Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 8 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

रास्ते भर तरह-तरह के विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटते रहे। कई बार सोचा कि वह बापिस चल दे। आखिर उस दुनिया में अब रखा ही क्या है? समय के साथ-साथ अपने सभी पराये बन चुके होंगे। इतने समय बाद उसे कौन पहचानेगा? उसकी सूरत भी तो शैतानों जैसी हो रही है। फिर भी वह बढ़ता रहा उसी बस्ती की ओर जहां उसने कुछ सपने संजोये थे....किसी से बंधन बांधा था। परन्तु दुर्भाग्य ने उस बंधन को कायम न रहने दिया। हमेशा-हमेशा के लिये उसके सपनों को चूर-चूर कर दिया। काफी समय बाद उसकी विचारधारा टूटी। अपने चारों ओर देखा। वह प्रीति के मकान के सामने खड़ा था।

सामने का दरवाजा खुला था। उसने आगे बढ़ने के लिये अपना कदम बढ़ाया, एक अनजाने भय से कांप उठा वह। उसके हृदय की धड़कनें अनायास की बढ़ गई। न जाने क्यों,वह आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।

वह दरवाजे के सामने खड़ा था। उसने देखा कि एक युबती दरबाजा बन्द करने आयी थी। पहचान नहीं सका वह। उसने इतना अबश्य देखा कि युवती की सूरत प्रीति से काफी मिलती-जुलती थी।

"आप....?" विनीत के कुछ कहने से पहले ही युवती ने पूछा।

"मुझे....मुझे प्रीति से मिलना था....।" किसी प्रकार उसने कहा।

“कहिये मेरा नाम प्रीति ही है।"

"तुम....तुम प्रीति हो....?" विनीत हैरानी से उसकी ओर देखता रह गया।

“जी....और आप....आप....?"

"तुम मुझे नहीं जानतीं....मेरा नाम विनीत है।"

"विनीत....।" प्रीति ने कहते हुए आगे बढ़कर विनीत के दोनों हाथ थाम लिये। उसने यह भी नहीं देखा कि कोई उसे देखकर क्या कहेगा? उसकी आंखों से आंसू वह निकले। प्रीति ने फिर कहा- “विनीत....तुम मेरे विनीत ही हो न....तुम....तुम....?" प्रीति के पूरे शब्द जुबान पर नहीं आ रहे थे। उससे कुछ अधिक कहते न बना और उसका स्वर भर्राकर रह गया।

विनीत की आंखें भी छलछला उठीं। वह केबल इतना ही कह सका-"हां प्रीति, मैं ही हूं....मैं ही वह बदनसीब हूं।"

“आओ विनीत ....अन्दर चलो...."

"नहीं प्रीति।” विनीत ने कहा- मन में एक लालसा थी। तुम्हें देख लिया। अब मुझे चलना ही पड़ेगा....मैं चल रहा हूं।"

"विनीत ....पिताजी बाहर गये हैं, मां भी नहीं हैं। आओ...

." ना नहीं कर सका वह। प्रीति के साथ चलकर वह उसके कमरे में आ गया। बैठते ही प्रीति ने पूछा-"कहां रहे विनीत....।"

"इस दुनिया से अलग।" विनीत ने कहा- "जहां गुनाहगारों को दीवारों में बन्द कर दिया जाता है। वहीं से आ रहा हूं। तुम सुनाओ।"

"सुनाना ही क्या....!"प्रीति ने कहा-"कुछ रोते और कुछ मुस्कराते जिन्दगी गुजर गयी। तुम्हें देखने के लिये आंखें तरस गयीं।"

"मैं भी यही सोचता था प्रीति।" विनीत ने कहा—“सलाखों के उस पार जब मुझे अपने बेगाने याद आते थे, तब उन यादों में तुम्हारा चेहरा अवश्य होता था। परन्तु बाद में मुझे एक आह भरकर रह जाना पड़ता था। उन यादों में कुछ था भी तो नहीं। घुटन थी....तड़प थी....इतना अधिक घुटता था। और अधिक घुटने की सामर्थ्य मुझमें नहीं थी। मैं उन यादों को स्वयं से दूर ही रखना चाहता था। लेकिन ऐसा हो न सका। मैं पिसता रहा....रोते-रोते मैंने वर्षों गुजारे हैं। इसके बावजूद भी मैं अपनी दुनिया में वापिस न आ सका....मेरा सब कुछ मुझसे अलग हो गया....बहुत दूर हो गया...."

"विनीत ....."

प्रीति, मेरे जेल जाने के बाद तुम कभी उस घर में गयी थीं?"

"कहां?"

“जो घर कभी मेरा था।"

“विनीत , कब तुम्हारे हाथों खून हुआ और कब तुम पर मुकदमा चला, इस विषय में तो मुझे कुछ भी पता न था। पता भी कैसे चलता? पिताजी ने मेरे कहीं आने-जाने पर बिल्कुल रोक लगा दी थी। मुझे तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न चल सका। यदि चलता तो मैं तुमसे जरूर मिलने आती। हां, एक दिन अवसर मिला था। मैं तुम्हारे घर गयी थी। परन्तु वहां मुझे कुछ और ही देखने को मिला। मुझे पता चला था कि उस मकान पर किसी और का ही कब्जा हो गया है। सुधा और अनीता के विषय में कुछ पता न चला था। मैंने भी उन दोनों को खोजने की काफी कोशिश की—परन्तु मिला कुछ नहीं।"
 
मुझे भी कुछ नहीं मिला प्रीति। जेल से निकलने के बाद यही सोचा था कि मेरी जिन्दगी फिर से संवर जायेगी....परन्तु....!"

"विनीत ....।” प्रीति ने कहा-"जो तूफान आया था, वह तो चला गया....."

