non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया - SexBaba
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non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया

hotaks444

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आखिर वो दिन आ ही गया


मैं आज इंडिया के एक दूर-दराज कस्बे से आपसे मुखातिब हूँ, मैं अपनी जिंदगी की 86 बहारें देख चुका हूँ। आज मैं तन्हा एक झोंपड़ेनुमा घर में रहता हूँ। मेरी तन्हाइयां और मैं, यह खामोशी मुझको डस रही है। मेरी मौत बहुत करीब है, हाँ मैं जानता हूँ अब मैं बहुत ही कम इस दुनियाँ में रहूंगा। मौत मुझको अक्सर करीब की झाड़ियों में बैठी नजर आती है। एक दिन वह मुझको अपने साथ ले जायेगी।

मेरा नाम प्रेम है। आज मेरी फेमिली में कोई भी जिंदा नहीं रहा। सब वहाँ जा चुके हैं जहाँ से कभी कोई वापपस नहीं आया आज तक, और सब वहाँ मेरा बेताबी से इंतिजार कर रहे हैं। मैं जानता हूँ, वहाँ मेरा अंजाम बहुत बुरा होगा, शायद मैं कभी मुक्ति ही ना पा सकूं। पर मैं यह बातें ना जाने क्यों कह रहा हूँ।

मेरा कोई धरम, कोई मजहब नहीं। मैंने जो जिंदगी गुजारी उसमें धरम, इख्लाक, शरम, मशरती तकाज़े इन चीजों का नाम-ओ-तनशान तक ना था, वहाँ फितरती तकाज़े ही मेरे रहबेर थे। जहां फितरत खुद मेरी रहनुमाई पर तैयार थी।

मुझको आज भी अच्छी तरह याद है। मेरे बचपन के दिन, क्योंकी मैं एक बेटी के बाद पैदा हुआ था, इसलिए माँ, बाप का प्यारा था, मेरी माँ बहुत अच्छी औरत थी। आज भी अपने आस पास उसकी परछाईं महसूस करता हूँ। मेरे पिताजी ब्रिटिश नेवी में थे और हम अच्छे खासे खाते पीते घराने से थे। मैं 18 अगस्त 1929 में पैदा हुआ उस वक्त मेरी बहन राधा सिर्फ़ 6 साल की थी। वह एक नन्हा भाई पाकर बहुत खुश थी। जब मैं तीन साल का हुआ तो हमारे घर में और खुशियाँ आ गईं, हमारी एक और बहन आ गई उसका नाम पिताजी ने बड़े प्यार से कामिनी रखा। वह थी भी तो बिल्कुल कोमल कोमल, उसका बचपन आज भी यूँ लगता है। बस क्या कहूं?

उस वक्त हमारी बड़ी बहन राधा 9 साल की हो चुकी थी और काफी सुंदर भी। वह अब माँ के साथ काम भी करवा लिया करती थी, भारी कामों के लिए तो नौकर थे ही।

बहुत खुशियों भरे दिन थे वह भी।

फिर हिन्दुस्तान के हालात कुछ बिगड़ने लगे। यह लगभग 1937 के आख़िर की बात है। अब पिताजी और माँ अक्सर इन बिगड़ते हुये हालात पर परेशान हो जाती थीं । आख़िर मेरे पिताजी की फौज की नौकरी और उनके ताल्लुक़ात काम आए और मेरी फेमिली ने इंगलिस्तान शिफ्ट होने का फैसला किया।
जिनमें मेरे दादा, दादी, पिताजी, माँ और हम तीनों बच्चे शामिल थे। कुछ दिनों तक पिताजी भाग दौड़ करते रहे आख़िर फरवरी 1938 के अंत में जाकर हमारे सारे डाक्युमेंटस तैयार थे।

और हम तैयार थे इगलेंड जाने के लिए। लेकिन बहरहाल तैयारियाँ करते करते मार्च 1938 भी गुजर ही गया तकरीबन और हमारी बाहरी जहाज की टिकेट कन्फर्म हुई 27 मार्च 1938 की उस दिन हमने अपना देश हिन्दुस्तान हमेशा के लिए छोड़ देना था।

आज हम सब बहन भाई बहुत खुश थे क्योंकी माँ की जबानी हमको बाहरी जहाज की बहुत सी कहानियाँ सुनने को मिली थीं और हम इस रोमांचक सफर के लिए बेचैन थे। हमारा सारा समान दो लोरियों में भरा जा रहा था

और फिर वह बंदरगाह की जानिब चलीं गईं। हम सब बहन भाई और हमारी पूरी फेमिली एक विक्टोरिया में बैठ कर बंदरगाह की तरफ रवाना हो गये।

उन दिनों बाम्बे की बंदरगाह आज की तरह शानदार ना थी। ज़्यादातर वहाँ इंगलिस्तान से आए और स्पेन की तरफ से आए तिजारती जहांजों की भरमार रहती थी। गोदी पर मजदूरों की भाँति भाँति की आवाजें सुनाई दे रहीं थीं एक अजब गहमा गहमी थी।

ब्रिटिश नेवी के भी कई जहाज वहाँ लंगरअंदाज थे। जाब्ते की करवाइयों से गुजरिे हुये हम सब आख़िर जहाज पर अपने केबिन में आ ही गये। बस यूँ ही छोटा सा केबिन था। आज के क्रूज शिप्स की तरह शानदार तो ना था पर उस जमाने में बेहतर ही तसलीम किया जा सकता था। खैर आख़िर शाम को जहाज का लॅंगर उठाकर गोदी को खैरबाद कहा गया बंदरगाह पर इस वक्त लोगों का हजूम था जो अपने अजीजों को विदा करने के लिए वहां जमा थे।


मैं यह सब देख रहा था। मेरी उमर उस वक्त 9 बरस की थी, मैं अभी समझदार हो रहा था और इन तमाम चीजों को बहुत दिलचस्पी से देख रहा था मेरी दोनों बहनें भी मेरे करीब खड़ी थीं और हम तीनों रेलिंग से लटके किनारे को दूर हटता देख रहे थे। दूर आसमान में आग का गोला सूरज अपनी आूँखों से दुनियाँ को देख रहा था और रात की तरीकी अपनी पलकें पटपटाते तेज़ी से दुनियाँ को अपनी लपेट में ले रही थी।
 
जिस वक्त का मैं यह वाक़या लिख रहा हूँ , वह उस वक्त मेरी उमर 9 साल, मेरी बड़ी बहन राधा की उमर 15 साल और मेरी छोटी बहन कामिनी की 6 साल की है। इंगलिस्तान पहुँचते ही मेरे चाचा के लड़के से मेरी बहन राधा की सगाई तय है। पर क़िस्मत को यह मंजूर नहीं। क़िस्मत हमारे लिए कुछ और ही राहें मिन्तिजर चुकी है जहाँ जाना हमारे लिए लाजिमी है। हम इससे लाख बचना चाहें पर तकदीर का चक्कर हमें अपनी लपेट में लेने के लिए फिराक में आ चुका था और हम आने वाले वाकिये से बेखबर आने वाले हसीन दिनों के फरेब में खोए हुये थे।


हम बहन भाई उस बाहरी जहाज पर बहुत एंजाय कर रहे थे। हमको बहुत अच्छा लग रहा था यह शांत समुंदर यह सुकून, यह मद्धम सा लहरों का शोर और उनमें डोलता हमारा बे हक़ीकत जहाज। मैं तो बहुत हैरान था जब आसमान की उसातून पर नजर डालता और फिर समुंदर की बेपनाह गहराइयां देखता तो हमारा वजूद एक बहक़ीकत जरीय से भी हकीर नजर आता।

तारीख: 31 मार्च 1938

आज हमें सफर करते 5 दिन हो चुके थे। अब हम बच्चे इस सफर से उकता चुके थे और जल्द से जल्द जमीन पर उतरना चाहते थे। यह शाम की बात है आसमान गहरा सुरमई हो चुका था और दूर बहुत दूर आसमान में बिजलियाँ सी लहरातीं महसूस की जा सकतीं थीं। जहाज का अमला आज गैर-मामूली सी भागदौड़ में मशरूफ था। आज हम रात का खाना खाते ही अपने केबिन में चले आए। फिर कुछ देर बाद ही ऐसा लगा जैसे आसमान फट पड़ा हो। बहुत जोरों की बारिश थी। मैंने हिन्दुस्तान में कभी ऐसी बारिश ना देखी थी। कान पड़ी आवाज भी सुनाई ना दे रही थी। हवाओं का शोर इस कदर था की यूँ लगता था की हमें उड़ा ले जायेगी। लेकिन हमारा खिलौना सा जहाज बड़ी बेजीगरी से उन भयानक हवाओं का मुकाबला कर रहा था। लेकिन यह तो उस तूफान की शुरुआत थी।



और जब तूफान आया तो जहाज यूँ मालूम होता था जैसे हवा में उड़ रहा हो। अभी एक लहर उसको समुंदर से उठाकर पटक ही रही होती थी के दूसरी उचक लेती थी। और फिर एक जबरदस्त धमाका सुनाई दिया, पिताजी ने दरवाजा खोलकर देखा तो जहाज की बड़ी चिमनी जहाज के फर्श पर पड़ी थी और जहाज के बीचो बीच एक गहरी दरार नमूदार हो चुकी थी। पिताजी ने हम बच्चों का हाथ पकड़ा और बाहर चले आए। बस क्या बताऊं क्या मंजर था। क्या बूढ़ा क्या जवान बस ऐसा लगता था की एक गदर बरपा हो चुका हो। जिसका जिधर मुँह उठ रहा था, वह वहाँ भाग रहा था। जहाज पर बँधी हिफ़ाजती कश्तियो पर हाथापाई शुरू हो चुकी थी। इंसानियत अपना शराफ़त का लबादा उतार चुकी थी, हर आदमी उन कश्तियो पर पहुँच जाना चाहता था क्योंकी सभी जानते थे की कुछ ही देर में यह जहाज नहीं रहेगा और यह कश्तिया ही बचाव का वहीद ज़रिया थीं। लेकिन जहाज का कप्तान और उसके चन्द साथी अपनी राइफल्स उठाए सामने खड़े थे। उनको देखकर बिफरे हुये हुजूम को थोड़ी शांति मिली।
 
कप्तान बोला-“भाइयों मौत को तो हर जगह पहुँच जाना है तो क्यों ना मौत से लड़कर जिया जाए। अगर हार भी गये तो क्या बहादुरों की मौत ही मरेंगे। आओ अपनी घर वालियों और बच्चों को सवार करवा दो इन पर, हम कहीं नहीं जा रहे…”

