रों से बेचैनी टपक रही थी । केवल एक क्षण के लिये आशा के नेत्र सिन्हा के नेत्रों से मिले और फिर उसने फौरन अपने नेत्र स्क्रीन की ओर घुमा दिये ।
अगली बार सिन्हा का हाथ आशा की जांघ पर प्रकट हुआ ।
आशा एक दम चिहुंक पड़ी और उसका हाथ अपनी जांघ पर पड़े सिन्हा के हाथ की ओर बढा ।
 
सिन्हा ने उसका हाथ पकड़ लिया ।
“मेरी बात सुनो ।” - वह तनिक कठोर स्वर में बोला लेकिन उसके खोखले स्वर में कठोरता से अधिक याचना का पुट था ।
“फरमाइये ।” - आशा अपने स्वर को भरसक सन्तुलित करती हुई बोली ।
“तुम चाहती क्या हो ?”
“आप क्या चाहते हैं, सिन्हा साहब ?”
“मैं... मैं तुम्हें चाहता हूं । तुम्हें हासिल करने के लिये मैं दुनिया की कोई भी चीज तुम्हारे कदमों में निछावर करने के लिये तैयार हूं ।”
“मैं बिकाऊ नहीं हूं ।” - आशा शान्त स्वर से बोली ।
“मेरा यह मतलब नहीं था ।” - सिन्हा जल्दी से बोला - “यह बात मैंने केवल तुम पर अपनी मुहब्बत जाहिर करने के लिये कही थी ।”
आशा चुप रही ।
“आशा” - सिन्हा आग्रह पूर्ण स्वर से बोला - “मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं ।”
“आप मुझसे मुहब्बत नहीं करते हैं” - आशा एक एक शब्द पर जोर देती हुई बोली - “मुहब्बत के धोखे में डालकर आप मुझे खराब करना चाहते हैं इसलिये आप केवल ऐसा कह रहे हैं । सिन्हा साहब, मैं बच्ची नहीं हूं । मैं उस उम्र से बहुत आगे निकल आई हूं जिसमें मर्द की मुहब्बत का झूठा वादा भी लड़की के दिल और दिमाग में ऐसा सम्मोहन पैदा कर देता है कि वह परिणाम का ख्याल किये बिना अपने झूठे और स्वार्थी प्रेमी पर अपना सब कुछ न्योछावर कर देती है और बाद में सिर पकड़ कर रोती है ।”
“आशा, सच....”
“सिन्हा साहब अगर आप सत्य ही मुझसे मुहब्बत करते होते तो आप मेरे शरीर की कीमत आंकने की कोशिश नहीं करते । इस बाक्स में अन्धेरे और तनहाई में मुझे अकेली और बेसहारा समझकर आप मुझ पर झपटने की कोशिश नहीं करते ।”
“आशा, यह बात नहीं है । मैं वाकई तुम से मुहब्बत करता हूं और क्योंकि मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं, इसलिये मैं तुम्हें अपनी बाहों में देखना चाहता हूं ।”
“लेकिन मैं आपसे मुहब्बत नहीं करती सिन्हा साहब ।” - आशा बर्फ जैसे ठन्डे स्वर से बोली ।
“तुम मेरा अपमान कर रही हो ।” - सिन्हा तमक कर बोला ।
“मैं हकीकत बयान कर रही हूं और आपको आपकी और अपनी स्थिति की बेहतर जानकारी देने की कोशिश कर रही हूं ।”
सिन्हा कुछ क्षण अग्नेय नेत्रों से आशा को घूरता रहा लेकिन जब उसने अपनी इस क्रिया का आशा पर कोई प्रभाव नहीं पाया तो हवा निकले गुब्बारे की तरह पिचक गया ।
“तुम किसी और से मुहब्बत करती हो ?” - कुछ क्षण चुप रहने के बाद उसने प्रश्न किया ।
आशा ने उत्तर नहीं दिया ।
“तुम जरूर किसी और से मुहब्बत करती हो ।” - सिन्हा निर्णयात्मक स्वर से बोला ।
आशा चुप रही ।
“तुमने जरूर कोई मुझसे मोटा मुर्गा फांसा हुआ है ।”
