Indian Sex Kahani डार्क नाइट - Page 5 - SexBaba
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Indian Sex Kahani डार्क नाइट

‘‘एक पीने के लिए...।’’
‘‘और दूसरी?’’
‘‘तुम्हें नहलाने के लिए।’’ कबीर ने शरारत से हँसते हुए कहा।
‘‘कबीर, आर यू क्रे़जी?’’ माया ने एक बार फिर उसे झिड़का।
‘‘कभी-कभी ख़ुद ही थोड़ा क्रे़जी हो जाना चाहिए; ज़िन्दगी को बहुत सीरियसली लो तो ज़िन्दगी बुरी तरह पागल कर देती है।’’ कबीर कुछ भावुक हो उठा। डिप्रेशन में बिताए दिनों की कड़वी यादें उभर आईं।
‘‘कबीर, तुम जानना चाहते थे कि मुझे क्या पसंद है!’’ माया ने कबीर के भावुक चेहरे पर गौर कर विषय बदलने के इरादे से कहा।
‘‘हाँ बताओ तुम्हें क्या पसंद है!’’ माया का वाक्य कबीर को उसकी कड़वी यादों से बाहर निकाल लाया।
‘‘मुझे स्पीड पसंद है।’’
‘‘कहाँ जाओगी इतनी स्पीड से? तुम्हें अपनी मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी क्यों है?’’
‘‘जल्दी नहीं है कबीर; यह ज़रूरी नहीं है कि स्पीड कहीं पहुँचने की जल्दी में ही हो... स्पीड का अपना थ्रिल होता है... स्पीड में म़जा आने लगे तो ख़ुद स्पीड ही मंज़िल बन जाती है।’’
‘‘ह्म्म्म...तो फिर चलो देखें तुम्हें कितनी स्पीड पसंद है।’’
‘मतलब?’
‘‘ड्राइव पर चलते हैं।’’
‘अभी?’
‘हाँ।’
कबीर ने कार स्टार्ट की। शाम ढल चुकी थी, फिर भी ट्रैफिक कम नहीं हुआ था। उस ट्रैफिक में स्पीड की कोई गुंजाइश नहीं थी।
‘‘जिस शहर में ज़िन्दगी की रफ्तार जितनी ते़ज हो, उसका ट्रैफिक उतना ही स्लो होता है।’’ कबीर ने अगले जंक्शन की ट्रैफिक लाइट्स पर कार को ब्रेक लगाते हुए कहा।
‘‘कबीर, मुझे पता नहीं था कि तुम फिलॉसफर भी हो।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘माया, मैंने किसी से कहा था कि अगर इंजिनियर नहीं बन पाया तो फिलॉसफर बन जाऊँगा।’’ कबीर को नेहा की याद आ गई।
‘‘मगर अब तो तुम इंजिनियर बन चुके हो।’’
‘‘मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है।’’ कबीर ने एक बार फिर नेहा को याद करते हुए कहा, ‘‘और तुम मुझसे जॉब कराके मुझे इंजिनियर बनाने पर तुली हो।’’
‘‘फिलॉसफी से ज़िंदगी नहीं चलती।’’
‘‘मगर ज़िंदगी चलकर पहुँचे कहाँ, ये फिलॉसफी ही तय करती है।’’
‘‘फ़िलहाल तो तुम ये तय करो कि हम जा कहाँ रहे हैं; अभी तक तो मुझे कोई स्पीड महसूस नहीं हुई है।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘बस थोड़ी देर में हम मोटरवे पर होंगे।’’
कुछ देर बाद कबीर की कार मोटरवे पर थी। कबीर ने ऐक्सेलरेटर पर पैर का दबाव बढ़ाया। स्पीड का काँटा सत्तर, अस्सी से होते हुए सौ मील प्रति घंटे पर पहुँच गया। बाहर हवा गुनगुनी थी, इसलिए कबीर ने कार के विंडो खुले रखे थे। कार हवा से बातें करने लगी, और हवा का संगीत माया के कानों में गूँज उठा। माया को इस स्पीड में म़जा आने लगा, मगर थोड़ी देर बाद उसे अहसास हुआ कि कार की स्पीड, मोटरवे की स्पीड लिमिट से बहुत अधिक थी।
‘‘कबीर, तुम स्पीड लिमिट से बहुत अधिक स्पीड से चल रहे हो, स्पीडिंग टिकट मिलेगा तुम्हें।’’ माया ने कबीर को सावधान किया।
‘‘यार ये स्पीड लिमिट होती ही क्यों है?’’ कबीर ने खीझते हुए कहा।
‘‘डोंट बी सिली कबीर; स्पीड लिमिट से ऊपर चलने पर एक्सीडेंट का खतरा बढ़ जाता है।’’
‘‘तुम्हारी स्पीड लिमिट क्या है माया?’’
‘‘मेरी स्पीड लिमिट?’’
‘‘हाँ, तुम्हारी ज़िंदगी की स्पीड लिमिट?’’
माया ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर वह यूँ ही चुपचाप बैठी रही, फिर उसने कबीर से कहा, ‘‘कबीर, अब वापस चलते हैं; मुझे भूख लग रही है।’’
कबीर ने अगले एक्जिट से कार मोड़ते हुए वापस प्रिया के अपार्टमेंट की ओर ले ली।
अपार्टमेंट पर लौटकर, माया ख़ामोशी से खाना लगाने में लग गई। कबीर को माया की ख़ामोशी बेचैन करने लगी।
‘‘ये सारा खाना तुमने ख़ुद बनाया है?’’ कबीर ने माहौल की ख़ामोशी तोड़ने के इरादे से पूछा।
‘‘हाँ, ख़ास तुम्हारे लिए; आज काम से दो घंटे पहले लौट आई थी।’’ माया ने जताना चाहा कि उसे अपने काम और करियर के अलावा और ची़जों की भी परवाह रहती है।
‘‘ओह,थैंक्स माया; और हाँ सॉरी... मेरी वजह से आज तुम्हारा काम अधूरा रह गया।’’
‘‘काम कल पूरा जाएगा, लेट्स एन्जॉय डिनर नाउ।’’
‘‘वाओ! फ़ूड इ़ज ग्रेट... यू आर एन अमे़िजंग कुक माया।’’ कबीर ने खाना खाते हुए कहा।
‘‘चलो तुमने मेरी तारी़फ तो की।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कहा।
कबीर कुछ देर माया के चेहरे को देखता रहा। बॉसी और ओवरकॉंफिडेंट माया के चेहरे पर एक बेबस सी शिकायत उसे अच्छी नहीं लग रही थी। खाना खत्म करते ही कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! तुम मुझसे गिटार सुनना चाहती थीं?’’
‘‘हाँ, तुम्हें ही ध्यान नहीं रहा।’’ माया के लह़जे में अब भी हल्की शिकायत थी।
‘‘सॉरी, मगर अब ध्यान आ गया है।’’
‘‘सुनाओ, क्या सुनाओगे?’’
कबीर ने गिटार उठाकर उसकी तारों पर हिंदी फिल्म, ‘अजनबी’ के इस गीत की धुन छेड़नी शुरू की, ‘इक अजनबी हसीना से यूँ मुलाकात हो गई।’
‘‘साथ में गाकर भी सुनाओ।’’ माया ने अनुरोध किया।
‘‘माया, आई एम नॉट ए गुड सिंगर।’’
‘‘बैड ही सही, सिंगर तो हो।’’
 
