desiaks
Administrator
- Joined
- Aug 28, 2015
- Messages
- 24,893
रास्ते भर तरह-तरह के विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटते रहे। कई बार सोचा कि वह बापिस चल दे। आखिर उस दुनिया में अब रखा ही क्या है? समय के साथ-साथ अपने सभी पराये बन चुके होंगे। इतने समय बाद उसे कौन पहचानेगा? उसकी सूरत भी तो शैतानों जैसी हो रही है। फिर भी वह बढ़ता रहा उसी बस्ती की ओर जहां उसने कुछ सपने संजोये थे....किसी से बंधन बांधा था। परन्तु दुर्भाग्य ने उस बंधन को कायम न रहने दिया। हमेशा-हमेशा के लिये उसके सपनों को चूर-चूर कर दिया। काफी समय बाद उसकी विचारधारा टूटी। अपने चारों ओर देखा। वह प्रीति के मकान के सामने खड़ा था।
सामने का दरवाजा खुला था। उसने आगे बढ़ने के लिये अपना कदम बढ़ाया, एक अनजाने भय से कांप उठा वह। उसके हृदय की धड़कनें अनायास की बढ़ गई। न जाने क्यों,वह आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।
वह दरवाजे के सामने खड़ा था। उसने देखा कि एक युबती दरबाजा बन्द करने आयी थी। पहचान नहीं सका वह। उसने इतना अबश्य देखा कि युवती की सूरत प्रीति से काफी मिलती-जुलती थी।
"आप....?" विनीत के कुछ कहने से पहले ही युवती ने पूछा।
"मुझे....मुझे प्रीति से मिलना था....।" किसी प्रकार उसने कहा।
“कहिये मेरा नाम प्रीति ही है।"
"तुम....तुम प्रीति हो....?" विनीत हैरानी से उसकी ओर देखता रह गया।
“जी....और आप....आप....?"
"तुम मुझे नहीं जानतीं....मेरा नाम विनीत है।"
"विनीत....।" प्रीति ने कहते हुए आगे बढ़कर विनीत के दोनों हाथ थाम लिये। उसने यह भी नहीं देखा कि कोई उसे देखकर क्या कहेगा? उसकी आंखों से आंसू वह निकले। प्रीति ने फिर कहा- “विनीत....तुम मेरे विनीत ही हो न....तुम....तुम....?" प्रीति के पूरे शब्द जुबान पर नहीं आ रहे थे। उससे कुछ अधिक कहते न बना और उसका स्वर भर्राकर रह गया।
विनीत की आंखें भी छलछला उठीं। वह केबल इतना ही कह सका-"हां प्रीति, मैं ही हूं....मैं ही वह बदनसीब हूं।"
“आओ विनीत ....अन्दर चलो...."
"नहीं प्रीति।” विनीत ने कहा- मन में एक लालसा थी। तुम्हें देख लिया। अब मुझे चलना ही पड़ेगा....मैं चल रहा हूं।"
"विनीत ....पिताजी बाहर गये हैं, मां भी नहीं हैं। आओ...
." ना नहीं कर सका वह। प्रीति के साथ चलकर वह उसके कमरे में आ गया। बैठते ही प्रीति ने पूछा-"कहां रहे विनीत....।"
"इस दुनिया से अलग।" विनीत ने कहा- "जहां गुनाहगारों को दीवारों में बन्द कर दिया जाता है। वहीं से आ रहा हूं। तुम सुनाओ।"
"सुनाना ही क्या....!"प्रीति ने कहा-"कुछ रोते और कुछ मुस्कराते जिन्दगी गुजर गयी। तुम्हें देखने के लिये आंखें तरस गयीं।"
"मैं भी यही सोचता था प्रीति।" विनीत ने कहा—“सलाखों के उस पार जब मुझे अपने बेगाने याद आते थे, तब उन यादों में तुम्हारा चेहरा अवश्य होता था। परन्तु बाद में मुझे एक आह भरकर रह जाना पड़ता था। उन यादों में कुछ था भी तो नहीं। घुटन थी....तड़प थी....इतना अधिक घुटता था। और अधिक घुटने की सामर्थ्य मुझमें नहीं थी। मैं उन यादों को स्वयं से दूर ही रखना चाहता था। लेकिन ऐसा हो न सका। मैं पिसता रहा....रोते-रोते मैंने वर्षों गुजारे हैं। इसके बावजूद भी मैं अपनी दुनिया में वापिस न आ सका....मेरा सब कुछ मुझसे अलग हो गया....बहुत दूर हो गया...."
"विनीत ....."
प्रीति, मेरे जेल जाने के बाद तुम कभी उस घर में गयी थीं?"
"कहां?"