यह सुनकर एक बेचैनी सी फैली, लेकिन कुछ नहीं हो सकता था कश्तिया वहाँ मौजूद लोगों की तादात से बहुत कम थीं। आख़िर कर औरतें और बच्चे सवार हुये, उन कश्तियो पर। और वह एक के बाद एक समुंदर में उतार दी गईं। कुछ नाखुशगवार वाकिये भी हुये इस दौरान, लेकिन आख़िर में मैं अपनी माँ से चिमटा बैठा था और मेरी दोनों बहनें एक दूसरे से। हम सब बड़ी हसरत से अपने पिता को देख रहे थे और वह भी आूँसू भरी अलविदाई नजरों से अपने परिवार को जुदा होते देख रहे थे। और फिर शायद मैं सो गया या बेहोश हो गया। क्योंकी जब मेरी आँख खुली तो हम समुंदर में थे और कश्ती पे काफी तादात में औरतें और बच्चे सवार थे जिनके रोने की आवाजें भी गाहे-बा-गाहे आ जातीं थीं।


लेकिन अभी क़िस्मत को कुछ और मंजूर था। अभी तो क़िस्मत को एक खौफनाक कहानी रकम करनी थी अभी तो बहुत कुछ होना था। और उस बहुत कुछ की शुरुआत यूँ हुई की कश्ती हमारी बुरी तरह से डोलने लगी और उसमें पानी आने लगा। साफ जाहिर था की उसमें गुंजाइश से ज्यादा लोग सवार थे।

लोग अभी समझने भी ना पाए थे की यह क्या है वह कश्ती एकदम से उलट गई। और फिर कौन कहाँ गया और कौन कहाँ किसको याद है। मुझको तो बस इतना याद है की जब मेरी आँख बंद हुई तो मैंने अपनी बहनों को बुरी तरह चिल्लाते और अपनी माँ को उनको आवाजें देते सुना। और फिर मुझको कोई होश ना रहा। हाँ कुछ एहसास ज़रूर था की किसी हाथ ने मुझे माँ की मुदाफ बांहों से निकाल कर कश्ती में रख दिया।

जब मेरी आँख खुली तो सूरज सिर पर चमक रहा था हमेशा की तरह लेकिन आज मैं हमेशा जैसा नहीं था। मुझे नहीं पता मेरी माँ का क्या हुआ, सर्द समुंदर में उनकी लाश का क्या हुआ। अपने पिता को मैंने आख़िरी बार बाहरी जहाज पर खड़े हसरत से हाथ हिलाते ही देखा उसके बाद कभी नहीं देखा। शायद अब मरने के बाद देख सकू । शायद वह वहाँ आसमानों के उस पार मेरी राह देख रहे हों। मुझको मेरे किए की सजा देने को बेताब हों। खैर मैं अपनी दास्तान के तार फिर से जोड़ता हूँ , जब मेरी आँख खुली तो मैंने खुद को एक कश्ती में पाया। उस कश्ती में मेरे सिवा चंद लोग और भी थे जो एक दूसरे पर ऊपर नीचे पड़े थे और मैं देखते ही समझ गया था की उनमें से बहुत से लोग किसी भी मदद से बहुत दूर जा चुके हैं। जी हाँ वह फकत लाशों का एक ढेर था।

उस कश्ती पर शायद एक केवल मैं ही जिंदा इंसान था, लेकिन कब तक। मैं भी बहुत जल्द इस जालिम समुंदर का शिकार होने को था। माफी चाहता हूँ, समुंदर को मैंने यहाँ जालिम लिखा हालांकी इस समुंदर को मैंने खुद पर हमेशा मेहरबान ही देखा। बहुत पुरसकून बिल्कुल मेरी माँ की आगोश की तरह नरम। समुंदर की नरम हवायें मेरे कानों में लोरियाँ देने लगीं और मैं फिर सो गया या शायद बेहोश हो गया और ना जाने कब तक यूँ ही पड़ा रहा। की अचानक कुछ हुआ। जी हाँ मैंने उस लाशों के ढेर में कुछ सरसराहटें सुनीं थीं, कोई पुकार रहा था। हालाँकि आवाज बहुत ही धीमी थी लेकिन बहरहाल इस खामोशी में वह एक आवाज थी जो लहरों की मध्यम आवाजों में सॉफ सुनाई दी जा सकतीं थी। मैं घिसटता हुआ आगे बढ़ा और उस लासों के ढेर को इधर उधर करने लगा।
किसी ने फिर पुकारा-“प्प्प्प्पान्णनीईइ…”
और यह आवाज तो मैं लाखों में पहचान सकता था। वह आवाज मेरी बड़ी बहन राधा की थी।
में दीवानों की तरह उसको आवाज देने लगा-“दीदी… दीदी… दीदी…”
फिर उस ढेर में से आवाज आई-“प्रेम यह तुम हो मेरे भाई…”
मैंने कहा-“हाँ दीदी यह मैं हूँ प्रेम… कहाँ हो तुम दीदी…”
“मैं यहाँ हूँ प्रेम मेरे साथ कामिनी भी है वह बेहोश है शायद… तुम इन लोगों को हटाओ मेरा दम घुटा जा रहा है…”
मैं बोला-“दीदी यहां कोई लोग नहीं हैं यह सब लाशें हैं…”
“लाशें…”
दीदी की फटी फटी सी आवाज आई और फिर मुझको उस ढेर में से एक चीख की आवाज आई और कुछ हलचल हुई मैं भी अब उन लाशों को धक्का दे देकर समुंदर में गिराने लगा और कुछ ही देर बाद मेरी बहन राधा नमोदार हुई। वह जिंदा थी शायद इतने नीचे दबे रहने की वजह से वह बच सकी थी। वह बाहर निकल आई। हम दोनों बहन भाई अब आमने सामने थे बेहद घबराए हुये, परेशान। लेकिन अब क्या हो सकता था हम अपनी छोटी बहन कामिनी की तरफ मुतविज़ा ( ध्यान देना ) हुये।
वो बेहोश थी लेकिन उसका सांस नॉर्मल चल रही थी उसकी हालत खुली फ़िज़ा में आते ही सही होनी लगी और चेहरे पर सुर्खी सी दौड़ने लगी और कुछ ही देर बाद वो होश में थी। होश में आते ही वह माँ को पुकारने लगी। हमें कुछ देर लगी उसको नॉर्मल करने और सूरतेहाल बताने में। फिर हम तीनों बहन भाई उस कश्ती पर बैठे थे और वह ना जाने कहाँ बही चली जा रही थी, ना मंज़िल का कोई निशान था, ना रास्तों का कुछ इल्म। लेकिन समुंदर हमारी मंज़िल जानता था।

और सूरज डूबने से कुछ देर पहले उसने हमें एक साहिल पर ला फेंका। हम खुश थे साहिल पर आकर, हम समझ रहे थे की हम बच गये बस अब आबादी में पहुँचने की देर है। हम निढाल होकर वहीं साहिल की गीली रेत पर गिर से गये और फिर रात हो गई। शायद हम सारी रात वहीं पड़े रहे। क्योंकी जब मेरी आँख खुली तो मैं अकेला वहीं पड़ा था। मेरी दोनों बहनें उठकर ज़रूरी हाजत के लिए दरख़्तों के पीछे गईं थीं। में उठा और दीदी को पुकारने लगा। वह दोनों कुछ फासले से मुझको आती हुई नजर आईं।

प्रेम मुझको लगता है यहाँ आबादी नहीं है हम काफी दूर तक होकर आए हैं, लेकिन आगे सिर्फ़ जंगल है जो और घना भी होता जा रहा है। दीदी की आवाज में परेशानी थी। मैं उनको देखता रह गया। फिर हमने चारों तरफ का जायजा लिया। जहाज का बहुत सा सामान साहिल पर बिखरा पड़ा था शायद समुंदर की लहरों ने हमारे साथ उनको भी यहाँ ला फेंका था और उनमें से बहुत सी चीजों ने हमारी आने वाली जिंदगी में बहुत अहम किरदार अदा किया। मैं अपने सुनने वालों से गुज़ारिश करता हूँ की वह इन चीजों की तफ़सील जहन में रखें ताकि आपको आगे की दास्तान को समझने में दुश्वारी ना हो।
 
जो चीजें हमने साहिल पर से लाकर रखीं वह कुछ यूँ थीं। एक बड़ा संदूक जिसमें चंद कपड़े औरतों के लिए, दो मोटे कोट लेडीज़, बहुत से ब्लेड उस्तरे के, माचिसों के बंडल, मोमबत्तियाँ, शराब की काफी बोतलें, मट्टी का तेल (केरोसिन ओयल) खुश्क गोश्त के पर्चे, मछली पकड़ने का जुमला सामान और उनके साथ एक बड़ा जाल, चंद औजार, और एक बड़ी कुल्हाड़ी (आक्स)।

यह थीं वह चीजें जो हमें मिली। अप्रेल का महीना था साल 1938। मेरी उमर उस वक्त 9 साल, मेरी बहन राधा की उमर 15 साल, और छोटी बहन की उमर 6 साल। आप जानते हैं यह बहुत कम उमरें होतीं हैं जब की हालात कुछ यूँ थे की हम एक अंजान साहिल पर पड़े थे, हमको नहीं पता था की दुनियाँ के किस हिस्से में हैं और कब तक यहाँ रहेंगे। अभी तो पहला दिन था यहाँ और हम यह उम्मीद लगाए साहिल पर ही बैठे थे की अभी कोई जहाज आएगा और हमको यहाँ से ले जाएगा। लेकिन हम नहीं जानते थे यह बात की हमने अपनी उमर का एक बड़ा हिस्सा यहाँ गुजारना है। यही हमारी तकदीर में लिख दिया गया था और तकदीर का लिखा अमिट होता है दोस्तो। अब बस मुझको इजाज़त दें बहुत जल्द अपनी दास्तान पूरी करूँगा
 
हमारी उमरें बहुत कम थीं। लेकिन हमारी बड़ी बहन राधा उस वक्त 1***** साल की थी और मुकम्मल लड़की थी। वह जवान थी, हसीन थी और आरजू भरी थी, लेकिन उसकी आरजुयें अब पूरी होनी वालीं नहीं थीं। वह अपने होने वाले खाविंद से हजारों मील दूर थी और कौन जाने कभी उस तक पहुँचेगी भी या नहीं। वह समझ गई थी की अब हमारी दुनियाँ बस यही जज़ीरा है। दिन तेज़ी से गुजरने लगे, हमको भी अब सबर आ चुका था। हमने करीब दरख़्तों के एक झुंड में एक झोंपड़ा सा डाल लिया था जहाँ हम रात को सोये थे। पानी हम जमा करते थे। दीदी कभी कभार शराब पी लिया करती थी। खाना शुरू में हमने जो जहाज के सामान में मिला था उसे खाया फिर हमारी बहन और हम सब मछलियाँ पकड़ने लगे और आहिस्ता आहिस्ता इस फन में माहिर होते चले गये।