‘‘ओके...आई विल ट्राइ।’’ कहते हुए कबीर ने गाना शुरू किया,
‘‘...खूबसूरत बात ये, चार पल का साथ ये,
सारी उमर मुझको रहेगा याद,
मैं अकेला था मगर, बन गई वो हमस़फर...।’’
कबीर गाते-गाते अचानक रुक गया।
‘‘क्या हुआ कबीर?’’ माया ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं; रात बहुत हो गई है, मुझे घर जाना चाहिए।’’
‘‘हाँ, रात बहुत हो गई है; तुम यहीं क्यों नहीं रुक जाते?’’
‘‘नो माया, इट वोंट लुक राइट।’’
‘‘बहुत परवाह है लोगों की?’’
‘‘लोगों की नहीं, तुम्हारी।’’
‘‘अगर मेरी परवाह है तो रुक जाओ, मैं कह रही हूँ।’’
‘‘तुम्हारे इरादे तो ठीक हैं न माया?’’ कबीर ने शरारत से पूछा।
‘‘शटअप कबीर, तुम प्रिया के बॉयफ्रेंड हो।’’ माया ने कबीर को झिड़का।
‘‘आई कैन मैनेज टू गर्लफ्रेंड्स।’’ कबीर ने फिर शरारत की।
‘‘बट आई कांट शेयर माइ बॉयफ्रेंड विद एनीवन।’’
‘‘हूँ, मतलब तुम मुझे प्रिया से ब्रेकअप करने को कह रही हो?’’
‘‘कबीर, म़जाक की भी कोई हद होती है।’’ माया ने फिर से कबीर को झिड़का।
‘‘और अगर मैं कहूँ कि मैं म़जाक नहीं कर रहा तो?’’ कबीर की आँखों में अब भी शरारत थी।
‘‘तो मैं कहूँगी कि तुम मेरी बेस्ट फ्रेंड को चीट कर रहे हो; अब जाओ, जाकर उस कमरे में सो जाओ।’’ माया ने कबीर को धक्का देते हुए कहा।
कबीर, माया को गुडनाइट कहकर सोने चला गया। माया भी अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गई; मगर उसे नींद नहीं आ रही थी। उसे बार-बार कबीर की बातें याद आ रही थीं। ‘इतनी स्पीड से कहाँ जाओगी माया?’ , ‘तुम्हारी स्पीड लिमिट कितनी है माया?’, ‘‘माया को कौन से रंग पसंद हैं, कौन से फूल पसंद हैं, कैसी तस्वीरें पसंद हैं, माया कितनी रोमांटिक है,...’’ उसने तो इन सब बातों के बारे में कभी सोचा भी न था; उसे तो बस अपने करियर और सक्सेस की ही फ़िक्र थी, और वो उस फ़िक्र में ही व्यस्त थी। मगर व्यस्त ही सही, अच्छी खासी चल रही थी उसकी ज़िंदगी। ‘ज़िंदगी चलकर पहुँचे कहाँ, यह फिलासफी ही तय करती है।’ माया की ज़िंदगी की फिलासफी क्या थी... क्या अर्थ देना चाहती थी वह अपने जीवन को? माया, करवटें बदलते हुए यही सोचती रही। नींद उसे बहुत देर तक नहीं आई।
कुछ दिन बाद माया ने कबीर को फ़ोन किया, ‘‘हे कबीर! देयर इ़ज ए गुड न्यू़ज; अवर फ़र्म वांट्स टू इंटरव्यू यू; और अगर तुम उन्हें पसंद आए तो तुरंत ज्वाइन करना होगा।’’
‘‘तुम्हें मेरे पसंद आने पर शक है?’’ कबीर ने म़जाक किया।
‘‘ये नौकरी का इंटरव्यू है, किसी लड़की के साथ डेट नहीं।’’ माया ने भी उसी शरारत से जवाब दिया।
‘‘ओके, कब है इंटरव्यू?’’
‘‘कल; मैं तुम्हें डिटेल ईमेल करती हूँ।’’
‘‘थैंक्स माया।’’
कबीर, नौकरी को लेकर अधिक उत्साहित नहीं था, मगर माया का साथ उसे अच्छा लगने लगा था। माया, उसकी आवारा उमंगों को काबू करना चाहती थी। कबीर को अपनी आवारगी पसंद थी, मगर फिर भी उसका मन माया की लगाम में कस जाना चाह रहा था। माया के बॉसी रवैये में उसे एक सेक्स अपील दिखने लगी थी; जैसी उसे कभी लूसी की अदाओं में दिखी थी। प्रिया की आँखों में कबीर ने एक तिलिस्म देखा था, जिसमें भटककर वह अपनी मंज़िल ढूँढ़ना चाहता था। मगर माया तो पूरी की पूरी एक तिलिस्मी हुकूमत थी। इस हुकूमत में एक अजीब सा आकर्षण था, उसकी किशोरमन की फैंटेसियों की झाँकी थी, उसके अतीत की कल्पनाओं का बिम्ब था। यौवन का प्रेम, किशोर मन की कल्पनाओं की छवि होता है। प्रेम की ललक अतीत के प्रेम की ललक होती है।
 
कबीर, नौकरी को लेकर अधिक उत्साहित नहीं था, मगर माया का साथ उसे अच्छा लगने लगा था। माया, उसकी आवारा उमंगों को काबू करना चाहती थी। कबीर को अपनी आवारगी पसंद थी, मगर फिर भी उसका मन माया की लगाम में कस जाना चाह रहा था। माया के बॉसी रवैये में उसे एक सेक्स अपील दिखने लगी थी; जैसी उसे कभी लूसी की अदाओं में दिखी थी। प्रिया की आँखों में कबीर ने एक तिलिस्म देखा था, जिसमें भटककर वह अपनी मंज़िल ढूँढ़ना चाहता था। मगर माया तो पूरी की पूरी एक तिलिस्मी हुकूमत थी। इस हुकूमत में एक अजीब सा आकर्षण था, उसकी किशोरमन की फैंटेसियों की झाँकी थी, उसके अतीत की कल्पनाओं का बिम्ब था। यौवन का प्रेम, किशोर मन की कल्पनाओं की छवि होता है। प्रेम की ललक अतीत के प्रेम की ललक होती है।
अगले दिन कबीर का इंटरव्यू हुआ और उसे जॉब मिल गई। माया बहुत खुश हुई। उसने चहकते हुए कबीर को गले लगाकर कहा,‘‘कन्ग्रैचलेशंस कबीर! वेल डन।’’

‘‘थैंक्स माया।’’ कबीर ने भी माया को बाँहों में भींचते हुए कहा। मगर कबीर जानता था, कि वह थैंक्स जॉब के लिए नहीं था। माया को बाँहों में भींचते हुए कबीर को वैसा ही महसूस हुआ, जैसा उसे कभी टीना की बाँहों में लिपटकर हुआ था। भय में लिपटा आनंद, जिसे वह अपनी बाँहों से निकलने तो नहीं देना चाहता था, मगर माया के आलिंगन में पिघल जाने का भय उस आनंद को निस्तेज कर रहा था।

‘‘कबीर, ट्रीट कब दे रहे हो?’’ कबीर की बाँहों के घेरे से ख़ुद को हल्के से छुड़ाते हुए माया ने पूछा।

‘‘जब चाहो।’’ बाँहों से माया के निकलते ही, कबीर का मन भी उसके भय से स्वतंत्र हुआ।

‘‘आज शाम को?’’

