desiaks
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चैप्टर 23
माया, प्रिया के घर पर खुश थी। प्रिया उसकी अच्छी देखभाल कर रही थी। प्रिया ने उसके लिए एक प्राइवेट नर्स भी रख दी थी। माया के शरीर के ज़ख्म धीरे-धीरे भर रहे थे, मगर मन का सारा बोझ उतर चुका था। कबीर नियमित रूप से मिलने आता। वह प्रिया से बचने की हर संभव कोशिश करता, मगर फिर भी उसका चंचल मन उसे प्रिया की ओर खींचता। इसी रस्साकशी में वह रूखा और चिड़चिड़ा सा होता जा रहा था।
‘‘कबीर! आजकल तुम बहुत बोर होते जा रहे हो।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कबीर से कहा।
‘‘हाँ, माया ठीक ही कह रही है; आप तो ऐसे न थे मिस्टर कबीर।’’ प्रिया ने कहा।
कबीर को समझ नहीं आया कि प्रिया म़जाक कर रही थी या व्यंग्य।
‘‘प्रिया, तुम्हें पता है कि कबीर गिटार बहुत अच्छी बजाता है?’’ माया ने कहा।
‘‘कबीर, तुमने मुझे कभी नहीं बताया; चुपके-चुपके माया को गिटार बजाकर सुनाते रहे।’’ प्रिया ने शिकायत की।
‘‘कभी मौका ही नहीं मिला।’’ कबीर ने सफाई दी।
‘‘मौके निकालने पड़ते हैं।’’ प्रिया ने कहा।
‘‘आज मौका है, आज सुना दो।’’ माया ने कबीर से अनुरोध किया।
‘‘मगर अभी यहाँ गिटार कहाँ है?’’
‘‘तुम्हारी गिटार मेरे घर पर ही रखी थी कबीर; मैंने मँगा ली है। प्रिया! प्ली़ज कबीर को इसकी गिटार दो... अब कोई और बहाना नहीं चलेगा।’’ माया ने कहा।
प्रिया कबीर की गिटार ले आई। कबीर ने गिटार ट्यून करते हुए माया से पूछा, ‘‘कौन सा गाना सुनोगी?’’
‘‘मुझे तो तुम कई बार सुना चुके हो, आज प्रिया की पसंद का गाना बजाओ; बोलो प्रिया, कौन सा गाना सुनोगी?’’ माया ने कहा।
‘‘हम्म..साँसों की ज़रूरत है जैसे..।’’ प्रिया ने कुछ सोचते हुए कहा।
कबीर ने थोड़ा चौंकते हुए प्रिया की ओर देखा।
‘‘क्यों कबीर, ये गाना अच्छा नहीं लगता तुम्हें?’’ प्रिया ने कबीर की ओर एक तिलिस्मी मुस्कान बिखेरी।
कबीर ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने गिटार के तार छेड़ते हुए गाना, बजाना शुरू किया।
‘‘साँसों की ज़रूरत है जैसे, ज़िंदगी के लिए, बस इक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए...।’’
मगर, गिटार बजाते हुए कबीर के मन में ये सवाल कौंधता रहा कि प्रिया ने यही गीत क्यों चुना; क्या उसके, प्रिया को छोड़ने के बाद, प्रिया वाकई तड़प रही है? क्या प्रिया की तड़प ऐसी है जैसी कि साँसों के घुटने पर होती है?
कबीर के गाना खत्म करने के बाद प्रिया ने चहकते हुए ताली बजाकर कहा, ‘‘वाओ कबीर! ये टैलेंट अब तक मुझसे क्यों छुपा रखा था? अच्छा एक बात बताओ; मुझे गिटार बजाना सिखाओगे?’’
कबीर फिर मौन रहा। माया ने कहा, ‘‘बोलो न कबीर, प्रिया को गिटार बजाना सिखाओगे?’’
