Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 4 - SexBaba
  • From this section you can read all the hindi sex stories in hindi font. These are collected from the various sources which make your cock rock hard in the night. All are having the collections of like maa beta, devar bhabhi, indian aunty, college girl. All these are the amazing chudai stories for you guys in these forum.

    If You are unable to access the site then try to access the site via VPN Try these are vpn App Click Here

Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

उधर विशाल की मां यह खबर सुनकर सन्न रह गईं। उनके हाथ-पैर फूल गये। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। उनकी ऐसी हालत देख नौकर ने पूछा- क्या बात है माताजी?"

"एक गिलास पानी।" वह बड़ी मुश्किल से बोलीं और पास पड़े सोफे पर ही बैठ गईं।

नौकर पानी लेकर बापस आया तो वह रो रही थीं। नौकर ने पानी का गिलास विशाल की मां के हाथ में दे दिया। वह एक-एक बूंट पानी बड़ी आहिस्ता-आहिस्ता पी रही थीं। विशाल की मां की ऐसी स्थिति देखकर नौकर से न रहा गया। वह फिर पूछ बैठा—“प्लीज माताजी—कुछ तो बताइये! आप क्यों रो रही हैं?"

विशाल की मां ने गिलास में से दो-तीन चूंट पानी पीकर गिलास नौकर को वापस पकड़ा दिया।
और फिर बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना ही बोल सकीं कि—“तुम जल्दी से गा....ड़ी निकालो और विशाल के पिता को फोन करके कहो वे तुरन्त चौरासिया अस्पताल में एमरजेन्सी वार्ड में आ जायें।"

नौकर ने कारण पूछना उचित न समझा और—“जी....मा.... ता....जी।" कहकर वहां से चला गया। विशाल के एक्सीडेन्ट के विषय में सुनकर बे इतनी परेशान हो गई कि अनीता के घर भी सूचना न दे सकीं। नौकर ने विशाल के पिता को फोन किया और जल्दी ही गाड़ी बाहर निकाल ली। करीब आधा घन्टा बाद वह चौरासिया अस्पताल के एमरजेन्सी में थीं। कमरे में प्रवेश करते ही विशाल की मां की आंखें फटी-की-फटी रह गईं। विशाल का पूरा शरीर पट्टियों से बंधा था।

"हे ईश्वर! मेरे बच्चे को क्या....हो गया?" विशाल की मां ने अपने दोनों हाथों में विशाल का चेहरा ले लिया।

हाथों के स्पर्श से विशाल ने अपनी आंखें खोलीं। आंखें खोलते ही दर्द में डूबा स्वर निकला-"मां!"

"ये सब कैसे हो गया बेटा?" विशाल की मां का स्वर रुआँसा हो गया।

"पता नहीं मां....।” वह लम्बी सांस खींचकर बोला। उसकी दृष्टि कुछ खोज रही थी....वह थी अनीता। बे दोनों बातें करने में ये भी भूल गये कि प्रेम की मां वहां पर बैठी हैं। तभी विशाल की मां ने पूछा-“मगर बेटा, तुमको यहां पर लाया कौन?"

"भगवान का दूत...." वह उलझे स्वर में बोला।

"दूत कौन?" विशाल की मां ने हैरानी से पूछा।
प्रेम की मां की ओर दृष्टि घुमाकर-"इनका बेटा प्रेम! अगर वह समय पर न आता तो आपका बेटा तो....।"

विशाल की मां ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया।
“नहीं बेटा! शुभ-शुभ बोलो, तुम्हें कुछ नहीं होगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।"

प्रेम की मां उन दोनों मां-बेटे को बातें करते देख रही थीं। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था....जैसे वह और प्रेम बातें कर रहे हों। प्रेम की मां ने उन्हें बीच में डिस्टर्ब करना उचित न समझा और चुप बैठी रहीं, जब तक वे दोनों चुप न हो गये। कुछ पल के लिये अस्पताल के कमरे में मौन रहा।

"मां, यह प्रेम की मां हैं। जो मुझे यहां पर भर्ती कराकर गया है। अभी आता होगा।" विशाल के स्वर ने चुप्पी तोड़ी।
 
"धन्यवाद वहन जी।” विशाल की मां ने प्रेम की मां को धन्यवाद दिया। “मैं आपका ये अहसान जीवन भर नहीं भूलूंगी। आपने मेरे बेटे की जान बचा ली।"

“नहीं....नहीं वहन जी! आप मुझे शर्मिन्दा कर रही हैं। मैं कौन होती हं जान बचाने वाली? जान तो ऊपर वाले के हाथ में है—उसका क्या पता किसकी जान कब ले ले, कब बख्श दे।" वह कुछ देर के लिये चुप हुई, फिर बोली-"हमने आप पर कोई अहसान नहीं किया है। यह तो हमारा फर्ज था, एक इन्सानियत के नाते।" मेरे लिये तो जैसा प्रेम....वैसा ही विशाल है। आप तो बिना बजह इतना सम्मान दे रही हैं। विशाल और प्रेम की मां आपस में बातें कर रही थीं कि प्रेम डॉक्टर साहब के साथ कमरे में आया। डॉक्टर के हाथ में खून से भरी दो बड़ी बोतलें थीं। प्रेम को यह समझने में देर न लगी कि मां से बात करने वाली दूसरी महिला विशाल की मां है....। उसने अन्दर आते ही—“नमस्ते मांजी।"