अब मसला था तो हमारे कपड़ों का। वह बिल्कुल फट गये थे। मेरी तो सिर्फ़ पैंट बची थी वह भी घुटनों तक। राधा दीदी के कपड़ों का ऊपरी हिस्सा बिल्कुल नंगा हो चुका था। और वह सारा दिन अपनी नंगी छातियों के साथ ही रहा करती थी। अब तो हमें अपने नंगेपन का भी एहसास न था। दीदी ने भी अब तमाम कपड़े उतार दिए और एक दिन वह हमारे सामने बिल्कुल नंगी खड़ी थी। वह शरमाई सी खड़ी थी और हम दोनों उसको हैरानी से देख रहे थे। दीदी की छातियों को तो मैं रोज ही देखा करता था लेकिन अब उसकी चूत और गान्ड बिल्कुल नंगी थी। हमको यहाँ आए दो साल गुजर गये थे और मेरी उमर *** साल, दीदी की 17 साल और कामिनी की *** साल हो चुकी थी।

दीदी बोली-“देखो प्रेम और कामिनी हमारे पास कपड़े नहीं हैं, जो हैं वह हमारे लिए नाकाफी हैं। यहाँ सरदी नहीं पड़ती और पड़ती हैं तो वह भी बहुत कम तो हम अपने कपड़े सरदियों के लिए संभालेंगे या कभी बीमार हुये तो… तो मैं सबसे पहले अपने कपड़े उतार चुकी हूँ। आज ही मेरे पीरियड ख़तम हुये हैं, वरना मैं पहले ही उतार देती…”

फिर वह बोली प्रेम मेरे भाई लड़की जब बालिग हो जाती है या यूँ समझो जब शादी के काबिल हो जाती है तो हर महीने यहाँ से (वह अपनी चूत की तरफ इशारा करते हुये बोली) खून सा निकलता है इस को पीरियड कहते हैं। मैं इसलिए कह रही हूँ तुमको कि अब कामिनी को भी यह पीरियड आने लगे हैं और महीने में कुछ दिन हम दोनों अपना अंडरवेअर पहनेंगे तो खून देखकर परेशान मत हो जाना। यह कहकर वह बोली-“चलो कामिनी अब तुम भी अपने कपड़े उतारकर मुझे दो…”

कामिनी शरमाई और फिर उसने भी अपने कपड़े उतार दिए। मैं अपनी दोनों नंगी बहनों को देख रहा था मैं अभी सेक्स से वाकिफ़ ना था लेकिन उनके कोरे और जवानी की चमक से जगमगाते जिस्म देखकर मेरे जिस्म में ना जाने क्या होने लगा। मैं परेशान सा हो गया। खैर… मैंने भी अपने कपड़े उतार दिए। और फिर हम तीनों नंगे ही रहते सिवाए उन दिनों के जब सरदी पड़ती या बारिश की वजह से ठंडक होती। यहाँ बारिश भी तो बेपनाह होती थी।

इसी तरह दो साल और गुजर गये। हमें यहाँ आए 4 साल हो चुके थे। मैं अब *** साल का लड़का था, मेरी दीदी अब 19 साल की हो चुकी थी और मेरी छोटी बहन कामिनी अब *** साल की थी। इन दिनों कुछ हैरत अंगेज तब्दीलियां हुई थीं हमारे जिस्मों में जो मैं कभी सोचता तो बड़ा हैरत अंगेज लगता। मेरा लंड अब काफी बड़ा हो चुका था, उसपर बाल उग आए थे काले काले। मेरी दीदी की चूत अब काफी मोटी हो गई थी। हाँ वह अपनी चूत के बाल हर महीने पीरियड के बाद काट लेती थी और कभी मैं काट देता था अपनी दोनों बहनों की चूतों के बाल क्योंकी उनकी गान्ड के सुराख पर भी बाल होते तो उनका हाथ नहीं जाता था, तो मैं यह काम कर देता था। उनकी चूत और गान्ड के बाल साफ करता तो मेरा लंड खड़ा हो जाता।

मैं कभी दीदी से कहता-“दीदी मैं भी अपने लंड के बाल साफ कर लूँ…”

दीदी हँसती और कहती-“अरे गधे मर्द की शान होते हैं यह बाल तो। छोड़ अच्छा लगता है तेरा लंड…”

मैं हैरत से पूछता-“दीदी तुमको मेरा लंड अच्छा लगता है…”

वह कहती-“क्यों तुमको मेरी चूत अच्छी नहीं लगती…”

मैं कहता-“हाँ दीदी बहुत अच्छी लगती है…”

दीदी के मम्मे खासे बड़े होकर लटक से गये थे जबकी कामिनी की चूत के बाल अभी हल्के काले थे, उसकी चूत काफी बंद और चूत के दोनों लब पास पास थे। उसकी गान्ड भी दीदी की तरह बड़ी नही थी और गान्ड का सुराख गुलाबी सा था। और मम्मे उसके भी निकल आए थे, छोटे थे अभी लेकिन निकल रहे थे और तेज़ी से बड़े हो रहे थे। इसी तरह एक साल और गुजर गया। अब कामिनी भी जवान हो चुकी थी। उसका जिस्म भी खूब भर गया था शायद यहाँ की आबो-हवा का असर था। और मेरी दोनों बहनें बहुत हसीन हो चुकी थीं।
हम सारा दिन जंगलों में घंटों शिकार करते मछलियों का और आपस में खेलते। खेल खेल में जब मैं अपनी बहनों के जिस्म से लिपटता या उनको छूता तो ऐसा लगता वह बेहद गरम हैं। अब दीदी एक नया खेल खेलती हम लोगों के साथ। वह अपने जिस्म में खूब मालिश करवाती मुझसे और कामिनी से और इस दौरान वह खूब सिसकियाँ भरती फिर मुझको लिपटा लेतीं और मेरे लंड को दबाने लगती और अपने मम्मे के बीच में रख लेतीं। मुझको सच पूछिए तो बहुत ही मजा आता। मैं चाहता तो यह था की दीदी हमेशा ऐसा करती रहे लेकिन कुछ ही देर बाद दीदी शांत हो जाती और उसकी चूत से झाग झाग सा निकलने लगता।

एक दिन दीदी से मैंने पूछा-“दीदी यह पानी क्यों निकल रहा है तुम्हारी चूत से…”

वह बोली-“पगले बस कुछ दिन और रुक जा फिर मैं तुझको सब कुछ बता दूँगी। तू यह बता ऐसा पानी कभी तेरे लंड से निकला है…”

मैं बोला-“हाँ… दीदी कभी कभार मैं सू-सू करके उठता हूँ तो काफी पानी निकला होता है, मैं समझता हूँ की शायद मेरा पेशाब निकल गया…”

दीदी कुछ सोचते हुये-“लगता है अब वक्त करीब आता जा रहा है… अच्छा यह बता, मैं तेरे लंड से खेलती हूँ तो तुझको मजा आता है…”

मैं बोला-“दीदी बहुत मजा आता है लेकिन तुम इतनी जल्दी उसको छोड़ देती हो…”

दीदी यह सुनकर हँसी और बोली-“अच्छा तो ऐसा कर। जाकर कामिनी के साथ यही खेल शुरू कर। उससे बोल की वह तेरा लंड सहलाएगी। मैं तो अभी फारिग हो गई हूँ…”
 
मैं इन लफ़्ज़ों का मतलब नहीं समझा लेकिन वहाँ से चला आया और कामिनी को ढूँढने लगा। कामिनी मुझको सामने घास पर उल्टी लेटी मिली। मैं जाकर उसके ऊपर चढ़ गया और बोला-“कामिनी चल आज हम दोनों दीदी वाला खेल खेलें। मैं तेरी मालिश करता हूँ तू मेरे लंड से खेल…”

कामिनी बोली-“भाई… दीदी के मम्मे तो बहुत बड़े हैं मेरे तो छोटे हैं अभी। मैं इनके दरमियाँ कैसे फसाउन्गी तुम्हारा लंड…”

मैं बोला-“अरे तो तू हाथों से सहला तो देगी ना… सच बहुत मजा आता है…”

वो बोली-“हाँ… भाई मजा तो आता है। अरे… क्या मेरी चूत से भी पानी निकलेगा…”

मैं बोला-“पता नहीं…”

फिर हम दोनों खेल में मशरूफ हो गये। मैं उसकी मालिश करते करते थक गया और वह मेरा लंड रगड़ती रगड़ती लेकिन ना उसका पानी निकला और ना मुझको वह मजा आ रहा था जो बाजी देती थीं।

आख़िरकार, मैं रुक गया और कहा-“खेल ख़तम। अब भूख लग रही है…”

मैं और कामिनी उठकर चलने लगे तो देखा की बाजी करीब ही बैठी थीं और दिलचस्पी से हम दोनों को देख रहीं थीं। उन्होंने पूछा-“क्या हुआ कामिनी तेरी चूत से कुछ निकला…”

कामिनी बोली-“नहीं दीदी बस मुझको तो पेशाब आने लगा है…”

फिर मुझसे पूछा-“तेरे लंड से कुछ निकला प्रेम?”

