Raj Sharma Stories जलती चट्टान - Page 2 - SexBaba
  • From this section you can read all the hindi sex stories in hindi font. These are collected from the various sources which make your cock rock hard in the night. All are having the collections of like maa beta, devar bhabhi, indian aunty, college girl. All these are the amazing chudai stories for you guys in these forum.

    If You are unable to access the site then try to access the site via VPN Try these are vpn App Click Here

Raj Sharma Stories जलती चट्टान

राजन उसे यूँ हँसते देख बोला-‘इसमें हँसने की क्या बात है? आखिर पूजा तो प्रतिदिन होती है।’

‘पूजा! वह तो मैं रोज करती हूँ, परंतु मेरा देवता तो मंदिरों को छोड़ अपनी भेंट मेरे घर पर स्वयं ग्रहण करने आते हैं। हाँ! कभी भूले से मैं घर पर न होऊँ और वह निराश लौट जाएँ तो मुझे यहाँ तक आना पड़ता है। समझे!’

राजन मौन खड़ा रहा। उसके कहे हुए शब्दों पर विचार कर रहा था। वह उन शब्दों का अर्थ भली प्रकार समझ भी न पाया था कि वह चल दी। राजन उसे रोकते हुए बोला-
‘क्या तुम्हारा नाम पूछ सकता हूँ?’

‘पार्वती।’

‘और मैं राजन।’

इतने में बादल की एक गरज सुनाई दी। पार्वती ने एक बार आकाश की ओर देखा और फिर राजन की ओर देखकर बोली-
‘तो क्या तुम सारी रात इन्हीं सीढ़ियों पर लेटे ही बिता देते हो?’

‘जी।’

‘तुम्हारा कोई घर नहीं है?’

‘नहीं।’

‘तुम्हें जाड़ा नहीं लगता?’ आर्द्रकण्ठ से उसने पूछा।

‘जाड़ा? यह सामने पहाड़ों की चट्टानें देखती हो? यह भी युग-युगों से बाहर खुली हवा में खड़ी प्रकृति का सामना कर रही हैं। मनुष्य तो क्या कभी भगवान को भी इन पर दया नहीं आती।’

‘परंतु आप यह क्यों भूल जाते हैं कि वह शिलाएँ हैं, जो पत्थर की बनी हैं और दूसरी ओर माँस-मज्जा से बना हुआ मनुष्य है।’

‘मैं भी तो शिला से कम नहीं हूँ।’

‘केवल शरीर को ही शिला बना लेने से काम नहीं चलता। हृदय भी शिला के समान होना चाहिए।’

यह कहती-कहती पार्वती चली गई। वह बहुत समय तक बैठा हुआ सोचता रहा, ‘ठीक तो कहती है, यदि हृदय शिला के समान न हो तो शरीर शिला बनाने से क्या लाभ?’

बिजली चमकी। कई बार बादलों की गड़गड़ाहट सुनी। राजन ने देखा चारों ओर काली घटा घिरती आ रही थी। दूर-दूर तक कुछ दिखाई न देता था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। घरों के झरोखों के अंदर जलते हुए दीयों का प्रकाश यह सूचना दे रहा था कि ‘सीतलवादी’ के लोग अभी सोए नहीं।

राजन ने सोचा कि आज की रात कुंदन के घर पर ही बिताई जाए। वायु की गति तीव्र होती जा रही थी। वह शीघ्रता से ‘वादी’ की ओर लपका। बादलों की गूँज पहाड़ियों से टकराकर गूँज उठती थी। नदी का जल वायु के थपेड़ों से उछल-उछलकर खिलवाड़ कर रहा था। राजन ने गाँव की ओर देखा। तूफान के डर से सब झरोखे बंद हो चुके थे।
 
सीतलवादी में अंधेरा छा चुका था। उसी समय छींटे पड़ने लगे थे। मंदिर के द्वार अब तक खुले ही थे, शायद मंदिर के देवताओं को इस तूफान का कोई भय न था। वह शीघ्रता से लौटा और मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, परंतु अभी ऊपर पहुँचा भी न था कि पुजारी ने द्वार बंद कर लिए।

राजन ने आवाज लगाई, पर इस कोलाहल में वह उसके कानों तक ही रह गई। राजन मंदिर के बंद द्वार के साथ चिपककर खड़ा हो गया। मंदिर की घंटियाँ स्वयं ही बज रही थीं। वर्षा के छींटे वायु की तेजी से उछलकर मंदिर की सीढ़ियों और बरामदे के बड़े पत्थरों को स्नान करा रहे थे, ताकि भगवान के घर के किसी कोने में धूल न रह जाए। ‘राजन, राजन’ कोई उसे पुकार रहा था। वह यह सोचकर आश्चर्य में पड़ गया कि इस तूफान में उसे खोजने वाला कौन है? कुंदन के सिवाय उसे जानता ही कौन था। राजन...।

उसका यहाँ क्या काम? एक बार फिर ‘राजन-राजन’ की पुकार सुनाई दी। तुरंत ही उसने किसी छाया को सीढ़ियों से ऊपर आते देखा। राजन भागता हुआ उसके पास पहुँचा और चिल्लाया-
‘कौन हो तुम?’

