hotaks444
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सपनो की दुनिया में खोया हुआ था मैं गहरी नींद में चूर आज पूरा दिन हाड़तोड़ मेहनत जो की थी पर शायद आज किस्मत में चैन से सोना लिखा ही नहीं था चीखने चिल्लाने से मेरी आँख खुल गयी तो देखा की 5-7 मावली लोग एक आदमी को पकडे हुए थे छीना छपटी हो रही थी
इस सहर का ये अब रोज का ही काम हो चला था आये दिन कुछ ना कुछ अपराध होता रहता था वैसे मैं इन पचड़ों में पड़ता नहीं था पर मुझे लगा की इस आदमी की मदद करनी चाहिए मैंने अपना लट्ठ उठाया और पिल पड़ा उन लोगो पे थोड़ी चोट भी लगी पर आखिर उन लोगो को भगा ही दिया
आप ठीक तो हो ना मैंने पूछा
वो- शुक्रिया बेटे,आज तुम ना होते तो पता नहीं क्या होता
मैं- शहर का तो मालूम ही हैं आपको इतनी रात को क्या घूमना
वो- तुमने मुझे पहचाना नहीं, मैं जगतार सिंह हु, काके दी हटी होटल का मालिक
मैं-ओह तो आप उस मसहूर होटल के मालिक है
वो- तुमने मेरी जान बचाई , लो ये रख लो उसने अपनी गाडी से एक रुपयो की थैली ली और मेरे हाथ में रख दी
मैं- सेठ मैं गरीब हु पर खुदार हु मैं मेहनत की कमाई खाता हु, तुम्हारी जान इसलिए नहीं बचाई की तुम सेठ हो, रख लो अपने इन पैसो को काम आएंगे
ये कहकर मैं वापिस सोने के लिए फुटपाथ की और चला ही था की तभी सेठ ने मुझे टोका- अरे भाई रुको तो सही तुमने तो मुझे गलत समझ लिया , क्या तुम मेरे होटल में काम करोगे
मैं- सेठ इज्जत की कमाई रोटी मिलेगी तो कही भी काम करूँगा
सेठ- ठीक है ,कल दस बजे होटल आ जाना
सेठ कबका जा चूका था पर मेरी नींद उड़ गयी थी कितने दिनों से लंबे काम की कोशिश कर रहा था और आज खुद आगे से काम मिल रहा था अगले दिन ठीक दस बजे मैं होटल पहुच गया
सेठ ने मुझे बताया की क्या काम करना है और कितनी तनख्वाह देगा मुझे तो काम की जरुरत थी ही सो हाँ करदी और कल से काम पे आने का नक्की किया मैं चल ही रहा था की सेठ ने बोला- अरे तेरा नाम तो बता जा
मैं-दिलवाला
सेठ-ये कैसा नाम हुआ
मैं-बस ऐसा ही है लोग ऐसे ही पुकारते है
सेठ हस्ते हुए-हां भाई तू है भी तो दिलवाला
अगले दिन से अपनी नयी ज़िंदगी शुरू हो गयी थी दिनभर मैं खूब मेहनत करता टेबले साफ़ करता लोगो को खाना परोसता बस अपने आप को खुश रखने की कोशिश करता मालिक भी मेरे काम से खुश रहता था और धीरे धीरे से उसका मुझ पर विश्वाश भी होने लगा था
ज़िंदगी बस गुजर रही थी कभी कभी तन्हाई आकर घेर लिया करती थी पर ये दिलवाला अपनी झूटी मुस्कान की चादर ओढ़ लिया करता था मुझे होटल में काम करते हुए करीब6 महीने हो चुके थे रोज की ही तरह मैं अपना काम कर रहा था की सेठ ने मुझे बुलाया
मैं-जी मालिक
सेठ-भाई दिलवाले, एक बात बता तूने पिछले 5 महीने से तनख्वाह नहीं ली है कैसे गुजारा होता है
मैं- जी, पैसो का क्या है कही भागे थोड़ी ना जा रहे है और फिर मेरी जरूरत है भी कितनी दो जोड़ी कपडे और दो टाइम का खाना वो इधर मिल ही जाता है और क्या चाहिए अपने को
सेठ- यार तुम भी क्या आदमी हो खैर मैंने तुम्हारा बैंक में खाता खुलवा दिया है तुम जब चाहे अपने पैसे निकलवा सकते हो
मैं-जैसा आपको ठीक लगे सेठ जी
