non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया - Page 3 - SexBaba
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non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया

वो बोलीं-“मुझे याद है हाईस्कूल में हम सारी दोस्तों का पसंदीदा काम कुत्ते और कुतिया की चुदाई देखना होता था, अगर हममें से कोई एक भी यह मंजर देखता तो अगले दिन स्कूल में सारे दोस्तों से खूब नमक मिर्च लगाकर बयान करता…”

वो बात आगे बढ़ाते बोलीं-“पता है जब कुत्ता अपनी मनी कुतिया की चूत में छोड़ देता है और कुतिया जब ठंडी हो जाती है तब वो कुत्ते के लंड को छोड़ती है। और कुत्ता वहाँ से दुम दबाकर भाग जाता है, फिर पता है। कुतिया, अपनी चूत चाट्ती है। पता है वो ऐसा क्यों करती है…”

“वो इसलिए ऐसा करती है की अपनी फटी हुई चूत से दर्द को ख़तम कर सके, और तुम लोग जान लो थूक एक कुदरती दवा है। जब मेरी चूत तुमने खोली थी तो मैं भी कामिनी से खूब चुसवाती थी और मुझे बड़ा सुकून मिलता था। तो यही मैं भी अपनी छोटी बहन की चूत चाट चाटकर उसका दर्द कम कर रही हूँ, तुम भी ऐसा कर सकते हो, लेकिन सिर्फ़ चूत चूसना, बस अंदर उंगली भी नहीं जानी चाहिए…”

मैं बोला-“लेकिन दीदी मेरे लंड की हालात खराब नहीं होगी क्या…” मैंने अपने लंड की तरफ इशारा किया जहाँ से चंद चमकती हुई बूँदें, मुँह से बाहर निकले किसी के मुँह या गरम चूत में जाने को बेताब नजर आती थीं।

दीदी बोलीं-“अरे मेरे प्यारे भाई। मैं हूँ ना…” यह कहकर वो करीब आईं, मेरी टांगें खोलकर बीच में बैठ गईं और मेरा लंड उनके गुलाबी होंठों में से होता उनके हलक की सैर करने लगा और वो उसे तेज़ी से चूसने लगीं, और कुछ ही लम्हों बाद दीदी के बाल मजबूती से जकड़े मैं उनके हलक में अपनी मनी निकाल रहा था।

मैं ठंडा हो चुका था। कामिनी ठंडी हो चुकी थी। दीदी को फिलहाल ठंडा नहीं किया जा सकता था। उनके पीरियड की वजह से।

तो दोस्तों, वक्त की रस्सी को थोड़ा सा खींचते हैं, क्योंकी वाकियात की रफ़्तार से आप यकीनन बोर हो गये होंगे। तो अब दीदी की डेट्स ख़तम हो चुकी हैं, कामिनी की चूत की सूजन ख़तम हो चुकी है, और आज रात हमारा प्रोग्राम चुदाई का है। रात का हम तीनों को इंतजार है, रात आई, हमने खाना खाया, थोड़ी शराब पी, और फिर अंदर आ गये।

फिर दीदी ने शुरुआत की, कामिनी का जिस्म चूमना शुरू कर दिया। उनकी देखा देखी मैं भी कामिनी के नोकीले ऊपर को उठे हसीन मम्मे चूसने लगा। दीदी उसकी चूत के मजे लूट रहीं थीं। और कामिनी की तो, उसकी तो बस आवाजें गूंज रहीं थीं, पूरे झोंपड़े में, क्योंकी हम इस जजीरे पर तन्हा थे, इसलिए हमारी मस्ती में भरी आवाजें बहुत बुलंद हुआ करती थीं, शायद इस तरह हम अपनी तन्हाई को कम करने की एक हल्की सी कोशिस किया करते थे। तो इस वक्त भी यकीनन कामिनी की ज़ज्बात से भरी आवाजें हवाओं के दोर पर बहुत दूर तक जा रही होंगी।

हम यूँ ही कामिनी के जिस्म को चूमते, काटते रहे। फिर मैंने दीदी के मम्मों पर मुँह मारना शुरू किया, दीदी मेरा शौक देखकर बिस्तर पर जाकर लेट गईं। हम दोनों दीदी को चिपक गये, मैं चूत का रस अपने मुँह में समेटने लगा। और कामिनी अपनी चूत खड़े खड़े दीदी से चुसवाने लगी, और दीदी के मम्मों से भी खेल रही थी, कुछ देर चूत चूसने के बाद मैं दीदी के ऊपर आ गया और उनकी भूखी चूत में अपना लंड दाखिल कर दिया, और दीदी की साँस खारिज हुई। उनको बहुत सुकून का एहसास हुआ था, शायद उनको उनकी मनपसंद चीज काफी अरसे बाद मिली थी, और फिर दीदी जिस दीवानगी से चुदवाने लगीं, मेरे तो पशीने ही छूट गये, साथ ही कामिनी की चूत भी मुसीवत में आ गई। दीदी ने उसे अपने होंठों में दबा रखा था, हम दोनों दीदी की गर्मी कम करते रहे, मैं चोदता रहा, मम्मे दबाता रहा, कामिनी चूत मुँह में दिए बालों पर हाथ फेरती रही। फिर कहीं जाकर दीदी की चूत ठंडी हुई, लेकिन तब तक उनकी चूत मेरी गरम मनी से लबालब भरी हुई थी।

वो निढाल हो चुकी थीं, लेकिन कामिनी को बहुत गरम कर दिया था, कामिनी मेरा लंड चूसने लगी, जो पहले ही मेरी और दीदी की मनी से भरा हुआ था। उसने चाटकर उससे साफ कर दिया, फिर बोली-“भाई, चूत खोलो अब मेरी…”

उसके लहजे में एक मासूम सी इल्तिजा थी, ज़ज्बात की फरवानी थी, जिस्म की तलब उसकी लरजती आवाज से ही जाहिर थी। लेकिन दीदी उठ बैठी-“नहीं प्रेम आज तुम कामिनी की गान्ड चोदो…”