“अगर मैंने कोई मोटा मुर्गा फांसा हुआ होता” - आशा शान्त स्वर से बोली - “तो मैं आप के दफ्तर में अपनी इज्जत को खतरे में डाल कर साढे तीन सौ रुपये की नौकरी न कर रही होती ।”
“मोटा मुर्गा न सही लेकिन तुम किसी से मुहब्बत जरूर करती हो ।”
उसी क्षण फिल्म समाप्त हो गई और स्क्रीन पर तिरंगा झंडा दिखाई देने लगा और राष्ट्रीय गान आरम्भ हो गया ।
आशा अपनी सीट से उठ खड़ी हुई ।
सिन्हा भी खड़ा हो गया ।
राष्ट्रीय गान की समाप्ति पर वे बाहर निकल आये ।
सिनेमा की इमारत के बाहर निकल कर वे सिनेमा के विशाल कम्पाउन्ड में आ गये ।
“थोड़ी देर यहीं ठहरते हैं ।” - सिन्हा बोला - “जरा भीड़ छंट ले ।”
“अच्छा, सिन्हा साहब ।” - आशा सुसंयत स्वर से बोली ।
दोनों एक ओर हट कर खड़े हो गये ।
उसी क्षण हजार वाट के बल्ब की तरह जगमगाती हुई एक महिला उस ओर बढी जिधर वह और सिन्हा खड़े थे । वह बहुत गहरा मेकअप किये हुए थी और बड़ा कीमती परिधान पहने हुए थी । उसके नेत्र सिन्हा के नेत्रों से मिले । वह क्षण भर के लिये ठिठकी और फिर बड़े ही बनावटी स्वर से बोली - “हल्लो - ओ-ओ-ओ सिन्हा ।”
महिला पर दृष्टि पड़ते ही सिन्हा का चेहरा खिल उठा । क्षण भर के लिये वह आशा को एकदम भूल गया । वह दो कदम आगे बढा और प्रसन्न स्वर से बोला - “हल्लो, आप यहां कैसे ?”
“भई, तुम तो जानते ही हो, मैं ग्रैगरी पैक की फैन हूं ।” - महिला बोली - “उसकी हर फिल्म पहले दिन देखती हूं ।”
“फिल्म देखने आई हैं आप ?”
“फिल्म तो मैंने देख ली ।”
“आम तौर पर तो आप आखिरी शो में आती हैं ।”
“हां लेकिन आज कोठी पर कुछ मेहमानों को बुलाया हुआ था, इसलिये फर्स्ट शो में चली आई ।”
“आई सी ।”
“बड़ी तगड़ी पार्टी का आयोजन है । तुम भी चलो न ?”
“मैं !” - सिन्हा अनिश्चित स्वर से बोला ।
“हां, हां, क्यों नहीं । तुम से तो वैसे भी बहुत कम मुलाकात हो पाती है । जब पूछो यही मालूम होता है साहब दिल्ली गये हुए हैं । आज चलो, सब तुम्हारे जाने पहचाने लोग भी आ रहे हैं, बड़ा मजा आयेगा ।”
“लेकिन मैडम, मैं अकेला नहीं हूं ।”
“कौन है तुम्हारे साथ ?”
सिन्हा ने थोड़ी दूर खड़ी आशा की ओर संकेत कर दिया ।
महिला ने एक उड़ती हुई दृष्टि आशा पर डाली और फिर बोली - “कौन है यह ?”
“मेरी सैक्रेट्री है ।”
“फिर क्या मुश्किल है । चलता करो इसे ।”
“नहीं ।” - सिन्हा विस्मयपूर्ण स्वर से बोला - “यह तो अच्छा नहीं लगता ।”
“तो फिर इसे भी साथ ले चलो ।”
“दरअसल बात यह है कि मैंने नटराज में डिनर के के लिये टेबल बुक करवाई हुई है । अभी हम लोग वहीं जा रहे थे ।”
“अरे, गोली मारो नटराज को ।” - महिला मर्दों की तरह अपने हाथ को झटका देती हुई बोली - “मेरी कोठी क्या नटराज से कम है । वहां, क्या लोग डिनर नहीं लेते । और फिर नटराज में तुम्हें ‘जानी वाकर’ कौन पिलायेगा । आज रात के लिये मैंने विशेष रूप से बीस बोतलें मंगवाई हैं ।”
“मेरी सैक्रेट्री तो शराब पीती नहीं है ।”
“नहीं पीती तो अब पीने लगेगी । और सिन्हा तुम साथ चलोगे तो मुझे भी थोड़ी सहूलियत हो जायेगी ।”
“क्या ?”