उस दिन मुझे कुछ काम था तो मैं जल्दी चला गया था अपना काम खत्म करके मैं बाजार की तरफ से जा रहा था तो कुछ लोग रेहड़ी वालो से मारपीट कर रहे थे काफी भीड़ जमा थी पर उनकी कोई मदद नहीं कर रहा था और मैं भी एक तमाशबीन बनके रह गया खून तो बहुत ख़ौल रहा था पर इस शहर में ये रोज का ही नजारा था
अपने दिल को दुखी करने का क्या फायदा था मैं साइड से निकल ही रहा था की वो लोग एक छोटी बच्ची को मारने लगी अचानक ही मेरे कदम रुक गये, आँखे जैसे जलने लगी
मैंने उस बच्ची को छुड़ाया- भाई इस बच्ची को क्यों मारते हो
तो उनमे से एक ने मेरा कॉलर पकड़ लिया और गली बकते हुए बोला- तो तू पिट ले इसकी जगह
मैं- भाई आप बड़े लोग हो इन गरीब रेहड़ी वालो को मत सताओ
तो उसने मुझे थप्पड़ मार दिया मैंने फिर भी खुद को काबू कर लिया पर उसने फिर से उस बच्ची को थप्पड़ मार दिया तो मेरा सब्र टूट गया मैंने एक लात दी खीच के उसको तो वो सामने रेहड़ी से टकरा गया
और उसके साथी मुझे ऐसे देखने लगे जैसे की उन्होंने आंठवा अजूबा देख लिया हो एक गुंडा जिसने जालीदार बनियान पहनी थी वो बोला-साले तू जानता नहीं किसके आदमी पे हाथ उठाया हैं
मैं-जानके मारा तो क्या मारा बे, तू होगा किसी का आदमी पर अबसे इस जगह पे अगर किसी को इतनी सी तकलीफ भी तुम्हारी वजह से हुई तो तुम्हारी हड्डिया इस चोराहे पे लटकती मिलेंगी
वो लोग अब तैयार थे हॉकी चेन चाकू लेके पर वो नही जानते थे की ज़िन्दगी की आंच में तापा वो लोहा हु मैं जिसमे अब जंग नहीं लग सकता था क्रोध से तपते हुए मैं जो शुरू हुआ फिर कुछ नही सोचा क्या अंजाम होगा क्या आगे होगा
बस जब मैं रुका तो वो लोग जमीं पर पड़े थे लहू लुहान किसी का हाथ टूटा हुआ था तो किसी का सर फटा था तो कोई बेहोश पड़ा था
एक बूढ़ा मेरे पास आया और बोला-बेटा तुमने किन से पंगा ले लिया ये लोग बहुत खतरनाक है पुरे शहर पर इनका राज़ है ये गाज़ी खान के आदमी थे तुम कही भाग जाओ
मैं- बाबा आप लोग फिकर मत करो और यहाँ मुझे कौन जानता है और आप किसे बताने वाले हो मैंने मुस्कुराते हुए कहा
मैं अपने कमरे में आया और सोने की कोशिश करने लगा पर नींद नहीं आ रही थी ये नींद भी बरसो से अपनी दुश्मन हुई पड़ी थी आज फिर से घर की याद आने लगी थी उस घर की उन गलियो की जहा मैं जवान हुआ था जहा एक दुनिया को छोड़ आया था मैं
एक दिन दोपहर को होटल लगभग खाली ही था की सेठ ने मुझे कहा दिलवाले आज शाम तुम्हे मेरे साथ मेरे घर चलना है और हाँ बाजार से जाके एक जोड़ी नए कपडे ले आओ आज तुम मेहमान हो मेरे, आज मेरे बेटे बहु की शादी की सालगिरह है
आज पहली बार था जब मैं सेठ के घर जाने वाला था करीब 7 बजे हम लोग उनके घर पहुचे घर क्या था बंगला ही कहना चाहिए इतने बड़े लोगो के बीच मैं खुद को थोडा सा फील करने लगा था पर अब औकात ही अपनी थी इतनी तो क्या करे खैर, मैं सेठ के साथ अंदर गया मेहमान खूब आये हुए थे
सेठ उनमे मसगूल हो गया मैं भी बड़े लोगो की रौनकें देखने लगा घर खूब सजा हुआ था मैं भी एक कुर्सी पर बैठ गया और फिर कुछ ऐसा हुआ की मेरी आँखों पर मुझे यकीन ही नहीं हुआ ये नहीं हो सकता तक़दीर यु मुझे इस मोड़ पर ऐसे उसके दीदार करवाएगी
