hotaks444
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कंचन अपने गीले वस्त्रो में चिपकी पुनः उसी पत्थेर पर बैठ गयी. सर को घुटनों पर रखा और सिसक पड़ी. उसे इस वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसका सब कुच्छ छीन लिया हो.......जैसे वो पूरी तरह से लूट चुकी हो.......उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वो बीच सागर में अकेली किसी नाव में बैठी डूब रही हो पर कोई उसे बचाने वाला नही. कंचन पत्थर पर बैठी ठंड से कांपति सिसकती रही.
कुच्छ पल और बीता. अब बारिस का शोर ख़त्म हो गया था. पक्षी अपने घोसलों से निकलकर खुशी से इधर उधर चहकने लगे थे. बारिस के बाद हर वास्तु सॉफ सूत्री और धूलि हुई दिखाई दे रही थी. हवाओं में खुसबु फैल चुकी थी. माहौल ऐसा ख़ुसनूमा हो गया था कि कोई भी थका हारा इंसान यहाँ आ जाए तो यहाँ का मनोहारी द्रिश्य देखकर उसकी सारी थकान उतर जाए.
किंतु कंचन को इन चीज़ों से तनिक भी राहत ना थी. प्रकृति में बिखरा सारा सौंदर्या उसे इस वक़्त फीका फीका सा लग रहा था. पक्षियो का कलरव उसके कानो में जैसे ज़हर घोल रहा था. यहाँ का हर वास्तु उसे उसकी इच्छाओं के विपरीत जान पड़ता था.
कंचन अभी अपनी उन्ही दशा में गुम थी कि उसे अपने पिछे किसी के कदमों की आहट सुनाई दी. वह झटके से खड़ी हुई. पलट कर देखा तो उसे रवि आता हुआ दिखाई दिया.
रवि अपनी पतलून उपर उठाए गीले मिट्टी में सम्भल संभलकर कदम रखता हुआ उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था. उसे देखते ही कंचन के आँसू और भी तेज़ हो गये. पर इस बार ये खुशी से बरस रहे थे.
कंचन रवि को देखकर उसकी ओर ऐसी लपकी जैसे वो कोई नन्ही बच्ची हो. और किसी ने उसे अकेला किसी घने जंगल में छोड़ दिया हो. जहाँ वो घंटो तक डरी सहमी अकेली बहतकती रही हो. और अब रवि को देखकर उसके शरण में आने के लिए दौड़ पड़ी हो.
रवि ने उसे अपनी ओर बे-तहासा आते देखा तो उसने भी अपनी बाहें फैला दी. कंचन उसकी बाहों में सिमट'ती चली गयी. उसे यह भी ध्यान नही रहा कि उसके कपड़े गीले हैं. जो इस वक़्त रवि के कपड़ों से मिलकर उसे भी गीला करते जा रहे हैं.
किंतु रवि को उसके गीले होने का एहसास हो गया था. उसने आश्चर्य से कंचन को देखा. वा उसकी छाती में मूह छिपाए सूबक रही थी. उसे रोता देख रवि घबरा गया. वह कंचन को रोता नही देख सकता था. उसने कंचन को कसकर अपनी बाहों में भीच लिया. वह डारी सहमी सी लग रही थी. रवि उसे कुच्छ देर रोने देता रहा. और ये सोचता रहा कि कंचन रो क्यों रही है? वह गीली कैसे हो गयी?
उसने एक हाथ से कंचन को अपनी छाती से भीछे रखा और दूसरे हाथ से उसका चेहरा उपर उठाया. तत्पश्चात उसके गालो को सहलाते हुए पुछा - "क्या हुआ कंचन? क्यों रो रही हो? तुम भीग कैसे गयी?"
"मैं आपकी राह देख रही थी साहेब......लेकिन जब आप समय पर नही आए, तब मैं बहुत घबरा गयी थी." कंचन भर्राये स्वर में बोली.
"मैं हवेली से निकला ही था कंचन...कि उसी वक़्त बारिस शुरू हो गयी. और मैं वहीं रुक गया." रवि उसकी आँखों से आँसू पोछते हुए बोला - "लेकिन तुम भीग कैसे गयी? क्या तुम्हे बारिस में भीगना अच्छा लगता है?"
