Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 2 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

प्रीति के स्वर ने खामोशी को तोड़ा-"विनीत, क्या सोच रहे हो....?"

“मैं....कुछ भी तो नहीं....बस यूं ही।" विनीत हड़बड़ाकर बोला।

"तो फिर इतने उदास क्यों हो? मैं कई दिन से नोट कर रही हूं कि तुम पता नहीं किस उलझन में उलझे हो। मुझे लगता है जैसे....तुम मेरे साथ होकर भी मेरे साथ नहीं हो।" प्रीति ने विनीत की चुप्पी का कारण जानना चाहा। प्रीति और विनीत एक सुनसान सड़क पर प्रेम के डग भरते हए चलते जा रहे थे। सड़क के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे बंगलों की कतारों को बे पीछे की ओर छोड़ते जा रहे थे। प्रीति विनीत की सच्ची प्रेमिका थी। उसकी जिन्दगी थी वह।

दोनों अक्सर इन्हीं रास्तों पर घूमने के लिये निकलते थे। जिन्दगी बड़ी खुशगवार थी। प्रीति के पिता ने भी विनीत से प्रीति की शादी करने को कह दिया था। प्रीति अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थी। प्रीति मिडिल क्लास फेमिली से सम्बन्ध रखती थी। विनीत प्रीति के पड़ोस में ही रहती थी। विनीत प्रीति के पिता को 'चाचा जी' कहकर पुकारता। विनीत व प्रीति के पिता आपस में दोस्त थे। विनीत एक गरीब परिवार से सम्बन्ध रखता था। घर में उसके अतिरिक्त उसकी दो वहनें थीं। एक अनीता, दूसरी सुधा। दोनों वहनें विनीत से छोटी थीं। हँसता-खेलता परिवार था। पिता एक छोटी-सी नौकरी पर थे। घर में गरीबी होने के बावजूद पिता ने विनीत को पढ़ाने में कमी नहीं की थी। प्रीति के पिता ने विनीत के पिता से विनीत और प्रीति की शादी के लिये हां कर दी थी। इस बात से दोनों बेहद खुश थे। गरीब होने के साथ-साथ परिवार में खुशियां-ही-खुशियां थीं।

विनीत कहीं खोया-खोया आगे बढ़ता जा रहा था। काफी दूर चलने पर जंगल शुरू हो गया। यह इलाका सुनसान-सा लगता था। अभी यहां किसी भी प्रकार की आबादी नहीं थी। सामने एक छोटा-सा पुल था। दोनों उस पुल पर आ गये। "विनीत, तुमने बताया नहीं जो मैंने पूछा।" प्रीति का स्वर उदास हो गया। वह पुल पर खड़ी होकर पुल के नीचे कल-कल करती हुई जलधारा को देखने लगी।

"क्या बताऊं प्रीति!” विनीत ने एक गहरी सांस लेकर कहा।

“क्यों, क्या बताने लायक बात नहीं?" प्रीति उदास हो गई।

विनीत ने प्रीति के उदास चेहरे पर दृष्टि डालते हुए कहा- नहीं प्रीति, वैसा नहीं है जैसा तुम समझ रही हो।"

"तो फिर कैसा है? तुम बताते क्यों नहीं हो।" प्रीति ने विनीत का हाथ अपने हाथों में ले लिया।

विनीत ने अपनी परेशानी का कारण प्रीति को बता दिया। इतना सुनकर प्रीति बोली ____ "इसमें परेशान होने वाली क्या बात है? तुम उससे कह क्यों नहीं देते कि मैंने तुम्हें माफ कर दिया।"

विनीत भावुक होकर बोला—"प्रीति, मैं तुम्हारे सिवा किसी भी लड़की से बात नहीं करना चाहता-आखिर वह क्यों मेरे मुंह से कुछ भी सुनना चाहती है?"

इसका जवाब तो प्रीति के पास भी नहीं था।
 
विनीत पुनः बोला-"प्रीति, अर्चना एक करोड़पति बाप की इकलौती औलाद है। हम जैसे लोगों से गलती की माफी मांगने न मांगने से उन पर क्या फर्क पड़ता है....मगर फिर भी वह....।" विनीत चुप हो गया। दोनों चुप होकर नदी की लहरों को देखने लगे, जो बार-बार अठखेलियां कर रही थीं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बे लहरें नाच रही हों। नदी की एक भी लहर में कहीं ठहराब नहीं था। वे मदमस्त चाल से चल रही थीं।

"विनीत!" प्रीति ने खामोशी तोड़ी-"कितना सुन्दर दृश्य है! चलो, बहां उस चट्टान पर चलकर बैठते हैं।" प्रीति ने सामने वाली चट्टान की ओर इशारा करते हुए कहा और विनीत का हाथ पकड़कर चलने लगी।

सूरज डूब रहा था। शाम होती जा रही थी। पेड़ों के पीछे से चमकता लाल-लाल सूरज किस कदर हसीन लग रहा था, कहा नहीं जा सकता। दोनों चट्टान पर आकर बैठ गये। प्रीति ने विनीत के कन्धे पर सिर रख दिया, प्रेम भरे स्वर में बोली-"विनीत, क्यों दूसरों के चक्कर में अपने खूबसूरत लम्हों को बर्बाद कर रहे हो। वो देखो....सूरज कितना प्यारा लग रहा है।" प्रीति ने डूबते सूरज की ओर इशारा करते हुए कहा।

