desiaks
Administrator
- Joined
- Aug 28, 2015
- Messages
- 24,893
“आओ चलें ।” - सिन्हा बोला और उसने आशा की कमर में अपना हाथ डाल दिया ।
आशा ने ऐतराज नहीं किया । शायद सिन्हा साहब का वह एक्शन ऐटीकेट में आता था ।
चपरासी ने आगे बढकर आदरपूर्ण ढंग से द्वार खोल दिया ।
दोनों बाहर निकल गये ।
“तुम यहीं ठहरो ।” - इमारत से बाहर निकलकर सिन्हा बोला - “मैं पार्किंग में से कार निकाल कर लाता हूं ।”
आशा ने सहमति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
सिन्हा एक ओर बढा गया ।
दो मिनट बाद ही उसने अपनी ऐम्बैसेडर गाड़ी आशा के सामने ला खड़ी की । उसने हाथ बढाकर अगली सीट का आशा की ओर का द्वार खोल दिया ।
आशा उसकी बगल में आ बैठी ।
सिन्हा ने कार आगे बढा थी ।
“पहले मालाबार हिल चलते हैं ।” - सिन्हा गाड़ी को दूसरे गियर में डालता हुआ बोला ।
“माला बार हिल ?” - आशा ने प्रश्नसूचक ढंग से सिन्हा की ओर देखा ।
“हां, कमला नेहरू पार्क में चलने । ऊपर टैरेस पर बैठकर एक एक कप चाय पियेंगे और मैट्रो चलेंगे ।”
“देर नहीं हो जायेगी ।”
“क्या देर होगी ? मेन पिक्चर तो सात बजे के करीब शुरू होगी । अभी तो पांच चालीस ही हुये हैं । बहुत वक्त है ।”
“अच्छी बात है ।”
सिन्हा चुपचाप कार ड्राइव करता रहा ।
गाड़ी महालक्ष्मी रेस कोर्स की बगल में से होती हुई पैडर रोड की ओर बढ गई ।
फिर सिन्हा ने गाड़ी को पार्क के सामने ला खड़ा किया ।
आशा कार का द्वार खोलकर बाहर निकल आई और अपनी साड़ी का फाल ठीक करने लगी ।
सिन्हा ने भी कार इग्नीशन को लाक किया, बाहर आकर कार के द्वार का भी ताला लगाया और आशा से बोला - “आओ ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
दोनों टैरेस पर बिछी खाली मेजों में से एक पर आ बैठे ।
“चाय के साथ कुछ ?” - सिन्हा ने पूछा ।
“नहीं । आप लीजिये । मुझे भूख नहीं है ।”
“ओके ।”
सिन्हा ने चाय का आर्डर दे दिया ।
सिन्हा ने टैरेस से नीचे फैले हुये बम्बई के विहंगम दृष्य पर एक दृष्टिपात किया और बोला - “यहां से देखने पर तो बम्बई हिन्दोस्तान का शहर नहीं मालूम होता ।”
“जी हां ।” - आशा बोली । कमला नेहरू पार्क से वह जब भी बम्बई को देखती थी । मुग्ध हो जाती थी । चौपाटी के बीच की भीड़भाड़ मैरिन ड्राइव की अर्ध वृत्ताकार लम्बी सड़कों पर किसी पहाड़ी नदी की तरह बहता हुआ मोटर ट्रैफिक और चौपाटी और मैरिन ड्राइव के सामने ठाठें मारता हुआ समुद्र सब कुछ बड़ा ही लुभावना लगता था उसे ।
वेटर चाय ले आया ।
आशा ने दो कप चाय बनाई ।
दोनों धीरे धीरे चाय पीने लगे ।
रह रहकर आशा की दृष्टि अपने सामने फैली हुई जिन्दगी की ओर भटक जाती थी जिसका वह भी एक हिस्सा थी ।
सिन्हा उसे कोई बम्बई की दिलचस्प बात सुना रहा था जो उसे कतई समझ नहीं आ रही थी ।
“हल्लो, सिन्हा साहब ।” - एकाएक आशा के कानों में एक नया स्वर पड़ा ।
आशा ने सिर उठाया । एक दुबला पतला लम्बे कद का युवक सिन्हा का अभिवादन कर रहा था । उसकी नाक पर एक मोटे फ्रेम का एक वैसे ही मोटे शीशे का चश्मा लगा हुआ था और खास बम्बईया स्टाईल से एक कान से दूसरे कान तक उसकी बाछें खिली हुई थी और उसकी पूरी बत्तीसी दिखाई दे रही थी ।
यह आदमी जरूर शो बिजनेस से सम्बन्धित है - आशा ने मन ही मन सोचा ।
“हल्लो, फिल्मी धमाका साहब ।” - सिन्हा अपने चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “क्या हाल हैं ।”
“दुआ है, साहब, ऊपर वाले की ।”
“तशरीफ रखिये ।” - सिन्हा अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला । प्रत्यक्ष था उसे उस समय उस आदमी से मिलना पसन्द नहीं आया था ।
“शुक्रिया ।” - चश्मे वाला सिन्हा के बगल की कुर्सी पर बैठ गया ।
“चाय मंगाऊं आपके लिये ?”
“नहीं, मेहरबानी । चाय मैंने अभी पी है ।”
“और सुनाइये । आपका पेपर कैसा चल रहा है ?”
“दौड़ रहा है, साहब ।”
“और !”