कंचन ने गीले आँखों से रवि को देखते हुए इनकार में गर्दन हिलाई.
"तो फिर भीगी क्यों? किसी पेड़ के नीचे क्यों नही गयी?" रवि ने फिर से पुछा.
"आपकी खातिर...."
"मेरी खातिर....? मतलब?" रवि ने ना समझने वाले भाव से कंचन को देखा.
"मैं यहाँ बहुत पहले आ गयी थी. मेरे आने के कुच्छ ही देर बाद बारिश शुरू हो गयी. मेरा मन हुआ कि मैं पत्थेर की ओट में चली जाउ. फिर मैं सोची की जो मैं चली गयी....और उसी वक़्त आप आ गये तो कहीं ऐसा ना हो कि आप मुझे ना पाकर लौट जायें. इसलिए मैं उसी उँचे पत्थेर पर बैठी रही. और फिर भीग गयी." ये कहकर कंचन रवि को देखने लगी.
कंचन की बातें सुनकर रवि का दिल भर आया. उसे कंचन पर बे-तहाशा प्यार आया. उसने कस्के कंचन को अपनी बाहों में समेट लिया और फिर उसके माथे को चूमते हुए बोला -"तुम्हे ऐसा क्यों लगा कि मैं तुमसे मिले बगैर चला जाउन्गा? तुम क्या समझती हो मैं तुमसे प्यार नही करता? मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ. इसलिए अब एक बात का ध्यान रखना. मेरी खातिर अब कभी अपने आप को कष्ट मत देना. अब तुम्हारी जान सिर्फ़ तुम्हारी नही है. इसे कष्ट दोगि तो मैं तुमसे नाराज़ हो जाउन्गा." रवि बोला और ढीले हाथों से उसके एक गाल को नोच दिया.
कंचन मुस्कुरा उठी.
"साहेब..." कंचन अपने हाथ में पकड़े डब्बे को खोलते हुए बोली - "मैं आपके लिए खीर लाई हूँ. इसे आपके लिए मैने अपने हाथों से बनाई है. ये अभी भी गरम है साहेब. मैने खीर के डब्बे को भीगने नही दिया."
उसने खीर का डब्बा खोलकर रवि को दिखाया.
रवि आश्चर्य से कभी कंचन को, तो कभी खीर के डब्बे को देखता रहा. उसे ताज़ूब हुआ कि मज़ाक में कही गयी बात को कंचन ने कितना दिल से लिया. और वो उसके लिए खीर बना लाई. उसपर तेज़ बारिस में वो खुद भीग गयी पर खीर को भीगने नही दिया. वो सोचने लगा - "कितना प्यार करती है कंचन मुझे. मेरी छोटी छोटी खुशी को कितना दिल से सम्मान देती है. मुझे कोई कष्ट ना हो इसके लिए खुद कष्ट उठा लेती है."
इस एहसास से रवि का दिल उसके प्रति श्रद्धा से भर गया. उसे खुद पर गर्व महसूस हुआ कि उसे कंचन जैसी सॉफ दिल की बे-इंतेहाँ प्यार करने वाली लड़की मिली.
"क्या हुआ साहेब?" रवि को खामोश देख कंचन बोली. उसका दिल अनायास ही किसी अंजानी आशंका से धड़क उठा था. - "खाकर देखो ना साहेब....मैने खुद बनाई है."
रवि मुस्कुराया. फिर कंचन के हाथ से डब्बा लेते हुए बोला -"ज़रूर खाउन्गा. खीर तो मेरा फॅवुरेट है. और फिर तुम बनाई हो तो इसका स्वाद भी बेहतर होगा."
कंचन धीरे से मुस्कुराते हुए अपना सिर हिलाई. पर अंदर ही अंदर ये सोचकर घबरा रही थी कि जाने रवि को उसकी खीर कैसी लगेगी? वह व्याकुलता से भरी रवि को देखे जा रही थी. रवि ने खीर के डब्बे में उंगली घुसाया फिर खीर को अपने मूह में भर लिया. कंचन की उत्सुकता बढ़ गयी. वह टक-टॅकी लगाए देखती रही. उसका दिल ऐसे धड़क रहा था जैसे अभी उसकी पसलियां तोड़कर बाहर आ जाएगा.