विनीत ने अर्चना का ख्याल झटककर सूरज की ओर देखा। ऐसा लग रहा था जैसे वह दोनों के प्रेम को देखकर हंस रहा हो।
"विनीत, मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूं इसका तुम अन्दाजा भी नहीं लगा सकते। तुम्हारी खामोशी मेरे दिल को बेचैन कर रही है....मैं तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रह सकती।"

"प्रीति, ऐसे मत बोलो। तुम्हें कुछ नहीं हो सकता। तुम सिर्फ मेरी हो! सिर्फ मेरी!" विनीत प्रीति के बालों में उंगलियां फेरता हुआ बोला।

"विनीत, तुमसे एक बात कहूं...."

"हूं।" विनीत ने उसकी आंखों में देखा।

"कहीं तुम मुझे दूर....प्रेम की अन्जान डगर पर ले जाकर छोड़ तो न दोगे?"

"कैसी बातें कर रही हो प्रीति? तुम मेरी जान हो और कोई भी अपनी जान को अपने जिस्म से जुदा नहीं करता। तुम्हारे बिना मेरी जिन्दगी नीरस है।"

प्रीति यह सुनकर खुश हो गई— “सच!"

"हां प्रीति! तुम ही मेरे मन-मन्दिर की देवी हो।" विनीत ने प्रीति का हाथ अपने हाथ में ले लिया।

"विनीत , मैं भी तुमको अपना देवता मानकर आराधना करती हूं—मैं अपनी पूजा को नहीं छोड़ सकती। प्रेम मेरी पूजा है, तुम मेरे देवता हो।" प्रीति विनीत के प्रेम की गहराई को जानने के बाद ही विनीत को अपना सर्बस्व मान चुकी थी। प्रीति ने विनीत से कहा- विनीत , तुम बचन दो कि—मुझे कभी नहीं छोड़ोगे। हर हाल में हम दोनों एक-दूसरे का साथ निभायेंगे।"

विनीत ने अपना हाथ उसके हाथ पर रखकर बचन दिया—“मैं तुम्हें कभी नहीं छोडूंगा। मैं तुम्हें वचन देता हूं।"
 
"चलो विनीत , अब घर चलते हैं। शाम हो रही है।" प्रीति धीरे से उठ गयी।

"हां, चलें।" विनीत भी उठा और प्रीति के साथ चलने लगा।

बापस घर आया तो मां खाने पर विनीत का इन्तजार कर रही थी।

"बेटा. कहां रह गये थे आज! बड़ी देर कर दी आने में। मैं कब से तेरी राह देख रही हैं।" विनीत की मां ने बेटे के घर में पैर रखते ही प्रश्न कर डाला।

विनीत ने जवाब में एक मीठी मुस्कान बिखेर दी और मां की गोद में सिर रखकर बैठ गया।
"क्यूं रे विनीत ? आजकल तू हर समय ये रोनी सूरत बनाये क्यों रहता है? अनीता और सुधा भी शिकायत कर रही थीं कि-भइय्या ना जाने क्यों सात-आठ दिन से हमसे ठीक से बात भी नहीं कर रहे हैं....."

“नहीं मां, ऐसी कोई बात नहीं है।" विनीत ने सच्ची बात बतानी मुनासिब न समझी। वह उठकर बैठ गया। तभी अनीता और सुधा आपस में लड़ती-झगड़ती कमरे में आयीं और सुधा विनीत के पीछे छिप गई। "भइय्या! भइय्या! मुझे बचाओ....दीदी मुझे मार रही...हैं...." सुधा ने स्वयं को बचाने के लिये विनीत का सहारा लिया।

अनीता भागती-भागती विनीत को देखकर रुक गई।
"देखो भइय्या! आप हमेशा इसी की तरफदारी लेते हैं। यह मेरी चोटी खींचकर भागी है।"

तभी सुधा बोली- भइय्या, ये मुझे बाहर के बच्चों के साथ खेलने नहीं देती। आज इसने मेरी गुड़िया उठाकर फेंक दी है। मेरा गुड्डा अकेला रह गया है।" इतना कहकर वह रोने लगी।

विनीत की मां ने सुधा को रोता देख अनीता को हल्की-सी डांट लगाते हुए कहा-"अनीता, तुम काहे को छोटी वहन को रुलाती रहती है।" रोती हुई सुधा ने फौरन अपने आंसू साफ किये और भइय्या की गोद में बैठ गई।

“मां, आप हमेशा हमें ही डांटती रहती हैं। कभी सुधा को भी कुछ कह दिया कीजिये।" अनीता के स्वर में शिकायत थी। विनीत ने अनीता को अपने पास बुलाया-"अनीता, इधर आओ।" अनीता विनीत के पास आकर बैठ गई।

"देखो अनीता! सुधा छोटी है, तुम समझदार हो, इसीलिये तुम्हें ही डांटती हैं मां जी।" विनीत ने अनीता को समझाया।

अनीता ने हां में गर्दन हिलाकर कहा-"ठीक है भइय्या।"

विनीत ने अनीता से कहा-"तुमने खाना खा लिया क्या?"

