desiaks
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"अ....हां! मैं कहां पर हूं।" उसने चारों ओर देखा जैसे कोई सपना देख रहा हो। तभी उसे याद आया वह दोपहर में पार्क में बैठा था और वहीं सो गया। घर पर मां मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। यही सोचकर वह सीट से तुरन्त उठ खड़ा हुआ और तेज-तेज डग रखता हुआ घर की ओर लपका। शाम ढल गई। पहाड़ों के दामन में सिमटता सूरज सुर्ख होकर बुझ गया, मानो अपने सारे क्रोध, अपनी भड़ास की अग्नि से पथरीले पहाड़ को जलाकर राख कर देना चाहता हो। घर आया तो मां की हालत पहले से और ज्यादा खराब हो गई थी। शायद वह चिन्ता की वजह से दिन पर दिन और गम्भीर होती जा रही थीं। घर में सभी लोग विनीत की परेशानी की वजह से परेशान थे। उनको भी इस बात का एहसास था कि वह बहुत परेशान है। इसीलिये आज किसी ने उसके देर से आने की बजह न पूछी। विनीत अपने परिवार की उलझनों में इतना उलझ गया कि वह प्रीति से भी काफी दिनों से न मिल सका। आज जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ गया तो उसने प्रीति से मिलने का इरादा किया। प्रीति के सिवा उसका था ही कौन? जिसको वह अपने दिल का हाल बताया करता। मगर उसकी समझ में न आया कि वह प्रीति से कैसे मिले....? घर पर तो बातें हो नहीं पायेंगी, चाचा जी घर में होंगे तो वहां पर अधिक देर तक बैठना भी अच्छा नहीं लगेगा। अगर चाचा जी न हुए और फिर आ गये तो भी अच्छा नहीं लगेगा। वो मेरे विषय में क्या सोच बैठे। इन सब बातों को सोचते हुए उसने प्रीति के घर जाने का विचार त्याग दिया। मगर....मिलने की एक सी उसके दिल में उठ रही थी।
विनीत खाना बिना खाये प्रीति से मिलने की उधेड़-बुन में लगा-लगा सो गया। आंखें खुली तो उसे लगा ज्वर ने उसे आ घेरा है। मगर फिर भी वह जल्दी ही बिस्तर से उठ गया। आज उसे हर हाल में प्रीति से मिलना था। कहां वह प्रीति से मिले बिना एक दिन भी चैन से नहीं रह सकता था मगर....उसे प्रीति से मिले हए कितने दिन हो गये थे। वह नाश्ता करके घर से आज कुछ देर से निकला। करीब दस बजे थे। वह रीगल पार्क के पास से होकर गुजरा था। वह प्रीति के ही ख्यालों में खोया था। उसे पार्क के पास ही प्रीति मिल गई थी। मगर उसे पता न चला था कि प्रीति पीछे है। "विनीत ....।” प्रीति ने पुकारा।
प्रीति के पुकारने पर विनीत ने पीछे मुड़कर देखा तो विनीत की निस्तेज आंखों में चमक उतर आयी। मुंह से निकला-"प्रीति तुम!" वह प्रीति को आश्चर्य से देखता रहा। वह मन ही-मन सोच रहा था कि हे ईश्वर! आज कुछ और भी प्रार्थना कर लेता तो वह भी मिल जाता। आज वह घर से ही सोचकर निकला था कि प्रीति से मिलेगा और ईश्वर का चमत्कार–वह स्वयं ही उसे मिल गई। विनीत को चुप देखकर प्रीति फिर बोली-"विनीत ! तुम कहां खो गये?"
“कहीं नहीं। बस आज मैंने ये सोचा था कि प्रीति से मिलूंगा! पर ईश्वर का चमत्कार देखो....ईश्वर ने तुमको रास्ते में ही मिला दिया।"
"हां विनीत” वह गहरी सांस खींचकर बोली।
विनीत ने उससे कहा—"तुमने अपनी कैसी हालत बनाकर रखी है?" उसके उदास चेहरे को देखकर विनीत उदास हो गया।
यह सुनकर प्रीति विनीत के निकट आ गई और फिर हैरत से उसकी ओर देखते हुए बोली
—“परन्तु तुम्हारी यह दशा?"
"ठीक तो हूं....।" उसने मुस्कराने का असफल प्रयत्न किया।
"ठीक?" प्रीति ने फिर हैरानी से कहा था-"यह क्या सूरत बना रखी है तुमने? न तो सर में कंघा....बढ़ी हुई शेव....उदासी। आखिर बात क्या है? तुम एक महीने से कहां रहे....?"