“मेरी गाड़ी बिगड़ गई मालूम होती है । ड्राइवर से गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही है । तुम साथ चलोगे तो मैं टैक्सी में जाने की जहमत से बच जाऊंगी ।”
सिन्हा सोचने लगा ।
 
“ओके ।” - महिला ने प्रश्न सूचक नेत्रों से पूछा ।
“एक मिनट ठहरिये ।” - सिन्हा बोला - “पहले मैं अपनी सैक्रेट्री को आप से मिलवाता हूं । ...आशा ।” - सिन्हा ने आशा को आवाज दी ।
आशा उन लोगों के समीप आ गई ।
“यह मेरी सैक्रेट्री आशा है ।” - सिन्हा बोला - “आशा, ये प्रसिद्ध सिनेमा स्टार अर्चना माथुर हैं ।”
आशा ने दोनों हाथ जोड़ दिये ।
अर्चना माथुर केवल मुस्कराई ।
“मैं तो आपको देखते ही पहचान गई थी ।” - आशा मुस्कराती हुई बोली - “मैं आपकी पक्की फैन हूं, अर्चना जी । आपकी हर फिल्म देखती हूं ।”
“अच्छा !” - अर्चना बोली ।
“जी हां । आपकी कई फिल्में तो मैंने दो दो, तीन तीन बार देखी हैं । मेरी नजर में आप हिन्दी फिल्मों की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री हैं ।”
अपनी प्रशन्सा सुनकर अर्चना माथुर की बाछें खिल गई । उसके नेत्र चमक उठे ।
“बचपन से ही मैं आपकी फिल्में देखती आ रही हूं । तभी से आप मेरी प्रिय सिनेमा स्टार हैं ।”
एकाएक अर्चना माथुर के चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गई, फिर आंखों से चमक उड़ गई और फिर उसने कहर भरे नेत्रों से आशा की ओर देखा ।
आशा एकदम हड़बड़ा गई । अर्चना माथुर के व्यवहार में उत्पन्न इतना अप्रत्याशित परिवर्तन उसकी समझ में नहीं आया । उसने तो कोई ऐसी बात कहीं नहीं थी जो अर्चना माथुर को बुरी लगे । वह तो सच्चे दिल से अर्चना की तारीफ कर रही थी ।
दुबारा बोलने का उसका हौसला नहीं हुआ ।
“फिर क्या सोचा तुमने ?” - अर्चना तनिक रूखे स्वर से सिन्हा से सम्बोधित हुई ।
सिन्हा ने एक बार आशा की ओर देखा और फिर अर्चना की ओर देखता हुआ अनिश्चत स्वर से बोला - “अर्चना जी, मेरे ख्याल में तो...”
“तुम्हारी समस्या मैं हल किये देती हूं ।” - अर्चना उसकी बात काटती हुई बोली - “आशा ।”
“जी हां ।” - आशा जल्दी से बोली ।
“आशा ।” - अर्चना गम्भीरता से बोली - “सिन्हा साहब एक बेहद जरूरी काम से मेरे साथ जा रहे हैं, इसलिये आज तुम्हें डिनर के लिये नटराज में नहीं ले जा सकेंगे ।”
“अच्छी बात है ।” - आशा बोली । मन ही मन उसने छुटकारे की सांस ली । सिनेमा हाल में सिन्हा की हरकतों के बाद वह खुद ही कौन सी नटराज में जाने की इच्छुक थी ।
“लेकिन, अर्चना जी...” - सिन्हा ने प्रतिवाद करना चाहा ।
“डिनर के लिये साहब तुम्हें किसी और दिन ले जायेंगे ।” - अर्चना जल्दी से बोली - “ओके ?”
“ओके मैडम ।”
“नाराज तो नहीं हो न ?”
“नहीं, जी । नाराजगी कैसी ।”
“सिन्हा साहब यह बात खुद तुम्हें कहने से झिझक रहे थे, इसलिये मैंने कह दी । तुमने बुरा तो नहीं माना ।”
“नहीं, मैडम ।”
“थैंक्यू । तुम बहुत अच्छी लड़की हो ।” - फिर अर्चना ने आशा की ओर से एकदम पीठ कर ली और सिन्हा की बांह में बांह डालती हुई बोली - “चलो, सिन्हा ।”
“आशा ।” - सिन्हा बोला - “आई एम सारी । मैं...”
“इट्स परफैक्टली आल राइट, सर ।” - आशा मुस्कराती हुई बोली ।
“चलो, तुम्हें कोलाबा तो छोड़ता जाऊं ।” - सिन्हा बोला ।
“ओफ्फोह !” - अर्चना अपार विरक्ति का प्रदर्शन करती हुई बोली - “क्या जरूरत है ? आशा टैक्सी ले लेगी ।”
“दस मिनट लगेंगे, अर्चना ।” - सिन्हा बोला - “कोलाबा यहां से कोई ज्यादा दूर थोड़े ही है ।”
“बाबा, कोलाबा से एकदम उल्टी दिशा में जाना है, इस लिये दुगना वक्त खराब होगा । आशा, तुम टैक्सी ले लो और कोलाबा चली जाओ । हमें नेपियन सी रोड़ जाना है । कोलाबा की ओर जाना होता तो साहब तुम्हें जरूर अपने साथ ले जाते । तुम टैक्सी पर चली जाओ और टक्सी का भाड़ा कल सुबह दफ्तर में सिन्हा साहब से चार्ज कर लेना । ओके ?”