‘क्या तुम ही राजन हो?’

बिजली की चमक में राजन ने देखा कि पूछने वाला एक अजनबी है, जिसे उसने आज से पहले कभी नहीं देखा था। वर्षा से बचाव के लिए उसके सिर पर एक सन की थैली रखी थी। पहले तो राजन घबरा-सा गया, परंतु फिर संभलते हुए बोला-
‘हाँ, मैं ही राजन हूँ।’

‘तो चलिए हमारे साथ।’

‘कहाँ?’

‘ठाकुर बाबा बुला रहे हैं।’ और ‘सन’ की एक थैली राजन को पकड़ा दी। राजन थैली सिर पर डालकर चुपचाप उसके साथ हो लिया। सारे रास्ते वह यही सोच रहा था कि ठाकुर बाबा हैं कौन?

पहले तो राजन को घबराहट हुई, परंतु जब वह अजनबी गाँव में पहुँचा तो राजन को कुछ धीरज हुआ। थोड़ी देर में वे दोनों एक पत्थर के बड़े मकान के सामने आकर रुक गए। अजनबी से संकेत पाकर, उसने आँगन में प्रवेश किया। सामने एक सफेद दाढ़ी वाला पुरुष उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। राजन ने झुककर प्रणाम किया। उसने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘क्या तुम्हीं राजन हो?’

‘जी, परंतु।’

‘चिंता की कोई बात नहीं, मैं हूँ ठाकुर बाबा। ‘सीतलवादी’ का बच्चा-बच्चा मुझे जानता है। क्या कोई परदेसी हो?’

‘यहाँ कंपनी में नौकर हूँ।’

‘तो इस प्रकार तूफान में।’

‘अभी रहने का प्रबंध नहीं है।’

‘सराय जो है। बहुत कम दाम पर।’

‘परंतु मैं एकांत प्रिय हूँ। भीड़ में मेरी साँस घुटने लगती है।’

‘अच्छा तुम विश्राम करो। कपड़े भीग रहे हैं। रामू।’

उन्होंने आवाज दी और पहले मनुष्य ने अंदर प्रवेश किया।

‘देखो! एक धोती-कुर्ता इन्हें दे दो, पिछवाड़े का कमरा भी।’
 
राजन ठाकुर बाबा का संकेत पाते ही रामू के साथ हो लिया। दोनों एक छोटे से कमरे में पहुँचे, जो न जाने कब से बंद पड़ा था। हर ओर धूल जमी पड़ी थी। रामू धोती-कुर्ता भी ले आया और किवाड़ बंद कर वापस लौट गया। राजन ने रामू से अधिक पूछताछ करना ठीक न समझा। परंतु फिर भी यह सोचकर असमंजस में पड़ा हुआ था कि ठाकुर बाबा ने उसे यहाँ क्यों बुलाया है? वह उसका कौन है? यदि परदेसी ही समझ कर अतिथि रखा है तो उन्होंने उसे पहले देखा कहाँ? खैर फिर भी इस भयानक रात में आसरा देने वाले का भला हो।

उसने भीगे वस्त्र उतार सामने फैला दिए और स्वयं धोती-कुर्ता पहन पास बिछी खाट पर लेट गया। राजन की आँखों में भरी नींद उड़ चुकी थी-वह शीत के मारे काँप रहा था।

अचानक किवाड़ धीरे से खुला और किसी के अंदर आने की आहट हुई-राजन चौंक उठा। सामने उसने देखा-हाथों में प्याला लिए पार्वती खड़ी मुस्करा रही थी-वह भौंचक्का-सा रह गया-उसके दाँत जोर-जोर से बजने लगे।

राजन को यूँ घबराहट में देख पार्वती बोली-
‘डरो नहीं, यह चाय है-देखो शीत के मारे तुम्हारे दाँत बज रहे हैं।’

‘परंतु तुम-यह ठाकुर बाबा-यह चाय?’

‘भगवान का तो नहीं, परंतु एक प्राणी का दूसरे प्राणी के लिए मन पसीज ही उठा।’

‘अच्छा, तो वह प्राणी तुम हो?’

‘जी।’

‘और यह ठाकुर बाबा।’

‘मेरे दादा हैं। जब मैंने तुम्हारे बारे में इन्हें कहा तो इन्होंने तुरंत रामू को तुम्हें बुलाने भेज दिया।’

‘ओह! तो बात यूँ है, परंतु तुम।’

‘एक चट्टान पर दया जो आ गई-लो चाय पी लो, ठण्ड दूर हो जाएगी।’

राजन ने काँपते हाथों से चाय का प्याला पार्वती के हाथ से ले लिया और बोला-‘क्या मुझे देवता समझकर भेंट दी जा रही है?’

‘देवता नहीं, मनुष्य समझकर-देवताओं पर तो फूल चढ़ाए जाते हैं।’

‘तो क्या मनुष्य उन फूलों के योग्य नहीं?’