काली साडी में क्या खूब लग रही थी वो कितना समय बीत गया पर वो आज भी ऐसे ही लगती थी जौसे की कल ही की बात हो इठलाती हुई वो सीढ़ियों से उतरते हुए निचे आ रही थी ऐसा लग रहा था जैसे बरसो बाद दिल धड़का हो आज पता चला की तक़दीर के खेल भी निराले होते है
इस सहर का ये अब रोज का ही काम हो चला था आये दिन कुछ ना कुछ अपराध होता रहता था वैसे मैं इन पचड़ों में पड़ता नहीं था पर मुझे लगा की इस आदमी की मदद करनी चाहिए मैंने अपना लट्ठ उठाया और पिल पड़ा उन लोगो पे थोड़ी चोट भी लगी पर आखिर उन लोगो को भगा ही दिया
आप ठीक तो हो ना मैंने पूछा
वो- शुक्रिया बेटे,आज तुम ना होते तो पता नहीं क्या होता
मैं- शहर का तो मालूम ही हैं आपको इतनी रात को क्या घूमना
वो- तुमने मुझे पहचाना नहीं, मैं जगतार सिंह हु, काके दी हटी होटल का मालिक
मैं-ओह तो आप उस मसहूर होटल के मालिक है
वो- तुमने मेरी जान बचाई , लो ये रख लो उसने अपनी गाडी से एक रुपयो की थैली ली और मेरे हाथ में रख दी
मैं- सेठ मैं गरीब हु पर खुदार हु मैं मेहनत की कमाई खाता हु, तुम्हारी जान इसलिए नहीं बचाई की तुम सेठ हो, रख लो अपने इन पैसो को काम आएंगे
ये कहकर मैं वापिस सोने के लिए फुटपाथ की और चला ही था की तभी सेठ ने मुझे टोका- अरे भाई रुको तो सही तुमने तो मुझे गलत समझ लिया , क्या तुम मेरे होटल में काम करोगे
मैं- सेठ इज्जत की कमाई रोटी मिलेगी तो कही भी काम करूँगा
सेठ- ठीक है ,कल दस बजे होटल आ जाना
सेठ कबका जा चूका था पर मेरी नींद उड़ गयी थी कितने दिनों से लंबे काम की कोशिश कर रहा था और आज खुद आगे से काम मिल रहा था अगले दिन ठीक दस बजे मैं होटल पहुच गया
सेठ ने मुझे बताया की क्या काम करना है और कितनी तनख्वाह देगा मुझे तो काम की जरुरत थी ही सो हाँ करदी और कल से काम पे आने का नक्की किया मैं चल ही रहा था की सेठ ने बोला- अरे तेरा नाम तो बता जा
मैं-दिलवाला
सेठ-ये कैसा नाम हुआ
मैं-बस ऐसा ही है लोग ऐसे ही पुकारते है
सेठ हस्ते हुए-हां भाई तू है भी तो दिलवाला
अगले दिन से अपनी नयी ज़िंदगी शुरू हो गयी थी दिनभर मैं खूब मेहनत करता टेबले साफ़ करता लोगो को खाना परोसता बस अपने आप को खुश रखने की कोशिश करता मालिक भी मेरे काम से खुश रहता था और धीरे धीरे से उसका मुझ पर विश्वाश भी होने लगा था
ज़िंदगी बस गुजर रही थी कभी कभी तन्हाई आकर घेर लिया करती थी पर ये दिलवाला अपनी झूटी मुस्कान की चादर ओढ़ लिया करता था मुझे होटल में काम करते हुए करीब6 महीने हो चुके थे रोज की ही तरह मैं अपना काम कर रहा था की सेठ ने मुझे बुलाया
मैं-जी मालिक
सेठ-भाई दिलवाले, एक बात बता तूने पिछले 5 महीने से तनख्वाह नहीं ली है कैसे गुजारा होता है
मैं- जी, पैसो का क्या है कही भागे थोड़ी ना जा रहे है और फिर मेरी जरूरत है भी कितनी दो जोड़ी कपडे और दो टाइम का खाना वो इधर मिल ही जाता है और क्या चाहिए अपने को
सेठ- यार तुम भी क्या आदमी हो खैर मैंने तुम्हारा बैंक में खाता खुलवा दिया है तुम जब चाहे अपने पैसे निकलवा सकते हो
मैं-जैसा आपको ठीक लगे सेठ जी
उस दिन मुझे कुछ काम था तो मैं जल्दी चला गया था अपना काम खत्म करके मैं बाजार की तरफ से जा रहा था तो कुछ लोग रेहड़ी वालो से मारपीट कर रहे थे काफी भीड़ जमा थी पर उनकी कोई मदद नहीं कर रहा था और मैं भी एक तमाशबीन बनके रह गया खून तो बहुत ख़ौल रहा था पर इस शहर में ये रोज का ही नजारा था