"नहीं भइय्या, अभी नहीं खाया।" अनीता बोली। सुधा विनीत के पास से जा चुकी थी।

“सुधा! ओ सुधा! कहां चली गई? इधर आ।" विनीत ने जोर से सुधा को पुकारा।

सुधा दौड़ती हुई आई। “जी भइय्या जी।" वह चहककर बोली।

"अब बहुत हो चुकी बातें! चलो जल्दी हाथ-मुंह धोकर खाना खाने बैठो।” विनीत की मां ने तीनों को हाथ-मुंह धोने को कहा और स्वयं खाना परोसने लगीं। इतने में पिताजी भी आ गये। सभी ने साथ बैठकर खाना खाया। खाने के पश्चात् अनीता चाय बना लायी। चाय के दौरान सुधा बोली—"भइय्या, कल राखी का त्यौहार है। मैं तो आपसे गुड़िया लूंगी। मेरा गुड्डा अकेला रह गया है। दीदी ने मेरी गुड़िया छीनकर फंक दी है।"

सभी लोग उसकी मासूमियत पर हंस पड़े। "ठीक है बाबा! ले लेना जो भी लेना है।” विनीत ने कहा।

अनीता कहां चूकने वाली थी, झट से बोली- मैं तो आपसे एक सूट लूंगी भइय्या। आप मुझे मेरी पसन्द का सूट दिलाकर लाएंगे।"

"अरे अनीता, सूट कोई तुमसे ज्यादा है? तुम कहो तो सूटों की पूरी दुकान खरीदकर ला दूं।" वह मुस्कराकर बोला।

अनीता तो खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। सच तो ये है कि विनीत अपनी वहनों से बहुत प्यार करता था। उनकी छोटी से छोटी खुशी पर जान छिड़कता था।

“अरे भई! हमसे भी तो कुछ पूछ लो हमें कल क्या खाना है।" विनीत ने मुस्कराकर कहा।
 
तभी विनीत की मां बोलीं- "मुझे पता है तुझे क्या खाना है!" वह प्यार भरी दृष्टि विनीत पर डालकर बोली-“खीर खानी है ना विनीत तुझको।"

"खानी तो खीर ही है, मगर खाऊंगा अनीता के हाथ की बनी हुई।"

"हां-हां भइय्या, कल सारा खाना मैं ही बनाऊंगी....।" अनीता बीच में ही बोली।

"हम भी हैं यहां पर।” विनीत के पिता जी बोले, जो चुप बैठे उनकी बातें सुन रहे थे।

"हां भई हां, हमें पता है....मगर कुछ बोलो तो सही।” विनीत की मां ने उसके पिता की बात का जवाब देते हुए कहा।
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विनीत कॉलिज आया तो सीधा लाइब्रेरी में जाकर बैठ गया। उसे पढ़ाई छोड़े हुए कई दिन गुजर गये थे। वह पढ़ाई के प्रति लापरवाही नहीं बरतना चाहता था। बस सब कुछ भूलकर वह पढ़ाई करने के लिये बैठ गया। उसने इधर-उधर नहीं देखा। वह किताब में खो गया। कुछ देर बाद ही अर्चना ने लाइब्रेरी में प्रवेश किया। सबसे पहले उसने उसी सीट की ओर देखा जहां विनीत बैठा पढ़ता था। उस सीट पर विनीत को बैठा देख अर्चना की आंखें खुशी से चमक उठीं। वह भी अपनी सीट पर आकर बैठ गई, जहां वह अक्सर बैठकर नोट्स बनाती थी। बस वह विनीत की हर हरकत पर नजर रखे हुए थी। आज कुछ भी हो, वह विनीत से मुलाकात करके ही रहेगी। यही सोचकर वह किताब को खोलकर बैठ गई, मगर किताब में उसने एक शब्द भी नहीं पढ़ा। बस उसका तो सारा ध्यान विनीत पर था। विनीत का मुड आज कुछ सही लग रहा था। बस इसी का फायदा वह उठा लेना चाहती है।

थोड़ी देर पढ़ने के बाद विनीत उठ खड़ा हआ और घर जाने लगा। जब विनीत लाइब्रेरी से बाहर निकल गया तो अर्चना अपनी सीट से उठी और उसके पीछे-पीछे हो ली। विनीत कालेज के गेट से बाहर निकला तो अर्चना अपनी गाड़ी स्टार्ट करके उससे थोड़ी दूरी बनाये उसके पीछे-पीछे चलती रही।