"नमस्ते बेटा।" विशाल की मां ने स्नेहपूर्वक उसकी नमस्ते ली।

प्रेम की मां ने बताया- ये ही मेरा प्रेम है।" ।

"बड़ा अच्छा बच्चा है। भगवान इसे लम्बी उम्र दे।" विशाल की मां प्रेम को आशीर्वाद देने लगीं।

तभी विशाल के पिता जी को नौकर अन्दर लेकर आया। प्रेम की मां उनको देखकर उठ खड़ी
"नमस्ते भाई साहब।" प्रेम की मां ने हाथ जोड़कर कहा।

"नमस्ते वहन जी।" विशाल के पिता ने जवाब दिया। नौकर ने बाहर ही सब बात विशाल के पिता को बता दी थी। अब बे विशाल की तबियत के विषय में पूछना चाहते थे। वे विशाल के करीब गये। विशाल का दिल किया कि वह उठकर पिता के गले लग जाये। मगर वह हिल भी न सका। वह मौन धारण किये पिता के चेहरे को दख रहा था। विशाल की आंखों में आंसू छलक आये। तभी पिता ने आंसू पांछते हुए कहा—"रो मत बेटा! सब ठीक हो जायेगा।" वह गम्भीर स्वर में बोले।

विशाल को रोता देख विशाल की मां जो अपने आंसुओं को बड़ी कठिनाई से रोके बैठी थीं, फूट-फूटकर रो पड़ीं। विशाल के पिता ने अपनी पत्नी को गले से लगाकर चुप किया व बाहर लेकर चले गये। "विशाल की मां, ऐसे दिल छोटा नहीं करते। अगर तुम ऐसे रोओगी तो विशाल पर क्या बीतेगी? खुद को संभालो। भगवान पर भरोसा रखो। सब ठीक हो जायेगा।" वह विशाल की मां को समझाते हुए बोले।

इतने में प्रेम बहां आ गया और उनसे सहमति लेकर घर जाने लगा। “मा....मां इधर आना।" प्रेम की मां कमरे से बाहर आयीं। "अब हम लोग चलते हैं।" प्रेम ने अपनी मां से कहा।

"हां....हां बेटा! अब विशाल के मम्मी-डैडी आ गये हैं। वे लोग उसकी देख-भाल कर लेंगे। मैं कल आकर फिर विशाल को देख जाऊंगी...."

प्रेम ने इशारे से विशाल के डैडी को एक ओर बुलाया। विशाल के पिता प्रेम के पास चले गये। प्रेम और विशाल की मां आपस में बातें करने लगीं। प्रेम विशाल के पिता से धीरे से बोला "पिताजी! विशाल की हालत बहुत गम्भीर है। उसका बचना बहुत....।" वह एक गहरी सांस छोड़कर चुप हो गया। "दो बोतल खून की चढ़वा दी गई हैं। मगर डॉक्टर का कहना है अगर कल शाम तक स्थिति सामान्य नहीं होती तो....।" प्रेम की आंखें भर आयीं। शब्द गले में अटक गये। वह चुप हो गया।
 
विशाल के पिता जैसे गिरते-गिरते बचे। उन्होंने स्वयं को संभाला और पत्नी के पास चले गये। प्रेम की मां बेटे के पास आ गईं। दोनों एक लम्बी गैलरी से होकर बाहर निकल गये।

कुछ देर बाद विशाल के पिता डॉक्टर के रूम में थे "डॉक्टर साहब! किसी तरह मेरे विशाल को बचा लीजिये।" बे डॉक्टर रस्तोगी के सामने खड़े गिड़गिड़ा उठे।

"देखिये जनाब, हम अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं। कल तक उसकी स्थिति नॉर्मल हो गई तो वह खतरे से बाहर है। वरना आई एम सॉरी।" डॉक्टर ने कहा और एक ओर चल दिया।

विशाल के पिता वहीं खड़े-खड़े डॉक्टर के जूतों से होने वाली ध्वनि को सुनते रहे। उनको लग रहा था जैसे वे अभी पागल हो जायेंगे। मस्तिष्क की नसें फटने को तैयार थीं। सिर में बहुत तेज दर्द उठ गया था। वे....पास में बिछी एक बैंच पर बैठ गये। चेहरा पसीने से नहा उठा। उनका दुनिया में विशाल के सिवा था ही कौन? विशाल को अगर कुछ हो गया तो उसकी मां तो जीते जी मर जायेगी। उनको तेजी से चक्कर आया सारा हास्पिटल घूमता-सा प्रतीत होने लगा। वे सिर पकड़कर गिरने ही वाले थे कि किसी के मजबूत हाथों ने उन्हें गिरने से बचा लिया। बैंच पर लिटाकर उनको पानी की छीटें मारकर होश में लाया। आंख खुली तो "विनीत....बेटा...." स्वर में पीड़ा थी।

"हां पिताजी। विशाल कहां है?" विनीत ने प्रश्न किया। विशाल के पिता हिम्मत करके उठे और उस कमरे की ओर बढ़े जहां उनका बेटा मौत और जिन्दगी की जंग लड़ रहा था। विशाल आंखें मूंदे लेटा था। विनीत ने उसे देखा तो उसका दिल दहल गया। अनीता का विचार आते ही एक भयानक भय उसके मस्तिष्क में कौंधा। एक आह उसके दिल से निकल पड़ी। जब अनीता को पता चलेगा तो क्या होगा? विनीत तो अचानक विशाल की गाड़ी हास्पिटल के बाहर खड़ी देखकर अन्दर आ गया था।

अन्दर आकर नौकर से पता चल गया था कि क्या मामला है? विनीत विशाल की मां को न देख सका था। विशाल की मां को देखकर विनीत ने सम्मानपूर्वक नमस्ते की। "नमस्ते मांजी।"