मैंने मुँह बनाकर कहा-“नहीं दीदी कुछ भी नहीं और मजा भी नहीं आया…”

वो बोलीं-“अरे मजा नहीं आया तुम दोनों को…”

हमने नहीं में सिर हिला दिए-“नहीं दीदी आपके साथ खेलकर मजा आता है…”

दीदी कुछ सोचते हुये बोलीं-“चलो आज मैं एक नया खेल सिखाती हूँ। इस खेल का नाम है प्रेम का लंड…”

मैं हैरान रह गया। मैंने कहा-“दीदी यह कैसा खेल है…”

वो बोली-“भाई इसमें तुम्हारे लंड से पानी निकालेंगे…” इसी तरह का खेल हम सब खेलेंगे और हर एक का खेल उसके नाम का होगा यानी, “राधा की चूत” या “कामिनी की चूत”

मैं जल्दी से बोला-“लेकिन दीदी कामिनी की चूत तो खुश्क है उससे पानी नहीं छूटता बस पेशाब निकलता है…” और यह कहकर मैं अपनी बात पर खुद ही हँस पड़ा।

कामिनी कुछ दूर बैठी पेशाब कर रही थी, सिर घुमाकर उसने मुझे देखा और गुस्से से उठकर मेरे पीछे भागने लगी। पेशाब के चंद कतरे उसकी चूत से फिसलकर अब भी रानों पर बह रहे थे। दीदी ने उसको रोक लिया और बोली-“अरे रुक कामिनी इधर आ…”

फिर वह झुक कर कामिनी की चूत से बहते पेशाब के कतरे जो उसकी रानों और चूत के आस पास लगे थे उनको उंगली से छूने लगी, वह चिपक रहे थे-“अरे मेरी बहन तेरी चूत से तो तू कह रही थी पानी नहीं छुड़वाया प्रेम ने… यह देख यह क्या है?”

मैं भी करीब आ गया और उसकी चूत में थोड़ी सी उंगली डाल दी। वह गीली थी पेशाब की वजह से, फिर उसको अपनी उंगली और अंगूठे से देखा तो वह पेशाब ना था। वह तो कुछ और था, बिल्कुल दीदी की चूत से निकले पानी की तरह। लेसदार और महक मारता हुआ-“अरे हाँ कामिनी… तेरी चूत खुश्क नहीं है, यह पेशाब के इलावा भी कुछ छोड़ती है…” और यह कहकर भाग खड़ा हुआ। और कामिनी मेरे पीछे। 9

इसी तरह शब-ओ-रोज गुज़रते रहे।

कुछ दिन बाद दीदी बोली-“चल प्रेम आज तेरे खेल का दिन है। आज मैं और कामिनी तेरे लंड से पानी छुड़वायेंगे…”

मैंने कहा-“हाँ दीदी… चलो खेलें…”

हम अपने झोपड़े में थे वहाँ हमने सूखी हुई घास से अपने बिस्तर तैयार किए थे। दीदी ने मेरे बिस्तर पर मुझको मलटा दिया और कहा-“प्रेम अपना जिस्म ढीला छोड़ दो और दोनों टांगें खोल लो…”

मैंने ऐसा ही किया। कामिनी नाररयल का तेल ले आई (कोकोनट ओयल), लेकिन दीदी बोली-“नहीं कामिनी हम प्रेम को आज बगैर तेल के छुड़वायेंगे…”

कामिनी बोली-“दीदी बगैर तेल के भाई के लंड से पानी कैसे निकलेगा…”

वह बोली-“बस तू देखती रह… आज मैं तुझको दिखाती हूँ। तुम और प्रेम बाद में चाहो तो खेल लेना लेकिन दिन में बस एक बार वरना बीमार हो जाओगे। जिस्म का सारा पानी निकल जाए तो इंसान मर जाता है। मैं और कामिनी यह सुनकर डर गये, और सिर हिलाने लगे।

दीदी कुछ देर मेरी रानें सहलाती रही और धीरे धीरे मेरा लंड बड़ा होता गया।

रीडर्स ये यह जेहन में रखें की यह वाकिया जब के जब हमें इस जजीरे पर आए 6 साल हो चुके हैं। मैं ***** साल का हूँ, दीदी 21 साल की मुकम्मल हसीन लड़की भरे भरे जिस्म वाली जिसका जिस्म मुकम्मल है अपनी तमाम गहराइयां, गोलाइयां लिए हुये जबकी मेरी छोटी बहन अब **** बरस की है। उसका जिस्म मुकम्मल गोल नहीं उसकी छातियां छोटी और थोड़ी नोकीली हैं।

खैर, तो मंजर पर वापिस लौटते हैं।

दीदी मेरी रानें और जिस्म अपने कोमल हाथों से सहलाती रहीं फिरट अचानक दीदी ने मेरे सीने पर सिर रखा और उसको चूमने लगीं। मैं हैरान रह गया, दीदी मुझको प्यार क्यों कर रहीं हैं। फिर उन्होंने मेरे होंठों को अपने होंठों में दबा लिया और चूसने लगीं। मैं उनका जिस्म बेहद गरम होते महसूस कर रहा था। वह तकरीबन मेरे ऊपर सवार थीं, लेकिन मेरी तो लज़्जत के मारे बुरा हाल था। वह मेरे सीने की चुचको चूसने लगीं। मैं पागल हो रहा था, मेरा जिस्म बहुत गरम हो रहा था। मैं समझ रहा था शायद मुझको बुखार हो रहा है। दीदी कुछ देर मेरा जिस्म चाट्ती रहीं। मेरी नजर मेरे लंड पर पड़ी, वह बेहद तना हुआ गरम होकर आहिस्ता आहिस्ता झटके ले रहा था और उसमें से पानी की दो तीन बूँदें सी टपक रहीं थीं।


मैं एक लम्हे को मजे को भूल गया और दीदी से बोला-“दीदी देखो मेरा लंड पानी छोड़ रहा है…”

दीदी हैरान हुई-“हैं… इतनी जल्दी…” लेकिन फिर लंड को देखकर बोली-“अरे पगले यह नहीं है, तेरा तो फौवारा छूटेगा फौवारा, बस तू देखता जा…” और यह कहकर बाजी ने मेरा लंड अपने मुँह में ले लिया।
 
मैं हैरत से सन्न हो गया और उधर कामिनी हैरत से दीदी को देख रही थी। और दीदी निहायत मजे में आँख बंद किए मेरा लंड अपने मुँह से चूस रहीं थीं। मैं कुछ ही देर हैरत में रहा और फिर एक नकाबिल-ए-बयान लज़्जत मेरे वजूद में उतरने लगी। कुछ ही देर बाद मुझे अपने लंड में एक दबाव सा महसूस हुआ और मेरा जिस्म एंठना शुरू हुआ। यह महसूस करते ही दीदी ने अपना मुँह हटा लिया और हाथों से तेज़ी से मेरा लंड सहलाने लगीं। और फिर मेरी जिंदगी का अजीब वाकिया हुआ। मेरे लंड से सफेद रंग का गाढ़ा पानी बहने लगा और एक फौवारे की तरह उछल उछल कर बाहर आने लगा और उसके साथ ही मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे जिस्म की जान ही निकल गई हो। ऐसा सुरूर… मैंने कभी महसूस नहीं किया था। मैं निढाल हो गया।

दीदी ने कहा-“कहो मजा आया?”

मेरी नजर दीदी की चूत की तरफ पड़ी तो वहाँ भी लेसदार पानी एक पतली धार की सूरत में उनकी चूत से बहकर घुटनों तक आया हुआ था। तो दीदी की चूत ने भी पानी छोड़ा था। मैंने कहा-“दीदी बहुत मजा आया अब हम दोबारा कब खेलेंगे…”

दीदी मुस्कराने लगी और बोली-“चल अब सो जा…”

और कामिनी से बोली-“देखा तूने… अब चल तू भी सो जा। कल सुबह बातें करेंगे इस बारे में…”

हम सब सो गये। हम सो रहे थे, हमारी क़िस्मत भी सो रही थी। ना जाने कब तक हमें यहाँ रहना था। ना जाने कब हम दुनियाँ को, लोगों को, अपने घर को, कब आख़िर कब देख सकेंगे। मुझे याद है उस पूरी रात मैं बहुत ही भयानक ख्वाब देखता रहा। अब मुझे महीना तो याद नहीं पर इतना याद है की गर्मियाँ थीं और हाँ साल तकरीबन था 1945, यानी तकरीबन सातवाँ साल शुरू हो चुका था।

उस रात की सुबह हुई तो हम उठे। मैं और कामिनी झोंपड़े में थे, कामिनी सो रही थी। उसकी कमसिन चूत अधखिली हालात में बिल्कुल मेरे सामने थी। दिल तो मेरा चाहा की मैं कामिनी की चूत चूसू लेकिन वह अभी सो रही थी। मेरा दिल फिर मेरे लंड से पानी निकालने को चाह रहा था। कामिनी की कंवारी चूत का खुला मुँह, उसकी चूत के हल्के गुलाबी लब, उसपर हल्के हल्के बाल, उसका जवान होता सीना जो जवानी की मदहोश सांसों से ऊपर नीचे हो रहा था। और उसका मासूम चेहरा सुतवाँ नाक, हल्का सा सांवला हुआ रंग, हल्के गुलाबी होंठ। आज मुझे एहसास हो रहा था की मेरी यह बहन तो बहुत ही हसीन है। खैर मेरा लंड बिल्कुल तना हुआ था। मैंने कामिनी को जगाना मुनासिब ना समझा और उठकर बाहर चला आया। खूबसूरत सुहानी धूप चारों ओर फैली हुई थी। एक और चमकीला दिन शुरू हो चुका था, पर हमारी जिंदगी में कोई नयापन ना था। कुछ दूर दीदी बैठी ताज़ा शिकार की हुई मछली भून रहीं थीं। और उनके हाथ में शराब थी।

मैं उनकी तरफ बढ़ गया-क्यों दीदी आज सुबह ही सुबह शराब?

वो चौंक पड़ी, मेरी आवाज सुनकर फिर मुश्कुराते हुये बोली-“उठ गये… कहो कैसी रही रात?”

मैं मुश्कुराते हुये-“बहुत अच्छा और मजेदार था आपका खेल दीदी…”

वो बोली-“हाँ आज जरा कामिनी उठ जाए फिर मैं तुम दोनों को इस खेल की सारी तफ़सीलात भी बताऊूँगी…”

मैं वहाँ से उठ गया और नदी पर जाकर नहाने लगा और हाजत से फारिग हुआ। देखा तो कामिनी चली आ रही है अपनी मस्त जवानी भरी चाल चलती हुई वह भी नहाने आई थी। उसकी आूँखों में अब तक नींद का खुम्मार था। मैं उसको देखकर मुश्कुराया और पानी में आने का इशारा किया। वो पानी में उतर आई। मैं उसके पास पहुँचा-“क्यों कामिनी रात को कैसा लगा…”

वह बोली-“हाँ… भाई। तुम्हारे लंड से कोई चीज निकली थी और तुम निढाल हो गये थे। मैं तो डर गई थी…”


मैं बोला-“अरे नहीं पगली। मुझे तो बहुत ही मजा आया। अब दीदी से बोलेंगे तुम्हारी चूत से भी वोही चीज निकालें। सच बहुत मजा आता है…”

वो बोली-“लेकिन भाई मेरी चूत से दीदी कैसे निकालेंगी… मेरी चूत भी चूसेंगी वह क्या?”

