hotaks444
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[font=Roboto, Verdana, Helvetica, Arial, sans-serif]लेखक:- राजवीर/सतीश
मेरा अपने नये पाठकों से विनम्र निवेदन है कि कहानी से ठीक से तारतम्य बिठाने के लिए पहले मेरी पुरानी कहानि को एक बार पढ़ लें. कहानि पहले पढ़ लेने से आप को नयी कहानी का ज्यादा आनंद आयेगा, यूं नहीं भी पढ़ेंगे तो भी चलेगा.
!!अस्तु!!
!इति श्री पुरानी-कथा पुराण!
ख़ुशगवार अहसासों के जादुई रेशमी स्पर्श के बाद, हक़ीक़त की ख़ुरदरी सच्चाइयों का सामना करना वाकई में बहुत ही बेचैनी भरा होता है लेकिन इन सब के बीच जिंदगी मुतवातर अपने रास्ते पर आगे बढ़ती रहती है, मेरी भी बढ़ रही थी. जिंदगी के इस अनवरत प्रवाह में अभी बहुत सारे नए किस्सों ने आकार लेना है, अभी जाने कितने नये अफ़सानों की बुनियाद रखी जानी है, अभी कितनी जानी-अनजानी प्रेमगाथाओं ने मानव-इतिहास में अमर होना है लेकिन ये सब तो अभी नियति की कोख में भविष्य में सृजन होने की प्रक्रिया की कसौटी पर कसे जा रहे हैं.
प्रस्तुत कहानी ऐसी ही एक कथा का वर्णन है जिसका बीजारोपण तो अनजाने में कई साल पहले ही हो गया था लेकिन उस बीज़ को प्राणवायु प्रिया की शादी-समारोह में ही मिली. मेरी इस रचना में नायक-नायिका के मिलते ही काम-क्रिया में लिप्त हो जाना पसंद करने वाले पाठकों को वैसा ना हो पाने के सारांश में कोफ़्त तो बहुत होगी लेकिन जो पाठक काम-कथा में भावनात्मक और रचनात्मक आवेगों के गुण-ग्राहक हैं उन्हें ये कहानी खूब भायेगी … ऐसा मेरा विश्वास है.
एक बार फिर से अपने अफ़साने के सच्चा-झूठा होने का फैसला मैंने अपने पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है, अगर आप का मन इस को सच मानता है तो इसे सच जानें, अगर आपका मन इसको काल्पनिक मानता है तो इसे काल्पनिक ही मानें.
पेशे-ख़िदमत है एक अद्धभुत प्रेम-कथा के बीज के सालों पहले धूल-धूसरित होने और फिर कालांतर में उसमें से अंकुर पल्लवित होने से लेकर फ़ल के पकने और उस फ़ल की अद्धभुत लज़्ज़त चखने तक की … कच्चे-पक्के जज़्बातों और आधे-अधूरे अहसासों की पूरी दास्तान......सतीश
प्रिया से सपनों के साकार होने जैसे हसीन मिलन की रात के बाद से तो दिन ऐसे पंख लगा कर उड़े कि कब प्रिया की शादी सर पर आन पहुंची … पता ही नहीं चला. चूँकि मेरा घर प्रिया के मायके और ससुराल वाले घर के ऐन सेंटर में पड़ता था और शादी वाला होटल-कम-बैंक्वेट हॉल जोकि मेरे ही एक जानकार का था और जिसे मैंने बहुत कम पैसों में बुक करवा कर दिया था, वो भी मेरे घर से सिर्फ कोई एक-डेढ़ किलोमीटर दूर था. लिहाज़ा! प्रिया की शादी में सेंट्रल-पॉइंट मेरा ही घर था.
यूं तो मैं भाग-भाग कर जिम्मेवारी से प्रिया की शादी के काम निपटा रहा था लेकिन बार-बार मेरे दिल में प्रिया के मुझ से दूर चले जाने का सोच कर ही हूक़ सी उठती थी पर प्यार की रिवायत तो यही थी कि दिल का दर्द, दिल ही में रखना पड़ता है.
बकौल शायर ज़नाब सुदर्शन फ़ाकिर साहब
“होठों पे तबस्सुम हल्का-सा, आंखों में नमी सी ऐ ‘फ़ाकिर’ …
हम अहले-मुहब्बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं.”