"नमस्ते बेटा।" विनीत का स्वर विशाल के कानों में पड़ा तो उसने तुरन्त आंखें खोल दी।

“बि.....नी.....त! अनीता नहीं आई।" विशाल हकलाया।

"नही....बो तो नहीं आई है।"

"क्यों....?" विशाल का स्वर भारी हो गया।
 
"बो इसलिये नहीं आयी क्योंकि घर पर नहीं पता कि तुम्हारा एक्सीडेन्ट हो गया है। वो तो मैं तुम्हारी बाहर खड़ी कार देखकर अचानक रुक गया। तुम्हारे नौकर से पूछने पर पता चला कि....।" विनीत की आवाज भर्रा गई। वह चुप हो गया। “अब रात हो गई है, सुवह मैं उसे लेकर आ जाऊंगा। तुम चिन्ता मत करना।” वह तसल्ली देता हुआ बोला।

"ठीक है।" विशाल तड़प उठा। वह अनीता से जल्दी ही बात करना चाहता था। उसे लग रहा था—जैसे उसकी जिन्दगी के दिन पूरे होने वाले हैं। उसने फिर से आंखें मूंद लीं। अब वह सो चुका था। शायद डॉक्टर ने उसे कोई नींद का इन्जेक्शन लगा दिया था। जिसके कारण उसकी आंखें बार-बार बंद हो जाती थीं। विशाल के सोने के पश्चात् विनीत एक-आधा घन्टा बहां रुका और घर वापस चला आया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे अनीता को ये दुःख भरी खबर सुना सकेगा? यही सोच-विचार करता वह अपने घर आ गया। घर पर आया तो शायद सब सो चुके थे। उसने दरवाजे पर दस्तक दी। ठक्....ठक् की ध्वनि से विनीत की मां की निद्रा टूटी। विनीत आया होगा—यह सोचते हुए वह चारपाई से उठीं। "अभी आई बेटा।” कहते हुए कुन्डी खोलने चली गईं। “आज बड़ी देर कर दी बेटा घर आने में..... कहां रह गये थे?" विनीत को खड़ा देख तुरन्त प्रश्न कर डाला।

परन्तु जवाब में खामोशी। विनीत की समझ में नहीं आया क्या बताऊं? वह चुप अन्दर आ गया। परन्तु फिर भी उसकी मां की आबाज ने चुप्पी तोड़ी "बोलता क्यों नहीं विनीत, क्या बात है?" विनीत की खामोशी देखकर उसकी मां दःखी हो गईं। मां के दुःखी चेहरे को देखकर विनीत ने सच बताना ही उचित समझा। वैसे भी सच्चाई छप नहीं सकती। आज नहीं तो कल तो सच्चाई सामने आयेगी ही। विनीत को किन्हीं सोचों में खोया देख विनीत की मां से न रहा गया। बो पुनः बोली

___“विनीत ......"

"ह।" विनीत का स्वर कण्ठ में अटक गया। वह फिर रुककर बोला—“मां, विशाल का एक्सीडेन्ट हो गया है। वह अस्पताल में भरती है।"

"क्या....?" विनीत की मां के मुंह से निकला। विनीत अपने बिस्तर पर लेट गया। उसने खाना भी नहीं खाया। मगर वह रात भर सो भी न सका। विनीत की मां बहुत देर तक मायस बैठी रहीं। फिर थककर लेट गई। विनीत की मां ने विनीत के पिता को यह बात नहीं बतायी। वह उनको परेशान नहीं करना चाहती थीं। सोच रही थीं कि—विशाल की हालत कुछ ठीक हो जायेगी तो बता दूंगी। ये सोचती सोचती वह सो गईं।

आंख खुली तो विनीत नहा-धोकर हॉस्पिटल जाने को तैयार हो गया था। अनीता की लाल लाल रोई हुई आंखों को देखकर लग रहा था कि विनीत ने अपनी वहन अनीता को भी विशाल के विषय में बता दिया है। "विनीत बेटा, इधर तो आना।” पलंग पर बैठी विनीत की मां ने विनीत को पुकारा।

"अभी आया मां जी।” वह बालों में कंघा करता हुआ मां के पास आया। “विनीत बेटा, क्या तुमने अनीता को बता दिया विशाल के विषय में?"

"हां मांजी। हम लोग अस्पताल जा रहे हैं।” विनीत ने उत्तर दिया।

"मगर बेटा, अपने पिता को यह बात....न बताना। जब उसकी हालत ठीक हो जायेगी तो बता देंगे। वरना उन्हें टेन्शन हो जायेगी....वह काम पर भी न जा पायेंगे।" वह विनीत को समझाते हुए बोलीं।

"ठीक है माजी।" वह हां में गर्दन हिलाता हुआ शीशे के सामने खड़ा हो गया।

"बेटा विनीत , मैं भी चली चलूंगी।" विनीत की मां चारपाई से उठ खड़ी हुईं।

"चलो मां, जल्दी चलो! मगर यहां कौन रहेगा? सुधा तो स्कूल चली गई है। पिताजी नौकरी पर चले गये हैं।"