‘नहीं, उसे दी जाती है केवल चाय’ कहती पार्वती द्वार की ओर बढ़ी।

‘पार्वती!’ राजन ने पुकारा।

‘अब विश्राम कर लो’ और किवाड़ बंद करके चली गई।

थोड़ी देर तो राजन सोचता रहा, फिर उसे लगा जैसे अंदर-ही-अंदर कुछ भर उठा, जैसे उसके स्वप्न साकार हो उठे हैं। उसने आज वह पाया है, जिसकी कभी उसने कल्पना भी न की थी।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
दो
कंपनी के दफ्तर के सामने मजदूरों की एक लंबी लाइन लगी हुई थी। लाइन में खड़े मजदूर अति प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे, कारण आज वेतन मिलने का दिन था। आज सबके घर अच्छे-से-अच्छा भोजन बनेगा। घर वाले भी इनकी राह देख रहे होंगे, क्योंकि आज उनके जीवन की आवश्यकताओं के पूरी होने का दिन था। चाँदी के चंद सिक्के, जैसे मजदूर का जीवन बस इन्हीं में दबा पड़ा है।

राजन सबकी मुखाकृतियों को देख रहा था-सामने से कुंदन आता दिखाई पड़ा। वह भी आज बहुत प्रसन्न था। निकट आते ही बोला, ‘क्यों राजन? तुम्हें भी कुछ मिला।’

‘नहीं तो।’

‘क्यों तुम्हें आवश्यकता नहीं?’

‘आवश्यकता? इसकी आवश्यकता ही तो एक निर्धन का जीवन है।’

‘तो फिर जाओ अपना हिसाब कर आओ।’

‘हिसाब अभी से? आज मुझे यहाँ आए केवल पंद्रह दिन ही हुए हैं।’

‘तो क्या हुआ? यहाँ वेतन हर पंद्रह दिन के बाद मिलता है, यह रईसों की कोठी नहीं, मजदूरों की बस्ती है।’

‘सच?’ यह कहता हुआ राजन खिड़की की ओर बढ़ा और अपना कार्ड जेब से निकाल खजांची के सामने जाकर रख दिया-थोड़ी देर में दस-दस के पाँच नोट लिए कुंदन के पास लौट आया।

‘आज बहुत प्रसन्न हो।’

‘क्यों नहीं होंगे? आज पगार मिली है।’

‘कलकत्ता भेजेंगे क्या?’

‘नहीं, अभी तो होटल का बिल चुकाना है।’

‘और क्या?’

‘कलकत्ता से एक चीज मंगवानी है।’

‘हम भी तो सुनें।’

‘आने पर बताऊँगा।’

‘तुम जानो तुम्हारा काम, परंतु एक बात का ध्यान रखना-मँगवाना वही, जिसकी आवश्यकता हो-जमाना जरा नाजुक है।’

‘अच्छा कुंदन तुम चलो, मैं जरा कैंटीन हो आऊँ।’

राजन कुंदन से विदा होते ही कंपनी की कैंटीन में गया और एक चॉकलेट ले ठाकुर बाबा के घर की ओर हो लिया। आज उसे ठाकुर के घर रहते सात दिन बीत चुके थे। कई बार राजन ने वहाँ से जाने को कहा, पर ठाकुर बाबा साफ इंकार कर देते और कहते-‘जब तक तुम्हें कंपनी का क्वार्टर नहीं मिलता, हम तुम्हें पत्थरों की ठोकरें नहीं खाने देंगे।’ राजन को विश्वास था कि इसमें अवश्य पार्वती का हाथ है। उसका आकर्षण ही उसे उनका बोझ बनने के लिए विवश कर रहा था।
 
पार्वती के सिवाय बाबा के इस संसार में कोई न था। पार्वती के पिता इस कंपनी के मैनेजर रह चुके थे। एक दिन खानों की छानबीन करते समय एक चट्टान के फट जाने से उनकी मृत्यु हो गई, तब से वह बाबा के संग अकेली रह रही थी। कंपनी ने इन्हें रहने का स्थान व जीवन-भर की ‘गारंटी’ दे रखी थी। बाबा पार्वती की हर बात मान लेते थे, परंतु वह अपने नियम के बड़े पक्के थे-उन्होंने जमाना देखा था। अतः राजन और पार्वती सदा उन्हीं की हाँ-में-हाँ मिलाते। अधिकतर उनका समय पूजा-पाठ में ही बीतता था। जीवन की यही भेंट वह पार्वती को भी देना चाहते थे। जब तक वह पूजा न करे, बाबा उसे खाने को न देते, परंतु वह यह सब कुछ बड़ी प्रसन्नता से करती थी। इसलिए दोनों के जीवन की घड़ियाँ बड़ी खुशी से बीत रही थीं।

