hotaks444
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वसुन्धरा के पैरों के तलवे गहरे गुलाबी रंग के, गद्दीदार और वलय वाले थे और पैरों की सारी उंगलियां रोमरहित एवं समानुपात में थी. वात्सायन के अनुसार ऐसे पैरों वाली स्त्रियां बौद्धिक रूप से अत्यंत विकसित, प्राकृतिक तौर पर संकीर्णयोनि अर्थात तंग योनि वाली, पति को सुख देने वाली प्राण-प्रिया और उत्तम संतान को जन्म देने वाली होती हैं.
पर हाल की घड़ी तो यहां अपनी ही जान के लाले पड़े हुए थे. वसुन्धरा लहंगे के बीचों-बीच उठकर खड़ी हो गयी.
सबसे मुश्किल आजमायश का वक़्त आन पहुंचा था. मुझे वसुन्धरा के पैरों तक झुक कर जमीन से लहंगे का नाड़े वाला हिस्सा ऊपर की ओर लाना था. हाथ में लहंगा ले कर खुद सीधे होने की प्रक्रिया में मेरा मुंह और मेरी आँखें, न होने के जैसी छोटी सी पेंटी के पीछे वसुन्धरा की झिलमिलाती योनि से चंद इंच ही दूरी पर होनी थी. तब मैं नारी-शरीर के उस गोपनीय और विशेष अंग की झलक पा रहा होऊंगा जिसको कोई भारतीय नारी चाँद-सूरज तक के आगे भी वस्त्रविहीन नहीं करती.
और खतरा सबसे ज्यादा वहीं था कि कहीं मैं अपना आपा ना खो बैठूं. वसुन्धरा ‘न’ नहीं कहेगी, ऐसा मुझे पता था लेकिन यही तो मेरे सब्र, मेरी शराफत, मेरे सदाचार की सबसे बड़ी परीक्षा थी जिसमें मैंने सफल हो कर दिखाना ही था.
मैंने अपने कांपते हाथों को स्थिर किया और जमीन पर पड़ा लहंगा हौले-हौले ऊपर उठाना शुरू किया, वसुन्धरा की जांघों के जोड़ के बीच में भी स्पंदन हो रहा था. पेंटी का कपड़े वाला हिस्सा मंथर गति से धड़क रहा था और योनि की दरार के आस-पास पेंटी का गुलाबी साटन कुछ-कुछ सील कर(नमी युक्त होकर) गहरे रंग का दिख रहा था.
नारी-योनि का यह स्पंदन, यह योनि-स्त्राव, नारी-शरीर के ये लक्षण, सब मेरे जाने-पहचाने थे.
स्थिति वाक़ई में बहुत विस्फोटक थी. मुझे बहुत ही सतर्क रहने की आवश्यकता थी. वसुन्धरा की काम-ज्वाला वाला पैमाना भी बस छलकने को ही था.
मेरी एक छोटी सी लापरवाही जैसे वसुन्धरा के उरोजों पर मेरी सिर्फ एक गर्म सांस या उसकी योनि के इर्द-गिर्द मेरी हथेली की एक हल्की सी रगड़ या उसके कूल्हों पर मेरी उँगलियों का उचटता सा स्पर्श वसुन्धरा को बेक़ाबू कर सकता था … और मैं ऐसा हरगिज़ हरगिज़ नहीं चाहता था.
मैंने पूर्ण सावधानी बरतते हुए लहंगा वसुन्धरा के कटिप्रदेश तक पंहुचाया. सबसे मुश्किल इम्तिहान की घड़ी निकल चुकी थी. जैसे ही मैं सीधा खड़ा हुआ तो मैंने पाया कि वसुन्धरा ने अपनी आँखें कस के बंद कर रखी हैं और उसकी साँसों की गति अस्त-व्यस्त है. उसके होंठों में रह-रह कर थिरकन सी हो रही थी और अपने होंठ को न थिरकने देने के लिए जूझती वसुन्धरा की ठुड्डी की सतह रह-रह कर गड्डे से बन-बिगड़ रहे थे.
“वसुन्धरा!” फिर नाम के साथ ‘जी’ गायब.
“हूँ…” दूर कहीं वादियों में से जैसे गूंज आयी हो.
“यहीं नाड़ा कस दूँ?” मैंने लहंगे को कूल्हे की बाहर को उभरी हड्डियों के ज़रा सा ऊपर टिका कर पूछा.
“जी!” वसुन्धरा तो बेखुद सी थी.