"परन्तु बरबादी के चिन्ह तो छोड़ गया।” विनीत ने बात पूरी की।

"हां, और अब उसी बरबादी को तुम्हें अपनी जिन्दगी समझना पड़ेगा विनीत ! तुम्हें उसे ही सब कुछ समझकर जिन्दा रहना पड़ेगा।"

"मैं भी यही सोच रहा हं प्रीति। कम-से-कम मुझे उस समय तक तो जिन्दा रहना ही पड़ेगा जब तक मैं इस निर्णय पर नहीं पहुंच जाता कि मेरी वहनें इस दुनिया में मौजूद हैं अथवा नहीं। उसके बाद भाग्य में जैसा होगा देखा जायेगा। परन्तु प्रीति....।"

"परन्तु क्या....?"

"तुम्हारी शादी....?" विनीत की इस बात पर प्रीति धीरे से मुस्करायी। उसकी इस मुस्कराहट में क्या रहस्य था, इस विषय में विनीत कुछ भी न समझ सका।

प्रीति ने कहा-"विनीत , मेरी शादी हो चुकी है।"

"कौन है वह?"

"मेरा देवता।"

"देवता...."

"हां....जिसके चरणों में मैं अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी हूं।"

"परन्तु है कौन?" विनीत ने पूछा।

"तुम....." प्रीति ने कहा।

सुनकर विनीत बुरी तरह चौंका। वह आश्चर्य से प्रीति के चेहरे की ओर देखता रह गया। वह समझ नहीं पाया कि प्रीति क्या कह रही है। साफ बात थी—प्रीति ने अभी तक शादी नहीं की थी। जवानी को उसने आंसुओं में डुबो दिया था। उसने कुछ क्षणों की खामोशी के बाद कहा-"मैं....लेकिन....।"

"प्रेम त्याग चाहता है विनीत ....और मैंने अपने प्रेम के लिये बहुत कुछ किया है। तुम्हें शायद याद हो कि मैंने तुमसे कुछ कहा था....."

"क्या....?"

"मैंने कहा था, मेरे जीवन में तुम्हारे सिवाय कभी कोई नहीं आ सकता....मेरी आत्मा पर तुम्हारे सिवाय कभी किसी का अधिकार नहीं हो सकता। ईश्वर साक्षी है कि मैंने पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य को निभाया है....अपने बचन को निभाया है।"

“मैं इसे मूर्खता कहूंगा प्रीति....।"

"विनीत ....।” प्रीति जैसे चीख उठी।

“यह तुमने अच्छा नहीं किया।"

"मैं जानती हूं...." प्रीति ने शांत स्वर में कहा।

"और जानने के बाद भी....."

“मैंने केवल अपने वचन को पूरा किया है विनीत ....।" प्रीति बोली-“मैं नहीं चाहती कि मेरे माथे पर बेवफाई का दाग लगे। और तुम जब भी मिलो....मुझसे नफरत करो....।"

"लेकिन प्रीति....।" विनीत ने उसकी बात रोककर कहा—“तुम्हें यह सोच लेना चाहिये था कि जो इन्सान कभी भी मेरा नहीं हो सकता, उसके लिये अपने को तिल-तिल गलाने से क्या लाभ....?"

"विनीत ......" प्रीति ने अचरज से उसकी ओर देखा।

"अब मैं चल रहा हूं प्रीति।" विनीत ने अपने स्थान से उठते हुये कहा—“यदि जिंदा रहा तो कभी फिर मिलूंगा।"

"और मेरा प्यार....?"

"तुम्हारा प्यार...?"

"क्या मेरी साधना का फल मुझे नहीं मिलेगा?"
 
"प्रीति!" विनीत ने कहा- बहुत से लोग जो भ्रम का शिकार हो जाते हैं, तुम भी उन्हीं में से हो। तुम्हें यह जानना चाहिये कि पत्थर का देवता कभी किसी को कुछ नहीं देता....उसके पास देने के लिये कुछ नहीं होता।”

"विनीत , श्रद्धा और विश्वास हो तो पत्थर भी भगवान बन जाता है।"

"शायद तुम्हारा कहना ठीक हो।” विनीत ने कहा- मैं तो केबल इतना जानता हूं कि किस्मत ने जिन्हें कांटों के अलावा और कुछ नहीं दिया....उन्हें फूलों की खुशबू कभी भी नसीब नहीं होती। मैंने यही देखा है।"

"तुम्हारा किस्मत पर कितना विश्वास है..?" प्रीति ने खड़े होकर पूछा।

"जिंदगी में जितनी तस्वीरों को देखा है, उन्हें देखकर किस्मत पर विश्वास करना ही पड़ेगा प्रीति। आज मैं इस मोड़ पर हूं....पता नहीं आने वाला कल मुझे किस मंजिल पर ले जाकर छोड़ेगा....।" कहने के बाद विनीत ने प्रीति के चेहरे की ओर देखा और फिर एक लम्बी सांस लेकर बोला—“चलू....."

"इतनी जल्दी है विनीत ....?" प्रीति का गला भर आया।

"न जाने क्यों, इस दुनिया से मुझे डर लगने लगा है प्रीति। जी चाहता है कि कहीं बहुत दूर निकल जाऊं। खैर, अभी तो सुधा और अनीता को खोजना है। बाद में क्या होगा, अभी कुछ पता नहीं है...."