“ताला लगा देंगे घर का।" विनीत की मां का स्वर सपाट था। अब वे तीनों चौरासिया अस्पताल के लिये रिक्शा करके चल दिये। अनीता तो यह सोच रही थी कि काश उसके पंख होते तो वह उड़कर अपने मंगेतर विशाल के सामने पहुंच जाती। बार-बार उसकी आंखें भर आती थीं। वह मन-ही-मन विशाल की सलामती की प्रार्थना कर रही थीं क्योंकि विनीत ने विशाल के विषय में बता दिया था कि वह बुरी तरह जख्मी है। जब रिक्शा अस्पताल के बाहर रुका तो अनीता के विचारों की लड़ी टूटी। वह जल्दी से रिक्शे से उतरी और गेट की ओर लपकी। मगर एकदम ठिठककर रुक गई। उसे याद आया कि उसे तो कमरा नम्बर भी नहीं पता। तभी विनीत रिक्शे वाले को पैसे देकर उसके करीब आ गया। विनीत लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ एमरजेन्सी बाई की ओर जा रहा था। अनीता घबराई घबराई उसके पीछे-पीछे चल रही थी। कुछ कदम चलने के बाद उसे एक कमरे के बाहर विशाल के मम्मी-पापा उदास बैठे दिखाई दिये। अनीता ने आगे बढ़कर दोनों के पैर छए

"नमस्ते!" और वह रोने लगी।

“जीती रहो बेटी।” दोनों ने एक साथ कहा, "रो मत बेटी। सब ठीक हो जायेगा।" विशाल के कमरे का दरवाजा खुला था।
 
अचानक उसकी नजर बैड पर लेटे विशाल पर गई। वह एकदम कमरे की ओर दौड़ी। विशाल आंखें बंद किये लेटा था। विशाल की यह दशा देखकर अनीता की हृदय बिदारक चीख निकल पड़ी।
“नहीं....यह नहीं हो सकता।” वह विशाल के पास खड़ी हो गई।

चीखने की आवाज से विशाल ने आंखें खोली। “अनीता तु....म कब आयीं।" वह धीरे से बोला।

"अभी....।" वह इतना ही कह सकी। वह सुबक पड़ी।

“अनीता, रोओ मत! मैं तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं देख सकता। मैं इन्हें खुशी से चमकती हुई देखना चाहता हूं। मगर लगता है भाग्य मेरा साथ नहीं दे रहा है।" वह उठने की कोशिश करने लगा।

अनीता हाथ से उसे रोकते हुए बोली-"नहीं....नहीं! तुम उठो मत। लेटे रहो। तुम्हें आराम की आवश्यकता है।"

वह फिर लेट गया। "अनीता, मैं कब से तुमसे मिलने के लिये तड़प रहा हूं....'" वह अनीता को रोती हुई देखता हुआ बोला, "अनीता, मुझे लगता है मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकूँगा। प्लीज मुझे माफ कर देना...."

"नहीं विशाल! तुम्हें कुछ नहीं होगा। ऐसी बातें मत करो....मेरा सिर फट जायेगा....। मैं पागल हो जाऊंगी....।" अनीता का चेहरा पीला पड़ गया।

“अनीता....मुझे लगता है मेरी मृत्यु समीप है....।" ।

इतना सुनकर वह जोर-जोर रोने लगी। अनीता को रोता देख विशाल विवश हो गया। वह चाहकर भी उसके आंसू नहीं पोंछ सका क्योंकि वह बिस्तर से उठ नहीं सकता था। मजबूर होकर वह बोला "मुझे दुःख है, जाते समय मैं तुम्हें आंसुओं के सिवा कुछ नहीं दे सकता अनीता...." वह गहरी सांस खींचकर बोला।

अनीता की आंखें बरस पड़ीं। बहू अपलक विशाल को देखने लगी। विशाल भी किसी प्यासे पथिक की तरह सामने खड़ी अनीता को देख रहा था। "विशाल!" अनीता की आंखों में ठहरा हुआ दर्द छलक आया— “ये दुनिया के सारे गम हमारे हिस्से में क्यों आते हैं? क्या हम इन्सान नहीं? इतने दिनों के बाद तो हम मिले हैं....अब भी तुम बिछड़ने की बातें कर रहे हो....'" वह दर्द में डूबी हुई बोली।

"अनीता....मेरे मरने के बाद तुम किसी अच्छे लड़के से शादी कर लेना....। मैं तो शायद कल तक भी न रह सकू मगर तुम अपनी दुनिया बसा लेना....अपनी दुनिया मत उजाड़ना।" विशाल रो पड़ा।

अनीता को प्रतीत हुआ, मानो अचानक ही उसकी सांस कहीं ठहर गई है। वह बेजान सी होकर सहम गई। सांस भी ठीक प्रकार से नहीं ले पायी तो विशाल के पलंग के पास रखे स्टूल पर बैठ गई। "विशाल! जिस दिल में विशाल बसा हो....सिर्फ विशाल....उसमें किसी और व्यक्ति को बसाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। एक दिन तुमने कहा था तुम सिर्फ मेरी हो....सिर्फ मेरी। और आज तुम ऐसी बात कर रहे हो? नहीं विशाल! मैं किसी और की नहीं हो सकती।" वह सिसक पड़ी। अनीता अब सिर झुकाये चुपचाप बैठी थी। पलकों के आंसू छलककर रुई जैसे सफेद गालों पर वह चले थे। उसका मस्तिष्क 'सांय-सांय कर रहा था। दबी-दबी सिसकियों ने कमरे के माहौल को गमजदा कर दिया था।
 
"अनीता....।” विशाल के मुंह से एक हल्की-सी आह के साथ अनीता का नाम निकला। अनीता ने विशाल की ओर देखा तो विशाल की गर्दन एक ओर लुढ़क गई थी। आंखें खुली की खुली रह गईं। अनीता के मुंह से एक हृदय विदारक चीख निकली। जिसको सुनकर बाहर खड़े सभी लोग अन्दर आ गये। सामने का मन्जर देखकर जड़वत् रह गये।