प्रिया और मेरे सम्बन्धों के बारे में मेरी कहानी
हसीन गुनाह की लज्जत[/font]
मेरा अपने नये पाठकों से विनम्र निवेदन है कि कहानी से ठीक से तारतम्य बिठाने के लिए पहले मेरी पुरानी कहानि को एक बार पढ़ लें. कहानि पहले पढ़ लेने से आप को नयी कहानी का ज्यादा आनंद आयेगा, यूं नहीं भी पढ़ेंगे तो भी चलेगा.
!!अस्तु!!
!इति श्री पुरानी-कथा पुराण!
ख़ुशगवार अहसासों के जादुई रेशमी स्पर्श के बाद, हक़ीक़त की ख़ुरदरी सच्चाइयों का सामना करना वाकई में बहुत ही बेचैनी भरा होता है लेकिन इन सब के बीच जिंदगी मुतवातर अपने रास्ते पर आगे बढ़ती रहती है, मेरी भी बढ़ रही थी. जिंदगी के इस अनवरत प्रवाह में अभी बहुत सारे नए किस्सों ने आकार लेना है, अभी जाने कितने नये अफ़सानों की बुनियाद रखी जानी है, अभी कितनी जानी-अनजानी प्रेमगाथाओं ने मानव-इतिहास में अमर होना है लेकिन ये सब तो अभी नियति की कोख में भविष्य में सृजन होने की प्रक्रिया की कसौटी पर कसे जा रहे हैं.
प्रस्तुत कहानी ऐसी ही एक कथा का वर्णन है जिसका बीजारोपण तो अनजाने में कई साल पहले ही हो गया था लेकिन उस बीज़ को प्राणवायु प्रिया की शादी-समारोह में ही मिली. मेरी इस रचना में नायक-नायिका के मिलते ही काम-क्रिया में लिप्त हो जाना पसंद करने वाले पाठकों को वैसा ना हो पाने के सारांश में कोफ़्त तो बहुत होगी लेकिन जो पाठक काम-कथा में भावनात्मक और रचनात्मक आवेगों के गुण-ग्राहक हैं उन्हें ये कहानी खूब भायेगी … ऐसा मेरा विश्वास है.
एक बार फिर से अपने अफ़साने के सच्चा-झूठा होने का फैसला मैंने अपने पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है, अगर आप का मन इस को सच मानता है तो इसे सच जानें, अगर आपका मन इसको काल्पनिक मानता है तो इसे काल्पनिक ही मानें.
पेशे-ख़िदमत है एक अद्धभुत प्रेम-कथा के बीज के सालों पहले धूल-धूसरित होने और फिर कालांतर में उसमें से अंकुर पल्लवित होने से लेकर फ़ल के पकने और उस फ़ल की अद्धभुत लज़्ज़त चखने तक की … कच्चे-पक्के जज़्बातों और आधे-अधूरे अहसासों की पूरी दास्तान......सतीश
प्रिया से सपनों के साकार होने जैसे हसीन मिलन की रात के बाद से तो दिन ऐसे पंख लगा कर उड़े कि कब प्रिया की शादी सर पर आन पहुंची … पता ही नहीं चला. चूँकि मेरा घर प्रिया के मायके और ससुराल वाले घर के ऐन सेंटर में पड़ता था और शादी वाला होटल-कम-बैंक्वेट हॉल जोकि मेरे ही एक जानकार का था और जिसे मैंने बहुत कम पैसों में बुक करवा कर दिया था, वो भी मेरे घर से सिर्फ कोई एक-डेढ़ किलोमीटर दूर था. लिहाज़ा! प्रिया की शादी में सेंट्रल-पॉइंट मेरा ही घर था.
यूं तो मैं भाग-भाग कर जिम्मेवारी से प्रिया की शादी के काम निपटा रहा था लेकिन बार-बार मेरे दिल में प्रिया के मुझ से दूर चले जाने का सोच कर ही हूक़ सी उठती थी पर प्यार की रिवायत तो यही थी कि दिल का दर्द, दिल ही में रखना पड़ता है.
बकौल शायर ज़नाब सुदर्शन फ़ाकिर साहब
“होठों पे तबस्सुम हल्का-सा, आंखों में नमी सी ऐ ‘फ़ाकिर’ …
हम अहले-मुहब्बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं.”
प्रिया और मेरे सम्बन्धों के बारे में मेरी कहानी
हसीन गुनाह की लज्जत[/font]