"परन्तु विनीत ....मेरा क्या होगा?" अधीर होकर प्रीति ने पूछा।

"तुम्हारा?" उत्तर के लिये विनीत को कुछ सोचना पड़ा। यह सच था कि प्रीति प्रेम पुजारिन थी। उसने अपने प्रेम के लिये त्याग किया था। परन्तु वह भी तो विवश था। जिसकी कोई दुनिया न हो, वह किसी को लेकर कहां जाये? जो सुख की एक सांस के लिये तरस रहा हो, वह भला किसी को क्या सुख दे सकेगा? जिसकी अपनी आशायें ट्ट चुकी हों, वह किसी को क्या जीबन दे सकेगा? यही सब सोचकर वह एकबारगी कांप उठा। जहां उसका 'ना'शब्द प्रीति के लिये अन्याय था, वहीं 'हां' कह देना भी अपनी आत्मा पर जैसे कुल्हाड़ी मारना था। उसने सोचने के बाद कहा-"प्रीति, इसके उत्तर में मैं केबल यही कहंगा कि अपनी खुशियों को मेरे लिये मत मिटाओ....। मैं एक बदकिस्मत इन्सान हूं....मैं तुम्हें तो क्या....अपने आप को भी कुछ नहीं दे सकता। कभी कुछ नहीं दे सकता....."

“विनीत ....।" प्रीति जैसे कराहकर रह गयी।

"प्रीति, जी चाहता है कि तुम्हें अपनी बांहों में समेट लूं। तुम्हारे आंचल में मुंह छुपाकर घण्टों बैठा रहूं....तुम्हें लेकर इस समाज से, इस दुनिया से बहुत दूर निकल जाऊं लेकिन....लेकिन कितना विवश हूं मैं! प्रीति, तुम्हारा प्रेम एक आदर्श है....पूजा है....साधना है, परन्तु मैं ऐसा देवता हूं जो किसी के लिये कुछ नहीं कर सकता....किसी की भी पूजा को स्वीकार नहीं कर सकता। भूल जाओ प्रीति....मुझे, मेरे प्यार को हमेशा-हमेशा के लिये भूल जाओ। जिस स्थान को तुमने एक मन्दिर समझा था....वह केवल एक खण्डहर है....जिस इन्सान को तुमने देवता समझा था, वह पत्थर के सिवाय और कुछ भी नहीं है....." कहते-कहते आवेश में विनीत का गला भर आया। वह बहुत कुछ कहना चाहता था—परन्तु शब्द जैसे उसके कंठ में अटककर रह गये थे।

प्रीति से विनीत की मनोदशा छपी न रह सकी। उसकी विवशता को वह जानती थी। परन्तु उसका प्रेम....विनीत की प्रतीक्षा में उसने अपने अरमानों को भी जला डाला था। वह कह उठी—“समझ में नहीं आता विनीत कि जो सपने मैंने संजोये थे...उन सबको किस प्रकार से भुला दं? उन दिनों को कैसे भुल जाऊं....तुम्हें अपने हृदय से कैसे निकाल फेंकू? मैं औरत हूं....औरत के लिये पत्थर बनना कितना मुश्किल होता है, शायद इन बातों को तुम नहीं जानते।"

"जानता हूं।" विनीत बोला—“परन्तु प्रीति, बक्त के करबट बदलने से जब इन्सान जिंदा से मुर्दा बन सकता है तो क्या वह पत्थर नहीं बन सकता? सुनो, मुझे भूल जाओ....।" विनीत ने उसे पुनः समझाने का प्रयत्न किया।

“विनीत....।” चाहकर भी वह कुछ न कह सकी।

"मैं तुमसे दूर नहीं हं प्रीति....तुमसे अलग रहने की कल्पना मैं नहीं कर सकता। मैं केवल यह चाहता हूं कि मेरी वहनें मुझे मिल जायें। इसके बाद ही मैं कुछ कर सकता हूं....." कहकर विनीत ने अपने कदम आगे बढ़ा दिये।
 
कमरे से निकलते-निकलते उसके कानों में प्रीति के शब्द पड़े—“जाओ विनीत ....जाओ। शायद मेरी तपस्या अभी अधूरी है। मैं तुम्हारी पूजा करूंगी....तुम्हारी उस समय तक प्रतीक्षा करूंगी जब तक मेरे शरीर में एक भी सांस बाकी है....." सुनकर भी विनीत तेज-तेज कदमों से चलता हुआ प्रीति की आंखों से ओझल हो गया।

वह कुछ कदम चला और थककर फिर सड़क के किनारे बैठ गया। हृदय से उठने वाले भावों ने उसके मस्तिष्क-तन्तुओं को भी बिखेरकर रख दिया था। एक चाह जो सीने में तीर की तरह चुभ रही थी, बार-बार कहती, विनीत लौट चल! कोई तुझे पुकार रहा है....प्रीति प्रेम राह में पलकें बिछाये बैठी है। उसके हृदय से मत खेल विनीत। यह अन्याय होगा। बलपूर्वक वह इस आबाज को अपने से अलग कर पा रहा था। कदम भले ही जड़ हो गये थे परन्तु उसका मन इस समय भी अपने कमरे में उदास बैठी प्रीति के चारों ओर चक्कर लगा रहा था। उसके लिये अपने को संभालना काफी मुश्किल हो गया था। अधर में झूलकर रह गया वह। क्या करे, क्या न करे। एक ओर प्रेम....दूसरी ओर जिंदगी किसी मोड़ पर न थी। सामने राहें थीं....आस-पास कहीं भी मंजिल का पता न था। दूर इस दिशा से उस दिशा तक.....इस क्षितिज से उस क्षितिज तक.....जैसे तड़फ और बेचैनी के अलावा और कुछ था ही नहीं। सूनापन और अकेलापन दोनों ने मिलकर उसकी भावनाओं को बुरी तरह पीस डाला था। केवल वह आह भरकर रह गया विनीत । बैठे-बैठे भी थक गया। उठा और फिर चल दिया। जैसे कि उसकी किस्मत में चलना लिखा था। ठहराव कहीं न था। कभी वह प्रीति के विषय में सोचता और कभी अपने विषय में। इधर-उधर के विचारों ने जैसे उसे पागल बना रखा था। सहसा ही किसी गाड़ी के ब्रेक चरमराये। विनीत को एक जोरदार धक्का लगा और वह मुंह के बल सड़क पर गिर पड़ा। माथे में चोट लगी थी, वह तुरन्त ही उठने को हुआ। तभी उसके कानों में एक सुरीला स्वर पड़ा_"आपको चोट तो नहीं आयी? मैं तो हॉर्न भी दे रही थी, आपने सुना ही नहीं....।"

विनीत उठकर खड़ा हो गया। समझते देर न लगी कि वह गाड़ी का धक्का लगने से गिर पड़ा है। उसने अपने सामने खड़ी उस रूपराशि को देखा। जैसे कुशल कलाकार ने संगमरमर की मूर्ति को बनाया हो। वह अधिक क्षणों तक उसके चेहरे पर दृष्टि न जमा सका। गुलाब की पंखुड़ियों जैसे अधर फिर खुले–“आपको चोट आई है क्या?"