"नहीं विशाल! तुम मुझे यूं अकेले छोड़कर नहीं जा सकते....।" वह जोर-जोर चीख रही थी। इन्हीं चीखों के साथ वह धम् से जमीन पर गिर पड़ी। विशाल के पिता ने सबसे पहले विशाल की आंखों को हाथ से बंद किया। विनीत ने बेहोश पड़ी अनीता को बाहर पड़ी बैंच पर लिटा दिया। विशाल सबको रोता-बिलखता छोड़कर चला गया....ऐसी जगह जहां से कोई वापस नहीं आता। उसकी डैडीबॉडी को घर ले जाया गया। जिस घर से कुछ दिन बाद बारात निकलने वाली थी, उसी घर से अर्थी निकली। पूरा का पूरा माहौल गम में डूबा था। अनीता तो उसको देख भी न पायी। जब शाम को अनीता के पिता घर पर दफ्तर से बापस आये तो बहां का मन्जर देखकर आश्चर्य में पड़ गये। विशाल की मृत्यु और अनीता की तबियत खराब की बात सुनकर उनको हार्टअटैक हो गया और वे तुरन्त ही दुनिया को छोड़कर चले गये। अस्पताल तक ले जाने का भी समय उन्होंने न दिया। अब अनीता और अनीता की मां बीमार हो गई। सब की जिन्दगी बीरान हो गई। बच्चों के सिर से बाप का साया उठ गया। विशाल के माता-पिता का इकलौता बेटा विशाल उन्हें अकेला छोड़कर चला गया। सारी दुनिया, सारे सपने मिट्टी में मिल गये। आने वाली खुशियां गम का कांटा बनकर रह गई।

अचानक घटने वाली उन आपत्तियों ने विनीत को हिला दिया। विशाल की मृत्यु की खबर सुनते ही हार्टअटैक से पिता की मृत्यु हो गई। अनीता भी बेजान सी रहने लगी। कैसे न कैसे खुद को संभाला। मगर विशाल की यादों को अपने दिल से जुदा न कर सकी। विशाल की यादों में घुट-घुटकर रोते-रोते वह हड्डियों का ढांचा हो गई। छोटी वहन थी सुधा। उसको पालने की जिम्मेदारी विनीत के सर पर आ गई। वहनों की ही क्या....एक तरह से सारे परिवार का बोझ उसी के कन्धों पर आ गया। विनीत का मकान अपना था। ऊपर के हिस्से में दो किरायेदार रहते थे। विनीत तो अभी कुछ नहीं करता था। घर का खर्चा बड़ी मुश्किल से चल पाता था। पिता की मृत्यु के समय पिता के नाम पर बैंक में पांच हजार रुपये थे। सारे पैसे मां की बीमारी में खर्च हो गये थे। पिता की मृत्यु के पश्चात् मां ने पलंग पकड़ लिया था। उनकी बीमारी ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उनको एक हफ्ते तक सरकारी अस्पताल में भी भर्ती करा दिया गया था। मगर किसी भी तरह उनकी बीमारी ठीक नहीं हो पा रही थी। एक तरफ पिता की मृत्यु का गम, दूसरी तरफ अनीता का गम....। इतना अच्छा लड़का अनीता को छोड़ गया था। अनीता से कौन शादी करेगा? उसकी ऐसी हालत और घर की ऐसी गरीब स्थिति देखकर कौन उसका हाथ थामेगा? यही सोच-सोचकर मां गम में घुलती जा रही थीं। दुःखों का तूफान गुजरने के बाद भी अपने कुछ चिन्ह छोड़कर चला गया था। वे चिन्ह मां और वहनों की आंखों के आंसू बन चुके थे। सारे पैसे मां की दवा-दारू में उठ चुके थे। किरायेदारों से आने वाले पैसों में बड़ी कठिनाई से दाल-रोटी मिल पाती थी।

मां को टी.बी. हो गई थी। मां की बीमारी को ठीक कराने के लिये अधिक पैसा चाहिये था। उधर बड़ी वहन की शादी की चिन्ता! वह जवान थी। छोटी वहन जो अभी दस वर्ष की थी, उसकी भी पढ़ाई छुड़वानी पड़ गई थी, क्योंकि स्कूल की फीस भरने को पैसे न थे। विनीत ने बी.ए. किया था। उसके बाद वह पढ़ न सका। पिता ने इसी आस-उम्मीद पर गरीबी की हालत में इतना पढ़ाया था कि पढ़-लिखकर उनका बेटा किसी योग्य बन जायेगा, घर के बोझ को संभाल लेगा। मगर अचानक भाग्य ने साथ छोड़ दिया था। पिता भी उसे अकेला छोड़ चले थे। विनीत अपनी प्रीति को याद करके आत्मविभोर हो उठा था।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
उसकी आस-उम्मीद में दो आंखें उसकी ओर उठी थीं वे थीं प्रीति की आंखें। प्रीति उसकी जिन्दगी थी। दोनों ने साथ-साथ मिलकर चलने के बायदे किये थे। प्रीति के पिता भी इस बात से सहमत थे कि—विनीत की नौकरी लग जायेगी तो प्रीति का हाथ वह उसके हाथ में दे देंगे। बस इसी आस-उम्मीद में वह सब बातों को एक तरफ रखकर नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकता फिरता था। परन्तु कुछ भी न हो सका था। उसने जो सपने सजा रखे थे, वे पूरे भी हो जाते। मगर पिता की मृत्यु के पश्चात् बे टूटते से नजर आ रहे थे। पिता की मौत ने सारे अरमानों पर पानी फेर दिया था। नौकरी के लिये दिन-रात भूखा-प्यासा इधर-उधर भटकता रहता था। मगर कुछ भी तो न हो सका था। एक दिन विनीत समाचार पत्र में पढ़कर एक नौकरी के लिये ऑफिस पहुंचा। "मे आई कम इन सर।” विनीत ने बिनम्रतापूर्ण स्वर में पूछा।