“ओके मैडम ।” - आशा शान्ति से बोली । अर्चना माथुर उससे यूं सम्बोन्धित हो रही थी जैसे वह किसी नौकर से बात कर रही हो और उसे टैक्सी का भाड़ा चार्ज कर लेने की छूट देकर उस पर बहुत बड़ा एहसान कर रही हो ।”
“आओ, सिन्हा ।” - अर्चना उसे लगभग घसीटती हुई बोली ।
सिन्हा उसके साथ हो लिया ।
आशा भी उसके पीछे पीछे बाहर की ओर चल दी ।
सिन्हा अर्चना के साथ अपनी कार की ओर बढ गया ।
आशा बाहर निकलकर टैक्सी स्टैण्ड की ओर बढी ।
उसी क्षण सिन्हा की कार सर्र से उसकी बगल में से निकली और तारकोल की चिकनी सड़क पर दौड़ गई ।
आशा ने देखा अर्चना सिन्हा से सटकर बैठी हुई थी । उसके चेहरे पर एक सिल्वर जुबली मुस्कराहट थी । सिन्हा भी खुश था ।
सिन्हा की कार दृष्टि से ओझल होते ही आशा रुक गई और फिर टैक्सी स्टैण्ड की ओर जाने के स्थान पर उस बस स्टैण्ड की ओर चल दी जहां से कोलाबा की ओर बस जाती थी ।
***
 
सरला चाय के कप और केतली लेकर किचन में से निकली उसने कप और केतली आशा के सामने मेज पर रख दी और स्वंय भी उसके सामने बैठ गई ।
“रात को कितने बजे आई थी तू ?” - सरला ने कपों में चाय उंढेलते हुए पूछा ।
“दस बजे ।” - आशा ने उत्तर दिया ।
“दस बजे ।” - सरला हैरानी से बोली ।
“हां । उस समय तू वापिस नहीं आई थी ।”
“वो तो हुआ लेकिन तू इतनी जल्दी कैसे लौट आई थी ? सिन्हा साहब के साथ फिल्म देखने नहीं गई ।”
“गई थी ।”
“डिनर के लिये नटराज नहीं गई ।
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“कुछ वजह हो गई थी ।”
“क्य वजह हो गई थी ?”
आशा ने उसे सारी घटना कह सुनाई ।
“मैं तो रात को दो बजे के करीब आई थी ।” - सारी बात सुन चुकने के बाद सरला बोली - “तू सोई पड़ी थी । मैंने यही समझा था कि तू भी आधा पौना घण्टा पहले ही आई होगी ।”
“नहीं, मैं दस बजे आ गई थी ।”
“मतलब यह हुआ कि अर्चना माथुर ने तुम्हारा पचास प्रतिशत प्रोग्राम कट कर दिया ।”
“मेरे पर तो अहसान ही किया उसने । मैं तो, भगवान कसम सिन्हा साहब की हरकतों से इतनी दुखी थी कि मेरा जी चाह रहा था कि सारे तकल्लुफ छोड़कर फौरन वहां से घर की ओर भाग खड़ी होऊं ।”
“अच्छा ।” - सरला आंखें फैलाकर बोली - “कोई हरकतें भी हुई थीं ।”
उत्तर में आशा ने उसे सिनेमा के बाक्स में घटी सारी घटना कह सुनाई ।
“आशा तू पागल है ।” - सरला गम्भीर स्वर से बोली ।
“अच्छा ! क्यों ?”
“तू सिन्हा जैसे मोटे मुर्गे को यूं ही छोड़े दे रही है । तेरी जगह मैं होती तो उसे उंगलियों पर नचाती ।”
“वह बड़ा हरामजादा आदमी है । ऊपर से ही चिकना चुपड़ा शरीफजादा लगता है । भीतर से तो पूरा शैतान है । वह तुम्हारे रईस दे पुत्तर जैसा बबुआ नहीं है जिसे तुम उंगलियों पर नचा लो । वह तो तुम्हें समूचा हजम कर जाये तो डकार भी न ले ।”
“ऐसी की तैसी उसकी ।”
“सिनेमा हाल में मुझसे कुछ शरारत न कर पाने की वजह से वह भड़का हुआ पहले ही था, बाहर आकर जब उसने अर्चना माथुर को देखा तो उसके मुंह से यूं लार टपकने लगी थी जैसे जिन्दगी में पहले कभी औरत ही न देखी हो ।”
“अर्चना माथुर में उसे सैक्स की सन्तुष्टि की सम्भावना दिखाई देने लगी होगी न ?”