उसने ठंडी सांस लेकर उत्तर दिया—“आती भी तब भी क्या मेमसाहब......"

“आइये, गाड़ी में बैठिये....मैं आपको....." उस लड़की के शब्द पूरे होने से पहले ही विनीत ने कहा—“मैं हॉस्पिटल नहीं जाना चाहता....आप जाइये....।"

"तब फिर कहां जायेंगे आप? मैं आपको छोड़ दूंगी।"

“यह समझ लीजिये....कहीं भी नहीं जाऊंगा।"

“मतलब....?"

"अभी दोपहर है....इन्हीं सड़कों पर चक्कर लगाते हुये शाम हो जायेगी और फिर रात। जिंदगी का यह दायरा कभी खत्म नहीं होगा। मैं हमेशा तक इसी प्रकार से चलता रहूंगा।"

तभी लड़की का ध्यान उसके माथे पर गया, जहां से अब खून वहना शुरू हो गया था। वह तुरन्त बोली-"अरे, आपको तो चोट लगी है। माथे से खून निकल रहा है....। मैं पट्टी कराये देती हूं। आप गाड़ी में आइये।"

"क्यों मुझ गरीब के खून को देखकर परेशान होती हैं आप....।" विनीत ने कहा—“यदि दुनिया में इस तरह के खून की कोई कीमत होती तो उसे गरीब कौन कहता? मेरे लिये परेशान मत होइए। यह तो मामूली चोट है....खुद ठीक हो जायेगी।"

"देखिये मिस्टर, दार्शनिक मत बनिए। गर्मी का समय है....आपके माथे में पीड़ा बढ़ सकती है। चलिए....|" अनजाने में ही लड़की ने उसका हाथ थाम लिया। विनीत ने एक बार उस लड़की की ओर देखने का प्रयत्न किया, परन्तु साहस न जुटा सका।
उसका हाथ उस लड़की के हाथ में था। छड़ा भी न सका वह। लड़की ने फिर कहा-"आइए।" यं

त्रचलित-सा वह गाड़ी में आकर सीट पर बैठ गया। दरवाजा बन्द हुआ और गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी। “आपका नाम जान सकती हूं?" लड़की ने उसके मौन को तोड़ते हुए पूछा।
 
विनीत ने प्रीति के सामने हार मानी। फिर बोला-"मगर....प्रीति, तुम नहीं जानतीं कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं। उसके हाथों से कोई नहीं बच सकता। अपराधी चाहे कितने भी सलीके से काम करे, मगर कोई-न-कोई सबूत तो छोड़ ही जाता है। वो ही गलती मैं भी कर गया हूं। मैंने बो चाकू भी उसी में डाल दिया था। मुझे क्या पता था कि यह लाश मिल जायेगी....।"

प्रीति विनीत की बातें ध्यान से सुन रही थी। जब विनीत चुप हो गया, तब बोली-“मगर विनीत, ये तो बताओ तुमने ऐसा क्यों किया?"

विनीत ने सारी घटना प्रीति को बतायी। विनीत की बात सुनकर प्रीति के हृदय में किशोर के प्रति नफरत के भाव पैदा हो गये। तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। दस्तक की आवाज सुनकर प्रीति सहमकर बैठ गई। उसे लगा पिताजी आये होंगे। शायद पिताजी ने उसे विनीत से बात करते देख लिया होगा। विनीत ने उठकर दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उसकी सांस जैसे रुक गई। आने वाला इन्सपेक्टर सन्दीप था। “क्या आप ही विनीत हैं?"

विनीत ने बहुत धीरे से कहा- हां।" इन्सपेक्टर को देखकर विनीत के चेहरे पर हबाइयां उड़ गई। उसे अपने हाथों में हथकड़ियां दिखाई देने लगीं।

"क्या आपको पता है कि आपके मैनेजर और दोस्ताना व्यवहार अपनाने वाले आपके प्रिये किशोर की हत्या कर दी गई है....।" इन्सपेक्टर सन्दीप ने विनीत के चेहरे पर नजरें टिकाये हुए पूछा, जिससे वह विनीत के चेहरे पर आने-जाने वाले रंगों को आसानी से देख सके।

सन्दीप का स्वर सुनकर विनीत ख्यालों की दुनिया से बाहर आया और बोला—“नहीं....."

सन्दीप आगे बढ़ा, दो-तीन कदम चलकर चारपाई के करीब गया। विनीत और प्रीति उसे देख रहे थे। चारपाई पर पड़ा अखबार उठाकर खोलत हुए "लगता तो आज का ही हैं।” फ्रन्ट पर किशोर हत्या काण्ड की खबर देखकर शायद ये अखबार के पहले पृष्ठ की खबर भी तुमने भी पढ़ी होगी...क्यों?"

“जी....बो....मैंने नहीं पढ़ी यह खबर....." विनीत हकलाकर बोला।

"खैर छोड़ो! ये बताओ आज तुम ऑफिस क्यों नहीं गये?" सन्दीप सवाल पर सवाल कर रहा था।

"बस ऐसे ही तबियत जरा खराब सी हो रही थी।" विनीत ने बहाना किया।

“वैसे अब से पन्द्रह-बीस मिनट पहले तो आप बाहर घूम रहे थे।"

“जी....बो क्या है कि मन...."
 
