desiaks
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‘‘एक पीने के लिए...।’’
‘‘और दूसरी?’’
‘‘तुम्हें नहलाने के लिए।’’ कबीर ने शरारत से हँसते हुए कहा।
‘‘कबीर, आर यू क्रे़जी?’’ माया ने एक बार फिर उसे झिड़का।
‘‘कभी-कभी ख़ुद ही थोड़ा क्रे़जी हो जाना चाहिए; ज़िन्दगी को बहुत सीरियसली लो तो ज़िन्दगी बुरी तरह पागल कर देती है।’’ कबीर कुछ भावुक हो उठा। डिप्रेशन में बिताए दिनों की कड़वी यादें उभर आईं।
‘‘कबीर, तुम जानना चाहते थे कि मुझे क्या पसंद है!’’ माया ने कबीर के भावुक चेहरे पर गौर कर विषय बदलने के इरादे से कहा।
‘‘हाँ बताओ तुम्हें क्या पसंद है!’’ माया का वाक्य कबीर को उसकी कड़वी यादों से बाहर निकाल लाया।
‘‘मुझे स्पीड पसंद है।’’
‘‘कहाँ जाओगी इतनी स्पीड से? तुम्हें अपनी मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी क्यों है?’’
‘‘जल्दी नहीं है कबीर; यह ज़रूरी नहीं है कि स्पीड कहीं पहुँचने की जल्दी में ही हो... स्पीड का अपना थ्रिल होता है... स्पीड में म़जा आने लगे तो ख़ुद स्पीड ही मंज़िल बन जाती है।’’
‘‘ह्म्म्म...तो फिर चलो देखें तुम्हें कितनी स्पीड पसंद है।’’
‘मतलब?’
‘‘ड्राइव पर चलते हैं।’’
‘अभी?’
‘हाँ।’
कबीर ने कार स्टार्ट की। शाम ढल चुकी थी, फिर भी ट्रैफिक कम नहीं हुआ था। उस ट्रैफिक में स्पीड की कोई गुंजाइश नहीं थी।
‘‘जिस शहर में ज़िन्दगी की रफ्तार जितनी ते़ज हो, उसका ट्रैफिक उतना ही स्लो होता है।’’ कबीर ने अगले जंक्शन की ट्रैफिक लाइट्स पर कार को ब्रेक लगाते हुए कहा।
‘‘कबीर, मुझे पता नहीं था कि तुम फिलॉसफर भी हो।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘माया, मैंने किसी से कहा था कि अगर इंजिनियर नहीं बन पाया तो फिलॉसफर बन जाऊँगा।’’ कबीर को नेहा की याद आ गई।
‘‘मगर अब तो तुम इंजिनियर बन चुके हो।’’
‘‘मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है।’’ कबीर ने एक बार फिर नेहा को याद करते हुए कहा, ‘‘और तुम मुझसे जॉब कराके मुझे इंजिनियर बनाने पर तुली हो।’’
‘‘फिलॉसफी से ज़िंदगी नहीं चलती।’’
‘‘मगर ज़िंदगी चलकर पहुँचे कहाँ, ये फिलॉसफी ही तय करती है।’’
‘‘फ़िलहाल तो तुम ये तय करो कि हम जा कहाँ रहे हैं; अभी तक तो मुझे कोई स्पीड महसूस नहीं हुई है।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘बस थोड़ी देर में हम मोटरवे पर होंगे।’’
कुछ देर बाद कबीर की कार मोटरवे पर थी। कबीर ने ऐक्सेलरेटर पर पैर का दबाव बढ़ाया। स्पीड का काँटा सत्तर, अस्सी से होते हुए सौ मील प्रति घंटे पर पहुँच गया। बाहर हवा गुनगुनी थी, इसलिए कबीर ने कार के विंडो खुले रखे थे। कार हवा से बातें करने लगी, और हवा का संगीत माया के कानों में गूँज उठा। माया को इस स्पीड में म़जा आने लगा, मगर थोड़ी देर बाद उसे अहसास हुआ कि कार की स्पीड, मोटरवे की स्पीड लिमिट से बहुत अधिक थी।
‘‘कबीर, तुम स्पीड लिमिट से बहुत अधिक स्पीड से चल रहे हो, स्पीडिंग टिकट मिलेगा तुम्हें।’’ माया ने कबीर को सावधान किया।
‘‘यार ये स्पीड लिमिट होती ही क्यों है?’’ कबीर ने खीझते हुए कहा।
‘‘डोंट बी सिली कबीर; स्पीड लिमिट से ऊपर चलने पर एक्सीडेंट का खतरा बढ़ जाता है।’’
‘‘तुम्हारी स्पीड लिमिट क्या है माया?’’
‘‘मेरी स्पीड लिमिट?’’
‘‘हाँ, तुम्हारी ज़िंदगी की स्पीड लिमिट?’’