मैं और कामिनी चौंक पड़े।

दीदी बोलीं-“मैं कामिनी के नीचे लेटती हूँ, कामिनी घोड़ी बनेगी, मैं नीचे से इसकी चूत चाटूंगी और तुम ऊपर से इसकी गान्ड का सुराख खोल दो…”

मैं बोला-“दीदी वो तो बहुत नन्हा सा और तंग है…”

दीदी बोलीं-“तो मेरे भाई, उसी को तो खुला और कुशादा करना है तुम्हें…”

बहस के कुछ देर बाद हम तीनों उसी पोज़ीशन में आ गये, जैसा दीदी ने हमें बताया था, दीदी और कामिनी तो एक दूसरे की चूत चूसने लगे। और मैं अपनी घोड़ी बनी बहन के पीछे खड़ा अपना लंड सहला रहा था, समझ में नहीं आ रहा था की शुरुआत कहाँ से करं। दीदी ने मेरी मुश्किल हल की, मुझे करीब बुलाकर मेरे लंड का टोपा कामिनी की बंद गान्ड पर रखा।

और बोलीं-“खोल दो इसे…” यह कहकर फिर चूत की रस भरी दुनियाँ में गुम हो गईं, मैंने अपना लंड कामिनी की गान्ड के सुराख पर रखा हुआ था, और एक हाथ से गान्ड खोली हुई थी। मैं अपना पूरा जोर लगा रहा था, लेकिन लंड बार बार मुड़ जाता था। दीदी ने एक दो बार चूत से मुँह हटाकर मेरा लंड चूसकर तर कर दिया था, आख़िर टोपा अंदर चला गया।

अब रास्ता मिल गया था, और फिर मेरे बेपनाह दबाव पर लंड अंदर अंधेरी गहराइयों में जाने लगा, और कामिनी जैसे उसकी गर्दन पर छुरी फिर रही हो, ऐसे तड़पने लगी। लेकिन दीदी ने उसकी गान्ड के गिर्द हाथ डालकर उसको लाक कर दिया था, और चूत से मुँह चिपकाए हुये थी। कामिनी निकलकर भागने की कोशिस कर रही थी, लेकिन हम दोनों इसके लिए तैयार नहीं थे। वो चीख रही थी, हम दोनों को बुरा भल्ला कह रही थी, लेकिन मैं सुन नहीं रहा था, और ना मेरा लंड सुन रहा था। वो तो खून की बूँदें अपने पीछे छोड़ता नामालूम मंज़िलें तय कर रहा था।

और फिर डालने को कुछ ना रहा, पूरा लंड जड़ तक कामिनी की गान्ड में था, और वो, उसकी आँख बाहर उबली हुई थीं, चीख चीखकर आवाज बैठ गई थी, अब सिर्फ़ बेमानी सी आवाजें आ रहीं थीं। वो रो रही थी, उसका जिस्म झटके ले रहा था, शदीदी तरीन तकलीफ के बाइस, वो बेहोश हो गई। उसका सिर ढलक गया। मैंने लंड वापिस खींचा, और यकीन जानिए, क्या ही चीख की आवाज थी। जो लोग अपनी बीवियों की गान्ड का सुराख खोलने की कोशिस कर चुके हैं और कामयाब हो चुके हैं, वो इस वक्त की तकलीफ को बहुत बेहतर जानते हैं। या वो औरतें जिनकी गान्ड का सुराख किसी लंड से खुल चुका है, वो भी इस बात से आगाही रखती होंगी।


कामिनी की बेहोशी टूट गई थी। इतनी शदीद तरीन तकलीफ का अमल था यह। मेरे लंड के बाहर निकलते ही खून बहने लगा। यह खून अंदर से ही बहा था। जैसे की चूत खुलने पर अंदर से आया था। यह खून तो गान्ड के सुराख की सिकुड़न से उनमें पड़ी दरजों से बह रहा था, और मैं उसी खून अलोदा सुराख में झटके देने लगा और कुछ ही देर बाद मेरी मनी खून में मिलती हुई दीदी के चेहरे पर गिरने लगी।
 
अब दीदी ने कामिनी की चूत से मुँह हटाया, और कामिनी को एक तरफ लिटा दिया। वो बेहोश थी, दीदी ने शराब की बोतल ली और शराब उसकी गान्ड के सुराख पर डालने लगीं, जिससे खून रुक गया। लेकिन जलन से कामिनी की बेहोशी ख़तम होने लगी। दीदी ने शराब उसके मुँह से लगा दी, और वो पीने लगी और एक ही साँस में काफी सारी अपने हलक में उंड़ेल गई, और फिर एकदम होश में आ गई, और साथ ही चीखने लगी-“निकालो इसे… प्रेम भाई, मैं मर जाउन्गि, दीदी मेरी गान्ड फट गई है, दीदी जल्दी निकालो, मुझे जाने दो…” वो दीवानों की तरह चिल्ला रही थी।

मैं उसकी टांगें पकड़ा हुआ था। और दीदी ने उसे सीने से लगाया हुआ था। आख़िर कुछ देर बाद उसपर शायद नशा चढ़ने लगा, और वो सो गई।

दोस्तों, अगली सुबह हस्ब-ए-मामोल थी, वो नाराज थी मुझसे, अब तो उससे बैठा भी नहीं जा रहा था, लेकिन कुछ दिन में सब कुछ ठीक हो गया। मुझे याद है की उसके दो दिन बाद कामिनी के पीरियड शुरू होंगये। फिर जब दीदी के पीरियड शुरू हुये तो मैं कामिनी की खूब चुदाई किया करता था, और उसकी गान्ड मारता था, अब काफी खुल गये थे उसके दोनों ही सुराख।

बहुत खूबसूरत दिन थे। हम नये नये तरीकी ढूँढते मजा करने के लिए, कभी दीदी मुझे लेटकर मेरा लंड लिए बैठ जातीं और कामिनी मेरा लंड चूस चूसकर दीदी की चूत में डालती। कभी कामिनी यही करती। दीदी की गान्ड का सुराख अभी तक बंद था। मैंने कई बार चुदाई के वक्त उनकी गान्ड के सुराख में उंगली डाली, बहुत ही गरम था, और बहुत टाइट, लेकिन दीदी ने मना कर दिया। ना जाने क्यों अभी वो अपनी गान्ड का सुराख खुलवाना नहीं चाहती थीं, जब की कामिनी की गान्ड अब काफी बड़ी हो चुकी थी, उसकी चाल अब बेहद मस्तानी हो गई थी। घोड़ी बनते ही उसकी चूत और गान्ड का खुला सुराख सामने आ जाता, चूत भी काफी मोटी हो चली थी।

