hotaks444
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ठाकुर साहब की बात सुनते ही राधा जी बिस्तर से उठ खड़ी हुई. फिर मोहन बाबू को प्रशानशात्मक दृष्टि से देखती हुई बोली - "मोहन जी, आपकी कारीगरी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है, आपकी अद्भुत चित्रकारी ने मेरा मन मोह लिया है. काँच में ऐसी सुंदर कारीगरी मैने आज तक नही देखी. आपकी कारीगरी अमिट है. मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी की आज आप जैसे उत्तम कलाकार से मिलना हुआ."
राधा जी के कहने की देरी थी और ठाकुर साहब के सीने पर एक ज़ोर का घुसा पड़ा. राधा जी के मूह से जिस प्रशन्शा को सुनने के लिए वे घंटो तक हवेली का कोना कोना घुमाते रहे थे. जिस प्रशन्शा को पाने के लिए उन्होने हवेली के निर्माण में पानी की तरह पैसे बहा दिए थे. जिस प्रशन्शा के वे सालों से आकांक्षी थे. वही प्रशन्शा..... राधा जी के मूह से उन्हे ना मिलकर मोहन बाबू को मिल रही थी. वे अंदर ही अंदर से तड़प उठे. वे खुद को अपमानित सा महसूस करने लगे.
"ये मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है राधा जी, कि आपको मेरा काम पसंद आया." मोहन जी आभार प्रकट करते हुए बोले -"मैं एक कारीगर हूँ, जब किसी के द्वारा अपने काम की प्रशन्शा सुनता हूँ तो मन एक सुखद एहसास से भर जाता है. आप लोगों को मेरा काम पसंद आया. अब मैं यहाँ से सुखी मन से जा सकूँगा."
"तुम हम से किस लिए मिलना चाहते थे?" ठाकुर साहब रूखे स्वर में मोहन बाबू से पूछे.
"ठाकुर साहब, अब मेरा काम पूरा हो चुका है, किंतु घर जाने से पहले आपसे कुच्छ ज़रूरी बातें करनी थी. अगर आप अपना कुच्छ समय मुझे दे सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी." मोहन जी आदर-पूर्वक बोले.
"इस वक़्त हम काफ़ी थके हुए हैं मोहन. तुम आज भर रुक जाओ. जो भी बातें हैं..... हम रात के खाने के बाद कर लेंगे. तुम कल सबेरे चले जाना."
"ठीक है ठाकुर साहब, आप कहते हैं तो मैं आज भर रुक जाता हूँ. नमस्ते !" मोहन बाबू उत्तर देने के बाद नमस्ते कहकर वहाँ से चले गये.
मैने भी ठाकुर साहब और राधा जी से इज़ाज़त ली और हॉस्पिटल के लिए रवाना हो गया. मेरी पत्नी पिच्छले दो दिनो से हॉस्पिटल में डेलिवरी के लिए भरती थी. मुझे उसे देखने जाना था. हॉस्पिटल से लौटने के बाद मैं अपने घर में हवेली के निर्माण संबंधी खर्चे का लेखा जोखा करने लगा. आज ही मुझे पूरा हिसाब ठाकुर साहब को दिखाना था.
दो घंटे के बाद, लगभग 7 बजे के आस-पास मैं पुनः हवेली पहुँचा. किंतु अभी मैं दरवाज़े तक ही पहुँचा था कि मुझे हॉल से मोहन बाबू और राधा जी की बातें करने की आवाज़ें सुनाई दी. ना जाने क्यों..... पर मेरे कदम वहीं पर ठिठक गये. और मैं चोरी छुपे उनकी बातें सुनने का प्रयास करने लगा. हालाँकि मैं राधा जी की तरफ से शंकित नही था पर आज दिन की घटनाओ के मद्दे-नज़र..... मेरे मन में उनकी बातें सुनने की लालसा जाग उठी.