मैंने कहा-“हाँ… तुम्हारी चूत से…” यह कहते हुये मैं उसके मम्मे सहलाने लगा-“अरे देख कामिनी तेरा सीना कितना बड़ा हो गया है?”

वो बोली-“नहीं भाई मुझको तो दीदी का सीना पसंद है कितनी बड़ी और गुलाबी नोकें हैं उनकी…”

मैं बोला-“कुछ दिन बाद तेरा सीना उनसे भी अच्छा हो जाएगा। तू देख तेरा सीना नोकीला और ऊपर को उठ रहा है जबकी दीदी का सीना बिल्कुल गोलाई में है…” मैं उसका सीना सहला रहा था।

फिर वह बोली-“अब चलें भाई…”

मैं भी बाहर निकल आया। हम दोनों बहन भाई हाथों में हाथ डाले जंगल से होते अपने झोंपड़े की तरफ बढ़ते चले गये। वहाँ दीदी नाश्ते की तैयारी कर चुकी थीं हमको देखते ही बोलीं-“कहाँ मस्त हो गये थे तुम दोनों… खेल में तो नहीं लग गये थे रात वाले…”

हम दोनों मुश्कुरा उठे-“नहीं दीदी बस नहा रहे थे…”

कामिनी बोली-“दीदी को बताओ ना की तुम मेरा सीना सहला रहे थे…”

दीदी शरारि से-“क्यों प्रेम… बहुत पसंद आ गया है कामिनी का सीना, अभी तो उभर रहा है फिर देखना कितना हसीन हो जाएगा। तुम अभी से सहलाने लगे…”

मैं बोला-“हाँ दीदी… मैं भी इसे यही बता रहा था…”

दीदी बोली-“अच्छा नाश्ता कर लो बाकी बातें बाद में करेंगे। आज मैं रात तक की मछली ले आई हूँ और हमें कोई और काम भी नहीं तो बातें करी जाय…”

हम सिर झुकाए नाश्ता करने लगे। नाश्ता करने के बाद हम अपने झोंपड़े में आ गये और बैठ गये। दीदी हम दोनों की तरफ देखते हुये बोलीं-“आज मैं तुम दोनों को बताती हूँ, उस चीज और उस मजे के लिए जिसके लिए हर इंसान तरसता है…”

हम ध्यान से दीदी की बात सुन रहे थे।

कुछ देर सोचने के बाद दीदी बोलीं-“अभी तुम दोनों छोटे हो इसलिए सिर्फ़ मैं इतना बताऊूँगी, जितना जानना ज़रूरी है तुम्हारे लिए ताकि तुम इस मजेदार खेल का सही लुफ्त ले सको…”

वो फिर बोलीं-“हर लड़की जब बालिग हो जाती है तो हर महीने उसकी चूत से खून आता है। प्रेम जैसे की तुम देखते ही हो की हर महीने मेरी और अब कामिनी की चूत से भी खून आता है इसको औरत के मखसौस आयाम कहते हैं या पीरियड…” दीदी मेरी तरफ देखते हुये बोलीं।

फिर अपनी बात जारी रखते हुये बोलीं-“जब यह पीरियड आ जाय तो लड़की बालिग हो जाती है या यूँ कह लो बच्चा पैदा करने के काबिल हो जाती है…”

हम दोनों चौंक पड़े। हमारी बेचैनी महसूस करते हुये दीदी बोलीं-“पहले मेरी बात सुन लो फिर मैं तुम्हारे सारे सवालों के जवाब तुम्हें दूँगी…”

हम दोनों खामोशी से सुनने लगे। आज तो गोया हरतून का दिन था।

दीदी गोया हुई-“बच्चा पैदा करने की क़ाबलियत का यह मतलब नहीं की लड़की को हाथ लगाओ और बच्चा पैदा हो जाए। उसके लिए कुछ खास करना पड़ता है। वो खास क्या है यह अभी तुम दोनों को बताने का वक्त नहीं आया। प्रेम मेरे भाई तुम अब मुकम्मल मर्द बन चुके हो, तुम्हारी उमर अब *** साल हो चुकी है। तुम बच्चा पैदा करने के काबिल हो किसी भी लड़की से। लेकिन अभी तुम बहुत कम उमर हो…”

दीदी आगे बात बढ़ाते बोलीं-“कामिनी भी अभी छोटी है लेकिन बालिग हो चुकी है। यानी बच्चा पैदा कर सकतीं है लेकिन यह भी अभी कम उमर है। हाँ मैं पूरी तरह मुकम्मल हूँ। मैं एक सेहतमंद बच्चा पैदा कर सकतीं हूँ, लेकिन यहाँ कोई ऐसा मर्द नहीं है जो मुझसे बच्चा पैदा कर सके सिवाए एक तुम्हारे प्रेम… तो जब तुम इस उमर में दाखिल हो जाओगे तो मैं पूरा तरीका भी तुम दोनों को बता दूँगी…”

फिर दीदी बोलीं-“प्रेम कल रात जो तुम्हारे लंड से निकला उसको “मनी” कहते हैं और जो तुम मेरी चूत से निकालते रहे हो और उस दिन कामिनी की चूत से तुमने निकाला वो भी मनी ही है लेकिन मर्द की मनी से जुदा…”

फिर दीदी ने कहा-“तुम दोनों जानते हो मैंने शुरू से ही तुम दोनों को बता रखा है आज फिर बता देती हूं…” वो कामिनी की तरफ देखते हुये बोलीं-“कामिनी यह प्रेम के आगे जो लंबी सी चीज तुम देख रही हो इसको लंड कहते हैं। मर्द इसी लंड से औरत को एक नई दुनियाँ में लेजाकर लुफ्त-ओ-शुरूर से रोशन करते हैं… कोई औरत जब यह लंड चुसती है तो मर्द को बेहद मजा मिलता है और इसी तरह जब मर्द औरत की चूत यानी यह…”

दीदी ने अपनी टांगें चौड़ी कर लीं जिससे उनकी चूत के दोनों लब खुल गये और अंदर का गुलाबी हिस्सा साफ नजर आने लगा। फिर दीदी बोलीं-“इसको चूत कहते हैं और जब मर्द अपने होंठों से इसको चुसते हैं तो वोही लुफ्त औरत को भी मिलता है…”

मैं और कामिनी गौर से दीदी की चूत को देख रहे थे।

दीदी बोलीं-“और प्रेम तुमने आज बताया की तुमको कामिनी की मम्मे बहुत अच्छे लगते हैं तो यह भी मर्द की एक कमजोरी होती है औरत के मम्मे। हाँ वो इसको चुसते हैं, काटते हैं और अपना लुफ्त मुकम्मल करते हैं। तो मेरी बहन कामिनी और मेरे भाई प्रेम…”

दीदी हम दोनों को मुखातिब करते हुये बोलीं-“आज से हम एक नया खेल खेलेंगे। मैं और कामिनी एक साथ या अकेले जब भी दिल चाहे प्रेम का लंड चूसा करेंगे। और प्रेम मेरी और कामिनी की चूत चूसेगा। और हम सब अपनी मनी निकाला करेंगे और लुफ्त की दुनियाँ की सैर करेंगे। और हाँ अब हम अपनी घिजा पर भी तवज्जो देंगे, क्योंकी ज्यादा मनी निकल जाने से जिस्म कमजोर पड़ जाता है और इंसान बीमार भी हो सकता है…” अब पूछो तुमको क्या पूछना है दीदी बोलीं।

मैंने पूछा-“दीदी चूत चूसने के लिए क्या चीज चूसनी पड़ती है क्योंकी यह तो एक सुराख सा है…”

दीदी बोलीं-“प्रेम यह देखो…” दीदी फिर अपनी चूत को खोलते हुये बोलीं-“यह जो तुम इन दोनों लबों के बीच गुलाबी सा हिस्सा देख रहे हो, थोड़ा सा चुसते ही यहाँ से बहुत ही जायकेदार रस बहने लगता है, तुमको बहुत पसंद आएगा। अभी मैं तुमको चखाऊूँगी और यह चूत के ऊपर जो उभरा हुआ हिस्सा तुमको नजर आ रहा है इसको मुँह में दबाकर चूसने से बहुत जल्द मेरी मनी छूट जाएगी…”

मैं बोला-“तो दीदी आप की मनी मुँह में भर जाएगी मेरे…”

दीदी मुश्कुराते हुये-“उसका जायका इतना मजेदार होता है की तुम बार बार उसको चूसना चाहोगे…”

अब कामिनी बोली-“और दीदी प्रेम भाई की मनी निकली थी तो आपने मुँह हटा लिया था तो क्या जब मैं चूसूं तो मुँह हटा लेना है…”

दीदी ने कहा-“अरे नहीं वो तो मैं तुम दोनों को प्रेम की मनी छूटते हुये दिखाना चाहती थी वरना प्रेम की मनी का जायका भी बहुत अच्छा है। मैं अब सारी मनी पीउँगी तुम देखना और जब तुम चूस रही हो तो तुम भी पीकर देखना बहुत मजा आएगा…”

“और तो कुछ नहीं पूछना तुम दोनों को…” दीदी बोलीं।

हम खामोश रहे।

दीदी बोलीं-“चलो अब हम यह करके देखते हैं फिर बाकी बातें तुम दोनों खुद ही समझ जाओगे…”

फिर दीदी मुझसे बोलीं-“प्रेम अभी मैं और तुम यह नया खेल खेलते हैं और कामिनी हमें देखेगी फिर तुम दोनों जब तुम्हारा मन करे खेल लेना…”

मैं खड़ा हो गया। आप इससे ही अंदाजा लगा लें की दीदी मेरा लंड दोबारा चूसने वाली थी, यह सुनकर ही मेरा लंड दोबारा खड़ा हो गया था। या शायद बातों के दरमयान ही खड़ा हो चुका था। अब याद नहीं। तो कामिनी उठकर खड़ी हो गई मैं और दीदी अपने घास-फूस से तैयार बिस्तर की तरफ बढ़ गये। कामिनी सामने ही बैठ गई। मैं और दीदी बराबर बैठे थे। मैं दीदी की तरफ देख रहा था। दीदी की आँख शराब के खुमार और आने वाले लम्हात की खूबसूरती के बाइस ख्वाब अलोड हो रहीं थीं।
 
वो मखमौर लहजे में बोलीं-“अब प्रेम तुम मेरा सीना और यह चुचियाँ, चूसो खूब अच्छी तरह से…” यह कहकर दीदी लेट गईं।