विनीत कालेज से थोड़ी दूर बाले बस स्टॉप पर जाकर खड़ा हो गया। थोड़ी ही देर में बस आ गई। बस में काफी भीड़ थी। मगर फिर भी विनीत उस बस में चढ़ गया। शायद आज घर जाने की बहुत जल्दी थी। बस कुछ सेकेण्ड रुकी और चल दी। अर्चना की कार भी स्टार्ट थी। वह भी बस के पीछे लग गई। मगर विनीत उसे न देख सका। अर्चना के इरादे दृह नजर आ रहे थे। वह ध्यान से बस को देखती हुई गाड़ी ड्राइब कर रही थी। बस में से उतरने वाले हर व्यक्ति को वह बड़े ध्यान से देख रही थी कि कहीं ऐसा न हो कि—विनीत कहीं उतर जाये और आज फिर वह अपना-सा मुंह लेकर वापस आये। आज वह ऐसा कुछ नहीं चाहती थी। अर्चना का दृढ़ संकल्प देखकर लग रहा था कि वास्तव में नारी जिस काम को ठान ले, उसे पूरा करके ही छोड़े। दुनिया की कोई हस्ती उसे उसके लक्ष्य से नहीं हटा सकती। क्योंकि नारी जहां स्वभाव से नम्र होती है, वहीं उसका स्वभाव जिद्दी किस्म का होता है। अगर वह अपनी पर आ जाये तो क्या से क्या कर डाले। और अर्चना का जिद्दी रूपही अब सामने था। वह विनीत से प्रत्यक्ष रूप में क्षमा चाहती थी। और दिल के एक कोने में विनीत को प्रेम का देवता भी बना बैठी थी। जिसे वह चाहकर भी नहीं निकाल सकती थी। वह निरन्तर बस के पीछे-पीछे चलती रही। थोड़ी देर बाद एक बस स्टाप पर बस रुकी।
 
बस से उतरने बाला विनीत था। विनीत को देखते ही अर्चना की धड़कनें बढ़ गई। अपनी धड़कनों पर काबू पाते हुए उसने अपनी गाड़ी विनीत के पीछे थोड़े फासले पर लगा दी। अर्चना भी काफी धीमी रफ्तार से उसका पीछा कर रही थी। कुछ दूर चलकर विनीत एक दाहिनी ओर को जाने वाली गली में मुड़ा। अर्चना ने भी अपनी गाड़ी गली में मोड़ दी। काफी लम्बी गली थी। वह सीधा चलता जा रहा था। वह टकटकी लगाए उसे देख रही थी। विनीत एक छोटे से घर में घुस गया। अर्चना ने भी अपनी गाड़ी गली में मोड़ी और जिस घर में विनीत गया था, उसने गाड़ी वहीं रोक दी।। कुछ पल वह दरवाजे के बाहर खड़ी रही, फिर उसने दरवाजे पर दस्तक दी। अर्चना का दिल तेज-तेज धड़कने लगा। अन्जाम पता नहीं क्या होगा यही सोचकर वह कुछ भयभीत सी हुई लेकिन दरवाजे में किसी के आने से पहले ही उसने खुद को नार्मल किया।

“जी आपको किससे मिलना है...?" दरवाजे पर खड़ी हुई एक लड़की अर्चना से पूछ रही थी।

अर्चना चौंक गई। "मु.........बि....नी...त से मिलना है....। क्या मैं अन्दर आ सकती हूं....." अर्चना ने हकलाते हुए कहा।

"हां....हां....क्यों नहीं....आप अन्दर आ जाइये.....” सुधा दरवाजे से हटती हुई बोली।

अर्चना अन्दर चली गई। सुधा उसके पीछे-पीछे चलकर बराबर में आ गई थी। जल्दी से आगे भागकर वह भइय्या के पास गई। "भइय्या...देखो तो सही....आपसे कोई....मिलने आया है....."

"अभी आया....।" विनीत ने सपाट लहजे में कहा। सुधा बापस आयी तो अर्चना को खड़े देखकर बोली_“आप बैठ जाइये, भइय्या अभी आते है....."

वह एक कुर्सी पर बैठ गई, जो मेज के पास रखी थी। मेज पर एक लैम्प था। कुछ किताबें सलीके से रखी हुई थीं। देखने में लगता था कि वह पढ़ने की मेज है। कमरे में बैसी दूसरी कोई कुसी नहीं थी जिस कमरे में वह बैठी थी। कमरा बहुत छोटा था। मगर साफ-सुथरा था। एक कोने में एक बड़ा बक्सा रखा था। ऊपर एक-दो और छोटे बक्से रखे थे। ऊपर एक बड़ी सी अलमारी थी जिस पर एक पर्दा लटका हुआ था। उसमें क्या रखा था, कहा नहीं जा सकता। दीबार के एक सहारे एक छोटा-सा बैड पड़ा था। उस पर एक तकिया रखा था। बेड के ठीक सामने एक खूबसूरत ऑयल पेन्टिंग लगी थी, जो एकदम नेचुरल थी। उसमें डूबते सूरज का सीन बनाया गया था। पहाड़ों के पीछे से दिखता हुआ लाल-लाल सूरज बहुत ही सुन्दर दिख रहा था।

उस छोटे कमरे के बराबर में भी एक कमरा था। जिस लड़की ने दरवाजा खोला था, वह बराबर में ही चली गई थी। जिससे पता चल रहा था कि बराबर में कोई कमरा होगा या हो सकता है किचन हो। वह इन्हीं विचारों में थी कि उसी लड़की की आबाज ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया "लीजिये, पानी ले लीजिये।” सुधा ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया।
 