और मम्मे वैसे ही हसीन थे, बस और उभर आए थे, लेकिन ना जाने क्या बात थी, दो साल हो चले थे, मुझे अपनी दोनों बहनों को चोदते, लेकिन दोनों में से कोई भी प्रेगनेंट ना हो सकी थी, और आख़िर 1951 सेप्टेंबर में दीदी प्रेगनेंट हो गई, उसको हमल ठहर गया था, और महीने गुजरने के साथ उसका पेट फूलता जा रहा था। अब वो 5 महीने की हमला है। कामिनी को अभी हमल नहीं हुआ है, इसलिए वो और मैं बहुत चुदाई करते थे, दीदी भी शरीक होती थी अपने मोटे पेट को लिए। कामिनी उनको आराम से मेरे लंड पर बिठाकर उनकी चूत में लंड डाल देती थी और फिर उन्हें आराम से फारिग करवाया करते थे हम दोनों।

मेरे दोस्तों मेरी यह दास्तान अब निहायत ही अहम मोड़ पर आ चुकी है और अब शायद बहुत जल्द मैं आपको अपनी पूरी दास्तान सुनाकर आपसे विदा लूंगा और फिर वक्त की तारीखों में कहीं खो जाऊँगा लेकिन मुझे

यकीन है की मैं चाहे रहूँ ना रहूँ, मेरे अल्फ़ाज़ ज़रूर जिंदा रहेगे। मेरी मुहब्बत की दास्तान दुनियाँ के कानों तक ज़रूर पहुँचेगी। जो मुझे अपनी दोनों बहनों से थी और अब भी है। यह कहने में मैं कोई शरम महसूस नहीं करता की मैं अपनी बहनों से बेहद मुहब्बत करता हूँ।

हमें यहाँ आए अब 14 साल हो रहे हैं। दीदी को हमल ठहर चुका है, मेरे लंड से वह हमला हो चुकी है। मेरी मनी से उसका पेट फूल चुका है। तो इन कामों का जो अंजाम होना था वोही हुआ था। चूत तो सिर्फ़ मनी मांगती है दोस्तों। वह मनी किसके भी लंड से क्यों ना छूटी हो, उसका जो काम है, चूत का जो फंक्सन है। वो तो एक मशीन है।
 
उसने अपना फंक्सन पूरा करना है, अब आप चाहे इस मशीन में मेटीररयल कहीं से ही लाकर क्यों ना डालें। चाहे अपने घर से लाकर या कहीं बाहर से लाकर, उसका तो काम प्रोडेक्सन करना है। और दीदी की चूत पूरी तरह फंक्सनल थी। उसने मेरी मनी से आ रहा मेटीररयल आक्सेप्ट कर लिया था । वह नहीं जानती थी की यह इसके भाई के लंड से निकली मनी थी। यह तो एक ही माँ के दो बच्चों का काम था। और दीदी की चूत अब दिन ब दिन खुलती जा रही थी। पेट के फूलने से वह बाहर को आती जा रही थी। दीदी के मम्मे अब सीने पर ढलके आ रहे थे। इस वक्त भी दीदी मजे लेने का कोई मोका हाथ से नहीं जाने देतीं थीं। उनके हमल को 8 माह हो गये थे।

अब वह चूत में तो ना लेतीं थीं। लेकिन मैं कामिनी को चोद रहा होता था तो मेरा लंड चुसती। या कामिनी से अपनी मोटी सी चूत चुसवा लिया करती थीं। मैं और कामिनी मगन थे। दीदी को अभी चोदा नहीं जा सकता था। कामिनी आजकल खूब चुद रही थी। उसका हुश्न अब खिल कर मुकम्मल हो चुका था वो भरपूर जवान हो चुकी थी। उसके बदन में बिजलियाँ भर चुकी थीं।

उसकी उमर अब 20 साल थी, और 20 साल में ही उसकी चूत काफी खुल गई थी, लब गुलाबी और बाहर को लटक से गये थे। गान्ड का सुराख भी गुलाबी था और खुला हुआ था। और मम्मे अब पूरी तरह उभर आए थे। बेहद टाइट और ऊपर को उठे हुये। बहुत मजा देती थी मेरी बहन मुझे। अब उसके पीरियड का मसला भी नहीं रहा था। पीरियड के दिनों में मैं उसकी गान्ड चोदा करता था या लंड चुसवा लिया करता था। उन दिनों बस हमारी यही मसरूफ़ियत थीं।

और आख़िरकार 1952 शुरू हुआ। और दीदी ने एक रात एक सेहतमंद लड़के को जनम दिया। क्या ही खूबसूरत लड़का था। वह मुझ पर और दीदी पर ही गया था। यह हम दोनों का बेटा था, मैं उसका बाप और मम्मी दोनों था। दीदी की चीखें मुझ आज भी याद हैं। मैं और कामिनी घबरा गये थे। यह हम ही जानते हैं की किस तरह हमने दीदी की चूत को खोलकर वह बच्चा बाहर खींचा। और दीदी की चूत से बाहर आयी नली को अंदर धकेला जो बच्चे के साथ ही बाहर आ गई थी।
और फिर कुछ दिन गुजर गये। अब दीदी काफी संभल गईं थीं। हमारे पास वक्त गुजारने का एक नया खिलौना आ गया था। हम उस बच्चे के साथ ही लगे रहते यहाँ तक की मैं आजकल कामिनी की चुदाई भी नहीं कर रहा था। कामिनी भी हर वक्त बच्चे के साथ खेलती रहती।