"विनीत ।" विनीत का नाम सुनकर अर्चना को एक झटका-सा लगा। कहीं यह बही विनीत तो नहीं है? मगर उसने कहा नहीं।

“यहीं कहीं रहते हैं?"

"नहीं।"

"और फिर?"

"इस दुनिया से अलग भी एक दुनिया है। हर समय उदासी और खामोशी में डूबी हुई दुनिया। मुझ जैसे लोगों का ठिकाना बहीं होता है।” विनीत ने कहा।

“मैं कुछ समझी नहीं।"

"क्या करेंगी समझकर!" विनीत बोला—"भगबान किसी दश्मन को भी उस दनिया में न भेजे। लेकिन....जिनका कहीं ठिकाना नहीं होता, उन्हें तो कहीं न कहीं अपना आशियाना बनाना ही पड़ता है। बहुत से नहीं चाहते, फिर भी उन्हें जाना पड़ता है....."

"बड़ी अजीब-सी बातें हैं आपकी....” लड़की ने उसकी ओर देखकर कहा-"ऐसा लगता है जैसे आप दार्शनिक हों....."

विनीत खामोश रहा। वह उस लड़की की बात के उत्तर में क्या कहता। उसने उस लड़की के विषय में भी कुछ अधिक नहीं सोचा। केवल इतना ही कहा कि वह उसकी गाड़ी से टकरा गया था, अस्पताल में मरहम-पट्टी कराना उसका फर्ज था। जिस समय वह गिरा था, उस समय तो चोट मालूम न दी थी, परन्तु बाद में उसके माथे से चोट में पीड़ा होने लगी थी। खून वह नहीं रहा था बल्कि रिस रहा था। उसने अपनी उंगली से उसे पोंछा। लगभग पन्द्रह मिनट बाद लड़की ने अपनी गाड़ी को रोका, सामने एक क्लीनिक था। विनीत को अपने पीछे आने का संकेत करके वह अन्दर दाखिल हो गयी। चोट मामूली थी, कम्पाउन्डर ने माथे पर पट्टी बांध दी। लड़की उसे लेकर फिर बाहर आ गयी। "अब....?" उसने विनीत की ओर देखा। उसका अर्थ था कि अब वह उसे कहां छोड़ दे।

“जी...?"

"आपको मैं आपके घर छोड़ दूं। बताइये कहां रहते हैं आप?"

"बताया तो था....."

"कहां....?"

"दूर....ख्यालों की दुनिया में।" विनीत ने कहा—“जहां किसी के लिये कोई अपना-बेगाना नहीं होता। केबल बिचार होते हैं। कोई उन्हें अपना समझ ले या पराया।"

"इसका मतलब....कहीं आपका घर नहीं है?"

“जी।" उसने लम्बी सांस ली—"ऐसा ही है।"

लड़की को उसकी बातें बड़ी अजीब-सी लग रही थीं। विनीत समय के हाथों सताया गया इन्सान था, इतना तो वह समझ ही चुकी थी। इसके अलावा विनीत के प्रत्येक शब्द से टपकती पीड़ा से अनायास ही वह दुःखी हो उठी थी। वह धनाढ्य परिवार की लड़की थी। अभावों तथा दुःखों को उसने कभी करीब से नहीं देखा था। परन्तु आज उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे उसने भी पीड़ा को काफी निकटता से देख लिया। विनीत के प्रति उसके हृदय में सहानुभूति उमड़ आयी। केवल इसलिये नहीं कि उसकी गाड़ी से उसे चोट आयी थी बल्कि इसलिये कि विनीत के प्रत्येक शब्द में पीड़ा थी। उसने चुप्पी को तोड़ते हुये कहा-“आइए...."
 
मुझे जाने दीजिये।" विनीत बोला- चोट लगी थी....आपने पट्टी करा दी, यह ही क्या कम उपकार की बात है। मैं खुद चला जाऊंगा।"

“परन्तु जायेंगे कहां?”

"कहीं भी....इस छोर से उस छोर तक। दुनिया का अन्तिम छोर दिखलायी ही किसे देता है? जिन्दगी गुजर जायेगी, तब भी मैं उस किनारे तक नहीं पहुंच पाऊंगा। सोचता हूं....चलता रहूं....निरन्तर आगे बढ़ता रहूं।"

"क्यों....?" लड़की पूछ बैठी। उत्तर में विनीत एक खोखली हंसी हंसा और फिर बोला-"एक बात बताएंगी...आपने कभी मृग देखा है?"

"हो....चिड़ियाघर में....?"

रेगिस्तान में मृग पानी की लालसा में निरन्तर दौड़ता रहता है। उसे लगता है कि जलराशि उससे कुछ ही कदम की दूरी पर है। वह आगे बढ़ता है....पानी उससे उतनी दूर होता जाता है। थककर चूर हो जाता है वह....इसी लालसा में उसकी मौत भी हो जाती है। परन्तु पानी उसे नहीं मिलता। अब आपको प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। मैं उसी मृग की तरह भटक रहा हूं....निरन्तर आगे बढ़ रहा हूं। मंजिल कब मिलेगी, कुछ भी तो पता नहीं है। काश, मुझे पता होता....।"

लड़की खामोशी से कुछ सोचने लगी, फिर बोली-"आप मेरे साथ चलिये।"

"आपके साथ..." विनीत चौंका।

"हां....आपको कोई कष्ट नहीं होगा। यदि मैं आपके लिये कुछ कर सकूँगी तो मुझे खुशी होगी....आइए चलिए....।"

"आप....आप....।" विनीत केबल हकलाकर रह गया।

"मुझे अर्चना कहते हैं।"

"क्या?" वह चौंका फिर पुनः बोला—"मेरा मतलब था....मुझ गरीब पर इतनी कृपा? लोग तो गरीबों की छाया मात्र से नफरत करते हैं। उन्हें मैले और फटे कपड़ों की बीमारियां-सी नजर आती हैं।"

“मिस्टर विनीत।" अर्चना बोली-"इस समय मैं न तो ऊंचे वर्ग में हं और ना ही कुछ और। मैं आपको एक सामान्य दृष्टि से देख रहा हूं। न जाने क्यों....न जाने क्यों...."