मैं दीदी के सीने पर झुक कर उसकी एक चुची पर अपने होंठ रख दिए। दीदी की एक सिसकारी की आवाज आई। दीदी का जिस्म तप रहा था, आग की तरह और शायद मेरा भी दोनों जानिब आग लगी थी।
और आग से आग कभी बुझी है भला। लेकिन शायद यह ही इस खेल का निराला अंदाज था की इस खेल में आग को सिर्फ़ आग ही बुझाती थी। मैं आहिस्ता आहिस्ता एक चुची चुसता रहा मेरी सांसें गरमाने लगीं और मेरा एक हाथ दीदी के दूसरे मम्मे को दबा चुका था। मैं मसल रहा था निप्पलो को चूस रहा था, काट रहा था और दीदी…
दीदी तड़प तड़प कर बेहाल थी। काफी देर मैं दीदी के मम्मे चुसता रहा। वो बिल्कुल गोल होने की वजह से और दीदी के लेटे होने की वजह से या शायद दीदी की गर्मी की वजह से बेहद तन गये थे। हर बार मेरा हाथ फिसल फिसल जाता था। अब वो मेरे थूक में लिथड गये थे। चुचियाँ और भी गुलाबी हो गई थीं, और कड़ी थीं। आख़िर दीदी काँपती हुई आवाज में बोलीं-“प्रेम मजा आ रहा है…”

मैं हान्फते हुये बोला-“हाँ दीदी बहुत…” और अगर मैं सच कह दूँ तो आप पर मेरा बस नहीं चल रहा था की मैं यह मम्मे किस तरह अपने मुँह में भर लूँ, खा जाऊूँ इनको। लेकिन ऐसा मुमकिन ही ना था वो काफी बड़े थे। समझ नहीं पा रहा था की मैं क्या करूँ… ना जाने किस चीज की कमी थी।

दीदी फिर बोलीं-“चल प्रेम अब चूत चाट ले मेरी, चूस जा इसे। पी जा मेरे रस को। एक क़तरा ना छोड़ना…”

मैं दीदी की रानों की तरफ चला वहाँ तो अजीब ही नजारा था। दीदी की टांगें खुली थीं और उसमें से एक लेसदार पानी बह रहा था। मेरे दिमाग़ ने फौरन कहा-“मनी…” और मैंने अपनी दीदी की चूत से मुँह लगा दिया दीदी की चूत का घेरा इतना ही था जितना मेरा मुँह का। मैं दीदी की चूत के हर उभरे हुये हिस्से को होंठों में दबाकर चूसने लगा। अब दीदी सिसक रही थी, उसकी आवाजें बेहद बुलंद थीं। लेकिन उन आवाजों में जो लुफ्त, जो खुशी और जो सुकून था वो बस कुछ यूँ था। जैसे कई सदियों का कोई प्यासा किसी ठंडे और मीठे पानी के चश्मे से मुँह लगाए बैठा हो।

मैं चूत को चुसता रहा और वहां तो वाकई रस की कोई कमी ना थी, निकलता ही चला आ रहा था। मैं जबान अंदर डालकर चूत से निकला रस अपने हलक से उतारता ही था की वो दोबारा तर हो जाती। मैंचुसता जा रहा था। दीदी ने सच ही कहा था नमकीन…शुरूप्प…शुरूप्प… अब कैसे बताऊूँ उस रस का जायका। बस यूँ समझ लें की (आपने भी किसी ना किसी चूत का रस ज़रूर पिया होगा) वो एक ऐसी लड़की की जवानी का रस था जिसको किसी मर्द ने नहीं चूसा था, जिसकी चूत को कभी किसी मर्द ने नहीं छुआ था। मैं उस रस को चख रहा था, मैं उस चूत को चूस रहा था।

दीदी बेइखतियार हो चुकी थी। उसने मेरा सिर पीछे से पकड़ कर अपनी चूत में घुसा लिया था। मेरा मुँह उनकी चूत से चिपका हुआ था की मेरी जबान उनकी चूत की गहराइयों में लपलपा रही थी और हर बार उस मस्त जवानी भरे रस की अच्छी खासी मिकदार मेरे हलक तक पहुँचा रही थी, तो दूसरी तरफ मेरी नाक दीदी की चूत के उपरी हिस्से से जुड़ी एक मधुर महक का एहसास मेरी सांसों में पहुँचा रही थी। आह्ह क्या समा था, क्या मंजर था, आप सोचकर देखें।

और फिर कुछ हुआ, ऐसा लगा जैसे दीदी की चूत ने एक झटका लिया और अंदर की तरफ सांस खींची। मैं इसलिए चूत को सांस लेते महसूस कर सकता था क्योंकी दीदी की चूत मेरे मुँह में थी। और फिर मेरा मुँह पानी से भर गया क्योंकी मेरे मुस्तकिल चूसने की वजह से एक स्पेस या खालीपन पैदा हो गया था। दीदी की चूत में तो उसके प्रेसरे की वजह से दीदी की चूत की गहराइयों में मौजूद मनी का क़तरा क़तरा तक खिंचकर मेरे मुँह में भर गया और दीदी एकदम शांत हो गई। और मेरा मुँह जैसे ही चूत से अलग हुआ एक हल्के से पटाखे जैसी आवाज आई।

यह उस एयरस्पेस की वजह से थी जो मैंने चूस कर दीदी की चूत में पैदा कर दिया था। मनी की मिकदार इतनी थी की मेरे मुँह से बह रही थी, बेहद मजेदार।

दीदी उठीं, उसके चेहरे पर एक लाजवाल सुकून था। एक अनकही कहानी थी। एक मुहब्बत थी। एक दर्द था। और ना जाने क्या कुछ था। जो मैं अभी समझ नहीं पा रहा था अब मेरी नजर कामिनी पर पड़ी तो मैं हैरान रह गया। कामिनी अपनी रानें भींचे और एक हाथ से अपनी चूत दबाए एकटक हमें देख रही थी।

दीदी उसको यूँ देखकर मुस्कुराने लगी, और मैंने सोचा शायद बेचारी को बहुत जोरों का पेशाब आया हुआ है। मेरा लंड अब तक तना हुआ था हाँ उसमें से लेसदार पानी के कतरे निकलकर दीदी की रानों पर ज़रूर लगे थे लेकिन रात वाली बात और मजा नही आया था। मेरा लंड बेहद तना हुआ। गरम और झटके खा रहा था।

मैंने दीदी से कहा-दीदी मेरे लंड का तो कुछ करो।

दीदी ने कहा-कुछ नहीं बस पकड़ कर मुझको लिटाया और मेरा पूरा लंड मेरी दीदी के कोमल लबों में फँसा हुआ उनके मुँह में गायब हो गया उसने कुछ देर उसको मुँह की गहराइयों में ही रखा। शायद उसपर लगा लेसदार पानी चूस रहीं थीं दीदी। फिर उन्होंने उसको चूसना शुरू किया। लंड चुसते हुये वो अपने होंठ कभी लंड के ऊपरी हिस्से यानी उसकी टोपी तक लाती और दूसरे ही लम्हे लंड फिसलता हुवा उनके मुँह में गायब हो जाता। मैं तो दीवाना हुआ जा रहा था। बस नहीं चल रहा था की क्या करूँ। मैंने दीदी के मम्मे जोर जोर से दबाने शुरू कर दिए।

अब दीदी मेरे लंड का निचला हिस्सा जहाँ दो गेंदें लटक रहीं थीं, उनको मुँह में लिए चूस रहीं थीं और मैं मजे के मारे बस मरा जा रहा था। दीदी ने मेरी बेचैनी देखते हुये। अपनी चूत का मुँह मेरे मुँह की तरफ कर दिया और मैं सदियों के भूखे की तरह उस गीली और रस छोड़ती चूत से चिपक गया और मजे से उसे चूसने लगा। कुछ ही देर बाद दीदी की चूत फिर से गरम हो चुकी थी। और उसने मेरे मुँह में झटका देना शुरू किया। यह देखकर मैंने भी अपने लंड को धक्के देने शुरू कर दिए। यह महसूस करके दीदी ने अपना मुँह बस एक खास अंदाज में खोल लिया और मेरा लंड एक झटके से उनके मुँह से बाहर आता थूक से लिथड़ा हुआ और अगले ही लम्हे “शराअप” की आवाज से दोबारा उनके हलक तक चला जाता।
मुझको एक नया ही मजा आने लगा और फिर मेरा मुँह दोबारा दीदी की मनी से भरने लगा लेकिन इसके साथ ही मेरी आँख शिद्दत-ए-लुफ्त से बंद हो गईं और मैंने पूरी कुवि से दीदी के मुँह में अपना लंड घुसा दिया। दीदी ने देखते ही अपना मुँह सख्ती से बंद करते हुये गोया मेरे लंड को जकड़ लिया और हाथों से मेरी गान्ड को सहलाने लगीं। और मुझे महसूस हुआ की मेरी जान मेरे लंड के रास्ते निकलती जा रही है। जी हाँ दीदी का मुँह मेरी मनी से भरने लगा और कुछ ही देर बाद बस सुकून और सांसों की आवाजें ही रह गईं वहां या तो मैं था निढाल पड़ा हुआ या दीदी थीं जिसके मुँह से बहकर मेरी मनी पूरे चेहरे पर फैली हुई थी और जमी जमी सी थी। कुछ देर बाद हम उठ बैठे।

दीदी ने कहा-“मजा आया प्रेम?”

मैंने कहा-“बहुत दीदी…”

दीदी मुश्कुराती हुई बोली-“एक मजेदार चीज दिखाऊूँ तुमको?”

मैं बोला-“क्या दीदी?”

वो अचानक उठी और खामोश बैठी कामिनी के पास पहुँच कर उसकी टांगें खोल दीं, उसकी चिपकी हुई चूत हल्की सी खुल गई। मैंने देखा के मेरी कामिनी बहन की चूत भी गीली थी, उसका गुलाबी हिस्सा मनी से भीगा हुआ था और कुछ मनी बहकर वो जहाँ बैठी थी वहाँ और उसकी टांगों के दरम्यान फैली हुई थी…”

दीदी हँसती हुई-“कहो कामिनी मजा आया?”

फिर मुझसे बोलीं-“देखा प्रेम अपनी छोटी बहन को वो तुमको देखकर ही अपनी मनी छोड़ बैठी। अब तुम दोनों कल यह खेल खेल लेना। अब तो मैं थक गई हूं। तुम दोनों बाहर जाओ और चाहो तो यह खेल खेल लेना लेकिन देखो सिर्फ़ एक बार। प्रेम एक बार तुम अपनी मनी छोड़ चुके हो ठीक है। अब जाओ…”

मैं और कामिनी बाहर आ गये।

मैं हँसते हुये-“तुझको क्या हुआ कामिनी तेरी चूत ने क्यों पानी छोड़ दिया?”