‘डन।’

‘‘कहाँ ले जाओगे?’’

‘‘वह तुम्हें शाम को ही पता चलेगा।’’ कबीर ने मुस्कुराकर कहा।

उस शाम कबीर, माया को थेम्स नदी पर डिनर क्रू़ज पर ले गया। चेरिंगक्रॉस मेट्रो स्टेशन से निकलकर, एम्बैकमेंटपियर पर बोट में पहुँचते ही एक जादुई परिवेश ने उन्हें घेर लिया। बोट के भीतर बना खूबसूरत रेस्टोरेंट, चमचमाता बार, काँच की चौड़ी खिड़कियों के पार नदी के किनारे तनी भव्य इमारतें, नदी की धारा में झिलमिलाती सतरंगी रौशनी; और बोट के भीतर लाइव जा़ज बैंड की धीमी मादक धुन, जो दिलकश माहौल पैदा कर रहे थे; उसमें उनका डूब जाना ला़जमी था। बार से ड्रिंक्स लेकर वे डेक पर पहुँचे। थेम्स के प्रवाह से उठती ठंढी मंद हवा में, जा़ज संगीत की धुन तैर रही थी। शाम ढलने लगी थी, और आसमान में कुछ तारे भी टिमटिमाने लगे थे।

‘‘वाओ! दिस इ़ज अमे़िजंग; मेनी थैंक्स फॉर दिस कबीर।’’ माया ने ड्रिंक का एक हल्का घूँट भरते हुए कहा।

‘‘धीमी रौशनी, धीमी हवा, धीमा संगीत... सब कुछ कितना अच्छा लग रहा है न माया!’’ कबीर ने कहा।

‘‘सच में कबीर; मन कर रहा है कि समय बस यहीं ठहर जाए।’’ माया ने अपने बालों की लहराती लटों को सँभाला।

‘‘समय नहीं ठहरता माया; हमें ठहरना होता है।’’

‘मतलब?’

‘‘माया! समय के प्रवाह के परे, जहाँ से पल टूटते हैं; उसमें डूबना होता है। उसमें डूबकर, हर टूटते पल को ख़ुद से गु़जरने देना होता है। कुछ देर के लिए अपनी आँखें मूंद लो; इस ठंढी हवा को, इसमें तैरते संगीत को ख़ुद से होकर गु़जरने दो। इसके हर कॉर्ड को, हर नोट को महसूस करो माया।’’ माया की पलकों पर अपना हाथ फेरते हुए कबीर ने कहा।

माया ने आँखें बंदकर, कुछ देर के लिए समय के प्रवाह को ख़ुद से बेरोकटोक गु़जरने दिया। ठंढी मंद हवा उसके बदन को सहलाती रही; उसमें तैरता संगीत उसकी आत्मा को भिगाता रहा।

‘‘हे माया, कहाँ खो गर्इं?’’ कबीर ने हल्के से माया का कन्धा थपथपाया।

‘‘इट वा़ज एन अमे़िजंग एक्सपीरियंस कबीर।’’ माया ने धीमे से आँखें खोलीं।

‘‘क्या महसूस किया?’’

‘‘ऐसा लगा, जैसे कि सुर मेरी आत्मा से होकर बह रहे हों... जैसे कि संगीत मेरे भीतर गँुथ रहा हो; जैसे कि मेरा विस्तार हो रहा हो संगीत के इस छोर से उस छोर तक...।’’ माया का चेहरा किसी सूरजमुखी सा खिला हुआ था।

‘‘माया, आज तुम पहाड़ी राग की तरह सुंदर लग रही हो।’’ कबीर की ऩजरें माया के खिले हुए चेहरे पर थम गर्इं। कबीर के शब्द, माया के चेहरे पर एक शर्म में लिपटा अभिमान बिखेर गए। माया ने अपनी पलकें झुकाईं, और नदी की धारा में झिलमिलाती रौशनी निहारने लगी। माया ने अब तक अपनी न जाने कितनी प्रशंसाएँ सुनी थीं; मगर हर बार तुलना किसी मूर्त बिंब से ही हुई थी। पहली बार किसी ने उसके सौन्दर्य में एक अमूर्त अलंकार जड़ा था। कबीर की प्रशंसा से उसके भीतर एक मधुर रागिनी सी मचल गई।

अगली शाम कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! चलो तुम्हें किसी से मिलाता हूँ।’’

‘किससे?’

‘‘मेरे गुरु हैं।’’

‘‘किस ची़ज के?’’

‘‘हर ची़ज के; मेरे जीवन के गुरु हैं।’’

‘‘अच्छा, चलो।’’
 
चैप्टर 19

इस तरह मेरी मुलाकात माया से हुई। जिस माया से मैं मिला, वह उस माया से का़फी अलग थी, जिससे कबीर पहली बार मिला था। मर्दों से होड़ लेने वाली माया, अब अपने भीतर की औरत को ढूँढ़ रही थी। सफलता और समृद्धि पाने की जो लपट उसके भीतर थी, वह धीमी पड़ रही थी।

‘नमस्कार!’ मैंने माया का हाथ जोड़कर अभिवादन किया।

पुरुषों से तपाक से हाथ मिलाने की आदी माया को, मेरे अभिवादन के तरीके से थोड़ा आश्चर्य हुआ, मगर फिर भी उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘मेरा नाम माया है।’’

‘‘मेरा नाम काम है; और मेरा काम माया से मुक्ति दिलाना है।’’ मैंने हँसते हुए कहा।

‘‘हा हा..यू आर फनी।’’ माया ने हँसते हुए कहा, ‘‘फिर तो कबीर को आपसे दूर रहना चाहिए।’’

‘‘कबीर मेरे पास हो या मुझसे दूर; मैं उसे कभी आपके सौन्दर्य से दूर रहने की शिक्षा नहीं दूँगा।’’ मैंने माया के खूबसूरत चेहरे को निहारते हुए कहा।

‘‘मैं कुछ समझी नहीं।’’ माया के चेहरे पर उलझन की कुछ लकीरें खिंच आर्इं।

‘‘माया, मनुष्य की मुक्ति सौन्दर्य से नहीं, बल्कि सौन्दर्य में है।’’

‘कैसे?’