मैं दरवाजे की आड़ लेकर उनके बीच हो रही बातों को सुनने लगा.
राधा जी कह रही थी - "मोहन जी, आप कुच्छ अपने परिवार के बारे में भी बताइए. कौन कौन हैं आपके घर में?"
मोहन बाबू - "सिर्फ़ दो लोग, एक मेरी पत्नी और दूसरा मेरा 6 साल का बेटा."
राधा जी - "आपने कहा कि, आपको अक्सर काम के सिलसिले में घर से बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में वे लोग काफ़ी अकेले हो जाते होंगे. खास कर आपकी पत्नी. क्या आपने इस बारे में कभी सोचा है?"
मोहन बाबू - "इस बात का एहसास मुझे भी है राधा जी. पर क्या करें विवशता ही ऐसी है, ना चाहते हुए भी उनसे दूर रहना पड़ता है."
राधा जी - "तो क्या आपके लिए पैसा इतना मायने रखता है?"
मोहन बाबू - "नही राधा जी, पैसा मेरे लिए मेरे परिवार से बढ़कर नही है. मैं चाहता तो हवेली का निर्माण 6 महीने पहले ही पूरा कर देता. किंतु तब शायद ये उतनी सुंदर ना होती जितना की अब देख रही हैं. किंतु मैं अपने काम के साथ समझौता नही करता. अगर मैं अपने काम से संतुष्ट ना होता तो मैं तब तक काम करता रहता जब तक कि मैं पूरी तरह से संतुष्ट ना हो जाउ. फिर चाहें इसके लिए मुझे यहाँ कुच्छ साल और क्यों ना बिताना पड़ता. मैं बस इतना चाहता हूँ कि मैं जो भी काम करूँ....लोग उसे सराहें, पसंद करें. और मेरी कारीगरी की प्रशन्शा करें."
राधा जी - "आप एक सच्चे कारीगर हैं मोहन जी, मुझे आप जैसे कला-प्रेमी से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई. मैं आपके कला-कौशल को दिल से सम्मान देती हूँ. और साथ ही आपको धन्यवाद भी कहती हूँ कि आपने इस हवेली के लिए अपना कीमती समय दिया."
मोहन बाबू - "इस धन्यवाद के असली हक़दार तो आपके पति ठाकुर साहब हैं. जिन्होने सचे मन से आपके लिए ऐसी भव्य हवेली का निर्माण करवाया. आप सच में बहुत भाग्यशाली हैं राधा जी, कि आपको ठाकुर साहब जैसा देवता पति मिला. इस युग में पत्नी के प्रति ऐसा निश्चल प्रेम शायद ही किसी पुरुष के हृदय में हो. वे सच में देवता हैं."
राधा जी - "आपका बहुत बहुत धन्यवाद मोहन जी. ये सच है कि ठाकुर साहब को अपने पति के रूप में पाकर मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ. हम दोनो के ही दिलों में एक दूसरे के लिए अथाह प्रेम है."
मोहन बाबू - "होना भी चाहिए. इस रिश्ते में प्रेम और बिस्वास का बहुत बड़ा स्थान है."
राधा जी - "ह्म्म्म.......आप ठीक कहते हैं. वैसे आप सालों बाद घर जा रहे हैं, आपके मन में तो काफ़ी उत्सुकता होगी अपनी पत्नी और बेटे से मिलने की?"
मोहन बाबू - "बस एक ही बात सोचे जा रहा हूँ, पता नही कैसे होंगे वे लोग? किस हाल में जी रहे होंगे. इतने दिनो तक मैं उनकी कोई खबर तक नही ले पाया."
राधा जी - "दिल छोटा ना कीजिए मोहन जी. ईश्वर की कृपा से वे अच्छे ही होंगे. आप जब घर जाएँ तो उनके लिए भेंट ज़रूर लेकर जाइएगा. और हो सके तो घर पहुँचकर वहाँ का शुभ-समाचार ज़रूर भेज दीजिएगा. मुझे आपके शकुशल घर पहुँचने का इंतेज़ार रहेगा."