हमने उसका नाम अक्षय रखा। मेरा और राधा दीदी का बेटा हमारा बेटा तेज़ी से बड़ा होने लगा। दीदी उसको दूध पिलाया करती थीं। मैं और कामिनी भी उसे कभी-2 घुमाने ले जाते लेकिन वह अभी बेहद छोटा था। फिर दीदी की छठ्ठी हमने मनाई। दीदी नहा धोकर साफ सुथरी होकर आईं। बच्चे को हमने हमारे बचाए हुये कपड़ों में लपेट रखा था। दीदी निखरी निखरी सामने बैठी थीं। रात का वक्त था। आग जलाकर हम साहिल पर ही बैठे हुये थे। गर्मी की रात थी। बेहद धीमी और मस्त हवा चल रही थी समुंदर की तरफ से। मैं और कामिनी मछली भून रहे थे, एक दूसरे से मजाक कर रहे थे।

दीदी अक्षय को लिए बैठी थीं। वह उनकी गोद में हुमक रहा था, दीदी के चेहरे पर एक अंजाना सुकून था एक चमक थी। मैं और कामिनी एक दूसरे से मजाक करते रहे, एक दूसरे के पीछे भागते, दीदी हमें मुश्कुरा कर देख रहीं थीं। अचानक कामिनी ने मुझे एक जोरदार हाथ मारा और भाग खड़ी हुई। मैं उसके पीछे भगा। हम कुछ दूर तक भागे की कामिनी का पाँव फिसल गया और वो नीचे जा गिरी। मैं भी नहीं संभला और उसके कोमल जिस्म पर गिरा। कई दिनों से मैंने अपने लंड की आग अपनी दोनों बहनों में से किसी की चूत से नहीं बुझाई थी। उसके जिस्म की रगड़ खाकर मेरा लंड एकदम ही तन गया। और फिर मैं भला क्यों रुकता। कुछ ही देर बाद कामिनी की लज़्जत से भरी बहकी बहकी आवाजें ठंडे साहिल की भीगी रेत पर हवाओं की दोर पर काफी दूर तक जा रही थी। वो सिसक रही थी, मनी छोड़ रही थी।

लेकिन मेरा लंड तो उसकी गुलाबी चूत से इंतकाम लेने पर तुला हुआ था। वह अंदर गहराइयों से हो आता बिना उसे सुकून दिए, उसकी नैय्या को पार लगाए, और उसकी बेकली बढ़ती जा रही थी। वह काट रही थी मुझे झंझोड़ रही थी। लेकिन मैं उसके मम्मे पकड़े उसकी चूत में समाया हुआ था। बस हमारी तेज चलती सांसों की आवाजें। समुंदर की मोजों का धीमा सा शोर या कुछ देर बाद कामिनी की हल्की सी नखड़ा भरी आवाज सुनाई दे जाती थी। रात तेज़ी से भागति जा रही थी। दीदी भी शायद हमारा इंतजार करके अब झोंपड़े में जा चुकी थीं। और मैं और कामिनी ठंडी रेत पर लेटे अपने जिस्मों की आग को एक दूसरे के जिस्मों में उड़ेल रहे थे। और फिर हमारे जिस्म सर्द पड़ गये, ज़ज्बात की रवानी को करार आ गया। हम एक दूसरे से लिपटे पड़े थे। चाँदनी हमारे जिस्मों को चूम रही थी।
 
हमारे एक दूसरे में पेवस्त जिस्म जैसे यूँ ही तखलीक किए गये थे जैसे वह कभी अलग ही ना हुये थे। और फिर ना जाने कब, सूरज की शरारती किरणों ने हमें गुदगुदा दिया और मैं आँख मलता उठ बैठा। सामने ही सूरज तूलू हो रहा था। बहुत ही हसीन नजारा था। लेकिन मैं यह मंजर तो 14 साल से देखता आ रहा था। अब मेरे लिए इसमें कोई काशिस ना थी। मैंने कामिनी के जिस्म पर नजर डाली। वह एक हाथ आँखों पर रखे बेसूध सो रही थी। मैंने उसके मम्मे प्यार से सहलाए और उसके होंठ चूमते हुये उससे उठाने लगा।

उसकी मधुर आवाज आई-“क्या है प्रेम भाई, अब तो सोने दो…”

मैं अपनी नाजुक सी कमसिन बहन को अपनी बाहों में उठाकर झोंपड़े की तरफ चल दिया और अंदर लेजाकर उसे एक घास से बने बिस्तर पर आराम से लिटा दिया। उसने उनींदी आँखों से मेरी तरफ देखा और मुश्कुरा कर आँख बंद कर लीं। वह नींद की खूबसूरत दुनियाँ में खो चुकी थी। नींद की नरम आगोश उसके लिए वहां थी, जहाँ एक खूबसूरत दुनियाँ उसकी मुंतजीर थी, जहाँ कोई हदें नहीं थी, जहाँ रास्ते की दीवार यह समुंदर नहीं था, जहाँ रास्ते दूर तक जाते थे। जहाँ सब कुछ था। लेकिन हम ना थे।

और मैं बाहर चला आया, नदी की तरफ जाने के इरादे से। फ़िज़ा गरम होने लगी थी। नदी पर मुझे दीदी बैठी नजर आई और मैं दिल ही दिल में शर्मिंदा सा हुआ। मैंने दीदी को अब नोटिस करना ही छोड़ दिया था। यहाँ तक की मैंने यह भी नहीं देखा की दीदी झोंपड़े में मौजूद हैं या नहीं। मैं तो बस कामिनी के जिस्म के हसीन नजारे लेता हुआ बाहर आ गया। वाकई यह ज़्यादती है दीदी के साथ। बेचारी ने कितने ही दिनों से मेरे लंड का जायका तक नहीं चखा था। उनकी चूत अब अंदर जा चुकी थी। मम्मे दूध आ जाने की वजह से बोझिल हो गये थे।
और गान्ड तो काफी गोल और बड़ी हो गई थी। और फिर मुझे एक ख्याल आया। अब तक दीदी की गान्ड नहीं चोद सका था। मैं दीदी की गान्ड का सुराख, उसकी नरमाहटें, उसकी गरमाहटें, उसकी गहराइयां अब तक अजनबी थीं मेरे लिए। अब तक अंजान था मैं उस हसीन दुनियाँ से, और मेरा लंड खड़ा होने लगा। दीदी मुझे गौर से देख रहीं थीं और मेरा लंड खड़ा होते देखकर मुश्कुरा उठीं। बोलीं-“अरे यह क्या कामिनी को चोदा नहीं था क्या रात में, या चूत बंद कर ली थी उसने…”
 