दूसरी ओर राजन के नियम कुछ और ही थे। पूजा-पाठ से तो वह कोसों दूर भागता, परंतु भगवान से विमुख न था। वह भगवान को घूस देने का आदी नहीं था, बल्कि उसके लिए दिए हुए जीवन को काम में लाना चाहता था। उसे विश्वास था कि भगवान ने उसे इस संसार में कोई बड़ा कार्य करने को भेजा है। उसको पूर्ण करना ही उसकी सच्ची पूजा है। उसे मंदिरों में घंटे बजाकर या चढ़ावा चढ़ाकर प्रसन्न नहीं किया जा सकता। कलकत्ता में उसने कई सेवा के कार्य करने का प्रयत्न किया, परंतु दरिद्रता सदा ही उसके बीच बाधा बनकर आ खड़ी हुई।

राजन इन्हीं विचारों में डूबा घर पहुँच गया, परंतु पार्वती वहाँ न थी। राजन ने जाते ही बाबा के पाँव छुए और अपना पहला वेतन उनके चरणों में रख दिया-बाबा ने सवा रुपया भगवान के प्रसाद का रखकर बाकी लौटा दिए तथा आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘भगवान की कृपा-दृष्टि सदा तुम्हारे पर बनी रहे बेटा, मैं यही कहता हूँ।’

‘पार्वती कहाँ है बाबा?’

‘मंदिर गई होगी।’

राजन यह सुनते ही ड्यौढ़ी की ओर बढ़ा।

‘क्यों कहाँ चले?’

‘होटल, भोजन के लिए।’

यह कहता हुआ राजन बाहर की ओर हो लिया, परंतु उसे आज भूख कहाँ? वह तो पार्वती से मिलने को बेचैन था। वहाँ से सीधा मंदिर पहुँचा और सीढ़ियों के पीछे खड़ा पार्वती की प्रतीक्षा करने लगा। जब सीढ़ियाँ उतर पार्वती राजन के समीप से गुजरी तो राजन ने उसे पकड़ते हुए अपनी ओर खींचा। पार्वती भय के मारे चीख उठी, परंतु राजन ने शीघ्रता से उसके मुँह के आगे हाथ रख दिया और बोला-‘मैं राजन हूँ।’

‘ओह! मैं तो डर गई थी। अभी चीख सुन दो-चार मनुष्य इकट्ठे हो जाते तो।’

‘तो क्या होता? कह देते कि आपस में खेल रहे थे।’

‘काश! यह सत्य होता।’

‘मैं समझा नहीं।’

‘यही कि आपस में खेल सकते।’

‘तो अब क्या हुआ है?’
 
‘होना क्या है, बचपन कहाँ से लाएँ?’

‘बचपन? तो क्या यौवनावस्था खेलने की नहीं।’

‘तो यौवन में भी खेला जाता है?’

‘क्यों नहीं, परंतु दोनों में भेद है।’

‘कैसा भेद?’

‘यही कि बचपन में मनुष्य अपने हाथों मिट्टी के घर बनाता है और खेलने के पश्चात् अपनी ठोकर से उसे तोड़-फोड़ देता है परंतु युवावस्था के खेलों में मिट्टी के एक-एक कण को बचाने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा देनी होती है। यदि फिर भी वह टूट जाए तो उसकी आँखों की नींद मिट जाती है। बिस्तर पर पड़ा छटपटाता रहता है। जीवन की वह निराशा आँखों की राह आँसू बनकर बह निकलती है।’

‘यह तो कवियों की बात है। यौवन का एक-एक पल अमूल्य होता है। इसे खेल-कूद में खो दिया तो आयु-भर पछताना पड़ेगा। बाबा कहते हैं-बचपन खेल-कूद और यौवन पूजा-पाठ में बिताना चाहिए।’

‘और बुढ़ापा खाट पर।’ राजन ने पार्वती की बात पूरी करते हुए कहा। इस पर दोनों हँस पडे़। राजन फिर बोला-
‘परंतु मैं तुम्हारे बाबा की बातों में विश्वास नहीं करता।’

‘कल के बच्चे हो! तुम भला बाबा की बातें क्या समझो।’

‘तुम तो समझती हो?’

‘क्यों नहीं, तुमसे अधिक। यह सब बाबा ने ही तो सिखाया है-समय पर उठना, समय पर सोना, पूजा-पाठ, घर का काम-काज...।’

‘और कभी-कभी मुझसे बातें करना।’

‘हाँ, परंतु वह तो बाबा ने नहीं सिखाया।’

‘स्वयं ही सीख गईं न। इसी प्रकार बढ़ती यौवनावस्था में कई ऐसी बातें हैं, जो कोई नहीं सिखाता, बल्कि मनुष्य स्वयं ही सीख जाता है।’

‘तो क्या मुझे और भी कुछ सीखना है?’

‘बहुत कुछ।’

‘परंतु मुझे और कुछ नहीं सीखना।’

‘वह क्यों?’