“सम्भावना क्या, वह तो गारन्टी की बात थी । सिन्हा और अर्चना माथुर की सूरतें बता रही थीं कि दोनों में बड़ा पुराना रिश्ता था ।”
“जरूर होगा । वह तो बेहद मर्दखोर औरत है । इतने सालों से फिल्म इन्डस्ट्री में है । ढेर सारा रुपया कमाने और नये नये मर्द फंसाने के अलावा उसने बम्बई में किया ही क्या है । मुझे तो अगर किसी स्टूडियो लाइटमैन, या झाड़ू लगाने वाला भी यह कहे कि वह आर्चना माथुर का प्रेमी रह चुका है या अब भी है तो मैं फौरन विश्वास कर लूंगी । हमारे अम्बरसर में भी एक ऐसी औरत थी । बड़े रईस घर की बहू थी, बला की खूबसूरत थी । लेकिन तांगे रिक्शे वालों से भी आंखें लड़ाती रहती थी । एक बार क्या हुआ कि...”
“बस, बस, बस” - आशा उसकी बात काटकर बोली - “सुबह सवेरे चाय के साथ अगर ‘साडे अम्बरसर’ का किस्सा खाया जाये तो बदहजमी हो जाती है ।”
“मेरी सुन तो ।”
“फिर कभी सुनूंगी ।”
“आशड़ी दी बच्ची ।” - सरला तनिक नाराज स्वर से बोली - “आखिर मेरी अम्बरसर की बातों से इतनी तुझे चिढ क्यों है ?”
“मुझे चिढ नहीं है । लेकिन तुम्हारे स्टाक में अब अमृतसर का कोई नया किस्सा बाकी नहीं है । तुम हमेशा मुझे वही बात सुनाती हो जो मैं तुम्हारे मुंह से कम से कम दस बार सुन चुकी होती हूं । रिक्शे तांगे वालों की सहेली अमृतसर की जवान सेठानी का किस्सा भी तुम किसी न किसी सन्दर्भ में मुझे कम से कम बीस बार सुना चुकी हो ।”
“मुझे याद नहीं रहता कि मैं किसको कौन सी बात सुना चुकी हूं और कौन सा बात अभी सुनानी है ।” - सरला मासूम स्वर से बोली ।
“तुम ऐसा करो ।” - आशा विनोदपूर्ण स्वर से बोली - “तुम अपने अमृतसर के किस्सों पर नम्बर लगा लो और उन नम्बरों की एक एक लिस्ट मुझे और अपने सब जानकारों को दे दो । फिर जब तुमने अमृतसर का कोई किस्सा सुनाना हो तो पूरी बात दोहराने की जगह केवल उसका नम्बर बता दिया करो जैसे अमृतसर का किस्सा नम्बर आठ, किस्सा नम्बर तेरह वगैरह और मैं फौरन समझ जाया करूंगी कि तुम क्या कहना चाहती हो और फिर...”
“चूल्हे में जाओ ।” - सरला नाराज स्वर से बोली ।
आशा हंस पड़ी ।
सरला चुपचाप चाय पीने लगी ।
“सरला ।” - आशा ने बड़े प्यार से पुकारा ।
सरला चुप रही ।
“सरला !” - आशा फिर बोली ।
“बको ।” - सरला मुंह बिगाड़कर बोली ।
“बदमाश सेठानी का क्या किस्सा था वह ?”
“तुम्हारा सिर था ।”
“अच्छा, चाय तो दे ।”
सरला ने केतली उठाई और आशा का कप दुबारा भर दिया ।
“अच्छा, अपने उस नये आशिक की कोई बात सुना ।” - आशा बोली ।
“कोई बात नहीं है ।” - सरला अपना कप भी दुबारा भरती हुई नाराज स्वर से बोली ।
“कल रात को तू एक बजे वापिस आई थी, वह जरूर मिला होगा तुझे ।”
“तुझे क्या ?”
“और मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि वह जरूर तुम्हें जूहू लेकर गया होगा ।”
“कैसे ?”
“तुम्हारे दायें कपोल पर मुझे उसके दांत का निशान दिखाई दे रहा है ।”
“हट पागल, यह तो मच्छर के काटे का निशान है ।”
“उसके दांत का नहीं ?”
“नहीं ।”
“मतलब यह कि वह कल तुम्हें नहीं मिला था ?”