अब तक दीदी की गान्ड नहीं चोद सका था। मैं दीदी की गान्ड का सुराख, उसकी नरमाहटें, उसकी गरमाहटें, उसकी गहराइयां अब तक अजनबी थीं मेरे लिए। अब तक अंजान था मैं उस हसीन दुनियाँ से, और मेरा लंड खड़ा होने लगा। दीदी मुझे गौर से देख रहीं थीं और मेरा लंड खड़ा होते देखकर मुश्कुरा उठीं। बोलीं-“अरे यह क्या कामिनी को चोदा नहीं था क्या रात में, या चूत बंद कर ली थी उसने…”
मैं दाँत निकालता दीदी की तरफ बढ़ा, और जाकर दरख़्त की सायादार छांव में बैठ गया। काफी ठंडक थी यहाँ। मेरी टांगों के बीच लटका मेरा लंड हर लम्हा अपनी लंबाई बढ़ा रहा था और मेरे इरादों का सबूत था। मैं जाकर दीदी के पास बैठा। अक्षय कुछ दूर लेटा था। मैं दीदी के होंठों पर झुक गया। दीदी ने मेरे होंठ दबा लिए और चूसने लगीं। उनकी सांसें गरम होती मैं बखोबी महसूस कर रहा था। मैं उनके बेहद गोलाई लिए मम्मों पर आहिस्ता आहिस्ता हाथ फेर रहा था। और फिर मैंने उन बड़े मम्मों पर अपने तपते हुये लब रखे और चूसने लगा ही था की मेरे मुँह में दूध आने लगा। दूध का जायका अब अंजान हो गया था मेरे लिए। मैंने उसे थूक दिया।

दीदी बोलीं-“क्यों मजा नहीं आया…”

मैंने दूसरे मम्मे की निप्पल दबाई तो वह भी उबल पड़ी। अब मैं कुछ दूध हलक से उतार गया। लेकिन जायका पसंद नहीं आया।
इसलिए जल्द ही मुँह हटाकर अपना मुँह अपनी पसंद की जगह यानी चूत पर ले गया। दीदी की चूत जो काफी मोटी हो गई थी पिछले दिनों, अब वापिस अपनी जगह जा चुकी थी। मैं उसके लब खोलकर उसे चूसने लगा। और दीदी मजे से लेटी चुसवाती रहीं। और कुछ देर बाद मेरा लंड दीदी की चूत में आ जा रहा था। मुझे काफी तंग लगी। दीदी ने भी एक दो बार जोर से सिसकी सी ली लेकिन फिर चूत में मेरे थूक की नमी और चूत से छूटे पानी की वजह से आसानी हो गई।

दीदी ने ज़ज्बात से लरजती आवाज में कहा-“प्रेम अब मनी अंदर ना छोड़ना। वरना में दोबारा प्रेगनेंट हो जाउन्गि…”

मैंने फुलती सांसों में कहा-“दीदी फिर कहाँ निकालूं…”

दीदी बोलीं-“मेरी गान्ड का सुराख खोल दो प्रेम़…”

और मैं एकदम से सुन्न हो गया। और जल्दी से निकाल लिया अपना लंड। क्योंकी अभी तो इसको अंजान राहों का मुसाफिर बनना था। और दीदी फौरन ही घोड़ी बनकर गान्ड निकाल कर तैयार हो गईं। सुराख सामने था मेरे, बिल्कुल बंद, कंवारा, टाइट, हल्का गुलाबी और मैं बेइखतियार गान्ड के सुराख में अपनी जबान चलाने लगा। जबान की नोक थोड़ी सी अंदर जा पा रही थी। वाकई बेहद बंद था वोह, हालांकी मैंने पूरी कुवि से गान्ड को दोनों जानिब खोल रखा था।

खैर, मैं खड़ा हुआ और दीदी की गान्ड में उंगली घुसा दी बहुत ही बेदर्दी से। दीदी की चीख सुनकर दरख़्त पर बैठे परिंदे उड़ गये। मैं कुछ देर तक उंगली गान्ड के सुरख में चलाता रहा फिर अपने लंड पर हाथ फेरा। दीदी ने उसे मुँह में ले लिया और फिर थोड़ी देर बाद दीदी का थूक मेरे लंड से टपक रहा था। और इसी से मुझे दीदी की गान्ड का तंग सुराख खोलना था। मैं तैयार था और फिर वह जंगल, वहाँ का सुकून, वहाँ की खामोश फ़िज़ा, दीदी की भयानक चीखों से गूंज रही थी। और मेरा लंड गान्ड के सुराख में धंसता जा रहा था। दीदी रो रही थी, मदद को चीख रही थी, मुझे रुकने का बोल रही थी, लेकिन मेरा लंड सारी रुकावटें सारी दीवारें पार करता गहराइयों में उतरता गया। और फिर कुछ ना रह गया। सिवाए दर्द से भरी आवाजों और सिसकियाँ, जो दीदी के मुँह से निकल रहीं थीं।

फिर मैंने झटके मारने शुरू किए। खून की धार रानों से होती घास के सब्ज़ फर्श को रंगीन बनाने लगी। और दीदी दर्द से बेहाल, चीखें जा रहीं थीं। कामिनी भी आ गई वो घबरा गई थी लेकिन जब उसने दीदी को घोड़ी बने देखा और मुझे उनपर सवार गान्ड में लंड डालते देखा तो खामोशी से अक्षय को उठाकर उसको टहलाने लगी। बेचारा मासूम अपनी माँ की चीखों से परेशान था। मैं कितनी ही देर गान्ड के सुराख को चोदता रहा। मेरा लंड बुरी तरह दर्द कर रहा था। और फिर खून भरी मनी गान्ड से उबलने लगी और मैं धप से गिर गया और मेरे साथ दीदी भी।