“यस, कम इन।" अन्दर सामने की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति ने कहा। विनीत अन्दर चला गया।

"सिट डाउन यंग मैन।" व्यक्ति ने जो शायद उस कम्पनी का मालिक था, कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा।

विनीत धीरे से कुर्सी खींचकर बैठ गया। “बैंक्यू सर। मैंने कल समाचार पत्र में पढ़ा कि आपकी कम्पनी में कुछ बर्कर्स की आवश्यकता है।" विनीत ने मतलब की बात की।

"हां....हां....। यू आर राइट।” सामने बैठे ब्यक्ति ने खुशगवार ढंग से कहा।

"तो क्या मैं..."

उन्होंने विनीत की बात बीच में काटते हुए कहा-"पहले पानी लीजिये।" नौकर पानी का गिलास लिये विनीत के बराबर में खड़ा था। विनीत ने गिलास उठाया। पानी पीकर टेबल पर रख दिया। नौकर जा चुका था।

"हां, तो मैं कह रहा था कि क्या मैं इस विषय में जानकारी ले सकता हूं क्योंकि पेपर में "जानकारी के लिये सम्पर्क करें लिखा था।" विनीत ने पूछा।

"इस कंपनी के लिये हमें वर्कर्स की आवश्यकता है लेकिन कुछ शर्ते हैं 1. अभ्यर्थी बी.ए. पास हो। 2. उसके पास अपना वाहन हो (टू व्हीलर)। 3. घर में या मोबाइल फोन हो। यह सुनकर विनीत परेशान-सा हो गया। उसके चेहरे पर पसीने की कुछ बूंदें छलक आईं। तभी सामने बैठे व्यक्ति ने पूछा-"क्या आप निम्न शर्तों को पूरा कर सकते हैं?"

चेहरे से पसीना साफ करता हुआ वह बोला—“नो.....सर......"

“दैन यू केन गो।” सामने बैठे व्यक्ति ने तपाक से कहा। विनीत कुर्सी छोड़कर उठ खड़ा हुआ। बिना कुछ बोले ऑफिस से बाहर निकल गया। मगर....उसके पैर आगे चलने को तैयार न थे— उन्होंने जवाब दे दिया था। अब वह मां को जाकर क्या जवाब देगा? मां तो स्वयं ही बीमार, परेशान हैं—जब पता चलेगा कि आज भी निराशा तो मां दुःखी हो जाएगी। मैं मां को दुःख भी तो नहीं देना चाहता....मगर ....मैं क्या करूं? वह दुःखी हो गया। अनमने मन से घर की ओर चलने लगा। जाता भी कहां?
.
शाम को थककर चूर होकर जब घर वापस आया तो पता चला घर में आज खाना भी नहीं बना है।

"भइय्या-भइय्या! मुझे बहुत जोर की भूख लगी है।" सुधा सिसकियां भरती विनीत से चिपट गई। विनीत पहले से ही दःखी था, वह और दुःखी हो गया। उसकी समझ में न आया क्या करे? तभी अनीता ने सुधा को विनीत के पास से हटाकर अपने पास बुलाया-"सुधा, एक मिनट इधर तो आ। भइय्या सुवह से अब हारे-थके आये हैं। तूने इनको पानी तक को भी नहीं पूछा और उनके सामने रोने बैठ गई है....।" सुधा भागकर एक गिलास पानी लेकर आई—“लो भइय्या....।” विनीत ने पानी का गिलास ले लिया, मगर उसका पानी पीने को भी दिल नहीं कर रहा था। लेकिन उसने एक चूंट पानी पिया और सुधा को वापस दे दिया। "अनीता, मां की तबियत अब कैसी है?" विनीत ने मां के विषय में जानकारी चाही।

"भइय्या, मां की तबियत में जरा भी सुधार नहीं आ रहा है....। मां की दवाइयां भी समाप्त हो गई हैं। मां को आज से पहले से भी अधिक खांसी उठ रही थी। अब शायद सो रही हैं।" अनीता ने कहा।

अब विनीत दोनों हाथों से सिर को पकड़कर बैठ गया। विनीत को इस तरह बैठा देख अनीता के मस्तिष्क में एक विचार आया। क्यों न वो अपने कानों के सोने के टॉप्स बेच दे। जो भइय्या ने कई वर्ष पहले उसको राखी पर दिये थे। मां की दबाई भी आ जायेगी और कई दिनों का राशन-पानी भी घर में आ जायेगा। सुधा तो बच्ची है, वह कब तक भूखी रहेगी। यही सोच-विचार करती हुई वह विनीत के करीब आकर बोली-“भइय्या, ये लीजिये! मेरे ये टॉप्स आप बेच दीजिये....। मां की दवाई भी आ जायेगी और घर में अन्न का एक दाना भी नहीं है....घर में खाने-पीने को भी कुछ आ जायेगा।" उसने कानों में से टॉप्स निकालकर विनीत के हाथ पर रख दिये। विनीत मना करता रह गया।
 