‘‘अरे बाबा मुफ्त में नहीं सीखूँगी, अपनी फ़ीस ले लेना।’’ प्रिया ने म़जाक किया।
‘‘न तो मुझे किसी को गिटार सिखाना है, और न ही आज से किसी के लिए गिटार बजाना है, अंडरस्टैंड।’’ कबीर झुँझलाकर चीख उठा।
‘‘चिल्ला क्यों रहे हो कबीर?’’ माया ने कबीर को झिड़का।
‘‘माया, तुम अंधी हो? तुम्हें दिखता नहीं कि प्रिया क्या कर रही है? समझ नहीं आता तुम्हें? बेवकू़फ हो तुम?’’ कबीर की झुँझलाहट गुस्से में बदल गई।
‘‘क्या कर रही है प्रिया? एक तो वह हम पर अहसान कर रही है, और तुम उस पर चिल्ला रहे हो।’’ माया ने फिर से कबीर को झिड़का।
‘‘तुम दोनों फ्रेंड्स को जो ठीक लगता है वह करो, मगर मुझे बख़्शो, मैं जा रहा हूँ।’’ कहते हुए कबीर उठ खड़ा हुआ।
प्रिया की आँखों में आँसू भर आए। माया ने कबीर को रोकना चाहा, मगर प्रिया ने उसे इशारे से मना किया। कबीर, प्रिया के अपार्टमेंट से चला आया।
कबीर चला गया, मगर माया के कानों में उसके शब्द गूँजते रहे,‘माया तुम अंधी हो? तुम्हें दिखता नहीं कि प्रिया क्या कर रही है? समझ नहीं आता तुम्हें? बेवकू़फ हो तुम?’
क्या प्रिया के मन में अब भी कबीर के लिए चाहत बाकी है? क्या वह वाकई कबीर को उससे वापस लेना चाहती है? क्या प्रिया उस पर सारे अहसान इसलिए कर रही है, कि बदले में कबीर को उससे छीन सके? और कबीर? क्या अब भी उसके मन में प्रिया के लिए जगह है? यदि न होती तो कबीर इस तरह परेशान न होता... कुछ तो है।
कबीर घर लौटकर भी का़फी बेचैन रहा। साँसें कुछ ऐसे बेचैन रहीं, जैसे कि घुट रही हों। रह-रहकर प्रिया के ख़याल आते। उसने प्रिया के साथ न्याय नहीं किया। माया के पास तो फिर भी उसका करियर और उसकी एम्बिशन थे, मगर प्रिया ने तो प्रेम को ही सब कुछ समझा था। माया ने तो उसे कितना बदलना चाहा था; उसकी स्वच्छंदता, उसकी आवारगी पर लगाम कसी थी; उस पर हमेशा रोब और रुतबा जमाया था... मगर प्रिया की तो उससे कोई अपेक्षाएँ ही नहीं थीं। उसने तो उसे वैसा ही स्वीकार किया था, जैसा कि वह था।
माया, प्रिया के घर पर खुश थी। प्रिया उसकी अच्छी देखभाल कर रही थी। प्रिया ने उसके लिए एक प्राइवेट नर्स भी रख दी थी। माया के शरीर के ज़ख्म धीरे-धीरे भर रहे थे, मगर मन का सारा बोझ उतर चुका था। कबीर नियमित रूप से मिलने आता। वह प्रिया से बचने की हर संभव कोशिश करता, मगर फिर भी उसका चंचल मन उसे प्रिया की ओर खींचता। इसी रस्साकशी में वह रूखा और चिड़चिड़ा सा होता जा रहा था।
‘‘कबीर! आजकल तुम बहुत बोर होते जा रहे हो।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कबीर से कहा।
‘‘हाँ, माया ठीक ही कह रही है; आप तो ऐसे न थे मिस्टर कबीर।’’ प्रिया ने कहा।
कबीर को समझ नहीं आया कि प्रिया म़जाक कर रही थी या व्यंग्य।
‘‘प्रिया, तुम्हें पता है कि कबीर गिटार बहुत अच्छी बजाता है?’’ माया ने कहा।
‘‘कबीर, तुमने मुझे कभी नहीं बताया; चुपके-चुपके माया को गिटार बजाकर सुनाते रहे।’’ प्रिया ने शिकायत की।
‘‘कभी मौका ही नहीं मिला।’’ कबीर ने सफाई दी।
‘‘मौके निकालने पड़ते हैं।’’ प्रिया ने कहा।
‘‘आज मौका है, आज सुना दो।’’ माया ने कबीर से अनुरोध किया।
‘‘मगर अभी यहाँ गिटार कहाँ है?’’
‘‘तुम्हारी गिटार मेरे घर पर ही रखी थी कबीर; मैंने मँगा ली है। प्रिया! प्ली़ज कबीर को इसकी गिटार दो... अब कोई और बहाना नहीं चलेगा।’’ माया ने कहा।
प्रिया कबीर की गिटार ले आई। कबीर ने गिटार ट्यून करते हुए माया से पूछा, ‘‘कौन सा गाना सुनोगी?’’