गान्ड खुल चुकी थी दीदी की। दीदी काफी देर बाद उठीं और नदी में जाकर नहाने लगीं। फिर दीदी ने आज फिर वह दिन याद दिला दिए। दीदी-“याद है जब तुमने पहली बार मेरी चूत खोली थी। कितना दर्द हुआ था मुझे। आज तो बहुत ही तकलीफ है। और फिर दोस्तों… यह एक मामूल बन गया। अब कामिनी और दीदी दोनों ही चुदवाति थीं। फरक सिर्फ़ इतना था की दीदी अब चूत में मनी छोड़ने को मना करतीं, जबकी कामिनी की चूत मेरी मनी से भरी रहती।


और एक साल और बीत गया इसी तरह। 1953 अगस्त… वोही हसीन दिन गुजर रहे थे। अक्षय अब सवा साल का हो चुका था। 15 साल से ज्यादा का अरसा हम यहाँ गुजार चुके थे। मैं अब अपनी दोनों बहनों को चोदता। अब उनकी चूतें और गांडे खुल चुकी थीं। अब दीदी फिर अपनी चूत भर लिया करतीं थीं मेरी मनी से और इसका नतीजा बहुत जल्द आया, अबकी दफा।

यह साल के अंत की बात है जब कामिनी और दीदी दोनों के पीरियड एक के बाद एक रुक गये और अगले ही महीने हमारे शक यकीन में बदल गये। मेरी दोनों बहनें उमीद से थीं। दोनों को हमल ठहर गया था। दोनों के पेट बाहर चले आ रहे थे। मुझे याद है जरा जरा, दीदी दिसंबर 1953 में और कामिनी जनवरी 1954 में प्रेगनेंट हुई। और अब हमें इंतजार था आने वाले मेहमानों का, जो बहुत जल्द हमारी इस छोटी सी दुनियाँ में आँख खोलने वाला था।
अक्षय अब दो साल का हुआ ही चाहता था। और उसके दूसरे बहन भाई अब आना ही चाहते थे।
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बस दोस्तों अब मेरी दास्तान के कुछ आख़िरी लम्हात के चंद ही वाकियात हैं जो मैं आपको अगली किस्त में सुना दूंगा। और वहीं हमारा साथ ख़तम होगा। बस मैं कह चुका।
मेरे दोस्तों, मेरे यारों, बस अब यह बूढ़ा बहुत थक गया है। जिंदगी मजीद मोहलत देने को तैयार नजर नहीं आती। ना जाने कब यह लड़खड़ाती जबान बंद हो जाए। ना जाने कब यह काँपते लब थम जाएूँ। अब आप मेरी जिंदगी के आख़िरी वाकियात जरा मुख़्तसिर मुलाहिजा फेरमा लें। फिर मोका मिले ना मिले।

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बस दोस्तों अब मेरी दास्तान के कुछ आख़िरी लम्हात के चंद ही वाकियात हैं जो मैं आपको अगली किस्त में सुना दूंगा। और वहीं हमारा साथ ख़तम होगा। बस मैं कह चुका।
मेरे दोस्तों, मेरे यारों, बस अब यह बूढ़ा बहुत थक गया है। जिंदगी मजीद मोहलत देने को तैयार नजर नहीं आती। ना जाने कब यह लड़खड़ाती जबान बंद हो जाए। ना जाने कब यह काँपते लब थम जाएूँ। अब आप मेरी जिंदगी के आख़िरी वाकियात जरा मुख़्तसिर मुलाहिजा फेरमा लें। फिर मोका मिले ना मिले।

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यह घालिबान 1954 का साल है। दीदी ने इसी साल एक लड़की को जनम दिया है। अगस्त में और अगले ही महीने यानी सेप्टेंबर में कामिनी भी एक खूबसूरत से लड़के को जनम दे चुकी है। दीदी ने लड़की का नाम राजेश्वरी जब की कामिनी और मैंने अपने बेटे का नाम अजय रखा है। मुझको अपनी छोटी बहन कामिनी से होने वाला बच्चा बहुत प्यारा लगा। उसमें कामिनी और मेरी बहुत झलक है। असल में मैं और कामिनी, हम दोनों बहन भाई की शकलें काफी हद तक एक जैसी हैं। नाजुक सा नाक नक़्शा, और यही हमारे बच्चे को मिला था। अब हम सबकी मसरुफ़ियत बढ़ सी गई थीं। दीदी और मेरा बेटा अक्षय तो अब तीन साल का हो चुका था। बातें भी करने लगा था दीदी अब अपना टाइम राजेश्वरी की देख भाल में बिताती और कामिनी अपने पहले बच्चे अजय में बिजी होती।

इसी तरह वक्त गुजर रहा था। हम अब भी एक दूसरे से मजे लेते, अब कोई झिझक नहीं थी। अक्सर मैं और कामिनी नदी पर नहाने जाते तो बच्चे को वहाँ दरख़्त के नीचे लिटा देते और खुद नहाकर फिर दरख़्त के नीचे आकर एक दूसरे के जिस्मों में खो जाते। कभी दीदी भी वहाँ आ जातीं तो वो भी शरीक होतीं। अब रात में हम तीनों ही एक दूसरे के साथ सेक्स करते और एक दूसरे को आराम पहुँचा कर आराम से सो जाते। अक्षय तेज़ी से बड़ा हो रहा था।

अब मैं भी माहिर हो चुका था और मेरी दोनों बहनें भी। वो मेरी मनी अपनी चूत में ही छुड़वाती लेकिन अपनी चूत को सिकोड कर उसको बच्चेदानी में जाने ही नहीं देतीं और फौरन उकड़ू बैठकर मनी को बाहर गिरा देतीं। या फिर मनी छूटने से पहले अगर मेरा लंड कामिनी की चूत में होता तो मनी छूटने से पहले ही दीदी मेरा लंड निकाल कर अपने मुँह में ले लेतीं और मेरी मनी पी लेतीं और अगर दीदी की चूत में होता तो कामिनी चूत चुसते हुये मेरा लंड खींच लेती और मेरा लंड अपनी मनी उसके मुँह में भर देता। इसी तरह वक्त का चक्कर चलता रहा।