‘‘मनुष्य की मुक्ति, जीवन के सौन्दर्य को समझने में है, जीवन के सौन्दर्य को जीने में है... आ़िखर सौन्दर्य है क्या? क्या सौन्दर्य सि़र्फ मूर्त में है? सि़र्फ रंगों और आकृतियों में बसा है? क्या वह सि़र्फ रूप और शृंगार में समाया है? क्या वह दृश्य में है? या दृश्य से परे दर्शक की दृष्टि में है? या दृश्य और दृष्टि के पारस्परिक नृत्य से पैदा हुए दर्शन में है? मगर जो भी है, सौन्दर्य में एक पवित्र स्पंदन है; सौन्दर्य हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा होता है। हमारे मिथकों में, पुराणों में, साहित्य में, सौन्दर्य किसी गाइड की तरह प्रकट होता है, जो अँधेरी राहों को जगमगाता है, पेचीदा पहेलियों को सुलझाता है, भ्रांतियों की धुंध चीरता है, और पथिक को कठिनाइयों के कई पड़ाव पार कराता हुआ सत्य की ओर ले जाता है।’’

‘‘हूँ... वेरी डीप।’’ माया ने मेरे शब्दों पर विचार करते हुए कहा, ‘‘और वह सत्य क्या है?’’

‘‘वह सत्य है मनुष्य की अपनी जागृति... सौन्दर्य के प्रति पूरी तरह जागृत होना ही सत्य है; वही मुक्ति है उस भटकाव से, उस भ्रम से; जिससे गु़जरकर मनुष्य सौन्दर्य को समझता है।’’

‘‘भ्रम और भटकाव?’’

‘‘माया, हम सौन्दर्य को मूर्त में ही देखने के आदी हैं। एक औरत होते हुए तुमसे बेहतर कोई इसे क्या समझ सकता है। हम नारी की देह, उसके रूप और उसके शृंगार में ही उसका सौन्दर्य देखते हैं; पुरुष ही नहीं, नारी भी यही करती है; मगर नारी का सौन्दर्य, उसकी देह, रूप और शृंगार के परे भी बसा होता है... उसके सौम्य स्वभाव में, उसकी करुणा में, उसके नारीत्व की दिव्य प्रकृति में; मगर ये दुर्भाग्य है कि आज नारी स्वयं अपने सौन्दर्य को नहीं समझती। आज की अधिकांश नारियाँ न तो अपने सौन्दर्य के उस संगीत को सुन पाती हैं, जो उनकी देह के परे गूँजता है, और न ही उसमें यकीन करती हैं...और पुरुषों का भी यही हाल है। बहुत कम पुरुष होते हैं, जो नारी के इस अतीन्द्रिय सौन्दर्य को देख पाते हैं; नतीजा ये है कि हमारे समाज से नारीत्व खो रहा है; हमारे समाज का सबसे बड़ा नुकसान उसके नारीत्व के खोने में ही है; और हमारे समाज की मुक्ति, उस नारीत्व को फिर से जीवित करने में है।’’

माया मेरे शब्दों पर गौर करती रही। वो कबीर के साथ बिताए अब तक के समय पर भी गौर करती रही। उसके भीतर फिर एक लपट उठने लगी; मगर वह लपट पिछली लपट, से बहुत अलग थी। वह एक ऐसी लपट थी, जिसकी गुनगुनी आँच में उसका सौन्दर्य निखरने लगा था। माया से मेरी और भी बातें हुर्इं; कुछ गंभीर और कुछ हँसी म़जाक भरी। अंत में जाने से पहले माया ने दोनों हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया। मैंने जवाब में अपना हाथ बढ़ाया, ‘‘गुड टू मीट यू माया; होप टू सी यू अगेन।’’

‘‘ओह येह, इट वा़ज ए ग्रेट प्ले़जर टू मीट यू।’’ माया ने मुझसे हाथ मिलाकर कहा।
 
उस रात माया, वही गुनगुनी आँच लपेटे घर लौटी; मगर वह आँच बहुत देर तक सि़र्फ गुनगुनी न रही। अचानक माया को अपने बॉटम में एक ते़ज दर्द सा महसूस हुआ, जैसे कि कोई शूल सा चुभा हो, जैसे कि उसकी स्कर्ट के भीतर कोई शोला सुलग उठा हो, जैसे कि उसकी पैंटी ने आग पकड़ ली हो। माया ने झटपट अपनी स्कर्ट नीचे खींची, और अपनी नायलोन की पैंटी को छूकर देखा। पैंटी तप रही थी। माया ने झटके से पैंटी भी नीचे खींचकर पैरों पर उतारी, मगर उसकी जलन कम न हुई। माया ने तुरंत अपना मोबाइल फ़ोन उठाया, और कबीर को फ़ोन लगाया।

‘‘हे कबीर!’’ माया ने चीखते हुए कहा।

‘‘माया, क्या हुआ? आर यू ओके?’’ कबीर ने चौंकते हुए पूछा।

‘‘नो कबीर, मेरा बदन जल रहा है।’’ माया एक बार फिर चीखी।

‘‘व्हाट? तुम्हें फीवर है?’’

‘‘नहीं, बहुत तीखी जलन है; कबीर तुम यहाँ आ सकते हो, अभी?’’

‘‘हाँ माया, मैं अभी आया।’’ कबीर ने घबराते हुए कहा।

माया की जलन बढ़ती गयी। उसके बॉटम और क्रॉच से होकर जलन किसी ते़ज लपट की तरह उसकी कमर और पीठ पर पहुँचने लगी। माया ने अपनी टाँगों को झटककर स्कर्ट और पैंटी उतारी, और दौड़कर बाथरूम के भीतर गई। झटपट अपना टॉप और ब्रा उतारते हुए शावर के नीचे खड़े होकर शॉवर चालू किया। शावर के टेम्प्रेचर कण्ट्रोल को सबसे ठण्ढे वाले हिस्से पर घुमाते हुए उसने ख़ुद पर लगभग बर्फीले पानी की बौछार कर डाली, मगर उसकी जलन अब भी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। माया ने शावर के हैंडल को पकड़कर उसे शॉवर स्टैंड से नीचे खींचा, और पानी की धार सीधे अपने क्रॉच पर डाली। सुलगते क्रॉच पर बर्फीले ठण्ढे पानी की धार से उसे थोड़ी राहत मिली। माया ने एक ठण्ढी साँस ली, और पानी की धार को थोड़ा और ते़ज किया। थोड़ी सी राहत और मिली। माया अब बेहतर महसूस कर रही थी, मगर तभी अपार्टमेंट की डोरबेल बजी। कबीर आ चुका था। माया, शॉवर से हटना नहीं चाहती थी, मगर कबीर के लिए दरवा़जा खोलना भी ज़रूरी था। माया ने शावर से निकलते हुए अपने गीले बदन पर तौलिया लपेटा और दौड़कर दरवा़जा खोला।