राधा जी के ये शब्द सुनकर मेरा मन उनके प्रति श्रधा भाव से भर गया. मैने अब उनकी बातों को सुनना व्यर्थ जाना. मैं दरवाज़े की औट से बाहर निकला और हवेली के अंदर प्रविष्ट हुआ. हॉल में पहुँच कर मैने राधा जी और मोहन बाबू को नमस्ते किया और फिर ठाकुर साहब के कमरे की तरफ बढ़ गया.
मैं कुच्छ देर ठाकुर साहब के पास बैठा उन्हे खर्चे का लेखा जोखा समझाता रहा. इस कार्य में 2 घंटे से भी अधिक समय बीत गया. कार्य पूरा होने तक रात्रि भोजन का समय भी हो चला था. ठाकुर साहब के आदेश पर मैं भी खाने में शामिल हो गया.
लगभग एक घंटे के बाद हम भोजन से फारिग हुए.
राधा जी अपने कमरे में सोने चली गयीं.
हवेली का एक मात्र नौकर सरजू भी....दिन भर का थका हारा होने की वजह से ठाकुर साहब से आग्या लेकर अपने रहने के स्थान पर सोने चला गया.
मोहन बाबू को ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बातें करनी थी इसलिए हम तीनो ही हॉल में पड़े सोफे पर बैठे रह गये.
"कहिए क्या कहना चाहते थे आप?" ठाकुर साहब मोहन बाबू की ओर देखकर बोले.
"
ठाकुर साहब, बात यह है कि मुझे कलकत्ता में एक काँच का मंदिर बनाने का काम मिला है. मैं इसी संबंध में आपसे बात करना चाहता था."
"ये तो बड़ी खुशी की बात है, किंतु ये बात आप हमें क्यों बता रहे हैं?"
"ठाकुर साहब असल बात यह है कि 15 दिन पहले कलकत्ता से उस मदिर के ट्रस्टी यहाँ आए थे. उन्होने इस काँच की हवेली को देखा और अब वे लोग मुझसे इसी रूप का कलकत्ता में एक भव्य मदिर बनवाना चाहते हैं."
राधा जी के कहने की देरी थी और ठाकुर साहब के सीने पर एक ज़ोर का घुसा पड़ा. राधा जी के मूह से जिस प्रशन्शा को सुनने के लिए वे घंटो तक हवेली का कोना कोना घुमाते रहे थे. जिस प्रशन्शा को पाने के लिए उन्होने हवेली के निर्माण में पानी की तरह पैसे बहा दिए थे. जिस प्रशन्शा के वे सालों से आकांक्षी थे. वही प्रशन्शा..... राधा जी के मूह से उन्हे ना मिलकर मोहन बाबू को मिल रही थी. वे अंदर ही अंदर से तड़प उठे. वे खुद को अपमानित सा महसूस करने लगे.
"ये मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है राधा जी, कि आपको मेरा काम पसंद आया." मोहन जी आभार प्रकट करते हुए बोले -"मैं एक कारीगर हूँ, जब किसी के द्वारा अपने काम की प्रशन्शा सुनता हूँ तो मन एक सुखद एहसास से भर जाता है. आप लोगों को मेरा काम पसंद आया. अब मैं यहाँ से सुखी मन से जा सकूँगा."
"तुम हम से किस लिए मिलना चाहते थे?" ठाकुर साहब रूखे स्वर में मोहन बाबू से पूछे.
"ठाकुर साहब, अब मेरा काम पूरा हो चुका है, किंतु घर जाने से पहले आपसे कुच्छ ज़रूरी बातें करनी थी. अगर आप अपना कुच्छ समय मुझे दे सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी." मोहन जी आदर-पूर्वक बोले.