हमारे बच्चे हमारे सामने बड़े होते गये। मुझे याद है के यह 1957 का साल था। महीना घालिबान फरवरी था सर्दियाँ थीं लेकिन काबिल-ए-बर्दाश्त। हमें यहाँ आए 19 साल हुआ ही चाहते थे। मेरी उमर इस वक्त 28 साल, राधा दीदी की 34 साल, जब की कामिनी की 25 साल थी। हम तीनों भरपूर जवान थे लेकिन अब दीदी का हसीन जिस्म ढलने लगा था, अब उनमें वो पहले जैसा जोश भी नहीं रहा था। मुझे आज भी वो दिन याद आते हैं, जब दीदी बढ़ बढ़ कर मेरे लंड पर हमले किया करती थीं।

अपनी चूत फैला-फैलाकर उसे ज्यादा से ज्यादा अंदर किया करती थीं। कई-कई दफा उनकी चूत मनी छोड़ती थी। फिर भी उसकी आग सर्द नहीं होती थी। जब चूत चुसवाती थीं तो दहकती चूत की गर्मी से मेरे होंठ जलने लगते थे, मम्मे बिल्कुल गोल हुआ करते थे, जो चुदाई के वक्त बेहद खूबसूरत तरीके से हिला करते थे। वोही दीदी अब कभी कभार ही चुदाई करवाया करती थीं। ज़्यादातर लंड चूस कर ही फारिग या अपनी चूत चुदवा लिया करती थीं।

चूत में भी अब वो मजा नहीं रहा था। चुसते वक्त काफी देर बाद पानी आता था और चुदाई के वक्त लंड अभी जाता ही था की चूत से पानी टपकने लगता। और चूत काफी खुल ही गई थी। दो बच्चे पैदा करने के बाद। कुछ ही देर बाद चूत से अजीब भड़ भड़ की आवाजें आने लगती। मम्मे अब गोल नहीं रहे थे। ढलक से गये थे,

बच्चों को दूध पिलाने की वजह से और निप्पल काले पड़ चुके थे। गान्ड भी अब काफी गोश्त चढ़ा चुकी थी और कमर काफी मोटी हो गई थी।

जब की कामिनी का जिस्म अब भी कसा हुआ था, मम्मे भी टाइट थे। हाँ निप्पल उसके काफी बड़े हो गये थे क्योंकी वो भी बच्चे को दूध पिलाया करती थी। चूत अब भी गरम और रसभरी थी, चूसने में मजा आता था। गान्ड भी कसी हुई थी। गान्ड का सुराख खुला हुआ था। मैं डालता ही रहता था। उसमें। हम अब भी नंगे ही रहते थे कपड़े हम बच्चों को पहनाया करते थे की उनको मौसम की सजख्ियों से बचा सकें। यह ऐसी ही एक शाम का ज़िकर है।
 
मैं साहिल पर आग जलाए बैठा था। पानी के चंद साँप आग पर भून रहा था। रात की तरीकी तेज़ी से फैलने को तैयार थी। बच्चे सामने ही साहिल की ठंडी रेत पर खेल रहे थे। दीदी और कामिनी नजर नहीं आ रहीं थीं, मैं बैठा सूरज को पानी में गायब होते देख रहा था। मेरे देखते ही देखते गहरे पानी में आग का देवता गायब हो गया। और महज पानी को अपना रंग देकर रात की देवी के लिए जगह बना गया। और रात की देवी दुनियाँ पर कब्ज़े के लिए उतर आई।

मैं देख रहा था। टिमटिमाते सितारे हर रोज की तरह एक एक करके रोशन हो रहे थे। बेहद खूबसूरत मंजर था। और फिर मैंने वो देखा जिसको देखने के लिए हमारी नजरें 19 साल से तरस रहीं थीं। वो एक जहाज की रोशनियाँ थीं जो काले गहरे समुंदर और चमक ती दमक ती आसमान के दरम्यान यूँ रोशन थीं जैसे सितारों का कोई कारवा नीचे जमीन पर उतर आया हो। मैं काफी देर उन रोशनियों को देखता रहा। मेरा जेहन इसको समझ नहीं पा रहा था, जो मैं देख रहा था। जिसकी देखने की हमें ना जाने कब से ख्वाहिश थी। वो आज मेरे सामने हक़ीकत बना हुआ था।

कभी कभार यूँ भी होता है दोस्तों… शायद आपको भी कभी इसका तजुर्बा हुआ हो की आप किसी चीज की ख्वाहिश बेहद रखते हों और वो दिल की ख्वाहिश अपनी तमामातर हक़ीकतों के साथ आपके सामने आ खड़ी हो तो आप कुछ देर हैरत और बे- यकीनी की एक अजब कैफियत में गुम हो जाते हैं। तो यही हाल इस वक्त मेरा था। मुझको यकीन नहीं आ रहा था जो मैं देख रहा था। और फिर मुझे पीछे से दीदी की चीखने की आवाज आई जिसने मेरे दिमाग़ को एकदम झंझोड़ दिया और मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।

और कुछ ही देर में हम एक बहुत ही बड़ा आग का आलाव साहिल पर रोशन कर चुके थे। और साहिल पर खड़े हलक फाड़ फाड़ कर चीख रहे थे और हमारी चीखों ने तो खैर नहीं लेकिन साहिल पर जलती आग ने जहाज को हमारी तरफ मुतवज्जा कर ही लिया। और एक बड़ी कश्ती जहाज से अलग होकर साहिल की तरफ बढ़ने लगी। जिसका धुंधला सा अक्स हम जहाज की तेज रोशनियों में बखूबी देख सकते थे और तभी दीदी को अपनी नंगेपन का एहसास हुआ और वो कामिनी को लिए तेज़ी से झोंपड़े की तरफ बढ़ गईं और कुछ ही देर में हम सब अपने उन पूरे और निहायत ही ख़स्ता हाल कपड़ों मैं खड़े थे जो ना जाने कब से हमने संभाल रखे थे।