"उम्म्म......वाहह....!" रवि ने चटकारा लिया. - "मेरी तो किस्मत खुल गयी कंचन, तुम कितना स्वदिस्त खीर बनाती हो. आहा.....अब तो विवाह के बाद रोज़ तुम्हारे हाथ की बनी खीर खाउन्गा."
कंचन का चेहरा खुशी से खिल गया. उसके मुरझाए हुए चेहरे की रौनक लौट आई. अपने साहेब के मूह से अपनी प्रसंसा पाकर उसका रोम रोम महक उठा.
हालाँकि खीर उतनी स्वदिस्त नही थी. रवि ने बस कंचन को खुश करने के लिए......बढ़कर तारीफ़ की थी. वो नही चाहता था कि कंचन के दिल को ज़रा भी ठेस पहुँचे. इच्छा ना होते हुए भी रवि सारा खीर चाट कर गया. कंचन बलिहारी हो जाने वाली नज़रों से उसे खीर खाते हुए देखती रही. जो मन अभी कुच्छ देर पहले तरह तरह की शंकाओं से पीड़ा ग्रस्त था अब वो खुशी के झूले में सवार आकाश की बुलंदियों में सैर कर रहा था. अब उसे किसी चीज़ की चिंता नही थी. माहौल फिर से सुहाना हो उठा था. पक्षियो का कलरव अब उसे अच्छा लगने लगा था. प्रकृति में बिखरा सौंदर्या अब उसकी आँखों को भी भाने लगा था.
"पीने के लिए पानी कहाँ है?" अचानक रवि की आवाज़ से कंचन चौंकी. साथ ही हड़बड़ाई.
वह तो जल्दबाज़ी में पानी लाना ही भूल गयी थी. कंचन दायें बायें देखने लगी. उसका चेहरा फिर से उदास होता चला गया. रवि को समझते देर नही लगाई. वह तपाक से बोला - "कोई बात नही, अच्छा हुआ तुम पानी नही लाई. पानी पीने के बाद मेरे मूह से खीर का स्वाद चला जाता. जो कि मुझे अच्छा नही लगता." ये कहकर रवि एक गड्ढे में जमे बारिस के पानी से हाथ धोने लगा.
"साहेब, मैं आपके लिए कल फिर से खीर बनाकर लाउन्गि साथ में पानी भी." कंचन रवि के पास जाते हुए बोली.
"नही....बिल्कुल नही." रवि खड़ा होकर रुमाल से अपना मूह सॉफ करते हुए बोला - "अब तुम्हे खीर लाने की ज़रूरत नही है. आज के बाद तुम मेरे लिए कोई भी परेशानी नही उठाओगी. अब जो भी खिलाना पिलाना हो विवाह के बाद मेरे घर आकर खिलाना. अब तुम सिर्फ़ एक ही काम करो. मुझसे प्रेम करो. मेरे पास आओ. मेरे साथ बैठो और बातें करो." रवि ये कहते हुए उसके चेहरे को दोनो हाथों से भर लेता है. और उसकी आँखों में झाँकने लगता है.
कंचन की निगाहें भी रवि पर ठहर जाती है. वह भी अपनी आँखों में शर्म लिए अपनी उठी गिरती पलकों के साथ रवि को देखने लगती है.
तभी ! दूर कहीं जोरदार बिजली कड़कती है और कंचन चिहुनकर रवि से लिपट जाती है. रवि भी उसे अपनी मजबूत बाहों में भीच लेता है.
मौसम एक बार फिर से करवट लेता है. पर इस बार भयंकर गर्जना के साथ. आकाश में बादल फिर से मंडराने लगते हैं. और कुच्छ ही पलों में फिर से बूँदा बाँदी शुरू हो जाती है.
रवि कंचन को लेकर तेज़ी से उस पत्थेर की ओर बढ़ा, जो झरने के बिल्कुल निकट था और जिसमें बारिश से बचने के लिए खोहनुमा स्थान था. वहाँ तक पहुचने में उन्हे मुस्किल से दो मिनिट लगे. पर इतनी ही देर में बारिश की तेज़ बूंदे उन्हे भीगा चुकी थी. कंचन तो पहले ही भीगी हुई थी किंतु अब रवि भी लगभग भीग चुका था.