अपने दिल को दुखी करने का क्या फायदा था मैं साइड से निकल ही रहा था की वो लोग एक छोटी बच्ची को मारने लगी अचानक ही मेरे कदम रुक गये, आँखे जैसे जलने लगी
मैंने उस बच्ची को छुड़ाया- भाई इस बच्ची को क्यों मारते हो
तो उनमे से एक ने मेरा कॉलर पकड़ लिया और गली बकते हुए बोला- तो तू पिट ले इसकी जगह
मैं- भाई आप बड़े लोग हो इन गरीब रेहड़ी वालो को मत सताओ
तो उसने मुझे थप्पड़ मार दिया मैंने फिर भी खुद को काबू कर लिया पर उसने फिर से उस बच्ची को थप्पड़ मार दिया तो मेरा सब्र टूट गया मैंने एक लात दी खीच के उसको तो वो सामने रेहड़ी से टकरा गया
और उसके साथी मुझे ऐसे देखने लगे जैसे की उन्होंने आंठवा अजूबा देख लिया हो एक गुंडा जिसने जालीदार बनियान पहनी थी वो बोला-साले तू जानता नहीं किसके आदमी पे हाथ उठाया हैं
मैं-जानके मारा तो क्या मारा बे, तू होगा किसी का आदमी पर अबसे इस जगह पे अगर किसी को इतनी सी तकलीफ भी तुम्हारी वजह से हुई तो तुम्हारी हड्डिया इस चोराहे पे लटकती मिलेंगी
वो लोग अब तैयार थे हॉकी चेन चाकू लेके पर वो नही जानते थे की ज़िन्दगी की आंच में तापा वो लोहा हु मैं जिसमे अब जंग नहीं लग सकता था क्रोध से तपते हुए मैं जो शुरू हुआ फिर कुछ नही सोचा क्या अंजाम होगा क्या आगे होगा
बस जब मैं रुका तो वो लोग जमीं पर पड़े थे लहू लुहान किसी का हाथ टूटा हुआ था तो किसी का सर फटा था तो कोई बेहोश पड़ा था
एक बूढ़ा मेरे पास आया और बोला-बेटा तुमने किन से पंगा ले लिया ये लोग बहुत खतरनाक है पुरे शहर पर इनका राज़ है ये गाज़ी खान के आदमी थे तुम कही भाग जाओ
मैं- बाबा आप लोग फिकर मत करो और यहाँ मुझे कौन जानता है और आप किसे बताने वाले हो मैंने मुस्कुराते हुए कहा
मैं अपने कमरे में आया और सोने की कोशिश करने लगा पर नींद नहीं आ रही थी ये नींद भी बरसो से अपनी दुश्मन हुई पड़ी थी आज फिर से घर की याद आने लगी थी उस घर की उन गलियो की जहा मैं जवान हुआ था जहा एक दुनिया को छोड़ आया था मैं
एक दिन दोपहर को होटल लगभग खाली ही था की सेठ ने मुझे कहा दिलवाले आज शाम तुम्हे मेरे साथ मेरे घर चलना है और हाँ बाजार से जाके एक जोड़ी नए कपडे ले आओ आज तुम मेहमान हो मेरे, आज मेरे बेटे बहु की शादी की सालगिरह है
आज पहली बार था जब मैं सेठ के घर जाने वाला था करीब 7 बजे हम लोग उनके घर पहुचे घर क्या था बंगला ही कहना चाहिए इतने बड़े लोगो के बीच मैं खुद को थोडा सा फील करने लगा था पर अब औकात ही अपनी थी इतनी तो क्या करे खैर, मैं सेठ के साथ अंदर गया मेहमान खूब आये हुए थे
सेठ उनमे मसगूल हो गया मैं भी बड़े लोगो की रौनकें देखने लगा घर खूब सजा हुआ था मैं भी एक कुर्सी पर बैठ गया और फिर कुछ ऐसा हुआ की मेरी आँखों पर मुझे यकीन ही नहीं हुआ ये नहीं हो सकता तक़दीर यु मुझे इस मोड़ पर ऐसे उसके दीदार करवाएगी
काली साडी में क्या खूब लग रही थी वो कितना समय बीत गया पर वो आज भी ऐसे ही लगती थी जौसे की कल ही की बात हो इठलाती हुई वो सीढ़ियों से उतरते हुए निचे आ रही थी ऐसा लग रहा था जैसे बरसो बाद दिल धड़का हो आज पता चला की तक़दीर के खेल भी निराले होते है