‘इसलिए कि बाबा ने कहा है कि अंधकार के पश्चात् कुछ सीखना नहीं चाहिए, बल्कि घर पहुँचना चाहिए।’

‘ओह! बातों में भूल ही गया।’

और दोनों घर की ओर चल पड़े।
 
रास्ते में राजन बोला-
‘पार्वती! जानती हो आज कंपनी से मैंने पहला वेतन पाया है।’

‘मुँह अब खुला।’

‘अवसर ही कब मिला, खेल-कूद की बात जो आरंभ हो गई थी।’

‘तो क्या वह इससे अधिक आवश्यक थी। वहाँ कह दिया होता तो मंदिर में तुम्हारे नाम का प्रसाद ही...।’

‘वह कार्य तो तुम्हारे बाबा कर चुके।’

‘आखिर बाबा की ही मानी, मैं होती तो कहते मैं इन बातों में विश्वास नहीं रखता।’

बातों-ही-बातों में दोनों घर पहुँच गए। बाबा पहले ही प्रतीक्षा में थे। देखते ही बोले-
‘कब से आरती के लिए राह देख रहा हूँ।’

‘बाबा! दीनू की चाची मिल गई थी और बातों में देर हो गई...।’

‘और राजन तुम खाना खा आए?’

‘जी! अभी सीधा होटल से आ रहा हूँ।’

बाबा और पार्वती ने आरती आरंभ की, राजन को भी विवश हो उनका साथ देना पड़ा। आरती के पश्चात् जब पार्वती बाबा के साथ रसोईघर की ओर गई तो राजन होठों पर जीभ फेरते हुए अपने कमरे में आ लेटा। भूख के मारे पेट पीठ से लगा जा रहा था और पेट में चूहे उछल-कूद कर रहे थे। आज बाबा से झूठ बोला कि वह भोजन कर चुका है।

वह यह सोच ही रहा था कि किवाड़ खुले और पार्वती ने अंदर प्रवेश किया-उसके हाथों में गिलास था।

‘यह क्या?’

‘दूध।’

‘किसलिए?’

‘तुम भूखे हो न।’

‘तुम्हें किसने कहा?’

‘तुम्हारी आँखों ने-तुमने बाबा से झूठ कहा था न!’

‘हाँ पार्वती... और तुम भी तो...।’

‘हाँ राजन आज से पहले मैं कभी झूठ नहीं बोली-न जाने...।’

‘कोई बात नहीं, यौवन के उल्लास में अकसर झूठ बोलना ही पड़ता है।’

‘अच्छा, अच्छा दूध पी लो, मैं चली...।’

‘ठहरो तो-देखो, तुम्हारे लिए मैं कुछ लाया हूँ।’

‘चॉकलेट!’ पार्वती ने प्रसन्नता से हाथ बढ़ाया और कुछ समय तक चुपचाप खड़ी रही, आँखें छलछला आईं।

राजन घबराते हुए बोला, ‘क्यों क्या हुआ?’

‘यूँ ही बाबूजी की याद आ गई-बचपन में वह भी मुझे हर साँझ को कैंटीन से चॉकलेट लाकर दिया करते थे।’

‘ओह...! अच्छा यह आँसू पोंछ डालो और लो...।’

‘परंतु तुमने बेकार पैसे क्यों गँवाए?’

‘एक चवन्नी की तो है।’

‘चवन्नी-चवन्नी से ही तो रुपया बनता है, और हाँ-तुम तो कह रहे थे कि कलकत्ता से एक चीज मँगाई है।’

‘हाँ पार्वती, मिण्टो वायलिन-एक अंग्रेजी साज मुझे बजाने का बहुत शौक है।’

‘और मुझे नृत्य का।’

‘सच! तुम नाच भी सकती हो?’

‘क्यों नहीं, परंतु केवल अपने देवता के सामने।’

‘मनुष्य के लिए नहीं?’

‘नहीं इनमें क्या रखा है?’

‘तो इन बेजान निर्जीव पत्थरों में क्या रखा है?’

‘राजन यह तुम नहीं समझ सकते।’

‘पारो! ओ पार्वती!’ बाबा की आवाज सुनाई दी। वह तुरंत ही भागती हुई कमरे से बाहर चली गई। राजन ने दूध का गिलास उठाया और उसे पीने लगा। पार्वती शायद शक्कर मिलाना भूल गई थी, परंतु राजन के लिए मिठास काफी थी, पार्वती के हाथों ने जो छुआ था।
**,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
दूसरी सायंकाल ठीक पूजा के समय राजन मंदिर की सीढ़ियों पर पहुँच गया। जब तक छुट्टी के पश्चात् वह पार्वती से मिल नहीं लेता, उसे चैन नहीं आता था। वह उससे प्रेम करने लगा था और उसे विश्वास था कि पार्वती भी उसे हृदय से चाहती है।

राजन जब कभी उसे अपना प्रेम जताना चाहता था तो वह पूजा और देवताओं के किस्से ले बैठती। वह जानता था कि वह जो कुछ अनुभव करती है या तो समझती नहीं अथवा स्वयं मुख से कह नहीं सकती।

उसने निश्चय किया, आज कुछ भी हो वह उसके हृदय को टटोलेगा।

वह इन्हीं विचारों में मग्न प्रेम के मधुर स्वप्न देख रहा था कि पायल की रुन-झुन ने उसे चौंका दिया। पार्वती मुस्कुराती हुई सीढ़ियों से उतर रही थी।
तो आज भी उसने राजन को सीढ़ियों पर पाया।

राजन उसे देखते ही बोला-‘नदी किनारे चलोगी?’