माया ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर वह यूँ ही चुपचाप बैठी रही, फिर उसने कबीर से कहा, ‘‘कबीर, अब वापस चलते हैं; मुझे भूख लग रही है।’’
कबीर ने अगले एक्जिट से कार मोड़ते हुए वापस प्रिया के अपार्टमेंट की ओर ले ली।
अपार्टमेंट पर लौटकर, माया ख़ामोशी से खाना लगाने में लग गई। कबीर को माया की ख़ामोशी बेचैन करने लगी।
‘‘ये सारा खाना तुमने ख़ुद बनाया है?’’ कबीर ने माहौल की ख़ामोशी तोड़ने के इरादे से पूछा।
‘‘हाँ, ख़ास तुम्हारे लिए; आज काम से दो घंटे पहले लौट आई थी।’’ माया ने जताना चाहा कि उसे अपने काम और करियर के अलावा और ची़जों की भी परवाह रहती है।
‘‘ओह,थैंक्स माया; और हाँ सॉरी... मेरी वजह से आज तुम्हारा काम अधूरा रह गया।’’
‘‘काम कल पूरा जाएगा, लेट्स एन्जॉय डिनर नाउ।’’
‘‘वाओ! फ़ूड इ़ज ग्रेट... यू आर एन अमे़िजंग कुक माया।’’ कबीर ने खाना खाते हुए कहा।
‘‘चलो तुमने मेरी तारी़फ तो की।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कहा।
कबीर कुछ देर माया के चेहरे को देखता रहा। बॉसी और ओवरकॉंफिडेंट माया के चेहरे पर एक बेबस सी शिकायत उसे अच्छी नहीं लग रही थी। खाना खत्म करते ही कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! तुम मुझसे गिटार सुनना चाहती थीं?’’
‘‘हाँ, तुम्हें ही ध्यान नहीं रहा।’’ माया के लह़जे में अब भी हल्की शिकायत थी।
‘‘सॉरी, मगर अब ध्यान आ गया है।’’
‘‘सुनाओ, क्या सुनाओगे?’’
कबीर ने गिटार उठाकर उसकी तारों पर हिंदी फिल्म, ‘अजनबी’ के इस गीत की धुन छेड़नी शुरू की, ‘इक अजनबी हसीना से यूँ मुलाकात हो गई।’
‘‘साथ में गाकर भी सुनाओ।’’ माया ने अनुरोध किया।
‘‘माया, आई एम नॉट ए गुड सिंगर।’’
‘‘बैड ही सही, सिंगर तो हो।’’
‘‘और दूसरी?’’
‘‘तुम्हें नहलाने के लिए।’’ कबीर ने शरारत से हँसते हुए कहा।
‘‘कबीर, आर यू क्रे़जी?’’ माया ने एक बार फिर उसे झिड़का।
‘‘कभी-कभी ख़ुद ही थोड़ा क्रे़जी हो जाना चाहिए; ज़िन्दगी को बहुत सीरियसली लो तो ज़िन्दगी बुरी तरह पागल कर देती है।’’ कबीर कुछ भावुक हो उठा। डिप्रेशन में बिताए दिनों की कड़वी यादें उभर आईं।
‘‘कबीर, तुम जानना चाहते थे कि मुझे क्या पसंद है!’’ माया ने कबीर के भावुक चेहरे पर गौर कर विषय बदलने के इरादे से कहा।
‘‘हाँ बताओ तुम्हें क्या पसंद है!’’ माया का वाक्य कबीर को उसकी कड़वी यादों से बाहर निकाल लाया।
‘‘मुझे स्पीड पसंद है।’’
‘‘कहाँ जाओगी इतनी स्पीड से? तुम्हें अपनी मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी क्यों है?’’
‘‘जल्दी नहीं है कबीर; यह ज़रूरी नहीं है कि स्पीड कहीं पहुँचने की जल्दी में ही हो... स्पीड का अपना थ्रिल होता है... स्पीड में म़जा आने लगे तो ख़ुद स्पीड ही मंज़िल बन जाती है।’’
‘‘ह्म्म्म...तो फिर चलो देखें तुम्हें कितनी स्पीड पसंद है।’’
‘मतलब?’
‘‘ड्राइव पर चलते हैं।’’
‘अभी?’