‘‘माया, क्या हुआ?’’ माया के गीले बदन को यूँ सि़र्फ एक तौलिये में लिपटे देख कबीर को एक गुनगुनी कसक सी हुई; जैसे कि माया के बदन में उठती आँच उसके बदन तक पहुँच गई हो।

‘‘कबीर, आई एम स्केयर्ड।’’ कहते हुए माया कबीर से लिपट गई।

माया के भीगे बदन का यूँ अचानक उससे लिपटना... कबीर इसके लिए तैयार नहीं था। उसे ऐसा लगा, मानो कोई ते़ज लौ, लहराकर उससे लिपट गई हो। माया ने उसे कसकर अपनी बाँहों में भींच लिया; इतनी ज़ोरों से, कि ख़ुद माया का बदन तौलिये के भीतर कस गया, और उसके बदन पर लिपटा तौलिया ढीला होकर नीचे सरकने लगा... मगर माया को जैसे उसकी फ़िक्र ही नहीं थी। उसे अचानक महसूस हुआ कि कबीर के बदन से लिपटकर उसके बदन को कुछ ठंढक मिली। उसकी जलन जाने लगी। उस वक्त माया बस वही चाहती थी; बदन की जलन से मुक्ति। माया ने अपने बदन को इतना कसा, कि तौलिया खुलकर नीचे पैरों में जा गिरा। माया का बेलिबास बदन, कबीर के बदन से जा सटा। माया के बदन को मिलती ठंढक, कबीर के बदन को आँच देने लगी। माया का भीगा बदन, कबीर से लिपटा हुआ था। माया के मुलायम अंग उसे अपने भीतर कस रहे थे। कबीर को एक बार फिर वैसा ही महसूस हुआ, जैसा उसे कभी टीना के बदन से लिपटकर हुआ था... वही आनंद, वही भय, वही कशमकश; मगर अबकी बार न कबीर ख़ुद पर काबू रख पाया, और न ही माया उसे छोड़ने को तैयार हुई। कबीर ने माया की कमर पर अपनी बाँहें लपेटीं। माया ने अपने हाथ उसकी पीठ पर सरकाते हुए उसके कन्धों पर जमाए, और अपनी दायीं टाँग उठाकर अपना घुटना कबीर की टाँगों के बीच डालकर उसे अपनी ओर इतना खींचा, कि उसका क्रॉच कबीर के प्राइवेट से जा सटा। कबीर का प्राइवेट कुछ इतना तना, कि उसके दबाव से माया के क्रॉच की रही-सही जलन भी जाती रही। कबीर ने माया के कूल्हों को जकड़ा, और अपने होंठ उसके होंठों पर रख दिए। माया के पूरे बदन में शीतलता की एक लहर सी दौड़ गई।
 
कुछ देर के लिए माया ख़ुद को भूल गई; जैसे कि माया और कबीर के बदन एक हो गए हों; जैसे कि माया की आत्मा का विस्तार, कबीर के बदन तक हो चुका हो; मगर फिर अचानक माया को न जाने क्या हुआ हुआ, उसने एक झटके से कबीर को धकेला। कबीर सँभल नहीं पाया, और पीछे काउच पर जा गिरा।

‘माया!’ कबीर ने चौंकते हुए कहा।

माया ने झटपट नीचे झुककर, फर्श पर गिरा तौलिया उठाया, और अपने बदन पर लपेटते हुए कहा, ‘‘कबीर ये ठीक नहीं है।’’

‘‘क्या माया?’’

‘‘हम प्रिया के घर में ही उसके साथ ये धोखा नहीं कर सकते।’’

कबीर को भी अचानक इसका अहसास हुआ कि जो हो रहा था वह प्रिया के विश्वास के साथ धोखा था।

‘‘सॉरी माया, इट्स माइ फाल्ट... मैं ख़ुद पर काबू नहीं रख पाया।’’ कबीर ने नीची ऩजरों से कहा।

‘‘नो कबीर, इट वा़ज माइ फाल्ट।’’ माया की ऩजरें भी नीची ही थीं।

‘‘माया तुम अब ठीक तो हो?’’ कबीर ने मुश्किल से ऩजरें उठाते हुए पूछा।

‘‘हाँ कबीर, मैं ठीक हूँ।’’ माया की ऩजरें अब भी नीची ही थीं।

‘‘माया, देयर इ़ज नथिंग टू वरी... अच्छा मैं चलता हूँ।’’ कहते हुए कबीर तुरंत अपार्टमेंट से निकल आया। माया ने ऩजरें उठाकर कबीर को जाते हुए देखा। उसके बदन की जलन जा चुकी थी। उसका दिल बैठा जा रहा था।

अगले दिन कबीर को माया की फ़र्म ज्वाइन करनी थी। उसके इंडक्शन की तैयारी थी; मगर कबीर समय पर पहुँचा नहीं था। माया ने कबीर को फ़ोन लगाया, मगर कबीर ने फ़ोन नहीं उठाया। माया को बेचैनी हुई। कबीर की जॉब उसकी सिफारिश पर लगी थी; अगर कबीर नहीं आया, तो उसकी रेपुटेशन पर धब्बा लगना था। माया ने फिर कबीर का फ़ोन ट्राई किया, मगर इस बार भी नो रिस्पांस था। माया को कबीर पर गुस्सा आने लगा। वह उसका फ़ोन ट्राई करती रही। चौथी बार में कबीर ने फ़ोन उठाया।

‘‘कबीर! क्या बात है; आज तुम्हें ज्वाइन करना है, और तुम अभी तक पहुँचे नहीं।’’ माया ने गुस्से से पूछा।

‘‘सॉरी माया, मेरा मन नहीं कर रहा।’’ कबीर ने अनमना सा जवाब दिया।

‘‘तुम्हारा मन नहीं कर रहा है? तुम्हारे इंडक्शन की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं, और तुम्हारा मन नहीं कर रहा है! लोग तुम्हारा इंत़जार कर रहे हैं, और तुम्हारा मन नहीं कर रहा है? मेरी रेपुटेशन दाँव पर लगी है, और तुम्हारा मन नहीं कर रहा है? ये क्या म़जाक बना रखा है कबीर!’’ माया चीख उठी।

‘‘सॉरी माया, बट....।’’

‘‘नो इफ एंड बट, आई वांट टू सी यू हियर राइट नाउ... पन्द्रह मिनट में मेरे ऑफिस पहुँचो।’’ कहते हुए माया ने फ़ोन काट दिया।

कबीर, माया के ऑफिस पहुँचा। एच आर हेड, मि. सिंग ने उसे वेलकम किया,‘‘हे यंग मैन, वेलकम! वी हैव बीन वेटिंग फॉर यू फॉर मोर देन एन ऑवर।’’
‘‘आई एम सॉरी फॉर कमिंग लेट।’’ कबीर ने ऩजरें नीची किए हुए कहा।