*****
कल्लू की आँखे नम थी. ऐसा बारिश की बूँदों की वजह से नही था. उसकी आँखें उस पीड़ा से गीली हुई थी जो इस वक़्त उसका दिल महसूस कर रहा था.
कल्लू काफ़ी देर से कंचन और रवि को छुप-छुप कर देख रहा था. वो वहाँ उस वक़्त से था जब कंचन अकेली खड़ी रवि का इंतेज़ार कर रही थी.
कंचन को अकेली बेचैनी से वहाँ देखकर कल्लू समझ गया था कि कंचन वहाँ किसी से मिलने आई है. पर किससे मिलने आई है यही जानने की उत्सुकता उसे वहाँ रोके रखी थी. वह छुप्कर सब कुच्छ देखता रहा था. कंचन अकेली बारिश में नही भीगी थी. वह भी भीगा था. कंचन के साथ उसकी आँखों से भी आँसू बहे थे ये सोचकर कि जिसे वा बचपन से प्यार करता आया है. जिसे देखकर वह अब तक जीता आया है वो किसी और के लिए बेक़रार है. वह वहीं झाड़ियों के पिछे खड़ा बारिस में भीगते हुए कंचन का रोना उसका सिसकना, फिर रवि का आना उससे कंचन का लिपटना, उसे खीर खिलाना. और फिर गुफा के अंदर जाना. वो सब कुच्छ अपनी आँखों से देख चुका था. और ये सब देखकर उसका मंन टूटकर रोने को कर रहा था. लेकिन आज वो अकेला नही रोना चाह रहा था. आज वो एक कंधा ढूँढ रहा था जिसपर अपना सर रखकर जी भर-कर रो सके.
वह वहाँ से बोझील कदमो के साथ मुड़ा. उपर चढ़ा तो देखा सामने निक्की खड़ी उसे घुरे जा रही है. उसकी आँखों में अनगिनत सवाल थे. उसे देखते ही कल्लू सकपका गया. फिर अपनी नज़रें नीची करके तेज़ी से अपने रास्ते बढ़ गया. निक्की पलटकर उसे जाते हुए देखती रही.
कंचन अपने गीले वस्त्रो में चिपकी पुनः उसी पत्थेर पर बैठ गयी. सर को घुटनों पर रखा और सिसक पड़ी. उसे इस वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसका सब कुच्छ छीन लिया हो.......जैसे वो पूरी तरह से लूट चुकी हो.......उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वो बीच सागर में अकेली किसी नाव में बैठी डूब रही हो पर कोई उसे बचाने वाला नही. कंचन पत्थर पर बैठी ठंड से कांपति सिसकती रही.
कुच्छ पल और बीता. अब बारिस का शोर ख़त्म हो गया था. पक्षी अपने घोसलों से निकलकर खुशी से इधर उधर चहकने लगे थे. बारिस के बाद हर वास्तु सॉफ सूत्री और धूलि हुई दिखाई दे रही थी. हवाओं में खुसबु फैल चुकी थी. माहौल ऐसा ख़ुसनूमा हो गया था कि कोई भी थका हारा इंसान यहाँ आ जाए तो यहाँ का मनोहारी द्रिश्य देखकर उसकी सारी थकान उतर जाए.
किंतु कंचन को इन चीज़ों से तनिक भी राहत ना थी. प्रकृति में बिखरा सारा सौंदर्या उसे इस वक़्त फीका फीका सा लग रहा था. पक्षियो का कलरव उसके कानो में जैसे ज़हर घोल रहा था. यहाँ का हर वास्तु उसे उसकी इच्छाओं के विपरीत जान पड़ता था.
कंचन अभी अपनी उन्ही दशा में गुम थी कि उसे अपने पिछे किसी के कदमों की आहट सुनाई दी. वह झटके से खड़ी हुई. पलट कर देखा तो उसे रवि आता हुआ दिखाई दिया.
रवि अपनी पतलून उपर उठाए गीले मिट्टी में सम्भल संभलकर कदम रखता हुआ उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था. उसे देखते ही कंचन के आँसू और भी तेज़ हो गये. पर इस बार ये खुशी से बरस रहे थे.