अर्चना ने कांच का पानी से भरा गिलास हाथ में लिया और बोली- गुड़िया, क्या नाम है तुम्हारा?” अर्चना ने प्रेम भाव से पूछा।

"मेरा नाम सुधा है।” सुधा ने सीधा-सा जवाब दिया। अर्चना ने गिलास खाली करके सुधा को दे दिया। सुधा गिलास लेकर चली गई। सुधा के जाने के पश्चात् अर्चना फिर से पेन्टिंग को देखने लगी।

विनीत मुंह धोकर तौलिये से साफ करता हुआ कमरे में आया तो सामने बैठी अर्चना को देखकर ठिठककर रुक गया। अनायास ही उसके मुंह से निकला–“आप यहां?" विनीत ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि-अर्चना यहां तक पहुंच जाएगी। मगर वह इतना बुरा भी न था कि घर आये मेहमान से बात न करे।

"क्या हमारे आने से आपका घर अपवित्र हो गया?" अर्चना ने मासूमियत से कहा।

आप कैसी बात करती हैं।" हल्की सी बौखलाहट के साथ बोला—“आप मुझे शर्मिन्दा कर रही हैं।" विनीत का स्वर संयत था।

"उस रोज मैं इतनी डिस्टर्ब थी कि स्वयं को संयत न कर सकी। आपके जाते ही मन दुःखी हो उठा। इच्छा तो यही थी कि आपसे तुरन्त क्षमा मांग लूं, मगर यह सोचकर आपको नहीं रोका कि जब आपके घर जाऊंगी तो उसी समय दिल का बोझ हल्का कर लूंगी। बस यही सोचकर मैं आपका पीछा करती हुई यहां तक आ गई।" अर्चना ने अपने दिल की सच्चाई व्यक्त की। अर्चना के बोलने का ढंग कुछ ऐसा था कि विनीत के मस्तिष्क की घंटियां बज उठीं। विनीत केबल प्रश्नात्मक दृष्टि से अर्चना के सुन्दर मुखड़े को देख रहा था।

कमरे में मौन थिरक उठा था। बाहर भी गहरा सन्नाटा व्यास था। सूरज निकलकर ठंड के कारण फिर कहीं छुप गया था। चारों ओर कोहरा-सा छाने लगा था। अर्चना की उदासी विनीत के दिल में उतरती प्रतीत हुई। विनीत बेड पर बैठा हुआ अर्चना की ओर देख रहा था। उसकी कोमल भावनाओं पर मेरे क्षमा न करने का कितना आघात लगा है, यह अच्छी तरह जान सकता था। विनीत की इच्छा हुई कि वह अर्चना को तुरन्त माफी दे दे। अर्चना अब सिर झुकाये बैठी थी। कभी-कभी सामने लगी हई पेन्टिंग को जरूर देख लिया करती थी। दिल में हलचल सी मची थी, अजीब-सी बेचैनी मानो दिल से निकलकर अभी बाहर आ जायेगा। वह कुर्सी पर बैठी नहीं बल्कि कुर्सी ने उसे पकड़ रखा हो। उसे ऐसा महसूस हो रहा था, कभी-कभी मानब कितना बेजुबान हो जाता है....ऐसा ही कुछ इन दोनों के साथ हो रहा था।

अर्चना से इस कदर खामोशी अब जरा भी सहन नहीं हो पा रही थी। उसने पुनः कहा -"आप मुझसे नाराज हैं?"

"क्यों?" विनीत ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी-"नाराजगी का अधिकार तो अपनों के लिये होता है।"

अर्चना के दुःखी मन पर विनीत के ये शब्द कोड़ों के समान पड़े। अर्चना को पहली बार इतनी गहरी ठेस लगी थी। मन के सारे भाबुक तार एक साथ झनझना उठे थे। उसे विनीत से इतनी कठोरता की जरा भी आशा नहीं थी। अत्यन्त कठिनाई से वह स्वयं को संभाल पायी थी। डबडबाई आंखों से विनीत की ओर देखती हुई बोली-“मैं सचमुच तुम्हारी बहुत बड़ी गुनाहगार हूं विनीत।" एक गहरी सांस खींचकर फिर बोली-"बहुत बड़ी गुनाहगार! क्या तुम मुझे इस गुनाह की सजा नहीं दोगे?" अर्चना के स्वर में पीड़ा थी।

"हम जैसे गरीब आदमियों के लिये आप जैसे अमीर लोगों को इस प्रकार बोलना शोभा नहीं देता।" विनीत दृह लहजे में बोला।
 
"ऐसा क्यों कहते हो विनीत ....? हमने तो आपको बदनाम किया है। हमारे कारण कॉलिज में आपकी प्रतिष्ठा को, सामाजिक सम्मान को और आपके उच्च रुतबे को ठेस पहुंची है, उस सबकी मैं ही तो जिम्मेदार हूं।"अर्चना दर्द में डूबी हुई बोली-"विनीत! तुम नहीं जानते, यह कड़वा सच है कि उस दिन से मैं एक पल को भी चैन से नहीं रही हूं। दिन-रात केवल तुम ही मेरे होशो-हवास पर छाये रहे। तुम्हारी इन आंखों की उदासी मुझे चैन से रहने नहीं देती है। मैं अब तक नहीं समझ सकी, कैसा दर्द मेरे भीतर पल रहा है? क्यों हर पल बेचैन रहती हूं? आखिर क्यों?" अर्चना की आंखों में आंसू छलक आये। अपनी भीगी पलकें झुका लीं।