मैंने नाड़ा कसा और वहीं गाँठ लगा दी. वसुन्धरा की आँखें अभी भी बंद थी अलबत्ता होंठों में सिहरन थोड़ी कम हो गयी थी.
“ठीक हो गया … वसुन्धरा जी!”
” हूँ …! ” फिर वही बेपरवाही भरी बेखुदी.
मैंने थोड़ा परे हट कर वसुन्धरा को निहारा. सब ठीक ही लग रहा था.
लेकिन जैसे ही मैंने वसुन्धरा को पीछे घूम कर देखा तो पाया कि वसुन्धरा की चुनरी, वसुन्धरा की पीठ की ओर से लँहगे के अंदर फंसी हुई थी.
ओहो … भारी जड़ाऊ काम वाली चुनरी खींच कर या झटके से तो निकाली नहीं जा सकती थी.
मतलब ये कि लहँगे का नाड़ा दोबारा खोल कर, लहँगा ढीला कर के चुनरी बाहर निकालनी थी और नाड़ा दोबारा बाँधना था.
इसमें वसुन्धरा का वर्तमान मूड सरासर खतरे की घंटी था. एक बार तो वो जैसे-तैसे ज़ब्त कर गयी, दोबारा शायद न कर पाए. लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं था. मैंने वसुन्धरा के सामने खड़े हो कर वसुन्धरा के लहंगे के नाड़े को जैसे ही खोला, वसुन्धरा ने फ़ौरन अपनी आँखें खोल ली और सवालिया निगाहों से मेरी ओर देखा.
“क्या वसुन्धरा जी! आप की चुनरी पीछे से लहंगे के अंदर फंसी थी और आपको पता ही नहीं … वही निकालनी है.”
वसुन्धरा बोली तो कुछ नहीं … अपितु उस के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आ गयी.
मैंने लहँगे का नाड़ा थोड़ा ढीला किया और अपने दाएं हाथ में नाड़े के दोनों छोर पकड़ कर अपना बायां हाथ बायीं ओर से वसुन्धरा के पीछे लेजा कर चुनरी को एक हल्का सा झटका दिया लेकिन चुनरी जस की तस! जरूर जड़ाऊ काम के सितारे-मोती, लहँगे के अंदर कहीं न कहीं फंस रहे थे.
लहंगा और ढीला हो नहीं सकता था और मैं घूम कर पीछे नहीं जा सकता था क्योंकि मैंने दाएं हाथ में लहंगे के नाड़े के दोनों सिरे थामे हुये थे.
पर हाल की घड़ी तो यहां अपनी ही जान के लाले पड़े हुए थे. वसुन्धरा लहंगे के बीचों-बीच उठकर खड़ी हो गयी.
सबसे मुश्किल आजमायश का वक़्त आन पहुंचा था. मुझे वसुन्धरा के पैरों तक झुक कर जमीन से लहंगे का नाड़े वाला हिस्सा ऊपर की ओर लाना था. हाथ में लहंगा ले कर खुद सीधे होने की प्रक्रिया में मेरा मुंह और मेरी आँखें, न होने के जैसी छोटी सी पेंटी के पीछे वसुन्धरा की झिलमिलाती योनि से चंद इंच ही दूरी पर होनी थी. तब मैं नारी-शरीर के उस गोपनीय और विशेष अंग की झलक पा रहा होऊंगा जिसको कोई भारतीय नारी चाँद-सूरज तक के आगे भी वस्त्रविहीन नहीं करती.
और खतरा सबसे ज्यादा वहीं था कि कहीं मैं अपना आपा ना खो बैठूं. वसुन्धरा ‘न’ नहीं कहेगी, ऐसा मुझे पता था लेकिन यही तो मेरे सब्र, मेरी शराफत, मेरे सदाचार की सबसे बड़ी परीक्षा थी जिसमें मैंने सफल हो कर दिखाना ही था.
मैंने अपने कांपते हाथों को स्थिर किया और जमीन पर पड़ा लहंगा हौले-हौले ऊपर उठाना शुरू किया, वसुन्धरा की जांघों के जोड़ के बीच में भी स्पंदन हो रहा था. पेंटी का कपड़े वाला हिस्सा मंथर गति से धड़क रहा था और योनि की दरार के आस-पास पेंटी का गुलाबी साटन कुछ-कुछ सील कर(नमी युक्त होकर) गहरे रंग का दिख रहा था.