“जो घर कभी मेरा था।"
“विनीत , कब तुम्हारे हाथों खून हुआ और कब तुम पर मुकदमा चला, इस विषय में तो मुझे कुछ भी पता न था। पता भी कैसे चलता? पिताजी ने मेरे कहीं आने-जाने पर बिल्कुल रोक लगा दी थी। मुझे तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न चल सका। यदि चलता तो मैं तुमसे जरूर मिलने आती। हां, एक दिन अवसर मिला था। मैं तुम्हारे घर गयी थी। परन्तु वहां मुझे कुछ और ही देखने को मिला। मुझे पता चला था कि उस मकान पर किसी और का ही कब्जा हो गया है। सुधा और अनीता के विषय में कुछ पता न चला था। मैंने भी उन दोनों को खोजने की काफी कोशिश की—परन्तु मिला कुछ नहीं।"
सामने का दरवाजा खुला था। उसने आगे बढ़ने के लिये अपना कदम बढ़ाया, एक अनजाने भय से कांप उठा वह। उसके हृदय की धड़कनें अनायास की बढ़ गई। न जाने क्यों,वह आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।
वह दरवाजे के सामने खड़ा था। उसने देखा कि एक युबती दरबाजा बन्द करने आयी थी। पहचान नहीं सका वह। उसने इतना अबश्य देखा कि युवती की सूरत प्रीति से काफी मिलती-जुलती थी।
"आप....?" विनीत के कुछ कहने से पहले ही युवती ने पूछा।
"मुझे....मुझे प्रीति से मिलना था....।" किसी प्रकार उसने कहा।
“कहिये मेरा नाम प्रीति ही है।"
"तुम....तुम प्रीति हो....?" विनीत हैरानी से उसकी ओर देखता रह गया।
“जी....और आप....आप....?"
"तुम मुझे नहीं जानतीं....मेरा नाम विनीत है।"
"विनीत....।" प्रीति ने कहते हुए आगे बढ़कर विनीत के दोनों हाथ थाम लिये। उसने यह भी नहीं देखा कि कोई उसे देखकर क्या कहेगा? उसकी आंखों से आंसू वह निकले। प्रीति ने फिर कहा- “विनीत....तुम मेरे विनीत ही हो न....तुम....तुम....?" प्रीति के पूरे शब्द जुबान पर नहीं आ रहे थे। उससे कुछ अधिक कहते न बना और उसका स्वर भर्राकर रह गया।
विनीत की आंखें भी छलछला उठीं। वह केबल इतना ही कह सका-"हां प्रीति, मैं ही हूं....मैं ही वह बदनसीब हूं।"
“आओ विनीत ....अन्दर चलो...."
"नहीं प्रीति।” विनीत ने कहा- मन में एक लालसा थी। तुम्हें देख लिया। अब मुझे चलना ही पड़ेगा....मैं चल रहा हूं।"
"विनीत ....पिताजी बाहर गये हैं, मां भी नहीं हैं। आओ...
." ना नहीं कर सका वह। प्रीति के साथ चलकर वह उसके कमरे में आ गया। बैठते ही प्रीति ने पूछा-"कहां रहे विनीत....।"
"इस दुनिया से अलग।" विनीत ने कहा- "जहां गुनाहगारों को दीवारों में बन्द कर दिया जाता है। वहीं से आ रहा हूं। तुम सुनाओ।"
"सुनाना ही क्या....!"प्रीति ने कहा-"कुछ रोते और कुछ मुस्कराते जिन्दगी गुजर गयी। तुम्हें देखने के लिये आंखें तरस गयीं।"
"मैं भी यही सोचता था प्रीति।" विनीत ने कहा—“सलाखों के उस पार जब मुझे अपने बेगाने याद आते थे, तब उन यादों में तुम्हारा चेहरा अवश्य होता था। परन्तु बाद में मुझे एक आह भरकर रह जाना पड़ता था। उन यादों में कुछ था भी तो नहीं। घुटन थी....तड़प थी....इतना अधिक घुटता था। और अधिक घुटने की सामर्थ्य मुझमें नहीं थी। मैं उन यादों को स्वयं से दूर ही रखना चाहता था। लेकिन ऐसा हो न सका। मैं पिसता रहा....रोते-रोते मैंने वर्षों गुजारे हैं। इसके बावजूद भी मैं अपनी दुनिया में वापिस न आ सका....मेरा सब कुछ मुझसे अलग हो गया....बहुत दूर हो गया...."
"विनीत ....."
प्रीति, मेरे जेल जाने के बाद तुम कभी उस घर में गयी थीं?"
"कहां?"
“जो घर कभी मेरा था।"
“विनीत , कब तुम्हारे हाथों खून हुआ और कब तुम पर मुकदमा चला, इस विषय में तो मुझे कुछ भी पता न था। पता भी कैसे चलता? पिताजी ने मेरे कहीं आने-जाने पर बिल्कुल रोक लगा दी थी। मुझे तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न चल सका। यदि चलता तो मैं तुमसे जरूर मिलने आती। हां, एक दिन अवसर मिला था। मैं तुम्हारे घर गयी थी। परन्तु वहां मुझे कुछ और ही देखने को मिला। मुझे पता चला था कि उस मकान पर किसी और का ही कब्जा हो गया है। सुधा और अनीता के विषय में कुछ पता न चला था। मैंने भी उन दोनों को खोजने की काफी कोशिश की—परन्तु मिला कुछ नहीं।"