“मिला था लेकिन हम घूमते ही रहे ।” - सरला उत्साहपूर्ण स्वर से बोली । क्षणिक नाराजगी दूर हो चुकी थी । वह फिर मूड में आ गई थी - “कल उसने मुझे मगरमच्छ की खाल का पर्स खरीदकर दिया ।”
“अच्छा, बड़ा महंगा होगा वह तो ।”
“हां । पूरे बारह हजार का अभी दिखाती हूं तुम्हें ।” - और सरला उठकर कमरे के कोने की ओर बढी जहां सूटकेस रखे थे ।
 
सरला की आदत थी कि वह चीजों की कीमत हमेशा नये पैसों में बताती थी । उसका कथन था कि मोटी मोटी रकमों का नाम लेने में भी बड़ा मजा आता है और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव की वजह से मन में बड़ी ऊंचे दर्जे की इच्छायें पैदा होती हैं । एक सौ बीस रुपये कहने के स्थान पर वह बारह हजार कहना अधिक पसन्द करती थी ।
सरला पर्स ले आई ।
पर्स वाकई खूबसूरत था ।
“बहुत बढिया है ।” - आशा बोली ।
“और आज इससे मैच करती हुई साड़ी और ब्लाउज... आशा, तू बड़ी चालाक है ।”
“अब क्या हुआ ?”
“पता नहीं कहां कहां की बातें करने लगती है तू । बात तो सिन्हा साहब की हो रही थी । बातचीत में से उनका तो जिक्र ही गायब कर दिया तूने ।”
“और क्या कहना बाकी रह गया है ।”
“अच्छा एक बात बता ।”
“क्या ?”
“सिनेमा के बाक्स में तुमने सिन्हा साहब का विरोध क्यों किया ? थोड़ी बहुत चूमा चाटी से क्या तेरी पालिश उतर जाती ?”
“लेकिन जरूरत क्या है ?”
“वह मर्द है । तुमसे मुहब्बत करता है । वह तुम्हें बाक्स में सिनेमा दिखाने लाया था, बाद में तुम्हें नटराज में डिनर के लिये ले जाने वाला था, बदले में उसने अगर कोई छोटी मोटी हरकत कर भी दी तो कौन सी आफत आ गई ?”
“आफत आने में क्या देर लगती है ? और फिर मैंने तो उसे नहीं कहा कि वह मुझे सिनेमा ले जाये या नटराज में डिनर के लिये ले जाये । वही जबरदस्ती मेरे पीछे पड़ा हुआ था कि मैं उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लूं । उसे तो चाहिये था कि पहली ही बार मेरे इनकार को लाल सिग्नल समझकर मेरा ख्याल छोड़ देता और किसी दूसरी पटरी पर ट्राई मारता ।”
“लेकिन वह तुमसे मुहब्बत करता है ।”
“केवल जुबान से कहता है । मुझसे मुहब्बत-वुहब्बत कुछ नहीं करता वह । सिन्हा जैसे आदमी तो एक सांस में बीस भिन्न औरतों से मुहब्बत का वायदा कर सकते हैं और फिर मैं कोई ताजी-ताजी जवान हुई छोकरी तो नहीं हूं कि मुहब्बत का नाम भर सुन लेने से मेरा दिल धड़कने लगे । मैंने भी बहुत दुनिया देखी है । मेरे ख्याल से मुझमें मर्द की जुबान से निकले शब्दों की हकीकत परखने की काबलियत है ।”
सरला चुप रही ।
“मुझसे बोला मैं तुम्हें फिल्म में हीरोइन बनवा दूंगा ।” - आशा बोली - “मैंने कहा था मुझे हीरोइन नहीं बनना है क्योंकि फिल्म उद्योग में हीरोइन बनने की इच्छुक लड़कियों की इज्जत की सुरक्षा की कोई गारन्टी नहीं है । बोला तुम्हारी सुरक्षा की मैं गारन्टी करता हूं । तुम खुद सोचो ऐसा आदमी मेरी क्या सुरक्षा करेगा ? जो खुद पहला मौका हाथ में आते ही मुझ पर झपट पड़ा हो ।”
“उसने तुमसे कहा था कि वह तुम्हें हीरोइन बनवा देगा ।” - सरला नेत्र फैलाकर बोली ।
“हां ।” - आशा ने लापरवाही से उत्तर दिया - “आइडिया उसके देवकुमार नाम के एक दोस्त ने दिया था और मुझे स्टार बना देने का वादा सिन्हा ने किया था ।”
“और तूने इनकार कर दिया ?”