"रुक गयीं आप तो....।"

"न जाने क्यों आपकी बातें सुनकर मन दुःखी-सा हो गया है। आप मेरे साथ नहीं चलेंगे तो दिल पर एक बोझ-सा रहेगा....काफी समय तक नहीं उतार पाऊगी उसे....."

“बोझ....."

"हां, उसी दुःख का।”

"अर्चना जी।" विनीत ने उसे उसके नाम से सम्बोधित किया—“मेरे दुःख को महसूस मत कीजिये....मैं एक बदकिस्मत इंसान हूं।"

"ओह....."

"मुझे कभी कुछ भी नहीं मिल सका....मैं किसी को भी कुछ नहीं दे सका....."

"आप गाड़ी में बैठिये।” अर्चना ने अपनी रिस्टवाच पर दृष्टि डालते हये कहा। विनीत ने तनिक दृष्टि उठाकर उसके चेहरे की ओर देखा। अर्चना पहले से ही उसकी ओर देख रही थी, नजरें टकराई तो वह झेंप गया। अर्चना ने फिर कहा तो वह चाहकर भी इन्कार न कर सका और गाड़ी में बैठ गया। यहां यह भी कहना अनुचित न होगा कि भूख का समय था। विनीत के मन में खाने वाली बात भी आई थी। अर्चना ने दरवाजा बन्द करने के बाद गाड़ी को स्टार्ट कर दिया। रास्ते भर खामोशी ही रही। अर्चना विभिन्न पहलुओं से रास्ते भर उसके विषय में सोचती रही। उसके विचार में विनीत किसी से प्रेम करता होगा। लड़की ने उसके दिल को तोड़ा होगा। इससे अधिक वह उसके बारे में न सोच सकी।
 
अर्चना की गाड़ी ने कोठी के मुख्य द्वार पर तनिक झटका खाया। दरबान ने तुरन्त ही गेट को खोल दिया और अदब से एक ओर को खड़ा हो गया। उसने गाड़ी को अन्दर ले जाकर गैरेज के सामने रोक दिया। वह उतरी तो विनीत भी गाड़ी से बाहर आ गया। अर्चना ने बरामदे से गुजरते हुये एक नौकर को कुछ आदेश दिया और विनीत को लेकर वह एक कमरे में आ गयी। विनीत को आश्चर्य हआ। इतनी बड़ी कोठी में उसे नौकरों के अलावा और कोई भी दिखलायी न दिया। थोड़ी देर बाद ही नौकर ट्रे लेकर उपस्थित हुआ। ट्रे में शरबत के दो गिलास थे। नौकर के जाने के बाद अर्चना ने एक गिलास को उसकी ओर बढ़ाया। विनीत गुम-सुम बैठा था। अर्चना ने ध्यान तोड़ा-“लीजिये...."

“जी।" वह जैसे चौंका—“इसकी क्या जरूरत थी?"

"बिना किसी जरूरत के ही सही।"

विनीत ने शर्बत का गिलास उठाकर होठों से लगा लिया। ऐसी गर्मी में शर्बत से उसे काफी राहत मिली थी। खाली गिलास को उसने मेज पर रख दिया। अर्चना भी अपना गिलास खाली कर चुकी थी। विनीत ने अपने मन की बात पूछ ही ली। "इतनी बड़ी कोठी में आप अकेली ही रहती हैं क्या?"

"और....?"

"और मैं....नौकर-चाकर....."

"मम्मी ....?"

"कभी सूरत नहीं देखी।" सुनकर विनीत को दुःख हुआ। उसकी दुनिया भी तो मां के बिना सूनी थी। परन्तु उसने मां का प्यार पाया था। लम्बी खामोशी में उसने सोचा, पता नहीं अर्चना उसके विषय में क्या सोच बैठे। पेट में भूख अवश्य थी, फिर भी वह औपचारिकतावश बोला-"अच्छा तो अर्चना जी....मैं चलं....।"

"चलूं! कहां....?"

"बार-बार पूछ रही हैं आप तो? मैं तो आपसे बता ही चुका हूं कि इस दुनिया में मेरे लिये कोई ठिकाना नहीं है।"

“बिश्वास नहीं होता कि आपकी इस बात में सच्चाई होगी।"

"क्यों?"

"कोई पंछी भी बिना आशियाने के नहीं रहता।"

"पंछी और इन्सान में फर्क होता है अर्चना जी।" विनीत बोला-"वह आजाद होता है। जब इच्छा होती है तो आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगता है....। जब चाहता है तो कहीं भी बैठकर अपना मन वहलाने लगता है। उसके जीवन में अशांति और पीड़ा होती ही नहीं। उसकी राह में कोई बंधन नहीं होता। और इन्सान, कितना बिवश होता है वह! प्रकृति उसे बनाकर भाग्य के हाथों में सौंप देती है। उसके जीवन पर किसी दूसरी शक्ति का अधिकार होता है। शायद उसके वश में कुछ भी तो नहीं होता।"

"शायद ठीक कहते हैं आप।” उसके तर्क को सुनकर अर्चना इसके अलावा और कुछ न कह सकी।

"अर्चना जी।" विनीत ने कहा—“यदि मेरा कहीं ठिकाना होता तो आज मैं किसी दूसरे रूप में ही होता। खैर, जीते तो सभी ही हैं। वे भी जिनके पास सब कुछ होता है....और बे भी जिनके पास कुछ भी नहीं होता।"

"तब फिर मेरी मानिये...."