"इस वक़्त हम काफ़ी थके हुए हैं मोहन. तुम आज भर रुक जाओ. जो भी बातें हैं..... हम रात के खाने के बाद कर लेंगे. तुम कल सबेरे चले जाना."
"ठीक है ठाकुर साहब, आप कहते हैं तो मैं आज भर रुक जाता हूँ. नमस्ते !" मोहन बाबू उत्तर देने के बाद नमस्ते कहकर वहाँ से चले गये.
मैने भी ठाकुर साहब और राधा जी से इज़ाज़त ली और हॉस्पिटल के लिए रवाना हो गया. मेरी पत्नी पिच्छले दो दिनो से हॉस्पिटल में डेलिवरी के लिए भरती थी. मुझे उसे देखने जाना था. हॉस्पिटल से लौटने के बाद मैं अपने घर में हवेली के निर्माण संबंधी खर्चे का लेखा जोखा करने लगा. आज ही मुझे पूरा हिसाब ठाकुर साहब को दिखाना था.
दो घंटे के बाद, लगभग 7 बजे के आस-पास मैं पुनः हवेली पहुँचा. किंतु अभी मैं दरवाज़े तक ही पहुँचा था कि मुझे हॉल से मोहन बाबू और राधा जी की बातें करने की आवाज़ें सुनाई दी. ना जाने क्यों..... पर मेरे कदम वहीं पर ठिठक गये. और मैं चोरी छुपे उनकी बातें सुनने का प्रयास करने लगा. हालाँकि मैं राधा जी की तरफ से शंकित नही था पर आज दिन की घटनाओ के मद्दे-नज़र..... मेरे मन में उनकी बातें सुनने की लालसा जाग उठी.
मैं दरवाजे की आड़ लेकर उनके बीच हो रही बातों को सुनने लगा.
राधा जी कह रही थी - "मोहन जी, आप कुच्छ अपने परिवार के बारे में भी बताइए. कौन कौन हैं आपके घर में?"
मोहन बाबू - "सिर्फ़ दो लोग, एक मेरी पत्नी और दूसरा मेरा 6 साल का बेटा."
राधा जी - "आपने कहा कि, आपको अक्सर काम के सिलसिले में घर से बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में वे लोग काफ़ी अकेले हो जाते होंगे. खास कर आपकी पत्नी. क्या आपने इस बारे में कभी सोचा है?"
मोहन बाबू - "इस बात का एहसास मुझे भी है राधा जी. पर क्या करें विवशता ही ऐसी है, ना चाहते हुए भी उनसे दूर रहना पड़ता है."
राधा जी - "तो क्या आपके लिए पैसा इतना मायने रखता है?"
मोहन बाबू - "नही राधा जी, पैसा मेरे लिए मेरे परिवार से बढ़कर नही है. मैं चाहता तो हवेली का निर्माण 6 महीने पहले ही पूरा कर देता. किंतु तब शायद ये उतनी सुंदर ना होती जितना की अब देख रही हैं. किंतु मैं अपने काम के साथ समझौता नही करता. अगर मैं अपने काम से संतुष्ट ना होता तो मैं तब तक काम करता रहता जब तक कि मैं पूरी तरह से संतुष्ट ना हो जाउ. फिर चाहें इसके लिए मुझे यहाँ कुच्छ साल और क्यों ना बिताना पड़ता. मैं बस इतना चाहता हूँ कि मैं जो भी काम करूँ....लोग उसे सराहें, पसंद करें. और मेरी कारीगरी की प्रशन्शा करें."
राधा जी - "आप एक सच्चे कारीगर हैं मोहन जी, मुझे आप जैसे कला-प्रेमी से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई. मैं आपके कला-कौशल को दिल से सम्मान देती हूँ. और साथ ही आपको धन्यवाद भी कहती हूँ कि आपने इस हवेली के लिए अपना कीमती समय दिया."