प्रीति ने उससे एक साथ ही कई सवाल पूछ डाले थे। उसने फिर मुस्कराने का प्रयत्न किया, परन्तु सफलता नहीं मिली थी। उसने प्रीति की बात का उत्तर देते हुये कहा था-"प्रीति, जब से पिताजी मरे हैं, तभी से इतनी जिम्मेदारियां सिर पर आ पड़ी हैं कि अपना होश ही नहीं रहता। नौकरी के चक्कर में भटकते हुये इतना समय हो गया....परन्तु अभी तक कहीं बात नहीं बनी।"
प्रत्युत्तर में प्रीति कुछ सोचने लगी थी।
उसने फिर कहा था— प्रीति....."
"कहो...."
"मेरा ख्याल है अब तो तुम्हारा मेरा बायदा टूट जायेगा।"
“मतलब....?" प्रीति चौंकी थी।
"तुम्हारा मेरा सम्बन्ध...."
"क्यों....?" वह आश्चर्य से बोली।।
विनीत खाना बिना खाये प्रीति से मिलने की उधेड़-बुन में लगा-लगा सो गया। आंखें खुली तो उसे लगा ज्वर ने उसे आ घेरा है। मगर फिर भी वह जल्दी ही बिस्तर से उठ गया। आज उसे हर हाल में प्रीति से मिलना था। कहां वह प्रीति से मिले बिना एक दिन भी चैन से नहीं रह सकता था मगर....उसे प्रीति से मिले हए कितने दिन हो गये थे। वह नाश्ता करके घर से आज कुछ देर से निकला। करीब दस बजे थे। वह रीगल पार्क के पास से होकर गुजरा था। वह प्रीति के ही ख्यालों में खोया था। उसे पार्क के पास ही प्रीति मिल गई थी। मगर उसे पता न चला था कि प्रीति पीछे है। "विनीत ....।” प्रीति ने पुकारा।
प्रीति के पुकारने पर विनीत ने पीछे मुड़कर देखा तो विनीत की निस्तेज आंखों में चमक उतर आयी। मुंह से निकला-"प्रीति तुम!" वह प्रीति को आश्चर्य से देखता रहा। वह मन ही-मन सोच रहा था कि हे ईश्वर! आज कुछ और भी प्रार्थना कर लेता तो वह भी मिल जाता। आज वह घर से ही सोचकर निकला था कि प्रीति से मिलेगा और ईश्वर का चमत्कार–वह स्वयं ही उसे मिल गई। विनीत को चुप देखकर प्रीति फिर बोली-"विनीत ! तुम कहां खो गये?"
“कहीं नहीं। बस आज मैंने ये सोचा था कि प्रीति से मिलूंगा! पर ईश्वर का चमत्कार देखो....ईश्वर ने तुमको रास्ते में ही मिला दिया।"
"हां विनीत” वह गहरी सांस खींचकर बोली।
विनीत ने उससे कहा—"तुमने अपनी कैसी हालत बनाकर रखी है?" उसके उदास चेहरे को देखकर विनीत उदास हो गया।
यह सुनकर प्रीति विनीत के निकट आ गई और फिर हैरत से उसकी ओर देखते हुए बोली
—“परन्तु तुम्हारी यह दशा?"
"ठीक तो हूं....।" उसने मुस्कराने का असफल प्रयत्न किया।
"ठीक?" प्रीति ने फिर हैरानी से कहा था-"यह क्या सूरत बना रखी है तुमने? न तो सर में कंघा....बढ़ी हुई शेव....उदासी। आखिर बात क्या है? तुम एक महीने से कहां रहे....?"
प्रीति ने उससे एक साथ ही कई सवाल पूछ डाले थे। उसने फिर मुस्कराने का प्रयत्न किया, परन्तु सफलता नहीं मिली थी। उसने प्रीति की बात का उत्तर देते हुये कहा था-"प्रीति, जब से पिताजी मरे हैं, तभी से इतनी जिम्मेदारियां सिर पर आ पड़ी हैं कि अपना होश ही नहीं रहता। नौकरी के चक्कर में भटकते हुये इतना समय हो गया....परन्तु अभी तक कहीं बात नहीं बनी।"
प्रत्युत्तर में प्रीति कुछ सोचने लगी थी।
उसने फिर कहा था— प्रीति....."
"कहो...."
"मेरा ख्याल है अब तो तुम्हारा मेरा बायदा टूट जायेगा।"
“मतलब....?" प्रीति चौंकी थी।
"तुम्हारा मेरा सम्बन्ध...."
"क्यों....?" वह आश्चर्य से बोली।।