‘‘कबीर, हमने आपको माया की सि़फारिश पर लिया है; और माया बहुत ही हार्डवर्किंग और पंक्चुअल है; हमारी आपसे भी यही एक्स्पेक्टेशन्स हैं।’’

‘‘आई विल ट्राय माइ बेस्ट।’’ कबीर ने मि. सिंग से ऩजरें मिलाते हुए कहा।

‘‘यू मस्ट।’’ मि. सिंग ने कबीर का कन्धा थपथपाते हुए कहा।

‘‘दिस इ़ज निशा, अवर सीनियर एच आर मैनेजर... शी विल बी कंडक्टिंग योर इंडक्शन।’’ मि. सिंग ने पास खड़ी लगभग सत्ताइस-अट्ठाइस साल की लड़की से कबीर का परिचय कराया।

‘‘हाय कबीर!’’ निशा ने कबीर की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा।

‘‘हाय निशा!’’ कबीर ने निशा से हाथ मिलाया।

‘‘लेट्स गो एंड कमेंस योर इंडक्शन।’’ निशा ने कुछ फाइलें थामते हुए कहा।
 
‘‘माया इ़ज ए स्टार; हमारी फ़र्म किसी को भी इतनी आसानी से रिक्रूट नहीं करती; मगर माया ने तुम्हें रिकमेंड किया तो हमें एक बार भी सोचना नहीं पड़ा।’’ निशा ने चलते हुए कहा।

‘थैंक्स।’ कबीर बस इतना ही कह पाया।

पहले दिन ही कबीर को माया की तुलना में छोटा महसूस करना पड़ा। माया न सि़र्फ उसकी सीनियर थी, बल्कि उसने उस फ़र्म में अपनी अच्छी खासी रेपुटेशन भी बना रखी थी; और कबीर की परेशानी ही यही थी। उसका मन उसे माया के अधीन होने को खींचता था। उसे डर था कि कहीं वह माया के आगे समर्पण न कर बैठे।

कबीर ने इंडक्शन पूरा किया, मगर माया से कतराता रहा। पूरे दिन उसने माया से ऩजरें चुराईं। अगले कुछ दिन भी यही हुआ। कबीर काम पर जाता, काम में मन लगाने की कोशिश करता, मगर माया से ऩजरें चुराता रहता। माया को बेचैनी हुई। माया की फ़र्म में लगभग हर किसी को अंदा़ज था, कि कबीर की जॉब माया की सिफारिश से लगी थी, और हर कोई ये महसूस कर रहा था, कि कबीर माया से कतरा रहा था।

‘‘हाय कबीर! माया कहाँ है?’’ कबीर को ऑफिस की कैंटीन में अकेले बैठे, कॉ़फी पीते देख निशा ने पूछा।

‘‘माया बि़जी है।’’ कबीर ने रूखा सा जवाब दिया।

‘‘इतनी बि़जी कि तुम्हारे साथ एक कप कॉ़फी भी नहीं पी सकती?’’

‘‘ये तो माया ही जाने।’’ कबीर का जवाब अब भी रूखा ही था।

‘‘कोई प्रॉब्लम है तुम दोनों के बीच?’’

‘‘नहीं निशा; तुम जानती हो माया को अपना काम पसंद है।’’ कबीर को अहसास हुआ कि वह निशा के साथ बेरुखी से बात कर रहा था।

‘‘और तुम्हें माया।’’ निशा ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘ये क्या कह रही हो निशा!’’ कबीर ने निशा से आँखें चुराते हुए कहा।

‘‘माया को देखकर जिस ते़जी से तुम्हारा दिल धड़कता है, उसकी आवा़ज कोई भी सुन सकता है।’’ निशा ने एक बार फिर शरारत से मुस्कुराकर कहा।

‘‘सिवा माया के।’’ कबीर के मुँह से अनायास निकल पड़ा।

निशा मुस्कुराती हुई कबीर का शर्म से लाल हुआ चेहरा देखती रही। कबीर ने शरमाकर आँखें झुका लीं।

निशा के सामने अपने प्रेम को स्वीकार कर लेने के बाद, कबीर की उलझनें और भी बढ़ गयीं। अब वह सि़र्फ माया से ही नहीं, बल्कि हर किसी से ऩजरें चुराने लगा। इससे उसका काम भी प्रभावित होने लगा, साथ ही ऑफिस में भी यह फुसफुसाहट होने लगी, कि कबीर और माया के बीच कुछ गड़बड़ है। माया का इससे परेशान होना स्वाभाविक था। एक दिन माया ने कबीर को फ़ोन किया,
 
निशा के सामने अपने प्रेम को स्वीकार कर लेने के बाद, कबीर की उलझनें और भी बढ़ गयीं। अब वह सि़र्फ माया से ही नहीं, बल्कि हर किसी से ऩजरें चुराने लगा। इससे उसका काम भी प्रभावित होने लगा, साथ ही ऑफिस में भी यह फुसफुसाहट होने लगी, कि कबीर और माया के बीच कुछ गड़बड़ है। माया का इससे परेशान होना स्वाभाविक था। एक दिन माया ने कबीर को फ़ोन किया,

‘‘कबीर, मुझे हमारे प्राइम इन्वेस्टर्स की इन्वेस्टमेंट रिपोर्ट चाहिए; क्या तुम मुझे कंप्यूटर से निकालकर दे सकते हो?’’

‘‘येह श्योर।’’

कबीर ने रिपोर्ट प्रिंट की, और ले जाकर माया की डेस्क पर रखकर लौटने लगा। माया से ऩजर उसने इस बार भी नहीं मिलाई।

‘‘वन मिनट कबीर।’’ माया ने कहा।

‘क्या?’ कबीर ने बड़ी मुश्किल से माया से ऩजर मिलाई।

‘‘तुम मुझे अवॉयड क्यों कर रहे हो?’’

‘‘माया, हमारे लिए अच्छा यही है कि हम एक दूसरे से न मिलें।’’

‘‘क्यों? क्यों न मिलें? क्या हो जाएगा मिलने से? तुम ख़ुद पर काबू नहीं रख पाओगे? मैं ख़ुद पर काबू नहीं रख पाऊँगी? कबीर, क्या तुम इतने भी मेच्योर नहीं हुए हो, कि किसी लड़की के सामने ख़ुद को काबू में रख सको?’’ माया ने कबीर को झिड़का।

कबीर को एक चोट सी लगी। पिछली बार कब, किसने कहा था कि वह मच्योर नहीं हुआ था? कितनी पीड़ा दी थी हिकमा के उस एक वाक्य ने। नौ साल हो गए उस बात को... क्या वह अब तक मच्योर नहीं हुआ था।

‘‘कबीर, लेट्स गो टू कै़फे; मुझे तुमसे बात करनी है।’’ माया ने अपनी चेयर से उठते हुए कहा।

माया और कबीर, ऑफिस से निकलकर, बाहर सड़क के मोड़ पर बने कै़फे में गए। छोटा सा कै़फे व्यस्त था, मगर फिर भी माया ने बैठने के लिए ऐसा बूथ ढूँढ़ निकाला, जहाँ आसपास भीड़ नहीं थी।

‘‘क्या लोगी?’’ कबीर ने माया से पूछा।

‘‘कबीर तुम्हें क्या हो गया है; तुम जानते हो कि मैं कैपुचिनो लेती हूँ।’’ माया ने आश्चर्य से कहा।

‘‘ओह सॉरी!’’ कहते हुए कबीर उठा, और बार से माया के लिए कैपुचिनो और अपने लिए लेट्टे कॉ़फी ले आया।

‘‘हाँ तो कहो कबीर; क्या दिक्कत है हमें इस तरह साथ बैठने में? साथ बैठकर कॉ़फी पीने में?’’ माया ने कॉ़फी का घूँट भरते हुए कहा।

‘‘दिक्कत है माया।’’

‘‘मगर क्या? क्या दिक्कत है?’’