नारी-योनि का यह स्पंदन, यह योनि-स्त्राव, नारी-शरीर के ये लक्षण, सब मेरे जाने-पहचाने थे.
स्थिति वाक़ई में बहुत विस्फोटक थी. मुझे बहुत ही सतर्क रहने की आवश्यकता थी. वसुन्धरा की काम-ज्वाला वाला पैमाना भी बस छलकने को ही था.
मेरी एक छोटी सी लापरवाही जैसे वसुन्धरा के उरोजों पर मेरी सिर्फ एक गर्म सांस या उसकी योनि के इर्द-गिर्द मेरी हथेली की एक हल्की सी रगड़ या उसके कूल्हों पर मेरी उँगलियों का उचटता सा स्पर्श वसुन्धरा को बेक़ाबू कर सकता था … और मैं ऐसा हरगिज़ हरगिज़ नहीं चाहता था.
मैंने पूर्ण सावधानी बरतते हुए लहंगा वसुन्धरा के कटिप्रदेश तक पंहुचाया. सबसे मुश्किल इम्तिहान की घड़ी निकल चुकी थी. जैसे ही मैं सीधा खड़ा हुआ तो मैंने पाया कि वसुन्धरा ने अपनी आँखें कस के बंद कर रखी हैं और उसकी साँसों की गति अस्त-व्यस्त है. उसके होंठों में रह-रह कर थिरकन सी हो रही थी और अपने होंठ को न थिरकने देने के लिए जूझती वसुन्धरा की ठुड्डी की सतह रह-रह कर गड्डे से बन-बिगड़ रहे थे.
“वसुन्धरा!” फिर नाम के साथ ‘जी’ गायब.
“हूँ…” दूर कहीं वादियों में से जैसे गूंज आयी हो.
“यहीं नाड़ा कस दूँ?” मैंने लहंगे को कूल्हे की बाहर को उभरी हड्डियों के ज़रा सा ऊपर टिका कर पूछा.
“जी!” वसुन्धरा तो बेखुद सी थी.
मैंने नाड़ा कसा और वहीं गाँठ लगा दी. वसुन्धरा की आँखें अभी भी बंद थी अलबत्ता होंठों में सिहरन थोड़ी कम हो गयी थी.
“ठीक हो गया … वसुन्धरा जी!”
” हूँ …! ” फिर वही बेपरवाही भरी बेखुदी.
मैंने थोड़ा परे हट कर वसुन्धरा को निहारा. सब ठीक ही लग रहा था.
लेकिन जैसे ही मैंने वसुन्धरा को पीछे घूम कर देखा तो पाया कि वसुन्धरा की चुनरी, वसुन्धरा की पीठ की ओर से लँहगे के अंदर फंसी हुई थी.
ओहो … भारी जड़ाऊ काम वाली चुनरी खींच कर या झटके से तो निकाली नहीं जा सकती थी.
मतलब ये कि लहँगे का नाड़ा दोबारा खोल कर, लहँगा ढीला कर के चुनरी बाहर निकालनी थी और नाड़ा दोबारा बाँधना था.
इसमें वसुन्धरा का वर्तमान मूड सरासर खतरे की घंटी था. एक बार तो वो जैसे-तैसे ज़ब्त कर गयी, दोबारा शायद न कर पाए. लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं था. मैंने वसुन्धरा के सामने खड़े हो कर वसुन्धरा के लहंगे के नाड़े को जैसे ही खोला, वसुन्धरा ने फ़ौरन अपनी आँखें खोल ली और सवालिया निगाहों से मेरी ओर देखा.
“क्या वसुन्धरा जी! आप की चुनरी पीछे से लहंगे के अंदर फंसी थी और आपको पता ही नहीं … वही निकालनी है.”
वसुन्धरा बोली तो कुछ नहीं … अपितु उस के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आ गयी.
मैंने लहँगे का नाड़ा थोड़ा ढीला किया और अपने दाएं हाथ में नाड़े के दोनों छोर पकड़ कर अपना बायां हाथ बायीं ओर से वसुन्धरा के पीछे लेजा कर चुनरी को एक हल्का सा झटका दिया लेकिन चुनरी जस की तस! जरूर जड़ाऊ काम के सितारे-मोती, लहँगे के अंदर कहीं न कहीं फंस रहे थे.
लहंगा और ढीला हो नहीं सकता था और मैं घूम कर पीछे नहीं जा सकता था क्योंकि मैंने दाएं हाथ में लहंगे के नाड़े के दोनों सिरे थामे हुये थे.