‘क्यों?’

‘घूमने।’

‘ऊँ हूँ-देर हो जाएगी।’

‘आज पहली बार कहा है, सोचा था-मना नहीं करोगी।’

‘अच्छा चलती हूँ-परंतु देर...।’

‘वह मैं जानता हूँ, तुम चलो तो।’

दोनों नदी की ओर चल दिए।

राजन बोला-‘एक बात पूछूँ?’

‘क्या?’

‘यह प्रतिदिन पूजा के फूल अपने देवताओं पर चढ़ाती हो, उससे तुम्हें क्या मिलता है?’

‘बहुत कुछ।’

‘फिर भी?’

‘मन की शांति।’

‘क्या तुम्हें विश्वास है, यह फूल देवता स्वीकार कर लेते हैं?’

‘क्यों नहीं, श्रद्धापूर्वक जो कुछ चढ़ाया जाता है, वह स्वीकार्य ही है।’

‘यह सब कहने की बातें हैं-जानती हो इन फूलों का क्या होता है?’

‘क्या?’

‘पत्थर के देवताओं के चरणों में पड़े-पड़े अपने सौंदर्य को खो देते हैं।’

‘परंतु कुछ पाकर।’

‘क्या?’

‘शांति अथवा अंत।’

‘अंत ही कहो-सौंदर्य का अंत...।’

‘तो!’ पार्वती कहती-कहती रुक गई।

राजन कहे जा रहा था-‘इन फूलों की तरह तुम्हारा यौवन सौंदर्य भी समाप्त हो जाएगा, मन मुरझा जाएगा, फिर तुम कहोगी-मेरा मन शांत हो गया।’

‘तो क्या मुझे मुरझाना होगा।’

‘हाँ पार्वती! अगर तुम यूँ ही पत्थर से दिल लगाती रहीं तो एक दिन तुम्हें भी मुरझाना ही होगा। जीवन अर्पित ही करना है तो किसी मानव को ही दो, जो तुम्हें मुरझाने न दे।’

‘तो क्या मनुष्य कभी देवता जैसा हो सकता है?’

‘क्यों नहीं, पुजारी चाहे तो मनुष्य को भी देवता बना सकता है।’

‘तो देवता और मनुष्य में अंतर ही क्या है?’
 
‘मनुष्य समय के ढाँचे में ढलता रहता है, जहाँ उसके हृदय में आग है वहाँ दर्द भी है। आज वह देवता का रूप है तो कल शैतान भी हो सकता है। परंतु तुम्हारे देवता जो कल थे, वही आज भी पत्थर के पत्थर।’

‘तो फिर इंसानों से पत्थर ही भले।’

राजन से जब कोई उत्तर न बन पड़ा तो मौन हो गया। बातों-ही-बातों में दोनों यूँ खो गए कि वे जान भी न पाए कि कब अंधकार छा गया। दोनों चुपचाप जा रहे थे। शीतल पवन पार्वती के बालों से खेल रही थी, वह बार-बार चेहरे पर आ-आकर बिखर जाते थे। वह हर बार अपनी कोमल उंगलियों से उन्हें हटा देती थी। परंतु एक हवा का झोंका था, जो उसे बराबर तंग किए जा रहा था और अंत में पार्वती को ही हार माननी पड़ी। लट उसके चेहरे पर आकर जम गई। राजन ने मुस्कुराते हुए अपने हाथों से हटा दिया और इस तरह पीछे की ओर बिछा दिया कि वायु के लाख यतन करने पर भी वह माथे पर फिर न आई।

‘तुम्हारे हाथों में जादू है।’ पार्वती ने उसकी ओर देखते हुए कहा।

‘हाथों में नहीं, दिल में।’

‘कैसा जादू?’

‘प्रेम का, पार्वती क्या तुम्हारे दिल में भी प्रेम बसता है?’

‘क्यों नहीं? और जिस दिल में प्रेम न हो वह दिल ही क्या?’

‘तो तुम्हें भी किसी-न-किसी से अवश्य प्रेम होगा।’

‘है तो-बाबा से, भगवान से और... और।’

‘और मुझसे?’ राजन पार्वती के समीप होकर बोला।

‘तुमसे।’ कहकर वह काँप गई।

‘हाँ पार्वती! अब मुझसे भेद कैसा। मैं तुम्हारे मुख से यही सुनने को बेचैन था।’ कहते-कहते राजन ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया।

पार्वती काँप रही थी-वह लड़खड़ाती बोली-
‘प्रेम? कैसा प्रेम? राजन यह तुम?’

‘अपने मन की कह रहा हूँ-मेरी आँखों में देखो, इनमें तुम्हें जीवन की एक झलक दिखाई देगी।’

‘राजन मुझे कुछ दिखाई नहीं देता-फिर तुम कहना क्या चाहते हो?’