“कहिये....!"

"इतनी बड़ी कोठी है, मैं आपको एक कमरा दे दूंगी।"

“इससे क्या होगा?"

"ठहराबा" अर्चना बोली-"आप जो राहों पर भटक रहे हैं, ऐसा करने से आपकी जिन्दगी एक ही स्थान पर रुककर रह जायेगी।"

"परन्तु मन....भावनायें, इन्हें कैसे रोक पाऊंगा मैं? मेरे अपने जो कहां खो गये हैं....उनको कैसे भूल पाऊंगा। यह सब तो अपने वश में नहीं होता।"

"कोशिश करेंगे तो यह भी सम्भव हो जायेगा। हां....आप बाथरूम हो आइये, नौकर खाना लाता होगा। पहले अपने आप को बदलिये....मन भी धीरे-धीरे बदल जायेगा....." कहकर अर्चना उठी और कमरे से बाहर चली गयी। थोड़ी देर बाद लौटी तो उसके हाथ में शेव बनाने का सामान था, जिसे उसने मेज पर रख दिया। "शेव बनाकर स्नान कर लीजिये। नौकर ने आपके कपड़े बाथरूम में रख दिये हैं। मैं जरा एक फोन कर दूं।" अर्चना बापिस जाने लगी, परन्तु उसने रुककर फिर कहा-"पट्टी भीगने न पाये, नहाते समय ध्यान रखना।" अर्चना बाहर चली गयी।
 
विनीत की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे? सहसा ही मेज पर रखे आइने पर उसकी दृष्टि पड़ी। सचमुच बढ़ी हुई शेव के कारण उसकी शक्ल राक्षसों जैसी लग रही थी। पता नहीं अर्चना ने उसे पागल समझा होगा या फिर भिखारी। कैसी हालत बना रखी है उसने! वह जैसे स्वयं पर क्रोधित हुआ।

काफी देर तक असमंजस में बैठा रहा। वह चौंका जब नौकर मेज पर शेव बनाने के लिये पानी रखने आया। उसके जाने के बाद उसने शेब बनाई। नौकर फिर उपस्थित हुआ। आते ही बोला—"आपको बाथरूम तक पहुंचा दूं....."

"चलो।" उठकर वह बाथरूम पहुंचा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अर्चना ने उसके पहनने के लिये कुरता पाजामा रखवा दिया था। कितने गंदे हो गये थे उसके कपड़े! बिल्कुल किसी भिखारी जैसे। नहाकर वह बाहर निकला। गंदी पैंट और शर्ट उसने हाथ में ले रखी थी। जब वह कमरे में दाखिल हुआ तो अर्चना को बैठे पाया।

गंदे कपड़ों को हाथ में देखकर वह तुरन्त बोली-"इन्हें क्यों ले आये आप?"

“बाथरूम में कपड़े धोने बाला साबुन न था, अन्यथा धोकर डाल देता।”

"मेरा मतलब यह नहीं था....आपको इन कपड़ों को वहीं छोड़ देना चाहिये था।"

"जी....." वह केवल इतना ही कह सका। नौकर खाने के लिये पूछने आया था। अर्चना ने नौकर को आदेश दिया–“सुनो, इन कपड़ों को ले जाओ। खाना जल्दी ले आना।" नौकर चला गया।

विनीत दर्पण के सामने खड़ा होकर बाल संवारने लगा। जब वह पलटा तो उसे देखते ही अर्चना मुस्करा उठी, बोली-“देखा आपने!"

“जी...."

“अब कैसे लग रहे हैं आप! आपने भी अपने आपको किस रूप में ढाल रखा था....."

"केबल कपड़े ही तो बदल डाले हैं अर्चना जी....।" विनीत बोला—मन की उदासी और खामोशी तो इस समय भी वही है।"

"बदलने वाले तो दुनिया को भी बदल डालते हैं।"

"शायद....परन्तु उनके पास कुछ तो होता है....किसी किनारे पर तो होते हैं बे! और जो इंसान नदी की बीच धारा में खड़ा हो, जिसके लिये स्वयं ही सम्भल पाना कठिन हो रहा हो....वह....वह क्या कर सकेगा?"

अर्चना उसके प्रश्न का कोई उत्तर न दे सकी तो उसे खामोश हो जाना पड़ा। उसने विनीत के चेहरे को देखकर यह नतीजा निकाला कि विनीत किसी अच्छे घराने का व्यक्ति होना चाहिये। खामोशी के उन्हीं क्षणों में नौकर ने उसी मेज पर खाना लगा दिया। विनीत और अर्चना खाने लगे। खाने के बाद अर्चना ने एक अजीब-सा प्रश्न पूछा-"शादी हो गई आपकी?"

“नहीं।” उसने शांत स्वर में उत्तर दिया।

“यानि अभी तक....." अर्चना ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा।

जी।" विनीत बोला_"परन्तु इसमें चौंकने वाली क्या बात है? बहुत से तारे उदय होने से पहले ही काली घटाओं से ढक जाते हैं....बहुत सी खुशियां गालों पर तैरने से पहले ही आंसुओं में बदल जाती हैं....न जाने कितनों की जिन्दगी सांस लेने से पहले ही कब्र में दफन कर दी जाती है। सभी कुछ अपने वश में तो नहीं है....?"

"समझ में नहीं आता कि आपकी बास्तबिकता क्या है?" अर्चना ने एक लम्बी सांस ली
- "आप अच्छे-खासे इन्सान होकर भी मुर्दो जैसी बातें करते हैं।"

"मुर्दो जैसी बातें!" विनीत धीरे से हंसा-"मुर्दे भी कहीं बोलते हैं क्या?"
 