अर्चना की बातों में कितना अपनापन-सा लग रहा था! न चाहकर भी भाबुक हो गया विनीत । वह आगे बढ़ा और अनायास ही उसके हाथ उठे और उसने अर्चना की आंखों से लुढ़कने वाले दो आंसू को अपने हाथ से साफ कर दिया।
आप रोइए नहीं। मैंने आपकी हर गलती के लिए क्षमा कर दिया है। मेरी बजह से परेशान होने की आपको कोई आवश्यकता नहीं है।"

अर्चना के होठों पर एक फीकी सी मुस्कराहट फैल गई। उसका संकल्प मानो पूरा हो गया था। वह कुर्सी से उठी और विनीत से धीरे से 'बैंक्यू' कहती हुई बाहर निकल गई।

विनीत ने अर्चना को रोकना चाहा तो वह काफी दूर जा चुकी थी। गाड़ी में आकर बैठी और गाड़ी आगे बढ़ा दी।

कार अपनी गति से भागी जा रही थी। अर्चना के चेहरे के भाव बहुत ही गम्भीर थे। अर्चना ने गाड़ी की स्पीड थोड़ी और बढ़ाई। अर्चना के घर के आगे कार चरमाकर रुकी। अर्चना गाड़ी गैरिज में खड़ी करके अपने कमरे में जाने लगी तो उसके पिता ने ड्राइंगरूम में उसे आवाज दी "अर्चना बेटी! इधर आओ....."

“जी डैडी।" अर्चना ने ड्राइंगरूम में कदम रखते ही पिता पर नमस्ते ठोकी। जरूर कोई खास बात होगी बरना पिता जी मुझे ऐसे नहीं बुलाते हैं। यह सोचकर वह ड्राइंगरूम में जाकर खड़ी हो गई।

"आओ बेटी, इश्वर आकर बैठो मेरे पास।" पिता ने प्रेमपूर्ण ब्यबहार से उसे अपने पास बाले सोफे पर बैठने का इशारा किया।

कुछ पल के लिये अर्चना सोच में पड़ गई-जाने क्या खास बात है जो डैडी अपने पास बिठा रहे हैं? "अर्चना, जो मैंने सुना, ठीक है क्या?" अर्चना के पिता ने एकदम अटपटा-सा सवाल कर डाला।

अर्चना कुछ उलझी सी बोली- मैं कुछ समझी नहीं डैडी?"

"मैंने सुना है तम कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खा रही हो। हर समय अपने कमरे में बंद रहती हो। क्या मैं वजह जान सकता हूं? क्या परेशानी है मेरी बेटी को?"

"अ....हां....नहीं-नहीं डैडी....ऐसी कोई बात नहीं है।" वह सकपका गई।
 
"अच्छा, अगर ऐसी कोई बात नहीं है तो आज का लंच तुम मेरे साथ करोगी। जल्दी फ्रैश होकर आओ। मैं डाइनिंग-रूम में तुम्हारा बेट कर रहा हूं।"

"ओके डैडी।" वह अपने कमरे में भाग गई। कहीं डैडी उसके चेहरे पर आने बाले रंगों को न पहचान जायें। उसका चेहरा विनीत के विषय में सोचने मात्र से ही गुलाबी हो रहा था। फ्रैश होकर वापस आयी तो स्वयं को काफी हल्का-फुल्का महसूस कर रही थी। वास्तव में उसके ऊपर से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया था। वो था—विनीत से क्षमा मांगने का बोझ। आज उसे विनीत ने दिल से क्षमा कर दिया था। कई दिनों की उड़ी हुई भूख वापस आ गई थी। आज वह जमकर खाना खाना चाहती थी। वह बालों में रबड़बेन्ड डालकर पिताजी के पास डाइनिंग टेबल पर पहुंची।

उसके पिता काफी देर से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। "आओ बेटी, जल्दी आओ! बड़े जोर से भूख लगी है।"