“सब कृपा है, ऊपर वाले की । आप आज इधर कैसे भटक पड़े ।”
आशा ने ऐतराज नहीं किया । शायद सिन्हा साहब का वह एक्शन ऐटीकेट में आता था ।
चपरासी ने आगे बढकर आदरपूर्ण ढंग से द्वार खोल दिया ।
दोनों बाहर निकल गये ।
“तुम यहीं ठहरो ।” - इमारत से बाहर निकलकर सिन्हा बोला - “मैं पार्किंग में से कार निकाल कर लाता हूं ।”
आशा ने सहमति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
सिन्हा एक ओर बढा गया ।
दो मिनट बाद ही उसने अपनी ऐम्बैसेडर गाड़ी आशा के सामने ला खड़ी की । उसने हाथ बढाकर अगली सीट का आशा की ओर का द्वार खोल दिया ।
आशा उसकी बगल में आ बैठी ।
सिन्हा ने कार आगे बढा थी ।
“पहले मालाबार हिल चलते हैं ।” - सिन्हा गाड़ी को दूसरे गियर में डालता हुआ बोला ।
“माला बार हिल ?” - आशा ने प्रश्नसूचक ढंग से सिन्हा की ओर देखा ।
“हां, कमला नेहरू पार्क में चलने । ऊपर टैरेस पर बैठकर एक एक कप चाय पियेंगे और मैट्रो चलेंगे ।”
“देर नहीं हो जायेगी ।”
“क्या देर होगी ? मेन पिक्चर तो सात बजे के करीब शुरू होगी । अभी तो पांच चालीस ही हुये हैं । बहुत वक्त है ।”
“अच्छी बात है ।”
सिन्हा चुपचाप कार ड्राइव करता रहा ।
गाड़ी महालक्ष्मी रेस कोर्स की बगल में से होती हुई पैडर रोड की ओर बढ गई ।
फिर सिन्हा ने गाड़ी को पार्क के सामने ला खड़ा किया ।
आशा कार का द्वार खोलकर बाहर निकल आई और अपनी साड़ी का फाल ठीक करने लगी ।
सिन्हा ने भी कार इग्नीशन को लाक किया, बाहर आकर कार के द्वार का भी ताला लगाया और आशा से बोला - “आओ ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
दोनों टैरेस पर बिछी खाली मेजों में से एक पर आ बैठे ।
“चाय के साथ कुछ ?” - सिन्हा ने पूछा ।
“नहीं । आप लीजिये । मुझे भूख नहीं है ।”
“ओके ।”
सिन्हा ने चाय का आर्डर दे दिया ।
सिन्हा ने टैरेस से नीचे फैले हुये बम्बई के विहंगम दृष्य पर एक दृष्टिपात किया और बोला - “यहां से देखने पर तो बम्बई हिन्दोस्तान का शहर नहीं मालूम होता ।”
“जी हां ।” - आशा बोली । कमला नेहरू पार्क से वह जब भी बम्बई को देखती थी । मुग्ध हो जाती थी । चौपाटी के बीच की भीड़भाड़ मैरिन ड्राइव की अर्ध वृत्ताकार लम्बी सड़कों पर किसी पहाड़ी नदी की तरह बहता हुआ मोटर ट्रैफिक और चौपाटी और मैरिन ड्राइव के सामने ठाठें मारता हुआ समुद्र सब कुछ बड़ा ही लुभावना लगता था उसे ।
वेटर चाय ले आया ।
आशा ने दो कप चाय बनाई ।
दोनों धीरे धीरे चाय पीने लगे ।
रह रहकर आशा की दृष्टि अपने सामने फैली हुई जिन्दगी की ओर भटक जाती थी जिसका वह भी एक हिस्सा थी ।
सिन्हा उसे कोई बम्बई की दिलचस्प बात सुना रहा था जो उसे कतई समझ नहीं आ रही थी ।
“हल्लो, सिन्हा साहब ।” - एकाएक आशा के कानों में एक नया स्वर पड़ा ।
आशा ने सिर उठाया । एक दुबला पतला लम्बे कद का युवक सिन्हा का अभिवादन कर रहा था । उसकी नाक पर एक मोटे फ्रेम का एक वैसे ही मोटे शीशे का चश्मा लगा हुआ था और खास बम्बईया स्टाईल से एक कान से दूसरे कान तक उसकी बाछें खिली हुई थी और उसकी पूरी बत्तीसी दिखाई दे रही थी ।
यह आदमी जरूर शो बिजनेस से सम्बन्धित है - आशा ने मन ही मन सोचा ।
“हल्लो, फिल्मी धमाका साहब ।” - सिन्हा अपने चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “क्या हाल हैं ।”
“दुआ है, साहब, ऊपर वाले की ।”
“तशरीफ रखिये ।” - सिन्हा अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला । प्रत्यक्ष था उसे उस समय उस आदमी से मिलना पसन्द नहीं आया था ।
“शुक्रिया ।” - चश्मे वाला सिन्हा के बगल की कुर्सी पर बैठ गया ।
“चाय मंगाऊं आपके लिये ?”
“नहीं, मेहरबानी । चाय मैंने अभी पी है ।”
“और सुनाइये । आपका पेपर कैसा चल रहा है ?”
“दौड़ रहा है, साहब ।”
“और !”
“सब कृपा है, ऊपर वाले की । आप आज इधर कैसे भटक पड़े ।”