‘‘दिक्कत ये है कि तुम सि़र्फ, कोई भी लड़की नहीं हो।’’ कबीर ने कुछ खीझते हुए कहा।

‘‘क्या कहना चाहते हो कबीर?’’

‘‘माया, मैं तुम्हें देखकर ख़ुद को काबू में नहीं रख पाता; आई फाइंड यू इरिजस्टिेबल। उस रात जो हुआ था, वो अचानक नहीं हुआ था... मैं तुम्हें...।’’

‘कबीर, उस रात मुझे क्या हुआ था? मेरा बदन क्यों जल रहा था? क्यों मुझे तुमसे लिपटकर ठंढक मिली थी? क्या वह तुम्हारा प्लान किया हुआ था? क्या तुम्हारे गुरु काम ने मुझ पर कोई जादू किया था?’’ कबीर के वाक्य खत्म करने से पहले ही माया ने चौंकते हुए पूछा।

‘‘नहीं माया, ऐसा कुछ नहीं है, तुम़ गलत समझ रही हो।’’

‘‘तो फिर सच क्या है?’’

‘‘सच ये है कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ; और तुम भी मुझसे प्यार करती हो।’’ कबीर ने कॉ़फी का मग छोड़कर माया का हाथ थामा।

‘‘ये सच नहीं है कबीर; तुम प्रिया को चीट कर रहे हो।’’ माया ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ाया।

‘‘और तुम ख़ुद को चीट कर रही हो माया।’’ कबीर ने माया की आँखों में झाँका।

‘‘कबीर, लेट्स गेट बैक टू वर्क; मुझे बहुत से काम करने हैं।’’ कबीर से ऩजरें चुराती हुई माया अचानक से उठ खड़ी हुई; वह उस विषय पर कबीर से और बात नहीं करना चाहती थी।

मगर ऑफिस लौटकर माया का मन काम में नहीं लगा; वह बस यूँ ही फाइलों के पन्ने उलटती-पलटती रही।

‘‘माया! लुकिंग अपसेट; क्या हुआ?’’

माया ने ऩजर उठाकर देखा। सामने निशा थी।

‘‘कुछ नहीं बस ऐसे ही।’’ माया ने एक फाइल पर ऩजर जमाते हुए व्यस्त होने का अभिनय किया।

‘‘तुम्हारे और कबीर के बीच क्या चल रहा है? इतना खिंचे-खिंचे क्यों रहते हो एक-दूसरे से?’’ निशा ने प्रश्न किया।

‘‘ऐसा कुछ नहीं है निशा, वी आर गुड फ्रेंड्स।’’

‘‘जस्ट फ्रेंड्स?’’ निशा ने मुस्कुराकर पूछा। उसकी मुस्कान में एक शरारत छुपी थी।

‘‘क्या कहना चाहती हो निशा?’’ हालाँकि माया निशा का आशय समझ रही थी।

‘‘बनो मत माया; तुम जानती हो, कबीर इ़ज इन लव विद यू।’’

‘‘हाउ डू यू नो?’’ माया ने खीझते हुए पूछा।

‘‘हर कोई जानता है माया... कबीर के चेहरे पर लिखा है, बड़े बड़े कैपिटल लेटर्स में– ही इ़ज इन लव विद माया।’

‘‘निशा..!’’ माया कुछ और खीझ उठी।

‘‘कितना क्यूट और हैंडसम है कबीर; तुम उसे एक चांस क्यों नहीं देती; आई टेल यू, ही विल वरशिप द फ्लोर यू वॉक ऑन।’’ निशा ने माया के गले में बाँह डालते हुए कहा।
 
‘‘सॉरी निशा, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है, आई थिंक आई शुड गो होम।’’ माया, निशा की बाँह को अपनी गर्दन से हटाती हुई उठ खड़ी हुई। निशा ने उसे रोकना ठीक नहीं समझा।

घर लौटकर माया, कबीर और निशा की बातों पर गौर करती रही ‘सच ये है कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, और तुम भी मुझसे प्यार करती हो।’, ‘कबीर के चेहरे पर लिखा है, बड़े बड़े कैपिटल लेटर्स में– ही इ़ज इन लव विद माया।’, ‘तुम उसे एक चांस क्यों नहीं देती? आई टेल यू, ही विल वरशिप द फ्लोर यू वुड वॉक ऑन।’’ कबीर उसे चाहता है, उससे प्यार करता है; क्या वह भी कबीर को चाहती है? कबीर ने उसे कितना बदल दिया है; और उसने वह बदलाव प्रसन्नता से स्वीकार भी किया है। क्यों उसने ख़ुद पर कबीर का इतना असर होने दिया? क्या यही प्यार है? क्या अपने प्रेम को न पहचानकर वह ग़लती कर रही है? माया की रात इन्हीं सवालों से जूझते हुए बीती।

अगले दिन काम पर, माया कबीर से ऩजरें चुराती रही, मगर बहुत देर तक वह कबीर को ऩजरअंदा़ज नहीं कर पाई। उसका ख़ुद का मन कबीर से मिलने का हो रहा था। वह कबीर से बात करना चाहती थी, मगर क्या और कैसे, यह उसे समझ नहीं आ रहा था। दोपहर को उसने कबीर को फ़ोन लगाया।

‘‘कबीर, क्या तुम शाम को मुझे घर पर मिल सकते हो?’’