‘तुम्हारे दिल की कहानी, जो तुम्हारी पुतलियों में लिख गई है, वह मुझे सब कुछ बता रही है।’

पार्वती मौन होकर उसे देखने लगी-राजन उस पर झुकते हुए बोला-
‘देखो-इन दो प्यालों में प्रेम रस छलक रहा है। तुम्हारे हृदय की यह धड़कन बार-बार मेरे कानों में कह रही है कि तुम राजन की हो।’

पार्वती यह सुनते ही चिल्लाई-
‘राजन।’ और वह गाँव की ओर भागने लगी-राजन ने उसे रोकना चाहा, परंतु वह न रुकी-उसने पुकारा भी, पर कोई उत्तर न मिला।

राजन किनारे के एक पत्थर पर बैठ गया और अपने कहे पर विचारने लगा-कहीं पार्वती यह सब अपने बाबा से तो नहीं कह देगी। यदि कह दिया तो वह उन्हें मुँह कैसे दिखाएगा? इसी विचार में डूबा-डूबा आधी रात तक वह वहीं बैठा रहा।

जब वह घर पहुँचा तो हर ओर सन्नाटा छाया हुआ था-सब सो चुके थे। वह धीरे-धीरे अपने कमरे में पहुँचा और चुपचाप अपने बिस्तर पर लेट गया, परंतु नींद न आई।
 
प्रातःकाल जब वह अपने कमरे से बाहर निकला तो आँगन के उस पार बरामदे में पार्वती खड़ी पालतू चकोर को बाजरा खिला रही थी। राजन को देखते ही उसने मुँह फेर लिया, पर राजन धीरे-धीरे बढ़ता हुआ उसके पास आ पहुँचा। पार्वती बिना कुछ सुने मुँह मोड़कर अंदर चली गई। राजन को इस बात पर बहुत क्रोध आया और वह जल्दी-जल्दी पैर उठाता बाहर चला गया। उसने निश्चय किया कि जैसे भी हो आज उसे अलग रहने का प्रबंध करना ही होगा, आखिर कब तक दूसरों के घर रहेगा। कंपनी पहुँचते ही वह मैनेजर से मिला, उसने विश्वास दिलाया कि उसे शीघ्र ही कोई मकान दिला देगा।

सारा दिन वह बेचैन सा रहा। उसे रह-रहकर पार्वती पर क्रोध आ रहा था। आखिर उसने किया ही क्या था, वह उससे बिगड़ गई।

सायंकाल जब वह घर लौटा तो बाबा घर पर न थे। राजन धीरे-धीरे पग रखते हुए अपने कमरे तक पहुँचा। पार्वती अकेली बैठी थी। वह बेचैन दिखाई देती थी। राजन को देखते ही उसने अपनी आँखें झुका लीं।

राजन दबी आवाज में कहने लगा-‘पार्वती! मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे रुष्ट हो और मेरे कारण दुखी भी हो। आज प्रातःकाल ही मैनेजर से मिला हूँ। पूजा की छुट्टियों के पश्चात् मकान मिल जाएगा। लाचारी है, नहीं तो कब का चला गया होता।’

यह सुनकर भी पार्वती मौन रही। जब राजन ने इस पर भी कोई उत्तर न पाया तो नाक सिकोड़ता हुआ बाहर चला गया और मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। आज वह क्रोधाग्नि में जल रहा था।

आज भी प्रतिदिन की तरह मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, देवताओं के पुजारी हाथों में पूजा के पुष्प तथा थालियों में जलते हुए दीप लेकर मंदिर की ओर जा रहे थे, राजन की दृष्टि बार-बार सीढ़ियों पर पड़ती, परंतु पार्वती के पाँव न देख पाता। उसे विश्वास था, वह अवश्य आएगी, क्योंकि राजन उससे रुष्ट है और वह प्रतीक्षा किए जा रहा था।

पार्वती की प्रतीक्षा ही उसकी पूजा थी।

परंतु वह न आई। आज पूजा पर क्यों न आई, यह सोचकर उसके मस्तिष्क में भांति-भांति के विचार आने लगे। कहीं उसे मुझसे घृणा तो नहीं। नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। यह सोचते ही वह बरामदे की ओर बढ़ा और वहाँ से सारे मंदिर की ओर नजर घुमाई, परंतु पार्वती को न देख पाया। मंदिर में पहले से भी अधिक सजावट थी। शायद पूजा की तैयारी हो रही थी। कल से उसकी भी दो दिन की छुट्टियाँ थीं और वह अकेला होगा। आज उसे मंदिर के देवता भी उदास खड़े दिखते थे, मानो वह भी अपनी पुजारिन की प्रतीक्षा में हों।

कल की तरह राजन आज भी घर देरी से लौटा। घर में सब सो चुके थे। वह धीरे-धीरे अपने कमरे तक पहुँचा और चुपचाप अंदर चला गया। प्रकाश होते ही उसने देखा कि सामने बिछावन पर फूल फैले हुए थे।