वो बोली-“पता नहीं भाई तुम दोनों इतने मजे में थे मेरा भी दिल कर रहा था यह खेल खेलने को फिर मेरी चूत से पानी बहने लगा…”

यह सुनकर मैं हँसने लगा और हम दोनों नदी की तरफ जाने लगे ताकि नहा सकें। जिस्म में एक थकावट सी थी जो शायद ताजे पानी से दूर हो सके।
दोस्तों इस दास्तान के बहुत से पहलुओं में से एक पहलू यह भी है की आप इसमें फितरत के बदलते हुये उसूल देखेंगे। किस तरह फितरत अपना रास्ता खुद ढूँढती है और कैसे बढ़ती है यह महसूस करेंगे। अब मेरी दास्तान बहुत तवील होती जा रही है। अब मुझको इजाज़त दें दास्तान के बाकी राज मैं कल उजागर करूँगा
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लेकिन दोस्तों वक्त का काम गुजरना है चाहे धीमी रफ़्तार से ही क्यों ना सही, गुजर ही जाता है। शायद मैं कुछ ज्यादा ही बोल गया। क्या करूँ बूढ़ा हो गया हूँ ना, यहाँ कोई बात करने वाला नहीं। अब आपसे ही अपने दिल की हर बात कह डालूं फिर ना जाने कभी बोलने का मोका ही ना ममल्ले, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं दोस्तों। बस हसरत है की मेरी मौत इस कहानी के ख़तम होने के बाद आए ताकि दुनियाँ को मेरे बारे में पता चल सके, मुझ पर जो गुजरी वो आपके सीनों में महफूज हो जाए। बस अब आप कहानी की तरफ चलें।
***** *****
चलिए उस जजीरे पर वापिस जहाँ मैं और कामिनी नदी पर नहाने जा रहे हैं।

हाथ में हाथ दिए, गुनगुनाते हुये, बहुत मस्त कर देने वाली हवा चल रही है। बहुत सुहाना मंजर है। शायद यह हमारे जिस्मों में होनी वाली तब्दीलियो का नतीजा हो। शायद हम फितरत के रजून से आगाही हाँसिल कर रहे थे यह उसका असार हो। ना जाने क्या था लेकिन बहुत हसीन दिन था आज।

मुझे आज कामिनी बहुत हसीन लग रही थी। उसकी चूत से जो पानी उस वक्त छूटा था। मुझे और दीदी को लुफ्त लेते देखते हुये वो अब जम सा गया था और एक खुश्क लकीर सी उसकी रानों पर दिखाई देती थी वो खुश्क होकर एक सफेद सी नरम गोंद जैसी शकल इकतियार कर चुकी थी। जिसकी कुछ ममकदर उसकी रानों के बीच दबी नाजुक सी बंद चूत के दोनों मसरों पर लगी थी और फिर वहां से घुटनों तक एक हल्की पतली दूधिया सी लकीर की सूरत में फैली हुई थी। काफी खूबसूरत मंजर लगा मुझको तो यह… ना जाने क्यों?

खैर, आपको याद ही होगा की इस वक्त मेरी बहन कामिनी की उमर सिर्फ़ ** साल है लेकिन हमें पिछले दो-तीन सालों से दीदी ने जिस काम पर लगाया हुआ था यानी वो जिस तरह अपने जिस्म की मालिश करवा कर अपनी आग बुझाने की नाकाम कोशिस किया करति थीं उससे मेरी दोनों बहनों का जिस्म काफी खूबसूरत हो चुका था।

उस मालिश की वजह से मेरी **** साला बहन का जिस्म बेहद खूबसूरत हो चुका था। खूबसूरत उभरते हुये मम्मे जिन की नोकें गुलाबी थीं। जिनके सिरे ऊपर को उठे थे। जो अभी छोटे लेकिन सख़्त थे और दिन ब दिन उभरते 18

जा रहे थे। कूल्हे अभी कमर की मुनामसबि से बड़े ना थे जैसा की दीदी की कमर काफी पतली और कूल्हे यानी गान्ड बहुत भारी हो गई थी।

कामिनी की गान्ड अभी भारी ना थी लेकिन शेप में आ रही थी हल्की सी बाहर निकलती हुई महसूस होती थी। और चूत तो वो अभी बिल्कुल खुली ही नहीं थी। उसका मुँह बेहद सख्ती से बंद था। हाँ कभी वो आलटी पालती मार कर खाना खाने बैठती तो उसकी चूत का मुँह थोड़ा खुल जाता और अंदर का गुलाबी हिस्सा वाजह हो जाता। जिससे अंदाजा होता की चूत के इन बंद लबों के पीछे क्या कयामत बंद है।

उसकी चूत में मेरा लंड नहीं गया था। वो कोरी थी, कंवारी थी, अनछुई थी। और हाँ याद आया कभी वो पेशाब करने बैठती तो पेशाब आने से पहले उसकी चूत के लब खुलते और चूत का गुलाबी हिस्सा थोड़ा सा फैलता और फिर एक मोटी धार की सूरत में पेशाब बाहर आता। क्योंकी उसकी चूत से पेशाब निकलने का तरीका मुझसे जुदा था तो बाज दफा तो मैंने दीदी और कामिनी को सामने करीब बैठकर पेशाब करते देखा। मुझे बहुत पसंद था उनकी चूतों से पेशाब निकलते देखना।

आपको बहुत अजीब लगे शायद मेरी यह बात। लेकिन आप जेहन में यह बात ताज़ाकर लें की मैं नहीं जानता था की सेक्स क्या होता है। क्या सही है क्या ग़लत। कोई बताने वाला ना था और जो बता सकता था यानी दीदी उसने जो सिखाया वोही मैं कर रहा था।

मेरे लिए तो यह एक नयापन था। यह मेरे पेशाब करने की जगह मेरी बहनों से इतनी जुदा क्यों है। मेरा पेशाब एक पतली धार की सूरत में निकलता है लेकिन मेरी बहनों के सुराख से इतनी मोटी धार क्यों निकलती है। आप समझ रहे हैं ना। यह हालात की देन था यह, आगाही थी जो फितरत मुझे दे रही थी। तो आप जानें यह मेरे लिए एक तफरीह के सिवा कुछ ना था। मैं कामिनी को पेशाब करते देखते तो जब वो पेशाब कर रही होती और करने के बाद जब उसकी चूत का गुलाबी हिस्सा कतरे टपका ता अंदर चूत में वापिस जाता तो मुझको बहुत खूबसूरत लगता।

काफी खूबसूरत मंजर होता।

इतनी लंबी तह्मीद का मकसाद आपको आने वाले लम्हात और दिनों के लिए जेहनी तौर पर तैयार करना था ताकि आप मेरी नजरों से उन नजरों को देखें और जो कुछ मैं सोच रहा था वो आप भी सोचें और हमारे जेहन हम अहंग हो जायं।

तो जब मैं और कामिनी नदी पर पहुँच गये तो मैं तो पानी में उतर गया और कामिनी सामने बैठकर पेशाब करने लगी। उसकी चूत का नजारा काफी दिलचस्प था और चूत से मुझको अभी जो मजा दीदी ने दिया था तो अब इस मजेदार चीज यानी चूत से मेरी दिलचस्पी बढ़ गई थी। बिलाशुबा बहुत गरम और मजेदार चीज थी यह चूत और उसका बहता रस। जो आज पहली बार जिसका जायका दीदी ने चखाया था। अचानक मेरे दिमाग़ में एक अनोखा खयाल आया। यह पेशाब भी तो कामिनी की चूत से ही निकल रहा था। अगर दीदी की चूत से निकला रस इतना मजेदार था तो चूत से निकला पेशाब भी पी कर देखना चाहिए।

यह खयाल आया ही था की मैंने कामिनी को आवाज दी-“कामिनी…”

वो अपनी चूत को देखते पेशाब करने में मगन थी। मैं चीखा-“कामिनी रुक… पूरा पेशाब ना करना दीदी की चूत का रस इतना मजे का था। अपनी चूत का पेशाब तो चखा…”

वो बोली-“प्रेम भैया पागल तो नहीं हो गये यह गंदा होगा…”

मैं भागता हुआ नदी से बाहर निकला। मुझको देखकर कामिनी खड़ी हो गई पेशाब करते करते। लेकिन अभी पेशाब निकल रहा था, क्योंकी खड़े होने की वजह से चूत का मुँह बंद हो गया था इसलिए पेशाब अब धार की सूरत में गिरने के बजाए बे-हंगम तरीके से घुटनों पर बह रहा था।

मैं उसके पास पहुँचा और कंधे पर हाथ रखकर फिर उसको उकड़ू बिठा दिया और जैसे ही उसकी चूत का मुँह खुलकर गुलाबी हिस्सा बाहर आया मैंने अपना पूरा मुँह उसपर चिपका दिया। क्योंकी अब पेशाब कर चुकी थी वो, इसलिए रुक रुक कर आ रहा था लेकिन आ रहा था। मेरा पूरा मुँह भर गया और मैंने अपनी बहन के पेशाब का पहला घूंट भरा।

अजीब नमकीन जायका था। तेज और तल्ख़ सा, और उसमें महक बहुत ज्यादा थी। शुरू में हलक से उतारने के बाद वो तल्ख़ लगा लेकिन फिर अच्छा लगा। और मैंने दोबारा मुँह उसकी चूत पर रख दिया। पेशाब फिर मेरे मुँह में भरने लगा और मैं पीने लगा। कुछ ही देर बाद, मैं उसकी चूत से टपकता पेशाब चाट चाट कर साफ कर रहा था। और कामिनी भी आँख बंद किए हुये थी। खैर फिर हम दोनों उठे।

वो मेरी तरफ देखते हुये बोली-“प्रेम भाई कैसा जायका था। मनी जैसा था क्या?”

मैं बोला-“नहीं उससे बहुत अलग था लेकिन अच्छा था। तू पीएगी…”

वो बोली-“अरे मेरा मुँह मेरी चूत तक कैसे जाएगा?”