‘‘हाँ माया।’’ कबीर ने बस इतना ही कहा।

कबीर खुश था। उत्साहित था। उसे पूरी उम्मीद थी कि माया ने उसे उसका प्रेम स्वीकारने के लिए ही बुलाया था। माया के लिए एक खूबसूरत सा गुलदस्ता लेकर वह उसके अपार्टमेंट पहुँचा। माया ने दरवा़जा खोला। कबीर ने उसके बाएँ गाल को चूमते हुए, गुलदस्ता उसके हाथों में दिया।
‘‘कम इन कबीर, प्ली़ज हैव ए सीट।’’ माया ने सो़फे की ओर इशारा किया।

कबीर ने अपनी ऩजर लिविंग रूम में घुमाई। आज लिविंग रूम का रूप कुछ अलग ही था। शो केस की बदली हुई सजावट, ब्राइट शैम्पेन रंग के पर्दे, फ्लावर पॉट्स में जास्मिन, डे़जी और डहलिया के फूलों के गुलदस्ते। सराउंड साउंड सिस्टम में धीमा जा़ज संगीत बज रहा था।

‘‘हूँ... आज लग रहा है कि यहाँ माया रहती है; आज ये प्रिया का नहीं, माया का अपार्टमेंट लग रहा है।’’ कबीर ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘कबीर, क्या तुम प्रिया को बिल्कुल भूल जाना चाहते हो?’’ माया ने धीमी आवा़ज में पूछा।

‘‘माया, मैं तुम्हें चाहता हूँ, और तुम्हारे लिए मैं सब कुछ भूलने को तैयार हूँ।’’ कबीर ने भावुक स्वर में कहा।

‘‘और कल किसी और के लिए मुझे भी भूल जाओगे।’’

‘‘माया, तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है?’’

‘‘भरोसा तो प्रिया ने भी किया है तुम पर।’’

‘‘माया, मैंने आज तक प्रिया से कोई प्रॉमिस नहीं किया है; मगर मैं आज तुमसे एक प्रॉमिस करता हूँ।’’ कबीर सो़फे से उठकर माया के सामने घुटनों के बल बैठा, और माया के बाएँ पैर को अपने हाथों में लिया, ‘‘प्ली़ज एक्सेप्ट मी ए़ज योर स्लेव मैडम! आई प्रॉमिस टू स्पेंड माइ लाइफ इन योर सर्विट्यूड।’’ कहते हुए कबीर ने माया के पैर पर अपने होंठ रख दिए।

माया का दिल ज़ोरों से धड़का। उसने कबीर को बाँहों से पकड़कर उठाया, और उसके चेहरे को अपनी बाँहों के बीच भींचकर सीने से लगा लिया।

कबीर को माया की ते़ज धड़कन सा़फ सुनाई दे रही थी। ऐसी धड़कन टीना के सीने में नहीं थी। माया वाकई उससे प्रेम करने लगी थी।

कबीर के होंठ माया की गर्दन पर सरके, और उसके चेहरे पर पहुँचकर उसके होठों से सट गए। माया और कबीर एक होने लगे; प्रिया के घर पर, प्रिया के काउच पर... प्रिया को पूरी तरह भूलकर।

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चैप्टर 20

‘‘सो हाउ विल यू प्ली़ज योर मिस्ट्रेस टुडे?’’ अगली सुबह माया ने अपनी बगल में लेटे कबीर से शरारत से पूछा।

‘‘ए़ज यू कमांड मिस्ट्रेस।’’ कबीर ने तुरंत उठकर शरारत से सिर झुकाते हुए कहा।

‘‘हूँ... इम्प्रेसिव; फर्स्ट मेक मी ए कप ऑ़फ टी।’’ माया ने लेटे-लेटे अँगड़ाई ली।

कबीर उठकर किचन में गया, और थोड़ी देर में एक ट्रे में टी पॉट, दूध, शक्कर और चाय के कप लिए लौटा। माया के सामने घुटनों के बल बैठते हुए उसने चाय का कप तैयार किया, और उसे अदब से माया को पेश किया।

‘‘वेरी इम्प्रेसिव... लगता है तुमने कहीं से सर्विट्यूड का कोर्स किया है।’’ माया ने चाय की चुस्की ली।

‘‘गॉडेस माया का सौन्दर्य देवताओं को भी दास बना ले, फिर मैं तो अदना सा भक्त कबीरदास हूँ।’’ कबीर ने फिर शरारत की।

‘‘हम्म..वेरीफनी, बट लेट मी टेल यू वन थिंग।’’

‘‘यस मिस्ट्रेस।’’

‘‘मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए, भक्ति नहीं; चलो अब उठकर यहाँ बिस्तर पर बैठो।’’ माया ने कबीर को शरारत से डाँटते हुए कहा।

‘‘ए़ज यू कमांड मिस्ट्रेस।’’ कबीर उठकर बेड पर माया के पास बैठा। उसका सिर अब भी झुका हुआ था।

‘‘कबीर, बंद करो ये शरारत अब।’’ माया की शरारती आँखों ने एक बार फिर कबीर को झिड़का।

‘‘शरारत आपने शुरू की थी गॉडेस माया, और अब आप ही इसे खत्म करें।’’

‘‘हूँ, वह कैसे?’’

‘‘मेरे लिए एक कप चाय बनाकर।’’

माया ने अपना चाय का कप साइड टेबल पर रखा, और कबीर के लिए चाय का कप तैयार करने लगी। माया को चाय बनाता देख, कबीर को अचानक पुरानी यादों ने घेर लिया। वही बेड, वही साइड टेबल, वही ट्रे, वही बोन चाइना का टी-सेट...बस, आज प्रिया की जगह माया थी।

‘‘हेलो! किसके ख्यालों में खो गए?’’ कबीर की ओर चाय का कप बढ़ाते हुए माया ने पूछा।

वही सवाल।

‘‘कुछ नहीं माया, थैंक्स फॉर द टी।’’ कबीर ने माया से आँखें चुराते हुए कहा।

माया ने जवाब में कुछ नहीं कहा। शायद उस वक्त कुछ कहना ज़रूरी नहीं था।

कबीर का मोबाइल फ़ोन बजा, ‘प्रिया कॉलिंग।’ कबीर ने फ़ोन उठाया।

‘‘हे कबीर!’’ प्रिया की चहकती हुई आवा़ज आई।

‘‘हाय प्रिया! हाउ आर यू?’’ कबीर चाहकर भी उत्साह नहीं जता सका।

‘‘आई एम गुड; तुम कैसे हो कबीर?’’

‘‘अच्छा हूँ प्रिया, तुम्हारी मॉम कैसी हैं अब?’’

‘‘मॉम अब ठीक हैं।’’

‘‘वाओ! दैट्स ए गुड न्यू़ज।’’

‘‘एक और गुड न्यू़ज है।’’ प्रिया ने चहकते हुए कहा।

‘क्या?’

‘‘अरे बुद्धू, मैं वापस आ रही हूँ।’’

कबीर को यह सुनकर ख़ुशी ही हुई। प्रिया के लौट आने की खबर ने उसे राहत ही दी। प्रिया की गैरमौजूदगी में उसे घुटन सी महसूस हो रही थी; मन पर एक बोझ सा था, जैसे प्रिया से उसका सब कुछ छीन लिया गया हो; उसका प्रेम, उसकी दोस्त, उसका घर। जुर्म का इकबाल कर लेने से उसका बोझ कम हो जाता है। कबीर को भी यही लगा कि प्रिया पर असलियत ज़ाहिर कर, वह अपने मन का बोझ कम कर सकता था।
 
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