“हां ।”
“एक दम मूर्ख है, गधी है तू ।” - सरला भड़ककर बोली - “मरी खसमां खानी, सिन्हा सचमुच तुझे हीरोइन बना सकता है । वह बहुत बड़ा डिस्ट्रीब्यूटर है । कोई फिल्म निर्माता सिन्हा की बात टाल नहीं सकता ।”
“होगा । मैं हीरोइन बनने के साथ साथ सिन्हा की रखैल नहीं बनना चाहती ।”
“हर्ज क्या है, उल्लू । शुरू शुरू में सिन्हा के सहयोग का फायदा उठा लो । बाद में जब फिल्म इन्डस्ट्री में जम जाओ तो उसे चूल्हे में झोंकना । हर कोई ऐसा ही करता है ।”
“हर कोई करता होगा । मुझे यह सब पसन्द नहीं ।”
“आशा, जिस चीज की हिफाजत के लिये तू इतना अच्छा कैरियर ठुकरा रही है, उसके लिये तुझे कोई सरकारी इनाम नहीं मिलने वाले है । समझी ।”
“बकवास मत कर ।” - आशा नाराजगी भरे स्वर से बोली और चाय का खाली कप मेज पर पटककर उठ खड़ी हुई ।
“हे भगवान” - सरला ऊपर की ओर हाथ उठाकर बोली - “इस मूर्ख लड़की को अक्ल दे ।”
आशा ने अपना पर्स उठाया और कमरे से बाहर निकल गई ।

Chapter 2
बस से उतरकर वह फेमस सिने बिल्डिंग की ओर बढी ।
“नमस्ते जी ।” - अमर का परिचित स्वर उसके कानों में पड़ा ।
आशा ने अमर की ओर देखा, मुस्कराई और धीमे स्वर से बोली - “नमस्ते !”
“अगर मैं” - अमर बड़े ही शिष्ट स्वर से बोला - “यहां से लेकर के सी सिन्हा एन्ड सन्स के दफ्तर का फासला आपके साथ तय करूं तो आपको कोई ऐतराज तो नहीं होगा ।”
“मुझे भला क्यों ऐतराज होने लगा । आखिर पहुंचना तो तुमने भी वहीं है ।”
“थैंक्यू ।”
आशा उसकी ओर देखकर फिर मुस्कराई और चुपचाप फुटपाथ पर चलती रही ।
“आज आप जल्दी आ गईं ।” - अमर बोला ।
“हां । आज बस जल्दी मिल गई थी ।”
“फिल्म कैसी थी ?”
“मालूम नहीं ।”
“क्या मतलब है फिल्म देखने गई नहीं आप ?”
“फिल्म देखने तो मैं गई थी लेकिन फिल्म की घटनाओं से ज्यादा जबरदस्त घटनायें हमारे बाक्स में ही घटने लगी थीं इसलिये मैं फिल्म देख नहीं पाई ।”
अमर कुछ क्षण चुप रहा और फिर उलझनपूर्ण स्वर से बोला - “आपकी बात ठीक से मेरी समझ में नहीं आई ।”
“बड़ी अच्छी बात है ।”
“क्या अच्छी बात है ?”
“कि मेरी बात ठीक से तुम्हारी समझ में नहीं आई ।”
“अब तो आपने मुझे और भी उलझन में डाल दिया ।”
“कल तुमने अपनी टिकट क्यों फाड़ दी थी ?” - आशा ने पूछा ।
 
“आशा जी” - अमर जल्दी से बोला - “वह देखिये खूबसूरत कार, जर्मन माडल मालूम होता है ।”
“कार को छोड़ो । पहले यह बताओ कल तुमने...”
“दफ्तर आ गया” - अमर बोला - “आशा जी, आप चलिये । मैं थोड़ी देर में आऊंगा । मुझे अपना एक मित्र दिखाई दे गया है ।”
और वह आशा को वहीं छोड़कर लम्बे डग भरता हुआ दूसरी ओर निकल गया ।
आशा कुछ क्षण वहीं खड़ी रही । फिर उसने अपने सिर को झटका दिया और आफिस में घुस गई ।
वह अपने केबिन में जा बैठी ।
सिन्हा लगभग साढे दस बजे आया ।
“मार्निंग सर ।” - आशा मुस्कराती हुई शिष्ट स्वर से बोली ।
“फिर सर ?”
“यस, सर ।”
“ओ के मर्जी तुम्हारी ।”
सिन्हा अपने केबिन में घुस गया ।
ग्यारह बजे सिन्हा ने उसे अपने केबिन में बुलाया ।
आशा अपनी सीट से उठी । अमर ने आज अपने नियमानुसार फाइल में रखकर चाकलेट का पैकेट नहीं भेजा था । उसने अपने केबिन से बाहर झांका ।
अमर अपनी सीट पर नहीं था ।
आशा सिन्हा के केबिन में चली गई ।
“बैठो ।” - सिन्हा बोला ।
आशा एक कुर्सी पर बैठ गई ।
“थोड़ी डिक्टेशन ले लो ।”
आशा शार्टहण्ड की कापी और पैन्सिल सम्भालकर तैयार हो गई ।
आधे घण्टे के बाद सिन्हा ने फाइलें परे सरका दीं और बोला - “दैट्स आल ।”
आशा ने शार्टहैण्ड की कापी बन्द दी और उठ खड़ी हुई ।
“जरा बैठो ।” - वह बोला ।
आशा क्षण भर को ठिठकी और फिर दुबारा बैठ गई ।
“कल घर ठीक से पहुंच गई थी ?” - सिन्हा ने पूछा ।
“जी हां ।”
“कल बहुत घपला हो गया था । मुझे आशा नहीं थी कि अर्चना माथुर यूं अचानक मैट्रो पर मिल जायेगी । उसकी वजह से तुम्हें जो दिक्कत उठानी पड़ी उसके लिये मैं शर्मिन्दा हूं ।”
“कोई बात नहीं सर ।”
“अर्चना माथुर का काम बेहद जरूरी था वर्ना मैं तुम्हें यूं छोड़कर उसके साथ नहीं जाता है ।”
आशा चुप रही ।
“कल फिर खाना कहां खाया तुमने ?”