"मगर भइय्या, टॉप्स तो जीवन में फिर कभी भी बन जायेंगे। मगर मां की दबाई जरूरी है। अगर उन्हें कहीं कुछ हो गया तो हम स्वयं को कभी भी क्षमा नहीं कर पायेंगे। और ये पेट कुछ नहीं देखता, इसको तो हर हाल में खाना चाहिये। सुधा सुवह से भूखी रो रही. है....भइय्या जाओ और जल्दी से मां की दवाई ब खाना पकाने के लिये कुछ लेते आओ।" अनीता ने विनीत को जाने के लिए विवश कर दिया। वह टॉप्स लेकर सुनार की दुकान पर पहुंचा। "भाई साहब, ये टॉप्स कितने के बिक जायेंगे?" विनीत ने टॉप्स शीशे के काउन्टर पर रखते हुए पूछा।

सुनार ने टॉप्स काउन्टर से उठाकर अपने हाथ में लेते हुए बोला—“क्यों भई, चोरी-बोरी के तो नहीं हैं?" सुनार ने अपना माथा ठनकाया।

सुनार की यह बात सुनकर विनीत भड़क गया। गुस्से से बोला—“जी नहीं....। मैं क्या आपको चोर-उचक्का दिखता हूं?"

अब सुनार फीकी मुस्कराहट चेहरे पर लाकर बोला—"अरे, नाराज क्यों होते हो भई—मैं तो ऐसे ही पूछ बैठा था।" वह टॉप्स को तोलने लगा। “पन्द्रह सौ रुपये के हैं।" सुनार ने सीधे-सीधे कहा।

"ठीक है, दे दीजिये।" विनीत का स्वर सपाट था। सुनार ने पांच-पांच सौ के तीन नोट गल्ले से निकालकर विनीत की ओर बढ़ा दिये। विनीत ने नोट पकड़े और उठ खड़ा हुआ। पहले एक मैडिकल स्टोर से मां की दवाइयां खरीदीं। फिर खाने-पकाने का सामान खरीदकर घर ले गया।

“लो अनीता.....” वह सारा सामान अनीता को पकड़ाते हुए बोला

"आ गये भइय्या।” सुधा भइय्या के हाथों में सामान देखकर खुश हो गई। विनीत ने जेब से पैसे निकाले और अनीता को देने लगा।

"यह क्या?" अनीता ने आश्चर्य से पूछा।

"तुम्हारे टॉप्स पन्द्रह सौ रुपये में बिके हैं। ये उनमें से बचे हुए बाकी रुपये हैं।"

"तो आप इन्हें अपने पास रख लीजिये।” अनीता ने कहा।

"नहीं अनीता—मैं इनको अपने पास नहीं रख सकता। मुझे इतना शर्मिन्दा मत करो। ये तुम्हारे हैं, तुम जहां चाहो अपनी इच्छा से इन्हें खर्च कर सकती हो।” विनीत ने आज्ञा दी।

अनीता की मां पलंग पर लेटी दोनों की बातें सुनकर रोने लगीं। "अनीता बेटी, चल जिद्द मत कर। अब तू जल्दी से खाना बना ले, विनीत भी तो सुवह से भूखा होगा।"

"अच्छा मां।” वह सामान उठाकर खाना बनाने चली गई। खाना खाकर वह लेट गया। वह सुवह से थककर चूर हो गया था। वह कुछ भी करने की हिम्मत नहीं रखता था। पलंग पर लेटा तो पैर दर्द की बजह से सीधे भी नहीं हो रहे थे।
 
अनीता की मां पलंग पर लेटी दोनों की बातें सुनकर रोने लगीं। "अनीता बेटी, चल जिद्द मत कर। अब तू जल्दी से खाना बना ले, विनीत भी तो सुवह से भूखा होगा।"

"अच्छा मां।” वह सामान उठाकर खाना बनाने चली गई। खाना खाकर वह लेट गया। वह सुवह से थककर चूर हो गया था। वह कुछ भी करने की हिम्मत नहीं रखता था। पलंग पर लेटा तो पैर दर्द की बजह से सीधे भी नहीं हो रहे थे।

करवट ली तो शरीर का एक-एक हिस्सा दर्द से टूट रहा था। सारा-सारा दिन पैदल ही इधर से उधर सैकड़ों दफ्तरों, कम्पनियों के चक्कर लगाता फिरता। मगर बदले में क्या मिलती असफलता! वह रात भर कभी अनीता की शादी के विषय में, कभी मां की बीमारी के विषय में, कभी अपनी प्रेयसी प्रीति के प्रेम के विषय में सोचकर दर्द में नहा जाता। आंखें बंद करता तो प्रीति के सपने सोने न देते। दो-दो, तीन-तीन बजे तक आंखें खोले लेटा रहता, करबट बदलता रहता, कब नींद आती पता नहीं चलता।

आंख खुलती तो मन दुःखी हो जाता। जब कई हफ्तों तक यही चलता रहा तो एक दिन विनीत की मां पास बैठे विनीत से पूछ बैठीं—अब गुजारा कैसे होगा विनीत?"