मैं बोला-“अरे जब मुझको पेशाब आए तो तू मेरे लंड से पी लेना…”

वो बोली-“ठीक है… लेकिन प्रेम भाई आप मेरी चूत से मनी कब निकलवाओगे। उसकी निगाहों में एक हसरत थी…”

मैं बोला-“चल अभी करते हैं फिर नहा लेंगे…”

वो बोली-“आप बीमर तो नहीं पड़ जाओगे प्रेम भाई…”

फिर बोली-“दीदी ने कहा था की ज्यादा मनी निकलना सही नहीं होता…”

मैं बोला-“यार तू भी ना। तुझको पता है दीदी ने अपनी मनी 3 या 4 बार मेरे मुँह में भरी थी, तब वो शांत हुई थीं और हमको नसीहत कर रहीं हैं…”
कामिनी हैरत से बोली-“दीदी की चूत ने इतनी मनी छोड़ी थी, और तुम वो सब पी गये…”

मैं बोला-“हाँ… इतने मजे की जो थी…”

वो बोली-“प्रेम भैया… मेरी चूत से निकली मनी मुझको भी चखाओ ना…”

वो मासूम थी, और मैं भी। हमारी बातें आपको ना जाने कैसी लग रहीं हों और आप ना जाने क्या सोच रहे हों। लेकिन आप की दुनियाँ तहज़ीब की दुनियाँ है जहाँ कुछ कानून लागू होते हैं। हम पर कोई कानून लागू ना था। हम मासूम थे। और हर वो चीज हमको दिलचस्पी प्रदान कर रही थी जो नई थी।

खैर, मैं और कामिनी नदी के करीब लगे दरख़्तों में से एक घने दरख़्त की छांव में आकर लेट गये। मैं कामिनी के मम्मों पर सिर रख लेटा था। वो मेरा सिर सहला रही थी। मैं आहिस्ता आहिस्ता उसकी चूत पर हाथ फेर रहा था। मैं बस उसकी चूत की खूबसूरती को महसूस कर रहा था। लेकिन उसकी सांसें तेज होनी लगीं और टांगें आहिस्ता आहिस्ता खुलने लगीं। मैं उठ बैठा और उसकी टांगें खोलकर दरम्यान में जाकर बैठ गया और गौर से उसकी चूत की तरफ देखने लगा।

मैं बोला-“देख कामिनी तेरी चूत कितनी हसीन है…”

यह सुनकर वो भी उठकर बैठ गई और अपनी टांगें खोलकर झुक कर अपनी चूत को देखने लगी बोली-“अब चूसोगे कब तुम या देखते ही रहोगे…”

मैंने उसको लिटाया और उसकी खुली हुई गरम चूत पर अपना मुँह रख दिया। क्या गरम और नरम थी कामिनी की चूत और दोस्तों में सच कह रहा हूँ उसका टेस्ट दीदी की चूत से बिल्कुल अलग था। मैंने जबान की नोक अंदर दाखिल की, जैसा दीदी ने सिखाया था उसकी हल्की सी सिसकियों की आवाज आई।
 
मैं समझ गया उसको मजा आया है। मैं जबान अंदर बाहर करने लगा। मेरी नाक उसकी कोरी चूत के ऊपरी हिस्से पर टिकी थी और उसकी कुंवारेपन की हसीन महक मेरे तन मन में समाती जा रही थी। मेरी आँख बंद हुई जा रहीं थीं।
बेहद मस्त कर देने वाली चूत थी मेरी बहन कामिनी की। बहुत नशा था उसमें। मैं बेताब होकर उसके गुलाबी लब होंठों में दबाकर चूसने लगा। और जबान चूत के अंदर ही थी। उसकी मुत्ठियाँ भिन्ची हुई थीं। और फिर उसने मेरे बाल पकड़कर बिल्कुल दीदी की तरह अपनी चूत से मुझको चिपका दिया और मैंने चूसना शुरू किया।

ऐसा लगता था, उसका खून सिमटकर उसके चेहरे पर आ गया था। उसकी गिरफ़्ट मेरे बालों पर सख़्त से सख़्त होती जा रही थी। और मैं और लंबी सांसें खींच रहा था। और उसकी चूत के अन्द्रुनी हिस्सों तक से सिमट कर उसका मजेदार रस मेरे मुँह में आता जा रहा था। और फिर वो बहुत शानदार तरीके से फारिग हुई। बेहद ज्यादा मनी छोड़ी थी उसने। और एकदम ढीली पड़ गई। मैं सारी मनी पीता रहा। उसके हाथ उसके पहलू में पड़े थे, सांसें मध्यम होती जा रहीं थीं। चेहरा मामूल पर आ रहा था। आँख बंद थीं और एक लफानी मुश्कुराहट उसके लबों पर थी।

लेकिन मैं तो अभी उसकी चूत का आख़िरी क़तरा भी अपने लबों से चूसने में मगन था। जब आख़िर चूत से रस बहना बंद हुआ तो मैंने आख़िरी दफा एक जोरदार सांस खींचा और पटाखे की आवाज “चटख” के साथ चूत को अपने होंठों से छोड़ा। मेरे इतनी देर चूसने की वजह से वो सफेद हो चली थी। लेकिन फिर गुलाबी होनी लगी। मैं दोबारा कामिनी के सीने पर लेट गया उसने कोई फिराक ना की। मैंने उसको हिलाया, वो उठ गई उसकी आँख गुलाबी हो चुकी थीं।

वो बोली-“बहुत मजा आया प्रेम भाई…”

मैं बोला-“तू ने मेरा लंड तो चूसा नहीं…”

वो बोली-“अब चूसूं?”

मैं बोला-“कुछ देर आराम कर ले फिर दोनों एक दूसरे को चूसेंगे…”

वो सिर हिलाकर खामोश हो गई और आँख बंद कर लीं।

थोड़ी देर बाद मैं दोबारा उसकी चूत पर मुँह रखे मजे से उसका रस चूस रहा था लेकिन अबकी दफा वो खुद भी मेरा लंड मुँह में लिए हुए थी। हम करवट के बल पड़े थे, मेरा मुँह उसकी चूत पर था और उसका मुँह मेरे लंड पर, मैं उससे लंबा था इसलिए उसकी चूत को मुँह में लेने के लिए मुझको थोड़ा सा टेढ़ा लेटना पड़ा। वो बहुत आराम से मेरा लंड चूस रही थी और बिल्कुल दीदी की कापी कर रही थी मेरे नीचे लटकते हुये टट्टे भी चाट रही थी, और हलक तक मेरा लंड लेने की कोशिस करती, लेकिन नाकाम रहती। उसके लिए वो बड़ा था। खैर वो दोबारा फारिग हुई, अबकी दफा कम मनी छोड़ी। लेकिन मेरी मनी भी उसके साथ ही निकली और उसके हलक में एक धार की सूरत में गई।

हालांकी मैंने मनी छोड़ते हुये उसका मुँह अपनी रानों में दबा लिया था और फिर उसके मुँह में मनी छोड़ी थी। लेकिन पहली मनी की धार ने उसको बोखला दिया और उसको गंदा लग गया और मनी उछलकर उसके चेहरे पर फैल गई। उसको खासी हो रही थी, और वो मेरी पूरी मनी ना पी सकी। बाद में उसने निकली हुई मनी चाटकर देखी लेकिन अब वो जमती जा रही थी। फिर हम दोनों नहा कर बाहर आए।

मैं कामिनी से बोला-“कामिनी पेशाब आ रहा है मुझको पीएगी…”

वो बोली-“हाँ… प्रेम भाई। मनी तो पी नहीं सकी पेशाब ही पी कर देख लेती हूँ…”

मैं खड़ा होकर पेशाब करने लगा।

वो मेरे पास बैठ गई उकड़ू और लंड से पेशाब निकलते देखने लगी। जब पेशाब की धार हल्की हुई तो उसने लंड को हाथों में पकड़कर अपने मुँह में ले लिया, पेशाब की धार उसके मुँह में गायब हो गई। कुछ उसकी बगलों से बाहर आने लगा और जितना उसके हलक से उतर सकता था। वो पीने लगी। आख़िर पेशाब आना बंद हो गया। उसने मुँह को बंद किया, मेरा लंड मुँह में दबाकर चुसते हुये छोड़ दिया।

वो कहने लगी-“अच्छा था प्रेम भाई। लेकिन मनी ज्यादा अच्छी थी। तुम सही कह रहे थे…”

मैं बोला-“अब तुझे तेरी चूत से निकली मनी चखाऊूँगा किसी दिन…”

वो सिर हिलाते हुई चल पड़ी और हम दोनों झोंपड़े की तरफ बढ़ने लगे। जब हम पहुँचे तो दीदी खाना बनाकर हमारा इंतिजार कर रहीं थीं। हमको देखकर बोलीं-“कहाँ मजे कर रहे थे तुम दोनों…”

कामिनी फौरन बोली-“दीदी अभी भाई ने मेरा पेशाब पिया था और मैंने उनका…”

दीदी ने चौंक कर कहा-“क्यों प्रेम… तू ने पेशाब क्यों पिया कामिनी का। किसने सिखाया तुझको…”

मैं बोला-“दीदी कामिनी की चूत से निकलता पेशाब देखकर मैंने सोचा की मनी भी तो चूत से निकलती है वो इतनी मजेदार थी तो पेशाब भी मजे दार होगा…”

दीदी बोली-“पागल आयन्दा नहीं पीना। बीमार हो जाओगे। मनी पीना बुरी बात नहीं और ना ही उसको पीकर बीमार होते हैं लेकिन पेशाब तो गंदगी है…”

मैं बोला-“लेकिन दीदी कामिनी का पेशाब तो इतने मजे का था…”

दीदी ने कामिनी की तरफ देखा और कहा-“तू ने भी पिया इसका पेशाब कामिनी…”

कामिनी ने सिर हिला दिया।

दीदी बोलीं-“अच्छा देखो कभी कभी जब बहुत ही मन करे तो पेशाब बस चख लिया करो, सिर्फ़ चखना पीना मत। ठीक है, वरना मनी ही चूसा करो एक दूसरे की…”


मैं बोला-“दीदी मैंने अभी कामिनी की मनी दो बार चूसी है और कामिनी ने मेरी एक बार…”

दीदी बोलीं-“अच्छा तो तुम दोनों वहाँ यह खेल खेल रहे थे…”

हम दोनों मुश्कुराने लगे। दीदी बोलीं-“अच्छा अब खाना खा लो, भूखे होगे तुम दोनों। मैं जरा नहाकर आ जाऊूँ नदी से, प्रेम की मनी मेरे सीने पर और मेरी चूत से निकली मनी अब खारिश कर रही है…” यह कहते हुये वो नदी की तरफ चली गई।
 
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