‘‘मुझे तो तुम कई बार सुना चुके हो, आज प्रिया की पसंद का गाना बजाओ; बोलो प्रिया, कौन सा गाना सुनोगी?’’ माया ने कहा।
‘‘हम्म..साँसों की ज़रूरत है जैसे..।’’ प्रिया ने कुछ सोचते हुए कहा।
कबीर ने थोड़ा चौंकते हुए प्रिया की ओर देखा।
‘‘क्यों कबीर, ये गाना अच्छा नहीं लगता तुम्हें?’’ प्रिया ने कबीर की ओर एक तिलिस्मी मुस्कान बिखेरी।
कबीर ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने गिटार के तार छेड़ते हुए गाना, बजाना शुरू किया।
‘‘साँसों की ज़रूरत है जैसे, ज़िंदगी के लिए, बस इक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए...।’’
मगर, गिटार बजाते हुए कबीर के मन में ये सवाल कौंधता रहा कि प्रिया ने यही गीत क्यों चुना; क्या उसके, प्रिया को छोड़ने के बाद, प्रिया वाकई तड़प रही है? क्या प्रिया की तड़प ऐसी है जैसी कि साँसों के घुटने पर होती है?
कबीर के गाना खत्म करने के बाद प्रिया ने चहकते हुए ताली बजाकर कहा, ‘‘वाओ कबीर! ये टैलेंट अब तक मुझसे क्यों छुपा रखा था? अच्छा एक बात बताओ; मुझे गिटार बजाना सिखाओगे?’’
कबीर फिर मौन रहा। माया ने कहा, ‘‘बोलो न कबीर, प्रिया को गिटार बजाना सिखाओगे?’’
‘‘अरे बाबा मुफ्त में नहीं सीखूँगी, अपनी फ़ीस ले लेना।’’ प्रिया ने म़जाक किया।
‘‘न तो मुझे किसी को गिटार सिखाना है, और न ही आज से किसी के लिए गिटार बजाना है, अंडरस्टैंड।’’ कबीर झुँझलाकर चीख उठा।
‘‘चिल्ला क्यों रहे हो कबीर?’’ माया ने कबीर को झिड़का।
‘‘माया, तुम अंधी हो? तुम्हें दिखता नहीं कि प्रिया क्या कर रही है? समझ नहीं आता तुम्हें? बेवकू़फ हो तुम?’’ कबीर की झुँझलाहट गुस्से में बदल गई।
‘‘क्या कर रही है प्रिया? एक तो वह हम पर अहसान कर रही है, और तुम उस पर चिल्ला रहे हो।’’ माया ने फिर से कबीर को झिड़का।
‘‘तुम दोनों फ्रेंड्स को जो ठीक लगता है वह करो, मगर मुझे बख़्शो, मैं जा रहा हूँ।’’ कहते हुए कबीर उठ खड़ा हुआ।
प्रिया की आँखों में आँसू भर आए। माया ने कबीर को रोकना चाहा, मगर प्रिया ने उसे इशारे से मना किया। कबीर, प्रिया के अपार्टमेंट से चला आया।
कबीर चला गया, मगर माया के कानों में उसके शब्द गूँजते रहे,‘माया तुम अंधी हो? तुम्हें दिखता नहीं कि प्रिया क्या कर रही है? समझ नहीं आता तुम्हें? बेवकू़फ हो तुम?’
क्या प्रिया के मन में अब भी कबीर के लिए चाहत बाकी है? क्या वह वाकई कबीर को उससे वापस लेना चाहती है? क्या प्रिया उस पर सारे अहसान इसलिए कर रही है, कि बदले में कबीर को उससे छीन सके? और कबीर? क्या अब भी उसके मन में प्रिया के लिए जगह है? यदि न होती तो कबीर इस तरह परेशान न होता... कुछ तो है।
कबीर घर लौटकर भी का़फी बेचैन रहा। साँसें कुछ ऐसे बेचैन रहीं, जैसे कि घुट रही हों। रह-रहकर प्रिया के ख़याल आते। उसने प्रिया के साथ न्याय नहीं किया। माया के पास तो फिर भी उसका करियर और उसकी एम्बिशन थे, मगर प्रिया ने तो प्रेम को ही सब कुछ समझा था। माया ने तो उसे कितना बदलना चाहा था; उसकी स्वच्छंदता, उसकी आवारगी पर लगाम कसी थी; उस पर हमेशा रोब और रुतबा जमाया था... मगर प्रिया की तो उससे कोई अपेक्षाएँ ही नहीं थीं। उसने तो उसे वैसा ही स्वीकार किया था, जैसा कि वह था।