deeppreeti
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[font=Roboto, -apple-system, BlinkMacSystemFont,]औलाद की चाह
CHAPTER 6 - पांचवा दिन
महायज्ञ की तैयारी-
‘महायज्ञ परिधान'
Update -30
यज्ञ से सुसन्तति की प्राप्ति [/font]
CHAPTER 6 - पांचवा दिन
महायज्ञ की तैयारी-
‘महायज्ञ परिधान'
Update -30
यज्ञ से सुसन्तति की प्राप्ति [/font]
[font=Roboto, -apple-system, BlinkMacSystemFont,]यज्ञों का आश्चर्यजनक प्रभाव, जहाँ मनुष्य की आत्मा, बुद्धि एवं निरोगता पर पड़ता है वहाँ प्रजनन प्रणाली की भी शुद्धि होती है। याज्ञिकों को सुसंतति प्राप्त होती है। रज वीर्य में जो दोष होते हैं उनका निवारण होता है। साधारण और औषधियों का सेवन केवल शरीर के ऊपरी भागों तक ही प्रभाव दिखाता है पर यज्ञ द्वारा सूक्ष्म की हुई औषधियाँ याज्ञिक स्त्री पुरुषों के श्वाँस तथा रोम कूपों द्वारा शरीर के सूक्ष्म तम भागों तक पहुँच जाती हैं और उन्हें शुद्ध करती हैं। गर्भाशय एवं वीर्य कोषों की शुद्धि में यज्ञ विशेष रूप से सहायक होता है।
जिन्हें संतति नहीं होतीं, गर्भ पात हो जाते हैं, कन्या ही होती है, बालक अल्प जीवी होकर मर जाते हैं वे यज्ञ भगवान की उपासना करें तो उन्हें अभीष्ट संतान सुख मिल सकता है। कई बार कठोर प्रारब्ध संतान न होने का प्रधान कारण होता है, वैसी दशा में भी यज्ञ द्वारा उन पूर्ण संचित प्रारब्ध का शमन हो सकता है।
गर्भवती स्त्रियों को पेट से बच्चा आने से लेकर जन्म होने तक चार बार यज्ञ संस्कारित करन का विधान है ताकि उदरस्थ बालक के गुण, कर्म, स्वभाव स्वास्थ्य रंग रूप आदि उत्तम हो।
गर्भाधान, पुँसवन, सीमन्त, जातक यह चार संस्कार यज्ञ द्वारा होते हैं जिनके कारण बालक पर उतनी छाप पहुँचती है जितनी जीवन भर की शिक्षा दीक्षा में नहीं पड़ती। ऋषियों ने षोडश संस्कार पद्धति का आविष्कार इसी दृष्टि से किया था। उस प्रणाली को जब इस देश में अपनाया जाता था तब घर घर सुसंस्कृत बालक पैदा होता था। आज उस प्रणाली को परित्याग करने का ही परिणाम है कि सर्वत्र अवज्ञाकारी, कुसंस्कारी संतान उत्पन्न होकर माता पिता तथा परिवार के सब लोगों को दुख देती है।
सन्तान उत्पादन के कार्य में यज्ञ का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है। जिनके सन्तान होती है, वे अपने भावी बालकों को यज्ञ भगवान के अनुग्रह से सुसंस्कारी, स्वस्थ, बुद्धिमान, सुन्दर और कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले बना सकते हैं। जिन्हें सन्तान नहीं होती है वे उन बाधाओं को हटा सकते हैं जिनके कारण वे सन्तान सुख से वञ्चित हैं। प्राचीन काल में अनेक सन्तान हीनों को, सन्तान प्राप्त होने के उदाहरण उपलब्ध होते हैं,।
अयोध्या नरेश श्री दशरथ जी विप्रों की अनुमति से राजा ने उस यज्ञ पुरुष के हाथ से खीर लेकर प्रसन्नता से सूँघा और अपनी पत्नी को खाने के लिये दे दिया
रानी ने खीर खाकर पति के गर्भ को धारण किया और समय पूरा होने पर पुत्र उत्पन्न किया
करन्धम के पुत्र अवीक्षित, अवीक्षित के मरुत, जो चक्रवर्ती राजा मुए; जिनको, अंगिरा के पुत्र महायोगी संवर्त्त ने यज्ञ कराया था
इस मरुत के यज्ञ के समान किसी का यज्ञ प्रसिद्ध नहीं है। उनके यज्ञ में सभी पात्र स्वर्ण के थे। इनके यज्ञ में सोमपन करके सुरेन्द्र बहुत प्रसन्न हुए। अधिकतम दक्षिणा पाकर ब्राह्मण हर्षित हो रहे थे। इस महायज्ञ में मरुद्गण परोसने वाले और विश्वेदेव गण सभासद हुए थे
इक्ष्वाकु आदि पुत्रों के पहिले मनु जी निःसन्तान थे, इसलिये महर्षि वशिष्ठ जी ने उनसे मित्रावरुण का यज्ञ कराया
मनु की भार्या श्रद्धा ने, जो उस यज्ञ में पयोव्रत धारण किये हुई थीं—जो विधिपूर्वक केवल दूध पीकर ही यज्ञ संलग्न थीं, वह होताओं के निकट गयी और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना की कि आप ऐसा होम करें, जिससे मुझे कन्या उत्पन्न हो
मनु ने भगवान वासुदेव का यज्ञ, सन्तान की कामना से किया। इस यज्ञ को करने से उन्हें दश पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिनमें इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे।
राजा दिलीप को सन्तान नहीं होती थी। सन्तान के हेतु वे पत्नी सहित (महर्षि) वशिष्ठ गुरु के आश्रम में रहे। वहाँ वे गुरु की गायें चराते थे और आश्रम के यज्ञीय वातावरण में रह कर निरन्तर औषधि सेवन करते रहते−वैसा यज्ञ धूम्र शरीर में प्रवेश करने के स्वर्णिम अवसर प्राप्त करते थे। इस साधना से दिलीप को बड़ा ही प्रतापी पुत्र प्राप्त हुआ।
पुत्र जन्म के विफल हो जाने से भरत ने पुत्र की कामना से मरुत्सोम नामक यज्ञ किया। उन यज्ञ के अन्त में मरुद्गण ने उन्हें भरद्वाज नामक पुत्र दिया, जिसकी उत्पत्ति बृहस्पति के वीर्य और ममता के गर्भ से हुआ था।
कहानी जारी रहेगी
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