“कोलाबा में एक छोटा सा रेस्टोरेन्ट है, वहीं खा लिया था ।” - आशा सरासर झूठ बोलती हुई बोली । वास्तव में पिछली रात को खाना खाया ही नहीं था उसने ।
“नटराज आज चलेंगे । मैं टेबल बुक करवा लेता हूं ।”
“आई एम सारी सर । आज मैं नहीं जा सकूंगी ।”
“क्यों आज क्या है ?”
आज मैं जल्दी घर पहुंचना चाहती हूं । मुझे एक जरूरी काम है ।”
“काम टाला नहीं जा सकता ?”
“जी नहीं ।”
“ओ के । कल की बात के लिये मैं एक बार फिर तुमसे माफी चाहता हूं ।”
“इट्स परफैक्टली आल राइट, सर ।” - आशा बोली । उसका जी चाहा कि वह सिन्हा से पूछे कि वह आशा को नटराज में डिनर के लिये न ले जाने के लिये माफी मांग रहा है या अपनी सिनेमा हाल की हरकतों के लिये माफी मांग रहा है ।
“वैसे कल अर्चना माथुर के साथ बहुत ज्यादती की तुम ने ।” - सिन्हा मुस्कराता हुआ बोला - “तुमने उसकी दुखती रग को छेड़ दिया था ।”
“मैंने !” - आशा हैरानी से बोली ।
“हां । बात ही ऐसी कह दी थी तुमने ।”
“मैंने तो कोई गलत या अप्रासंगिक बात नहीं कही थी उनसे । उल्टे मैं तो उनकी तारीफ कर रही थी । वे सच ही मेरी मनपसन्द अभिनेत्री हैं । वे भी अच्छी खासी खुश थीं लेकिन एकाएक ही पता नहीं क्यों वे नाराज हो गई थीं ।”
“तुमने उनकी उम्र का जिक्र क्यों कर दिया था ?”
“मैंने तो उनकी उम्र का जिक्र नहीं किया था ।”
“किया था । तुमने यह क्यों कह दिया था कि तुम बचपन से ही उसकी फिल्में देखती आ रही हो ?”
“मैंने सच ही कहा था । इसमें नाराज होने वाली कौन सी बात थी !”
सिन्हा कुछ क्षण हंसता रहा और फिर बोला - “आशा जरा अक्ल से काम लो और अपनी बात की गम्भीरता समझने की कोशिश करो । कि तुम बचपन से ही अर्चना माथुर की फिल्में देखती थीं, अर्चना माथुर तब जवान थी और अब तुम जवान हो तो अर्चना माथुर क्या हुई ?”
“हे भगवान !” - बात आशा की समझ में आ गई - “मेरा यह मतलब नहीं था ।”
“अर्चना माथुर अपनी उम्र के मामले में बड़ी सैन्सिटिव है । तुम्हारे हिसाब से तो उसकी उम्र चालीस के आसपास हुई जबकि वह स्वयं को तीस इक्तीस साल की बताती है ।”
“लेकिन यह असम्भव है । पन्द्रह साल पहले तो उसे मैंने हीरोइन देखा था । उस समय भी वह अच्छी खासी तेइस चौबीस साल की भरपूर जवान औरत मालूम होती थी । चालीस के आस-पास की जरूर होगी वह ।”
“होगा क्या है ही । बिना मेकअप तो साफ साफ बूढी मालूम होती है । कोई नया निर्माता तो इसे हीरोइन ले ही नहीं रहा है । जिन फिल्मों में वह काम कर रही है उनके रिलीज हो जाने के बाद या तो वह फिल्मी दुनिया से गायब हो जायेगी और या फिर मां का रोल किया करेगी ।”
“हर्ज क्या है उसमें ?” - अर्चना माथुर बहुत शानदार अभिनेत्री है । जिस तरह भी वह अभिनय करेगी, उसी में जान डाल देगी ।”
 
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