उसके मुख की आकूति प्रसन्नता में विलीन हो गई। वह बिस्तर के पास गया वहीं फूलों में पड़ा एक पत्र पाया, राजन ने झट से उसे उठा लिया और पढ़ने लगा।

‘आशा करती हूँ तुम मुझे यूँ अकेला छोड़कर न जाओगे।

-पार्वती’
राजन ने पत्र प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया और उसी शैय्या पर लेट गया।

प्रातःकाल पूजा की छुट्टी थी। उसने चाहा कि आज देर तक सोएगा, परंतु बेचैन हृदय को चैन कहाँ, तड़के ही उठ बैठा। बाहर अभी काफी अंधेरा था, आकाश पर सितारे चमक रहे थे। राजन ने थोड़ा किवाड़ खोला और बाहर झांकने लगा। आँगन में ठाकुर बाबा खड़े शायद कहीं जाने की तैयारी में थे। आज पूजा के दिन वह मुँह अंधेरे ही नदी नहाने जा रहे थे। रामू भी उनके साथ था।

जब दोनों बाहर चले गए तो राजन शीघ्रता से बाहर आ गया और ड्यौढ़ी के किवाड़ खोल अंदर देखने लगा। दोनों शीघ्रता से नदी की ओर बढ़े जा रहे थे, जब वे काफी दूर निकल गए तो राजन ने ठंडी साँस ली और दबे पाँव पार्वती के कमरे में पहुँचा।

किवाड़ खुले पड़े थे और पार्वती संसार से बेखबर मीठी नींद सो रही थी। राजन चुपके से उसके बिस्तर के समीप जा रुका।

प्रातःकाल की शीतल वायु खिड़की से आ-आकर पार्वती के बालों से खिलवाड़ कर रही थी। आज भी उस दिन की तरह उसकी लटें उसके माथे पर आ रही थीं। राजन से न रहा गया और लट सुलझाने लगा। माथे पर उंगलियों का छूना था कि पार्वती चौंक उठी। राजन को अपने समीप देखकर घबरा-सी गई तथा लपक कर पास रखी ओढ़नी गले में डाल ली।

‘शायद तुम डर गईं?’ राजन ने उसे घबराए हुए देखकर कहा।

‘नहीं तो... परंतु।’

‘बात यह हुई कि आज नींद समय से पहले खुल गई। सोचा बाबा कथा कर रहे होंगे चलकर दो घड़ी उनके पास हो आऊँ, परंतु वे चले गए।’

‘नदी स्नान को गए होंगे। पूजा का त्यौहार है। हाँ तुम्हें आज कथा की क्या सूझी?’

‘समय बदल रहा है, लोग देवताओं को छोड़ इंसानों पर फूल चढ़ाने लगे हैं, तो मैंने सोचा आज मैं भी जरा देवताओं की लीला सुन लूँ।’

पार्वती लजा कर बोली-‘कहीं सुनते-सुनते देवता बन बैठे तो?’

‘तो क्या? फूल चढ़ाने तो प्रतिदिन आया करोगी।’

‘न बाबा, मेरे फूल मुरझाने के लिए नहीं, यह तो उसे भेंट होंगे जो मुरझाने न दे।’

‘कोई ग्रहण करने वाला मिला भी?’

‘ऊँ हूँ।’

‘पार्वती! आज रात न जाने कोई भूले से मेरे बिछावन पर फूल रख गया। पहले तो मैं देखते ही असमंजस में पड़ गया।’

‘सो क्यों?’

‘यूँ लगता था मानो मुझे डाँट रहे हों परंतु जब मैं उनके समीप गया तो जानती हो उन्होंने क्या कहा।’

‘यही कि इतनी देर से क्यों लौटे?’

‘नहीं... पहले तो वह मुस्कराए और फिर बोले-राजन! हमें यूँ अकेला छोड़कर न जाना।’

‘चलो हटो!’ पार्वती ने लजाते हुए उत्तर दिया और उठकर बाहर जाने लगी। राजन रोकते हुए बोला-
‘जानती हो, लिखने वाले को लेखनी न मिली तो कोयले की कालिमा से ही लिख दिया।’

‘अच्छा आपकी दृष्टि वास्तविकता को न पहचान सकी।’

‘तो क्या?’

‘हाँ वह कालिमा न थी, बल्कि किसी के नेत्रों से निकला काजल था।’

राजन ने बात बदलते हुए पूछा-‘नदी स्नान करने चलोगी?’

‘तुम्हारे संग!’ इतना कहकर जोर-जोर से हँसने लगी।

‘इसमें हँसने की क्या बात है? यानि हम दोनों नहीं जा सकते तो जाओ अकेली।’

‘ऊँ हूँ।’

‘अकेली भी नहीं, किसी के साथ भी नहीं, क्या अनोखी पहेली है।’

‘नहीं, नहीं मुझे जाना ही नहीं।’

‘अरे आज तो पूजा है।’
 
Back
Top