"मेरा मतलब था...जैसे आपके अन्दर का इन्सान मर चुका हो।"

"ठीक कहती हैं आप।" विनीत सहसा फिर गम्भीर हो गया—“यदि आप मुझे मुर्दा ही समझें तब और भी ठीक रहेगा। सच्चाई यही है कि आज मैं जिंदा नहीं हूं। कुछ सांसें जरूर हैं....वे भी बोझिल। जीते हुये बोझ-सा महसूस होता है।"

"क्यों....?" अर्चना ने पूछ लिया।

"शायद इसलिये कि मैं अपना सब कुछ खो बैठा हूं!" फिर लम्बी खामोशी। विनीत उठकर खड़ा हो गया और बोला- मेरे पुराने कपड़े दिलवा दीजिये अर्चना जी, मैं चलूंगा....."

"आप कहीं नहीं जायेंगे।" स्वर में जैसे अधिकार था।

"क्यों रोक रही हैं आप?"

“मिस्टर विनीत !" अर्चना बोली-"आपकी प्रत्येक बात में...प्रत्येक शब्द में एक रहस्य-सा छुपा है। जी चाहता है कि आपसे लगातार प्रश्न करती रहूं....मैं आपके विषय में कुछ नहीं जानती हूं। विश्वास कीजिये, यदि आप अपने विषय में कुछ बताये बिना ही यहां से चले गये तो मैं पता नहीं कितने दिनों तक बेचैन रहूंगी....आपके विषय में सोचती रहूंगी।"

"तब फिर क्या चाहती हैं आप?"

"आपके विषय में सब कुछ जानना।"

"क्या इतना ही काफी नहीं होगा कि मैं मुसीबतों का मारा हुआ इन्सान हूं? मेरा दुनिया में अपना कोई नहीं है।"

"नहीं....!"

"तब फिर क्या बताऊं आपसे?"

"अपने गुजरे बक्त की कहानी।"

विनीत खामोश हो गया। सोचने लगा, उसके दुःख को देखकर अर्चना को उससे हमदर्दी हो गई है। वह उसके विषय में जानने को उत्सुक है। परन्तु जब उसे इस बात का पता चलेगा कि वह लम्बे समय की सजा काटकर आया है....उसने किसी व्यक्ति का खून किया है, तब निश्चय ही अर्चना उससे नफरत करने लगेगी। परन्तु उसे प्रेम और नफरत से क्या? उसे यहां रहना थोड़े ही है। वह तो यहां से चला जायेगा। उसे अपने विषय में बता देना चाहिये। मगर शायद वह नहीं जानता था कि-अर्चना समझ चुकी है कि वह उसका बही विनीत है जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती रही है। मगर वह जाहिर नहीं कर सकी क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि विनीत फिर उसे छोड़कर चला जाये। विनीत ने उसे अपने विषय में बताया। यह सुनकर अर्चना किन्हीं विचारों में गुम हो गयी। विनीत की कहानी सुनकर उसका अन्तर्मन भी आन्दोलित हो उठा था....उसे भी पीड़ा का आभास हुआ था। विनीत के हाथों मैनेजर का खून हो गया था, यह जानकर भी उसे उससे तनिक भी नफरत न हुई थी। क्योंकि वह उसे सच्चा प्रेम करती थी। विनीत ने उसकी खामोशी का दूसरा ही अर्थ लगाया। उसने सोचा, अर्चना के हृदय में उसके प्रति जो सहानुभूति थी, वह अब गायब हो चुकी थी। संभव है अब वह उसे यहां से जाने के लिये भी कह दे। क्यों न वह उसके कहने से पूर्व चला जाये। यही सोचकर वह फिर उठकर खड़ा हो गया तथा अर्चना के कुछ कहने से पहले ही बोला ____"अर्चना जी, उस समय जो स्थिति मेरे सामने थी, उस स्थिति में प्रत्येक दूसरा इन्सान वहीं करता जो मैंने किया था। मेरी वहन की इज्जत पर हाथ डालने वाला इन्सान जिन्दा रहता, इस बात को मैं सहन नहीं कर सकता था। यदि उस समय एक के स्थान पर दो खून करने वाली स्थिति भी आती, तब भी मैं करता....। मैंने अदालत में अपने जुर्म को स्वीकार किया था। मेरा विचार था कि मुझे फांसी हो जायेगी अथवा जिन्दगी के तमाम दिन जेल की दीवारों में ही बिताने होंगे। परन्तु अदालत ने सारी स्थिति को गौर करने के बाद मुझे फांसी नहीं दी। मेरे कहने का मतलब कुछ और है अर्चना जी...."

"वह क्या....?" अर्चना ने पूछा।

"मेरे यहां से जाने के बाद मेरे प्रति कोई गलत धारणा मत बनाना।"

"ओह....." हताशा में उसके मुंह से निकल गया।

"मेरे कपड़े....."

"आप अब यही रहेंगे।"
"क्या मतलब?"

"मैं पापा से कह दूंगी....बे आपके लिये कोई काम खोज देंगे। रही आपकी वहनों की बात....उसके लिये भी मैं पापा से कह दूंगी। वायदा तो नहीं कर सकती, परन्तु सुधा और अनीता को खोजने में मैं कोई कसर नहीं उठा रचूंगी।"

"मुझ गरीब पर इतनी कृपा?"

"महज इसलिये कि यदि गिरने वाले को कोई सम्भालने वाला न हो तो वह गिरकर चूर चूर हो जाता है। उसमें जिन्दा रहने की शक्ति नहीं रहती....."

"समझ में नहीं आता अर्चना जी....आपको क्या कहूं....."

"तुम।” अर्चना बोली- मैं आपसे उम्र में छोटी हूं। तुम कहिए....."

“जी...?" वह कुछ चौंका।
 
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