“जी डैडी। मुझे भी तेज भूख लगी है....." अर्चना एक कुर्सी घसीटकर बैठ गई और खाना खाने में व्यस्त हो गई। आज का दिन बहुत अच्छा गुजरा। आज अर्चना बहुत खुश थी। रात हुई तो अपने बिस्तर पर लेटी वह विनीत के विषय में ही सोचती रही। 'पता नहीं विनीत हमें कब समझेंगे? क्यों नहीं समझे बे हमें? हम भी उनकी चमकती आंखों में ऐसी ही भावनाएं देखना चाहते हैं, जैसी हमारी आंखों में उनके लिये हैं। उनके खामोश होठों पर ऐसी प्यास चाहते हैं जिसके लिये हम अपना सारा जीवन समर्पित कर दें।' वह अपने कमरे की सभी खिड़कियां खोले, चांद को एक खिड़की से ऐसे निहार रही थी जैसे चांद, चाँद न होकर विनीत हो। रात अपने यौवन पर थी। पूर्णमासी की उजली रात! पहाड़ों के दामन में लिपटा हुआ समय जैसे ठहर गया था। मन्द-मन्द हवा के झोंके अर्चना के मखमली बदन को स्पर्श कर रहे थे। ठंड की हल्की-सी सिहरन उसे आनन्दित करती चली गई। अर्चना के विचारों ने करबट ली तो विनीत का कठोर ब्यबहार सामने दिखाई दिया। वह एकदम उदास हो गई। मन के अन्दर कुछ ‘खन्न' से टूटा तो दर्द आंखों से छलक पड़ा। विनीत के मिलने से पहले बिछड़ने के विषय में सोचकर ही वह बेड पर लेटी सिसक पड़ी। जहां अभी खुशी के फुआरे फूट रहे थे, वहीं गम का पहाड़ टूट पड़ा था। आंखों से अश्कों के धारे छलक पड़े। रात भी अब छलकर नशीला जाम बन चुकी थी, जिसे सूर्य का उजाला पी लेना चाहता था। अर्चना विनीत का स्वभाब देखकर जान गई थी कि वह उसे कतई लिफ्ट नहीं दे रहा है। यही सोचकर उसका दिल टूट गया था। मगर वह विनीत को कभी भी भुलाना नहीं चाहती थी। पता नहीं उसे खुद ऐसा लग रहा था जैसे विनीत अब उसे कॉलिज में कभी नहीं मिलेगा क्योंकि उसकी और अर्चना की कक्षा अलग-अलग थी। बस वह लाइब्रेरी में ही बैठा मिलता था।

इतनी बात होने पर वह हफ्ते भर कॉलिज नहीं आया था। अब न जाने वह कॉलिज आयेगा भी या नहीं- मैं उसके घर क्यों पहुंच गई? शायद घर से जल्दी भगाने की वजह से ही उसने मुझे क्षमा कर दिया। वरना वह मुझे प्यार तो जरा-सा भी नहीं करता।' प्यार करना तो दूर....वह एक प्यार भरी नजर भी मेरी ओर न डाल सका था। खैर, कोई बात नहीं, वह मुझे प्यार नहीं करता तो न करे, मैंने उसे प्यार किया है और हमेशा करती रहूंगी, यही सोचते-सोचते उसके होठों से कुछ बोल निकले-जो वह धीरे-धीरे बड़बड़ा रही थी 'हम जिसे चाहें, जिसे देखें, जिसपे एतबार करें, यह जरूरी तो नहीं वह भी हमें प्यार करे।'
 
प्रातः सूरज निकला। रुपहली किरणों का कारवां निकल पड़ा था। सूर्य की किरणें अर्चना के मुंह पर पड़ी तो उसकी नींद टूटी। उसका मन बहुत पीड़ित था। ऐसा विनीत का प्यार न मिलने के कारण था या आत्मिक टूटन, वह नहीं जान सकी। पलंग से उठी तो दिमाग सांय-सांय करने लगा। वह दुबारा पलंग पर बैठ गई। कितनी ही देर तक पलंग पर बैठी शून्य को निहारती रही। कमरे में बिखरे सन्नाटे शेष थे। वह पलंग से उठी। ना जाने किस प्रकार वह खिड़की के समीप आकर ठहर गई। बाहर देखा तो पेड़ पर तोता-मैना बैठे थे। अर्चना की सोईं आंखों में इतनी ताकत न थी कि उस जोड़े को देख सके। बहू पीछे हट गई। फिर कॉलिज आने-जाने का सिलसिला चलता रहा। मगर जिसका डर था बहीं हुआ। विनीत उसके कॉलिज में भूले से भी दिखाई नहीं दिया। वह भी पढ़ाई में लग गई। काफी दिन गुजर गये। उसने हालात से समझौता कर लिया और अपनी जिन्दगी में मस्त हो गई। मगर वह विनीत को कभी न भुला सकी।
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रात का अन्धेरा। शहर का बाहरी स्थान, निर्जन तथा खामोशी युक्त नदी का किनारा। हल्के-हल्के हवा के झांकों के साथ कोहरा भी टहल रहा था। विनीत नदी के एक छोर पर खड़ा रेत पर स्वयं बनायी तस्वीर देख रहा था। तभी उसे फूलों के रस में नहाई उसकी बचपन की प्रेयसी प्रीति की परछाई दिखाई दी। विनीत पीछे पलटा। अब वह अपलक अपनी बचपन की प्रेयसी प्रीति को निहार रहा था।

प्रीति भी टकटकी लगाये विनीत को देख रही थी। विनीत के कदम तनिक आगे बढ़े। समीप आया तो प्रीति के बदन से उठने वाली खुशबू सांसों में उतर गई। विनीत की पलकों में प्रीति के बचपन की तस्वीर उभर आयी। बचपन का प्रत्येक क्षण जीवित आंखों में मंडराने लगा। विनीत प्रीति से कुछ कदम दूर ठिठक गया।

"रुक क्यों गये विनीत ?" बेहद नशीली आबाज विनीत के कानों में उतर गई। विनीत प्रीति पर निहाल हो उठा। उफ्! यह आवाज किस कदर दिलकश है खुमारयुक्त है। सच, प्रीति की आवाज में एक नशा-सा था। जो विनीत को उसके करीब ले आया, एकदम करीब। प्रेम की अमृतधारा आंखों से छलक पड़ना चाहती थी। विनीत ने अपने मजबूत मर्दाने हाथ प्रीति के दोनों कन्धों पर रख दिये—प्रीति!"