मोहन बाबू - "इस धन्यवाद के असली हक़दार तो आपके पति ठाकुर साहब हैं. जिन्होने सचे मन से आपके लिए ऐसी भव्य हवेली का निर्माण करवाया. आप सच में बहुत भाग्यशाली हैं राधा जी, कि आपको ठाकुर साहब जैसा देवता पति मिला. इस युग में पत्नी के प्रति ऐसा निश्चल प्रेम शायद ही किसी पुरुष के हृदय में हो. वे सच में देवता हैं."
राधा जी - "आपका बहुत बहुत धन्यवाद मोहन जी. ये सच है कि ठाकुर साहब को अपने पति के रूप में पाकर मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ. हम दोनो के ही दिलों में एक दूसरे के लिए अथाह प्रेम है."
मोहन बाबू - "होना भी चाहिए. इस रिश्ते में प्रेम और बिस्वास का बहुत बड़ा स्थान है."
राधा जी - "ह्म्म्म.......आप ठीक कहते हैं. वैसे आप सालों बाद घर जा रहे हैं, आपके मन में तो काफ़ी उत्सुकता होगी अपनी पत्नी और बेटे से मिलने की?"
मोहन बाबू - "बस एक ही बात सोचे जा रहा हूँ, पता नही कैसे होंगे वे लोग? किस हाल में जी रहे होंगे. इतने दिनो तक मैं उनकी कोई खबर तक नही ले पाया."
राधा जी - "दिल छोटा ना कीजिए मोहन जी. ईश्वर की कृपा से वे अच्छे ही होंगे. आप जब घर जाएँ तो उनके लिए भेंट ज़रूर लेकर जाइएगा. और हो सके तो घर पहुँचकर वहाँ का शुभ-समाचार ज़रूर भेज दीजिएगा. मुझे आपके शकुशल घर पहुँचने का इंतेज़ार रहेगा."
राधा जी के ये शब्द सुनकर मेरा मन उनके प्रति श्रधा भाव से भर गया. मैने अब उनकी बातों को सुनना व्यर्थ जाना. मैं दरवाज़े की औट से बाहर निकला और हवेली के अंदर प्रविष्ट हुआ. हॉल में पहुँच कर मैने राधा जी और मोहन बाबू को नमस्ते किया और फिर ठाकुर साहब के कमरे की तरफ बढ़ गया.
मैं कुच्छ देर ठाकुर साहब के पास बैठा उन्हे खर्चे का लेखा जोखा समझाता रहा. इस कार्य में 2 घंटे से भी अधिक समय बीत गया. कार्य पूरा होने तक रात्रि भोजन का समय भी हो चला था. ठाकुर साहब के आदेश पर मैं भी खाने में शामिल हो गया.
लगभग एक घंटे के बाद हम भोजन से फारिग हुए.
राधा जी अपने कमरे में सोने चली गयीं.
हवेली का एक मात्र नौकर सरजू भी....दिन भर का थका हारा होने की वजह से ठाकुर साहब से आग्या लेकर अपने रहने के स्थान पर सोने चला गया.
मोहन बाबू को ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बातें करनी थी इसलिए हम तीनो ही हॉल में पड़े सोफे पर बैठे रह गये.
"कहिए क्या कहना चाहते थे आप?" ठाकुर साहब मोहन बाबू की ओर देखकर बोले.
"
ठाकुर साहब, बात यह है कि मुझे कलकत्ता में एक काँच का मंदिर बनाने का काम मिला है. मैं इसी संबंध में आपसे बात करना चाहता था."
"ये तो बड़ी खुशी की बात है, किंतु ये बात आप हमें क्यों बता रहे हैं?"
"ठाकुर साहब असल बात यह है कि 15 दिन पहले कलकत्ता से उस मदिर के ट्रस्टी यहाँ आए थे. उन्होने इस काँच की हवेली को देखा और अब वे लोग मुझसे इसी रूप का कलकत्ता में एक भव्य मदिर बनवाना चाहते हैं."