कंचन रवि को देखकर उसकी ओर ऐसी लपकी जैसे वो कोई नन्ही बच्ची हो. और किसी ने उसे अकेला किसी घने जंगल में छोड़ दिया हो. जहाँ वो घंटो तक डरी सहमी अकेली बहतकती रही हो. और अब रवि को देखकर उसके शरण में आने के लिए दौड़ पड़ी हो.
रवि ने उसे अपनी ओर बे-तहासा आते देखा तो उसने भी अपनी बाहें फैला दी. कंचन उसकी बाहों में सिमट'ती चली गयी. उसे यह भी ध्यान नही रहा कि उसके कपड़े गीले हैं. जो इस वक़्त रवि के कपड़ों से मिलकर उसे भी गीला करते जा रहे हैं.
किंतु रवि को उसके गीले होने का एहसास हो गया था. उसने आश्चर्य से कंचन को देखा. वा उसकी छाती में मूह छिपाए सूबक रही थी. उसे रोता देख रवि घबरा गया. वह कंचन को रोता नही देख सकता था. उसने कंचन को कसकर अपनी बाहों में भीच लिया. वह डारी सहमी सी लग रही थी. रवि उसे कुच्छ देर रोने देता रहा. और ये सोचता रहा कि कंचन रो क्यों रही है? वह गीली कैसे हो गयी?
उसने एक हाथ से कंचन को अपनी छाती से भीछे रखा और दूसरे हाथ से उसका चेहरा उपर उठाया. तत्पश्चात उसके गालो को सहलाते हुए पुछा - "क्या हुआ कंचन? क्यों रो रही हो? तुम भीग कैसे गयी?"
"मैं आपकी राह देख रही थी साहेब......लेकिन जब आप समय पर नही आए, तब मैं बहुत घबरा गयी थी." कंचन भर्राये स्वर में बोली.
"मैं हवेली से निकला ही था कंचन...कि उसी वक़्त बारिस शुरू हो गयी. और मैं वहीं रुक गया." रवि उसकी आँखों से आँसू पोछते हुए बोला - "लेकिन तुम भीग कैसे गयी? क्या तुम्हे बारिस में भीगना अच्छा लगता है?"
कंचन ने गीले आँखों से रवि को देखते हुए इनकार में गर्दन हिलाई.
"तो फिर भीगी क्यों? किसी पेड़ के नीचे क्यों नही गयी?" रवि ने फिर से पुछा.
"आपकी खातिर...."
"मेरी खातिर....? मतलब?" रवि ने ना समझने वाले भाव से कंचन को देखा.
"मैं यहाँ बहुत पहले आ गयी थी. मेरे आने के कुच्छ ही देर बाद बारिश शुरू हो गयी. मेरा मन हुआ कि मैं पत्थेर की ओट में चली जाउ. फिर मैं सोची की जो मैं चली गयी....और उसी वक़्त आप आ गये तो कहीं ऐसा ना हो कि आप मुझे ना पाकर लौट जायें. इसलिए मैं उसी उँचे पत्थेर पर बैठी रही. और फिर भीग गयी." ये कहकर कंचन रवि को देखने लगी.
कंचन की बातें सुनकर रवि का दिल भर आया. उसे कंचन पर बे-तहाशा प्यार आया. उसने कस्के कंचन को अपनी बाहों में समेट लिया और फिर उसके माथे को चूमते हुए बोला -"तुम्हे ऐसा क्यों लगा कि मैं तुमसे मिले बगैर चला जाउन्गा? तुम क्या समझती हो मैं तुमसे प्यार नही करता? मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ. इसलिए अब एक बात का ध्यान रखना. मेरी खातिर अब कभी अपने आप को कष्ट मत देना. अब तुम्हारी जान सिर्फ़ तुम्हारी नही है. इसे कष्ट दोगि तो मैं तुमसे नाराज़ हो जाउन्गा." रवि बोला और ढीले हाथों से उसके एक गाल को नोच दिया.
कंचन मुस्कुरा उठी.
"साहेब..." कंचन अपने हाथ में पकड़े डब्बे को खोलते हुए बोली - "मैं आपके लिए खीर लाई हूँ. इसे आपके लिए मैने अपने हाथों से बनाई है. ये अभी भी गरम है साहेब. मैने खीर के डब्बे को भीगने नही दिया."