प्रीति की पलकें बंद हो गईं। एक नशीला अहसास पूरे शरीर में दौड़ गया।

"प्रीति!" वह बुदबुदाया।

“हूं।" प्रेम और यौबन के नशीले अहसास में डूबा स्वर। विनीत ने प्रीति को गले से लगा लिया। वह कहीं खो गई। हल्के से हिलाकर विनीत ने पूछा
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"कहां खो गईं तुम?” विनीत के जज्बात भरे होंठ खुले। स्पर्श के नशीले घेरे से निकलकर प्रीति ने आंखें खोली।

विनीत प्रीति की आंखों में उतरी प्रेम लालिमा को देखकर नशीले अन्दाज में मुस्कराया। प्रीति का चेहरा झुक गया। वह शर्माकर नीचे देखने लगी। वह अपने दिल की धड़कनों पर काबू नहीं कर पा रही थी। वह लम्बी लम्बी सांसें ले रही थी। चेहरा गुलाबी पड़ गया था। प्रीति ने एक बार फिर अपनी घनेरी पलकें ऊपर उठाकर विनीत को देखा तो वह प्रीति को देखकर मुस्करा उठा। प्रीति ने गर्दन हल्की सी उठा ऊपर देखा और विनीत से नजरें मिलते ही नजरं चुराकर बोली-“ऐसे मत देखो मुझे! मैं मर जाऊंगी....।"
 
वह प्रेम भावना में वह विनीत की धड़कनें भी जल्दी-जल्दी धक....धक....धक हो रही थीं। उसने कुछ कहने से पहले सामने शर्मायी बैठी प्रीति पर नजर डाली। वह लाल रंग की सिम्पल साड़ी पहने बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसके काले लम्बे बाल जो पीछे की ओर खुले पड़े थे, उसकी खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे। कपड़ों का शेड उसके गालों पर पड़कर उसके गुलाबी गालों को लाल कर रहा था। वह नीचे पलकें झुकाये ऐसी बैठी थी जैसे लाल जोड़े में सजकर नई नवेली दुल्हन अभी आयी हो। मगर विनीत के लिये वह दल्हन से कम भी न थी। आज उसे अपनी पसंद पर गर्व हो रहा था। आज उसकी बचपन की मौहब्बत साड़ी में लिपटी कितनी हसीन लग रही थी, वह कह नहीं सकता था। वह पलकें झपकाये बगैर उसे लगातार देख रहा था।

"ऐसे मत देखो विनीत , प्लीज।" वह पलकें झुकाकर पुनः बोली। वह अब विनीत को देखने लगी। वह भी कम आकर्षक नहीं लग रहा था। आज वह अन्य दिनों की अपेक्षा स्मार्ट लग रहा था। लम्बा कद, गठीला शरीर, चौड़ी छाती, मर्दाने कन्धे उसकी ठोस मर्दानगी का सबूत दे रहे थे। उसके मजबूत जिस्म पर नेवी बाल्यू कलर का कुर्ता उसकी सांवली रंगत पर खिल रहा था। प्रीति ने उसे आज पहली बार इस ड्रेस में देखा था। वह एकदम फ्रैश लग रहा था। जैसे अभी-अभी गुलाब-जल में नहाकर आया हो....। उसके जिस्म से फूटने वाली खुशबू प्रीति की सांसों में घुल रही थी। वह बार-बार लम्बी सांस लेकर उसके जिस्म की खुशबू अपने जिस्म में उतार रही थी। वैसे भी वे दोनों दो जिस्म एक जान थे। प्रीति विनीत की जानलेवा खामोश अदा पर आत्मविभोर हो उठी। लाख कोशिशों के पश्चात् भी बे दोनों स्वयं को न रोक पाये। प्रीति की गोरी बाहें उसी पल उठीं और वह विनीत की बांहों में समा गई। विनीत ने उसे अपनी मजबूत बांहों में समेट लिया- आओ प्रीति! बहुत तड़पाती हैं तुम्हारी यादें मुझे। पल-पल सुलगकर जीता रहता हं, मैं! हां माई लव एण्ड लाइफ हां....।" विनीत प्रीति की जुल्फों की छांव में पागल-सा हो उठा। प्यार के समुन्द्र में जैसे हलचल मच गई थी। संकोच, शर्म, शिकबा-शिकायतों की दीवारें प्रेम के हल्के से स्पर्श से ही गिर पड़ी थीं। प्रीति की गोरी बांहें अपने साजन की पीठ पर सख्त हो गई। उसने विनीत को पूरी ताकत से जकड़ लिया। इतना ही नहीं, विनीत के तपते होठ प्रीति के होठों पर ठहर गये थे, विनीत ने प्रीति को बांहों में समेट लिया था। जैसे तारों ने घटा की चादर ओढ़ ली हो....|

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