“समझ नहीं आता मां, क्या करूं?" विनीत ने थके स्वर में कहा-"अब तक पचासों दफ्तरों के चक्कर लगा चुका हूं। कहीं भी नौकरी नहीं मिली! निराशा के सिवा कुछ नहीं मिलता....मां कुछ नहीं मिलता।” उसका गला भारी हो गया।

“फिर?" विनीत की मां ने पूछा।

"कुछ तो सोचना ही पड़ेगा मां। कहीं न कहीं चपरासी की ही नौकरी मिलेगी तो कर लूंगा।" विनीत मजबूर हो गया।

"लेकिन बेटा, एक हजार रुपये में होगा क्या? घर का खर्च और फिर अनीता जबान है, उसकी शादी....अब तो कोई और बिना दहेज के शादी भी नहीं करता-बो तो विशाल के घरवालों ने अनीता का हाथ यूं ही मांग लिया था। मगर हाय! हमारा भाग्य ही खराब है।" वह रो पड़ीं।

"रोओ मत मां। तुम चिन्ता मत करो। सब ठीक हो जायेगा। भगवान के पास देर है, अन्धेर नहीं। भगवान पर भरोसा रखो मां।" विनीत ने मां को तसल्ली दी। मां को बो तसल्ली दे देता मगर फिर स्वयं सोचता कि ये सब झूठी आशायें हैं। इन झूठी आशाओं पर कभी भी जीवन आधारित नहीं रह सकता। किसी भी प्रकार इस दुनिया में बिना पैसे के नहीं जिया जा सकता। आज उसके पास रिश्वत देने के लिये पैसा होता तो कब की नौकरी लग गई होती। मगर ये बात सच है कि पैसा भगवान नहीं मगर पैसा भगवान से कम भी नहीं है।' सारी मेहनत बेकार होती जा रही थी। कभी आशा की कोई किरण चमक भी जाती तो अगले दिन वह बुझ जाती। हजारों चिन्तायें उसे घेरे थीं। उसका जीबन जैसे एक बोझ बनता जा रहा था। न चैन से जी सकता था, मरना भी चाहे तो सबके विषय में सोचकर मर भी नहीं सकता था। उसका साहस जैसे टूटने को था।

जिम्मेदारी के बोझ को उठाने की शक्ति अब उसमें नहीं रही थी। मगर फिर भी एक आस उम्मीद के सहारे रोज किसी नौकरी की तलाश में घर से निकल जाता। वापस आता तो निराशा के अलावा और कुछ न मिलता।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
एक दिन वह एक प्राइवेट फर्म के दफ्तर में क्लर्क की नौकरी के लिये गया। "मैनेजर का आफिस किधर है?" विनीत ने मेन गेट पर बैठे चपरासी से पूछा।

"जी सीधे चलकर दाहिने हाथ पर पहला कमरा है। वैसे आपको मिलना किससे है?" चपरासी ने जवाब देकर पूछा।

"मुझे मैनेजर से ही मिलना है।" विनीत का स्वर सपाट था।

"ठीक है, जाइये।” चपरासी ने गेट खोलकर कहा। विनीत अन्दर घुसा तो गेट स्वयं ही बन्द हो गया। कुछ कदम आगे चलकर वह राईट में मुड़ा, मुड़ते ही मैनेजर का ऑफिस दिखाई दिया। लेकिन शायद मैनेजर किसी खास मीटिंग को अटैन्ड कर रहे थे। उसने शीशे में देखा और साइड में खड़ा हो गया। करीब एक डेढ़ घन्टा बाहर खड़ा रहा। तब कहीं मीटिंग खत्म हुई तो वह अन्दर गया। "बैठिये।" मैनेजर ने विनीत को बैठने को कहा।

“बैंक्यू सर।" वह बैठ गया। "सर, मैंने टाइपिंग भी सीख रखी है। आपके यहां क्लर्क की सीट खाली है। क्या मैं उस पद पर रखा जा सकता हूं।"

"हो....हां क्यों नहीं।" कुछ सोचते हुए—“मगर आपकी एजुकेशन कितनी है?"

“सर, मैंने बी.ए. किया है।” विनीत ने शालीनता से कहा।

"इसके अलावा और कोई डिग्री, तजुर्बा मतलब ये कि अब से पहले इस तरह का कोई काम किया हो?"

"नहीं सर! मैं बस बी.ए. हूं।"

मैनेजर व्यंगात्मक स्वर में बोला- केबल बी.ए. पास को तो हम चपरासी भी नहीं रखते।"

यह सुनकर विनीत सन्न रह गया। उससे कुर्सी से उठा भी नहीं गया। लेकिन इससे पहले मैनेजर कहता 'तुम जा सकते हो' वह उठा और गेट से बाहर निकल गया। मैनेजर का व्यंगात्मक स्वर सुनकर वह तिलमिला उठा था। मगर कह कुछ भी न सका। विनीत को स्वयं पर भी क्रोध आ रहा था। उसके मन में एक प्रश्न उभरा-आखिर मैं इतने सालों तक कॉलिज में क्यों रहा....क्यों किताबों के साथ माथा-पच्ची करता रहा? आखिर क्यों? वह सदैव यही प्रयत्न करता रहा कि अच्छे नम्बरों से पास होना चाहिये....आखिर क्यों....? सब कुछ ब्यर्थ....कोई नतीजा नहीं। प्रश्न के उत्तर में उसके मुंह से केवल यही वाक्य निकला। यही सोचता-सोचता वह चलता जा रहा था। थके-थके कदमों से....|

अब उसके पैरों ने जवाब दे दिया....वे आगे को चलने को भी तैयार न थे। वह पास के एक पार्क में सुस्ताने के लिये पेड़ के नीचे बिछी एक बैंच पर बैठ गया। उसने पीछे गर्दन टेक ली और आंखें मूंद लीं। उसकी आंख लग गई।

ऐ! सुनो।" वहां के माली ने उसकी निद्रा तोड़ी। वह हड़बड़ाकर उठा। “कौन हो तुम? शाम हो गई है, क्या घर नहीं जाना है?" माली ने आंखें खुलते ही कई सबाल कर डाले।
 
Back
Top