वह कपड़े हमारे पूरे जिस्मों को तो नहीं लेकिन दीदी और कामिनी के पोशीदा हिस्सों को ढांप ही रहे थे। रहा मैं तो घुटनों से फटि हुई एक पतलून पहने खड़ा था। जो मेरी कमर पर बंद भी नहीं हो रही थी। और कुछ ही देर में कश्ती साहिल से आ लगी। वो एक इंललीश नेवी का जहाज था। जो किसी मिशन पर हिन्दुस्तान जा रहा था। और कुछ ही देर में हम अपने मुख़्तसिरसामान और अपने तीन बच्चों के साथ तेज़ी से जहाज की तरफ बढ़ रहे थे। मैं कश्ती के पिछले हिस्से पर बैठा था। मेरे सामने जजीरे पर आग अब भी रोशन थी। जिसकी रोशनी में कुछ दूर बना हमारा झोंपड़ा नजर आ रहा था।

यह सब मंज़र दूर हो रहे थे मेरी नजरों से।

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपने घर से दूर जा रहा हूँ, वो घर जहाँ मैंने अपनी पूरी जवानी गुजार दी, जहाँ मैंने अपनी जिंदगी के कीमती 19 साल गुजार दिए। जहाँ का एक एक पौधा, एक एक दरख़्त, एक एक पत्थर मेरे बचपन से जवानी के सफर का चश्मदीद गवाह था। जहाँ की हवायें, नदी का ठंडा पांनी, ठंडी रेत… क्या यह सब मैं कभी दोबारा देख सकूँगा … कभी नहीं… मैं हमेशा के लिए जुदा हो रहा था। मैं जा रहा था। आए मेरे प्यारे घर मैं जा रहा हूँ। मैं अब कभी नहीं लौटूंगा।

और मंजर धुंधलाते गये और हम जहाज पर पहुँच गये। ना जाने जहाज के कप्टन से दीदी ने क्या कहा… क्या नहीं… मैं नहीं जानता। वो हमें बाम्बे के साहिल पर उतारने पर रजामंद हो गया। शायद दीदी ने एक दो रातें कप्टन के साथ उसके केबिन में गुजारीं, उसका नतीजा यह हुआ की हम बाम्बे के साहिल पर निहायत ही खामोशी से उतरने में कामयाब हो गये। क्योंकी आप जानिए हमारे पास हमारी कोई पहचान नहीं थी, ना ही कोई सफरी दस्तावेज, हमें पहनने को ढंग के कपड़े और कुछ पैसे देकर कप्टन ने बाम्बे के एक सुनसान साहिल पर पहुँचा दिया।

और हम ना जाने क्या कुछ सहते हुये, कहाँ-कहाँ भटक ते हुये आख़िर एक दूर दराज कस्बे में पहुँचे। रास्ते में कई जगह कामिनी और दीदी ने अपने जिस्म का इस्तेमाल किया और आख़िर हमने एक कस्बे में अपना झोंपड़ा डाल दिया और रहने लगे। वहाँ के लोगों के लिए दीदी मेरी बड़ी बहन थी जिसका पति मर चुका था। और कामिनी मेरी बीवी थी।
कुछ ही दिन में दीदी की शादी हमने वहाँ कस्बे के एक बनिये से कर दी। दीदी ने खुद ही इसरार किया था। कुछ ही दिन में बनिया मर गया। अब हमारे हालात काफी बेहतर हैं। बनिये ने काफी रकम छोड़ी थी हमने अपना घर पक्का कर लिया।

1976 में कामिनी मर गई। जी हाँ मेरी छोटी बहन कामिनी, जिसने अपनी जवानी अपने भाई के हवाले कर दी थी। जिसका बचपन मैंने ही जवान किया था जिस कली को मैंने ही फूल बनाया था वो फूल 44 साल की उमर में मुझे छोड़ गया। उससे मेरा एक बेटा है अजय। मैं बहुत रोया उस दिन। दीदी भी बहुत रोईं लेकिन जिसने जाना था वो चला गया। और दीदी ने मेरा साथ 12 साल और दिया। और 65 साल की उमर में 1988 में दीदी भी मुझे छोड़ गईं।

बस मैं ही रह गया। राजेस्वरी की शादी हो चुकी थी। दोनों बेटे बाम्बे जाकर कमा खा रहे थे। अब मैं हूँ, मेरी तन्हाई है। मेरी उमर 86 बरस हो चुकी है। ना जाने कब तक जी सकूंगा मैं। वो जजीरा अब भी कभी ख्वाब में देखता हूँ मैं। जो यहाँ से बहुत दूर ना जाने कहाँ खो गया है। कभी सोचता हूँ क्या ही अच्छा होता अगर हम अब भी वहाँ उस जजीरे पर होते। मैं कम से कम अपने घर में तो मरता। मुझे बहुत याद आता है। मुझे वो दिन भी याद आते हैं। कामिनी की जवानी, दीदी की राजो नियाज करती ज़ज्बात से बोझल आवाज। आअहह… ना जाने कहाँ खो गया सब कुछ। अब तो सिर्फ़ तन्हाई है। ना वो जज़ीरा रहा, ना वो नाजुक जिस्म रहे, ना वो ज़ज्बात रहे, ना वो गरम सांसें रहीं। अब तो बस तन्हाई वहसत, अजीयत मेरे चारों तरफ बसेरा किए हुए है।

ना जाने कब मौत की देवी मुझ पर मेहरबान होकर मुझे वहाँ पहुँचा दे जहाँ मेरी दोनों बहनें मेरा इंतजार कर रहीं हैं। दोस्तों… मेरी यह दास्तान ना जाने आपके दिलों पर क्या असर डाले। आप बहुत जल्द भूल जाएँगे मुझे, मेरी कहानी को। लेकिन यह मेरी जिंदगी की वो सच्चाइयां हैं, इनमें वो हक़ीकत छुपी हुई हैं, जिंदगी के किसी ना किसी मोड़ पर आपको मेरी, मुझ बुढ़े की कही हुई कोई ना कोई बात याद आती रहेगी। मैंने आप को अपनी जिंदगी के वो राज खोलकर बता दिए। जो बहुत काबिल-ए-फखर ना सही, लेकिन जिंदगी की फितरत की सच्चाईयों पर मुबनी थे।
अब प्रेम का आख़िरी सलाम आप सबको बोल कर बहुत जल्द मैं यह दुनियाँ उसी तरह छोड़ जाऊँगा जिस तरह मैंने अपनी आँखों के सामने उस जजीरे को धुंधलाता देखा था।

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समाप्त
 
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