‘हाँ।’
कबीर ने कार स्टार्ट की। शाम ढल चुकी थी, फिर भी ट्रैफिक कम नहीं हुआ था। उस ट्रैफिक में स्पीड की कोई गुंजाइश नहीं थी।
‘‘जिस शहर में ज़िन्दगी की रफ्तार जितनी ते़ज हो, उसका ट्रैफिक उतना ही स्लो होता है।’’ कबीर ने अगले जंक्शन की ट्रैफिक लाइट्स पर कार को ब्रेक लगाते हुए कहा।
‘‘कबीर, मुझे पता नहीं था कि तुम फिलॉसफर भी हो।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘माया, मैंने किसी से कहा था कि अगर इंजिनियर नहीं बन पाया तो फिलॉसफर बन जाऊँगा।’’ कबीर को नेहा की याद आ गई।
‘‘मगर अब तो तुम इंजिनियर बन चुके हो।’’
‘‘मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है।’’ कबीर ने एक बार फिर नेहा को याद करते हुए कहा, ‘‘और तुम मुझसे जॉब कराके मुझे इंजिनियर बनाने पर तुली हो।’’
‘‘फिलॉसफी से ज़िंदगी नहीं चलती।’’
‘‘मगर ज़िंदगी चलकर पहुँचे कहाँ, ये फिलॉसफी ही तय करती है।’’
‘‘फ़िलहाल तो तुम ये तय करो कि हम जा कहाँ रहे हैं; अभी तक तो मुझे कोई स्पीड महसूस नहीं हुई है।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘बस थोड़ी देर में हम मोटरवे पर होंगे।’’
कुछ देर बाद कबीर की कार मोटरवे पर थी। कबीर ने ऐक्सेलरेटर पर पैर का दबाव बढ़ाया। स्पीड का काँटा सत्तर, अस्सी से होते हुए सौ मील प्रति घंटे पर पहुँच गया। बाहर हवा गुनगुनी थी, इसलिए कबीर ने कार के विंडो खुले रखे थे। कार हवा से बातें करने लगी, और हवा का संगीत माया के कानों में गूँज उठा। माया को इस स्पीड में म़जा आने लगा, मगर थोड़ी देर बाद उसे अहसास हुआ कि कार की स्पीड, मोटरवे की स्पीड लिमिट से बहुत अधिक थी।
‘‘कबीर, तुम स्पीड लिमिट से बहुत अधिक स्पीड से चल रहे हो, स्पीडिंग टिकट मिलेगा तुम्हें।’’ माया ने कबीर को सावधान किया।
‘‘यार ये स्पीड लिमिट होती ही क्यों है?’’ कबीर ने खीझते हुए कहा।
‘‘डोंट बी सिली कबीर; स्पीड लिमिट से ऊपर चलने पर एक्सीडेंट का खतरा बढ़ जाता है।’’
‘‘तुम्हारी स्पीड लिमिट क्या है माया?’’
‘‘मेरी स्पीड लिमिट?’’
‘‘हाँ, तुम्हारी ज़िंदगी की स्पीड लिमिट?’’
माया ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर वह यूँ ही चुपचाप बैठी रही, फिर उसने कबीर से कहा, ‘‘कबीर, अब वापस चलते हैं; मुझे भूख लग रही है।’’
कबीर ने अगले एक्जिट से कार मोड़ते हुए वापस प्रिया के अपार्टमेंट की ओर ले ली।
अपार्टमेंट पर लौटकर, माया ख़ामोशी से खाना लगाने में लग गई। कबीर को माया की ख़ामोशी बेचैन करने लगी।
‘‘ये सारा खाना तुमने ख़ुद बनाया है?’’ कबीर ने माहौल की ख़ामोशी तोड़ने के इरादे से पूछा।
‘‘हाँ, ख़ास तुम्हारे लिए; आज काम से दो घंटे पहले लौट आई थी।’’ माया ने जताना चाहा कि उसे अपने काम और करियर के अलावा और ची़जों की भी परवाह रहती है।
‘‘ओह,थैंक्स माया; और हाँ सॉरी... मेरी वजह से आज तुम्हारा काम अधूरा रह गया।’’
‘‘काम कल पूरा जाएगा, लेट्स एन्जॉय डिनर नाउ।’’
‘‘वाओ! फ़ूड इ़ज ग्रेट... यू आर एन अमे़िजंग कुक माया।’’ कबीर ने खाना खाते हुए कहा।
‘‘चलो तुमने मेरी तारी़फ तो की।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कहा।
कबीर कुछ देर माया के चेहरे को देखता रहा। बॉसी और ओवरकॉंफिडेंट माया के चेहरे पर एक बेबस सी शिकायत उसे अच्छी नहीं लग रही थी। खाना खत्म करते ही कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! तुम मुझसे गिटार सुनना चाहती थीं?’’
‘‘हाँ, तुम्हें ही ध्यान नहीं रहा।’’ माया के लह़जे में अब भी हल्की शिकायत थी।
‘‘सॉरी, मगर अब ध्यान आ गया है।’’
‘‘सुनाओ, क्या सुनाओगे?’’
कबीर ने गिटार उठाकर उसकी तारों पर हिंदी फिल्म, ‘अजनबी’ के इस गीत की धुन छेड़नी शुरू की, ‘इक अजनबी हसीना से यूँ मुलाकात हो गई।’
‘‘साथ में गाकर भी सुनाओ।’’ माया ने अनुरोध किया।
‘‘माया, आई एम नॉट ए गुड सिंगर।’’
‘‘बैड ही सही, सिंगर तो हो।’’