उसने खीर का डब्बा खोलकर रवि को दिखाया.
रवि आश्चर्य से कभी कंचन को, तो कभी खीर के डब्बे को देखता रहा. उसे ताज़ूब हुआ कि मज़ाक में कही गयी बात को कंचन ने कितना दिल से लिया. और वो उसके लिए खीर बना लाई. उसपर तेज़ बारिस में वो खुद भीग गयी पर खीर को भीगने नही दिया. वो सोचने लगा - "कितना प्यार करती है कंचन मुझे. मेरी छोटी छोटी खुशी को कितना दिल से सम्मान देती है. मुझे कोई कष्ट ना हो इसके लिए खुद कष्ट उठा लेती है."
इस एहसास से रवि का दिल उसके प्रति श्रद्धा से भर गया. उसे खुद पर गर्व महसूस हुआ कि उसे कंचन जैसी सॉफ दिल की बे-इंतेहाँ प्यार करने वाली लड़की मिली.
"क्या हुआ साहेब?" रवि को खामोश देख कंचन बोली. उसका दिल अनायास ही किसी अंजानी आशंका से धड़क उठा था. - "खाकर देखो ना साहेब....मैने खुद बनाई है."
रवि मुस्कुराया. फिर कंचन के हाथ से डब्बा लेते हुए बोला -"ज़रूर खाउन्गा. खीर तो मेरा फॅवुरेट है. और फिर तुम बनाई हो तो इसका स्वाद भी बेहतर होगा."
कंचन धीरे से मुस्कुराते हुए अपना सिर हिलाई. पर अंदर ही अंदर ये सोचकर घबरा रही थी कि जाने रवि को उसकी खीर कैसी लगेगी? वह व्याकुलता से भरी रवि को देखे जा रही थी. रवि ने खीर के डब्बे में उंगली घुसाया फिर खीर को अपने मूह में भर लिया. कंचन की उत्सुकता बढ़ गयी. वह टक-टॅकी लगाए देखती रही. उसका दिल ऐसे धड़क रहा था जैसे अभी उसकी पसलियां तोड़कर बाहर आ जाएगा.
"उम्म्म......वाहह....!" रवि ने चटकारा लिया. - "मेरी तो किस्मत खुल गयी कंचन, तुम कितना स्वदिस्त खीर बनाती हो. आहा.....अब तो विवाह के बाद रोज़ तुम्हारे हाथ की बनी खीर खाउन्गा."
कंचन का चेहरा खुशी से खिल गया. उसके मुरझाए हुए चेहरे की रौनक लौट आई. अपने साहेब के मूह से अपनी प्रसंसा पाकर उसका रोम रोम महक उठा.
हालाँकि खीर उतनी स्वदिस्त नही थी. रवि ने बस कंचन को खुश करने के लिए......बढ़कर तारीफ़ की थी. वो नही चाहता था कि कंचन के दिल को ज़रा भी ठेस पहुँचे. इच्छा ना होते हुए भी रवि सारा खीर चाट कर गया. कंचन बलिहारी हो जाने वाली नज़रों से उसे खीर खाते हुए देखती रही. जो मन अभी कुच्छ देर पहले तरह तरह की शंकाओं से पीड़ा ग्रस्त था अब वो खुशी के झूले में सवार आकाश की बुलंदियों में सैर कर रहा था. अब उसे किसी चीज़ की चिंता नही थी. माहौल फिर से सुहाना हो उठा था. पक्षियो का कलरव अब उसे अच्छा लगने लगा था. प्रकृति में बिखरा सौंदर्या अब उसकी आँखों को भी भाने लगा था.
"पीने के लिए पानी कहाँ है?" अचानक रवि की आवाज़ से कंचन चौंकी. साथ ही हड़बड़ाई.
वह तो जल्दबाज़ी में पानी लाना ही भूल गयी थी. कंचन दायें बायें देखने लगी. उसका चेहरा फिर से उदास होता चला गया. रवि को समझते देर नही लगाई. वह तपाक से बोला - "कोई बात नही, अच्छा हुआ तुम पानी नही लाई. पानी पीने के बाद मेरे मूह से खीर का स्वाद चला जाता. जो कि मुझे अच्छा नही लगता." ये कहकर रवि एक गड्ढे में जमे बारिस के पानी से हाथ धोने लगा.
"साहेब, मैं आपके लिए कल फिर से खीर बनाकर लाउन्गि साथ में पानी भी." कंचन रवि के पास जाते हुए बोली.
"नही....बिल्कुल नही." रवि खड़ा होकर रुमाल से अपना मूह सॉफ करते हुए बोला - "अब तुम्हे खीर लाने की ज़रूरत नही है. आज के बाद तुम मेरे लिए कोई भी परेशानी नही उठाओगी. अब जो भी खिलाना पिलाना हो विवाह के बाद मेरे घर आकर खिलाना. अब तुम सिर्फ़ एक ही काम करो. मुझसे प्रेम करो. मेरे पास आओ. मेरे साथ बैठो और बातें करो." रवि ये कहते हुए उसके चेहरे को दोनो हाथों से भर लेता है. और उसकी आँखों में झाँकने लगता है.
कंचन की निगाहें भी रवि पर ठहर जाती है. वह भी अपनी आँखों में शर्म लिए अपनी उठी गिरती पलकों के साथ रवि को देखने लगती है.
तभी ! दूर कहीं जोरदार बिजली कड़कती है और कंचन चिहुनकर रवि से लिपट जाती है. रवि भी उसे अपनी मजबूत बाहों में भीच लेता है.
मौसम एक बार फिर से करवट लेता है. पर इस बार भयंकर गर्जना के साथ. आकाश में बादल फिर से मंडराने लगते हैं. और कुच्छ ही पलों में फिर से बूँदा बाँदी शुरू हो जाती है.
रवि कंचन को लेकर तेज़ी से उस पत्थेर की ओर बढ़ा, जो झरने के बिल्कुल निकट था और जिसमें बारिश से बचने के लिए खोहनुमा स्थान था. वहाँ तक पहुचने में उन्हे मुस्किल से दो मिनिट लगे. पर इतनी ही देर में बारिश की तेज़ बूंदे उन्हे भीगा चुकी थी. कंचन तो पहले ही भीगी हुई थी किंतु अब रवि भी लगभग भीग चुका था.
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कल्लू की आँखे नम थी. ऐसा बारिश की बूँदों की वजह से नही था. उसकी आँखें उस पीड़ा से गीली हुई थी जो इस वक़्त उसका दिल महसूस कर रहा था.
कल्लू काफ़ी देर से कंचन और रवि को छुप-छुप कर देख रहा था. वो वहाँ उस वक़्त से था जब कंचन अकेली खड़ी रवि का इंतेज़ार कर रही थी.
कंचन को अकेली बेचैनी से वहाँ देखकर कल्लू समझ गया था कि कंचन वहाँ किसी से मिलने आई है. पर किससे मिलने आई है यही जानने की उत्सुकता उसे वहाँ रोके रखी थी. वह छुप्कर सब कुच्छ देखता रहा था. कंचन अकेली बारिश में नही भीगी थी. वह भी भीगा था. कंचन के साथ उसकी आँखों से भी आँसू बहे थे ये सोचकर कि जिसे वा बचपन से प्यार करता आया है. जिसे देखकर वह अब तक जीता आया है वो किसी और के लिए बेक़रार है. वह वहीं झाड़ियों के पिछे खड़ा बारिस में भीगते हुए कंचन का रोना उसका सिसकना, फिर रवि का आना उससे कंचन का लिपटना, उसे खीर खिलाना. और फिर गुफा के अंदर जाना. वो सब कुच्छ अपनी आँखों से देख चुका था. और ये सब देखकर उसका मंन टूटकर रोने को कर रहा था. लेकिन आज वो अकेला नही रोना चाह रहा था. आज वो एक कंधा ढूँढ रहा था जिसपर अपना सर रखकर जी भर-कर रो सके.
वह वहाँ से बोझील कदमो के साथ मुड़ा. उपर चढ़ा तो देखा सामने निक्की खड़ी उसे घुरे जा रही है. उसकी आँखों में अनगिनत सवाल थे. उसे देखते ही कल्लू सकपका गया. फिर अपनी नज़रें नीची करके तेज़ी से अपने रास्ते बढ़ गया. निक्की पलटकर उसे जाते हुए देखती रही.